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बुधवार, 20 जुलाई 2016

doha

दोहा मुक्तिका

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भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह 

उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह 
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हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह

मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह 
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करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह

गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
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सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह  

अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
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उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह  

व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
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एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह

जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
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नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
एक दोहा-
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह

गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
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