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सोमवार, 19 मई 2025

मई १९, जबलपुर, नाक, भजन जिकड़ी, मुहावरेदार दोहे, आँख, मुक्तिका,

 सलिल सृजन मई १९

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चमकते पत्थरों का शहर - जबलपुर
प्रकृति की गोद में पर्यटन करना माँ की आँचल में किलकारी भरते हुए करवट बदलने की तरह है। पर्यटन आत्मिक शांति देने के साथ साथ सांस्कृतिक-सामाजिक संबंधों को सुदृढ़ करता है। अशांत मन कोशांत करने के लिए पर्यटन करना चाहिए। पर्यटन से पर्यटक का ज्ञान वर्धन होता है। पर्यटन स्थल की लोक संस्कृति और लोक जीवन के बारे में बहुत सारी गूढ़ जानकारी प्राप्त होती है। भारतवर्ष भिन्न-भिन्न विविधताओं, संस्कृतियों, संस्कारों, धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों से भरा हुआ देश है। हमारे देश के प्रत्येक राज्य में धार्मिक, प्राकृतिक, ऐतिहासिक महत्व के पर्यटक स्थल मिल जाएंगे जो भारत की विशालता और वैभवशाली प्राचीन विरासत को दर्शाते है। आइये, आज जबलपुर की सैर करते हैं। जबलपुर मध्यप्रदेश का प्रमुख महानगर है। यह समुद्र तट से ४१२ मी. की ऊँचाई पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल ५२११ वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या लगभग २५ लाख है। जबलपुर के निकट नर्मदा क्षेत्र साधना भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है। महर्षि अगस्त्य, जाबालि, भृगु, दत्तात्रेय आदि ने यहाँ तपस्या की है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार त्रेता में राम सीता लक्षमण तथा द्वापर में कृष्ण व पांडवों का यहाँ आगमन हुआ था। यह गोंड़ तथा कलचुरी राजाओं के समय समृद्ध क्षेत्र रहा है। भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रथम प्रयास इसी अञ्चल में बुंदेला क्रांति १८४२ के रूप में सामने आया जिसने अग्रेजों का हृदय कँपा दिया था। सन १७८१ के बाद ही मराठों के मुख्यालय के रूप में चुने जाने पर इस नगर की सत्ता बढ़ी, बाद में यह सागर और नर्मदा क्षेत्रों के ब्रिटिश कमीशन का मुख्यालय बन गया। यहाँ १८६४ में नगरपालिका का गठन हुआ था।
पुरातन वैभव
जबलपुर के समीप राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान, घुघवा (डिंडोरी) में ७५ एकड़ में पत्तियों और पेड़ों के आकर्षक और दुर्लभ जीवाश्म हैं जो ४ करोड़ से १५ करोड़ साल पहले मौजूद थे।नर्मदाघाटी के भू स्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदाघाटी की सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता से बहुत पुरानी है। लम्हेटा घाट के चट्टानों को कार्बन डेटिंग परीक्षण में लगभग ६ करोड़ वर्ष पुराना अनुमानित किया गया है। आयुध निर्माणी खमारिया के समीप पाटबाबा की पहाड़ियों से लगभग २ करोड़ वर्ष पूर्व विचरनेवाले भीमकाय डायनासौर राजासौरस नर्मदेडेंसिस के जीवाश्म तथा अंडे शिकागो विश्वविद्यालय के पेलियनोलिस्ट्स पॉल सेरेनो, मिशिगन विश्वविद्यालय के जेफ विल्सन और सुरेश श्रीवास्तव ने खोजे। नर्मदाघाटी में प्राप्त भैंसा, घोड़े, रिनोसिरस, हिप्पोपोटेमस, हाथी और मगर की हड्डियों तथा प्रस्तर-उद्योग संपन्न यह भूभाग आदि मानव का निवास था। १८७२ ई. में मिली स्फटिक चट्टान से निर्मित एक तराशी पूर्व-चिलयन युग की प्रस्तर कुल्हाड़ी भारत में प्राप्त प्रागैतिहासिक चिन्हों में सबसे प्राचीन है। भेड़ाघाट में पुरापाषाण युग के अनेक वृहत् जीवाश्म और प्रस्तरास्त्र मिले हैं। जबलपुर से लगभग २० कि.मी. दूर भेड़ाघाट विश्व का एकमात्र स्थान है जहाँ बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ के बीच से नर्मदा की धवल सलिल धार प्रवाहित होती है। पंचवटी घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय आकर्षित करते रंग-बिरंगे पत्थर मानो हमसे कहते हैं, आओ मुझे छूकर तो देखो… नर्मदा अञ्चल के ग्रामों में बंबुलिया और लमटेरा लोकगीतों की मधुर ध्वनि आज भी गूँजती है -
* नरबदा तो ऐसी मिलीं रे
जैसैं मिल गए मताई उन बाप रे
इस बंबुलिया लोकगीत में नवविवाहिता अपने मायके को याद करते हुए नर्मदा को माता और पिता, दोनों के रूप में देख रही है। प्रकृति का मानव के साथ घनिष्ठ संबंध म,आँव सभ्यता की धरोहर है।
* नरबदा मैया उल्टी तो बहै रे,
उल्टी बहै रे तिरबैनी बहै सूधी धार रे।
भारत उपमहाद्वीप की शेष नदियों के सर्वथा विपरीत दिशा में नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ बहती हैं। यह भौगोलिक तथ्य एक लोक कथा के प्रचलित है है। तदनुसार व्यासजी से मुनियों ने प्रार्थना की, जिससे व्यासजी ने नर्मदा का स्मरण किया और नर्मदा ने अपने बहाव की दिशा बदल दी।
* नरबदा अरे माता तो लगै रे,
माता लगै रे तिरबैनी लगै मौरी बैन रे, नरबदा हो....।
कालक्रम की दृष्टि से नर्मदा बहुत ज्येष्ठ और गंगा कनिष्ठ हैं। उक्त पंक्तियों में में नर्मदा को माता कहा गया है और त्रिवेणी को बहिन कहकर इस तथ्य को इंगित किया गया है। दश के विविध अंचलों को एक सूत्र में बाँधने की यही लोक रीति सफलराष्ट्रीय एकता का मूल है।
नर्मदा विश्व की एकमात्र नदी है जिसके उद्गम स्थल अमरकंटक पर्वत से सागर में विलय स्थल भरूच गुजरात तक सैंकड़ों परकम्मावासी (पदयात्री) पैदल परिक्रमा करते हैं। वे टोलियों में नदी के एक किनारे से चलकर भरुच में सागर में दूसरे किनारे पर आकर वापिस लौटते हैं। जबलपुर में नर्मदा के कई घाट हैं। हर घाट की अपनी कहानी और मनोरम छटा मन मोह लेती है। सिद्ध घाट, गौरीघाट, दरोगाघाट, खारीघाट, लम्हेटा घाट, तिलवाराघाट भेड़ाघाट, सरस्वती घाट आदि का सौन्दर्य अद्भुत है। चौंसठ योगिनी मंदिर के केंद्र में गौरीशंकर की प्राचीन किन्तु भव्य प्रतिमा है जिसके चारों ओर वृत्ताकार में चौंसठ योगिनियों की मूर्तियाँ हैं। समीप ही धुआँधार जल प्रपात की नैसर्गिक दिव्य छवि छटा अलौकिक है। सरस्वती घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय दोनों ओर बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ की छटा मनमोहक है। यह विश्व का एकमात्र स्थल है जहाँ सौन्दर्यमयी नर्मदा संगमरमारी पहाड़ के बीच से बहती है। जिस देश में गंगा बहती है, प्राण जाए पाए वचन न जाए, अशोका, मोहनजोदाड़ो आदि अनेक फिल्मों में यहाँ के भव्य दृश्यों का फिल्कमांन किया जा चुका है।
गिरि दुर्ग मदन महल
जबलपुर एक पहाड़ी पर गिरि दुर्ग मदन महल स्थित है जिसे ११०० ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड महल है। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ा है, जो १४ वीं शताब्दी के चार स्वतंत्र गोंड राज्यों का प्रमुख नगर-किला था। मदन महल के समीप ही कौआ डोल चट्टान (संतुलित शिला) है। यहाँ एक शिला ऊपर दूसरी विशाल शिला इस तरह रखी है कि मिलन स्थल सुई की नोक की तरह है। देखने से प्रतीत होता है कि कौए के बैठते ही ऊपरवाली चट्टान लुढ़क जाएगी पर भूकंप आने पर भी यह सुरक्षित रही।
भारत का वेनिस
संग्राम सागर, बाजना मठ, अधारताल, रानी ताल, चेरी ताल आदि जबलपुर को गोंड काल की देन है। जबलपुर ५२ तालाबों से संपन्न ऐसा शहर था जिसे भारत का वेनिस कहा जा सकता था। इनका निर्माण भू वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार किया गया था कि वर्षा जल सबसे पहले ऊपरी तालाब को भरे, फिर दूसरे, तीसरे चौथे और पाँचवे तालाब को भरने के बाद नर्मदा नदी में बहे। वर्तमान में अधिकांश तालाब पूरकर बस्ती बसा ली गई है तथापि कई तालाब अब भी अवशेष रूप में हैं। रामलला मंदिर, बड़े गणेश मंदिर ग्वारीघाट, गुप्तेश्वर, चित्रगुप्त मंदिर फूटाताल, राम जानकी मंदिर लाल माटी, पुष्टिमार्ग प्रवर्तक गोस्वामी विट्ठल दास जी की बैठकी देव ताल, ओशो आश्रम, ओशो संबोधि वृक्ष भँवरताल, राजा रघुनाथ शाह बलिदान स्थल, त्रिपुर सुंदरी मंदिर, ब्योहार निवास साठिया कुआं, गोपाल लाल मंडी हनुमानताल, बड़ी खरमाई मंदिर, बूडी खरमाई मंदिर आदि महत्वपूर्ण स्थल हैं।
साहित्यिक अवदान
जबलपुर अञ्चल में आधुनिक हिन्दी अपने शुद्ध साहित्यिक रूप में आम लोगों में बोली लिखी पढ़ी जाते है। हिंदी का पहला व्याकरण जबलपुर में ही कामता प्रसाद गुरु जी द्वारा लिखा गया। पिंगल शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ छंद प्रभाकर रचनेवाले जगन्नाथ प्रसाद भानु भी जबलपुर से जुड़े हुए थे। जबलपुर की समृद्ध सारस्वत साधना के कालजयी हस्ताक्षरों में जगद्गुरु ब्रह्मानन्द सरस्वती जी, स्वरूपानन्द सरस्वती जी, क्रांतिकारी माखन लाल चतुर्वेदी, क्रांतिकारी ज्ञानचंद वर्मा, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेव प्रसाद 'सामी', केशव प्रसाद पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', ब्योहार राजेन्द्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, सेठ गोविन्द दास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश (ओशो), द्वारका प्रसाद मिश्र, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', हरिशंकर परसाई, प्रेमचंद श्रीवास्तव 'मज़हर', इंद्र बहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अमृत लाल वेगड़ आदि अविस्मरणीय हैं।
वर्तमान काल में हिंदी भाषा विज्ञान के विद्वान डॉक्टर सुरेश कुमार वर्मा, ५०० से अधिक नए छंदों की रचना करनेवाले तथा शिशु मंदिर विद्यालयों में गाई जाती दैनिक प्रार्थना 'हे हंसवाहिनी, ज्ञान-दायिनी,अंब- विमल मति दे' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा "सलिल", राम वनवास यात्रा के अन्वेषक डॉ. गिरीश कुमार अग्निहोत्री, पाली विशेषज्ञ आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, वैदिक वांगमय विशेषज्ञ डॉ. इला घोष, ख्यात वनस्पति शास्त्री डॉ. अनामिका तिवारी, समाजसेवी साधन उपाध्याय, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त रसायनविद डॉ. अनिल बाजपेयी आदि सारस्वत साधन की अलख आज भी जलाए हुए हैं। जबलपुर के ख्यात चित्रकारों में ब्योहार राममनोहर सिन्हा, अमृत लाल वेगड़, हरी भटनागर, हरी श्रीवास्तव, सुरेश श्रीवास्तव, राजेन्द्र कामले, अस्मिता शैली आदि उल्लेखनीय हैं।
तिलवारा एक्वाडक्ट
जबलपुर में एशिया का सबसे अधिक लंबा एक्वाडक्ट तिलवारा घाट नें है। एक्वाडक्ट एक जटिल संरचना अभियांत्रिकी संरचना होती है जिसमें नदी के ऊपर से नहर बहती है। तिलवार एक्वाडक्ट की खासियत यह है कि नर्मदा नदी के ऊपर से नर्मदा की ही नहर बहती है और उसके ऊपर से जबलपुर नागपूर राष्ट्रीय राजमार्ग का भारी सड़क यातायात भी जारी रहता है।
भारत रत्न विश्वेश्वरैया की ९ मूर्तियाँ
जबलपुर ने एक कीर्तिमान इंजीनियर्स फोरम के माध्यम से स्थापित किया है। किसी देश के निर्माण और विकास में अभियंताओं का योगदान सर्वाधिक होता है किन्तु सामन्यात: उसे पहचान नहीं जाता। आधुनिक भारतीय अभियांत्रिकी के मुकुटमणि डॉ. भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हैं जिनके जन्म दिवस को 'अभियंता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जबलपुर के अभियंताओं ने विश्वेश्वरैया जी को शरुद्धाञ्जली देने के लिए उनकी ९ मूर्तियाँ नगर में स्थापित की हैं। अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' की पहल और प्रयासों से शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, मुख्य अभियंता लोक निर्माण विभाग कार्यालय, शासकीय कला निकेतन पॉलिटेकनिक, नर्मदा सर्किल कार्यालय, हितकारिणी अभियांत्रिकी महाविद्यालय, इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स कार्यालय, अतिथि गृह बरगी हिल्स, अधीक्षण अभियंता लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी कार्यालय तथा विद्युत मण्डल रामपुर में स्थापित एम. व्ही. की प्रतिमाएँ अभियंताओं की प्रेरणा स्रोत हैं। विश्व में अन्यत्र किसी भी नगर में एक अभियंता की इतनी मूर्तियाँ नहीं हैं।
शिक्षा केंद्र
जबलपुर में ५ शासकीय विश्वविद्यालय हैं। यह महाकौशल बुंदेलखंड का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र है। यहाँ हर विधा और शाखा की उच्च शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, सुभाषचंद्र बोस मेडिकल यूनिवर्सिटी, पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय तथा विधि विश्वविद्यालय जबलपुर की शान हैं। जबलपुर में आई.आई.आई.टी. तथा आई.आई.एम. दोनों राष्ट्रीय संस्थान हैं। अभियांत्रिकी शिक्षा के २० संस्थान, मेडिकल शिक्षा के २८ संस्थानों सहित जबलपुर में २३० विविध शिक्षा संस्थान हैं।
भारत का रखवाला
जबलपुर अपनी भौगोलिक स्थितियों के कारण चिरकाल से सुरक्षा का केंद्र रहा है। यहाँ आयुध निरामनीनिर्माणी खमरिया, सेंट्रल ऑर्डिनेंस डिपो, भारी वाहन कारखाना, धूसर लोहा फ़ाउन्ड्री आदि कारखानों में देख की रक्ष में महती भूमिका निभानेवाले अस्त्र-शस्त्र, वाहन आदि का निर्माण होता है। जबलपुर रक्षा क्लस्टर बनना प्रस्तावित है। बांग्ला देश के स्वतंत्रता के पश्चात आत्मसर्पण करनेवाली पकिस्तानी सेना के कमांडर नियाजी तथा सनिक जबलपुर में ही बंदी रखे गए थे।
जाकी रही भावना जैसी
जबलपुर भारत का हृदय स्थल है। यह मध्यप्रदेश राज्य का सर्वाधिक प्राचीन पवित्र शहर है। सनातन सलिला नर्मदा की गोद में बसा जबलपुर श्यामल बैसाल्ट शिलाओं से संपन्न है, इसे 'पत्थरों का शहर' कहा जाता है। संत विनोबा भावे ने जबलपुर के साँस्कृतिक वैभव से प्रभावित होकर इसे 'संस्कारधानी' का विशेषण दिया तो नेहरू जी ने अपनी सभा में शोर कर रहे युवाओं पर नाराज होकर 'गुंडों का शहर' कहकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। जबलपुर अनेकता में एकता परक समन्वय और सहिष्णुता की नगरी है। यहाँ के खान-पान में भी मिश्रित संस्कृति झलकती है। इडली-डोसा', 'वड़ा-सांभर' से लेकर 'दाल-बाफला' ठेठ मालवा फूड, खोवे (मावे) की जलेबी खाने के बाद तो बस आपको आनंद ही आने वाला है। जबलपुर के चप्पे चप्पे में इतिहास है। निस्संदेह आपने जबलपुर नहीं देखा तो आपका भारत भ्रमण पूर्ण नहीं हो सकता।
***
दोहा सलिला:
दोहा का रंग नाक के संग
*
मीन कमल मृग से नयन, शुक जैसी हो नाक
चंदन तन में आत्म हो, निष्कलंक निष्पाप
*
बैठ न पाये नाक पर, मक्खी रखिये ध्यान
बैठे तो झट दें उड़ा, बने रहें अनजान
*
नाक घुसेड़ें हर जगह, जो पाते हैं मात
नाक अड़ाते बिन वजह, हो जाते कुख्यात
*
नाक न नीची हो तनिक, करता सब जग फ़िक्र
नाक कटे तो हो 'सलिल', घर-घर हँसकर ज़िक्र
*
नाक सदा ऊँची रखें, बढ़े मान-सम्मान
नाक अदाए व्यर्थ जो, उसका हो अपमान
*
शूर्पणखा की नाक ने, बदल दिया इतिहास
ऊँची थी संत्रास दे, कटी सहा संत्रास
*
नाक छिनकना छोड़ दें, जहाँ-तहाँ हम-आप
'सलिल' स्वच्छ भारत बने, मिटे गंदगी शाप
*
नाक-नार दें हौसला, ठुमक पटकती पैर
ख्वाब दिखा पुचकार लो, 'सलिल' तभी हो खैर
*
जिसकी दस-दस नाक थीं, उठा न सका पिनाक
बीच सभा में कट गयी, नाक मिट गयी धाक
*
नाक नकेल बिना नहीं, घोड़ा सहे सवार
बीबी नाक-नकेल बिन, हो सवार कर प्यार
*
आँख कान कर पैर लब, दो-दो करते काम
नाक शीश मन प्राण को, मिलता जग में नाम
*
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
१६-५-२०२०
मुक्तिका
कोयल कूक कह रही कल रव जैसा था, वैसा मत करना
गौरैया कहती कलरव कर, किलकिल करने से अब डरना
पवन कहे मत धूम्र-वाहनों से मुझको दूषित कर मानव
सलिल कहे निर्मल रहने दे, मलिन न पंकिल मुझको करना
कोरोना बोले मैं जाऊँ अगर रहेगा अनुशासित तू
खुली रहे मधुशाला पीने जाकर बिन मारे मत मरना
साफ-सफाई करो, रहो घर में, मत घर को होटल मानो
जो न चाहते हो तुमसे, व्यवहार न कभी किसी से करना
मेहनतकश को इज्जत दो, भूखा न रहे कोई यह देखो
लोकतंत्र में लोक जगे, जाग्रत हो, ऐसा पथ मिल वरना
***
मुक्तिका
इसने मारा उसने मारा
क्या जानूँ किस-किस ने मारा
श्रमिक-कृषक जोरू गरीब की
भौजी कहकर सबने मारा
नेता अफसर सेठ मजे में
पत्रकार-भक्तों ने मारा
चोर-गिरहकट छूटे पीछे
संतों-मुल्लों ने भी मारा
भाग्यविधाता भागा फिरता
कौन न जिसने जी भर मारा
१९-५-२०२०
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
६.७.२०१८
***
एक शे'र
चतुर्वेदी को मिला जब राह में कोई कबीर
व्यर्थ तत्क्षण पंडितों की पंडिताई देख ली
*
सुना रहा गीता पंडित जो खुद माया में फँसा हुआ
लेकिन सारी दुनिया को नित मुक्ति-राह बतलाता है.
***
दोहा सलिला
*
देव लात के मानते, कब बातों से बात
जैसा देव उसी तरह, पूजा करिए तात
*
चरण कमल झुक लात से, मना रहे हैं खैर
आये आम चुनाव क्या?, पड़ें पैर के पैर
*
पाँव पूजने का नहीं, शेष रहा आनंद
'लिव इन' के दुष्काल में, भंग हो रहे छंद
*
पाद-प्रहार न भाई पर, कभी कीजिए भूल
घर भेदी लंका ढहे, चुभता बनकर शूल
*
'सलिल न मन में कीजिए, किंचित भी अभिमान
तीन पगों में नाप भू, हरि दें जीवन-दान
*
मुक्तिका
कल्पना की अल्पना से द्वार दिल का जब सजाओ
तब जरूरी देखना यह, द्वार अपना या पराया?
.
छाँह सर की, बाँह प्रिय की. छोड़ना नाहक कभी मत
क्या हुआ जो भाव उसका, कुछ कभी मन को न भाया
.
प्यार माता-पिता, भाई-भगिनी, बच्चों से किया जब
रागमय अनुराग में तब, दोष किंचित भी न पाया
.
कौन क्या कहता? न इससे, मन तुम्हारा हो प्रभावित
आप अपनी राह चुन, मत करो वह जो मन न भाया
.
जो गया वह बुरा तो क्यों याद कर तुम रो रहे हो?
आ रहा जो क्यों न उसके वास्ते दीपक जलाया?
.
मुक्तिका
जिनसे मिले न उनसे बिछुड़े अपने मन की बात है
लेकिन अपने हाथों में कब रह पाये हालात हैं?
.
फूल गिरे पत्थर पर चोटिल होता-करता कहे बिना
कौन जानता, कौन बताये कहाँ-कहाँ आघात है?
.
शिकवे गिले शिकायत जिससे उसको ही कुछ पता
रात विरह की भले अँधेरी उसके बाद प्रभात है
.
मिलने और बिछुड़ने का क्रम जीवन को जीवन देता
पले सखावत श्वास-आस में, यादों की बारात है
.
तन दूल्हे ने मन दुल्हन की रूप छटा जब-जब देखी
लूट न पाया, खुद ही लुटकर बोला 'दिल सौगात है'
.***
मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमाकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मना रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ भी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
१९-५-२०१६
***
दोहा सलिला:
दोहा के रंग आँखों के संग ४
*
आँख न रखते आँख पर, जो वे खोते दृष्टि
आँख स्वस्थ्य रखिए सदा, करें स्नेह की वृष्टि
*
मुग्ध आँख पर हो गये, दिल को लुटा महेश
एक न दो, लीं तीन तब, मिला महत्त्व अशेष
*
आँख खुली तो पड़ गये, आँखों में बल खूब
आँख डबडबा रह गयी, अश्रु-धार में डूब
*
उतरे खून न आँख में, आँख दिखाना छोड़
आँख चुराना भी गलत, फेर न, पर ले मोड़
*
धूल आँख में झोंकना, है अक्षम अपराध
आँख खोल दे समय तो, पूरी हो हर साध
*
आँख चौंधियाये नहीं, पाकर धन-संपत्ति
हो विपत्ति कोई छिपी, झेल- न कर आपत्ति
*
आँखें पीली-लाल हों, रहो आँख से दूर
आँखों का काँटा बनें, तो आँखें हैं सूर
*
शत्रु किरकिरी आँख की, छोड़ न कह: 'है दीन'
अवसर पा लेता वही, पल में आँखें छीन
*
आँख बिछा स्वागत करें,रखें आँख की ओट
आँख पुतलियाँ मानिये, बहू बेटियाँ नोट
*
आँखों का तारा 'सलिल', अपना भारत देश
आँख फाड़ देखे जगत, उन्नति करे विशेष
१९-५-२०१५
*

निराला

महाप्राण निराला 
***
• निराला जी (२१ फरवरी १८९९ - १५ अक्टूबर १९६१) अपने जीवन-काल में ही मिथक बन चुके थे।
• सूर्यकान्त त्रिपाठी नाम के साथ जुड़ा 'निराला' दरअसल पहले उनका छद्म नाम था जिससे वे मतवाला नामक पत्र में कॉलम लिखते थे। बाद में यह छद्मनाम ऐसा चर्चित हुआ कि उनके नाम का हिस्सा हो गया।
• निराला जी सफल कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये।
• निराला जी ने आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भरत में विवेकानंद तथा राजयोग का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद किया।
• १९१८ के इन्फ्लुएन्जा में उनके तमाम सगे-सम्बन्धी दिवंगत हो गए, पत्नी भी। सिर्फ़ दो बच्चे ही बचे- बेटा रामकृष्ण और बेटी सरोज। १९३५ में सरोज के निधन पर निराला ने चर्चित कविता 'सरोज-स्मृति' की रचना की थी।
• निराला ने जब मुक्त छंद में रचनाएँ लिखनी शुरू कीं तो बहुत विरोध हुआ। रबर छंद और केंचुआ छंद कहकर इसका मज़ाक उड़ाया गया। आज हिंदी कविता का यह मिज़ाज़ बन चुका है।
• निराला अपनी दानशीलता के लिए बहुत जाने जाते थे। अपना सर्वस्व दान करने की प्रवृत्ति से हमेशा तंगी में ही रहते रहे।
• हिन्दी कविता में छायावाद के साथ ही प्रगतिवाद होते हुए नयी कविता और नवगीत काव्यांदोलन उनसे अपना जुड़ाव महसूस करते रहे।
• हिंदी में अकेले निराला पर जितनी कविताएँ लिखी गयी हैं उतनी शायद किसी एक व्यक्ति पर कविताएँ कहीं नहीं लिखी गयीं।
• उनमें विरोध का सामर्थ्य था और असहमति का साहस। इसीलिए वे जनता के कवि थे।
• जब गांधी जी का दौर था, हिंदी के ही सवाल पर निराला जी ने गांधी का विरोध किया और 'बापू तुम मुर्गी खाते यदि' जैसी व्यंग्य कविता लिखी।
• उन्होंने नेहरू जी का विरोध किया और 'काले-काले बादल छाये न आये वीर जवाहर लाल' कविता लिखी।
• तमाम संघर्षों-विरोधों और समझौता-विहीन जीवन ने उन्हें मानसिक तौर पर तोड़ दिया था। लेखन के बूते आजीविका चलाने वाला यह कवि स्वतंत्रता मिलने के दौरान १८४६ से १९४९ तक कुछ भी न लिख सका। ये दिन विभाजन संत्रास के भी दिन थे। साहित्य में कई बार त्वरित प्रतिक्रिया नहीं होती। मौन भी मुखर होता है।
• एक बार महीयसी महादेवी वर्मा (जिन्हे निराला छोटी बहिन मानते थे) और अन्य साहित्यकारों ने उनके प्रकाशक दुलारे लाल भार्गव पर दबाब डालकर रॉयल्टी की कुछ राशि निराला जी को दिलवाई। अगले दिन वे राशि महादेवी जी को देने लगे तो उन्होंने मनाकर निराला जी को वापिस लौटा दी। कुछ दिन बाद भेंट होने पर महादेवी जी ने पूछा कि राशि का क्या किया? उत्तर मिला कि तुम्हारे घर से लौट रहा था पेड़ के नीचे एक दुखियारी बुढ़िया मिली, भीख माँग रही थी, उसे दे दी। महादेवी जी ने पूछा कि क्यों दे दी? निराला जी बोले कि माँ भीख माँग रही हो तो बेटा बिना दिए कैसे रह सकता है?   
• महादेवी जी को कश्मीर यात्रा में बहुमूल्य पशमीना का शाल भेंट किया गया। उनके इलाहाबाद लौटने पर निराला जी मिलने आए तो ठंड से काँप रहे थे, महादेवी जी ने वक शाल निराला जी को उढ़ा दिया। कुछ दिन निराला जी फिर वैसे ही मिले तो पूछा की शाल का क्या किया तो बोले कि भिखारी को उढ़ा दिया।
• १९७९ में मुक़दमा जीतने के बाद सारा निराला साहित्य एक जगह जुटाया गया और नन्दकिशोर    
नवल के संपादन में राजकमल प्रकाशन से निराला-रचनावली ८ खण्डों में प्रकाशित हुई। राज कमल प्रकाशन से ही डॉ। राम विलास शर्मा द्वारा लिखित निराला जी की जीवनी 'निराला की साहित्य साधना' २ भागों में प्रकाशित हुई। 
• निराला मांसाहारी थे किन्तु इससे परहेज़ करने वालों के प्रति बेहद सतर्क रहते थे। एक बार परम वैष्णव, राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त के आगमन पर वे उन्हें कमरे में बैठाकर गायब हो गए। क़रीब आधे घंटे बाद जब कमरे में आए तो उनके हाथों में एक पत्तल था और कंधे पर घड़ा। पूछे जाने पर बताया कि दद्दा (गुप्त जी) उनके यहाँ न कुछ खाते, न पीते इसलिए वे गंगाजल से भरा घड़ा और फलाहारी बर्फी लेने चले गए थे।
• निराला जी के प्रकाशक दुलारेलाल भार्गव ने दोहा सतसई 'दुलारे दोहावली' प्रकाशित कराई तो उसके विमोचन कार्यक्रम में निराला जी को भी आमंत्रित किया। कार्यक्रम में चतुकारों ने दुलारे लाल जी के महिमा मंडन में अति का दी, यहाँ तक कि एक सज्जन ने दुलारे दोहावली के दोहों को बिहारी की सतसई के दोहों से भी श्रेष्ठ बता दिया। उस समय निराला जी वितरित किए गए शुद्ध घी के हलुए का भोग लगा रहे थे। तभी उनके नाम की घोषणा संबोधन के लिए की गई। निराला जी ने डन में शेष हलुआ समेटा, ग्रहण किया, दोन फेंककर कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा, सिर ऊँचा किए मंच पर पहुँचे और गरजते हुए अपनी जिंदगी का पहला और अंतिम दोहा कहा-  
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल। 
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल।।  
उसके बाद सन्नाटा तो छाया ही, आयोजन ही समाप्त हो गया और दुलारे लाल जी का मुँह देखते ही बनता था 'काटो तो खून नहीं'।  
• नेहरू जी के कहने पर निराला जी को १०० रुपये प्रतिमाह की मदद मिलनी तय हुई थी और यह भी तय हुआ कि यह राशि निराला को दी जायेगी तो वे इसे भी दान कर देंगे इसलिए कमलाशंकर सिंह जिनके यहाँ वे रहते थे, उन्हें दी जाती थी। इसके बाद भी निराला जी नेहरू जी के मुखर विरोधी बने रहे। क्या वर्तमान समय में कोई सत्ताधारी ऐसा हो सकता है जो अपने घोर विरोधी साहित्यकार को मदद करे और साहित्यकार सत्ता की सहायता के बदले कलम न बेचे?
• संस्कृत, हिंदी, बैसवाड़ी और बांग्ला के साथ रवींद्र संगीत के भी अच्छे जानकार थे निराला। उन्होंने 'विवेकानंद साहित्य' के बांग्ला से हिंदी अनुवाद में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। महादेवी जी कहती थीं कि निराला मानव नहीं महा मानव थे, ऐसा इंसान दुबारा नहीं हो सकता।    
• दारागंज में वे आज भी देवता की तरह पूजे जाते हैं। दुकानों के नाम भी उनके नाम के साथ ही हैं जैसे दारागंज स्थित उनकी प्रतिमा के सामने निराला मिष्ठान भण्डार या निराला चाट भण्डार। लखनऊ में उनके नाम पर एक कॉलोनी है निराला नगर किंतु उसमें निराला के व्यक्तित्व की कोई छाप नहीं है।  
• निराला जी ने पत्नी के ज़ोर देने पर ही हिन्दी सीखी थी। फिर बांग्‍ला में कविता लिखने के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया।
• स्कूल में पढ़ने से अधिक उनकी रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी।
• एक वक्‍त था जब हजारों निराला प्रेमियों को राम की शक्‍ति पूजा कविता याद थी और वे गर्व से सुनाते थे।
• उनके देहांत के बाद उनके पुत्र रामकृष्ण को १९ वर्ष तक प्रकाशकों से कॉपीराइट का मुकद्दमा लड़ना पड़ा। प्रकाशक जीवन भर शोषण करने के बाद भी कॉपीराइट स्वीकार नहीं कर रहे थे।

रविवार, 18 मई 2025

मई १८, मुक्तिका, कविता, कोरोना, हास्य कुण्डलिया, यमक, रसाल / सुमित्र छंद, शारदा

सलिल सृजन मई १८
अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस
बहुभाषाविद धीरेन्द्र वर्मा जयंती
*
शत शत वंदन मातु शारदे!
भव बाधा हर नव विचार दे।।
.
जो जैसे तेरी संतति हैं
रूठ न मैया! हँस दुलार दे।।
.
नाद अनाहद सुनवा दे माँ!
काम-क्रोध-मद से उबार दे।।
.
मोह पंक में पड़े हुए हैं
पंकज कर नूतन निखार दे।।
.
हुईं अनगिनत त्रुटियाँ हमसे
अनुकंपा कर झट बिसार दे।।
.
सलिल करे अभिषेक निरंतर
माता! कर आचमन तार दे।।
.
पद प्रक्षालन कर पाऊँ नित
तम हरकर जीवन सँवार दे।।
१८.५.२०२५
०००
मुक्तिका
हाशिए पर सफे रह रहे
क्या कहानी?; सुनें कह रहे
अश्क जंगल के गुमनाम हो
पीर पर्वत की चुप तह रहे
रास्ते राहगीरों बिना
मरुथलों की तरह दह रहे
मुंसिफ़ों की इनायत हुई
टूटता है कहर, सह रहे
आदमी- आदमी है नहीं
धर्म के सब किले ढह रहे
सिय गँवा क्षुब्ध हो राम जी
डूब सरयू में खुद बह रहे
एक चेहरा जहाँ दिख रहा
कई चेहरे वहाँ रह रहे
१८-५-२०२२
•••
मुक्तिका
गीत गाते मीत जब दिल वार के
जीत जाते प्रीत हँस हम हार के
बीत जाते यार जब पल प्यार के
याद आते फूल हरसिंगार के
बोलती है बोल बिन तोले जुबां
कोकिला दे घोल रस मनुहार के
नैन में झाँकें नयन करते गिले
नाव को ताकें सजन पतवार के
बैर से हो बैर तब सुख-शांति हो
द्वारिका जाते कदम हरिद्वार के
१८-५-२०२२
•••
सत्रह मई बहुभाषाविद धीरेन्द्र वर्मा जयंती
*
*संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा,अंग्रेज़ी और फ़्रेंच के विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा की जयंती पर सादर नमन*
धीरेन्द्र वर्मा का जन्म १७ मई, १८९७ को बरेली (उत्तर प्रदेश) के भूड़ मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता का नाम खानचंद था। खानचंद एक जमींदार पिता के पुत्र होते हुए भी भारतीय संस्कृति से प्रेम रखते थे।
प्रारम्भ में धीरेन्द्र वर्मा का नामांकन वर्ष १९०८ में डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून में हुआ, किंतु कुछ ही दिनों बाद वे अपने पिता के पास चले आये और क्वींस कॉलेज, लखनऊ में दाखिला लिया। इसी स्कूल से सन १९१४ ई. में प्रथम श्रेणी में 'स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट परीक्षा' उत्तिर्ण की और हिन्दी में विशेष योग्यता प्राप्त की। तदन्तर इन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश किया। सन १९२१ ई. में इसी कॉलेज से इन्होंने संस्कृत से एम॰ए॰ किया। उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की थी।
धीरेंद्र वर्मा हिन्दी तथा ब्रजभाषा के कवि एवं इतिहासकार थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रथम हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। धर्मवीर भारती ने उनके ही मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य किया। जो कार्य हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया, वही कार्य हिन्दी शोध के क्षेत्र में डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने किया था। धीरेन्द्र वर्मा जहाँ एक तरफ़ हिन्दी विभाग के उत्कृष्ट व्यवस्थापक रहे, वहीं दूसरी ओर एक आदर्श प्राध्यापक भी थे। भारतीय भाषाओं से सम्बद्ध समस्त शोध कार्य के आधार पर उन्होंने १९३३ ई. में हिन्दी भाषा का प्रथम वैज्ञानिक इतिहास लिखा था। फ्रेंच भाषा में उनका ब्रजभाषा पर शोध प्रबन्ध है, जिसका अब हिन्दी अनुवाद हो चुका है। मार्च, सन् १९६९ में डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विश्वकोश के प्रधान संपादक नियुक्त हुए। विश्वकोश का प्रथम खंड लगभग डेढ़ वर्षों की अल्पावधि में ही सन् १९६० में प्रकाशित हुआ।
*कृतियाँ*
१. बृजभाषा व्याकरण
२. 'अष्टछाप' प्रकाशन रामनारायण लाल, इलाहाबाद, सन १९३८
३. 'सूरसागर-सार' सूर के ८१७ उत्कृष्ट पदों का चयन एवं संपादन, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
४. 'मेरी कालिज डायरी' १९१७ के १९२३ तक के विद्यार्थी जीवन में लिखी गयी डायरी का पुस्तक रूप है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
५. 'मध्यदेश' भारतीय संस्कृति संबंधी ग्रंथ है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के तत्त्वाधान में दिये गये भाषणों का यह संशोधित रूप है। प्रकाशन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, १९५५
६. 'ब्रजभाषा' थीसिस का हिन्दी रूपान्तर है। प्रकाशन हिन्दुस्तानी अकादमी, १९५७
७. 'हिन्दी साहित्य कोश' संपादन, प्रकाशन ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, १९५८
८. 'हिन्दी साहित्य' संपादन, प्रकाशन भारतीय हिन्दी परिषद, १९५९
९. 'कम्पनी के पत्र' संपादन, प्रकाशन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, १९५९
१०. 'ग्रामीण हिन्दी' प्रकाशन, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
११. 'हिन्दी राष्ट्र' प्रकाशन, भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद
१२. 'विचार धारा' निबन्ध संग्रह है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
१३. 'यूरोप के पत्र' यूरोप जाने के बाद लिखे गये पत्रों का महत्त्वपूर्ण संचयन है। प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबा
डॉ धीरेंद्र वर्मा व्यक्ति नहीं, एक युग थे, एक संस्था थे। हिन्दी के शिक्षण और प्रशिक्षण की संभावनाएं उन्होंने उजागर की थीं। शोध और साहित्य निर्माण के नए से नए आयाम उन्होंने स्थापित किए थे।
डॉ. वर्मा ज्ञानमार्गी थे। अज्ञात सत्य का शोध करना ही उनके जीवन का चरम लक्ष्य था। ऋषियों की भांति उन्होंने लिखा है- ''खोज से संबंध रखने वाला विद्यार्थी ज्ञानमार्ग का पथिक होता है। भक्तिमार्ग तथा कर्ममार्ग से उसे दूर रहना चाहिए। संभव है आगे चलकर सत्य के अन्वेषण की तीन धाराएं आपस में मिल जाती हों, कदाचित्‌ मिल जाती हैं, किंतु इसकी ज्ञानमार्गी पथिक को चिंता नहीं होनी चाहिए।''
ऋषियों जैसा पवित्र और यशस्वी जीवन जी कर वह २३ अप्रैल, १९७३ को प्रयाग में स्वर्गवासी हो गए।
***
कविता क्या है?
नेह नर्मदा सी है कविता, हहर-हहरकर बहती रहती
गेह वर्मदा सी है कविता घहर-घहर सच तहती रहती
कविता साक्षी देश-काल की, कविता मानव की जय गाथा
लोकमंगला जन हितैषिणी कविता दहती - सहती रहती
*
कविता क्यों हो?
भाप न असंतोष की मन में
हो एकत्र और फिर फूटे
अमन-चैन मानव के मन का
मौन - अबोला पैन मत लूटे
कविता वाल्व सेफ्टी का है
विप्लव को रोका करती है
अनाचार टोंका करती है
वक्त पड़े भौंका करती है
इसीलिये कविता करना ही
योद्धा बन बिन लड़, लड़ना है
बिन कुम्हार भावी गढ़ना है
कदम दर कदम हँस बढ़ना है
*
कविता किस तरह?
कविता करना बहुत सरल है
भाव नर्मदा डूब-नहाओ
रस-गंगा से प्रीत बढ़ाओ
शब्द सुमन चुन शारद माँ के
चरणों में बिन देर चढ़ाओ
अलंकार की अगरु-धूप ले
मिथक अग्नि का दीप जलाओ
छंद आरती-श्लोक-मंत्र पढ़
भाषा माँ की जय-जय गाओ
कविता करो नहीं, होने दो
तुकबंदी के कुछ दोने लो
भरो कथ्य-सच-लय पंजीरी
खाकर प्राण अमर होने दो।
*
क्षणिका
और अंत में
कविता मुझे पसंद, न कहना
वरना सजा मिलेगी मिस्टर
नहीं समझते क्यों
समझो है
कविता जज साहब की सिस्टर
***
द्विपदी
*
बिन संतोष न चैन है, बिन अर्चना न शांति
बिन छाया मुकुलित नहीं, जीवन मिले न कांति
*
बुला थका आ राम पर, अब तक मिले न राम
चाह रहा मिलता नहीं, क्यों मन को आराम
गीत
*
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
हो पतवार 'सलिल' अनजानी
***
नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
१८.५.२०२०
***
कोरोना- बेमौत मरते मजूरों के नाम
*
द्रौपदी के चीर जैसे रास्ते कटते नहीं
कट रहे उम्मीद के सिर कुर्सियाँ मदहोश हैं
*
पाँव पहँचे लिये भूखे पेट की जब अर्थियाँ
कर दिया मरघट ने तालाबंद अब जाएँ कहाँ
*
वाकई दीदार अच्छे दिनों का अब हो रहा
कुर्सियों की जय बची अखबारबाजी आज कल
*
छातियाँ छत्तीस इंची और भी चौड़ी करो
मरेंगे मजदूर पूँजीपति नवाजे जाएँगे
*
कर्ज बाँटो भीख दो जिंदा नहीं गैरत रहे
काम छीनो हाथ से मौका मिला चूको नहीं
*
निकम्मी सरकार है मरकर यही हम कह गए
चीखती है असलियत टी वी पटे जयकार से
१५-५-२०२०
***
हास्य कुण्डलिया
नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई
बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, परेशां अपनी विगें सम्हाल
घूमें रँगे सियार, डाई कर अपने असली बाल
पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला
***
छंद कार्यशाला
दोहा - कुंडलिया
दोहा - आशा शैली
रोला - संजीव
*
जीव जन्तु को दे रहा, जो जीवन की आस।
कण-कण व्यापक राम है, रख मनवा विश्वास। ।
रख मनवा विश्वास, मारता वही श्रमिक को
धनपति बना रहा है, वह ही कुटिल भ्रमित को
आशा पर आकाश टँगा, देखे बेबस जीव
हैं दुधमुँहे अनाथ, नाथ मूक संजीव
१८-५-२०२०
***
मुक्तिका
*
धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर
साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर
.
मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलककर
तारे साथी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं हुलस-पुलककर
.
बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो
पता नहीं कब भोर हो गई?, टेरे मौसी उषा लपककर
.
बहकी-महकी मंद पवन सँग, कली मोगरे की श्वेताभित
गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर
.
सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर
छोड़ न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर
हरदोई
८-५-२०१६
***
यमकीय मुक्तक :
जान में जान है जान यह जानकर, जान की जान सांसत में पड़ गयी
जानकी जान जाए न सच जानकर, जानकी झूठ बोली न, चुप रह गयी
जान कर भी सके जान सच को नहीं, जान ने जान कर भी बताया नहीं
जान का मान हो, मान दे जान को, जान ले जान तो जान खुश हो गयी
***
दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग
*
आँख न दिल का खोल दे, कहीं अजाने राज
काला चश्मा आँख पर, रखता जग इस व्याज
*
नाम नयनसुख- आँख का, अँधा मगर समाज
आँख न खुलती इसलिए, है अनीति का राज
*
आँख सुहाती आँख को, फूटी आँख न- सत्य
आना सच है आँख का, जाना मगर असत्य
*
खोल रही ऑंखें उषा, दुपहर तरेरे आँख
संध्या झपके मूँदती, निशा समेटे पाँख
*
श्याम-श्वेत में समन्वय, आँख बिठाती खूब
जीव-जगत सम संग रह, हँसते ज्यों भू-धूप
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
*
आँख मार आँखें करें, दिल पर सबल प्रहार
आँख न मिल झुक बच गयी, चेहरा लाल अनार
*
आँख मिलाकर आँख ने, किया प्रेम संवाद
आँख दिखाकर आँख ने, वर्ज किया परिवाद
*
आँखों में ऑंखें गड़ीं, मन में जगी उमंग
आँखें इठला कर कहें, 'करिए मुझे न तंग'
*
दो-दो आँखें चार लख, हुए गुलाबी गाल
पलक लपककर गिर बनी, अंतर्मन की ढाल
*
आँख मुँदी तो मच गया, पल में हाहाकार
आँख खुली होने लगा, जीवन का सत्कार
*
कहे अनकहा बिन कहे, आँख नहीं लाचार
आँख न नफरत चाहती, आँख लुटाती प्यार
*
सरहद पर आँखें गड़ा, बैठे वीर जवान
अरि की आँखों में चुभें, पल-पल सीना तान
*
आँख पुतलिया है सुता, सुत है पलक समान
क्यों आँखों को खटकता, दोनों का सम मान
*
आँख फोड़कर भी नहीं, कर पाया लाचार
मन की आँखों ने किया, पल में तीक्ष्ण प्रहार
*
अपनों-सपनों का हुईं, आँखें जब आवास
कौन किराया माँगता, किससे कब सायास
*
अधर सुनें आँखें कहें, कान देखते दृश्य
दसों दिशा में है बसा, लेकिन प्रेम अदृश्य
*
आँख बोलती आँख से, 'री! मत आँख नटेर'
आँख सिखाती है सबक, 'देर बने अंधेर'
*
ताक-झाँककर आँक ली, आँखों ने तस्वीर
आँख फेर ली आँख ने, फूट गई तकदीर
*
आँख मिचौली खेलती, मूँद आँख को आँख
आँख मूँद मत देवता, कहे सुहागन आँख
१८.५.२०१५
***
छंद सलिला:
रसाल / सुमित्र छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति दस-चौदह, पदारंभ-पदांत लघु-गुरु-लघु.
लक्षण छंद:
रसाल चौदह--दस/ यति, रख जगण पद आद्यंत
बने सुमि/त्र ही स/दा, 'सलिल' बने कवि सुसंत
उदाहरण:
१. सुदेश बने देश / ख़ुशी आम को हो अशेष
सभी समान हों न / चंद आदमी हों विशेष
जिन्हें चुना 'सलिल' व/ही देश बनायें महान
निहाल हो सके स/मय, देश का सुयश बखान
२. बबूल का शूल न/हीं, मनुज हो सके गुलाब
गुनाह छिप सके न/हीं, पुलिस करे बेनकाब
सियासत न मलिन र/हे, मतदाता दें जवाब
भला-बुरा कौन-क/हाँ, जीत-हार हो हिसाब
३. सुछंद लय प्रवाह / हो, कथ्य अलंकार भाव
नये प्रतीक-बिम्ब / से, श्रोता में जगे चाव
बहे ,रसधार अमि/त, कल्पना मौलिक प्रगाढ़
'सलिल' शब्द ललित र/हें, कालजयी हो प्रभाव
***
मुक्तक सलिला
*
मेरे मन में कौन बताये कितना दिव्य प्रकाश है?
नयन मूँदकर जब-जब देखा, ज्योति भरा आकाश है.
चित्र गुप्त साकार दिखे शत, कण-कण ज्योतित दीप दिखा-
गत-आगत के गहन तिमिरमें, सत-शिव-सुंदर आज दिपा।
*
हार गया तो क्या गम? मन को शांत रखूँ
जीत चख चुका, अब थोड़ी सी हार चखूँ
फूल-शूल जो जब पाऊँ, स्वीकार सकूँ
प्यास बुझाकर भावी 'सलिल' निहार सकूँ
*
भटका दिन भर थक गया, अब न भा रही भीड़
साँझ कहे अब लौट चल, राह हेरता नीड़
*
समय की बहती नदी पर, रक्त के हस्ताक्षर
किये जिसने कह रहा है, हाय खुद को साक्षर
ढाई आखर पढ़ न पाया, स्याह कर दी प्रकृति ही-
नभ धरा तरु नेह से, रहते न कहना निरक्षर
*
खों रहे क्या कुछ भविष्य में, जो चाहेंगे पा जायेंगे
नेह नर्मदा नयन तुम्हारे, जीवन -जय गायेंगे
*
दीखता है साफ़-साफ़, समय नहीं करे माफ़
जो जैसा स्वीकारूँ, धूप-छाँव हाफ़-हाफ़
गिर-उठ-चल मुस्काऊँ, कुछ नवीन रच जाऊँ-
समय हँसे देख-देख, अधरों पर मधुर लाफ.
*
लाख आवरण ओढ़ रहे हो, मैं नज़रों से देख पा रहा
क्या-क्या मन में भाव छिपाये?, कितना तुमको कौन भा रहा?
पतझर काँटे धूल साथ ले, सावन-फागुन की अगवानी-
करता रहा मौन रहकर नित, गीत बाँटकर प्रीत पा रहा.
*
मौन भले दिखता पर मौन नहीं होता मन.
तन सीमित मन असीम, नित सपने बोता मन.
बेमन स्वीकार या नकार नहीं भाता पर-
सच है खुद अपना ही सदा नहीं होता मन.
*
वोट चोट करता 'सलिल', देख-देखकर खोट
जो कल थे इतरा रहे, आज रहे हैं लोट
जिस कर ने पायी ध्वजा, सम्हल बढ़ाये पैर
नहीं किसी का सगा हो, समय न करता बैर
*
तेरे नयनों की रामायण, बाँच रही मैं रहकर मौन
मेरे नयनों की गीता को, पढ़ पायेगा बोलो कौन?
नियति न खुलकर सम्मुख आती, नहीं सदा अज्ञात रहे-
हो सामर्थ्य नयन में झाँके बिना नयन कुछ बात कहे.
१८.५.२०१४
***

शनिवार, 17 मई 2025

मई १७, सॉनेट, बुद्ध, हास्य, कुंडलिया, मधुमालती छंद, आभा, आदमी जिंदा है, मुक्तिका

सलिल सृजन मई १७  
*
सॉनेट
बुद्ध १
हमें कुछ नहीं लेना-देना
जब जहाँ जो जी चाहे कहो
सजा रखी है सशक्त सेना
लड़ो-मारो-मरो, गड़ो-दहो
हम विरागी करें नहीं मोह
नश्वर जीवन माटी काया
हमें सुहाए सिर्फ विद्रोह
माटी को माटी में मिलाया
कुछ मत कहो उठो लड़ो युद्ध
मिटा दो या मिट जाओ बुद्ध
मन के पशु का पथ न हो रुद्ध
जागो लड़ो होकर अति क्रुद्ध
तुम्हारी खोपड़ी सजा ली है
सभी शिक्षाएँ भुला दी है
१७-५-२०२२
•••
सॉनेट
बुद्ध २
*
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
शांति हमारा ध्येय नहीं है
मार-मार खुद भी मरते हम
ज्ञाता हैं भ्रम; ज्ञेय नहीं है
लिखें जयंती पर कविताएँ
शीश तुम्हारा सजा कक्ष में
सूली पर तुमको लटकाएँ
वचन तुम्हारे वेध लक्ष्य में
तुमने राज तजा, हम छीनें
रौंद सुजाता को गर्वान्वित
हिंसा है हमको अतिशय प्रिय
अशुभ वरें; शुभ हित आशान्वित
क्रुद्ध रुद्ध तम ही वरते तम
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
१७-६-२०२२
***
हास्य कुंडलिया
बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, सम्हालें विगें हस्त धर   
घूमें रँगे सियार, डाई कर बाल पृष्ठ पर  
पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला
नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई
१७-५-२०२०
गीत
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
१६-५-२०२०
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
खुद पतवार राह अनजानी
*
इस पंछी का एक घाट है,
वह पंछी नित घाट बदलता
यह बैठा है धुनी रमाए
वह इठलाता फिरे टहलता
लीक पुरानी उसको भाती
इसे रुचे नवता लासानी
१६-५-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
दोहा- आभा सक्सेना दूनवी
पपड़ी सी पपड़ा गयी, नदी किनारे छांव।
जेठ दुपहरी ढूंढती, पीपल नीचे ठांव।।
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
पीपल नीचे ठाँव, न है इंची भर बाकी
छप्पन इंची खोज, रही है जुमले काकी
साइकल पर हाथी, शक्ल दीदी की बिगड़ी
पप्पू ठोंके ताल, सलिल बिन नदिया पपड़ी
*
दोहा- आभा सक्सेना
रदीफ़ क़ाफ़िया ढूंढ लो, मन माफ़िक़ सरकार|
ग़ज़ल बने चुटकी बजा, हों सुंदर अशआर||
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
हों सुंदर अशआर, सजें ब्यूटीपार्लर में।
मोबाइल सम बसें, प्राण लाइक-चार्जर में
दिखें हैंडसम खूब, सुना भगे माफिया
जुमलों की बरसात, करेगा रदीफ-काफिया
१७.५.२०१९
***
छंद सलिला
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे।
गुरु लघु गुरुज चरणांत हो
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-घर 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
***
मुक्तक
जीवन-पथ पर हाथ-हाथ में लिए चलें।
ऊँच-नीच में साथ-साथ में दिए चलें।।
रमा-रमेश बने एक-दूजे की खातिर-
जीवन-अमृत घूँट-घूँट हँस पिए चलें।।
१७-५-२०१८
***
कृति चर्चा
आदमी जिंदा है लघुकथा संग्रह
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी का लघुकथा संग्रह आना लघुकथा की समृद्धि में चार-चाँद लगने जैसा है। आपको साहित्य जगत में किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप बेहद समृद्ध पृष्ठभूमि के रचनाकार है। साहित्य आपके रक्त के प्रवाह में है। बचपन से प्रबुद्ध-चिंतनशील परिवार, परिजनों तथा परिवेश में आपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी.ई., एम.आई.ई., एम.आई.जी.एस., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ए., एल-एल. बी., विशारद, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आप गत ४ दशकों से हिंदी साहित्य तथा भाषा के विकास के लिये सतत समर्पित और सक्रिय हैं। गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं, समीक्षा, तकनीकी लेखन, शोध लेख, संस्मरण, यात्रा वृत्त, साक्षात्कार आदि में आपने निरंतर सृजन कर अपनी पहचान स्थापित की है। देश-विदेश में स्थित पचास से अधिक सस्थाओं ने सौ से अधिक सम्मानों से साहित्य -सेवा में श्रेष्ठ तथा असाधारण योगदान के लिये आपको अलङ्कृत कर स्वयं को सम्मानित किया है।
मैं सदा से आपके लेखन की विविधता पर चकित होती आई हूँ। हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान सलिल जी ने सिविल अभियंता तथा अधिवक्ता होते हुए भी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरयाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। मेकलसुता पत्रिका तथा साइट हिन्दयुग्मव साहित्य शिल्पी पर भाषा, छंद, अलंकार आदि पर आपकी धारावाहिक लेखमालाएँ बहुचर्चित रही हैं। ओपन बुक्स ऑनलाइन, युग मानस, ई कविता, अपने ब्लॉगों तथा फेसबुक पृष्ठों के माध्यम से भी आचार्य जी ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से हिंदी भाषा तथा छन्दों के प्रचार-प्रसार व को जोड़ने में प्रचुर योगदान किया है। अपनी बुआ श्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा प्रेम की प्रेरणा माननेवाले सलिल जी ने विविध विधाओं में सृजन करने के साथ-साथ के साथ-साथ कई संस्कृत श्लोकों का हिंदी काव्यानुवाद किया है। उन्हें समीक्षा और समालोचना के क्षेत्र में भी महारत हासिल है।
सलिल जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ विविध विधाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार की पुस्तक में अभिमत देने की बात सोचना भी मेरे लिये छोटा मुँह बड़ी बात है। सामान्यतः नयी कलमों की राह में वरिष्ठों द्वारा रोड़े अटकाने, शोषण करने और हतोत्साहित करने के काल में सलिल जी अपवाद हैं जो कनिष्ठों का मार्गदर्शन कर उनकी रचनाओं को लगातार सुधारते हैं, त्रुटियाँ इंगित करते हैं और जटिल प्रकरणों को प्रमाणिकता से स्नेहपूर्वक समझाते हैं। अपने से कनिष्ठों को समय से पूर्व आगे बढ़ने अवसर देने के लिये सतत प्रतिबद्ध सलिल जी ने पात्रता न होने के बाद भी विशेष अनुग्रह कर मुझे अपनी कृति पर सम्मति देने के लिये न केवल प्रोत्साहित किया अपितु पूरी स्वतंत्रता भी दी। उनके स्नेहादेश के परिपालनार्थ ही मैं इस पुस्तक में अपने मनोभाव व्यक्त करने का साहस जुटा रही हूँ। नव लघुकथाकारों के मार्गदर्शन के लिये आपके द्वारा लिखा गया लघुकथा विषयक आलेख एक प्रकाशस्तंभ के समान है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे निरन्तर सलिल जी से बहुत कुछ सीखने मिल रहा है। किसी पुस्तक पर लिखना भी इस प्रशिक्षण की एक कड़ी है। सलिल जी आज भी अंतर्जाल पर हिंदी के विकास में प्रभावी भूमिका निभा रहे है।
गद्य साहित्य में लघुकथा एक तीक्ष्ण विधा है जो इंसान के मन-मस्तिष्क पर ऐसा प्रहार करती है कि पढ़ते ही पाठक तिलमिला उठता है। जीवन और जगत की विसंगतियों पर बौद्धिक आक्रोश और तिक्त अनुभूतियों को तीव्रता से कलमबद्ध कर पाठक को उसकी प्रतीति कराना ही लघुकथा का उद्देश्य है। सलिल जी के अनुसार लघुकथाकार परोक्षतः समाज के चिंतन और चरित्र में परिवर्तन हेतु लघुकथा का लेखन करता है किंतु प्रत्यक्षतः उपचार या सुझाव नहीं सुझाता। सीधे-सीधे उपचार या समाधान सुझाते ही लघुकथा में परिवर्तित हो जाती है। अपने लघुकथा-विषयक दिशादर्शी आलेख में आपके द्वारा जिक्र हुआ है कि “वर्त्तमान लघुकथा का कथ्य वर्णनात्मक, संवादात्मक, व्यंग्यात्मक, व्याख्यात्मक, विश्लेषणात्मक, संस्मरणात्मक हो सकता है किन्तु उसका लघ्वाकरी और मारक होना आवश्यक है। लघुकथा यथार्थ से जुड़कर चिंतन को धार देती है। लघुकथा प्रखर संवेदना की कथात्मक और कलात्मक अभिव्यक्ति है। लघुकथा यथार्थ के सामान्य-कटु, श्लील-अश्लील, गुप्त-प्रगट, शालीन-नग्न, दारुण-निर्मम किसी रूप से परहेज नहीं करती।” आपकी लघुकथाओं में बहुधा यही “लघ्वाकारी मारकता “ अन्तर्निहित है।”
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में तकनीकों को लेकर कई भ्रान्तियाँ हैं। वरिष्ठ-लेखकों में परस्पर मतान्तर की स्थिति के कारण इस विधा में नवोदितों का लेखन अपने कलेवर से भटकता हुआ प्रतीत होता है। विधा कोई भी हो उसमें कुछ अनुशासन है किन्तु नव प्रयोगों के लिये कुछ स्वतंत्रता होना भी आवश्यक है। नये प्रयोग मानकों का विस्तार कर उनके इर्द-गिर्द ही किये जाने चाहिए जाना चाहिए, मानकों की उपेक्षा कर या मानकों को ध्वस्त कर नहीं। नामानुसार एक क्षण विशेष में घटित घटना को लघुतम कथ्य के रूप में अधिकतम क्षिप्रता के साथ पाठक तक संप्रेषित करना ही सार्थक लघुकथा लेखन का उद्देश्य होता है। लघुकथा समाज, परिवार व देशकाल की असहज परिस्थितियों को सहज भाव में संप्रेषित करने की अति विशिष्ट विधा है अर्थात कलात्मक-भाव में सहज बातों के असाधारण सम्प्रेषण से पाठक को चौकाने का माध्यम है लघुतामय लघुकथा।
“आदमी जिंदा है“ लघुकथा संग्रह वास्तव में पुस्तक के रूप में आज के समाज का आईना है। अपने देश ,समाज और पारिवारिक विसंगतियों को सलिल जी ने पैनी दृष्टि से देखा है, वक्र दृष्टि से नहीं। सलिल जी की परिष्कृत-दार्शनिक दृष्टि ने समाज में निहित अच्छाइयों को भी सकारात्मक सोच के साथ प्रेरणा देते सार्थक जीवन-सन्देश को आवश्यकतानुसार इंगित किया है, परिभाषित नहीं। वे देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रशासनिक विसंगतियों पर सधी हुई भाषा में चौकानेवाले तथ्यों को उजागर करते हैं। इस लघुकथा संग्रह से लघुकथा- विधा मजबूती के साथ एक कदम और आगे बढ़ी है। यह बात मैं गर्व और विश्वास साथ कह सकती हूँ। सलिल जी जैसे वरिष्ठ -साहित्यकार का लघुकथा संग्रह इस विधा को एक सार्थक और मजबूत आधार देगा।
लघुकथाओं में सर्जनात्मकता समेटता कथात्मकता का आत्मीय परिवेश सलिल जी का वैशिष्ट्य है। उनका लघुकथाकार सत्य के प्रति समर्पित-निष्ठावान है, यही निष्ठां आपकी समस्त रचनाओं और पाठकों के मध्य संवेदना- सेतु का सृजन कर मन को मन से जोड़ता है। इन लघुकथाओं का वाचन आप-बीती का सा भान कराता है। पाठक की चेतना पात्रों और घटना के साथ-साथ ठिठकती-बढ़ती है और पाठक का मन भावुक होकर तादात्म्य स्थापित कर पाता है।
'आदमी जिंदा है' शीर्षकीय लघुकथा इस संग्रह को परिभाषित कर अपने कथ्य को विशेष तौर पर उत्कृष्ट बनाती है। “साहित्य का असर आज भी बरकरार है, इसीलिये आदमी जिंदा है। “ एक साहित्य सेवी द्वारा लिपिबद्ध ये पंक्तियाँ मन को मुग्ध करती है। बहुत ही सुन्दर और सार्थक कथ्य समाविष्ट है इस लघुकथा में।
“एकलव्य“ लघुकथा में कथाकार ने एकलव्य द्वारा भोंकते कुत्तों का मुँह तीरों से बंद करने को बिम्बित कर सार्थक सृजन किया है। न्यूनतम शब्दों में कथ्य का उभार पाठक के मन में विचलन तथा सहमति एक्स उत्पन्न करता है। लघुकथा का शिल्प चकित करनेवाला है।
'बदलाव का मतलब' में मतदाताओं के साथ जनप्रतिनिधि द्वारा ठगी को जबर्दस्त उभार दिया गया है। 'भयानक सपना' में हिंदी भाषा को लेकर एक विशिष्ट कथा का सशक्त सम्प्रेषण हुआ है। 'मन का दर्पण' में लेखक के मन की बात राजनैतिक उथल–पुथल को कथ्य के रूप में उभार सकी है। 'दिया' में विजातीय विवाह से उपजी घरेलू विसंगति और पदों का छोटापन दर्शित है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सास को अपने आखिरी समय में बहू की अच्छाई दिखाई देती है जो मार्मिक और मननीय बन पड़ी है। 'करनी-भरनी' में शिक्षा नीति की धॉँधली और 'गुलामी' में देश के झंडे की अपने ही तंत्र से शिकायत और दुःख को मुखर किया गया है। 'तिरंगा' में राष्ट्रीय ध्वज के प्रति बालक के अबोध मन में शृद्धा का भाव, तिरंगे को रखने के लिये सम्मानित जगह का न मिलना और सीने से लगाकर सो जाना गज़ब का प्रभाव छोड़ता है। इस लघुकथा का रंग शेष लघुकथाओं से अलग उभरा है।
'अँगूठा' में बेरोजगारी, मँहगाई और प्रशासनिक आडम्बर पर निशाना साधा गया है। 'विक्षिप्तता', 'प्यार का संसार', 'वेदना का मूल' आदि लघुकथाएँ विशेष मारक बन पड़ी हैं। 'सनसनाते हुए तीर' तथा 'नारी विमर्श' लघुकथाओं में स्त्री विमर्श पर बतौर पुरुष आपकी कलम का बेख़ौफ़ चलना चकित करता है। सामान्यतः स्त्री विमर्शात्मक लघुकथाओं में पुरुष को कठघरे में खड़ा किया जाता है किन्तु सलिल जी ने इन लघुकथाओं में स्त्री-विमर्श पर स्त्री-पाखण्ड को भी इंगित किया है।
आपकी कई लघुकथाएँ लघुकथाओं संबंधी पारम्परिक-रूरक मानकों में हस्तक्षेप कर अपनी स्वतंत्र शैली गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। कहावत है 'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह सपूत'। प्रचलित ”चलन” या रूढ़ियों से इतर चलना आप जैसे समर्थ साहित्यकार के ही बूते की बात है। आप जैसे छंद-शास्त्री, हिंदी-ज्ञाता, भाषा-विज्ञानी द्वारा गद्य साहित्य की इस लघु विधा में प्रयोग पाठकों के मन में गहराई तक उतर कर उसे झकझोरते हैं। आपकी लघुकथाओं का मर्म पाठको के चितन को आंदोलित करता है। ये लघुकथाएँ यथा तथ्यता, सांकेतिकता, बिम्बात्मकता एवं आंचलिकता के गुणों को अवरेखित करती है। अपनी विशिष्ट शैली में आपने वैज्ञानिकता का परिवेश बड़ी सहजता से जीवंत किया है। इन दृष्टियों से अब तक मैंने जो पूर्व प्रकाशित संग्रह पढ़े हैं में अपेक्षा इस संग्रह को पर्याप्त अधिक समृद्ध और मौलिक पाया है।
मुझे जीने दो, गुणग्राहक, निर्माण, चित्रगुप्त पूजन, अखबार, अंधमोह, सहिष्णुता इत्यादि कथाओं में भावों का आरोपण विस्मित करता है। यहाँ विभिन्न स्तरों पर कथ्य की अभिव्यंजना हुई है। शब्दों की विशिष्ट प्रयुक्ति से अभिप्रेत को बड़ी सघनता में उतारा गया है। इस संग्रह में कथाकार द्वारा अपने विशिष्ट कथ्य प्रयोजनों की सिद्धि हुई है। प्रतीकात्मक लघुकथाओं ने भी एक नया आयाम गढ़ा है।
लघुकथा 'शेष है' सकारात्मक भाव में एक जीवन्त रचना की प्रस्तुति है। यहाँ आपने 'कुछ अच्छा भी होता है, भले उसकी संख्या कम है' को बहुत सुन्दर कथ्य दिया है। 'समाज का प्रायश्चित्य' में समर्थ को दोष नहीं लगता है यानि उनके लिए नियमों को ताक पर रखा जा सकता है, को कथा-रूप में ढाला गया है। 'क्या खाप पंचायत इस स्वागत के बाद अपने नियम में बदलाव करेगी ? शायद नहीं!' बहुत ही बढ़िया कथ्य उभरकर आया है इस कथा में। गम्भीर और नूतन विषय चयन है। 'फल' में 'अँधेरा करना नहीं पड़ता, हो जाता है, उजाला होता नहीं ,करना पड़ता है' सनातन सत्य की सूक्ति रूप में अभिव्यक्ति है।
लघुतम रचनाओं में कथ्य का श्रेष्ठ-संतुलित संवहन देखते ही बनता है। ये लघुकथाएँ जीवन-सत्यों तथा सामाजिक-तथ्यों से पाठकों साक्षात्कार कराती है।
'वेदना का मूल' में मनुष्य की सब वेदना का मूल विभाजन जनित द्वेष को इंगित किया जाना चिंतन हेतु प्रेरित करता है। 'उलझी हुई डोर' में कथ्य की सम्प्रेषणीयता देखते ही बनती है। 'सम्मान की दृष्टि' शीर्षक लघुकथा अपने लिए सम्मान कमाना हमारे ही हाथ में है, यह सत्य प्रतिपादित करता है। लोग हमें कुछ भी समझे, लेकिन हमें स्वयं को पहले अपनी नजर में सम्मानित बनाना होगा। चिंतन के लिये प्रेरित कर मन को मनन-गुनन की ओर ले जाती हुई, शीर्षक को परिभाषित करती, बहुत ही सार्थक लघुकथा है यह।
'स्थानान्तरण' में दृश्यात्मक कथ्य खूबसूरत काव्यात्मकता के साथ विचारों का परिवर्तन दिखाई देता है। 'जैसे को तैसा' में पिता के अंधे प्यार के साये में संतान को गलत परवरिश देने की विसंगति चित्रित है। 'सफ़ेद झूठ' में सटीक कथ्य को ऊभारा है आपने। आपके द्वीरा रचित लघुकथायें अक्सर प्रजातंत्र व नीतियों पर सार्थक कटाक्ष कर स्वस्थ्य चिंतन हेतु प्रेरित करती है।
'चैन की सांस' में इंसानों के विविध रूप, सबकी अपनी-अपनी गाथा और चाह, भगवान भी किस-किसकी सुनें? उनको भी चैन से बाँसुरी बजाने के लिए समय चाहिए। एक नये कलेवर में, इस लघुकथा का अनुपम सौंदर्य है।
'भारतीय' लघुकथा में चंद शब्दों में कथ्य का महा-विस्तार चकित करता है। 'ताना-बाना' हास्य का पुट लिये भिन्न प्रकृति की रचना है जिसे सामान्य मान्यता के अनुसार लघुकथा नहीं भी कहा जा सकता है। ऐसे प्रयोग सिद्धहस्त सकती हैं।'संक्रांति' हमारी भारतीय संस्कृति की सुकोमल मिठास को अभिव्यक्ति देती एक बहुत ही खूबसूरत कथा है।
'चेतना शून्य' में दो नारी व्यक्तित्वों को उकेरा गया है, एक माँ है जो अंतर्मुखी है और उसी भाव से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ बेटी के परवरिश में अपने जीवन की आहुति देती है । यहाँ माँ से इतर बेटी का उन्मुक्त जीवन देख घरेलू माँ का चेतना शून्य होना स्वभाविक है । चंद पंक्तियों में यह स्त्री-विमर्श से जुड़ा हुआ बहुत बडा मुद्दा है। चिंतन-मनन के लिए परिदृश्य का वृहत विस्तार है। 'हवा का रुख' में 'सयानी थी, देर न लगाई पहचानने में हवा का रुख' को झकझोरता है। इस सकारात्मक कथा पाठकों को अभिभूत करती है। 'प्यार का संसार' में भाईचारे का ऐसा मार्मिक-जिवंत दृश्य है कि पाठक का मन भीतर तक भीग जाता है।
'अविश्वासी मन' में रुपयों का घर में और और सास पर शक करने को इतनी सहजता से आपने वर्णित किया है कि सच में अपने अविश्वासी मन पर ग्लानी होती है। 'अनुभूति' में आपने अंगदान की महत्ता दर्शाता कथ्य दिया है।
'कल का छोकरा' में बच्चे की संवेदनशीलता वर्णित है। बच्चे जिन पर यकीन करने में हम बड़े अकारण हिचकिचाते है, को सकारात्मक सन्देश के साथ शब्दित किया गया है।
निष्कर्षतः, 'आदमी ज़िंदा है' की लघुकथाओं में संकेत व अभिव्यंजनाओं के सहारे गहरा व्यंग्य छिपा मिलता है जिसका प्रहार बहुत तीखा होता है। सार्थकता से परिपूर्ण सलिल जी की इन लघुकथाओं में मैंने हरिशंकर परसाई खलील जिब्रान, मंटो, कन्हैया लाल मिश्र, हरिशंकर प्रसाद, शंकर पुणताम्बेकर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ तथा जयशंकर प्रसाद की लघुकथाओं की तरह दार्शनिक व यथार्थवादी छवि को आभासित पाया है। बुन्देली-माटी की सौंधी खुशबू रचनाओं में अपनत्व की तरावट को घोलती है। सलिल जी के इस लघुकथा संग्रह में वर्तमान समाज की धड़कनें स्पंदित हैं। मुझे आशा ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस लघुकथा संग्रह पूर्ण अपनत्व के साथ स्वागत होगा तथा सलिल जी भविष्य में भी लघुकथा विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहेंगे।
एफ -२, वी-५ विनायक होम्स श्रीमती कान्ता राॅय
मयूर विहार, अशोका गार्डन भोपाल - 462023
मो .9575465147 roy.kanta69@gmail.com
***
मुक्तिका
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
.
ह्रदय एक का है उदार पर
दूजे का दिल बेहद तंग
.
तन मन से अतिशय प्रसन्न है
मन तन से है बेहद तंग
.
रंग भंग में डाल न करना
मतवाले तू रंग में भंग
.
अवगुंठन में समझदार है
नासमझों के दर्शित अंग
.
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह नाहक ही छेड़े जंग
.
बेढंगे में छिपा हुआ है
खोज सको तो खोजो ढंग
.
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ पर
अधिकारों की दूषित गंग
१७-५-२०१६
***
द्विपदी
वफ़ा के बदले वफ़ा चाहिए हो यार तुम्हें
'सलिल' की ओर ज़माने को छोड़ मुख करना
***
दोहा सलिला:
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया, पूरा हुआ हिसाब
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
***
मुक्तिका:
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आशा कम विश्वास बहुत है
श्लेष तनिक अनुप्रास बहुत है
सदियों का सुख कम लगता है
पल भर का संत्रास बहुत है
दुःख का सागर पी सकता है
ऋषि अँजुरीवत हास बहुत है
हार न माने मरुस्थलों से
फिर उगेगी घास बहुत है
दिल-कुटिया को महल बनाने
प्रिये! तुम्हारा दास बहुत है
विरह-अग्नि में सुधियाँ चन्दन
मिलने का अहसास बहुत है
आम आम के रस पर रीझे
'सलिल' न कहना खास बहुत है
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दोहा
करें आरती सत्य की, पूजें श्रम को नित्य
हों सहाय सब देवता, तजिए स्वार्थ अनित्य
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दोहा गर किताब पढ़ बन रहा, रिश्वतखोर समाज
पूज परिश्रम हम रचें, एक लीक नव आज
१७-५-२०१५
दोहा गाथा ७
दोहा साक्षी समय का
संजीव
युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया। शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख - कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.
सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:
दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥
दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।
दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।
किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.
"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।
१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१
द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा...
फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।
इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।
वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
१७-५-२०१३
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कुण्डलिया
हरियाली ही हर सके, मन का खेद-विषाद.
मानव क्यों कर रहा है, इसे नष्ट-बर्बाद?
इसे नष्ट-बर्बाद, हाथ मल पछतायेगा.
चेते, सोचे, सम्हाले, हाथ न कुछ आयेगा.
कहे 'सलिल' मन-मोर तभी पाये खुशहाली.
दस दिश में फैलायेंगे जब हम हरियाली..
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दोहा
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
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मुक्तक
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
१७-५-२०११
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