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रविवार, 16 नवंबर 2025

नवंबर १५, नर्मदा, भूमि सूक्त, भू तकनीकी, गिरिमोहन गुरु, नवगीत, सुनो शहरियों, ईशावास्योपनिषद

सलिल सृजन नवंबर १५
*
नेह-नर्मदा
*
नेह-नर्मदा रोज नहाया करती थी
घाट-नाव संबंध निभाया करती थी
वेणु मौन की दूर बजाया करती थी
प्यास रूह की नित्य बुझाया करती थी
हारे हुए हौसलों को दिन में भी वो
ख्वाब फतह के लाख दिखाया करती थी
नानक की बानी, कबीर की साखी औ'
विद्यापति के गीत सुनाया करती थी
मैं 'मावस के अँधियारे से डरता था
दीवाली वह विहँस मनाया करती थी
ठोस जमीं में जमा जड़ें वह बाँहों में
आसमान भर सुबह उगाया करती थी
कौन किसी का कभी हुआ है दुनिया में
वो कड़वा सच बता, बचाया करती थी
प्रीत अछूती पुरवैया के झोंके सी
आँचल में भर विजन डुलाया करती थी
देह विदेह अगेह सनेह सुवासित सी
चंदन चर्चित चित्त चुराया करती थी
मैं अमरीका रूस चीन की कोशिश सा
वो इसरो झण्डा फहराया करती थी
पलक उठे तो ऊषा; झुके पलक संध्या
पलक गिरा वह रात बुलाया करती थी
खन-खन ले कंगन में, छम-छम पैजन में
छलिया का छल विहँस; भुलाया करती थी
था बेदर-दीवार फलक, दुनिया सूनी
उम्मीदों की फसल उगाया करती थी
कमसिन थी लेकिन वो बहुत सयानी थी
भटकों को मंजिल दिखलाया करती थी
चैन मिले बेचैन बहुत वो हो जाती
बेचैनी झट गले लगाया करती थी
सँग 'सलिल' के आज नहीं तो कल होगी
सोच कीच से कमल खिलाया करती थी
१५.११.२०२४
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शोध लेख
भूमि सूक्त और भू तकनीकी
संजीव वर्मा सलिल'
युवा पीढ़ी ही नहीं अधिकांश वरिष्ठ अभियंता और भूतकनीकीविद् भी इस मिथ्या धारणा के शिकार हैं कि यह विधा/विषय पाश्चात्य जगत की देन है। भारत में वैदिक काल के बहुत पहले से भू अर्थात धरती तथा नदियों को माता और जल, वायु, अग्नि आदि प्रकृति उपादानों को देवता तथा आकाश को पिता कहा गया है। यह संबंध स्थापीर करने का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि इन प्रकृतिं उपादानों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए किंतु दोहन या शोषण न किया जाए, न ही उन्हें मलिन किया जाए। इस दृष्टि को खो देने के कारण अनेक विसंगतियों तथा समस्याओं ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि मानवता और जीवन के समाप्त होने का संकट मुंह बाए है। विडंबना यह कि तथाकथित उन्नत राष्ट्र भारत से प्रकृति को माता मान कर उसके साथ रहने की कला सीखने के स्थान पर चन्द्रमा और मंगल पर बसने के दिवा स्वप्न देख रहे हैं।
इस आलेख में पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी के प्रति व्यक्त की गई मांगलिक भावनाओं का संकेत है। हर संरचना (स्ट्रक्चर) को वस्तु मानकर उसमें दैवी शक्ति का दर्शन कर उसके माध्यम से मानव सकल सृष्टि के कल्याण की दिव्य कामना करता भारतीय अभियांत्रिकी विज्ञान (वास्तु शास्त्र) भी भू तकनीकी के विषयों का प्रकृति के साथ तालमेल बैठा कर अध्ययन करता है।
आधुनिक प्रगत प्रौद्यौगिकी के अंधाधुंध उपयोग के कारण ज़िंदगी में जहर घोलता इलेक्ट्रॉनिक कचरा भू वैज्ञानिकों और बहुतकनीकीविदों की चिंता का विषय है। इस कचरे तथा प्लास्टिक पदार्थों के पुनर्चक्रीकरण (रिसायकलिंग) तथा निष्पादन (डिस्पोजल) पर चर्चा करते हुए लेख का समापन किया गया है। लेख का उद्देश्य नव अभियंताओं में स्वस्थ दृष्टि तथा चिंतन का विकास करना है ताकि वे परियोजनाओं को क्रियान्वित करते समय इन खतरों के प्रति सजग रहें।
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[लेखक- संजीव वर्मा 'सलिल', डिप्लोमा सिविल, बी.ई, सिविल,एम्.आई.ई., एम्.आई.जी.एस., एम्.ए. (दर्शन शास्त्र, अर्थ शास्त्र), एल-एल.बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, से.नि. संभागीय परियोजना अभियंता, मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग। पूर्व महामंत्री इंजीनियर्स फोरम (भारत), अध्यक्ष आईजीएस जबलपुर चैप्टर। संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर। प्रख्यात कवि, कहानीकार, संपादक, समीक्षक, छन्दशास्त्री, समाजसेवी। अधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश। १२ पुस्तकें प्रकाशित। २०० से अधिक पुरस्कार व सम्मान।
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
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उपनिषद का शब्द कोशीय अर्थ है समीप बैठना, गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना, भिन्नार्थ ईश्वर के समीप होकर सत्य और ब्रह्म की प्रतीति करना। उपनिषद वेदांत का सार (निचोड़) है।
ईशावास्योपनिषद
उपनिषद श्रृंखला में प्रथम स्थान प्राप्त 'ईशावास्योपनिषद' शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। केवल १८ मंत्रों में ईश्वर के गुणों का वर्णन तथा अधर्म त्याग का उपदेश है। इस उपनिषद का प्रयोजन ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्ति है। इसमें सभी कालों में सत्कार्म करने पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में है। सभी प्राणियों में आत्मा को परमात्मा का अंश जानकर अहिंसा की शिक्षा दी गयी है। 'कण-कण में भगवान' अथवा 'कंकर कंकर में शंकर' का लोक-सत्य इस उपनिषद में अन्तर्निहित है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख ईशावास्योपनिषद में है। इस उपनिषद के आरंभ में प्रयुक्त 'ईशावास्यमिदं सर्वम्‌' पद के कारण यह 'ईशोपनिषद' अथवा 'ईशावास्योपनिषद' के नाम से विख्यात है।
शांतिपाठ
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ पूर्ण है वह; पूर्ण है यह, पूर्ण से उत्पन्न पूर्ण।
पूर्ण में से पूर्ण को यदि निकालें, पूर्ण तब भी शेष रहता।।
प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत् को ईश्वर का आवास कहा गया है। 'यह किसका धन है?' प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है। यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-
ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥१॥
ईश समझना हमें चाहिए, उसे दिखे जो कुछ इस जग में।
नाम रूप तज दें प्रपंच सब, मत चाहें; किसका होता धन॥१॥
*
यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥
करते हुए कर्म इस जग में, जीना चाहो सौ वर्षों तक।
जिओ कर्म करते इस जग में, किंतु न होना लिप्त कर्म में॥२॥
*
असूर्या नाम के लोक अज्ञान से अंधा बना देनेवाले तिमिर से आवृत्त हैं। अपने यथार्थ रूप को न जाननेवाले मरणोपरांत उन लोकों में जाते हैं।
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्मनो जना:।।३।।
हैं जो लोक असूर्य नाम के, घिरे हुए हैं अंधक तम से।
मरकर जाते वहीं वही जो, निज स्वरूप को जान न पाते।।३।।
*
जीव मन से अच्युत स्वरूप (स्थिर); एक और अगम्य है। इसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ नहीं पा सकतीं चूँकि यह मन से भी अधिक गतिशील है। आप निष्क्रिय रहते हुए भी अन्य का अतिक्रमण कर पाता है। वः नित्य चैतन्य आत्मतत्व ही वायु आदि देवों को जीवों की क्रियाशीलता हेतु प्रवृत्त करता है।
अनेजदेकं मनसो जैवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो S न्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।।४।।
वही तत्व अच्युत अगम्य है, परे इन्द्रियों से; मन से भी।
दौड़े आगे अन्य सभी के, अचल वायु को गति-प्रवृत्त कर।।४।।
*
वह आत्मा ही सोपधिक अवस्था में सक्रिय और निरुपाधिक अवस्था में निष्क्रिय होता है। वह दूर भी है और निकट भी वही है। वह अंदर भी है और बाहर भी वही है।
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्विंतके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।।५।।
वह सक्रिय; निष्क्रिय भी है वह, दूर निकट जो भी है वह है।
वह ही अन्दर जो कुछ भी है, और वही जो कुछ बाहर है।।५।।
*
जो सब भूतों को अपने में ही देखता है और अपने आपको सब भूतों में देखता है, उसके अन्तर्मन में किसी के प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होती।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानु पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजिगुप्सते।।६।।
देख रहा जो सब भूतों को, खुद के अंदर भिन्न न जाने।
देखे खुद को सब भूतों में, कभी किसी से घृणा न करता।।६।।
*
जब सभी भूत तत्वज्ञ की दृष्टि में आत्मवत हो गए तब एकत्व अनुभव करनेवाले के लिए कौन सा मोह; कौन सा शोक रह गया?
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभू िद्वजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक: एकत्वमनुपश्यते।।७।।
जो समस्त भूतों को जाने, आत्मरूप; हो गैर न कोई।
उसे मोह क्या?; उसे शोक क्या?, वह एकत्व देखता सबमें।।७।।
*
वह आत्मतत्व आकाश के समान व्यापी, शुक्र व कायारहित, अक्षत, स्थूल शरीररहित शुद्ध तथा पापहीन है। वह क्रांतदर्शी मनीषी सर्वनियन्ता स्वयं उत्पन्न होनेवाला है। उसी ने यथोचित कार्यों के लिए सब पदार्थों का निर्माण किया है।
स पर्यागाच्छुक्रमकायमव्रणस्नाविरं शुद्धपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोsर्थान्य व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।८।।
नभ सम व्याप्त, न शुक्र-लिंग-व्रण, तन बिन शुद्ध अपापी है वह।
कवि मनीषि वह सर्वनियंता, प्रगटे आप रचे सबको वह।।८।।
*
अविद्या की उपासना करनेवाले घोर तम में घिर जाते हैं और उससे भी अधिक घने अँधेरे में वे घिरते हैं जो कर्म तजकर केवल विद्या की उपासना में रत रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति, येsविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।९।।
अंधा करते तम में घिरते, करें अविद्याजनित कर्म जो।
उससे अधिक तम में घिरते वे, जो बिन कर्म लीन विद्या में।।९।।
*
अविद्यात्मक कर्मों के अनुष्ठान से दूसरा ही फल मिलता है, ऐसा धीर जनों से हमने सुना है जिन्होंने कर्म और ज्ञान का व्याख्यान किया है।
अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१०।।
कर्म अविद्या-विद्या मय जो, उनका फल कुछ अन्य बताया।
सुना धीर पुरुषों से हमने, जिनने वह व्याख्यान किया है।।१०।।
*
विद्या और अविद्या दोनों को जो एक ही पुरुष द्वारा अनुष्ठेय समझता है, वह अविद्या के अनुष्ठान से मृत्यु का अतिक्रमण कर बाद में विद्या के प्रभाव से अमर हो जाता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।११।।
विद्या और अविद्या दोनों, एक पुरुष कृत जो समझे वह।
जीते मृत्यु अविद्या से फिर, होता अमर आत्म विद्या से।।११।।
*
अँधा बना देनेवाले सघन तम में प्रवेश कर जड़ हो जाते हैं वे जो सर्वव्यापी एकात्मभाव को भूलकर जो प्रकृति की उपासना करते हैं और उससे भी अधिक तम से घिर जाते हैं वे जो हिरण्यगर्भ नामक कार्यब्रह्म में ही रहते हैं।
अन्धं तम: प्रविशंति येsसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यांरता:।।१२।।
अंधक तम घुस जड़ होते वे, जो प्रकृति को उपासते हैं।
और सघन तम घिर जड़ होते, वे जो कार्यब्रह्म में रहते।।१२।।
*
संभव (कार्यब्रह्म) और असंभव (अव्याकृत प्रकृति) की अलग-अलग उपासना का फल, दोनों के समुच्चयित पूजन के फल से भिन्न है, ऐसा हमने धीर पुरुषों से सुना है जिन्होंने इस तत्व का साक्षात्कार किया है।
अन्य देवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसंभवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।१३।।
संभव और असंभव पूजन, अलग करें फल अलग मिलें तब।
ब्रह्म-प्रकृति सह पूजन का फल, भिन्न सुना है धीर जनों से।।१३।।
*
जो यह समझता है कि संभूति और विनाश इन दोनों का साथ ही साथ एक ही व्यक्ति के द्वारा अनुष्ठान होना चाहिए, वह विनाश से मृत्यु को पार कर, असंभूति से अमृतत्व पाता है।
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्वा संभूत्यामृतमश्नुते।।१४।।ईजटख
ब्रह्म-प्रकृति की सह उपासना, अनुष्ठेय होता जिसको वह।
करता पार विनाश-मृत्यु को, और अमृत को पा लेता है।।१४।।
*
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है। परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥
कनक पात्र से ढका सत्य मुख, तुम दो हटा आवरण उसका।
सब का पालन करनेवाले, हे प्रभु! सत्य-धर्म पालूँ मैं॥१५॥
सकल जगत का पोषण करने और अकेले चलनेवाले हे पूषा!, यम!, सूर्य! तथा प्रजापति पुत्र! तुम अपने किरण जाल को दूर करो ताकि मैं तुम्हारा सर्व कल्याणकारी देख सकूँ, जो हर प्राणी में तथा मुझमें भी भासमान है।
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योsसावसौ पुरुष: सोsहमस्मि॥१६॥
जगपोषक पूषा एकाकी, यम रवि प्रजापति सुत किरणें।
लो समेट, छवि कल्याणी मैं, देख सकूँ जो सबमें-मुझमें॥१६॥
प्राण वायु, सकल सृष्टि में व्याप्त वायु में विलीन हो जाए, अंत में शरीर भस्म हो जाए, मन जीवन में जो कुछ किया उसे स्मरण कर, स्मरण करने योग्य परम ब्रह्म को स्मरण करे।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरं।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥१७॥
प्राण वायु सर्वात्म वायु में, हो विलीन;हो भस्म देह यह।
याद ब्रह्म को; निज कर्मों को,करो याद जो याद-योग्य हो॥१७॥
हे अग्नि देव! अच्छी राह से हमें ले चलो। तुम सब कर्मों को जानते हो। हमसे पाप कर्मों को दूर करो। हम तुम्हें बार बार नमन करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राये असमान्, विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥१८॥
अग्नि! ले चलो सुपथ पर मुझे, कर्म-ज्ञान-फल ज्ञाता हो तुम।
दूर करो मुझसे पापों को, बार-बार मैं नमन कर रहा॥१८॥
।। इति श्री भगवत्पूज्यपाद के शिष्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री शंकर भगवत रचित वाजपेई संहिता उपनिषद (काव्यानुवाद आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल') टीका पूर्ण ।।
१५.११.२०२१
***
नवगीत
सुनो शहरियों!
*
सुनो शहरियों!
पिघल ग्लेशियर
सागर का जल उठा रहे हैं
जल्दी भागो।
माया नगरी नहीं टिकेगी
विनाश लीला नहीं रुकेगी
कोशिश पार्थ पराजित होगा
श्वास गोपिका पुन: लुटेगी
बुनो शहरियों !
अब मत सपने
खुद से खुद ही ठगा रहे हो
मत अनुरागो
संबंधों के लाक्षागृह में
कब तक खैर मनाओगे रे!
प्रतिबंधों का, अनुबंधों का
कैसे क़र्ज़ चुकाओगे रे!
उठो शहरियों !
बेढब नपने
बना-बना निज श्वास घोंटते
यह लत त्यागो
साँपिन छिप निज बच्चे सेती
झाड़ी हो या पत्थर-रेती
खेत हो रहे खेत सिसकते
इमारतों की होती खेती
धुनो शहरियों !
खुद अपना सिर
निज ख्वाबों का खून करो
सोओ, मत जागो
१५-११-२०१९
***
कृति चर्चा -
'अपने शब्द गढ़ो' तब जीवन ग्रन्थ पढ़ो
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - अपने शब्द गढ़ो, गीत-नवगीत संग्रह, डॉ. अशोक अज्ञानी, प्रथम संस्करण २०१९, आईएसबीएन ९७८-८१-९२२९४४-०-७, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३८, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - न्यू आस्था प्रकाशन, लखनऊ। गीतकार संपर्क - सी ३८८७ राजाजीपुरम, लखनऊ १७, चलभाष ९४५४०८२१८१। ]
*
संवेदनाओं को अनुभव कर, अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला और विज्ञान जानकर प्रयोग करने ने ही मनुष्य को अन्य जीवों की तुलना में अधिक उन्नत और मानवीय सभ्यता को अधिक समृद्ध किया है। सभ्यता और संस्कृति के उन्नयन में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य वह विधा है जिसमें सबका हित समाहित होता है। जब साहित्य किसी वर्ग विशेष या विचारधारा विशेष के हित को लक्ष्यकर रचा जाता है तब वह अकाल काल कवलित होने लगता है। इतिहास साक्षी है कि ऐसा साहित्य खुद ही नष्ट नहीं होता, जिस सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा होता है उसके पराभव का कारण भी बनता है। विविध पंथों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक दलों का उत्थान तभी तक होता है जब तक वे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को लक्ष्य मानते हैं। जैसे ही वे व्यक्ति या वर्ग के हित को साध्य मानने लगते हैं, नष्ट होने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाते है। इस सनातन सत्य का सम-सामयिक उदाहरण हिंदी साहित्य में प्रगतिशील कविता का उद्भव और पराभव है।
मानवीय अनुभूतियों की अभिव्यक्ति गद्य की तुलना में पद्य अधिक सहजता, सरलता और सरसता से कर पाता है। प्रकृति पुत्र मानव ने कलकल, कलरव, नाद, गर्जन आदि ध्वनियों का श्रवण और उनके प्रभावों का आकलन कर उन्हें स्मृति में संचित किया। समान परिस्थितियों में समान ध्वनियों का उच्चारण कर, साथियों को सजग-सचेत करने की क्रिया ने वाचिक साहित्य तथा अंकन ने लिखित साहित्य परंपरा को जन्म दिया जो भाषा, व्याकरण और पिंगल से समृद्ध होकर वर्तमान स्वरूप ग्रहण कर सकी। गीति साहित्य केंद्र में एक विचार को रखकर मुखड़े और अंतरे के क्रमिक प्रयोग के विविध प्रयोग करते हुए वर्तमान में गीत-नवगीत के माध्यम से जनानुभूतियों को जन-जन तक पहुँचा रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी में शोधोपाधि प्राप्त, शिक्षा जगत से जुड़े और वर्मन में प्राचार्य के रूप में कार्यरत डॉ. अशोक अज्ञानी के गीत-नवगीत संग्रह 'अपने शब्द गढ़ो' का पारायण एक सुखद अनुभव है। संकलन का शीर्षक ही रचनाकार और रचनाओं के उद्देश्य का संकेत करता है कि 'हुए' का अंधानुकरण न कर 'होना चाहिए' की दिशा में रचना कर्म को बढ़ना होगा। पुरातनता की आधारशिला पर नवीनता का भवन निर्मित किये बिना विकास नहीं होता। 'गीत' नवता का वरण कर जब 'नवगीत' का बाना धारण करता है तो समय के साथ उसे परिवर्तित भी करता रहता है। यह परिवर्तन कथ्य और शिल्प दोनों में होता है। अशोक जी दोनों आयामों में परिवर्तन के पक्षधर होते हुए भी 'कल' को नष्ट कर 'कल' बनाने की नासमझी से दूर रहकर 'कल' के साथ समायोजन कर 'कल' का निर्माण कर 'कल' प्राप्ति को साहित्य का लक्ष्य मानते हैं, वे मानव के 'कल' बनने के खतरे से चिंतित हैं। इन नवगीतों में यह चिंता यत्र-तत्र अन्तर्निहित है। 'सत्य की समीक्षा में' गीतकार कहता है-
झूठे का सर ऊँचा / कितने दिन रह पाया।
पुष्प कंटकों के ही / मध्य सदा मुस्काया।
प्रातिभ ही करते हैं / प्रतिभा का अभिनंदन
खुशियाँ है हड़ताली / निश्चित किरदार नहीं।
सामाजिक मंचों को / समता स्वीकार नहीं।
विकट परिस्थितियों का प्रक्षालन।
नवगीत को जन्म के तुरंत बाद से है 'वैचारिक प्रतिबद्धता' के असुर से जूझना पड़ रहा है। सतत तक न पहुँच सका साम्यवादी विचारधारा समर्थक वर्ग पहले कविता और फिर नवगीत के माध्यम से विसंगतियों के अतिरेकी चित्रण द्वारा जनअसंतोष को भड़काने का असफल प्रयास करता रहा है। अशोक जी संकेतों में कहते हैं- 'इस नदी में नीर कम / कीचड़ बहुत है।' वे चेताते हुए कहते हैं-
स्वार्थ के पन्ने पलटकर देख लेना
शीर्षक हरदम रहे है हाशिये पर।
पंथ पर दिनमान उसको मिले, जिसने
कर लिया विश्वास माटी के दिए पर...
... द्वन्द के पूजाघरों में मत भटकना
पूजने को एक ही कंकर बहुत है।
द्वन्द वाद के प्रणेताओं को अशोक जी का संदेश बहुत स्पष्ट है-
इस डगर से उस डगर तक / गाँव से लेकर शहर तक
छक रहे हैं लोग जी भरकर / चल रहे हैं प्यार के लंगर
आस्था की पूड़ियाँ हैं, रायता विश्वास का है।
ख्वाब सारे हैं पुलावी और गहि एहसास का है।
कामनाओं का है छोला, भावनाओं की मिठाई।
प्रेम के है प्लेट जिस पर कपट की कुछ है खटाई।
अशोक जी के नवगीतों में उनका 'शिक्षक' सामने न होकर भी अपना काम करता है। 'तनो बंधु' में कवि समाज को राह दिखाता है-
वीणा के सुर मधुरिम होंगे / तुम तारों सा तो तनो बंधु!
ज्ञापन-विज्ञापन का युग है / नूतन उद्घाटन का युग है
हर और खड़े हैं यक्ष प्रश्न / सच के सत्यापन का युग है
जनहित में जारी होने से पहले / खुद के तो बनो बंधु!
शिक्षक की दृष्टि समष्टिपरक होती है, वह एक विद्यार्थी को नहीं पूरी कक्षा को अध्ययन कराता है। यह समष्टिपरक चिंतन अशोक जी के नवगीतों में सर्वत्र व्याप्त है. वे श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'कर्मवाद' को अपने नवगीत में पिरोते हैं-
मन किसान जब लड़ा अकाल से / अकाल से
क्यारियाँ सँवर गयीं, कर्म की कुदाल से
फ़र्ज़ का न फावड़ा डरा / खेत हो गया हरा-भरा
विसंगतियों के अतिरेकी-छद्म चित्रण के खतरे के प्रति सजग अशोक जी इस विडंबना को बखूबी पहचानकर उसको चिन्हित करते हैं-
दोष दृश्य में है अथवा खुद दोष दृष्टि का है
गर्मी का मौसम, मौसम लग रहा वृष्टि का है
अर्थ देखकर अर्थ बदल डाले हैं शब्दों ने
विघटन लिए हुए यह कैसा सृजन सृष्टि का है
रोते हैं कामवर, नामवर मौज उड़ाते हैं
पोखर को सागर, सागर को पोखर कहते हैं
अशोक जी छंद को नवगीत का अपरिहार्य तत्व मानते हैं। साक्षी उनके नवगीत हैं। वे किसी छंद विशेष में गीत न रचकर, मात्रिक छंदों की जाती के विविध छंदों का प्रयोग विविध पंक्तियों में करते हैं। इससे कल बाँट भिन्न होने पर भी गीतों में छंद भंग नहीं होता। गीतकार समस्याओं का सम्यक समाधान निकलने का पक्षधर है-
समाधान कब निकल सके हैं / विधि-विधान उलझाने से
सीमित संसाधन हैं फिर भी / छोटा सही निदान लिखें
वह अतीतजीवी भी नहीं है-
आखिर कब तक धनिया-होरी / के किस्से दोहरायेंगे
कलम कह रही वर्तमान का / कोई नव गोदान लिखें।
फ़ारसी अशआर की तरह अशोक जी के नवगीतों के मुखड़े अपना मुहावरा आप बनाते हैं। उन्हें गीत से अलग स्वतंत्र रूप से भी पढ़कर अर्थ ग्रहण किया जा -
किसी परिधि में जिसे बाँधना / संभव नहीं हुआ
उस उन्मुक्त प्रेम को ढाई / अक्षर कहते लोग।
खुली खिड़कियाँ, खुले झरोखे / खुले हैं दरवाज़े
आम आदमी की किस्मत का / ताला नहीं खुला
आ गए जब से किलोमीटर / खो गए हैं मील पत्थर
अनुप्रास, उपमा, रूपक, विरोधाभास, यमक आदि अलंकारों का यथास्थान उपयोग इन नवगीतों को समृद्ध करता है। मौलिक बिम्ब, प्रतीक यत्र-तत्र शोभित हैं। अशोक जी के नवगीतों का वैशिष्ट्य उनकी लयात्मक कहन है-
उनसे बोलो / पर इतना सच है
अपनी बोली-बानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
बँधी पांडुलिपियाँ हों जैसे / फटही गठरी में
वैसे पड़ी हुई हैं दादी / गिरही कोठरी में
वैसे ही बेकार हो गयी / दादा की काठी
घर के कोने पड़ी हुई हो / ज्यों टुटही लाठी
सुनो-ना सुनो, गुनो-ना गुनो / मन की मर्जी है
किस्सा और कहानी जैसे / घर के बूढ़े लोग
'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' नवगीत संग्रहों में मैंने लोकगीतों छंदो के आधार पर नवगीत कहे हैं। अशोक जी भी इसी राह के राही हैं। वे लोकोक्तियों और मुहावरों को कच्ची मिट्टी की तरह उपयोग कर अपने गीतों में ढाल लेते हैं। लोकमंच का कालजयी खेल 'कठपुतली' अशोक जी के लिए मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज बन जाता है -
बीत गए दिन लालटेन के / रहा न नौ मन तेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
नेता बन बैठा दलगंजन / जमा रहा है धाक
गाजर खां ने भी दे डाली / हमको तीन तलाक
गौरैया सा जीवन अपना / सबके हाथ गुलेल
आखिर कब तक खेलेंगे हम / कठपुतली का खेल
शिव प्रसाद लाल जी ने ठीक ही आकलन किया है कि अशोक जी की काव्य प्रतिभा शास्त्रों की परिचारिका नहीं, खेत-खलिहानों से होकर निकली है। अशोक जी अपने गीतों में प्रयुक्त भाषा के शाहकार हैं। 'रट्टू तोता बहुत बने / अब अपने गढ़ो, शोध की इतिश्री नहीं करना / कुछ अभी संदर्भ छूटे हैं, तुम हमारे गाँव आकर क्या करोगे? / अब अहल्या सी शिलायें भी नहीं हैं, प्यार की छिछली नदी में मत उतरना / इस नदी में नीर कम कीचड़ बहुत है' जैसी पंक्तियाँ पाठक की जुबान पर चढ़ने का माद्दा रखती हैं।
'अनपढ़ रामकली' अशोक जी की पहचान स्थापित करनेवाला नवगीत है-
रूप-राशि की हुई अचानक / चर्चा गली-गली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
चाँदी लुढ़की, सोना लुढ़का / लुढ़क गया बाज़ार
रामकली की एक अदा पर / उछल पड़ा व्यापार
एकाएक बन गयी काजू / घर की मूँगफली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
धरम भूलने लगीं कंठियाँ / गये जनेऊ टूट
पान लिए मुस्कान मिली तो / मची प्रेम की लूट
ऊँची दूकानों को छोटी / गुमटी बहुत खली
जिस दिन से गयी आधुनिक / अनपढ़ रामकली
नवगीतों के कथ्याधारित विविध प्रकार इस संकलन में देखे जा सकते हैं। लक्षणा, व्यंजना तथा अमिधा तीनों अशोक जी के द्वारा यथास्थान प्रयोग की गयी हैं। 'अपने शब्द गढ़ो' का रचयिता गीत-नवगीत को भारत-पाकिस्तान नहीं, गंगा-जमुना मानता है। इन नवगीतों में पाठक के मन तक पहुँचने की काबलियत है।
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
चलभाष - ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
१५.११.२०१९
***
गीत
*
जो चाहेंगे
वह कर लेंगे
छू लेंगे
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
शब्द
निशब्द
देख तितली को
भरते नित्य उड़ान।
रुकें
चुकें झट
क्यों न जूझते
मुश्किल से इंसान?
घेर
भले लें
शशि को बादल
उड़ जाएँगे हार।
चटक
चाँदनी
फैला भू पर
दे धरती उजियार।
करे सलिल को
रजताभित मिल
बिछुड़ न जाए काश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
*
दर्द
न व्यापे
हृदय न कांपे
छू ले नया वितान।
मोह
न रोके
द्रोह न झोंके
भट्टी में ईमान।
हो
सच व्यक्त
ज़िंदगी का हर
जयी तभी हो गीत।
हर्ष
प्रीत
उल्लास बिना
मर जाएगा नवगीत।
भूल विसंगति
सुना सुसंगति
जीवित हो तब लाश।
कदम रोक ले
नहीं कहीं भी
कोई ऐसा पाश।
१४-११-२०१९
***
गीत
'बादलों की कूचियों पर'
*
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
भूमि बीज जड़ पींड़ पर
छंद कहो डालियों पर
झूम रही टहनियों पर
नाच रही पत्तियों पर
मंत्रमुग्ध कलियों पर
क्यारियों-मालियों पर
गीत रचो बिजलियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
श्वेत-श्याम रंग मिले
लाल-नील-पीत खिले
रंग मिलते हैं गले
भोर हो या साँझ ढले
बरखा भिगा दे भले
सर्दियों में हाड़ गले
गर्मियों में गात जले
ख्वाब नयनों में पले
लट्टुओं की फिरकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
*
अब न नफरत हो कहीं
हो अदावत भी नहीं
श्रम का शोषण भी नहीं
लोभ-लालच भी नहीं
रहे बरकत ही यहीं
हो सखावत ही यहीं
प्रेम-पोषण ही यहीं
हो लगावट ही यहीं
ज़िंदगी की झलकियों पर
बादलों की कूचियों पर
गीत रचो पंछियों पर
***
गीत
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
द्वैत तज अद्वैत रसनिधि वरण कर ले
तार दे मुझको शुभांगी आप तर ले
१५.११.२०१७
***
कृति चर्चा:
गिरिमोहन गुरु के नवगीत : बनाते निज लीक-नवरीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: गिरिमोहन गुरु के नवगीत, नवगीत संग्रह, गिरिमोहन गुरु, संवत २०६६, पृष्ठ ८८, १००/-, आकर डिमाई, आवरण पेपरबैक दोरंगी, मध्य प्रदेश तुलसी अकादमी ५० महाबली नगर, कोलार मार्ग, भोपाल, गीतकार संपर्क:शिव संकल्प साहित्य परिषद्, गृह निर्माण कोलोनी होशंगाबाद ]
*
विवेच्य कृति नर्मदांचल के वरिष्ठ साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के ६७ नवगीतों का सुवासित गीतगुच्छ है जिसमें से कुछ गीत पूर्व में 'मुझे नर्मदा कहो' शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं। इन गीतों का चयन श्री रामकृष्ण दीक्षित तथा श्री गिरिवर गिरि 'निर्मोही' ने किया है। नवगीत प्रवर्तकों में से एक डॉ. शंभुनाथ सिंह, नवगीत पुरोधा डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' आदि ९ हस्ताक्षरों की संस्तुति सज्जित यह संकलन गुरु जी के अवदान को प्रतिनिधित्व करता है। डॉ. दया कृष्ण विजयवर्गीय के अनुसार इन नवगीतों में 'शब्द की प्रच्छन्न ऊर्जा को कल्पना के विस्तृत नीलाकाश में उड़ाने की जो छान्दसिक अबाध गति है, वह गुरूजी को नवगीत का सशक्त हस्ताक्षर बना देती है।
डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत के वर्ण्य विषयों में धर्म-आध्यात्म-दर्शन, प्रेम-श्रृंगार तथा प्रकृति चित्रण की वर्जना की थी। उन्होंने युगबोधजनित भावभूमि तथा सर्वत्र एक सी टीस जगानेवाले पारंपरिक छंद-विधान को नवगीत हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया। महाप्राण निराला द्वारा 'नव गति, नव ले, ताल-छंद नव' के आव्हान के अगले कदम के रूप में यह तर्क सम्मत भी था किन्तु किसी विधा को आरम्भ से ही प्रतिबंधों में जकड़ने से उसका विकास और प्रगति प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। एक विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्धता ने प्रगतिशील कविता को जन सामान्य से काट कर विचार धारा समर्थक बुद्धिजीवियों तक सीमित कर दिया। नवगीत को इस परिणति से बचाकर, कल से कल तक सृजन सेतु बनाते हुए नव पीढ़ी तक पहुँचाने में जिन रचनाधर्मियों ने साहसपूर्वक निर्धारित की थाती को अनिर्धारित की भूमि पर स्थापित करते हुए अपनी मौलिक राह चुनी उनमें गुरु जी भी एक हैं।
नवगीत के शिल्प-विधान को आत्मसात करते हुए कथ्य के स्तर पर निज चिंतन प्रणीत विषयों और स्वस्फूर्त भंगिमाओं को माधुर्य और सौन्दर्य सहित अभिव्यंजित कर गुरु जी ने विधा को गौड़ और विधा में लिख रहे हस्ताक्षर को प्रमुख होने की प्रवृत्ति को चुनौती दी। जीवन में विरोधाभासजनित संत्रास की अभिव्यक्ति देखिए-
अश्रु जल में तैरते हैं / स्वप्न के शैवाल
नाववाले नाविकों के / हाथ है जाल
.
हम रहे शीतल भले ही / आग के आगे रहे
वह मिला प्रतिपल कि जिससे / उम्र भर भागे रहे
वैषम्य और विडंबना बयां करने का गुरु जी अपना ही अंदाज़ है-
घूरे पर पत्तलें / पत्तलों में औंधे दौने
एक तरफ हैं श्वान / दूसरी तरफ मनुज छौने
अनुभूति की ताजगी, अभिव्यक्ति की सादगी तथा सुंस्कृत भाषा की बानगी गुरु के नवगीतों की जान है। उनके नवगीत निराशा में आशा, बिखराव में सम्मिलन, अलगाव में संगठन और अनेकता में एकता की प्रतीति कर - करा पाते हैं-
लौटकर फिर आ रही निज थान पर / स्वयं बँधने कामना की गाय
हृदय बछड़े सा खड़ा है द्वार पर / एकटक सा देखता निरुपाय
हौसला भी एक निर्मम ग्वाल बन / दूध दुहने बाँधता है, छोड़ता है
छंद-विधान, बिम्ब, प्रतीक, फैंटेसी, मिथकीय चेतना, प्रकृति चित्रण, मूल्य-क्षरण, वैषम्य विरोध और कुंठा - निषेध आदि को शब्दित करते समय गुरु जी परंपरा की सनातनता का नव मूल्यों से समन्वय करते हैं।
कृषक के कंधे हुए कमजोर / हल से हल नहीं हो पा रही / हर बात
शहर की कृत्रिम सडक बेधड़क / गाँवों तक पहुँच / करने लगी उत्पात
गुरु जी के मौलिक बिम्बों-प्रतीकों की छटा देखे-
इमली के कोचर का गिरगिट दिखता है रंगदार
शाखा पर बैठी गौरैया दिखती है लाचार
.
एक अंधड़ ने किया / दंगा हुए सब वृक्ष नंगे
हो गए सब फूल ज्वर से ग्रस्त / केवल शूल चंगे
.
भैया बदले, भाभी बदले / देवर बदल गए
वक्त के तेवर बदल गए
.
काँपते सपेरों के हाथ साँपों के आगे
झुक रहे पुण्य, स्वयं माथ, पापों के आगे
सामाजिक वैषम्य की अभिव्यक्ति का अभिनव अंदाज़ देखिये-
चाँदी के ही चेहरों का स्वागत होता झुक-झुक
खड़ा भोज ही, बड़ा भोज, कहलाने को उत्सुक
फिर से हम पश्चिमी स्वप्न में स्यात लगे खोने
.
सपने में सोन मछरिया पकड़ी थी मैंने
किन्तु आँख खुलते ही
हाथ से फिसल गयी
.
इधर पीलिया उधर खिल गए
अमलतास के फूल
.
गुरु के नवगीतों का वैशिष्ट्य नूतन छ्न्दीय भंगिमाएँ भी है। वे शब्द चित्र चित्रित करने में प्रवीण हैं।
बूढ़ा चाँद जर्जरित पीपल
अधनंगा चौपाल
इमली के कोचर का गिरगिट
दिखता है रंगदार
नदी किनारेवाला मछुआ
रह-रह बुनता जाल
भूखे-प्यासे ढोर देखते
चरवाहों की और
भेड़ चरानेवाली, वन में
फायर ढूंढती भोर
मरना यदि मुश्किल है तो
जीना भी है जंजाल
गुरु जी नवगीतों में नवाशा के दीप जलाने में भी संकोच नहीं करते-
एक चिड़िया की चहक सुनकर
गीत पत्तों पर लगे छपने
.
स्वप्न ने अँगड़ाइयाँ लीं, सुग्बुआऎ आस
जिंदगी की बन गयी पहचान नूतन प्यास
छंदों का सधा होना उनके कोमल-कान्त पदावली सज्जित नवगीतों की माधुरी को गुलाबजली सुवास भी देता है। प्रेम, प्रकृति और संस्कृति की त्रिवेणी इन गीतों में सर्वत्र प्रवाहित है।
जग को अगर नचाना हो तो / पहले खुद नाचो, मौसम के अधरों पर / विश्वासी भाषा, प्यासों को देख, तृप्ति / लौटती सखेद, ले आया पावस के पत्र / मेघ डाकिया, अख़बारों से मिली सुचना / फिर बसंत आया जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक को गुनगुनाने के लिए प्रेरित करती हैं। नवगीतों को उसके उद्भव काल में निर्धारित प्रतिबंधों के खूँटे से बांधकर रखने के पक्षधरों को नवगीत की यह भावमुद्रा स्वीकारने में असहजता प्रतीत हो सकती है, कोई कट्टर हस्ताक्षर नाक-भौं सिकोड़ सकता है पर नवगीत संसद के दरवाजे पर दस्तक देते अनेक नवगीतकार इन नवगीतों का अनुसरण कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करेंगे।
===
***
कृति चर्चा:
समीक्षा के बढ़ते चरण : गुरु साहित्य का वरण
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समीक्षा के बढ़ते चरण, समालोचनात्मक संग्रह, डॉ. कृष्ण गोपाल मिश्र, वर्ष २०१५, पृष्ठ ११२, मूल्य २००/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, दोरंगी, प्रकाशक शिव संकल्प साहित्य परिषद, नर्मदापुरम, होशंगाबाद ४६१००१, चलभाष ९४२५१८९०४२, लेखक संपर्क: ए / २० बी कुंदन नगर, अवधपुरी, भोपाल चलभाष ९८९३१८९६४६]
*
समीक्षा के बढ़ते चरण नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार गिरिमोहन गुरु रचित हिंदी ग़ज़लों पर केंद्रित समीक्षात्मक लेखों का संग्रह है जिसका संपादन हिंदी प्राध्यापक व रचनाकार डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र ने किया है. डॉ. मिश्र के अतिरिक्त डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय, डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय, डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना, डॉ. आर. पी. शर्मा 'महर्षि', डॉ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव, श्री अरविन्द अवस्थी, डॉ. रामवल्लभ आचार्य, डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ, श्री युगेश शर्मा,श्री लक्ष्मण कपिल, श्री फैज़ रतलामी, श्री रमेश मनोहरा, श्री नर्मदा प्रसाद मालवीय, श्री नन्द कुमार मनोचा, डॉ. साधना संकल्प, श्री भास्कर सिंह माणिक, श्री भगवत दुबे, डॉ. विजय महादेव गाड़े, श्री बाबूलाल खण्डेलवाल, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. भगवानदास जैन, श्री अशोक गीते, श्री मदनमोहन उपेन्द्र, प्रो. उदयभानु हंस, डॉ. हर्ष नारायण नीरव, श्री कैलाश आदमी द्वारा गुरु वांग्मय की विविध कृतियों पर लिखित आलेखों का यह संग्रह शोध छात्रों के लिए गागर में सागर की तरह संग्रहणीय और उपयोगी है. उक्त के अतिरिक्त डॉ. कृष्णपाल सिंह गौतम, डॉ. महेंद्र अग्रवाल, डॉ. गिरजाशंकर शर्मा, श्री बलराम शर्मा, श्री प्रकाश राजपुरी लिखित परिचयात्मक समीक्षात्मक लेख, परिचयात्मक काव्यांजलियाँ, साहित्यकारों के पत्रों आदि ने इस कृति की उपयोगिता वृद्धि की है. ये सभी रचनाकार वर्तमान हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं.
गुरु जी बहुविधायी सृजनात्मक क्षमता के धनी-धुनी साहित्यकार हैं. वे ग़ज़ल, दोहे, गीत, नवगीत, समीक्षा, चालीसा आदि क्षेत्रों में गत ५ दशकों से लगातार लिखते-छपते रहे हैं. कामराज विश्व विद्यालय मदुरै में 'गिरिमोहन गुरु और उनका काव्य' तथा बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में 'पं. गिरिमोहन गुरु के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन दो लघु शोध संपन्न हो चुके हैं. ८ अन्य शोध प्रबंधों में गुरु-साहित्य का संदर्भ दिया गया है. गुरु साहित्य पर केंद्रित १० अन्य संदर्भ इस कृति में वर्णित हैं. कृति के आरंभ में नवगीतकार, ग़ज़लकार, मुक्तककार, दोहाकार, क्षणिककर, भक्तिकाव्यकार के रूप में गुरु जी के मूल्यांकन करते उद्धरण संगृहीत किये गए है.
गुरु जी जैसे वरिष्ठ साहित्य शिल्पी के कार्य पर ३ पीढ़ियों की कलमें एक साथ चलें तो साहित्य मंथन से नि:सृत नवनीत सत्य-शिव-सुंदर के तरह हर जिज्ञासु के लिए ग्रहणीय होगा ही. विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के ग्रंथालयों में ऐसी कृतियाँ होना ही चाहिए ताकि नव पीढ़ी उनके अवदान से परिचित होकर उन पर कार्य कर सके.
गिरि मोहन गुरु गिरि शिखर सम शोभित है आज
अगणित मन साम्राज्य है, श्वेत केश हैं ताज
दोहा लिख मोहा कभी, करी गीत रच प्रीत
ग़ज़ल फसल नित नवल ज्यों, नीत नयी नवगीत
भक्ति काव्य रचकर छुआ, एक नया आयाम
सम्मानित सम्मान है, हाथ आपका थाम
संजीवित कर साधना, मन्वन्तर तक नाम
चर्चित हो ऐसा किया, तुहिन बिन्दुवत काम
'सलिल' कहे अभिषेक कर, हों शतायु तल्लीन
सृजन कर्म अविकल करें, मौलोक और नवीन
१५.११.२०१५
***
गीत:
*
मैं नहीं....
*
मैं नहीं पीछे हटूँगा,
ना चुनौती से डरूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जूझना ही ज़िंदगी है,
बूझना ही बंदगी है.
समस्याएँ जटिल हैं,
हल सूझना पाबंदगी है.
तुम सहायक हो न हो
खातिर तुम्हारी मैं लडूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
राह के रोड़े हटाना,
मुझे लगता है सुहाना.
कोशिशों का धनी हूँ मैं,
शूल वरकर, फूल तुम पर
वार निष्कंटक करूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
*
जो चला है, वह गिरा है,
जो गिरा है, वह उठा है.
जो उठा, आगे बढ़ा है-
उसी ने कल को गढ़ा है.
विगत से आगत तलक
अनथक तुम्हारे सँग चलूँगा.
जानता हूँ, समय से पहले
न मारे से मरूँगा.....
१५.११.२०१०

* 

गीत रामायण, डॉ. रवींद्र भ्रमर

कृति-चर्चा
''गीत रामायण''  प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय प्रबंध काव्य  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

(कृति परिचय- गीत रामायण, रामकथा गीतानुवाद, डॉ. रवींद्र भ्रमर, सजिल्द बहुरंगी जैकेट युक्त आवरण, पृष्ठ १४४, प्रथम संस्करण १९९९, मूल्य १५०/-, प्रकाशक ग्रंथायन, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़ २०२००१)
*
            ''गीतों के आत्मा को अक्षुण्ण रखकर रवींद्र 'भ्रमर' ने जो नए प्रयोग किए हैं उनसे निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा मिली है।'' - डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन'

            ''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की सर्वथा नयी शैली है, भावभूमि और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से गीत को नया आयाम देने के लिए वे बधाई के पात्र हैं।'' - डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन'

            ''रवींद्र 'भ्रमर' ने प्रकृति के चित्रों के साथ मन की स्थितियों को जोड़कर अपने गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न किया है।'' - डॉ. शंभु नाथ सिंह

            डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' की गीतों में नव्य गीत-शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर संगम हुआ है।'' - डॉ. रमेश कुंतल मेघ


            हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने 'गीत रामायण' के गीतों को 'नवगीत' क्यों नहीं कहा? गीत वृक्ष के सुदृढ़ तने से विकसित विविध शाखाएँ लोक गीत, बाल गीत, पर्व गीत, ऋतु गीत, आह्वान गीत, जागरण गीत, विवाह गीत, शृंगार गीत, हास्य गीत, नवगीत आदि विशेषणों से अभिषिक्त किए गए हैं।

            नवता क्या है? किसी अनुभूति को अभिव्यक्त करते समय विषय, कथ्य, शैली, अलंकार, मिथक, शब्द प्रयोग आदि के निरंतर नए प्रयोग नवता या रचनाकार का वैशिष्ट्य कहे जाते हैं। नवता व्यक्तिगत भी हो सकती है और अभिव्यक्ति गत भी। बच्चा कोई कार्य पहलीबार कर, उसे बार-बार दोहराता-दिखाता है क्योंकि अपनी समझ में उसने यह पहली बार किया है। बड़े उसे प्रोत्साहित करते हैं ताकि वह विकास पथ पर बढ़ता रह सके। साहित्य सृजन में हर नया रचनाकार अपने से पहले के रचनाकारों को सुन-पढ़कर लेखन आरंभ करता है, कुछ वरिष्ठ जनों द्वारा बनाई गई लीक का अनुसरण करते हैं, कुछ अन्य लीक से हटकर लिखते हैं। लोक कहता है- 'लीक तोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत'। मैं इसमें जोड़ता हूँ 'लीक-लीक तीनों चलें, कायर काग कपूत'। रचनाकार जब पूर्ववर्तियों द्वारा बनाई परंपरा से हटकर लिखता है तो कालजयी दृष्टि रखनेवाले उसे आशीषित करते हैं। डॉ. बच्चन और डॉ. सुमन ने गीत रामायण के रचनाकार को मुक्त कंठ से आशीष दिए हैं। 

            किसी वैचारिक आंदोलन अथवा विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार अपनी मान्यताओं से हटकर अन्य किसी को महत्व कम ही
देते हैं। 
डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत को एक आंदोलन के रूप में विकसित करने और उसे साहित्यिक मंच पर स्थापित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई।स्वाभाविक है कि डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत संबंधी अपनी मान्यताओं से हटकर आई कृति को नवगीत स्वीकार नहीं किया और गीत रामायण को 'गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न' मात्र कहा जबकि उनसे पूर्व उनसे वरिष्ठ बच्चन जी 'निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा' देने वाला तथा सुमन जी 'गीत को नया आयाम देने के लिए'  बधाई दे चुके थे। उल्लेखनीय है कि बच्चन जी तथा सुमन जी ने नवगीत का, गीत से प्रथक अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया था अन्यथा वे गीत रामायण की गीति रचनाओं को 'नवगीत' कहने में संकोच नहीं करते। डॉ. सिंह नवगीत के शीर्ष हस्ताक्षर थे तथापि उन्होंने गीत रामायण को नवगीत-करती मानने में न केवल संकोच किया अपितु इसे 'नया रंग भरने का प्रयास' मात्र कहा। प्रयास को सफल भी नहीं कहा क्योंकि सफल कहते तो यह शैली नवगीत के पहचान बन सकती थी। अस्तु... 

            समय खुद भी न्याय करता ही है। पश्चातवर्ती गीतकारों-समीक्षकों से 'गीत रामायण' का महत्व अदेखा नहीं रह सका। डॉ. रमेश कुंतल मेघ के अनुसार- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों में नवी गीत शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर समन्वय हुआ है।'' डॉ. श्रीपाल सिंह 'क्षेम' गीत रामायण की गीति रचनाकारों को नवगीत मानते हुए लिखते हैं- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' ने परंपरित गीतों को सँवारकर सहज बनाने में विश्रुत ख्याति अर्जित की। .... उनके नवगीतों में उनकी सहज कविता की परिकल्पना साकार हुई है।'' इससे और आगे बढ़ते हुए डॉ. राम दरश मिश्र गीत रामयण की रचनाओं को संभवत: पहली बार नवगीत घोषित करते हुए उनमें 'लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता' के दर्शन करते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के नवगीतों में  अनुभव की सच्चाई, लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता दृष्टव्य है। कहीं-कहीं बड़े ही ताजे बिंब प्रयुक्त हुए हैं।''  डॉ. वेद प्रताप 'अमिताभ' गीत रामायण में संश्लिष्ट बिंबधर्मिता और समकालिकता को उल्लेख्य मानते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की ताकत उनकी सहज और संश्लिष्ट बिंबधर्मिता में है। .... इस तरह के बिंब न केवल गीत को समकालीन बनाते हैं, अपितु संवेदन और चिंतन के स्तर पर झकझोरते भी हैं।'' गीत रामायण को आशीषित करते डॉ. विद्या निवास मिश्र ने गीत-प्रबंध काव्य के रूप में देखा है जबकि भ्रमर जी ने अपनी इस कृति को प्रबंध काव्य नहीं माना है।   

            वर्ष १९५८ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने गीतों का नामकरण 'नवगीत' करते हुए 'गीतांगिनी' संकलन प्रकाशित किया। उनका उद्देश्य गीतों से पुरानी भावुकता को अलगकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ना तथा नवगीत को नई कविता के समानांतर एक स्वायत्त विधा के रूप में विकसित करना था। नवगीत परंपरा के शीर्ष हस्ताक्षर डॉ. शंभुनाथ सिंह ने वर्ष १९८२ में नवगीतों का पहला महत्वपूर्ण संकलन 'नवगीत दशक-१', 'नवगीत अर्धशती' और 'नवगीत सप्तक' संपादन-प्रकाशन किया था। भ्रमर जी (६.६.१९३४ जौनपुर - २८.११.१९९८ पटना) की जीवन यात्रा पूर्ण होने के पश्चात १९९९ में उनकी धर्मपत्नी शकुंतला राजलक्ष्मी जी, पुत्र द्वय डॉ. श्री हर्ष व आनंद वर्धन तथा पुत्रवधू डॉ. मीनाक्षी आनंद ने कृति प्रकाश का सारस्वत अनुष्ठान संकल्पपूर्वक पूर्ण किया किंतु इसकी रचनाएँ लगभग १५ वर्ष पूर्व से ही पढ़ी और सराही जा रही थीं। नवगीत को समाजवादी-साम्यवादी आंदोलन से जोड़ रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत कहने से परहेज कर रहे थे जबकि गीत में नवता को नवगीत मान रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत घोषित कर रहे थे। वास्तव में ''गीत रामायण''  प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय संकलन है जिसमें नवगीत के कथ्य में सामाजिकता पर सांस्कृतिकता को वरीयता दी गई इसीलिए नवगीत में सामाजिकता (वैषम्य,विसंगति, टकराव, बिखराव आदि) तक ही नवगीत को सीमित रखने के पक्षधर नवगीत में सांस्कृतिक कथ्य को अमान्य करने की कोशिश करते रहे। इन्हें चुनौती मध्य प्रदेश विशेषकर नर्मदांचल के नवगीतकारों से मिली जो नवगीत को नई विधा नहीं विशेषण मानते रहे। स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' के गीतों में ग्राम्य तथा नागर जीवन शैली को केंद्र में रखकर अभिनव शैली में प्रस्तुति के बावजूद प्रगतिवादी खेमे ने नवगीत नहीं माना। विविध साहित्यिक आयोजनों में कई बार जबलपुर आए नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना के साथ विश्ववाणी हिंदी संस्थान की गोष्ठियों में नवगीत में नवता पर विशद विमर्श हुआ। 

            वर्ष २०१४ में पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संकलन 'चोंच में आकाश' अंजुमन प्रकाशन ने प्रकाशित किया। 'अभिव्यक्ति विश्वम्' के मञ्च पर नवगीत महोत्सव  में इस की समीक्षा करते हुए मैंने इसे नवगीत संकलन घोषित किया किंतु परंपरावादी नवगीतकार मधुकर अष्ठाना आदि इसे गीत संकलन ही कहते रहे। यही स्थिति मेरे गीत-नवगीत संकलनों 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' के साथ हुई। वर्ष २००३ में प्रकाशित कुमार रवींद्र के नवगीत संकलन 'सुनो तथागत' ने कुमार रवींद्र ने भ्रमर जी  द्वारा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के नवगीत संकलन की परंपरा में अगली कड़ी जोड़ी। इस संकलन पर जबलपुर में संपन्न गोष्ठी में मधुकर अष्ठाना जी ने इसे नवगीत नहीं माना जबकि मैंने इसे नवगीतीय प्रबंध काव्य कहा था। आज भी नवगीत के जन्म के लगभग ७ दशक बाद यही स्थिति है। यह विमर्श इसलिए कि विश्व विद्यालयों में आज भी प्रगतिवाद के पक्षधर आसंदियों पर प्रतिष्ठित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को नकारने में गौरव अनुभव करते हैं। यात: गीत रामायण को आज भी वह महत्व नहीं मिल सका है जो मिलना चाहिए। वस्तुत: 'गीत रामायण' प्रथम नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें सांस्कृतिक ग्राम्य और नागर परंपराओं का सुंदर समन्वय रामकथा के संदर्भ में दृष्टव्य है। इस दृष्टि से 'सुनो तथागत' दूसरी नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें बुद्धकथा के पात्रों के माध्यम से  कुमार रवींद्र जी ने अभिनव बिंबों और नूतन मिथकों की स्थापना की है। 

            भ्रमर जी की जन्मस्थली जौनपुर सूफी संतों के प्रेमाख्यानों के लिए प्रसिद्ध रही है । इसे 'शिराजे हिंद' संज्ञा से अभिषिक्त किया गया। भ्रमर जी ने शैशव से यह संस्कार पाया और जाने-अनजाने वह उनकी बौद्धिक चेतना  का अंश बन गया। भ्रमर जी की साहित्यिक यात्रा लगभग २० वर्ष की उम्र में आरंभ हुई। 'कविता-सविता' (१९५६), 'रवींद्र भ्रमर के गीत' (१९६२-६३), 'प्रक्रिया' (१९७२), 'सोन मछरी मन बसी' (१९८०)  तथा 'धूप दिखाए आरसी' (१९९१) आदि की रचनाओं में भ्रमर जी ने सहज मानवीय आदर्शों और समाज सापेक्ष सांस्कृतिक सूत्रों को निरंतर अभिव्यक्त किया। तथाकथित प्रगतिवादी-समाजवादी मूल्यहीनता के चक्रव्यूह में भ्रमर जी अभिमन्यु की तरह जूझते रहे। उनकी रचनाओं में सांस्कृतिक निर्वैयक्तिकता व सार्वजनीनता की उपस्थिति निरंतर बनी रही। 'गीत रामायण' में संत कवियों द्वारा प्रयुक्त पद पद्धति के स्थान पर प्रगीत पद्धति को अपनाते हुए भ्रमर जी ने वैश्विक मानवता तथा पारंपरिक मर्यादा के तटों पर संवेदना सेतु बनाए हैं। श्री राम तथा रामायण भ्रमर जी के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। भ्रमर जी लिखते हैं- 

मैंने नवगीतों में रामायण लिखने की धुन ठानी ।
वे क्षमा करें जिनके लेखे यह गाथा हुई पुरानी।।

            यह 'क्षमा' तथाकथित प्रगतिवादियों और साम्यवादियों के लिए ही है जो श्री राम को काल्पनिक मानते रहे हैं। भ्रमर जी के शब्दों में- ''मैंने उन्हें (श्री राम को) पुरुषोत्तम और जननायक के रूप में प्रस्तुत करने पर बल दिया है।'' यहाँ यह स्मरण करना अप्रासंगिक न होगा कि वर्ष १९७५ में नरेंद्र कोहली जी की रामकथा पर औपन्यासिक शृंखला (७ उपन्यास दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध १, युद्ध २, अभिज्ञान व पृष्ठभूमि) प्रकाशित हीना आरंभ हुई थी जो १९८० के आसपास पूर्ण हुई। कोहली जी ने भी श्री राम को भगवान के स्थान पर जननायक ही प्रस्तुत किया था। संभवत:, भ्रमर जी को इन उपन्यासों के पठन से ही 'गीत रामायण' रचने की प्रेरणा प्राप्त हुई। १०१ प्रगीतिय नवगीतों में भ्रमर जी  ने कृति का श्री गणेश पारंपरिक पद्धति अनुसार श्री गणेश वंदना से करते हुए उन्हें 'भारती भवन के आदि देव', जन गण मंगल अधिनायक', 'सुर साधक' तथा 'जनगायक' जैसे विशेषण दिए जो तब ही नहीं, अब भी सर्वथा नवता परक प्रतीत होते हैं। 

            भ्रमर जी के राम मेरुदंड की तरह तननेवाले, ज्योतिपुंज बन उगनेवाले, पुण्य पयोधर की तरह तृषा हरनेवाले, कर्मक्षेत्र में कीर्ति-कथा लिखनेवाले, इतिहास में अंकित स्वर्णाक्षर, जनमानस में प्रतिष्ठित नरसिंह और नरोत्तम हैं। वे  भूगोल, इतिहास, आकाश, मूर्ति, चित्र, रस, रास, वारिद, धरा, वातास, चेतन श्वास, विश्वास, जप-जोग-सन्यास आदि में राम के दर्शन करते हुए अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते हैं। राम कथा के प्रथम गायक वाल्मीकि (देववाणी) तथा तुलसी (लोक भाषा) को स्मरण-नमन करने के बाद अपने आपसे संबोधित होते हैं- 

''बजट रहा अनंग, गीत तृष्णा के गाए।
तूने आठों पहर, अंध आलाप उठाए।।
प्यारे भ्रमर, खोल अब अंतर्मन की आँखें।
रामनाम-रस में डूबें, जीवन की पाँखें।।

            'गीत रामायण' के प्रगीतों को नवगीतों के स्वघोषित मसीहा नकारेंगे, यह सत्य भ्रमर जी भी जानते थे, इसलिए उन्होंने लिखा-

मैं उनके लिए नहीं लिखता राघव की कीर्ति-कथा को,
जो बड़े काल-सापेक्ष, धर्म-निपेक्ष, नवल विज्ञानी।। 

            ईंट ही नहीं भ्रमर जी यह भी लिखते हैं- ''मैं लिखता उनके लिए जिन्हें अपनी मिट्टी प्यारी है''। समीक्षकों के लिए भी संकेत है- 

हर पद पर शिल्प-शिला के घाट नहीं बांधे हैं मैंने,
रचना की निश्छल धारा है झरने का बहता पानी।।

कल्पना-कला के घाट-बात कुछ पीछे छूट गए है,
गायक की तान लगेगी रसिया को जानी-पहचानी।।

            'फिर होता अवतार' शीर्षक नवगीत में गीतकार त्रेता की कथा को वर्तमान से जोड़ते हुए 'लोकतंत्र में छेद कर रहे', 'उनके मुँह हराम की चर्बी', खाली है खलिहान, व्यवस्था खड़ी फसल चर जाति', 'चोर-उचक्कों की काय में माय दुंद मचाती' आदि से सम-सामयिक परिदृश्य का संकेत करते हुए 'फटती है धरती की छाती' लिखकर विसंगतियों की विकरालता 'कम लिखे को अधिक समझना' की परंपरा अनुसार इंगित करते हैं। राम जन्म के समय ''मिथिला से विदेह जी आए'' (पृष्ठ ३८) भ्रमर जी की मौलिक उद्भावना है। "मिथिला से विदेह जी आए" लिखना, शायद कवि का अयोध्या और मिथिला के बीच के गहरे संबंध को उजागर करने का एक काव्यात्मक तरीका हो, जो बाद में विवाह से स्थापित हुआ, न कि एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में। प्रमुख हिंदू महाकाव्यों, जैसे वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में, राम जन्म के समय जनक जी (विदेह) के अयोध्या में उपस्थित होने का उल्लेख नहीं मिलता है। इन ग्रंथों में वर्णन है कि राजा जनक और राजा दशरथ का मिलन विवाह के अवसर पर मिथिला में हुआ था।

            मानस में वर्णित कथा क्रमानुसार राम-जन्म के पश्चात बधाई गीत, सोहर गीत, विवाह के पूर्व देवी मनुहार गीत आदि का प्रयोग नवगीत में संभवत: पहली बार किया गया है। - 

            मची ताता-थइया, अरे ताता-थइया। 
            अवध के अँगना, बाजे बधइया।। 
            तथा 
            चंदन का पलना रे, डोरियाँ रेशम की, 
            ललन झूल रहे श्री राम, झुलाएँ देवी कौशल्या।। 

            श्री राम की बाल लीला व शिक्षा के पश्चात विश्वामित्र के साथ अहल्या उद्धार प्रसंग में भ्रमर जी समाज में नारी की दुरावस्था इंगित करते हैं- '... बन के पत्थर अहल्या पड़ी  है....   कर लो फिर कोई व्यभिचार कर लो / एक असहाय औरत पड़ी है'। 

            मिथिला में राम-विवाह प्रसंग में विवाह गीत, विवाह पश्चात अयोध्या में स्वागत गीत, फाग,  राजतिलक की घोषणा और वनवास। भ्रमर जी ने कैकेयी की आलोचना मंद स्वर में की है। संभवत: उनकी मान्यता हो कि कैकेयी को ही यह श्रेय है कि वैधव्य तथा लोकनिंदा का पात्र बनकर  भी उन्होंने श्री राम को वन जाकर रावण-वध करने का अवसर उपलब्ध कराया। अपने महाकाव्य 'कैकेयी' में स्व. इंदु सक्सेना कानपुर ने भी यही स्थापना की है। मैथिली शरण गुप्त जी ने 'भरत से सुत पर भी संदेह / बुलाया तक न उसे जो गेह' लिखकर कैकेयी के प्रति सहनुभूतिपूर्ण अभिव्यंजन की है। भ्रमर जी 'अब रघुराज बनेंगे राम' शीर्षक नवगीत में देवताओं तथा सरस्वती देवी को कैकेयी-मंथरा के कृत्य की प्रेरणा माना है-  - 

''डुग्गी फिरी, मुनादी हुई कि अब रघुराज बनेंगे राम... 
... चिंता जगी देवताओं में, राम रमे यदि छलनाओं में 
कौन करेगा अत्याचारी असुरों से संग्राम। 
सरस्वती सुरपुर से ढाई, वृद्ध मंथरा के मुँह आई, 
बोली कैकेयी से तेरे हुए विधाता वाम। 
कैकेयी ने कोप भवन में , छल का जाल बुन दिया क्षण में,
असमंजस में लगी डूबने नृप दशरथ की शाम।
छोटीरणी-खोटी रानी, उसने तो तिरिया हठ ठानी,
भूपति भरत बनें, वन जाएँ राम, छोड़ निज धाम।''   

            विश्वामित्र का अनुरोध शीर्षक गीत में भ्रमर जी दूसरे अंतरे के अंत में - ''बलि की इस विव्हल बेला में बलराम माँगने आया हूँ'' तथा गीत के अंत में ''बलि की इस नाजुक बेला में बलराम माँगने आया हूँ'' लिखते हैं। यहाँ काल दोष हो गया है। श्री राम त्रेता में हुई जबकि बलराम पश्चातवर्ती  द्वापर युग में। वाल्मीकि या तुलसी किसी ने भी त्रेता में बलराम की उपस्थिति इंगित नहीं की है। इसे नवता के नाम पर भी मान्य करना उपयुक्त न होगा। एक पंक्ति में एक शब्द बदलकर एक गीत में दो बार प्रयोग 'अलंकार' भी कहा जा सकता है और 'काव्य-दोष' भी। यह स्वतंत्रता पाठक को ही दी जाए।    

            गीत रामायण में 'दूब तो पत्थर पर उग आए',  'महल ढाँप कर मुँह सोता है, /जंगल में मंगल होता है', 'ठग-ठाकुर तो छल के राजा, / राम हुए जंगल के राजा' तथा 'ग्रीष्म तपे तो कुंदन होंगे, / पावस की झर, चंदन होंगे''झूमी जौ-गेहूँ की बाली', 'कोकिल कूक बजाए ताली',   'रावण के मुँह आग', जैसी मौलिक और मार्मिक अभिव्यक्तियाँ पाठक को मोहती हैं।

            विविध प्रसंगों में वाद्य-यंत्रों का प्रयोग दर्शाता है की कवि को संगीत-परिचय पक्ष भी प्रबल है। फाग गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिए- 

खनके डफ, बजे मृदंग, मुरलिया गाए 
सहवासों पर जीवन का सरगम लहराए। 
कोमल आलाप उठाओ उर-वीणा से,
सीता के मानस पर वसंत तिर जाए।  
मन कनक-भवन से तन सरयू के तट तक,
मधुरस छलने को तन्मयता पग पर्स। 
रघुनन्दन! खेलो फाग प्रेम-रस बरसे।।  

            मुहावरों तथा लोकोक्तियों का मुक्त हस्त प्रयोग कवि की सामर्थ्य का परिचायक है। विविध प्रसंगों में दूब तो पत्थर पर उग आए (पत्थर पर दूब जमना), रावण के मुँह आग (मुँह में आग लगना), 


            भ्रमर जी का शब्द-भंडार समृद्ध था अभिव्यक्ति सामर्थ्य असाधारण है। वे स्वस्ति, अंत्यज, धनुर्धर, संगउफन, वंध्य, उर्वर, नीलोत्पल, तूणीर, कोदंड, वक्ष आदि तत्सम, ओंठ, मग, ब्याह आदि तद्भव, कलैया, खरकों, गैया, दुंद, टेर, ऊसर, बिरवा, पाहन, कसर, पाग, जुन्हैया, धौरी, पीवें, ललना, धनुहिया, रमैया, ड्योढ़ी, दीठ, महतारी, सुग्गा, दुलहा, सिपहिया आदि देशज तथा गदर, पल्टन, मुर्दा, रोशनी, दिल, वक्त, तकदीर, तिलिस्मी, बाजू, दम आदि विदेशज शब्दों के प्रयोग मुक्त हस्त करने के साथ-साथ कुछ नए शब्द-रूप भी प्रयोग में लाए हैं। कथ्य को सरस बनाने और 'कम में अधिक कहने' के लिए चोर-उचक्के, मन मंदिर, रुनक-झुनक, गंधर्व-असुर-किन्नर, विधि-हरि-हर, धनुष-बाण, जप-जोग, श्वेत-श्याम, काव्य-कुंज, काव्य-कसौटी, ठाठ-बाट, लुक-छिप, शरुद्ध-विश्वास, पुरजन-परिजन, हिल-मिल, सीप-शंख, साँझ-सकारे, टीका-झुमका-बिछिया, तन-मन, मणि-मुक्ता, खग-मृग, विद्वेष-घृणा, ताता-थइया, विद्या विवेक, जात-पाँत,पूजन-आराधन, पलंग-पालने, कुंदन-क्यारी, छुई-मुई, हल्दी-कुंकुम, भोग-त्याग, स्वार्थ-कूप, तान-वितान, राग-विराग, ठिगनी-ठगिनी, जटा-मुकुट, चिकनी-चुपड़ी, चटक-मटक, टिकुली-बिंदी, चीखने-चिल्लाने, अंग-अंग, जनम-जनम, जन्म-जन्म, युग-युग, हलर-हलर, नस-नस, सन-सन आदि शब्द-युग्मों का प्रयोग यथास्थान किया गया है। समानार्थक, विपरीतार्थक, पुनरुक्त, सजातीय शब्द  तथा निरर्थक शब्द-युग्म प्रयुक्त हुए हैं किंतु श्रुतिसमभिन्नार्थक शब्द-युग्म अनुपस्थित हैं। 

            'परशुराम' शीर्षक गीत में भ्रमर जी वर्तमान काल में हिंसा को अनुपयुक्त मानने के गाँधीवादी विचार का समर्थन करते हुए लिखते हैं- 'भृगुनन्दन! फेंको अपना खूनी फरसा किसी नदी में' तथा तुम त्रेता-द्वापर की अवतार-कथा हो, तुम्हें नमन है / लेकिन संदर्भ नहीं जुड़ पाता इक्कीसवीं सदी में'। अतीत के प्रसंगों की समकालिक संदर्भों के साथ समेचीनता का मूल्यांकन नवगीत में भ्रमर जी ने ही प्रथमत: किया है। 

            अलंकारों का प्रयोग करते समय भी भ्रमर जी ने नवता का ध्यान रखा है। 'नयन' की 'कमल', 'मृग' तथा 'मीन' से उपमा दी जाती रही है किंतु 'चक्रवाक' तथा 'चकोर'का प्रयोग सर्वथा मौलिक है- ''चक्रवाक नयन पंख खोल उधर उड़ने लगे' / चंदा-सी दुलहिन बन बैठी जिधर जानकी'' तथा ''हुईं राम की आँखें, पाँखेँ चकोर की''।

            आज-कल नवगीत के नाम में समाज में व्याप्त विसंगतियों और जीवन में विष घोल रही विषमताओं को तिल का ताड़ बनाकर लिखने का चलन है किंतु भ्रमर जी ने मधुर-मोहक मिलन-विरह शृंगारपरक नवगीतों की भी रचना की है। 'साँवरे सिपहिया का नाम', 'चित्रकूट की स्फटिक शिला पर', 'मैना क्या बोले, कंचन मृग आदि नवगीतों में माधुर्य और कारुण्य का धूप-छाँवी मिश्रण दृष्टव्य है। भ्रमर जी अवध निवासी हैं। गीत रामायण के नवगीतों में अवधी भाषा के शब्द-रूपों और अवध के ग्राम्यांचलों में प्रचलित सामाजिक परंपराओं का लोक वैभव यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। 'भिक्षा दे माई' शीर्षक नवगीत में कपटी साधु सीता जी को 'अचल रहे अहिवात' और 'गोदी भरे पूत से' कहकर चार दाने माँगता है, कौन भारतीय नारी यह सुनकर भिक्षा देने को तत्पर न हो जाएगी?-

भिक्षा दे माई! जोगी आया है तेरे द्वार। 
आया है अरण्य से, लाया झोली भर आशीष,
अचल रहे अहिवात अहैतुक कृपया करें गौरीश,
गोदी भरे पूत से, आँचल झरे दूध की धार। 

            और भिक्षा देता ही हुआ नाटकीय परिवर्तन, कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने की सामर्थ्य की साक्षी देता है- 

ले भिक्षा निकली वैदेही, खिली रूप की धूप,
छल न टिका रावण का, पल में हुआ विकत-विद्रुप,
केश गहे, बाँहें मरोड़, ले उड़ा सिंधु के पार। 

            'रघुनन्दन बिलख रहे' शीर्षक हिंदी साहित्य के नवगीत कोश में करुण रस की दुर्लभ छवि-छटा संपन्न है। 'खट्टे-मीठे बेर' गीत में आस्था और विश्वास की जय-जयकार शब्द-शब्द में समाहित है- 

चख-चख कर जो अलग रखे हैं मैंने, खाएँगे श्री राम। 
खट्टे-मीठे बेर चुने हैं मैंने, आएँगे श्री राम ।। 

            साहित्य वही है जिसमें सबका हिट समाहित हो। तथाकथित विसंगति परक नवगीतों ने सामाजिक बिखराव का वर्णन मात्र ही लक्ष्य बनाया जबकि भ्रमर जी सामाजिक समरसता का संदेश शबरी प्रसंग के माध्यम से देने में सफल हुए हैं। भ्रमर जी ने नवगीतों पर छायावाद के प्रभाव को वरज्य नहीं माना है। ''तन का तेल, साँस की बाती, झिलमिल एक दिया जलता है'' जैसी अभिव्यक्ति नवगीत के फैलाव को भी इंगित करती है। 'गीत रामायण' के नवगीतों का क्रम संत तुलसीदास रचित रामचरित मानस के प्राय: अनुरूप ही है। इस कारण घटनाओं का पूर्वानुमान हो जाता है और उत्सुकता समाप्त हो जाती है तथापि नूतन अभिव्यक्ति, सटीक शब्द-प्रयोग और लयात्मक प्रवाह पाठक को बाँधे रखता है। 

            नवगीत में वीर रस सामान्यत: नहीं मिलता किंतु भ्रमर जी ने कुशलता के साथ यह किया है-

प्रत्यंचा की टंकार 
सहस्त्र फनों से ज्यों फुंकार उठे, 
भूधर डोले, सागर उछले,
मद-मारुत की हुंकार उठे
यारी दल पर महानाश के बादल गिद्ध सदृश मँडराए 
शेषावतार दूसरी बार अब महासमर में आए 

            पति के शहीद होने पर सती सुलोचना की पीर बखानता नवगीत मार्मिक दृश्य उपस्थित करता है -

पति का वध सुनकर हुई काठ
उतरे सधवा के सुघर ठाट,
सिंदूर माँग से धुला, हाथ की चूड़ी तड़की सारी।
प्रियतम से छूटी यारी, रोई सुलोचना सन्नारी।।

            नवगीत में आह्वान-गान की झलक 'युद्ध करो' शीर्षक गीति रचना में है- 

तुम निर्णायक युद्ध करो। 
प्राणों के प्रत्यंचा तानों, सहायक चाप धरो.... 
....ये इतिहास विधाता के क्षण हैं, तंद्रा त्यागो,
यह रण ही स्वर्णिम प्रभात है, रश्मि-पुंज जागो,
फूँको तमस-दुर्ग, ज्वाला की परिखा में उतरो।।

            कृति के अंत में भ्रमर जी ने लोक में प्रचलित राम कथा के अनुसार धोबी,लव-कुश, सीता के भूमि प्रवेश , राम का सरयू-प्रवेश आदि प्रसंगों पर नवगीत जोड़कर मौलिक कथा-विस्तार की राह चुनी है। 

            हिंदी-नवगीत के संकलन कोश में प्रथन नवगीतीय प्रबंध काव्य 'गीत रामायण' रचकर डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' ने सर्वथा नूतन आयाम को स्पर्श किया किंतु नवगीत पर सामाजिक वैषम्य तक सीमित तथाकथित प्रगतिवादियों के समूह ने उन्हें इस श्रेय से वंचित रखा। फलत:, दूसरा नवगीतिय प्रबंध काव्य 'सुनो तथागत' आने में ५-६  वर्ष लग गए जबकि इस मध्य पिष्ट-पेषण करते नकारात्मक दृष्टिकोण से लबालब शताधिक  नवगीत संकलन प्रकाशित हुए। नवगीत विधा की लोक प्रियता और प्रयोगधर्मिता का तकाजा है है नवगीतकार दशों पुरानी मान्यताओं के मकड़जाल से बहार निकाल कार सकारात्मक सोच संपन्न नवगीत रचें आउए इसे 'रुदाली' या 'स्यापा गीत' बनने से बचाएँ। 
००० 
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१८३२४४ 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

नवंबर १४, सॉनेट, नमन, हाइकु, ग़ज़ल, चौपाई ग़ज़ल, जनक छंदी ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, हवा, बाल, अचल, अचल धृति, छंद

सलिल सृजन नवंबर १४
*
सॉनेट
नमन
नमन गजानन, वंदन शारद
भू नभ रवि शशि पवन नमन।
नमन अनिल चर-अचर नमन शत
सलिल करे पद प्रक्षालन।।
नमन नाद कलकल कलरव को
नमन वर्ण लिपि क्षर-अक्षर।
नमन भाव रस लय को, भव को
नमन उसे जो तारे तर।।
नमन सुमन को, सुरभि भ्रमर को
प्यास हास को नमन रुदन।
नमन जन्म को, नमन मरण को
पीर धैर्य सद्भाव नमन।।
असंतोष को, जोश-घोष को
नमन तुष्टि के अचल कोष को।।
१४-११-२०२२
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हाइकु ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
चौपाई ग़ज़ल
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।
मन-नारायण तन नारद को, कह वानर शापित हो जाए।।
राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती बचना।
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित, कह क्यों निज उपहास कराए।।
मन की बात करो मत हरदम, जन की बात कभी तो सुन लो।
हो जम्हूरियत तानाशाही, अपनों पर ही लट्ठ चलाए।।
दहशतगर्दी मेरी तेरी, जिसकी भी हो बहुत बुरी है।
ख्वाब हसीन मिटाकर सारे, धार खून की व्यर्थ बहाए।।
जमीं किसी की कभी न होती, बेच-खरीद हो रही नाहक।
लालच में पड़कर अपने भी, नाहक ही हो रहे पराए।।
दुश्मन की औकात नहीं जो, हमको कुछ तकलीफ दे सके।
जब भी ढाए जुल्म हमेशा, अपनों ने ही हम पर ढाए।।
कहते हैं उस्ताद मगर, शागिर्द न कोई बात मानते।
बस में हो तो उस्तादों को, पाठ लपक शागिर्द पढ़ाए।।
***
जनक छंदी ग़ज़ल
*
मेघ हो गए बाँवरे, आये नगरी-गाँव रे!, हाय! न बरसे राम रे!
प्राण न ले ले घाम अब, झुलस रहा है चाम अब, जान बचाओ राम रे!
गिरा दिया थक जल-कलश, स्वागत करते जन हरष, भीगे-डूबे भू-फ़रश
कहती उगती भोर रे, चल खेतों की ओर रे, संसद-मचे न शोर रे!
काटे वन, हो भूस्खलन, मत कर प्रकृति का दमन, ले सुधार मानव चलन
सुने नहीं इंसान रे, भोगे दण्ड-विधान रे, कलपे कह 'भगवान रे!'
तोड़े मर्यादा मनुज, करे आचरण ज्यों दनुज, इससे अच्छे हैं वनज
लोभ-मोह के पाश रे, करते सत्यानाश रे, क्रुद्ध पवन-आकाश रे!
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय, दोषी मानव का अनय, अकड़ नहीं, अपना विनय
अपने करम सुधार रे, लगा पौध-पतवार रे, कर धरती से प्यार रे!
*
सोरठा ग़ज़ल
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया
जिया जोड़कर कोष, खाली हाथों मर गया
व्यर्थ न करिए रोष, स्नेह न जाता भुनाया
औरों का क्या दोष, अपनों ने ही भुलाया
पालकर असंतोष, घर गैरों का बसाया
***
सुधियों के दोहे
यादों में जो बसा है, वही प्रेरणा स्रोत।
पग पग थामे हाथ वह, बनकर जीवन-ज्योत।।
जाकर भी जाते नहीं, जो हम उनके साथ।
पल पल जीवन का जिएँ, सुमिर उठाकर माथ।।
दिल में जिसने घर किया, दिल कर उसके नाम।
जागेंगे हम हर सुबह, सुमिरेंगे हर शाम।।
सुस्मृति के उद्यान में, सुरभित दिव्य गुलाब।
दिल की धड़कन है वही, वह नयनों का ख्वाब।।
बाकी जीवन कर दिया, बरबस उसके नाम।
जीवन की हर श्वास अब, उसके लिए प्रणाम।।
१४-११-२०२१
***
हवा पर दोहे
*
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हैं, मिले हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
*
सुंदर को सुंदर कहे, शिव है सत्य न भूल।
सुंदर कहे न जो उसे चुभता निंदा शूल।।
१४.११.२०१९
***
बाल दिवस पर
*
दाढ़ी-मूँछें बढ़ रहीं, बहुत बढ़ गए बाल।
क्यों न कटाते हो इन्हें, क्यों जाते हो टाल?
लालू लल्ला से कहें, होगा कभी बबाल।
कह आतंकी सुशासन, दे न जेल में डाल।।
लल्ला बोला समझिए, नई समय की चाल।
दाढ़ीवाले कर रहे, कुर्सी पकड़ धमाल।।
बाल बराबर भी नहीं, गली आपकी दाल।
बाल बाल बच रहा है, भगवा मचा बबाल।।
बाल न बाँका कर सकी, ३७० ढाल।
मूँड़ मुड़ा ओले पड़ें, तो होगा बदहाल।।
बाल सफेद न धूप में, होते लगते साल।
बाल झड़ें तो यूँ लगे, हुआ शीश कंगाल।।
सधवा लगती खोपड़ी, जब हों लंबे बाल।
हो विधवा श्रंगार बिन, बिना बाल टकसाल।।
चाल-चलन की बाल ही, देते रहे मिसाल।
बाल उगाने के लिए, लगता भारी माल।।
मौज उसी की जो बने, किसी नाक का बाल।
बाल मूँछ का मरोड़ें, दुश्मन हो बेहाल।।
तेल लगाने की कला, सिखलाते हैं बाल।
जॉनी वॉकर ने करी चंपी, हुआ निहाल।।
नागिन जैसी चाल हो, तो बल खाते बाल।
लट बन चूमें सुमुखि के, गोरे-गोरे गाल।।
दाढ़ी-मूँछ बढ़ाइए, तब सुधरेंगे हाल।
सब जग को भरमाइए, रखकर लंबे बाल।।
***
एक रचना
*
पुष्पाई है शुभ सुबह,
सूरज बिंदी संग
नीलाभित नभ सज रओ
भओ रतनारो रंग
*
झाँक मुँडेरे से गौरैया डोले
भोर भई बिद्या क्यों द्वार न खोले?
घिस ले दाँत गनेस, सुरसति मुँह धो
परबतिया कर स्नान, न नाहक उठ रो
बिसनू काय करे नाहक
लछमी खों तंग
*
हाँक रओ बैला खों भोला लै लठिया
संतोसी खों रुला रओ बैरी गठिया
किसना-रधिया छिप-छिप मिल रए नीम तले
बीना ऐंपन लिए बना रई हँस सतिया
मनमानी कर रए को रोके
सबई दबंग
***
नवगीत
*
सम अर्थक हैं,
नहीं कहो क्या
जीना-मरना?
*
सीता वन में;
राम अवध में
मर-मर जीते।
मिलन बना चिर विरह
किसी पर कभी न बीते।
मूरत बने एक की,
दूजी दूर अभी भी।
तब भी, अब भी
सिर्फ सियासत, सिर्फ सुभीते।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
मरना-तरना?
*
जमुन-रेणु जल,
वेणु-विरह सह,
नील हो गया।
श्याम पीत अंबर ओढ़े
कब-कहाँ खो गया?
पूछें कुरुक्षेत्र में लाशें
हाथ लगा क्या?
लुटीं गोपियाँ,
पार्थ-शीश नत,
हृदय रो गया।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
संसद-धरना?
*
कौन जिया,
ना मरा?
एक भी नाम बताओ।
कौन मरा,
बिन जिए?
उसी के जस मिल गाओ।
लोक; प्रजा; जन; गण का
खून तंत्र हँस चूसे
गुंडालय में
कृष्ण-कोट ले
दिल दहलाओ।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
हाँ - ना करना?
१३-११-१९
***

बाल कविता:
मेरे पिता
*
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४]
*
सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना।
नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। जब यह अनुभूति सार्वजनीन संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।
शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है?
कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर
खिली हुयी
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है
भोजपुरी को ताने
गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की पहचान उसके नाम से नहीं, उसके पति के नाम से की जाती है। गागर में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन
में रहने का
छाया हुआ नशा है
लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती -आस्था से उपजी विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना
अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?
धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत
शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर
तान सो गई
जनता की सरकार
कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान
इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है
'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे, जैसे प्रयोग कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है।
रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं-
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल
विसंगियों के साथ आशावादी उत्साह का स्वर नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा प्रवाह का साक्षी है-
ले आया ऋतुओं
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
योगेंद्र नागर और ग्राम्य दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध हो पाती है। इन नवगीतों में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है -
सुबह-सुबह
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे
गले की घंटी
करता बैल किसानी
उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है-
श्रम की सच्ची
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर
चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी
लेकिन हृदय महल है
नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।
***
दोहा सलिला
आभा से आभा गहे, आ भा कहकर सूर्य।
आभित होकर चमकता, बजा रहा है तूर्य।।
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हो गए, एक हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
१४-११-२०१८
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मुक्तिका
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है
गजल क्या न पूछो कभी तुम किसी से
इतना ही देखो मुकम्मल बहर है
नहाना नदी में जाने न बच्चे
पिंजरे का कैदी हुआ सब शहर है
तुम आईं तो ऐसा मुझको लगा है
गई रात आया सुहाना सहर है
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दोहा सलिला
सागर-सिकता सा रहें, मैं-तुम पल-पल साथ.
प्रिय सागर प्यासी प्रिया लिए हाथ में हाथ.
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रहा गाँव में शेष है, अब भी नाता-नेह.
नगर न नेह-विहीन पर, व्याकुल है मन-देह.
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जब तक मन में चाह थी, तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं, शेष रही है चाह.
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राम नाम की चाह कर, आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल, कभी न मिटती चाह.
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दुनिया कहती युक्ति कर, तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर, मिले मुक्ति बिन चाह.
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भटक रहे बिन राह ही, जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर, चले जीव संजीव..
१४-११-२०१७
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बाल गीत
बिटिया छोटी
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फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
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ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
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इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
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दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
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हलुआ-पूड़ी इसे खा मुस्काए
तनिक न भाती सब्जी-रोटी
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खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१४-११-२०१६
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छंद सलिला:
अचल धृति छंद
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छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
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छंद सलिला:
अचल छंद
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अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
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वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं
१४.११.२०१३
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गुरुवार, 13 नवंबर 2025

मीना भट्ट, जीवन-धारा, पुरोवाक्

पुरोवाक् 
लोकोपयोगी गीतों की मंजूषा ''जीवन धारा''   
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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                    सनातन सलिला नर्मदा की घाटी आदि काल से साधना भूमि के रूप में प्रसिद्ध है। साधना की यह विरासत अतीत से वर्तमान तक गतिमान है। सर्व हित की साधना केवल आध्यात्मिक व्यक्तित्व ही नहीं करते, सांसारिक व्यक्ति भी सर्व कल्याण की साधना करता है। साहित्य की साधना इसी प्रकार की साधना है। साहित्य वह जिसमें सबका हित समाहित हो। नर्मदा तटीय संस्कारधानी जबलपुर की पुण्य भूमि पर साहित्य सृजन की दिव्य परंपरा चिरकालिक है। संस्कारधानी के समसामयिक साहित्य-साधकों में 'मीना भट्ट' एक ऐसा नाम है जो सत्य-शिव-सुंदर और सत-शिव-सुंदर को साहित्य सृजन का लक्ष्य मानकर, निरंतर सृजन में रत है। सामान्यत: नया साहित्यकार अपने लिखे को ही श्रेष्ठ समझता और आत्म मुग्ध रहता है। अंतर्जाल के विविध समूहों पर अधकचरा साहित्य निरंतर परोसा जा रहा है। मीना जी इस कुप्रवृत्ति का विरोध बोलकर नहीं, निरंतर लिखकर करती हैं। वे लिखने के साथ-साथ निरंतर पढ़ती और समझती हैं। गीत-गजल आदि विधाओं में मीना का रचनाकार कलम उठाने के पहले उसका अध्ययन करता है, निरंतर अभ्यास कर सृजन करता है, जानकारों से विमर्श करता है और अपने लेखन को तराशने के बाद प्रकाशित करता है। संभवत:, इस मनोवृत्ति का कारण मीना जी का विधि और न्याय विभाग से जुड़ा रहना है। मीना जी का एक और वैशिष्ट्य आत्म प्रचार से विमुख रहना और अपने पूर्व पद का अहं न रखना भी है। यह निरासक्त भाव लेखन के विषय और शिल्प के प्रति तटस्थ रहकर उससे संबंधित मौलिक चिंतन करने और उसे रचनाओं में अभिव्यक्त करने में सहायक होता है। ''जीवन धारा'' मीना जी की नवीन काव्य कृति है, जिसमें मीना जी की सुदीर्घ काव्य-सृजन साधना का संस्कार पंक्ति-पंक्ति में प्रतिबिंबित है।

                    जीवन धारा का श्रीगणेश वाग्देवी वंदना से करने की सनातन परंपरा को जीवंत रखते हुए मीना जी उन्हें 'महाबला', 'शत्रुनाशिनी', 'सुलोचना', 'सुमंगला', 'मुक्तिवाहिनी', 'प्रेमदायिनी', 'सुहासिनी', 'श्रीप्रदा', 'प्रशासनी' आदि अपारंपरिक विशेषणों से अभिषिक्त कर, मौलिक चिंतन दृष्टि का परिचय देती हैं। श्रीराम पर केंद्रित रचना में 'गंगा धारे' लिखा जाना मौलिक तो है किंतु लोक में 'गंगा धारे' शिव जी हेतु प्रयुक्त होता है। इसे 'गंग किनारे' लिखना अधिक समीचीन होता। वंदना क्रम में श्री कृष्ण, भारत देश के पश्चात लोक का स्मरण 'प्रेम' भाव को अपनाने के आह्वान से किया जाना द्वेषाधिक्य से ग्रसित इस समय में सर्वथा श्लाघ्य है। जीवन धारा के गीतों में जन सामान्य को जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने, पारस्परिक सद्भाव वृद्धि, सत्कर्म करने की प्रेरणा, राष्ट्र भक्ति, नैतिक मूल्यों की स्थापना तथा पर्यावरण और प्रकृति के प्रति दायित्व बोध के साथ नर-नारी के मध्य स्वस्थ्य पारस्परिक सहयोग भाव की आवश्यकता प्रतिपादित कर मीना जी ने अपने गीतों को केवल वाग्विलास होने से बचाकर, लोकोपयोगी और अनुकरणीय बनाने में सफलता अर्जित की है। गत ७ दशकों में प्रगतिवाद और यथार्थ की दुहाई देकर हिंदी साहित्य में जिस नकारात्मक और द्वेषवर्धक प्रवृत्ति की बढ़ आई है, उसका रचनात्मक प्रतिरोध करते हुए मीना जी ने अपने हर गीत में सकारात्मक और निर्माणात्मक सुरुचि का बीजारोपण किया है। 

                    मानव जीवन में ऋतु परिवर्तन की महती भूमिका है। मीना जी ने मौसमों के अतिरेकी विनाशक परिदृश्य पर मोहक स्वरूप को वरीयता ठीक ही दी है। सावन वर्णन में घोंसले भीगने पर भी पंछी का दाना चुनने आना उसकी जिजीविषा दर्शाता है किंतु चुगने को दाना न मिलना मनुष्यों के कदाचरण का संकेत करता है- 

छोड़ घोंसले भीगे-भीगे, 
पंछी आए आँगन में।
नहीं मिला दान चुगने को,
अब के देखो सावन में।। 

                    हमने बचपन में देखा है कि गरीब से गरीब घर में भी गाय और कुत्ते के लिए रोटी निकली जाती थी, अब संपन्नतम घरों से भी किसी को कुछ नहीं मिलता। मीना जी की खूबी यही है कि वे स्थूल वर्णन न कर परोक्ष संकेत करती हैं, समझनेवाले के लिए इशारा ही काफी होता है। 

                    वर्षा न होने संबंधी गीत में ''रिक्त नेह के घट सारे हैं, / कुटिल मलिनता भरी हुई है। / पत्थर हृदय जमाना सारा, / मानवता भी मरी हुई है।। /  चटक मन नित प्यास तरसे, / सूख हुआ तन भी पंजर है। / तरस रहे वर्षा को हम सब, / मौन मगर बैठ अंबर है।।'' लिखकर गीतकार ने अवर्षा के लिए प्रकृति को दोष न देते हुए मानव में स्नेह के अभाव और मलिनता के आधिक्य को इंगित कर 'वर्षा' को केवल मौसमी बरसात नहीं मानव जीवन में स्नेह की वर्षा के अभाव के रूप में शब्दित किया है, यह श्लेष प्रयोग गीत को चिंतन और चिंता दोनों धरातलों पर प्रतिष्ठित करता है। 

                    लोकतंत्र का आधार हर नागरिक को अपनी  सरकार आप चुनने का संविधान सम्मत मताधिकार है। 'जागो मतदाता, जागो अब' गीत में नागरिकों को उनके गुरुतर दायित्व का बोध कराया गया है। अपने गीतों में मीना जी सरल, सहज, प्रवाहमयी भाषा का उपयोग करते हुए अन्य भाषाओं के शब्दों से परहेज नहीं करतीं। इस गीत में अंग्रेजी भाषा के पोलिंग बूथ, वोटिंग कार्ड शब्दों का प्रयोग उनकी भाषिक उदार दृष्टि का परिचायक है। तद्भव / देशज शब्दों (मनवा, करतार, हिय, टोटा, अँखियाँ, जिया, नैना, डगर, छोरी, भौंरा, करधनिया, इत-उत आदि), उर्दू में व्यवहृत अरबी-फारसी शब्दों (मस्त, तूफान, खुशियाँ, रोशनी आदि), शब्द युग्मों (निशि-वासर, निशि-दिन, दिन-रात, राग-द्वेष, पाप-पुण्य, दीन-दुखी, शीलवंत-गुणवंत, मंदिर-मस्जिद, चंदल-रोली,धूल-धूसरित, राग-रागिनी आदि), तत्सम शब्दों (नवल, हलाहल, मयंक, अनुपम, अंबुज आदि) के साथ अन्य भाषा के शब्दों के देशज रूपों (अंग्रेजी सैंडल - संदल, संस्कृत हट्ट - हाट आदि), शब्द-आवृत्ति (गली-गली, खंड-खंड, निरख-निरख, अंग-अंग आदि)  के साथ बटोही (भोजपुरी), सैंदुर (बुंदेली) आदि शब्दों का सम्यक-सार्थक प्रयोग मीना जी के शब्द-सामर्थ्य का परिचायक है। 

                    इस गीतों में शृंगार (आध्यात्मिक-सांसारिक, मिलन-विरह) , शांत, करुण, भक्ति तथा वीर रस अपनी सरसता के साथ यथास्थान सहभागी होकर संकलन को समृद्ध कर रहे हैं। संकलन का आलंकारिक वैभव रुचिवान पाठक को अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रुपक, अतिशयोक्ति, पुनरावृत्ति आदि अलंकारों की छटा दिखाकर मुग्ध करता है। 

                    मीना जी व्यवसाय से न्यायाधीश रही हैं। स्वाभाविक है कि उन्हें कर्तव्य पालन और अनुशासन प्रिय हों। इस संकलन के माध्यम से केवम मनोरंजन न कार, उन्होंने पाठक के माध्यम से समग्र समाज को जाग्रत कार उसमें कर्तव्य बोध और अनुशासन पालन का पथ शक्कर में लपेटी कुनैन की गोली खिलाने की तरह किया है- 

देता गौरव है अनुशासन, 
देखो अलख जगाएगा। 
अनुशासन के पालन से ही 
युग परिवर्तन आएगा।  

                    इन गीतों की भाषा प्रांजल, प्रवाहमयी, सरस और सुबोध है। मुझे आशा हे नहीं भरोसा भी है कि ये गीत हर आयु वर्ग, क्षेत्र, पंथ और वादाग्रहियों द्वारा सराहे और समझें जाएँगे। लंबे समय बाद साहित्यिक गुणवत्ता युक्त लोकोपयोगी गीत संग्रह की पांडुलिपि का वाचन कर रसानंद में मगन होने का अवसर मिला है। मीना जी साधुवाद की पात्र हैं।  
          
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४                     

विचार हेतु 
लक्ष्मी दुर्गावती में काल-क्रम दोष (दुर्गावती पहले हुईं, लक्ष्मीबाई बाद में) 
पाना तुमको लक्ष्य अगर तो / निशि-वासर चलते रहिए  - तुम के साथ रहो, आप से साथ रहिए?