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मंगलवार, 2 सितंबर 2025

सितंबर २, सोरठा, सूर्य, परिवार, क्षणिका, देव, नवगीत, मुक्तक, यमक, दोहा, मुक्तिका, छंद

सलिल सृजन सितंबर २
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सलिल सृजन सितंबर २
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सितम्बर : कब-क्या???
१. जन्म: फादर कामिल बुल्के, दुष्यंत कुमार, शार्दूला नोगजा
४. जन्म: दादा भाई नौरोजी, निधन: धर्मवीर भारती
५. जन्म: डॉ. राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस), निधन मदर टेरेसा
८. जन्म: अनूप भार्गव, विश्व साक्षरता दिवस
९. जन्म: भारतेंदु हरिश्चन्द्र
१०. जन्म: गोविंद वल्लभ पन्त, रविकांत 'अनमोल'
११. जन्म: विनोबा भावे, निधन: डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा
१४. जन्म: महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा, हिंदी दिवस
१८. बलिदान दिवस: राजा शंकर शाह-कुंवर रघुनाथ शाह , जन्म: काका हाथरसी
१९. निधन: पं. भातखंडे
२१. बलिदान दिवस: हजरत अली,
२३. जन्म: रामधारी सिंह दिनकर
२५. दीन दयाल उपाध्याय दिवस 
२७. निधन: राजा राम मोहन राय, विश्व पर्यटन दिवस
२९. जन्म: ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, विश्व ह्रदय दिवस
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शोधालेख:
छंद की आधार भूमि काव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
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छंद:
छंद की आत्मा ध्वनि और काया काव्य है। काव्य के बिना छंद की प्रतीति दुष्कर और छंद के बिना काव्य का लालित्य / चारुत्व नहीं होता। काव्य के विविध तत्व ही छंद की जड़ें ज़माने के लिए भूमि और छंद की फसल उगने के लिए उर्वरक का कार्य करते हैं। छंद-चर्चा के पूर्व काव्य और छंद के अंतर्संबंध तह काव्य के गुण-दोषों पर दृष्टिपात करना उचित होगा।
मात्रा, वर्ण, विराम/यति, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं। छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है। छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं। छंद को लौकिक-वैदिक, हिंदी-अहिंदी, भारतीय-विदेशी, वाचिक आदि वर्गीकरण भी हैं। छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं। वाचस्पतय संस्कृत शब्दकोष के अनुसार 'छदि' में 'इयसुन' प्रत्यय लगने से प्राप्त 'छन्दस' का अर्थ आच्छादित करनेवाला होता है। 'छंदोबद्ध पदं पद्यं' अर्थात छंदबद्ध पंक्ति ही अद्य है। छंद शिव से क्रमश: विष्णु, इंद्र, ब्रहस्पति, मांडव्य, सैतव, यास्क आदि के माध्यम से पिंगल को प्राप्त होना बताया गया है।
वेद को सकल विद्याओं का मूल माना गया है। वेद के ६ अंगों १. छंद, २. कल्प, ३. ज्योतिऽष , ४. निरुक्त, ५. शिक्षा तथा ६. व्याकरण में छंद का प्रमुख स्थान है।
छंदः पादौतु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ कथ्यते।
ज्योतिऽषामयनं नेत्रं निरुक्तं श्रोत्र मुच्यते।।
शिक्षा घ्राणंतुवेदस्य मुखंव्याकरणंस्मृतं।
तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रम्हलोके महीतले।।
वेद का चरण होने के कारण छंद पूज्य है। पग/चरण के बिना मनुष्य कहीं जा नहीं जा सकता, कुछ जान या देख नहीं सकता। चरण /पद के बिना काव्य व छंद को नहीं जाना जा सकता और छंद को जाने बिना वेद में गति नहीं हो सकती। इसलिए छंदशास्त्र का ज्ञान न होने पर मनुष्य पंगुवत है, वह न तो काव्य की यथार्थ गति समझ सकता है न ही शुद्ध रीति से काव्य रच सकता है। छंदशास्त्र को उसके आदिप्रणेता महर्षि पिंगल के नाम पर पिंगल तथा पर्यायवाची शब्दों सर्प, फणि, अहि, भुजंग आदि नामों से संबोधित कर शेषावतार कहा गया है। जटिल से जटिल विषय छंदबद्ध होने पर सहजता से कंठस्थ ही नहीं हो जाता, आनंद भी देता है। सर्प की फुंफकार में ध्वनि का आरोह-अवरोह, गति-यति की नियमितता और छंद में इन लक्षणों की व्याप्ति भी छंद को सर्प व पर्यायवाचियों से संबोधन का कारण है।
नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात संसार में नर तन दुर्लभ है, विद्या अधिक दुर्लभ, काव्य रचना और अधिक दुर्लभ तथा सुकाव्य-सृजन की शक्ति दुर्लभतम है। काव्य के पठन-पाठन अथवा श्रवण से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्यशास्त्रेण विनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसने नच मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित होता है। प्राचीन काल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कम होने के कारण काव्य-सृजन केवल कवित्व शक्ति संपन्न प्रतिभावान महानुभावों द्वारा किया जाता था जो श्रवण परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर अपने सृजन में यथावत अभिव्यक्त कर पाते थे। श्रवण, स्मरण व सृजन के अंतराल में स्मृति भ्रम के कारण विधान उल्लंघन होना स्वाभाविक है। वर्तमान काल में शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने, भाषा व काव्यशास्त्र से आजीविका न मिलने तथा इन क्षेत्र में विशेष योग्यता अथवा अवदान होने पर भी राज्याश्रय या अलंकरण न होने के कारण सामान्यतः अध्ययनकाल में इनकी उपेक्षा की जाती है तथा कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण-पिंगल समझे बिना छंदहीन व दोषपूर्ण काव्य रचनाकर कवि आत्मतुष्टि पाल लेते हैं जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य के तत्वों रस, छंद, अलंकार आदि से संबंधित सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित संस्कृत व अन्य भाषा/बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप तक सीमित जन पूरी तरह समझ नहीं पाते । प्राथमिक स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के चलन ने हिंदी की समझ और घटाई है। छंद रचना के भाषा आधार भूमि का कार्य करती है।
भाषा:
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या/तथा ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।
भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम अपने अनुभूतियाँ, भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों की अनुभूतियाँ, भाव और विचार गृहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द ।।
लिपि: विविध ध्वनियों को लेखन सामग्री के माध्यम से किसी पटल पर विशिष्ट संकेतों द्वारा अंकित कर पढ़ा जा सकता है। इन संकेतों को लिपि कहते हैं। लिपि ध्वनि का अंकित रूप है। हिंदी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
व्याकरण (ग्रामर):
व्याकरण: (वि+आ+करण) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।
वर्ण /अक्षर: ध्वनि का लघुतम उच्चारित रूप वर्ण है। वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।
स्वर (वोवेल्स):
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता, वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।
व्यंजन (कांसोनेंट्स):
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।
शब्द: अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है।
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
१. अर्थ की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि एवं
आ. निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. रूढ़ / स्वतंत्र शब्द: यथा भारत, युवा, आया आदि।
आ. यौगिक शब्द: दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
इ. योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा- दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के दृष्टि से शब्द प्रकार :
अ. तत्सम शब्द: तद+सम अर्थात उसके समान, मूलतः हिंदी की जननी संस्कृत के शब्द जो हिंदी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा- अंबुज, उत्कर्ष, कक्षा, अग्नि, विद्या, कवि, अनंत, अग्राज, कनिष्ठ, कृपा, क्रोध आदि।
आ. तद्भव शब्द: तत+भव अर्थात संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिंदी में प्रयोग किया जाता है यथा- निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग, अंगुष्ठिका से अंगूठी, अद्य से आज, ग्राम से गाँव, दंड से डंडा, वरयात्रा से बरात, श्यामल से सांवला, सुवरण से स्वर्ण/सोना आदि।
इ. अनुकरण वाचक शब्द: विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा- घोड़े की बोली से हिनहिनाना, बिल्ली की बोली से म्याऊँ कौव से काँव-काँव, कुत्ते से भौंकना आदि।
ई. देशज शब्द: आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा- खिड़की, कुल्हड़ आदि।
उ. द्रविड़ परिवार की भाषाओँ से गृहीत शब्द: तमिल के काप्पी से कोफी, शुरुट से चुरुट, तेलुगु से पिल्ला, अर्क काक, कानून, कुटिल, कुंद, कोण, चतुर, चूडा, तामरस, तूल, दंड, मयूर, माता, मीन मुकुट, लाला, शव आदि।
ऊ. विदेशी शब्द: संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा- फ़ारसी से कमीज़, पाजामा, देहात, शहर, सब्जी, अंगूर, हलवा, जलेबी, कुर्सी. सख्त, दावा, मरीज़, हकीम आदि लगभग ३००० शब्द। अरबी से अदालत, किताब, कलम, कागज़, शैतान मुकदमा, फैसला आदि। तुर्की से बहादुर, कैंची, बेगम, बाबा, करता, गलीचा, चाकू, गनीमत लाश, सुराग आदि। पश्तो से पठान, गुंडा, डेरा, गड़बड़, नगाड़ा, हमजोली मटरगश्ती आदि। पुर्तगाली से आलमारी, स्त्री, आया, कनस्तर, गोदाम, चाबी, गमला, तौलिया, परात, तंबाकू आदि। जापानी से हाइकु, स्नैर्यु, सायोनारा आदि। अंग्रेजी से इंजिन, मोटर, कैमरा, रेडिओ, फोन, मीटर, होस्टल, फीस, स्टेशन, कंपनी, टीम, परेड, प्रेस, अपील, टाई आदि लगभग ३००० शब्द।
४. प्रयोग के आधार पर:
अ. विकारी शब्द: वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
आ. अविकारी शब्द: वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।
कविता के तत्वः कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं।
कविता के बाह्य तत्वः
अ. लयः भाषिक ध्वनियों के उतार-चढ़ाव, शब्दों की निरंतरता व विराम आदि के योग से लय बनती है। कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके। संगीत में समय की समान गति को लय कहते हैं। लय के ३ प्रकार विलंबित, मध्य तथा द्रुत हैं। विलंबित लय अति धीमी और गंभीर होती है। मध्य लय सामान्य होती है। द्रुत लय के ३ प्रकार दुगुन, तिगुन तथा चौगुन हैं। साहित्य में लय से आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह से है। साहित्य में लय का आशय विशिष्ट भाषिक प्रवाह है।
ताल: संगीत में समय की माप ताल से की जाती है। ताल के हिस्सों को विभाग या 'टुकड़ा' कहा जाता है जो छोटे-बड़े हो सकते हैं। टुकड़ा के बोल भारी होने पर उसकी पहली मात्रा पर ताली और हल्के होने पर खाली होती है। ताल की पहली मात्रा को 'सम' कहते है। तबला वादन इसी स्थान से आरंभ होता है तथा गायन इसी स्थान पर समाप्त होता है।
मात्रा: काव्य में ध्वनि को उसके उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर लघु तथा दीर्घ मात्रा में विभाजित किया गया है। ध्वनि को स्वर-व्यंजन के माध्यम से व्यक्त किये जाने पर अक्षर का उच्चारण होता है। इन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या गुरु कहा जाता है। इनका मात्रा भार क्रमश: १ व २ होता है। संगीत में ध्वनि की उपस्थिति ताल से होती है इसलिए ताल की इकाई को मात्रा कहा जाता है। मात्रा समूह से साहित्य में छंद तथा संगीत में ताल की उत्पत्ति होती है किंतु ये एक दूसरे के पर्याय नहीं सर्वथा भिन्न है।
मात्रा गणना नियम:
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय के आधार पर मात्रा गिनी जाती है। एकल ध्वनि जैसे चुटकी बजने में लगा समय ईकाई माना गया है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं। एक मात्रा का संकेत I, तथा २ मात्रा का संकेत S है।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- न = १, अब = १+१ = २, उधर = १+१+१ = ३, ऋषि = १+१= २, उऋण १+१+१ = ३, अनवरत = ५ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- गा = २, आम = २+१ = ३, काकी = २+२ = ४, पूर्णिमा = ५, कैकेई = २+२+२ = ६, ओजस्विनी = २+२+१+२ = ७, भोलाभाला = २+२+२+२ = ८ आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = १+१ = २, प्रिया = १+२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १+२+१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह, पूर्वाक्षर के साथ गिनें। बर्र = २+१ = ३, पर्व = २+१ = ३, बर्रैया २+२+२ = ६ आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर उच्चारण के आधार बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- तुम्हें = १+ २ = ३, कन्हैया = क+न्है+या = १+२+२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २+१ = ३. कुंभ = कुम्+भ = २+१ = ३, झं+डा = झन्+डा = झण्+डा = २+२ = ४ आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = १+१ = २आदि। हँस = १+१ =२, हंस = हं+स = २+१ = ३ आदि।
शब्द-योजनाः कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो ।
तुकः काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं। अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के २ प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं। हिंदी और उर्दू रचनाओं में ध्वन्याक्षरों की भिन्नता के कारण तुक भिन्नता होती है। हिंदी में 'ह' ध्वनि के लिए एक ही वर्ण है जबकि उर्दू में २ 'हे' तथा 'हमजा' पदांत में दो भिन्न वर्ण वाले शब्द नहीं होना चाहिए। इसलिए उर्दूवाले 'हे' तथा 'हमजा' वाले शब्दों की तुक गलत मानते हैं जबकि हिंदी में दोनों के लिए एक ही वर्ण 'ह' है। अत: हिंदीवाले ऐसी तुक सही मानते हैं।तुकांतता देखते समय केवल अंतिम अक्षर नहीं अपितु उसके पूर्व के अक्षर भी देखे जाते हैं।
एकाक्षरी तुकांत: एकांत-दिगंत, आभास-विश्वास, आनन - साजन, सजनी - अवनी, आदि।
दो अक्षरी तुकांत: दिनकर - हितकर, सफल - विफल, आदि।
तीन अक्षरी तुकांत: प्रभाकर - विभाकर आदि।
छंद मंजरी में सौरभ पाण्डेय जी ने तुकांत निर्वहन के ३ प्रकार बताये हैं:
उत्तम: खाइये - जाइये, नमन - गमन आदि।
मध्यम: सूचना - बूझना, सुमति - विपति आदि।
निकृष्ट: देखिये - रोइये, साजन - दीनन आदि।
अलंकारः अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के ३ मुख्य प्रकार शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार के अनेक भेद-उपभेद हैं। अग्निपुराण तथा भोज कृत कंठाभरण के अनुसार: शब्दालंकार: जाति, गति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुम्फना, शैया, पथिति, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, वाकोन्यास, प्रहेलिका, गूढ़, प्रश्नोत्तर, अध्येय, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनय आदि अर्थालंकार जाति, विभावना, हेतु, अहेतु, सूक्ष्म, उत्तर, विरोध, संभव, अन्योन्य, निदर्शन, भेद, समाहित, भरन्ति, वितर्क, मीलित, स्मृति, भाव, प्रत्यक्ष, अनुमान, आप्त वचन, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव आदि तथा उभयालंकार उपमा, रोपक, सामी, संशयोक्ति, अपन्हुति, समाध्ययुक्ति, समासोक्ति, उत्प्रेक्षा, अप्रस्तुत प्रस्तुति, तुल्ययोगिता, उल्लेख, सहोक्ति, समुच्चय, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, विशेष परिष्कृति, दीपक, क्रम, पर्याय, अतिशय, श्लेष, भाविक तथा संसृष्टि हैं। विविध आचार्यों ने शताधिक अलंकार बताए हैं।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस: राजशेखर कृत काव्य मीमांसा के अनुसार काव्य विधा शिव से ब्रम्हा, तथा ब्रम्हा से १८ अधिकरण भिन्न-भिन्न ऋषियों को प्राप्त हुए जिन्होंने इनका विकास तथा प्रसार किया "रूपक निरूपणीयं भरत, रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वर:"। ये नंदिकेश्वर जबलपुर के समीप बरगी ने निकट के वासी थे।इनका गाँव बरगी बाढ़ के जलाशय में डूब गया तथा इनके द्वारा पूजित शिवलिंग समीपस्थ पहाडी पर शिवालय में स्थापित किया गया है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है। यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है। रस के ९ प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं। कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवाँ रस मानते हैं।
अनुभूतिः गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को।
भावः रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं। हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं। श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत, निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता।
काव्य लक्षण: आचार्य भारत ने अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र में ३६ काव्य लक्षण बताए हैं: भूषण, अक्षरसंघात, शोभा, उदाहरण, हेतु, संशय, दृष्टांत, प्राप्ति, अभिप्राय, निदर्शन, निरुक्त, सिद्धि, विशेषण, गुणानिपात, अतिशय, तुल्यतर्क, पदोच्चय, दृष्ट, उपद्रुष्ट, विचार, त्द्विपर्यय, भ्रंश, नौने, माला, दाक्षिण्य, गर्हण, अर्थापत्ति, प्रसिद्धि, पृच्छा, सारूप्य, मनोरथ, लेश, क्षोभ, गुणकीर्तन, अनुक्तसिद, प्रिय वचनं।
काव्य प्रयोजन / उद्देश्य: १. प्रीति: 'मुत प्रीति: प्रमदो हर्षो प्रमोदामोद संमदा:' - अमरकोश२/२४। यहाँ प्रीति से आशय काव्यकलाजनित आनंद से है।
आचार्य भरत इसे 'विनोद्जन्य आनंद' कहते हैं। डंडी इसका अर्थ 'काव्यास्वादन व काव्य-विहार कहते हैं। भामह 'कलात्मक उन्मेष व आनंद' को पर्यायवाची मानते हैं। कुंतक प्रीति को 'अन्त्श्चमत्कृति' का फल बताते हैं तो मम्मट 'परिनिवृत्ति' को प्रीति कहते हैं। आनंदवर्धन प्रीति को 'आनंद' कहते हैं। अभिनव गुप्त 'कलात्मक आनंद' को सर्वोच्च मानते हैं। जगन्नाथ इसे 'विनाशोपरांत अद्वैतानंद' कहते हैं। इस मनोदशा को रक्षेखर 'भावसमाधि' कहते है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'भाव योग' कहते हैं। २. लोकहित: काव्य को लोकहित का माध्यम कहा गया है। राजशेखर के अनुसार काव्य का जन्म विविध कलाओं के योग से है। वामन के अनुसार 'कवि को रचना कर्म में प्रवृत्त होने के लिए विविध कलाओं का ज्ञान होना चाहिए'। भामह की ६४ कलाओं की सूची में 'काव्य लक्षण का ज्ञान' भी है। ३. यश / कीर्ति: कालिदास "मंद: कवि यशप्रार्थी' कहकर यश की कामना करते हैं। डंडी 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' शशि-रवि रहने तक यश की कामना करते हैं। भामह पृथ्वी तथा आकाश में कवि का यश रहने तक देव पद की प्राप्ति बताते हैं।
काव्य दोष: दोषों को गुणों का विपर्यय (एव एव विपर्यस्ता गुणा) कहते हुए १० दोष (गूढ़ार्थ, अर्थान्तर, अर्थविहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ, अभिलुप्तार्थ, न्यायदपेत, विषम, विसंधि, शब्दहीन) बताये हैं। आचार्य मम्मट के अनुसार: मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः। / उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।। अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्य प्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- 'नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।' स्पष्ट है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव, शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पद-दोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिंदी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अंतर्गत आते हैं। इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है: नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि।श्रुतिकटुत्व दोष श्रृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और न्यायार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के मुख्य अर्थ (रस) के विधात (बाधक) तत्व ही दोष हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने साहित्यदर्पण में "रसापकर्षका दोष:" कहकर रस का अपकर्ष करने वालो तत्वों को दोष बताया है।
काव्य दोषों का विभाजन: काव्यप्रकाश में ७० दोष बताए गये हैं जिन्हें चार वर्गो में विभाजित किया गया है:-
१-शब्ददोष। २- वाक्य दोष। ३- अर्थ दोष। ४- रस दोष।
हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं। संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया। प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए, उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए। इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा। परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारु रूप से नहीं हो सका। काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई। लक्षण पद्य में देने की परंपरा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते। वे वास्तव में कवि ही थे।" लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं। श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते। इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है।
काव्य गुण: ध्वनिखंडों के संवेदनात्मक आवेग की आनुभूतिक प्रतीति (सेंसरी आस्पेक्ट ऑफ़ सिलेबल्स) ही काव्य गुण का आरंभ है। काव्य गुण की परिकल्पना काव्य में अभिव्यक्त विविध मन: स्थितियों का बोध करने हेतु ही है। आचार्य भरत के अनुसार १० काव्य गुण श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कांति तथा समाधि हैं। भामह तथा आनंदवर्धन ओज (श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि), प्रसाद (कांति, सुकुमारता) तथा माधुर्य ३ काव्यगुण बताते हैं। वामन १० शब्द गुण व १० अर्थ गुण मानते हैं तो अग्निपुराणकार गुण के ३ भेद शब्द गुण (श्लेष, लालित्य, गांभीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य, योगिकी), अर्थ गुण (माधुर्य, संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि, सामयिकत्व) व उभय गुण (प्रसाद, सौभाग्य, यथासंख्य, प्रशस्ति, पाक, राग) बताता है। जगन्नाथ अर्थ गुणों की संख्या अनंत मानते हैं।
आशा है काव्यात्मा छंद से परिचय के पूर्व छंद की देह काव्य का सामान्य परिचय उपयोगी होगा।
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शब्दार्थ: पद = पंक्ति, पदादि पंक्ति के आरंभ में, पदांत = पंक्ति के अंत में, पद = पंक्ति समूह सूर के पद, पदादि = पंक्ति का आरंभ, पदांत = पंक्ति का अंत, गति = एक साथ पढ़े जाना, यति दो शब्दों के बीच विराम, चरण = पंक्ति/पद का अंश, श्लेष = संश्लिष्ट पद योजना, प्रसाद = असंश्लिष्ट पद योजना, समता = असमस्त पद योजना, ओज = समस्त पद योजना, माधुरी = रस सिक्त अनुद्वेजक शब्दावली, अर्थ व्यक्ति = अर्थ स्पष्ट करनेवाली शब्दावली, सुकमार्ता बोलने में सुलभ, उदारता कवियों का सुंदर कथन, कांति = शब्दार्थ रूप काव्य का सुंदर कथन, समाधि = वाक्य; अर्थ; भाव आदि का एकाकार हो जाना, गुण = मन को रस दशा तक पहुँचाने का भाषिक आधार।
*
संदर्भ: १. भारतीय काव्य शास्त्र -डॉ. कृष्णदेव शर्मा, २. आलोचना शास्त्र -मोहन बल्लभ पंत, ३. कव्य मनीषा -डॉ. भगीरथ मिश्र, ४. आधुनिक पाश्चात्य काव्य और समीक्षा के उपादान -डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, ५. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत -डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, ६. पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद -सं. राजकुमार कोहली, ७. भारतीय काव्य शास्त्र योगेन्द्र प्रताप सिंह, ८. अग्नि पुराण गीताप्रेस गोरखपुर।
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कुंडलियां
दिल
दिल दिल से दिल हारकर, बन बैठा दिलदार।
हुई दिल्लगी दिल लगी, पहुँच गई दिल-द्वार।।
पहुँच गई दिल द्वार, न जोड़ा दिल जो तोड़ा।
बेदिल फेवीकोल, न लाई हाथ मरोड़ा।।
दिल बस दिल में बसा, न पाई कर दिल घायल।
दिल डाक्टर दर पहुँच, भर रहा दिल दिल का बिल।।
२-८-२०२३
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सोरठा
रवि भास्कर मार्तण्ड, रश्मिरथी दिनकर दिनद।
लोहित भानु प्रचंड, सूरज सविता सूर्य शुभ।।
*
आदिदेव भुवनेश, दीप्त दिवाकर प्रभाकर।
छाया-स्वामी दिनेश, किरणकांत किरणेश हे।।
*
अरुणकांत अरुणेश, त्रिभुवनपति भुवनेsश्वर।
दिवाकान्त दीप्तेश, ज्योतिपुंज जगदीsश्वर।
*
रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत।
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत।।
२-९-२०२२
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विमर्श - परिवार
क्या एक पति विवाह पश्चात अपनी पत्नी के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगा?
क्या एक पत्नी अपने पति के पुत्र को (जो उसका नहीं है) स्वीकार करेगी?
सामान्यत: उत्तर होगा नहीं।
अगर कर लें तो क्या चारों साथ-साथ सहज और प्रसन्न रह सकेंगे, एक दूसरे पर विश्वास कर सकेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर है शिव परिवार। शिव-पार्वती विवाह पश्चात उनके जीवन में आए कार्तिकेय शिवपुत्र हैं, पार्वती पुत्र नहीं हैं। गणेश पार्वती पुत्र हैं, शिव पुत्र नहीं। क्या इससे शिव-पार्वती का दांपत्य प्रभावित हुआ? नहीं।
वे एक दूसरे की संतानों को अपना मानकर जगत्कर्ता और जगज्जननी हो गए। अद्वैत में द्वैत के लिए स्थान नहीं होता। पति-पत्नी एक हो गए तो दूरी, निजता या गैरियत क्यों?
कौन किसका पोषण या शोषण कर सकता है?
किसका त्याग कम, किसका अधिक? ऐसे प्रश्न ही बेमानी हैं।
छोटी-छोटी बातों के अहं को चश्मे से बड़ा बनाकर विलग हो रहे दंपति देखें कि क्या उनके जीवन की समस्या शिव-पार्वती के जीवन की समस्याओं से अधिक बड़ी हैं?
विषमताओं का हलाहल कंठ में धारण करनेवाला ही, शंकाओं को जयकर शंकर बनता है।
पर्वत की तरह बड़ी समस्याओं से अहं की लड़ाई न लड़कर, पुत्री की तरह स्नेहभाव से सुलझानेवाली ही पार्वती हो सकती है।
प्रकृति प्रदत्त विषमता को समभाव से ग्रहण कर, एक दूसरे पर बदलने का दबाव बनाए बिना सहयोग करने पर अरिहंता कार्तिकेय ही नहीं, विघ्नहर्ता गणेश भी पुत्र बनकर पूर्णता तक ले जाते हैं, यही नहीं ऋद्धि-सिद्धि भी पुत्रवधुओं के रूप में सुख-समृद्धि की वर्षा करती हैं।
गणेश चतुर्थी का पर्व सहिष्णुता, समन्वय और सद्भाव का महापर्व है।
आइए! हम सब ऐक्य-सूत्र में बँधकर, जमीन में जड़ जमानेवाली दूर्वा से प्रेरणा ग्रहणकर गणपति गणनायक को प्रणाम करने की पात्रता अर्जित करें।
हम शिव परिवार की तरह भिन्न होकर अभिन्न हों, अनेकता को पचाकर एक हो सकें।
गणेश चौथ
२-९-२०१९
***
क्षणिका: कृपा
"कृपा चाहता हूँ"
न कहना कभी भी,
वरना नहीं तुम
रिहा हो सकोगे।
बहिन है 'कृपा'
इन जज साहिबा की
माँगा जो,
मुश्किल में
ज्यादा फँसोगे।
२.९.२०१८
***
विमर्श - देवता कौन हैं?
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना' है। भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, पराप्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर - वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने और पूछने पर ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विषय-महेश) फिर डेढ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता -- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि को गिना जाता है।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता आते हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व
आदि) की गिनती की जाती है।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक करते है। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, सम्प्रदाय, अलग अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में सबसे "तिस्त्रो देवता".(तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ। इनका कार्य सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गयी। निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत के (शांति पर्व) में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतन्त्र माना जाता है।प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती), शंकर, कृष्ण, इन्द्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
२-९-२०१६
***
दोहा
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
संविधान को स्वार्थ हित, नेता रहे मरोड़
*
चाँद देखता चाँद को, हवा-चाँदनी मौन
ठगे रह गये पूछते, किससे सुन्दर कौन?
***
नवगीत:
*
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दर्जा सबसे अलग दे दिया
चार-चार शादी कर लें.
पा तालीम मजहबी खुद ही
अपनी बर्बादी वर लें.
अलस् सवेरे माइक गूँजे
रब की नींद हराम करें-
अपनी दुख्तर जिन्हें न देते
उनकी दुख्तर खुद ले लें.
फ़र्ज़ भूल दफ़्तर से भागें
कहें इबादत ही मजहब।
कट्टरता-आतंकवाद से
खुश हो सकता कैसे रब?
बिसरा दी
सूफी परंपरा
बदतर फतवे खाप से.
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
भारत माँ की जय से दूरी
दें न सलामी झंडे को.
दहशतगर्दों से डरते हैं
तोड़ न पाते डंडे को.
औरत को कहते जो जूती
दें तलाक जब जी चाहे-
मिटा रहे इतिहास समूचा
बजा सलामी गुंडे को.
रिश्ता नहीं अदब से बाकी
वे आदाब करें कैसे?
अपनों का ही सर कटवाते
देकर मुट्ठी भर पैसे।
शासन गोवध
नहीं रोकता
नहीं बचाता पाप से
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
दो कानून बनाये हैं क्यों?
अलग उन्हें क्यों जानते?
उनकी बिटियों को बहुएँ
हम कहें नहीं क्यों मानते?
दिये जला, वे होली खेलें
हम न मनाते ईद कभी-
मिटें सभी अंतर से अंतर
ज़िद नहीं क्यों ठानते?
वे बसते पूरे भारत में
हम चलकर कश्मीर बसें।
गिले भुलाकर गले मिलें
हँसकर बाँहों में बाँध-गसें।
एक नहीं हम
नज़र मिलायें
कैसे अपने आपसे?
वाजिब है
वे करें शिकायत
भेदभाव की आपसे
*
(उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी द्वारा मुस्लिमों से भेदभाव की शिकायत पर)
आरक्षण सब चाहते, रहा न कोई छोड़
संविधान को स्वार्थ हित, नेता रहे मरोड़
२-९-२०१५
विमर्श:
देवताओं को खुश करने पशु बलि बंद करो : हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
हमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए की जानेवाली पशुबलि पर प्रतिबन्ध लगते हुए कहा है कि हजारों पशुओं को बलि के नाम पर मौत के घाट उतरा जाता है. इसके लिए पशुओं को असहनीय पिद्दा साहनी पड़ती है. न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और सुरेश्वर ठाकुर की खंडपीठ के अनुसार इस सामाजिक कुरीति को समाप्त किया जाना जरूरी है. नेयाले ने आदेश किया है कि कोई भी पशुओं की बलि नहीं देगा।
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों के निर्णय के मुताबिक पशुओं को हो रही असनीय पीड़ा और मौत देना सही नहीं है. प्रश्न यह है कि क्या केवल देव बलि के लिए अथवा मानव की उदर पूर्ती लिए भी? देवबली के नाम पर मरे जा रहे हजारों जानवर बच जाएँ और फिर मानव भोजन के नाम पर मारे जा रहे जानवरों के साथ मारे जाएँ तो निर्णय बेमानी हो जायेगा। यदि सभी जानवरों को किसी भी कारण से मारने पर प्रतिबंध है तो माँसाहारी लोग क्या करेंगे? क्या मांसाहार बंद किया जायेगा?
इस निर्णय का यह अर्थ तो नहीं है की हिन्दु मंदिर में बलि गलत और बकरीद पर मुसलमान बलि दे तो सही? यदि ऐसा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. आप सोचें और पानी बात यहाँ कहने के साथ संबंधित अधिकारीयों और जनप्रतिनिधियों तक भी पहुंचाएं।
मुक्तक सलिला:
(त्रयोदशी छंद)
*
मनमानी कर रहे हैं
गधे वेद पढ़ रहे हैं
पंडित पत्थर फोड़ते
उल्लू पद वर रहे हैं
*
कौन किसी का सगा है
अपना देता दगा है
छुरा पीठ में भोंकता
कहे प्रेम में पगा है
*
आप टेंट देखे नहीं,
काना पर को दोष दे
कुर्सी पा रहता नहीं,
कोई अपने होश में
*
भाई-भतीजावाद ने
कमर देश की तोड़ दी
धारा दीन-विकास की
धनवानों तक मोड़ दी
*
आय नौकरों की गिने,
लेते टैक्स वसूल वे
मालिक बाहर पकड़ से,
कहते सही उसूल है
२-९-२०१४
***
मुक्तक
देखकर चलिए बुरा है यह जमाना
लगे ठोकर तो न औरों को बताना
दर्द बाँटेगा न कोई, हँसी होगी
बेहतर है चोट चुप सह मुस्कुराना
***
दोहा
रश्मिरथी दिनकर नमन, रवि भास्कर मार्तण्ड
सूरज सूर्य दिनज नमन, लोहित भानु प्रचंड
*
रात अलार्म लगा रहे, प्रात जग सकें मीत
रहें ना रहें अनिश्चित, हुई आस की जीत
२-९-२०१३
***
दोहा सलिला:
यमक का रंग दोहा के संग-
....नहीं द्वार का काम
*
मन मथुरा तन द्वारका, नहीं द्वार का काम.
प्राणों पर छा गये है, मेरे प्रिय घनश्याम..
*
बजे राज-वंशी कहे, जन-वंशी हैं कौन?
मिटे राजवंशी- अमिट, जनवंशी हैं मौन..
*
'सज ना' सजना ने कहा, कहे: 'सजाना' प्रीत.
दे सकता वह सजा ना, यही प्रीत की रीत..
*
'साजन! साज न लाये हो, कैसे दोगे संग?'
'संग-दिल है संगदिल नहीं, खूब जमेगा रंग'..
*
रास खिंची घोड़ी उमग, लगी दिखने रास.
दर्शक ताली पीटते, खेल आ रहा रास..
*
'किसना! किस ना लौकियाँ, सकूँ दही में डाल.
जीरा हींग बघार से, आता स्वाद कमाल'..
*
भोला भोला ही 'सलिल', करते बम-बम नाद.
फोड़ रहे जो बम उन्हें, कर भी दें बर्बाद..
*
अर्ज़ किया 'आदाब' पर, वे समझे आ दाब.
वे लपके मैं भागकर, बचता फिर जनाब..
*
शब्द निशब्द अशब्द हो, हो जाते जब मौन.
मन से मन तक 'सबद' तब, कह जाता है कौन??
२-९-२०११
***
मुक्तिका
मछलियाँ
*
कामनाओं की तरह, चंचल-चपल हैं मछलियाँ.
भावनाओं की तरह, कोमल-सबल हैं मछलियाँ..
मन-सरोवर-मथ रही हैं, अहर्निश ये बिन थके.
विष्णु का अवतार, मत बोलो निबल हैं मछलियाँ..
मनुज तम्बू और डेरे, बदलते अपने रहा.
सियासत करती नहीं, रहतीं अचल हैं मछलियाँ..
मलिनता-पर्याय क्यों मानव, मलिन जल कर रहा?
पूछती हैं मौन रह, सच की शकल हैं मछलियाँ..
हो विदेहित देह से, मानव-क्षुधा ये हर रहीं.
विरागी-त्यागी दधीची सी, 'सलिल' है मछलियाँ..
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
२.९.२०१०
***

सितंबर

सलिल सृजन सितंबर १
सितंबर १ कब....  क्या....



जूलियन और ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार सितंबर वर्ष का नौवाँ महीना है । इसकी अवधि ३० दिन होती है।सितंबर, ट्रेस रिचेस ह्यूरेस डू डुक डे बेरी सेउत्तरी गोलार्ध में सितम्बर और दक्षिणी गोलार्ध में मार्च का महीना मौसमी रूप से समान होता है। उत्तरी गोलार्ध में, मौसम संबंधी शरद ऋतु की शुरुआत १ सितंबर से होती है। दक्षिणी गोलार्ध में, मौसम संबंधी वसंत की शुरुआत १ सितंबर से होती है।

पूर्वी रूढ़िवादी चर्च में सितंबर धार्मिक वर्ष की शुरुआत का प्रतीक है । उत्तरी गोलार्ध के कई देशों में यह शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत है , जिसमें बच्चे गर्मी की छुट्टियों के बाद , कभी-कभी महीने के पहले दिन , स्कूल वापस जाते हैं । तुला और कन्या राशि के कुछ जातक = सितंबर में पैदा होते हैं, जिनमें कन्या राशि के लोग १ सितंबर से २२ सितंबर तक और तुला राशि के लोग २३ सितंबर से ३० सितंबर तक पैदा होते हैं ।
सितंबर (लैटिन सेप्टम , "सात" से ) मूल रूप से सबसे पुराने ज्ञात रोमन कैलेंडर , रोमुलस के कैलेंडर , लगभग  ७५० ईसा पूर्व , में सातवाँ महीना था , और मार्च (लैटिन मार्टियस ) संभवतः ४५१ ईसा पूर्व तक वर्ष का पहला महीना था। कैलेंडर सुधार के बाद, जिसने वर्ष की शुरुआत में जनवरी और फरवरी को जोड़ा , सितंबर नौवां महीना बन गया, लेकिन इसका नाम बरकरार रहा। जूलियन सुधार तक, जिसमें एक दिन जोड़ा गया था, इसमें २९ दिन थे।

सितंबर के प्राचीन रोमन उत्सवों में लुडी रोमानी शामिल है , जो मूल रूप से १२ सितंबर से १४ सितंबर तक मनाया जाता था, जिसे बाद में ५ सितंबर से १९ सितंबर तक बढ़ा दिया गया। पहली शताब्दी ईसा पूर्व में, ४ सितंबर को देवता जूलियस सीज़र के सम्मान में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा गया था। एपुलम जोविस १३ सितंबर को मनाया जाता था। लुडी ट्रायम्फेल्स १८-२२ सितंबर तक मनाया जाता था। सेप्टिमोंटियम सितंबर में मनाया जाता था, और बाद के कैलेंडरों में ११ दिसंबर को। ये तिथियाँ आधुनिक ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुरूप नहीं हैं। शारलेमेन के कैलेंडर में सितंबर को "फसल का महीना" कहा जाता था । सितंबर आंशिक रूप से फ्रुक्टिडोर और आंशिक रूप से प्रथम फ्रांसीसी गणराज्य के वेंडेमीयर से मेल खाता है । स्विट्जरलैंड में सितंबर को हर्बस्टमोनाट , यानी फसल का महीना कहा जाता है। एंग्लो-सैक्सन लोग इस महीने को गेर्स्टमोनाथ , यानी जौ का महीना कहते थे, क्योंकि उस समय आमतौर पर फसल की कटाई होती थी। 

१७५२ में, ब्रिटिश साम्राज्य ने ग्रेगोरियन कैलेंडर अपनाया । उस वर्ष ब्रिटिश साम्राज्य में २ सितंबर के तुरंत बाद १४ सितंबर आया था । यूज़नेट पर कहा गया है कि सितम्बर १९९३ ( अनन्त सितम्बर ) कभी समाप्त नहीं हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका में, सितंबर सबसे आम जन्म महीनों में से एक है (अगस्त और जुलाई के बाद तीसरा सबसे लोकप्रिय, जिनमें दोनों में ३१ दिन होते हैं), क्योंकि १९९४ और २०१४ के बीच जन्मों पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सांख्यिकी केंद्र के आंकड़ों के आधार पर शीर्ष १० सबसे आम जन्मदिनों में से एक को छोड़कर सभी सितंबर में हैं। सबसे आम जन्मदिन 9 सितंबर (१) है, सबसे कम आम १ सितंबर (२५०) है। 

खगोल विज्ञान और ज्योतिष

सितंबर विषुव इसी महीने में होता है, और इसके आसपास कुछ विशेष अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं। उत्तरी गोलार्ध में इसे शरद विषुव और दक्षिणी गोलार्ध में वसंत विषुव कहा जाता है। तिथियाँ 21 सितंबर से 24 सितंबर ( यूटीसी के अनुसार ) तक भिन्न हो सकती हैं। सितम्बर माह मुख्यतः ज्योतिषीय कैलेंडर के छठे महीने (और सातवें महीने के पहले भाग) में आता है, जो मार्च/मंगल/मेष के अंत में शुरू होता है। सितंबर का जन्म रत्न नीलम है । जन्म पुष्प फॉरगेट-मी-नॉट , मॉर्निंग ग्लोरी और एस्टर हैं । राशियाँ कन्या (२२ सितंबर तक) और तुला ( २३ सितंबर के बाद) हैं।  
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सितंबर 
०१ पत्र लेखन दिवस 
०२ विश्व नारियल दिवस 
०३ गगन चुंबी इमारत दिवस 
०५ अंतर्राष्ट्रीय दान दिवस, शिक्षक दिवस भारत 
०८ अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस, हिंदी दिवस भारत 
१० विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस 
११ दिशभक्त दिवस अमेरिका 
१४ विश्व प्राथमिक चिकित्सा  दिवस, दादा-दादी दिवस 
१५ अभियंता दिवस भारत, अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस,  
१६ विश्व ओज़ोन दिवस 
१७ संविधान दिवस अमेरिका 
१८ अंतर्राष्ट्रीय समान वेतन दिवस 
२० विश्व सफाई दिवस 
२१ अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस, विश्व अल्जाइमर दिवस 
२२ गुलाब दिवस, विश्व गेंडा दिवस, कैंसर जागरूकता दिवस 
२३ अंतर्राष्ट्रीय सांकेतिक भाषा दिवस 
२५ विश्व फार्मासिस्ट दिवस  
२६ विश्व गर्भ निरोधक दिवस, विश्व पर्यावरणीय स्वास्थ्य दिवस 
२७ विश्व पर्यटन दिवस 
२८ विश्व रेबीज दिवस 
२९ विश्व हृदय दिवस 
३० अंतर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस 
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रविवार, 24 अगस्त 2025

अगस्त २४, संजा, व्यंग्य लेख, मुहावरा, कौआ स्नान, शिक्षक, चित्र अलंकार, मंदिर,

 सलिल सृजन अगस्त २४

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गीत
जन्म दिवस हर सुबह मनाएँ, आँख मूँद लें रजनी में हम
सपने हों साकार यत्न कर, निराकार हों तो न करें गम
मनोरमा हो रश्मि विभा की, पाखी शोभित नीलाम्बर में
विजय-स्मृति हो पद्म गुच्छ सी, ज्योति अमर हो निविड़ तिमिर में
हो संदीप प्रदीप पथिक मैं, संग देवकीनंदन पाऊँ
हर हिंदुस्तानी मनोज हो, सदा भारती की जय गाऊँ
अंजु लता सम नीलोफ़र हँस, साथ चले जय हिंद गुँजाए
त्यागी राज करे पूनम सह, शरतचंद्र अमृत बरसाए
सूरज दीप्त दिनेश दिवाकर, ओमप्रकाश बिखेरे भू पर
ता ता धिन्ना नाचे मिन्नी, परी तनूजा उपमा मिलकर
योगी दुर्गा-राधा की जय, कहे मुरारि राजमणि पाए
जनसेवक राजेंद्र बन सके, करुणा हरदम हृदय बसाए
नमन अन्नपूर्णा सरस्वती, वेदप्रकाश महेश बिखेरे
सरला मनी हंस देवांशी, हों संजीव लगाएँ फेरे
सृजन कुंज पुष्पित मुकुलित हो, कथ्य भाव रस लय आनंदी
स्नेह सलिल सिंचन कर, मधुकर, छंद गुँजाए परमानंदी
२४-८-२०२२
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निमाड़ी पर्व : संजा (छाबड़ी)
गीतात्मक लोक पर्व संजा बाई (छाबड़ी)
निमाड़ की किशोरी बालिकाओ द्वारा भाद्र माह की पूर्णिमा से अश्विन माह की सर्वपितृ अमावस्या तक मनाया जाता है । इन 16 दिनों तक चलने वाले गीतात्मक मांडना पर्व को गीतों के माध्यम मनाया जाता है मांडना बनाए में 16 दिन पूनम का पाटला और चाँद ,तारे ,सूरज , पाँच कुँआरा, बंदनवार डोकरा डोकरी ,निसरणी, छाबड़ी, रुनझुन की गाड़ी, कोट किल्ला ,वान्या की हाटडी,मोर,बिजौरा, पंखा, कौवा,कुआ,बावड़ी,आदि बनाये जाते है। गीत गाये जाते है और आरती प्रसाद बांटा जाता है... संजा कौंन ?उनका सामाजिक आत्मिक और आद्यात्मिक स्वरूप क्या है संजा के गीतों में कहा जाता है-
"संजा सहेलड़ि बाज़ार में खेले
बजार में रमे
वा कोणा जी नी बेटी
वा खाय खाजा रोटी
पठानी चाल चाले
रजवाड़ी बोली बोले
संजा एडो संजा का माथा बेड़ो "........
गीत का भाव है कि संजा निडर,साहसी, राजसी वैभव को जीने वाली हमारी सखी है जो कोना जी की बेटी है खाजा खाती है पठानी चाल से चलती है परन्तु वो जल के प्रतीक जीवन में स्वभिमानी पनिहारिन की तरह कर्मशील है।
दोस्तों निमाड़ की किशोरीय अंतरिक्षीय कल्पना पटल पर प्रारम्भ में चाँद और सूरज का प्रादुर्भाव होता है रात और दिन की तरह ,सुख और दुःख की तरह, संघर्ष की तपिश और सफलता की चांदनी की तरह वो जीवन के कर्मशीलता की साधना में सोलह संस्कारों से अभिसिंचित सोलह दिवसीय लोक महोत्सव में रूपांतरित हो जीवन को गीतात्मक से परिलक्षित और परिभाषित कर फिर जीवन की अनन्तता में विसर्जित हो जाता है।
***
श्रद्धांजलि
सुषमा गईं, डूबा अरुण भी, शोक का है यह समय।
गौरव बढ़ाया देश का, देगा गवाही खुद समय।।
जन से सदा रिश्ते निगाहे, थे प्रभावी दक्ष भी-
वाक्पटुता-विद्वता अद्भुत रही कहता समय।।
*
धूमिल न होंगी याद, छवियाँ, कार्यपटुता भी कभी।
दल से उठे ऊपर, कमाया जन-समर्थन नाम भी।।
दृढ़ता-प्रखरता-अभयता का त्रिवेणी दोनों रहे-
इतिहास लेगा नाम दोनों ने किए सत्कार्य भी।।
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छंद सलिला
नवाविष्कृत मात्रिक दंडक
*
विधान-
प्रति पद ५६ मात्रा।
यति- १४-१४-१४-१४।
पदांत-भगण।
*
अवस्था का बहाना मत करें, जब जो बने करिए, समय के साथ भी चलिए, तभी होगा सफल जीवन।
गिरें, उठकर बढ़ें मंजिल मिले तब ही तनिक रुकिए, न चुकिए और मत भगिए, तभी फागुन बने सावन।
न सँकुचें लें मदद-दें भी, न कोई गैर है जग में, सभी अपने न सच तजिए, कहें सच मन न हो उन्मन-
विरागी हों या अनुरागी, करें श्रम नित्य तज आलस, न केवल मात्र जप करिए, स्वेद-सलिला करे पावन।।
*
टीप-छंद लक्षणानुसार नाम सुझाएँ।
संजीव
२४-८-२०१९
***
व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पाए विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाडी और कोच चुने जाने चाहिए। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे। फर्जीवाड़ा की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है। यदि आपको मेरी बात पर शंका हो तो आप ही बताएं की इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-गो नहीं सैंकड़ों अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?
कोई खिलाडी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है। ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाडी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बारह-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।
रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेज इसलिए जाता है की वे नियम-कायदे जानकार खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएं कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और बाकि सब को गुलाम समझती है। खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबीयों पर रौब गांठ सके।
रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाडियों को नीच दिखती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?
रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री को भी दिखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिए उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे।
अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो हो बाते हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोइ कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ।
असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार दें है तो पाने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाडियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए। बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिए विवश भी हो गयीं।
होना यह चाइये की अच्छा प्रदर्शन कर्नेवले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भुकमद, धनराशि और फ़्लैट देने नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाडी चार सैलून तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी। हमारे खिलाडियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेता को जब तक खेओं से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम ही है।
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हिंदी दिवस पर विशेष
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी देखो आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
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गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
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उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
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दोहा सलिला:
शिक्षक पारसमणि सदृश...
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शिक्षक पारसमणि सदृश, करे लौह को स्वर्ण.
दूर करे अज्ञानता, उगा बीज से पर्ण..
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सत-शिव-सुंदर साध्य है, साधन शिक्षा-ज्ञान.
सत-चित-आनंद दे हमें, शिक्षक गुण-रस-खान..
*
शिक्षक शिक्षा दे सदा, सकता शिष्य निखार.
कंकर को शंकर बना, जीवन सके सँवार..
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शिक्षक वह जो सिखा दे, भाषा गुण विज्ञान.
नेह निनादित नर्मदा, बहे बना गुणवान..
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प्रतिभा को पहचानकर, जो दिखलाता राह.
शिक्षक उसको जानिए, जिसमें धैर्य अथाह..
*
जान-समझ जो विषय को, रखे पूर्ण अधिकार.
उस शिक्षक का प्राप्य है, शत शिष्यों का प्यार..
*
शिक्षक हो संदीपनी, शिष्य सुदामा-श्याम.
बना सकें जो धरा को, तीरथ वसुधा धाम..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ हों, शिक्षक ज्ञान-निधान.
राम-लखन से शिष्य हों, तब ही महिमावान..
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द्रोण न हों शिक्षक कभी, ले शिक्षा का दाम.
एकलव्य से शिष्य से, माँग अँगूठा वाम..
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शिक्षक दुर्वासा न हो, पल-पल दे अभिशाप.
असफल हो यदि शिष्य तो, गुरु को लगता पाप..
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राधाकृष्णन को कभी, भुला न सकते छात्र.
जानकार थे विश्व में, वे दर्शन के मात्र..
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महीयसी शिक्षक मिलीं, शिष्याओं का भाग्य.
करें जन्म भर याद वे, जिन्हें मिला सौभाग्य..
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शिक्षक मिले रवीन्द्र सम, शिष्य शिवानी नाम.
मणि-कांचन संयोग को, करिए विनत प्रणाम..
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ओशो सा शिक्षक मिले, बने सरल-हर गूढ़.
विद्वानों को मात दे, शिष्य रहा हो मूढ़..
*
हो कलाम शिक्षक- 'सलिल', झट बन जा तू छात्र.
गत-आगत का सेतु सा, ज्ञान मिले बन पात्र..
*
ज्यों गुलाब के पुष्प में, रूप गंध गुलकंद.
त्यों शिक्षक में समाहित, ज्ञान-भाव-आनंद..
२४-८-२०१६
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मंदिर अलंकार
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार
हिंदी
जन-मन
में बसी जन
प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे
जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर सुहाता कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
२४-८-२०१५
***
नवगीत:
मस्तक की रेखाएँ …
*
मस्तक की रेखाएँ
कहें कौन बाँचेगा?
*
आँखें करतीं सवाल
शत-शत करतीं बवाल।
समाधान बच्चों से
रूठे, इतना मलाल।
शंका को आस्था की
लाठी से दें हकाल।
उत्तर न सूझे तो
बहाने बनायें टाल।
सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा …
*
अधरों पर मुस्काहट
समाधान की आहट।
माथे बिंदिया सूरज
तम हरे लिये चाहत।
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत?
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत।
जाल लिये आलस
कोशिश पंछी फाँसेगा…
२४.८.२०१४
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शनिवार, 23 अगस्त 2025

सिंहली साहित्य में रामकथा

 
भारत और श्री लंका रामकथा का संदर्भ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*

            सिंहली साहित्य के प्रारंभिक लेखन में रामायण के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण मिलते हैं। १४ वीं शताब्दी के बाद सिंहली साहित्य में रामायण के सकारात्मक संदर्भ मिलने लगे। कालांतर में सिंहली साहित्य और श्रीलंकाई तमिलों में रावण को श्री राम के आराध्य जगत्पिता शिव के एक अनन्य भक्त के रूप में स्वीकारा गया है। किंवदंतियों के अनुसार भगवान शिव के निर्देश पर ऋषि अगस्त्य ने तिरु कोणेश्वरम मंदिर में रावण व उसकी  माता केकसी से शिव पूजा कराई थी। रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र और रावण पर शिव-कृपा की अनेक लोक कथाएँ आज तक न केवल प्रचलित अपितु लोक में स्वीकार्य भी हैं। शिव की अर्धांगिनी पार्वती या उमा के रावण से अप्रसन्न होने के बाद भी रावण पर शिव-कृपा बनी रही।  यह स्वाभाविक है कि किसी देश में उसके शासक के अंत का कारण बनी शक्तियों (राम और वानर आदि) और उनके द्वारा सत्ता पर आसीन किए गए व्यक्ति (विभीषण) के प्रति लोगों में आक्रोश और रोष हो। समय व्यतीत होने और सत्तासीन नए नृप के जन हितैषी कार्यों के प्रभाव में उसके समर्थक बढ़ाते हैं और उसे लोक मान्यता और प्रसिद्धि मिलती है।

मत-मतांतर

            १९२१ में इंडोनेशिया के एक शोधकर्ता के अनुसार लंका सुमात्रा द्वीप के नजदीक था, इसलिए इसका आज का श्रीलंका होना संभव नहीं है। १९०४ में अयप्प्पा शास्त्री राशि वडेकर के अनुसार रामायण काल की लंका अक्षांस रेखा पर स्थित थी जो जलमग्न हो गई। उनके अनुसार मालद्वीप होना चाहिए।

            प्रसिद्ध इतिहासकार हीरालाल शुक्ल के अनुसार रामायण में वर्णित लंका की भौगोलिक स्थितियों के वर्णन अनुसार इसकी स्थिति गोदावरी डेल्टा में होना चाहिए जहाँ यह नदी विभिन्न भागों में बँटकर समुद्र से मिल जाती है। आंध्र प्रदेश का दौलेश्वरम ऐसी ही जगह है और वहाँ ‘हीरालाल लंका’ नाम का द्वीप भी है। इसलिए उनके अनुसार इसे ही रामायण काल की लंका होना चाहिए। हीरालाल के अनुसार श्रीलंका, सिंहल द्वीप या रावण की लंका से भिन्न द्वीप है। एतिहासिक उल्लेखों के अनुसार सिंहल द्वीप को बंग देश के राजकुमार विजय ने जीता था, जबकि रामायण की लंका में रावण ने इसे कुबेर से जीता। हीरालाल के अनुसार पुराणों में सीलोन और लंका का अलग-अलग उल्लेख होने के कारण यह संभव नहीं है कि लंका और आज का श्रीलंका एक ही हो। वाल्मीकि रामायण वर्णित भौगोलिक स्थितियों के अनुसार लंका त्रिकूट यानि डेल्टा में स्थित था। रामेश्वरम के दक्षिण में यह गोदावरी की डेल्टा ही है। इसलिए लंका यहीं होनी चाहिए। हीरालाल और पुराणों पर शोध करने वाले अन्य इतिहासविदों के अनुसार ‘श्रीलंका’ के ही ‘लंका’ होने के विषय में यह धारणा तुलसीदास की रामचरित मानस से आई। पुरातत्व वेता हँसमुख धीर सांकलिया जबलपुर, मध्य प्रदेश के निकट इंद्राना को लंका बताते रहे थे किंतु अंतिम दिनों में उन्होंने स्वयं इस धारणा का खंडन कर दिया था।
 
सिंहल में रावण 

            सिंहली बौद्ध चेतना में मान्यता है कि रावण प्रागैतिहासिक काल में, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में राजकुमार विजया के आगमन और द्वीप पर बौद्ध धर्म के आगमन से पहले था। वह सिंहली बौद्ध राजा नहीं था। प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामायण के अनुसार रावण लंका पर शासन करनेवाला एक राक्षस-राजा था। अन्य ग्रंथ उसे हिंदू देवता शिव का एक समर्पित अनुयायी बताते हैं। रावण बलाया जैसे आधुनिक अंधराष्ट्रवादी समूहों ने रावण और उसके इर्द-गिर्द की पौराणिक कथाओं का उपयोग एक अति-राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए किया। इसका उद्देश्य २०२२ में सत्ता के नाटकीय पतन तक श्रीलंका के सिंहली बौद्ध ताकतवर पक्ष को सहारा देना रहा। लेखक मिरांडो ओबेयेसेकेरे ने हाल में सिंहली-भाषा में प्रकाशित लोकप्रिय पुस्तकों की एक श्रृंखला में रावण को सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी विमर्श में एक केंद्रीय व्यक्ति के रूप में स्थापित किया है।

            रावण में इस पुनरुत्थानशील रुचि के साथ-साथ, रामायण की विभिन्न कथाओं से जुड़े स्थानों, विशेष रूप से श्रीलंका के मध्य उच्चभूमि क्षेत्रों: नुवारा एलिया, हॉर्टन प्लेन्स, एला आदि में रावण-केंद्रित पर्यटन का उदय हुआ है। भारतीय मुख्य भूमि के दक्षिणी सिरे और श्रीलंका के उत्तरी सिरे के बीच मार्ग बनाने वाली द्वीप श्रृंखला को राम सेतु माना जाता है, वह पुल जिसे राम ने युद्ध में रावण को हराने के बाद सीता को बचाने के लिए लंका पहुँचने के लिए बनाया था। हकगाला उद्यान में सीता को उनके अपहरण के बाद रखा गया था, और जहाँ राम द्वारा भेजे गए हनुमान ने पहली बार उनसे मुलाकात की थी। वेलिमाडा के निकट स्थित दिवुरुपोला मंदिर में सीता ने रावण द्वारा हरण किए जाने के बाद अपनी पवित्रता सिद्ध की थी। तत्पश्चात राम ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। एक सिद्धांत यह भी है कि नुवारा एलिया की धरती काली है क्योंकि उसमें रावण द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों के अवशेष हैं।

                श्रीलंका को वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण में वर्णित पौराणिक 'लंकापुर' के कब और कैसे माना जाने लगा? इस प्रश्न पर विमर्श, मतभेद और विवाद निरंतर होता रहा है।  मध्यकाल के अंत से लेकर आज तक सिंहली और तमिल साहित्य में राम विरोधी लंकेश रावण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों चित्रणों की पड़ताल होती रही है। वर्तमान श्रीलंका में रामायण के ऐतिहासिकीकरण, राजनीतिकरण के समानांतर रावण को सिंहली-बौद्ध सांस्कृतिक नायक के रूप में स्थापित करने और विभीषण को सिंहली बौद्ध देवताओं में 'संरक्षक देवता' के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है। इस क्षेत्र में रामायण महाकाव्य की कथा प्राचीन ज्ञान के विश्वकोश के रूप में प्रसिद्ध है। रामायण के माध्यम से दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई लोग अपने अतीत को समझते और व्यक्त करते हैं। हिंदू पुनरावृत्तिवादियों के अलावा जैन, सिख, मुगल, थाई एवं लाओ बौद्ध, विभिन्न आदिवासी समूहों  सभी के पास रामायण में वर्णित कहानी के अपने संस्करण हैं जो अक्सर 'मानक' (यानी वाल्मीकि के) की पुनरावृत्ति से महत्वपूर्ण विचलन के साथ, और अक्सर न्याय, वीरता और धार्मिक समुदाय के अपने आदर्शों को दर्शाते हैं। 

                आज तक, इस प्रश्न पर विचार करने वाले विद्वानों ने श्रीलंका में रामायण की अनुपस्थिति पर ध्यान केंद्रित कर द्वीप के पाली इतिहास से इस महाकाव्य को बाहर रखे जाने के पीछे कई तर्क प्रस्तुत किए हैं। विहारों की वास्तुकला और अनुष्ठान जीवन में, साथ ही श्रीलंका के कुछ सबसे महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों की स्थापना से जुड़े मिथकों में रामायण के श्रीलंका में साहित्यकारों के बीच विशेष रूप से सिंहली बौद्ध लोककथाओं, साहित्य और मंदिर आदि में रामायण, जानकी हरण की एक बड़ी छाप दिखाई नहीं देती है। यह बदलाव समझा जा सकता है। चौदहवीं शताब्दी में श्रीलंका में दक्षिण भारतीय प्रभाव में वृद्धि हुई।  द्वीप की समग्र जनसांख्यिकी के स्तर पर, जहाँ चौदहवीं शताब्दी के बाद से श्रीलंका के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम ने दक्षिणी उपमहाद्वीप से बड़ी संख्या में प्रवासियों को अपने में समाहित किया । सिंहली बौद्ध वास्तुकला, मंदिर और कृषि अनुष्ठानों के साथ ही सिंहली भाषा में दक्षिण भारतीय संस्कृति के पहलुओं के समावेश को अपनाया गया है। दक्षिण एशिया के इस विशेष खंड में योगदान का उद्देश्य श्रीलंका में रामायण के साहित्यिक और सामाजिक इतिहास को बेहतर ढंग से समझने की दिशा में प्रारंभिक प्रयास करना है। योगदानकर्ता सबसे बुनियादी ऐतिहासिक प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करते हैं। श्रीलंका का संबंध रावण के पौराणिक निवास लंकापुर (एक ऐसी समानता जो महाकाव्य के प्रारंभिक संस्कृत संस्करणों में कहीं नहीं मिलती) से कब और कैसे जुड़ा?, मध्ययुगीन सिंहल, बौद्ध और हिन्दू मंदिरों में विभीषण की संरक्षक के रूप में प्रमुखताऔर प्रासंगिकता, सिंहल इतिहास, काव्य और कृतियों में द्वीप के प्राचीन शासक के रूप में रावण का महत्व विचारणीय हैं।

            'मानक रामायण' को अपनाकर या फिर कथा को विशिष्ट स्थानीय शैली में पुनर्परिभाषित कर, विभिन्न संदर्भों में, यह महाकाव्य ऐतिहासिक रूप से श्रीलंका के तमिल शैव और सिंहली बौद्ध, दोनों ही धार्मिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति करता रहा है। यह कथा आम जन को को उन तरीकों की ओर निर्देशित करते हैं जिनसे रामायण के ये विभिन्न प्रक्षेप पथ भारतीय उपमहाद्वीप और उसके बाहर द्वीप के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है।

            जस्टिन हेनरी का शोधपत्र 'श्रीलंका में रामायण के प्रसारण में अन्वेषण' श्रीलंका में रामायण की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर विविध दृष्टिकोणों का सारांश और उत्तर मध्यकालीन सिंहल साहित्य में महाकाव्य के नाटकीय पात्रों (राम, रावण और विभीषण) की व्याख्या करता है। वह बौद्ध ऐतिहासिक साहित्य और लोककथाओं में महाकाव्य के प्रसार का एक मार्ग तमिल हिंदू साम्राज्य जाफना के माध्यम से खोजते हैं। उनके अनुसार श्रीलंकाई तमिलों ने खुले तौर पर इस द्वीप की पहचान रामायण की लंका के साथ स्वीकार की हालाँकि उन्होंने अपने चोल पूर्वजों के नकारात्मक और राक्षसी अर्थों को उलट दिया। उत्तरी श्रीलंका के तमिल हिंदू राजा स्वयं 'सेतु के संरक्षक' बन गए। हेनरी ने निष्कर्ष निकाला कि इन लंकाई तमिल ग्रंथों) ने कंद्यान काल की सिंहली कविता में रावण की सिंहली बौद्ध साहित्यिक छवियों को आकार देने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई।

            श्री पद्मा ने 'बॉर्डर्स क्रॉस्ड: विभीषण इन द रामायण एंड बियॉन्ड' में लिखा कि जहाँ रामायण ने दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्सों में विभिन्न स्थानों पर अपनी अनूठी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ प्राप्त कीं, वहीं पूर्व-आधुनिक श्रीलंकाई साहित्य ने महाकाव्य से प्राप्त चुनिंदा घटनाओं के चित्रण और कुछ रामायण पात्रों (विशेषत: विभीषण) का स्वदेशीकरण किया। तेरहवीं शताब्दी के राजनीतिक और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों ने महाकाव्य के दक्षिण भारतीय मूल के देवताओं को बौद्ध परिवेश में ला दिया। पंद्रहवीं शताब्दी के राम के पंथ को विष्णु के पंथ के साथ मिला दिया गया। विभीषण जिन्हें उनके मृत भाई रावण से लंका का राज्य विरासत में मिला और जिनकी रावण की मृत्यु में भूमिका विवादास्पद है को सिंहल शासकों द्वारा एक संरक्षक देवता के रूप में पूजा जाकर उनसे द्वीप और बौद्ध धर्म को सुरक्षा प्रदान करने की अपेक्षा की गई। विभीषण पंथ की उत्पत्ति और रावण पंथ के समकालीन उद्भव के बाद बौद्ध देवताओं के पंथ में उनका परिवर्तन हाल के सिंहल बौद्ध राष्ट्रवाद का एक हिस्सा है।

            'लंका की नैतिक सीमाओं का मानचित्रण: रावण राजवंशीय में सामाजिक-राजनीतिक अंतर का निरूपण ' लेख में जोनाथन यंग और फिलिप फ्रेडरिक ने सोलहवीं शताब्दी के एक ग्रंथ 'श्रीलंकाद्वीपये कदैम' (रावण  राजवंशीय) का अध्ययन कर सिंहल पाठ्य परंपरा में रावण-आख्यान को पुण्य स्थलाकृति के विमर्श में समाहित किया है। तदनुसार ग्रंथ का परिदृश्य, गमपोला और कोट्टे राज्यों के सत्ता में आने की पृष्ठभूमि में दंबदेनिया साम्राज्य के नैतिक पतन की कहानी के बाद राजत्व पर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दियों के मध्य  द्वीप के दक्षिण-पश्चिम में अंतर-क्षेत्रीय परिसंचरण के बदलते स्वरूपों के कारण आई सामाजिक गतिशीलता से उत्पन्न स्थानीय राजनीतिक चिंताओं को व्यक्त करता है। यह  'दूसरों' को एक अविभेदित खतरे के रूप में नहीं, बल्कि एक स्थानिक नैतिक व्यवस्था से निकटता और दूरी के संदर्भ में प्रस्तुत करता है। यह परिदृश्य स्वत्व के वांछनीय रूपों को ऐसे साधनों के रूप में प्रस्तुत करता है जिनके द्वारा दक्षिण भारत से संबंधित उभरते सामाजिक समूहों (ब्राह्मण, व्यापारी, घुमंतू सैनिक आदि) एक उभरते हुए लंकाई राज्य समाज में समाहित किए गए। इसका उद्देश्य दक्षिण एशियाई लोगों को पूर्व ऐतिहासिक परिवेशों में जातीय और धार्मिक पहचान की कठोर धारणाओं की प्रयोज्यता के साथ ऐसी पहचानों के प्रबंधन में राजाओं और राज्यों की कथित भूमिका पर चल रही कठिन बहसों पर पुनर्विचार कर पूरे द्वीप में बिखरे हुए स्थानीयकृत रामायणकालीन पौराणिक स्थलों और लोककथा परंपराओं का आकलन करना है। तमिल हिंदू मौखिक और पाठ्य परंपराओं में, मुन्नेश्वरम और कोनेश्वरम के प्रमुख मंदिरों (द्वीप के पूर्वी तट पर विभिन्न अन्य भक्ति स्थलों के साथ) की स्थापना राम और रावण दोनों से जुड़ी हुई है। रावण को श्री पद और एडम्स पीकके क्षेत्र में केंद्रीय उच्चभूमि से जोड़ने वाली अलग परंपराके समानांतर रावण का महल हंबनटोटा के पास सुदूर दक्षिण में भी बताया जाता है। मेरा मत है कि रावण के एक से अधिक महल विविध स्थानों पर हो सकते हैं। 

            श्रीलंका में रामायण संस्कृति के पूर्व-आधुनिक पहलुओं और इक्कीसवीं सदी में  'रावण पुनरुत्थान' में सिंहल बौद्धों ने रावण को एक दूर का पूर्वज और द्वीप की राजशाही का संस्थापक स्वीकार किया है। छठी शताब्दी ईस्वी में द्वीप पर राजनीतिक और धार्मिक जीवन का एक पाली बौद्ध वृत्तांत सम्मत यह धारणा महावंश के आधिपत्य वाले आर्य वंश के आख्यान के सम्मुख एक चुनौती है। दिलीप विथाराना का शोधपत्र, 'रावण का श्रीलंका: सिंहल राष्ट्र को पुनर्परिभाषित करना?' आर्य वंश के सिद्धांत को छोड़कर, यक्क-रावण वंश के साथ सिंहल राष्ट्र को फिर से परिभाषित करता है। राम-रावण संघर्ष की व्याख्या अक्सर आर्य-द्रविड़ या उत्तर- दक्षिण संघर्ष के रूप में की जाती रही है। इसीलिए 'मानक रामायण' को पूरे दक्षिण एशिया में समान उत्साह के साथ स्वीकार नहीं किया गया। बीसवीं सदी के आरंभ में दक्षिण भारतीय द्रविड़ आंदोलन के कुछ लोगों ने रामायण को पूरी तरह से नकार दिया जबकि अन्य ने रावण को एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति, एक सदाचारी शासक और शिव के अनन्य भक्त का दर्जा देने का प्रयास किया।  'श्रीलंका में रावण' शोधपत्र में पथमनेसन संमुगेश्वरन, कृष्णथा फेड्रिक्स और जस्टिन डब्ल्यू. हेनरी इक्कीसवीं सदी में सिंहल-बौद्धों द्वारा सांस्कृतिक नायक के रूप में रावण के उदय को इंगित करता है। तदनुसार रावण ने बौद्ध मंदिरों में अनुष्ठानिक संदर्भों में अर्ध-दिव्य दर्जा प्राप्त किया है। इक्कीसवीं सदी के तमिल राष्ट्रवादी लेखन से उत्पन्न 'सिंहल रावण' सिंहल-तमिल वंश के एक संभावित साझा प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण है।

            श्रीलंका में रामायण की विरासत पर विचार करते हुए जॉन होल्ट मध्यकालीन श्रीलंका में विष्णु और उनके राम अवतार के 'बौद्ध रूप' का प्रतिनिधित्व करते  'उपुलवन पंथ' की पड़ताल करता है। सुशांत गुणतिलके और मालिनी डायस 'सिंहल रावण' पर प्रतिक्रिया देते हुए ,श्रीलंका सरकार द्वारा 'रामायण ट्रेल' पुरातात्विक साक्ष्यों के चिंताजनक गलत प्रस्तुतीकरण और मिथ्याकरण के प्रति चिंतित हैं। श्रीलंका में उभर रहा "रावण पंथ" रामायण को एक राष्ट्रव्यापी कथा के रूप में अपनाने और उसे श्रीलंका के बौद्धिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहा है। भारत के साथ अपनी ऐतिहासिक और पौराणिक संबंधों से खुद को अलग कर श्री लंका में राष्ट्रवाद को मजबूत करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है। 

            वर्तमान संदर्भ में जब श्री राम मंदिर के नव निर्माण के माध्यम से श्री राम को भारत की राष्ट्रीय एकता के पर्याय के रूप में जन-मानस द्वारा स्वीकार किया जा रहा है, तब श्री लंका में राम कथा के प्रतिनायक रावण को लंकाई एकता के प्रतीक के रूप में स्वीकार जाना महत्वपूर्ण है। जाने-अनजाने राम-रावण कथा और रामायण भारत और श्री लंका को एक सूत्र में इस प्रकार बाँध सकती है कि इन दोनों देशों के बीच में दरार डालने की कोशिश कर रहे देश और शक्तियों को पराभूत करने के लिए रामायण का संदर्भ अति उपयोगी और आवश्यक है। 
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लंका में रामायण कालीन स्थल


लंका में रामायण कालीन स्थल 
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रामायण काल में वर्तमान श्रीलंका को लंका कहा जाता था। यह द्वीप रावण के राज्य की राजधानी थी। रामायण में, लंका को एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ स्वर्ण का प्राचुर्य था। लंका एक शक्तिशाली राजा रावण द्वारा शासित था। सिंहली में केवल "रामकथा" पर कोई महत्वपूर्ण स्वतंत्र कृति मेरी जानकारी में नहीं है तथापि श्रीलंकाई संस्कृति पर रामायण और भगवान राम का गहरा प्रभाव है। श्री लंका के पर्वतीय क्षेत्र में कोहंवा देवता लोक पूज्य रहे हैं। इसे साहित्य, धर्म और स्थानीय किंवदंतियों में देखा जा सकता है। सिंहली साहित्य में कुछ प्राचीन संदर्भ राम के विरुद्ध होते हुए भी १४ वीं शताब्दी के बाद सकारात्मक संदर्भ देखे जा सकते हैं। रावण को राम के आराध्य शिव के भक्त के रूप में चित्रित किया जाना एक ऐसा ही संदर्भ है। रामायण काल में रावण की राजधानी वर्तमान 'सिंहल' (सीलोन) या लंका द्वीप में मानी जाती है।

भारत और लंका के बीच के समुद्र पर पुल बनाकर श्रीरामचंद्र अपनी सेना को लंका ले गए थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भारत के दक्षिणतम भाग में स्थित महेन्द्र नामक पर्वत से कूदकर श्रीराम के परम भक्त हनुमान समुद्र पार लंका पहुंचे थे। रामचंद्रजी की सेना ने लंका में पहुँचकर समुद्र तट के निकट सुवेल पर्वत पर पहला शिविर बनाया था। लंका और भारत के बीच के उथले समुद्र में जो जलमग्न पर्वत श्रेणी है, उसके एक भाग को वाल्मीकि रामायण तथा तुलसीकृत रामचरित मानस में मैनाक कहा गया है। लंका 'त्रिकूट' नामक पर्वत पर स्थित थी। यह नगरी अपने ऐश्वर्य और वैभव की पराकाष्ठा के कारण स्वर्ण-मयी कही जाती थी। वाल्मीकि ने अरण्यकाण्ड ५५,७-९ और सुन्दरकाण्ड २, ४८-५० में सुंदरलंका का मनोरम वर्णन किया है-

'प्रदोष्काले हनुमानंस्तूर्णमुत्पत्य वीर्यवान्,
प्रविवेश पुरीं रम्यां प्रविभक्तां महापथाम्,
प्रासादमालां वितता स्तभैः काचनसनिभैः,
शातकुभनिभैर्जालैर्गधर्वनगरोपमाम्,
सप्तभौमाष्टभौमैश्च स ददर्श महापुरीम्;
स्थलैः स्फटिकसंकीर्णः कार्तस्वरांविभूषितैः,
तैस्ते शुशभिरेतानि भवान्यत्र रक्षसाम्।'

वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड ३ में इस रम्यनगरी का मनोहर वर्णन इस प्रकार है-
'शारदाम्बुधरप्रख्यैभंवनैरुपशोभिताम्,
सागरोपम निर्घोषां सागरानिलसेविताम्।
सुपुष्टबलसंपुष्टां यथैव विटपावतीम्
चारुतोरणनिर्यूहां पांडूरद्वारतोणाम्।
भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव,
तां सविद्यद्घनाकीर्णा ज्योतिर्गणनिषेदिताम्।
चंडमारुतनिर्हृआदां यथा चाप्यमरावतीम्
शातकुंभेन महता प्राकारेणभिसंवृताम्
किंकणीजालघोषाभि: पताकाभिरंलंकृताम्,
आसाद्य सहसा हृष्ट: प्राकारमभिपेदिवान्।
वैदूर्यकृतसोपानै:, स्फटिक मुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितै:
तप्तहाटक निर्यूहै: राजतामलपांडूरै:,
वैदूर्यकृतसोपानै: स्फटिकान्तरपांसुभि:,
चारुसंजवनोपेतै: खमिवोत्पतितै: शुभै:,
क्रौंचबर्हिणसंघुष्टैरजिहंसनिषेवितै:,
तूर्याभरणनिर्घोर्वै: सर्वत: परिनादिताम्।
वस्वोकसारप्रतिमां समीक्ष्य नगरी तत:,
खमिवोत्पतितां लंकां जहर्ष हनुमान् कपि:।
'सुन्दरकाण्ड३, २-१२

हनुमान ने सीता जीसे अशोक वाटिका में भेंट करने के उपरान्त लंका का एक भाग जलाकर भस्म कर दिया था। सुन्दरकाण्ड ५४, ८-९ और सुन्दरकाण्ड १४ में लंका के अनेक कृत्रिम वनों एवं तड़ागों का वर्णन है। श्री राम ने रावण के वधोपरान्त लंका का राज्य विभीषण को दे दिया था। बौद्धकालीन लंका का इतिहास 'महावंश' तथा 'दीपवंश' नामक पाली ग्रंथो में प्राप्त होता है। अशोक के पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा ने सर्वप्रथम लंका में बौद्ध मत का प्रचार किया था।

आधुनिक श्रीलंका का ही प्राचीन बौद्धकालीन नाम सिंहल था। पाली में लिखे प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में उल्लिखित जनश्रुतियों के अनुसार लंका के प्रथम भारतीय नरेश की उत्पत्ति सिंह से होने के कारण इस देश को सिंहल कहा जाता था। सिंहल के बौद्धकालीन इतिहास का विस्तार से वर्णन महवंश में है। इस ग्रंथ में वर्णित है कि मौर्य सम्राट् अशोक के पुत्र महेंद्र और संघमित्रा ने सिंहद्वीप पहुँचकर वहाँ प्रथम बार बौद्ध मत का प्रचार किया था। गुप्तकाल में समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा सिंहल द्वीप तक मानी जाती थी। हरिषेण रचित समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में सैंहलकों का गुप्त सम्राट् के लिए भेंट उपहार आदि लेकर उपस्थित होने का वर्णन आया है-- 'देवपुत्रषाहीषाहनुषाहि-शकमुरुंडै:सैंहलकादिभिश्च'.

बौद्धगया से प्राप्त एक अभिलेख से यह भी सूचित होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में सिंहल नरेश मेघवर्णन द्वारा इस पुण्यस्थान पर एक विहार बनवाया था।

मध्यकाल की अनेक लोक कथाओं में सिंहल का उल्लेख है। हिंदी के महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी रचित पद्मावत में सिंहल की राजकुमारी पद्मावती की प्रसिद्ध कहानी वर्णित है। लोककथाओं में सिंहल देश को धन-धान्यपूर्ण रत्न-प्रसविनी भूमि माना गया है। यहाँ की सुंदरी राजकुमारी से विवाह करने के लिए भारत के अनेक नरेश इच्छुक रहते थे। सिलोन सिंहल का ही अंग्रेजी रूपांतर है। लंका के अतिरिक्त सिंहल के पार समुद्र, ताम्रद्वीप, ताम्रपर्णी तथा धर्मद्वीप आदि नाम भी बौद्ध साहित्य में प्राप्त होते हैं। कौटिल्य-अर्थशास्त्र (अध्याय-११) में पारसमुद्र को लंका कहा गया है। वाल्मीकि रामायण ६,३,२१ में 'पारेसमुद्रस्य' कहकर लंका की स्थिति का वर्णन है। पेरिप्लस में इससे पालीसिमंदु (Palaesimundu) कहा गया है।

महाभारत (II.३२.१२)[१२], (II.4४८.३०)[१३], (III.४८.१९)[१४] सिंहली जनजाति को संदर्भित करता है।

सिंहली साम्राज्य या सिंहली साम्राज्य एक या सभी क्रमिक सिंहली साम्राज्यों को संदर्भित करता है जो आज श्रीलंका में मौजूद हैं।

द्रविडाः सिंहलाश चैव राजा काश्मीरकस तदा,
कुन्तिभॊजॊ महातेजाः सुह्मश च सुमहाबलः (II.३१.१२)

समुद्रसारं वैडूर्यं मुक्ताः शङ्खांस तदैव च,
शतशश च कुदांस तत्र सिन्हलाः समुपाहरन (II.४८.३०)

सागरानूपगांश चैव ये च पत्तनवासिनः,
सिंहलान बर्बरान मलेच्छान ये च जाङ्गलवासिनः (III.४८.१९)

रामायण कालीन स्थान-

श्रीलंका ५० से अधिक रामायण कालीन राम-रावण संघर्ष से जुड़ी विश्व-धरोहरों का गौरवशाली संरक्षक है। इनमें प्रमुख हैं-

थिरु कोनेश्वरम् मंदिर- सुंदर और शांत समुद्र तटों के लिए प्रसिद्ध त्रिंकोमाली शहर में स्थित इस मन्दिर का निर्माण रावण के भक्ति-भाव से प्रसन्न भगवान शिव के निर्देश पर पर ऋषि अगस्त ने कराया था। रावण यहाँ अपनी माता, राक्षस राजा सुमाली की पुत्री, ऋषि विश्रवा की दूसरी पत्नी केकसी के साथ शिव-पूजा किया करता था। कुंभकर्ण, विभीषण और सूर्पणखा केकसी की अन्य ३ संतानें थीं।

भारत और श्रीलंका के बीच लगभग ३० मील लंबा एक उथला चट्टानी इलाका राम-सेतु (एडम्स ब्रिज ) जिसे नल-नील के मार्गदर्शन में वानरों ने रातों-रात बनाया था, युद्ध क्षेत्र, वानर देवता हनुमान द्वारा लाए गए विदेशी जड़ी-बूटियों के बाग, युद्ध का अंतिम क्षेत्र जहाँ श्री राम ने दस सिर वाले राक्षस राजा रावण का वध किया, मुन्नेश्वरम और मनावरी मंदिर (जहाँ भगवान राम ने रावण-वध के दोष से मुक्ति के लिए शिवलिंग स्थापित कर रावण के आराध्य शिव जी का पूजन किया था), रैगला के जंगलों में रावण की तपस्थली रावण गुफा (जहाँ बाद में रावण का शव रखा गया था), दिवुरुम्पोला (जहाँ सीता जी ने पवित्रता सिद्ध करने हेतु अग्नि परीक्षा दी थी), य़ाहंगला (जहाँ रावण के पार्थिव शरीर को रखा गया था, ताकि स्थानीय प्रजा उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें), हनुमान जी के पैरों के निशान आदि प्रमुख हैं।

श्रीलंका में ५० से ज़्यादा ऐसे स्थल हैं जिनका रामायण में उल्लेख मिलता है।सीता की कैद से लेकर उन युद्धस्थलों तक जहाँ दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, हनुमान द्वारा गिराए गए विदेशी जड़ी-बूटियों के बाग़ों से लेकर उस अंतिम युद्धस्थल तक जहाँ भगवान राम ने दस सिरों वाले राक्षसराज रावण का वध किया था।

उस स्थान पर ली गई शपथ जहाँ सीता देवी ने "अग्नि परीक्षा" दी थी, आज भी ग्राम कचहरियों या ग्राम सभाओं में मान्य मानी जाती है।
प्राचीन युद्धक्षेत्र की मिट्टी का रंग आज भी लाल है, और यह अभी भी हल्के रंग की मिट्टी से घिरी हुई है। रावण के एक हवाई अड्डे, जिसे हनुमान ने सीता की तलाश में आते समय जला दिया था, आज भी झुलसी हुई मिट्टी जैसा दिखता है।

भूरी मिट्टी से घिरा गहरे रंग का एक टुकड़ा

रामायण में वर्णित घटनाएँ कई वर्षों पहले घटित हुईं थीं, फिर भी इसके भौगोलिक निशान उत्तर से दक्षिण भारत तक और विशेष रूप से श्रीलंका तक मौजूद हैं। श्री राम और बुद्ध दोनों भारत और श्रीलंका को एक सूत्र में पिरोते हैं।आश्चर्य है कि इन स्थानों के नाम आज भी अपरिवर्तित हैं। रावण ने एक स्वर्ण मृग को प्रलोभन के रूप में प्रयोग करके सीता से तब मुलाकात की, जब मारीच द्वारा स्वर्ग मृग का वेश धारण कर श्री राम तथा लक्ष्मण को छलपूर्वक दूर ले जाने के बाद वह अपने आश्रम में अकेली थीं । एक वृद्ध ऋषि के वेश में, उसने सीता का अपहरण किया और उन्हें अपने पुष्पक विमान, लंका में वेरागंटोटा (विमान उतरने का स्थान/हवाई अड्डा") लाया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण भारत से सीता देवी को पुष्पक विमान में लाया था। इसे सिंहल में "दंडु मोनारा यंत्रनाया" (विशाल मयूर यंत्र) कहा गया है। यह वर्तमान जंगल ही वह स्थान हैं जहाँ कभी लंकापुर शहर हुआ करता था। शहर में रानी मंदोदरी के लिए एक सुंदर महल था जो झरनों, नदियों और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जीवों से घिरा हुआ था। सीता को लंकापुर में रानी मंदोदरी के महल में रखा गया था। जिस स्थान पर सीता को बंदी बनाया गया था उसे सिंहल में सीता कोटुवा (सीता का किला) कहा जाता है। सिंहली भाषा में विमान को "धंडू मोनारा" / "उड़ता हुआ मोर" कहा जाता है, इसीलिए इसका नाम गुरुलुपोथा अर्थात "पक्षियों के अंग"हुआ। इसे 'गवगला' भी कहा जाता है।

रथ यात्रा मार्ग में सीता अश्रु तालाब स्थित है और ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण सीता देवी के आँसुओं से हुआ था। तब से यह कभी नहीं सूखा। भीषण अकाल-काल में जब आस-पास की नदियाँ सूख जाती थीं, यहाँ पानी रहता था। पर्यटक प्रसिद्ध सीता पुष्प (सारका अशोका) भी देख सकते हैं। इन फूलों की ख़ासियत पंखुड़ियों, पुंकेसर और स्त्रीकेसर की संरचना है, जो धनुष धारण किए हुए एक मानव आकृति के समान हैं और कहा जाता है कि ये भगवान राम का प्रतीक हैं। ये फूल पूरे श्रीलंका में केवल इसी क्षेत्र में प्राप्त होते हैं।

नुवारा एलिया (अशोक वाटिका) में सीता अम्मन मंदिर

केथीश्वरम् मंदिर- श्री लंका के उत्तर-पश्चिम भाग में मन्नार द्वीप पर स्थित यह भगवान शिव को समर्पित एक रावण मंदिर है। इसकी स्थापना रावण के पितामह मय दानव ने की थी। यह तीसरा स्थान है जहाँ श्री राम ने ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिव लिंग स्थापित कर शिव पूजन किया था। हर पूर्णिमा को यहाँ हनुमान जी की विशेष पूजा की जाती है।

एला- एला श्रीलंका के उवा प्रांत का एक कस्बा है। यहाँ सिगिरिया (ऊँची चट्टान पर स्थित रावण का महल), १०८० फुट ऊँचा रावण फाल्स (प्राकृतिक झरना जहाँ से रावण सीता को लंका ले गया था), अशोक वाटिका (सीता एलिया जहाँ सीता जी को बंदी बनाकर रखा गया था),



मनावरी मंदिरम्- लगभग ७००० वर्ष पूर्व भगवान राम द्वारा रावण-वध के पश्चात स्थापित-पूजित पहला शिव लिंग यहाँ है। इसे रामलिंग शिवम् भी कहा जाता है। श्री राम के नाम पर यह एकमात्र स्थान है।

केलानिया मंदिरम्- रोशनी के शहर नुवारा एलिया में केन्द्रीय पर्वत मालाओं के बीच स्थित इस स्थल पर रावण के अंत के बाद विभीषण का राज्याभिषेक किया गया था। यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र स्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने श्री लंका में यहीं चरण रखे थे। सिंहली बौद्ध भी विभीषण को अपनी भूमि के रक्षक और देव रूप में पूजते हैं।

नुवारा एलिया में सीता अम्मन मंदिर स्थित है। नुवारा एलिया से ५ किलोमीटर दूर अशोक वाटिका है। यहाँ अशोक वृक्षों के मध्य माता सीता को बंदी कर रखा गया था। सीता जी जिस जल-धार में स्नान करती थीं उसके निकट छोटे-बड़े पैरों के निशान हैं जिन्हे हनुमान जी के पग-चिह्न कहा जाता है। जिसके किनारे एक जलधारा बहती है। लोक मान्यता है कि सीता देवी इसी जलधारा में स्नान करती थीं। इस नदी के किनारे चट्टानों पर भगवान हनुमान जैसे पैरों के निशान पाए जाते हैं, जिनमें से कुछ छोटे और कुछ बड़े आकार के हैं, जो भगवान हनुमान की किसी भी आकार में रूपांतरित होने की शक्ति का संकेत देते हैं।

पर्वत श्रृंखला के ऊपर बंजर भूमि वह मार्ग है जिससे राजा रावण सीता देवी को अपनी राजधानी लंकापुर से अशोक वाटिका ले गया था। पर्वत श्रृंखला के ऊपर रथ पथ अभी भी दिखाई देता है। आज तक इस मार्ग पर घास के अलावा कोई वनस्पति नहीं उगती है। लगभग एक शताब्दी पहले धारा में तीन छवियाँ खोजी गई थीं, जिनमें से एक सीता की थी। ऐसा माना जाता है कि सदियों से इस स्थान पर देवताओं की पूजा की जाती रही है। अब इस धारा के किनारे भगवान राम, सीतादेवी, लक्ष्मण और हनुमान के मंदिर हैं।

पुसल्लावा में फ्रोटॉफ्ट एस्टेट के ऊपर पर्वत श्रृंखला के बगल में पहाड़ की चोटी वह स्थान है जहाँ हनुमान ने पहली बार मुख्य भूमि लंका पर अपना पैर रखा था। पावला मलाई के रूप में जाना जाने वाला यह पर्वत इस पर्वत श्रृंखला से दिखाई देता है।

समुद्र पार करते समय, लंका जाते समय नाग कन्या सुरसा देवी ने हनुमान की परीक्षा ली थी। इस स्थान को अब ''नागदीपा'' कहा जाता है । जब हनुमान ने मेघनाद (रावण के पुत्र) पर मोहित होने का निर्णय लिया, तो दंड स्वरूप उनकी पूंछ में आग लगा दी गई। बदले में हनुमान ने शहर के घरों में आग लगा दी। उस्संगोडा ऐसा ही एक जला हुआ क्षेत्र है।

भारत वापस आते समय हनुमान ने मणि कट्टुथर में विश्राम किया था। पास में ही कोंडागाला (तमिल में कोंडाकलाई अर्थ बालों का बिखरना) नामक गाँव में सीता ने यहाँ से गुजरते समय अपने बाल अस्त-व्यस्त कर लिए थे। श्रीलंका के कई अन्य शहरों और गाँवों की तरह कोंडाकलाई (कोंडागाला) का नाम भी रामायण से लिया गया है। इस गाँव में सीता गोली (गूली) भी हैं जो रावण द्वारा सीता को जलपान हेतु दिए गए चावल के गोले हैं; जिसे सीता ने अस्वीकार कर, फेंक दिया था। वे रावण द्वारा दिया गया कोई पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहती थीं। स्थानीय लोग इन चावल के गोलों को सीता गोली कहते हैं और वे इन्हें अपने बच्चों को पेट की बीमारियों और सिरदर्द के इलाज के लिए देते हैं। किसान भी समृद्धि के लिए इन्हें अपने कैश बॉक्स या अनाज के बर्तनों में रखते हैं।

कोटमाले क्षेत्र में रावणगोड़ा (रावण का निवास) सुरंगों और गुफाओं का परिसर है जहाँ हनुमान द्वारा सीता के दर्शन करने, आधी लंका जलाने और चले जाने के बाद, रावण ने सीता को कुछ समय के लिए अशोक वाटिका हटाकर छुपाया था।

इस्त्रिपुरा (महिलाओं का क्षेत्र) रास्तों का एक और अद्भुत जाल है जो राजा रावण की नगरी के सभी प्रमुख क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। यह उस महिला-दल को संदर्भित करता है जिन्हें रावण ने सीता की देखभाल के लिए उपलब्ध कराया था।

कोंडा कट्टू गाला इस क्षेत्र में स्थित कई घुसपैठ करनेवाली सुरंगों और गुफाओं को दर्शाता है। यह रास्तों के एक महान अद्भुत जाल का हिस्सा प्रतीत होता है, जो राजा रावण की नगरी के सभी प्रमुख क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। सीता देवी ने इसी जलधारा में स्नान किया था और एक चट्टान पर बैठकर अपने केश सुखाए थे और बालों में क्लिप लगाई थीं, इसलिए इस चट्टान को कोंडा कट्टू गाला के नाम से जाना जाता है। यह वेलिमाडा क्षेत्र में स्थित है। इन सुरंगों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ये मानव निर्मित हैं, प्राकृतिक नहीं।

कालूतारा स्थित बौद्ध तीर्थस्थल कभी राजा रावण का महल और एक सुरंग हुआ करता था। इसके अतिरिक्त सुरंगों के मुहाने वेलिमाडा, बंदरवेला में रावण गुफा, हलागला में सेनापिटिया, रम्बोडा, लाबूकेले, वारियापोला/माताले और सीताकोटुवा/हसलाका में स्थित हैं, साथ ही कई अन्य सुरंगें भी हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि रावण के पास एक सुरंग थी जो दक्षिण अमेरिका तक जाती थी, जहाँ उसने अपना अधिकांश सोना और खजाना जमा किया था। उसने अपने भाई अहिरावण से मिलने के लिए भी यही रास्ता चुना था, जो पाताल लोक (ब्राज़ील) में रहता था ।

गायत्री पीडम में राजा रावण के पुत्र मेघनाद ने भगवान शिव की तपस्या और पूजा से उन्हें प्रसन्न किया और बदले में युद्ध से पहले भगवान शिव ने उन्हें अलौकिक शक्तियाँ प्रदान की थीं। नीलावारी देश के उत्तर में जाफना प्रायद्वीप में भगवान राम ने लंका पहुँचने पर अपनी सेना के लिए पानी पानेने हेतु भूमि पर बाण मारा था। दोंद्रा, सीनिगामा और हिक्काडुवा लंका के दक्षिण में स्थित वे स्थान हैं जहाँ सुग्रीव (वानरों के राजा) ने दक्षिणी दिशा से राजा रावण की सेना के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की थी। युद्ध के दौरान, मेघनाद ने विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए सीता देवी की एक हमशक्ल का सिर काट दिया था। अविस्सावेल्ला क्षेत्र में यह स्थान सीतावाका है।

लग्गाला (सिंहल शब्द "एलक्के गला" अर्थ है लक्ष्य चट्टान) भगवान राम की सेना पर नज़र रखने के लिए एक प्रहरी के रूप में कार्य करता था। दुनुविला झील के पीछे के कार्टेल को लग्गाला कहा जाता है। इसी चट्टान से भगवान राम की सेना की पहली झलक देखी गई थी और राजा रावण को इसकी सूचना दी गई थी। यह पहाड़ी भौगोलिक रूप से राजा रावण की नगरी के उत्तरी क्षेत्र का सबसे ऊँचा भाग है और साफ़ दिन में उत्तर पूर्व की ओर, यानी थिरु कोणेश्वरन और उत्तर पश्चिम की ओर, यानी तलाई मन्नार, आज भी देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि राजा रावण ने इसी चट्टान पर ध्यान किया था और यहीं से थिरु कोणेश्वरन में भगवान शिव की प्रार्थना की थी। उष्ण कटिबंधीय श्रीलंकाई वनस्पतियों के बीच अचानक विदेशी अल्पाइन हिमालयी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो हनुमान द्वारा संजीवनी नामक जीवन-पुनर्स्थापना जड़ी-बूटियों से भरा एक पर्वत ले जाने की वीरतापूर्ण यात्रा की विरासत है।

वासगामुवा में एक स्थान युधगानवा (सिंहल में अर्थ युद्ध का मैदान) में प्रमुख युद्ध हुए थे। इंद्रजीत (मेघनाद) के ब्रह्मास्त्र से आहत होने पर, राम, लक्ष्मण दोनों युद्ध के मैदान में बेहोश हो गए थे। उन्हें ठीक करने के लिए, अनुभवी वानर जाम्बवान ने हनुमान को हिमालय में ऋषभ और किलासा चोटियों के बीच जड़ी-बूटियों की पहाड़ी, संजीवनी पर्वत पर जाने और आवश्यक औषधीय जड़ी-बूटियाँ लाने का निर्देश दिया। हनुमान जड़ी-बूटियों को पहचान नहीं सके तो वहाँ उगने वाली सभी जड़ी-बूटियों के साथ पूरी चोटी को उखाड़कर लंका ले आए। पहाड़ी के कुछ हिस्से श्रीलंका में पाँच स्थानों गाले में रुमासाला, हिरिपिटिया में दोलुकंडा, हबराना अनुराधापुर रोड पर तथा हबराना के पास रीतिगाला पर गिरे।

भगवान इंद्र ने भगवान कार्तिकेय सुब्रमण्यम को राजा रावण के ब्रह्मास्त्र से भगवान राम की रक्षा के लिए युद्ध में जाने का अनुरोध किया था। यह कटारगामा में हुआ था , जो अब श्रीलंकाई लोगों के बीच पूजा के लिए एक बहुत लोकप्रिय स्थल है।

दुनुविला झील वह स्थान है जहाँ से भगवान राम ने लगल से युद्ध का नेतृत्व कर रहे राजा रावण पर ब्रह्मास्त्र चलाया था। यहीं पर भगवान राम के ब्रह्मास्त्र से राजा रावण का वध हुआ था। झील की चोटी समतल है और माना जाता है कि इस पर ब्रह्मास्त्र की शक्ति का प्रभाव पड़ा था। " धुनु " का अर्थ है " बाण " और " विला " का अर्थ है " झील ", इसलिए इसका नाम इसी लीला से पड़ा है।

रावण की मृत्यु के बाद, उनके पार्थिव शरीर को महियांगनया-वासगामुवा मार्ग पर स्थित याहंगला (शैल शिला) में रखा गया था ताकि उनके देशवासी अपने प्रिय दिवंगत राजा को अंतिम श्रद्धांजलि दे सकें। भौगोलिक दृष्टि से यह शिला अपनी तीनों दिशाओं से मीलों दूर से दिखाई देती है।

युद्ध के बाद सीता राम से मिलीं और दिवुरुम्पोला (शपथ स्थल) में उन्होंने अग्नि परीक्षा देकर राम के सामने अपनी निर्दोषता और पवित्रता सिद्ध की।

वन्थारामुलई वह स्थान है जहाँ युद्ध की उथल-पुथल के बाद भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान ने विश्राम किया था। अमरंथकाली वह स्थान है जहाँ उन्होंने युद्ध के बाद पहला भोजन किया था।

राम ने ' ब्रह्म हत्या दोष ' (ब्राह्मण रावण का वध) से मुक्ति पाने के लिए मुन्नेश्वरम (मुन्नु + ईश्वरन अर्थात शिव) से ५ किलोमीटर दूर, देदुरु ओया के तट के पास, मनावरी में पहला शिवलिंग स्थापित किया था।

अपने भाई की मृत्यु के बाद, विभीषण को केलानिया में लक्ष्मण द्वारा लंका के राजा के रूप में राज्याभिषेक किया गया था । यह रामायण से जुड़ा कोलंबो का सबसे निकटतम स्थल है। विभीषण श्रीलंका के चार संरक्षक देवताओं में से एकहैं। विभीषण के मंदिर पूरे श्रीलंका हैं। राजा विभीषण की एक पेंटिंग श्रीलंका की नई संसद को भी सुशोभित करती है। रावण के लिए समर्पित कोई मंदिर नहीं हैं, लेकिन विभीषण के लिए कई मौजूद हैं; यह साबित करता है कि वैदिक धर्म और न्याय के प्रति उनके रुख ने लोगों को उन्हें श्रीलंका में एक भगवान के रूप में पूजने के लिए प्रेरित किया। चिरंजीवी विभीषण इस चतुर्युग के ७ अमरों में से १ हैं। लोक मान्यता है कि विभीषण का शासन इस सृष्टि के अंत तक, लंका जलमग्न होने तक होगा । केलानी नदी का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी है।

उपरोक्त के अलावा, श्रीलंका में कई रामायण स्थल हैं जैसे: हॉर्टन मैदानों में थोटुपोलकांडा (पहाड़ी बंदरगाह), महियांगना में
वेरागंटोटा ( "विमान उतरने का स्थान), दक्षिणी तट पर उस्संगोडा ( लिफ्ट का क्षेत्र), मटाले और कुरुनागला में वारियापोला ( विमान बंदरगाह)।