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मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

अप्रैल ८, हास्य दोहे, नवगीत, मुक्तिका, समीक्षा, मुक्तिका, अम्मी, घुंघुची, पूर्णिका

सलिल सृजन अप्रैल ८
० 
पूर्णिका
.
मिले सात स्वर
मकां हुआ घर
.
देख देव को
मन के अंदर
.
माया मोहे
झलक दिखाकर
.
करें भक्त को
प्रभु पधराकर
.
याद कर रहे
क्यों बिसराकर?
.
सच न छोड़ना
रे! घबराकर
.
तौल सके पर
नभ में जाकर
.
खुद को आँको
खुद को पाकर
.
भूल और की
भुला क्षमाकर
.
'सलिल' कभी क्या
मिला नहाकर
.
सुमधुर सुधियाँ
सतत तहाकर
.
अगर निखरना
मौन दहाकर
.

क्रोध-लोम का
मत हो चाकर
.
जग से जाना
नाम कमाकर
.
साँस-साँस 'जय
राम' जपा कर
.
प्राकृतिक चिकित्सा 
घुंघुचि और गुंजा 
००० 
'घुंघची', 'गुंजा', 'चोंटली' या 'रत्ती' एक झाड़ी/लता जाति की वनस्पति है। दोनों की पत्तियाँ फलियाँ और फल समान होते हैं। अब्रस प्रीकेटोरियस , जिसे आमतौर पर जेक्विरिटी बीन या रोज़री मटर के रूप में जाना जाता है, बीन परिवार फैबेसी में एक शाकाहारी फूल वाला पौधा है । यह एक पतला, बारहमासी चढ़ने वाला पौधा है जिसमें लंबे, पिननेट -लीफलेट वाले पत्ते होते हैं जो पेड़ों, झाड़ियों और हेजेज के चारों ओर लिपटे होते हैं। यह पौधा अपने बीजों के लिए सबसे ज़्यादा जाना जाता है , जिनका इस्तेमाल मोतियों और ताल वाद्यों में किया जाता है, और जो एब्रिन की मौजूदगी के कारण ज़हरीले होते हैं। एब्रस प्रीटोरियस के बीज अपने चमकीले रंग के कारण देशी आभूषणों में बहुत मूल्यवान हैं । अधिकांश फलियाँ काले और लाल रंग की होती हैं, जो लेडीबग की याद दिलाती हैं। स्ट इंडीज के त्रिनिदाद में चमकीले रंग के बीजों को कंगन में पिरोया जाता है और कलाई या टखने के चारों ओर पहना जाता है ताकि जुम्बी या बुरी आत्माओं और "माल-यूक्स" - बुरी नज़र से बचा जा सके । तमिल लोग अलग-अलग रंगों के अब्रस बीजों का उपयोग करते हैं। भारत में चमार अपने पशुओं की खाल को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उन्हें जहर देकर मारते थे। छोटी सुई) या सुतारी को पानी में भिगोए गए, पीसे हुए बीजों के पतले पेस्ट में भिगोकर, धूप में सुखा-तेल लगाकर पत्थर पर तेज कर, हैंडल में चिपकाया कर जानवर की त्वचा को छेदा जाता था।

कन्नड़ में  गुलागंजी, तमिल में कुंडूमणि, तेलुगु में गुरुविंदा गिन्जा और मलयालम में कुन्नी कुरु से तैयार सफेद तेल कामोद्दीपक कहा जाता है। [ इसकी पत्तियों से बनाईचाय  बुखार, खांसी और जुकाम के लिए इस्तेमाल की जाती है। इसके बीज जहरीले होते हैं और इसलिए गर्मी उपचार के बाद ही सेवन किए जाते हैं। तमिल सिद्धर पौधों में विषाक्त प्रभावों का  "सुत्थी सेयथल" या शुद्धिकरण  दूध में बीजों को उबाल-सुखाकर करते हैं। अरंडी के तेल की तरह, उच्च तापमान पर प्रोटीन विष को नष्ट करने से यह हानिरहित हो जाता है।  

पुस्तक 'द यूजफुल नेटिव प्लांट्स ऑफ ऑस्ट्रेलिया' (१८८९) में दर्ज है कि "इस पौधे की जड़ों का उपयोग भारत में मुलेठी के विकल्प के रूप में किया जाता है, हालांकि वे कुछ हद तक कड़वी होती हैं। जावा में जड़ों को मृदु माना जाता है। पत्तियों को शहद के साथ मिलाकर सूजन पर लगाया जाता है और जमैका में चाय के विकल्प के रूप में उपयोग किया जाता है। "जेक्विरिटी" के नाम से बीजों को हाल ही में नेत्र रोग के मामलों में इस्तेमाल किया गया है , जिसका उपयोग वे लंबे समय से भारत और ब्राजील में कर रहे हैं।" 

गुंजा या घुंघची की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी फली में लगने वाले बीज एक ही आकार और वजन के होते हैं। सुनार एक रत्ती (१२५ मिलीग्राम) सोना तौलने के लिए इसका प्रयोग करते हैं इसलिए इसे 'रत्ती'  कहा जाता है। गुंजा तीन प्रकार की होती है। लाल गुंजा, सफेद गुंजा और काली गुंजा। लाल गुंजा ग्रामीण अंचलों में झाड़ी वाले स्थान पर पायी जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी पत्ती वाली बेल होती है और आसानी से मिल जाती है। गुंजा तीन प्रकार की होती है। लाल गुंजा, सफेद गुंजा और काली गुंजा। लाल गुंजा ग्रामीण अंचलों में झाड़ी वाले स्थान पर पायी जाती हैं। इसकी छोटी-छोटी पत्ती वाली बेल होती है और आसानी से मिल जाती है। विवाह के समय वर-वधू के हाथ में कंगन कें भी इसे बाँधा जाता है। गुंजा के फूल सेम की तरह होते हैं।  गुंजा की फली (शिम्बी) में बहुत छोटे आकार के सफेद या लाल बीज होते हैं। गुंजा के बीजों को 'चिरमी' या 'गुंजा मोती', 'लाल रत्ती' या 'चिरमती लाल' भी कहा जाता है। यह ऊष्ण कटिबंधीय-गर्म क्षेत्रों में पनपता है। इसकी पत्तियाँ इमली की पत्तियों जैसी होती हैं।   

गुंजा के पौधे से प्राप्त अर्क में एंटीकैंसर और एंटीट्यूमर गुण होते हैं। गुंजा के बीजों के पानी में कैंसररोधी गुण होते हैं। गुंजा के बीजों का तेल बालों के भूरेपन को रोकता है। गुंजा के पौधे के बीज सूजन में इस्तेमाल किए जाते हैं।यह  विषैला, कड़वा-कसैला होता है तथा कफ-वात को दूर करता है। इसका वैज्ञानिक नाम abrus pricatorius है। इसके बीज खाने पर सर्प विष (abrin) जैसा प्रभाव होकर मौत हो सकती है। २४ घंटे की भीतर प्रतिरोधी (एन्टिडोट) देकर, श्वास अवरोध होने पर पकसीजन देकर, रक्त चाप बढ़ने पर नियंत्रित कार तथा चारकोल थिरैपी से  इसकी चिकित्सा की जाती है। चारकोल विष सोखकर शरीर में फैलने नहीँ देता।  

ज्योतिष शस्त्र के अनुसार किसी व्यक्ति या संस्थान को बुरी नजर लग जाती है, तो ५  या ११ गुंजा लेकर उनके ऊपर से ५ बार उल्टा उतारें और बाहर किसी अंगारी या कपूर पर जला दें। ३ दिन लगातार शाम के समय ऐसा करने पर बुरी से बुरी नजर भी उतर जायेगी। सफेद गुंजा लोभिया के दानों की तरह सफेद होते हैं। इनका उपयोग ज्योतिष के उपाय और वास्तु के उपाय में होता है। घर का उत्तरी भाग दूषित हो, धन आकार ला जाता हो बरकत नहीं होती तो आप १०  ग्राम सफेद गुंजा सफेद कपड़े में बाँधर उत्तर की दीवार पर टांग दें, कांच की कटोरी में रख दें अथवा अपने घर की छत पर किसी बड़े गमले में सफेद गुंजा को उगा सकते हैं। इससे लक्ष्मी कुबेर आकर्षित होते हैं और घर में धन वृद्धि होती है। इसकी माल पहनने से सकरात्मकता बढ़ती है। इसकी पत्तियाँचबाने से मुँह के  छाले दूर होते हैं। इसकी जड़ स्वास्थयवर्धक कही जाती है।
७.४.२०२५  
००० 
मुक्तक
जो हमारा है उसी की चाहकर।
जो न अपना तनिक मत परवाह कर।।
जो मिला उसको सहेजो उम्र भर-
गैर की खातिर न नाहक आह भर।।
***
पत्रिका सलिला
साहित्य संस्कार - पठनीय महिला कथाकार अंक
संस्कारधानी जबलपुर से प्रकाशित त्रैमासिकी साहित्य संस्कार का जनवरी-मार्च अंक 'महिला कथाकार अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ है। ५६ पृष्ठीय पत्रिका में ४ लेख, ८ महानियाँ, २ संस्मरण, ७ लघुकथाएँ, ४ कवितायें, १ व्यंग्य लेख, २ समीक्षाएँ तथा २ संपादकीय समाहित हैं। प्रधान संपादक श्री शरद अग्रवाल 'आत्म निर्भर भारत' शीर्षक संपादकीय में भारत को किस्से-कहानियों का देश कहते हुए अपनी जड़ों से जुड़ने को अपरिहार्य बताते हैं। वे हिंदी की प्रथम महिला कहानीकार जबलपुर निवासी उषा देवी मित्रा जी तथा विद्रोहिणी सुभद्रा कुमारी चौहान जी को स्मरण करते हुए भारत के विकास का जिक्र करते हैं। 'कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं' शीर्षक संपादकीय में अभियंता सुरेंद्र पवार आंग्ल भाषा चालित संस्था इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिकांक 'अभियंता बंधु' के दक्षिण भारत में हुए विमोचन की चर्चा कर जान सामान्य से जीवंत संपर्क का उल्लेख करते हैं।
हिंदी कहानी के विकास पर डॉ. अनिल कुमार का आलेख पठनीय है। शशि खरे जी 'नई कहानी और महिला कथाकार' में जरूरी प्रश्न पूछती हैं- 'क्या महिला कहानीकार की कहानियाँ कहानी जगत में अलग परिचय रखती हैं अथवा कहानी, कहानी है पुरुष या स्त्री लेखक किसी ने भी लिखी हो?' सबका हित साधनेवाले साहित्य का मूल्याङ्कन उसकी गुणवत्ता के आधार पर हो या रचनाकार के लिंग, जाति, धर्म, व्यवसाय आधी के आधार पर? शशि जी ने सवाल पाठकों के चिंतन हेतु उठाया किन्तु इस पर विमर्श नहीं किया। एक लेख में सभी महिला कथाकारों पर चर्चा संभव नहीं हो सकती। शशि जी ने तीन पीढ़ियों की ३ महिला कथाकारों नासिरा शर्मा, नमिता सिंह तथा अमिता श्रीवास्तव की कहानी कला पर प्रकाश डाला है। 'कालजयी कहानीकार उषादेवी मित्रा' शीर्षक लेख में आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने उषा देवी जी के जीवन की विषम परिस्थतियों, कठिन संघर्ष, कर्मठता, सृजनशीलता, कृतियों तथा सम्मान आदि पर संक्षिप्त पर सामान्यत: अनुपलब्ध सारगर्भित जानकारी दी है। अपने साहित्य को अपनी ही चिता पर जला दिए जाने की अंतिम अभिलाषा व्यक्त करनेवाली उषा देवी के कार्य पर हिंदीभाषी अंचल के हिंदी प्राध्यापकों ने अब तक शोध न कराकर अक्षम्य कृतघ्नता का परिचय दिया है जबकि दक्षिण भारत में सेंट थॉमस कॉलेज पाला की छात्रा प्रीति आर. ने वर्ष २०१४ में ;उषा देवी मित्रा के साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप' विषय पर शोध किया है। उपेक्षा की हद तो यह कि उषा देवी जी का एक चित्र तक उपलब्ध नहीं है। 'मालवा की मीरा - मालती जोशी' शीर्षक लेखा में प्रतिमा अखिलेश ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।
अंक की कहानियों में जया जादवानी की कहानी 'हमसफर' परिणय सूत्र में बँधने जा रहे स्त्री-पुरुष के वार्तालाप में जिआवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं। दोनों के अतीत के विविध पहलुओं की चर्चा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रयोग और विस्तार खटकता है। अर्चना मलैया की छोटी कहानी 'चीख' मर्मस्पर्शी है। अंक की सर्वाधिक प्रभावी कहानी 'वृद्धाश्रम' में सरस दरबारी ने पद के मद में डूबे सेवानिवृत्त उच्चधिकारी के अहंकार के कारण हुए पारिवारिक विघटन के सटीक चित्रण किया है। अनीता श्रीवास्तव की कहानी 'कवि सम्मेलन' साहित्यिक मंचों पर छाए बाजारूपन पर प्रहार करती है। गीता भट्टाचार्य लिखित 'नारी तेरे रूप अनेक' में कहानी और संस्मरण का मिश्रण है। पुष्पा चिले की कहने 'मुक्ति' में प्रेम की पवित्रता स्थापित की गई है। 'लिव इन' में टुकड़े-टुकड़े होती श्रद्धा के इस दौर में ऐसी कहानी किशोरों और युवाओं को राह दिखा सकती है। उभरती कहानीकार वैष्णवी मोहन पुराणिक का कहानी 'प्यार का अहसास' देहातीत प्रेम की सात्विकता प्रतिपादित करती है।
मालती जोशी तथा लता तेजेश्वर 'रेणुका' लिखित संस्मरण सरस हैं।डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव के कहानी संग्रह 'जिजीविषा' की डॉ. साधना वर्मा द्वारा प्रस्तुत समीक्षा में नीर-क्षीर विवेचन किया गया है। डॉ. सरोज गुप्ता द्वारा लिखित 'कि याद जो करें सभी' पुस्तक पर समीक्षा संतुलित तथा पठनीय है।
गीतिका श्रीवास्तव के व्यंग्य लेख 'रोम जलता रहा, नीरो बाँसुरी बजाता रहा' में अभियांत्रिकी शिक्षा और अभियंताओं की दुर्दशा उद्घाटित की गई है। डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव की तीन लघुकथाएँ 'गारंटी', 'प्रतिशोध' तथा 'मरकर भी' विधा तथा अंक की श्रीवृद्धि करती हैं। लघुकथांतर्गत छाया सक्सेना की 'बरसों बाद', श्रद्धा निगम की 'ये हुई न बात' तथा मीना पंवार की 'बेटे की शादी में जरूर आऊँगी' अच्छे प्रयास हैं। कविता कानन के कुसुम गुच्छ में सुवदनी देवी रचित 'उपकार', अंकुर सिंह रचित 'माँ मुझे जन्म लेने दो', आरती रचित 'आतंकवाद' तथा गरिमा सिंह रचित 'निश्छल प्रेम' नवांकुरित प्रयास हैं।
सारत: साहित्य संस्कार का सोलहवाँ अंक इसके कैशोर्य प्रवेश पर्व का निनाद कर रहा है। आगामी अंक इसे तरुणाई की ओर ले जाएँगे। शहीद भगत सिंह के देश के किशोर को क्रांतिधर्मा होना चाहिए। मेरा सुझाव है कि महिला कथाकारअंक के पश्चात् आगामी अंक 'पुरुष विमर्श विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया जाए जिसमें स्त्री विमर्श के रूप में हो रहे इकतरफा आंदोलनों के दुष्प्रभावों, पुरुष के अवदान, विवशता, त्याग, समर्पण आदि पर केंद्रित रचनाओं का प्रकाशन हो। पत्रिका के स्थायित्व के लिए आगामी कुछ अंकों के विषय निर्धारण करसम्यक-प्रामाणिक सामग्री जुटाई जा सकती है। बुंदेला विद्रोह १८४२, स्वातंत्र्य समर १८५७ में बुंदेलखंड का योगदान, बुंदेली साहित्य कल और आज, महकौशल में पर्यटन, विकास कार्य, तकनीकी शिक्षण, साहित्य, कला, उद्योग आदि पर क्रमश: विशेषांक हों तो वे संग्रहणीय होंगे। प्रकाशक और संपादक मंडल साधुवाद का पर्याय है।
८-४-२०२३
***
दोहा सलिला
*
शुभ प्रभात होता नहीं, बिन आभा है सत्य
आ भा ऊषा से कहे, पुलकित वसुधा नित्य
*
मार्निंग गुड होगी तभी, जब पहनेंगे मास्क
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, मीत सरल है टास्क
*
भाप लाभदायक बहुत, लें दिन में दो बार
पीकर पानी कुनकुना, हों निरोग हर वार
*
कोल्ड ड्रिंक से कीजिए, बाय बाय कर दूर
आइसक्रीम न टेस्ट कर, रहिए स्वस्थ्य हुजूर
*
नीबू रस दो बूँद लें, आप नाक में डाल
करें गरारे दूर हो, कोरोना बेहाल
*
जिंजर गार्लिक टरमरिक, रियल आपके फ्रैंड्स
इन सँग डेली बाँधिए, फ्रैंड्स फ्रेंडशिप बैंड्स
*
सूर्य रश्मि से स्नानकर, सुबह शाम हों धन्य
घूमें ताजी हवा में, पाएँ खुशी अनन्य
*
हार्म करे एक सी बहुत, घटती है ओजोन
बिना सुरक्षा पर्त के, जीवन चाहे क्लोन
*
दूर शीतला माँ हुईं, कोरोना माँ पास
रक्षित रह रखिए सुखी, करें नहीं उपहास
*
हग कल्चर से दूर रह, करिए नमन प्रणाम
ब्लैसिंग लें दें दूर से, करिए दोस्त सलाम
*
कोविद माता सिखातीं, अनुशासन का पाठ
धन्यवाद कह स्वस्थ्य रह, करिए यारों ठाठ
८-४-२०२१
***
दोहा सलिला
पानी-पानी हो गया, पानी मिटी न प्यास।
जंगल पर्वत नदी-तल, गायब रही न आस।।
*
दो कौड़ी का आदमी, पशु का थोड़ा मोल।
मोल न जिसका वह खुदा, चुप रह पोल न खोल।।
*
तू मारे या छोड़ दे, है तेरा उपकार।
न्याय-प्रशासन खड़ा है, हाथ बाँधकर द्वार।।
*
आज कदर है उसी की, जो दमदार दबंग।
इस पल भाईजान हो, उस पल हो बजरंग।।
*
सवा अरब है आदमी, कुचल घटाया भार।
पशु कम मारे कर कृपा, स्वीकारो उपकार।।
*
हम फिल्मी तुम नागरिक, आम न समता एक।
खल बन रुकते हम यहाँ, मरे बने रह नेक।।
८.४.२०१८
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
८.४.२०१७
...
एक गीत
धत्तेरे की
*
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
पद-मद चढ़ा, न रहा आदमी
है असभ्य मत कहो आदमी
चुल्लू भर पानी में डूबे
मुँह काला कर
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
हाय! जंगली-दुष्ट आदमी
पगलाया है भ्रष्ट आदमी
अपना ही थूका चाटे फिर
झूठ उचारे
चप्पलबाज
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
*
गलती करता अगर आदमी
क्षमा माँगता तुरत आदमी
गुंडा-लुच्चा क्षमा न माँगे
क्या हो बोलो
चप्पलबाज?
धत्तेरे की
चप्पलबाज।
८.४.२०१७
***
पुस्तक सलिला-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
0
‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
८.४.२०१६
...
मुक्तिका:
.
दिल में पड़ी जो गिरह उसे खोल डालिए
हो बाँस की गिरह सी गिरह तो सम्हालिए
रखिये न वज्न दिल पे ज़रा बात मानिए
जो बात सच है हँस के उसे बोल डालिए
है प्यार कठिन, दुश्मनी करना बहुत सरल
जो भाये न उस बात को मन से बिसारिये
संदेह-शुबह-शक न कभी पालिए मन में
क्या-कैसा-कौन है विचार, तौल डालिए
जिसकों भुलाना आपको मुश्किल लगे 'सलिल'
उसको न जाने दीजिए दिल से पुकारिए
दूरी को पाट सकना हमेशा हुआ कठिन
दूरी न आ सके तनिक तो झोल डालिए
कर्जा किसी तरह का हो, आये न रास तो
दुश्वारियाँ कितनी भी हों कर्जा उतारिये
***
मुक्तिका:
.
मंझधार में हो नाव तो हिम्मत न हारिए
ले बाँस की पतवार घाट पर उतारिए
मन में किसी के फाँस चुभे तो निकाल दें
लें साँस चैन की, न खाँसिए-खखारिए
जो वंशलोचनी है वही नेह नर्मदा
बन कांस सुरभि-रज्जु से जीवन संवारिए
बस हाड़-माँस-चाम नहीं, नारि शक्ति है
कर भक्ति प्रेम से 'सलिल' जीवन गुजारिए
तम सघन हो तो निकट मान लीजिए प्रकाश
उठ-जाग कोशिशों से भोर को पुकारिए
८.४.२०१५
***
मुक्तिका
अम्मी
0
माहताब की जुन्हाई में
झलक तुम्हारी पाई अम्मी
दरवाजे, कमरे आँगन में
हरदम पडी दिखाई अम्मी
कौन बताये कहाँ गयीं तुम
अब्बा की सूनी आँखों में
जब भी झाँका पडी दिखाई
तेरी ही परछाईं अम्मी
भावज जी भर गले लगाती
पर तेरी कुछ बात और थी
तुझसे घर अपना लगता था
अब बाकी पहुनाई अम्मी
बसा सासरे केवल तन है
मन तो तेरे साथ रह गया
इत्मीनान हमेशा रखना-
बिटिया नहीं परायी अम्मी
अब्बा में तुझको देखा है
तू ही बेटी-बेटों में है
सच कहती हूँ, तू ही दिखती
भाई और भौजाई अम्मी.
तू दीवाली, तू ही ईदी
तू रमजान फाग होली है
मेरी तो हर श्वास-आस में
तू ही मिली समाई अम्मी
000
दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर
0
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ
0
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार
८.४.२०१३
000
नवगीत:
समाचार है...
*
बैठ मुड़ेरे चिड़िया चहके'
समाचार है.
सोप-क्रीम से जवां दिख रही
दुष्प्रचार है...
*
बिन खोले- अख़बार जान लो,
कुछ अच्छा, कुछ बुरा मान लो.
फर्ज़ भुला, अधिकार माँगना-
यदि न मिले तो जिद्द ठान लो..
मुख्य शीर्षक अनाचार है.
और दूसरा दुराचार है.
सफे-सफे पर कदाचार है-
बना हाशिया सदाचार है....
पैठ घरों में टी. वी. दहके
मन निसार है...
*
अब भी धूप खिल रही उज्जवल.
श्यामल बादल, बरखा निर्मल.
वनचर-नभचर करते क्रंदन-
रोते पर्वत, सिसके जंगल..
घर-घर में फैला बजार है.
अवगुन का गाहक हजार है.
नहीं सत्य का चाहक कोई-
श्रम सिक्के का बिका चार है..
मस्ती, मौज-मजे का वाहक
नित उधर, अ-असरदार है...
*
लाज-हया अब तलक लेश है.
चुका नहीं सब, बहुत शेष है.
मत निराश हो बढ़े चलो रे-
कोशिश अब करनी विशेष है..
अलस्सुबह शीतल बयार है.
खिलता मनहर हरसिंगार है.
मन दर्पण की धूल हटायें-
चेहरे-चेहरे पर निखार है..
एक साथ मिल मुष्टि बाँधकर
संकल्पित करना प्रहार है...
८.४.२०११
***
हास्य दोहे:
*
बेचो घोड़े-गधे भी, सोओ होकर मस्त.
खर्राटे ऊँचे भरो, सब जग को कर त्रस्त..
*
कौन किसी का सगा है, और पराया कौन?
जब भी चाहा जानना, उत्तर पाया मौन
*
दूर रहो उससे सदा, जो धोता हो हाथ.
गर पीछे पड़ जायेगा, मुश्किल होगा साथ..
*
टाँग अड़ाना है 'सलिल', जन्म सिद्ध अधिकार.
समझ सको कुछ या नहीं, दो सलाह हर बार..
*
देवी इतनी प्रार्थना, रहे हमेशा होश
काम 'सलिल' करता रहे, घटे न किंचित जोश
*
देवी दर्शन कीजिए, भंडारे के रोज
देवी खुश हो जब मिले, बिना पकाए भोज
*
हर ऊँची दूकान के, फीके हैं पकवान
भाषण सुन कर हो गया, बच्चों को भी ज्ञान
*
नोट वोट नोटा मिलें, जब हों आम चुनाव
शेष दिनों मारा गया, वोटर मिले न भाव
८.४.२०१०

***

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

अप्रैल ७, नदी काव्य, चित्रगुप्त, कुण्डलिया, बाँस, बीवर, गीत, सेवन्ती, पूर्णिका

सलिल सृजन अप्रैल ७
पूर्णिका
बाल गीत
आरोही के सौ सपने
सबके सब उसके अपने
.
दादी लाड़ लड़ाती हैं
सीखें कई सिखाती हैं
.
नानी-नानी प्यार करें
मामा खूब दुलार करें
.
पापा कहते खूब पढ़ो
सबसे आगे रहो, बढ़ो
.
मम्मी से सीखे वह काम
दुनिया में पाएगी नाम
.
चाचू के संग खेले खेल"
सबसे रखती अपना मेल
.
चाची ने सिखलाए गीत
सुना सके सबका मन जीत
.
भैया-दीदी संग घूमे
छुटकू संग नाचे-झूमे
.
आरोही स्टार बनेगी
आसमान पर जा चमकेगी
०००
सेवंती

रंग-बिरंगी सेवंती
हँसती-गाती सेवंती
.
इतराती-इठलाती है
जन-मन भाती सेवंती
.
लाड़ लड़ाती तितली से
गीत सुनाती सेवंती
.
गृह बगिया की शोभा है
मोह बढ़ाती सेवंती
.
आतप, वर्षा, ठंडी से
लड़ जी जाती सेवंती
.
करती न ही कराती है
ठकुर सुहाती सेवंती
.
वादे करे न जुमला कह
झुठलाती है सेवंती
.
कलियों की रक्षा करती
सीख सिखाती सेवंती
.
पाखंडों से दूर रहे
प्रभु गुण गाती सेवंती
.
जड़ जमीन से जुड़ी रखे
शीश उठाकर सेवंती
.
सबकी सुने, न अपनी कह
धैर्य धराती सेवंती
.
दूर सियासत से रहती
सच अपनाती सेवंती
.
घोड़े नई कल्पना के
नित दौड़ाती सेवंती
.
'रमता जोगी' सा जीवन
'बहता पानी' सेवंती
.
शब्द दहेज मायके से
चुन ले जाती सेवंती
.
संस्कार संवर्धित कर
जीवन पाती सेवंती
.
जय-जयकार करे सत की
असत मिटाती सेवंती
.
गुस्सा पी होती गुमसुम
गम खा जाती सेवन्ती
.
लुकती फिर भी भँवरों को
दिख जाती है सेवन्ती
.
माली कोई दे दे माँ!
विनय सुनाती सेवन्ती
.
कश्ती हो मुश्किल में तो
पार लगाती सेवन्ती
.
दीप-ज्योति हो 'मावस में
जल जाती थी सेवन्ती
.
जाग गई हर बाधा को
अब सुलगाती सेवन्ती
.
है संजीवित सुप्त नहीं
मदमाती है सेवन्ती
.
नेह नर्मदा सलिल नहा
तर जाती है सेवन्ती
.
गुस्सा पी होती गुमसुम
गम खा जाती सेवन्ती
.
लुकती फिर भी भँवरों को
दिख जाती है सेवन्ती  
.
माली कोई दे दे माँ!
विनय सुनाती सेवन्ती
.
कश्ती हो मुश्किल में तो
पार लगाती सेवन्ती
.
दीप-ज्योति हो 'मावस में
जल जाती थी सेवन्ती
.
जाग गई हर बाधा को
अब सुलगाती सेवन्ती
.
है संजीवित सुप्त नहीं
मदमाती है सेवन्ती
.
नेह नर्मदा सलिल नहा
तर जाती है सेवन्ती
***
पूर्णिका 
दिनकर दिन कर दे उजियारा
सारे जग से ले अँधियारा
आसमान पर रंग बिखेरे
कभी नहीं मैं थककर हारा
सो मत उठ इंसान बढ़ा पग
मेहनत ने ही मैदां मारा
खग कलरव कर करें आरती
किरणों ने नव रूप निखारा
सलिल करे अभिषेक सूर्य का
स्वेदांजलि दे रूप निहारा
७.४.२०२५
०००


अंतर्राष्ट्रीय बीवर (कृन्तक) दिवस
बीवर एक जानवर है जिसके चिकने फ़र, तीखे दांत, और बड़ी, सपाट पूंछ होती है। बीवर, नदियों में लाठी और मिट्टी से दीवारें बनाते हैं, जिन्हें बांध कहते हैं. बीवर एक मेहनती व्यक्ति को भी संदर्भित करता है. उदाहरण के लिए, 'Busy beaver'। किसी महिला के यौन अंगों को भी अंग्रेज़ी में 'beaver' कहते हैं। यह शब्द अपमानजनक माना जाता है। ब्रिटेन, कनाडा, और कुछ अन्य देशों में, छह से आठ साल के बच्चों के लिए एक संगठन है, जिसे 'Beavers' कहते हैं। बीवर, कैस्टर वंश का एक बड़ा, उभयचर कृंतक होता है। बीवर अपने तालाबों के किनारे क्षेत्रों की स्थापना और रक्षा करते हैं। बीवर मिट्टी और वनस्पति से बने गंध के टीले बनाकर अपने क्षेत्रों को चिह्नित करते हैं। बीवर आम तौर पर घुसपैठियों के प्रति असहिष्णु होते हैं। बीवर अपने बड़े, नारंगी रंग के दांतों के कारण अपने पूरे जीवनकाल में लगातार बढ़ते रहते हैं।
***
कविता
समय-साक्षी
*
हिमालय की कंदराओं में
जमाएँ हम बर्फ फ्रिज लेकर
हुआ विकसित देश अब भारत।
संपदा हो चंद चंद हाथों में
शेष को खैरात दे सरकार
कर रहा चुनाव सब गारत।
जिंदगी भर करो काले काम
जाँच होती हो न घबराना
जुड़ो सत्तासीन दल के साथ।
जो न हाँ में हाँ मिलाए वह
देशद्रोही जेल में दो डाल
धन कुबेरों से मिलकर हाथ।
निज प्रशंसा खुद करो सौ बार,
दो विपक्षी को अगिन गाली
कराओ जयकार चमचों से।
करो वादा; बताओ जुमला
ठगो जनगण को न कर संकोच
धमकियाँ दो रोज मंचों से।
'लगे मुरझाने कमल के फूल'
कह गए दुष्यंत युग का सच
सरोवर का बदल दो पानी।
लूट अरबों की कराएँ आप,
भेंट दें भगवान को लाखों
ऋण चुराकर कहाएँ दानी।
समय साक्षी मत लिखो कविता
बहुत है खतरा न बोलो सच
कलम धरकर मूँद लो आँखें।
हो गया अपराध अब उड़ना
बैठ पिंजरे में चुगो दाना
कट न जाएँ समेटो पाँखें।
७.४.२०२४
***
युगतुलसी स्मरण
नागेंद्रबालाय शिप्राय शंभुनाथाय, सुरेशाय पवनाय सचेतनाय।
रेखाय सरलाय भरद्वजाय, किशोराय श्यामाय विभा किंकराय।।
***
सोरठे
जिनके कच्चे कान, उन्हें पकड़ कर खींचिए।
नानी आए याद, खूब मसलिए भींचिए।।
*
सलिल सम्हलकर बोल, बड़बोले नादान हैं।
खतरनाक वे मित्र, जिनके कच्चे कान हैं।।
*
बोला-गोला जान, लौट नहीं पाता कभी।।
जिनके कच्चे कान, करें भरोसा मत कभी।।
*
सोरठ दोहा
रैन भिगोए नैन, बैन न कटु कहती कभी।
कहती सो पा चैन, हो बेचैन न मनु सभी।।
रैन-रैनपति लग्न, तारागण बारात ले।
झूम-नाच मुद मग्न, मंत्र-वचन अंबर कहे।।
रैन न जाए जाग, लोरी उषा सुना रही।
तेरा अमर सुहाग, रवि लख आशीषे दिशा।।
शरत्पूर्णिमा रैन, लगे फिरंगन नार सी।
डूबे सागर नैन, मावस में हँस चंद्रमा।।
७-४-२०२३
***
मुक्तिका
आधार छंद/ वाचिक भुजंग प्रयात
मापनी 122 122 122 122
पदांत- हुए है
समांत - आए
*
सभी को खिलौना बनाए हुए है।
खुदी में खुदा को समाए हुए है।।
जिसे वोट लेना बताए हमें वो।
किए वायदे क्या निभाए हुए है।।
लिए हाथ में आइना देखता जो
खुदी पे खुदी को रिझाए हुए है।।
न कुर्सी, न सत्ता, न नेता, न दिल्ली।
हमें गाँव अपना लुभाए हुए है।।
सुनाती न दादी, न नानी कहानी।
सदी बचपना क्यों गँवाए हुए है।।
नहीं लोक की तंत्र में फ़िक्र बाकी।
करे जुल्म जुल्मी, छिपाए हुए है।।
नहीं बात जन की, करे बात मन की।
खुदी को खुदा खुद बनाए हुए है।।
७-४-२०२३
***
दोहे
*
चेत सके चित् चैत में, साँस-साँस सत् साथ।
कहे हाथ से हाथ मिल, जिओ उठाकर माथ।।
*
हम नंदन वैशाख के, पके न; आया चैत।
द्वैत हृदय में बसाए, जिह्वा पर अद्वैत।।
*
महुआ महुआ के तले, मोहे गंध बिखेर।
ढाई आखर बाँचती, नैन मूँद अंधेर।।
*
चैती देख पलाश को, तन-मन रही निसार।
क्रुद्ध-तप्त सूरज जला, बरसाता अंगार।।
*
ज्यों की त्यों चादर धरी, हुए कबीरा खेत।
बन कमाल खलिहान ने, चादर धरी समेट।।
*
कल तक मालामाल थे, आज खेत कंगाल।
कल खाली खलिहान थे, अब हैं मालामाल।।
*
बूँद पसीने की गिरी, भू पर उपजी बाल।
देख फसल खलिहान में, मिहनत हुई निहाल।।
*
७-४-२०२२
***
नदी काव्य
*
स्वर्ण रेखा!
अब न हो निराश,
रही तट पर गूँज
आप आ गीता।
काश,
फिर मंगल
कर सके जंगल,
पा पुन: सीता।
अवध
और रजक
गँवा निष्ठा सत
मलिन कर सरयू
गँवा देते राम।
नदी मैया है
जमुन जल राधा,
काट भव बाधा
कान्ह को कर कृष्ण
युग बदलता है।
बीन कर कचरा
रोप पौधा एक
बना उसको वृक्ष
उगा फिर सूरज
हो न जो बीता।
सुन-सुना गीता।।
स्वर्ण रेखा = एक नदी
****
शब्दों की खोज*
*पागलपंती*
पागलपंती शब्द का उद्गम पागलपंथी संप्रदाय से हुआ है।
यह आंदोलन 1833 में अंग्रेज सेना की मदद से कुचला गया था। पागलपंथी आंदोलन करीम शाह और मुस्लिम फकीर मजनू शाह के अन्य शिष्यों द्वारा स्थापित किया गया था। मदारिया सूफी इस पंथ के नेता थे। 1813 में करीम शाह की मृत्यु के बाद, इसका नेतृत्व उनके बेटे टीपू शाह ने किया था। करीम शाह और टीपू शाह की माँ की पत्नी चांद बीबी ने भी समुदाय में एक प्रभावशाली स्थान हासिल किया, जिसे पीर-माता (संत-माता) के नाम से जाना जाता है।
(विकिपीडिया)
गोरखनाथ के बारह पंथ में पागलपंथी का उल्लेख मिलता है।
सत्यनाथी ,धर्मनाथी ,रामपंथी ,नाटेश्वरी, कन्हड़,कपिलानी, वैरागपंथी, माननाथी,आईपंथी, पागलपंथी,धजपंथी और गंगानाथी ।
कार्यशाला
कुंडलिया
*
मानव जब दानव बने, बढ़ता पापाचार ।
शरण राम की लीजिए, आएँ ले अवतार ।। -आशा शैली
आएँ ले अवतार, जगत की पीड़ा हरने
पापी प्रभु से जूझ, मरें भव सागर तरने
दुष्कर्मी थे मिला, विशेषण जिनको दानव
वर्ना थे वे हाड़-मांस के हम से मानव - संजीव
*
७-४-२०२०
***
चित्रगुप्त भजन
१४. चित्रगुप्त प्रभु जी की छवि मनोहारी है
*
चित्रगुप्त प्रभु जी की छवि मनोहारी है, छवि मनोहारी है
सुर, नर, मुनियों ने आरती उतारी है, आरती उतारी है
*
देवा की जै-जै गुंजाने, मिलकर आज चले हैं
मन-मंदिर में प्रभु को बसाने, घर से हम निकले हैं
पाप-पुण्य के स्वामी, सारी सृष्टि पुजारी है
*
कर में कलम-किताब सुशोभित, गल बैजंती माला
उन्नत ग्रीव, सुदीर्घ बाहु, स्कंध सुदृढ़ सुविशाला
वर्ण व्यवस्था सृजी, सभ्यता देव सँवारी है
*
लिपि-लेखनी से युग-परिवर्तन, मानवता को देन
न्याय, नीति, विधि, कुशल प्रशासन, फैलाया सुख-चैन
हे देवों के देव! 'सलिल' तुम पे बलिहारी है
***
१५. प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
सिर झुकाएँ, जीवन सफल बनाएँ रे!!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु परमेश्वर की महिमा सुहानी, महिमा सुहानी न जाए बखानी
महिमा सुहानी सुन पुण्य पाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
प्रभु परमेश्वर हैं भाग्य-विधाता, भाग्य-विधाता हैं मोक्ष-प्रदाता
भाग्य-विधाता को नित मनाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु कर्मेश्वर हैं पाप-पुण्य लेखक, पाप-पुण्य लेखक, माँ अंबे के सेवक
पाप-पुण्य लेखक का जस गुँजाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाएँ रे!
प्रभु गुप्तेश्वर हैं दीनों के बंधु, दीनों के बंधु, कृपा के सिंधु
'सलिल' भव सागर से पार पाएँ रे!
प्रभु चित्रगुप्त को सिर झुकाए रे!
***
षट्पदी
बीस साल में जेल है, दो दिन में है बेल.
पकड़ो-छोडो में हुआ, चोर-पुलिस का खेल.
चोर-पुलिस का खेल, पंगु है न्याय व्यवस्था,
लाभ मिले शक का, सुधरे किस तरह अवस्था?
कहे सलिल कविराय, छूटता है क्यों रईस?
मारे-कुचले फिर भी नायक?, हाय! यही है टीस
७.४.२०१८
***
रसानंद दे छंद नर्मदा २४: ६-४-२०१६
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए कुण्डलिया छंद से.
कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
*
कुण्डलिया हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है। एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिया छंद को आकार देते हैं। दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिया भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है। दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है। प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है। सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक देखता है।
१. कुण्डलिया छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद होते हैं।
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है।
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है।
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं।
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं।
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर।
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर।।
५. रोला भी अर्ध सम मात्रिक छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ होती हैं।
क. रोला में ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं। दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं।
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है।
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है। शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते।
की. रोला के सम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए।
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़।
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़।।
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय।
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय।।
६. कुण्डलिनी:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान।।
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक।
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक।।
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया।
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया।। - नवीन चतुर्वेदी
कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित
कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान।
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान।।
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक।
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक।।
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया।
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया।।
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा
उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है, इस पर मुझको नाज़।
नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज।।
यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया।
बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया।।
करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत।
पहले जैसा आज, कहाँ है? मेरा भारत।। - राजेंद्र स्वर्णकार
०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा
०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल।
फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल।।
तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत।
मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत।।
तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत।
'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत।।
(यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)
०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान।
इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान।।
कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर।
तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर।।
जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर।
'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर।।
('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पढ़कर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)
०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत।
घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत।।
जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर।
बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर।।
असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ।
नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ।।
(इस कुण्डलिया की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ' करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।)
०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन।।
कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के।। - गिरधर
कुण्डलिया छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।
०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है।
०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग।
जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग।।
साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना।
करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना।।
कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल।
आरक्षण कर ख़त्म, योग्यता ही हो संबल।।
यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है। प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें।
०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।।
वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।।
कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से।।
यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है।
***
नवगीत-
*
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अल्हड, कमसिन, सपनों को
आकार मिल रहा।
अरमानों का कमल
यत्न-तालाब खिल रहा।
दिल को भायी कली
भ्रमर गुंजार करे पर-
मौसम को खिलना-हँसना
क्यों व्यर्थ खल रहा?
तेज़ाबी बारिश की जिसने
पात्र मौत का-
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
व्यक्त असहमति करना
क्या अधिकार नहीं है?
जबरन मनमानी क्या
पापाचार नहीं है?
एसिड-अपराधी को
एसिड से नहला दो-
निरपराध की पीर
तनिक स्वीकार नहीं है।
क्यों न किया अहसास-
पीड़ितों की पीड़ा का?
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
*
अपराधों से नहीं,
आयु का लेना-देना।
नहीं साधना स्वार्थ,
सियासत-नाव न खेना।
दया नहीं सहयोग
सतत हो, सबल बनाकर-
दण्ड करे निर्धारित
पीड़ित जन की सेना।
बंद कीजिए नाटक
खबरों की क्रीड़ा का
एसिड की
शीशी पर क्यों हो
नाम किसी का?
***
पुस्तक सलिला-
‘‘बोलना सख्त मना है’’ नवगीत की विसंगतिप्रधान भावमुद्रा
[पुस्तक परिचय- बोलना सख्त मना है, ISBN 978-93-85942-09-9, नवगीत संग्रह, पंकज मिश्र ‘अटल’,वर्ष २०१६, आकार २०.५ से.मी. x ७.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १०० रु., बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, कवि संपर्क सृजन, कुमरा गली, रोशनगंज, शाहजहाॅंपुर २४१००१, चलभाष 99366031136 ।]
0
साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं। विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतप्र्रवहित भावों का पूर्वाभास करा देता है। उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूॅं और जो भोग रहा हूॅं, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभ्व्यिक्ति कोई पढ़ा-लिखा अशोषित कैसे कर सकता है? तब कोई स्त्रीए पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।
कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएॅं, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएॅं, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएॅं, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी को से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं होे सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।
कवि की अपेक्षा है कि उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें। क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाॅं होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। हिंदी में स्नातकोत्तर कवि अभिव्यक्ति सामथ्र्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएॅं जैसे संस्क्रतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह वापरता है। पेपरों तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।
हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाॅं तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एॅं’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएॅं’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयौग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएॅं चाप के बिना किसी को घेर नहीे सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूॅंगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएॅं हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएॅं है, रेखाएॅं /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुॅंधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याॅं/हॅंसती हैं/आॅंगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं।
अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
७.४.२०१६
***
मुक्तिका:
.
गैर से हमको क्यों गिला होगा?
आइना सामने मिला होगा
झील सी आँख जब भरी होगी
कोई उसमें कमल खिला होगा
गर हकीकत न बोल पायी तो
होंठ उसने दबा-सिला होगा
कब तलक चैट से मिलेगा वह
क्या कभी खत्म सिलसिला होगा
हाय! ऐसे न मुस्कुराओ तुम
ढह गया दिल का हर किला होगा
झोपड़ी खाट धनुष या लाठी
जब बनी बाँस ही छिला होगा
काँप जाते हैं कलश महलों के
नीव पत्थर कोई हिला होगा
***

नवगीत:
संजीव
.
नवगीत:
संजीव
.
बाँस हैं हम
.
पत्थरों में उग आते हैं
सीधी राहों पर जाते हैं
जोड़-तोड़ की इस दुनिया में
काम सभी के हम आते हैं
नहीं सफल के पीछे जाते
अपने ही स्वर में गाते हैं
यह न समझो
नहीं कूबत
फाँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
चाली बनकर चढ़ जाते हैं
तम्बू बनकर तन जाते हैं
नश्वर माया हमें न मोहे
अरथी सँग मरघट जाते हैं
वैरागी के मन भाते हैं
लाठी बनकर मुस्काते हैं
निबल के साथी
उसीकी
आँस हैं हम
बाँस हैं हम
.
बन गेंड़ी पग बढ़वाते हैं
अगर उठें अरि भग जाते हैं
मिले ढाबा बनें खटिया
सबको भोजन करवाते हैं
थके हुए तन सो जाते हैं
सुख सपनों में खो जाते हैं
ध्वज लगा
मस्तक नवाओ
नि-धन का धन
काँस हैं हम
बाँस हैं हम
*

बाँस
.
ज़िन्दगी भर
नेह-नाते
रहे जिनसे.
रह गए हैं
छूट पीछे
आज घर में.
साथ आया वह
न जिसकी
कभी भायी फाँस.
उठाया
हाँफा न रोया
वीतरागी बाँस
*
मान किया, अभिमान किया, अपमान किया- हरि थे मुस्काते
सौंवी न हो गलती यह भी प्रभु आप ही आप रहे चेताते
काल चढ़ा सिर पर न रुका, तब चक्र सुदर्शन कृष्ण चलाते
शीश कटा भू लोट रहा था, प्राण गए हरि में ही समाते
***
मुक्तिका:
.
पल में न दिल में दिल को बसाने की बात कर
जो निभ सके वो नाता निभाने की बात कर
मुझको तो आजमा लिया, लूँ मैं भी आजमा
तू अब न मुझसे पीछा छुड़ाने की बात कर
आना है मुश्किलात को आने भी दे ज़रा
आ जाए तो महफिल से न जाने की बात कर
बचना 'सलिल' वो चाहता मिलना तुझे गले
पड़ जाए जो गले तो भुलाने की बात कर
बेचारगी और तीरगी से हारना न तुम
यायावरी को अपनी जिताने की बात कर
७.४.२०१५
...
क्षणिकाएँ
*
कर पाता दिल
अगर वंदना
तो न टूटता
यह तय है.
*
निंदा करना
बहुत सरल है.
समाधान ही मुश्किल है.
*
असंतोष-कुंठा कब उपजे?
बूझे कारण कौन?
'सलिल' सियासत स्वार्थ साधती
जनगण रहता मौन.
*
मैं हूँ अदना शब्द-सिपाही.
अर्थ सहित दें शब्द गवाही..
***
मुक्तक
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों डरें?
*
दिल लगाकर दिल्लगी हमने न की.
दिल जलाकर बंदगी तुमने न की..
दिल दिया ना दिल लिया, बस बात की-
दिल दुखाया सबने हमने उफ़ न की..
७.४.२०१०
***

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

लौकिक छंद

 विमर्श

सात लोक और लौकिक छन्द
*
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
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