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रविवार, 23 जून 2024

जून २३, सॉनेट, बाल गीत, घनश्याम छंद, काल है संक्रांति का, मुक्तिका, ३७०, नवगीत, दोपदी, भगवत दुबे

 सलिल सृजन जून २३  

*

सॉनेट

विधायक
अंधेर नगरी चौपट राजा
बिकें टके के तीन विधायक
रुपै सेर भाजी, टके सेर खाजा
सत्ता-पद-मद हुए नियामक
आपन मुख आपन प्रभुताई
निज कवित्त ही लागे नीका
भले अंत में हो रुसवाई
कर निज माथे पर खुद टीका
संविधान को दिखला ठेंगा
लोकतंत्र का गला घोंट दे
नाग-साँप कुर्सी पर बैठा
जो विषधर तू उसे वोट दे
पंडे झंडे डंडे की जय
बोलो, अंडे खाओ निर्भय
२३-६-२०२२
•••
दो दुम का दोहा
उषा सूर्य कर गह कहे, जगो हो गई भोर।
आलस तजकर थाम लो, श्रम-कोशिश की डोर।।
सफलता तभी मिलेगी
कहानी नई बनेगी
मुक्तिका
*
माता जिसकी सूरत है, वह मूरत है साकार पिता
लेन-देन कहिए, या मुद्रा माँ है तो व्यापार पिता
माँ बिन पिता, पिता बिन माता कैसे कहिए हो सकते?
भव्य इमारत है मैया तो है उसका आधार पिता
यह काया है वह छाया है, यह तरु वह है पर्ण हरे
माँ जीवन प्रस्ताव मान सच, जिसका है स्वीकार पिता
अर्पण और समर्पण की हैं परिभाषा अद्भुत दोनों
पिता बिना माता बेबस हैं, माता बिन लाचार पिता
हम दोनों उन दोनों से हों, एक दूसरे के पूरक
यही चाहते रहे हमेशा माँ दुलार कर प्यार पिता
***
२३-६-२०२०
मुक्तक
*************************
हम हैं धुर देहाती शहरी दंद-फंद से दूर
पुलकित होते गाँव हेर नभ, ऊषा, रवि, सिंदूर
कलरव-कलकल सुन कर मन में भर जाता है हर्ष
किलकिल तनिक न भाती, घरवाली लगती है हूर. *
तुम शहरी बंदी रहते हो घर की दीवारों में
पल-पल घिरे हुए अनजाने चोरों, बटमारों में
याद गाँव की छाँव कर रहे, पनघट-अमराई भी
सोच परेशां रहते निश-दिन जलते अंगारों में
***************************************
बाल गीत
पानी दो, अब पानी दो
मौला धरती धानी दो, पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गयी
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो, पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हर्षे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो, पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो, पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो, पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो, पानी दो...
२३-६-२०१७
विमर्श:
छंद सलिला:
सोलह अक्षरी वार्णिक घनश्याम छंद
लक्षण: जगण जगण भगण भगण भगण गुरु
मापनी: १२१ १२१ २११ २११ २११ २
लय: ललालल लाल लाल ललालल लाल लला
***
यति: ५-५-६
नहीं रुकना, नहीं झुकना, बदनाम न हो
नहीं जगना, नहीं उठना, यश-नाम न हो
नहीं लड़ना, नहीं भिड़ना, चुक शाम न हो
यहीं मरना, यहीं तरना, प्रभु वाम न हो
*
यति: १०, ६
विशाल वितान देख जरा, मत भाग कभी
ढलाव-चढ़ान लेख जरा, मत हार कभी
प्रयास-विकास रेख बने, मनुहार सदा
मिलाप-विछोह दे न भुला, कर प्यार सदा
*
यति ६, १०
करो न विनाश, हो अब तो कुछ काम नया
रहो न हताश, हो अब तो परिणाम नया
जुटा न कबाड़, सूरज सा नव भोर उगा
बना न बिगाड़, हो तब ही यश-नाम नया
***
टीप: कृपया बताएँ-
१. घनश्याम एक छंद है या छंद समूह (जाति)?
२. एक ही मापनी पर रचित छंदों में गति-यति परिवर्तन स्वीकार्य हो या न हो?
३. क्या गति-यति परिवर्तन से बनी छंद, नए छंद कहे जाएँ?
४. यदि हाँ, तो इस तरह बने असंख्य छंदों के नामकरण कौन, किस आधार पर करेगा?
५. हिंदीतर छंदों (लावणी, माहिया, सोनेट, कपलेट, बैलेड, हाइकु, तांका स्नैर्यु आदि) को हिंदी छन्दशास्त्र का अंग कहा जाए या नहीं?
६. गणों से साम्य रखनेवाले लयखंड (रुक्न) और उनसे निर्मित छंद (बहर) हिंदी की हैं या अन्य भाषा की?
७. लोकगीतों में प्रयुक्त लयखंड हिंदी छंद शास्त्र का हिस्सा हैं या नहीं? यदि हैं तो उनकी मापनी कौन-कैसे-कब निर्धारित करेगा?
==========
***
पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेदनात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधार, आपदा निवारण व शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं।
इंजीनियर्स फोरम (भारत) के महामंत्री के रूप में अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सार्थक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं।
अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के प्रति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिपा माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति के उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिन उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ता फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'मत हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायें दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका
देश-हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जन-हित का
भार करों का इतना ही हो दरक न जाएँ दीवारें
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
२३-६-२०१६
***
मुक्तिका
*
साँझ शर्मा गयी, गुलाल हुई
क्या कहूँ?, हाय! बेमिसाल हुई
*
एक पल में हँसी वो बच्ची सी
दूसरे पल मचल, धमाल हुई
*
फ़िक्र में माँ दुपहरी दुबलाई
रात दादी मिली, निहाल हुई
*
चाँद माथे सजा, लगे सूरज
चाँदनी जिस्म-ढल कमाल हुई
*
होंठ हैं या कमल की पंखुड़ियाँ?
मुस्कुराहट भ्रमर-रसाल हुई
*
ओढ़नी-टाँक ओढ़कर तारे
ज़ुल्फ़ काली नची निढाल हुई
*
अँजुरी में 'सलिल' लिया बरबस
रूप देखे नज़र सवाल हुई
***
२३-६-२०१५
***
चौपाल चर्चा:
जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद ३७०
*
भारत की स्वतंत्रता के समय भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के अनुसार भारतीय रियासतों को छूट थी कि वे भारत या पाकिस्तान में से जिसके साथ चाहें विलय करें या दोनों में से किसी से विलय न कर स्वतंत्र रहें। कश्मीर, हैदराबाद तथा जूनागढ़ को छोड़कर शेष रियासतों ने अधिमिलन पत्र हस्ताक्षरित कर भारत के साथ मिलन स्वीकार कर लिया। जूनागढ़ की जनता ने नवाब से विद्रोह कर भारत में विलय की घोषणा कर दी तो नवाब पाकिस्तान भाग गया। हैदराबाद में जनता भारत चाहती थी जबकि नवाब पाकिस्तान में। तब सरदार पटेल ने सैन्य कार्यवाही कर जनता के चाहे अनुसार नवाब को भारत में विलय स्वीकारने हेतु बाध्य कर दिया।
जम्मू-कश्मीर के एक भाग में मुस्लिम जनसँख्या अधिक थी तो दूसरे में हिंदू, राजा हिन्दू तो वज़ीर मुसलमान। मुसलमान वज़ीर शेख अब्दुल्ला तथा जनता भारत में विलय के पक्ष में थे, पाकिस्तान मुस्लिम आबादी का आधार लेकर अपना दावा कर रहा था, जबकि महाराज हरिसिंह स्वतंत्र देश के रूप में रहना चाहते थे। पाकिस्तान ने अनिश्चितता का लाभ उठाने की नियत से फ्रोंटियर के पठानों को शस्त्र देकर कश्मीर पर हमलाकर कब्ज़ा करने के लिए भेजा। अपना बचाव करने में असमर्थ होकर २६-१०-१९४७ को महाराज ने भारत सरकार के पास विलय पत्र भेजा।
महाराज तथा भारत सरकार के बीच वार्ता में महाराजा ने जनप्रतिनिधियों के सहयोग से उत्तरदायी सरकार बनाकर वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कराना तथा कश्मीरी संविधान निर्माण हेतु विधान सभा बनाना स्वीकार कर ५-३-१९४८ को उद्घोषणा जारी की।महाराज के स्थान सत्तासीन युवराज कर्णसिंह ने २५-११-१९४९ को एक उद्घोषणा जारी की जिसके आधार पर संविधान के भाग २१ में अनुच्छेद ३७० अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध सम्मिलित कर ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा दिया है। इसके अनुसार अनुच्छेद २३८ के उपबंध जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होंगे। इस राज्य के सम्बन्ध में भारत की कानून बनाने की शक्ति उन विषयों तक सीमित होगी जिनको राष्ट्रपति राज्य सरकार से परामर्श कर अधिमिलन पत्र में निर्दिष्ट ऐसे विषय के रूप घोषित कर दे उक्त जिस पर भारत कानून बना सकता है।
अतः संसद को जम्मू -कश्मीर के सम्बन्ध में स्वरक्षा, यातायात, मुद्रा (सिक्का) तथा विदेश नीति के सम्बन्ध में ही कानून बनाने का अधिकार है. अन्य विषयों पर कानून कश्मीर सरकार की सहमति से ही बनाया जा सकता है। राष्ट्रपति ने संविधान जम्मू-कश्मीर में प्रभावशील होने का आदेश १९५० में जारी तथा १९५४ में परिवर्तित किया। अनुच्छेद २४६ के अनुसार अवशिष्ट शक्तियाँ संसद को नहीं कश्मीर विधान सभा को है।
इस अनुच्छेद के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विविध वादों में निर्गत निर्णयों के अनुसार यह अनुच्छेद अस्थायी है किन्तु इसे राज्य विधान सभा की सहमति से ही समाप्त किया जा सकता है।
इसी अनुच्छेद में गुजरात, महाराष्ट्र, नागालैंड, सिक्किम मिजोरम आदि सम्बन्धी विशेष उपबंधों की चर्चा है।
***
गीत:
मौसम बदल रहा है…
*
मौसम बदल रहा है
टेर रही अमराई
परिवर्तन की आहट
पनघट से भी आई...
*
जन आकांक्षा नभ को
छूती नहीं अचंभा
छाँव न दे जनप्रतिनिधि
ज्यों बिजली का खंभा
आश्वासन की गर्मी
सूरज पीटे डंका
शासन भरमाता है
जनगण मन में शंका
अपचारी ने निष्ठा
बरगद पर लटकाई
सीता-द्रुपदसुता अब
घर में भी घबराई...
*
मौनी बाबा गायब
दूजा बड़बोला है
रंग भंग में मिलकर
बाकी ने घोला है
पत्नी रुग्णा लेकिन
रास रचाये बुढ़ापा
सुत से छोटी बीबी
मिले शौक है व्यापा
घोटालों में पीछे
ना सुत, नहीं जमाई
संसद तकती भौंचक
जनता है भरमाई...
*
अच्छे दिन आये हैं
रखो साल भर रोजा
घाटा घटा सकें वे
यही रास्ता खोजा
हिंदी की बिंदी भी
रुचे न माँ मस्तक पर
धड़क रहा दिल जन का
सुन द्वारे पर दस्तक
क्यों विरोध की खातिर
हो विरोध नित भाई
रथ्या हुई सियासत
निष्कासित सिय माई...
२३-६-२०१४
***
नवगीत:
करो बुवाई...
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
२३-६-२०११
***
मुक्तिका:
आँख का पानी
*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..
शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुंआ है आँख का पानी..
द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..
मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..
हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..
किया मुजरा, मिला नजराना न तो बोले-
जहन्नुम जाए मुआ! खो आँख का पानी..
देवकी राधा यशोदा कभी विदुरानी.
रुक्मिणी कुंती बुआ आँख का पानी..
देख चन्दा याद आतीं रोटियाँ जिनको
दिखे सूरज में पुआ बन आँख का पानी..
भजन प्रवचन सबद साखी साधना बानी
'सलिल' पुरखों की दुआ है आँख का पानी..
*************************************
२३-६-२०१०
कुछ द्विपदियाँ :
संजीव 'सलिल'
वक्-संगति में भी तनिक, गरिमा सके न त्याग.
राजहंस पहचान लें, 'सलिल' आप ही आप..
*
चाहे कोयल-नीड़ में, निज अंडे दे काग.
शिशु न मधुर स्वर बोलता, गए कर्कश राग..
*
रहें गृहस्थों बीच पर, अपना सके न भोग.
रामदेव बाबा 'सलिल', नित करते हैं योग..
*
मैकदे में बैठकर, प्याले पे प्याले पी गये.
'सलिल' फिर भी होश में रह, हाय! हम तो जी गए..
*
खूब आरक्षण दिया है, खूब बाँटी राहतें.
झुग्गियों में जो बसे, सुधरी नहीं उनकी गतें..
*
थक गए उपदेश देकर, संत मुल्ला पादरी.
सुन रहे प्रवचन मगर, छोड़ें नहीं श्रोता लतें.
*
२३-६-२०१०

शनिवार, 22 जून 2024

जून २२, कविता, वेद, पुराण, नवगीत, हिंदी-शब्द, बोलियाँ, सवैया, शारदा, कहमुकरी, न्याय

सलिल सृजन जून २२

विमर्श:
न्याय प्रक्रिया बदलाव जरूरी
*
न्याय क्या?
निर्बल-असहाय को उसका अधिकार दिलाना।
देनेवाला- न्यायाधीश
माध्यम- अधिवक्ता
प्रक्रिया- वाद स्थापित करना।
सुलभता नहीं, सहजता नहीं, सरलता नहीं।
अत्यंत खर्चीली, समयखाऊ, जटिल, उलझन भरी, कानूनी दाँव-पेंच में सत्य की हत्या।
वकालतनामा- मुवक्किल से सभी अधिकार छीनकर वकील को देता है।
वकील मनमानी करता है। फीस लेकर भी पेशी पर नहीं जाता, तारीख बढ़ना कर बार-बार पैसे माँगता है, वाद के सत्य को छिपाकर जीत के लिए झूठे साक्ष्य और साक्षी गढ़कर न्यायालय की आँख में धूल झोंकता है।
कोढ़ में खाज यह कि मुवक्किल हित संरक्षण के स्थान पर वकील और न्यायपालिका अपने संरक्षण की निरंतर माँग करते हैं।
सड़-गल रही व्यवस्था बदलें।
न्याय प्राप्ति के लिए वकील की आवश्यकता समाप्त की जाए।
जूरी प्रणाली लागू की जाए। वाद को साथ ही वादी पूरा घटनाक्रम और दस्तावेज दे जिसकी प्रतियाँ प्रतिवादी को भी दे। प्रतिवादी अपना उत्तर न्यायालय व वादी को निर्धारित समय सीमा में उपलब्ध कराए। पहली पेशी में जूरी दोनों को सुनकर शेष दस्तावेज या साक्षी प्रस्तुत करने हेतु दूसरी पेशी दे। सामान्य प्रकरणों में तीसरी, महत्वपूर्ण प्रकरणों में पाँचवी पेशी में फैसला हो। वकील केवल अपील की स्थिति में उच्चतर न्यायालय की जूरी की माँग पर मदद करे।
इससे न्याय प्रक्रिया सरल, सस्ती, सुलभ, शीघ्र तथा निष्पक्ष होगी।
कुछ वर्षों में वाद प्रकरणों के अंबार कम और समाप्त होने लगेंगे।न्याय प्रक्रिया बदलाव जरूरी
२२.४.२०२३
***
कविता के शब्द
यदि "आपके दिमाग़ में कविता के शब्द उस तरह नहीं आते हैं जैसे पेड़ों पर पत्ते, तो बेहतर होगा कि आप कविता लिखने के बारे में सोचें ही नहीं। यानी अच्छी कविता वही लिख सकते हैं जिन्हें कविता के शब्द सोचने की ज़रूरत न पड़े । वे ख़ुद-ब-ख़ुद आने शुरू हो जाएँ और कविता बनती जाए ।"
- जाॅन कीट्स
कथा लिखती हूँ इतिहास नहीं
"मैंने जितना भी लिखा है शत-प्रतिशत मेरा भोगा हुआ यथार्थ है, यह मैं नहीं कह सकती क्योंकि मैं कथा लिखती हूँ, इतिहास नहीं । मेरा काम है कहानी को ढूँढ़ना, किन्तु अगाध जलराशि से इस कथा-मीन को पकड़ने में केवल कल्पना के काँटे से ही काम नहीं चलता, यथार्थ के आटे की गोली भी उतनी ही आवश्यक होती है।"
- शिवानी (रमेश बतरा/सतीश चंद्र धींगड़ा के किसी प्रश्न पर - 1983)
*
कहमुकरी
जिसने जन्म दिया पाला है
कदम-कदम देखा-भाला है
जिसका सिर पर हाथ हमेशा
क्या सखि! दाता?
ना सखि पिता।
थाम कलाई नाजुक कोमल
बात करे मुस्काकर पल-पल
मैं न सकी उसको फटकार
क्या सखि सजना?
ना, मनिहार।
जैसे ही आए, छा जाए
बिना कारण ही शोर मचाए
पड़े न उसको पल भर कल
क्या सखि प्रियतम?
न, सखी बादल।
पता नहीं पड़ती गहराई
रौद्र नहीं, छवि शांत सुहाई
दे उपहार न पूर्व बताकर
सखि! घरवाला
नहिं रत्नाकर।
जब मिलती तभी मिलता चैन
मिलती नहीं तो मन बेचैन
अँखियों को भाए ज्यों सखियाँ
उत्तर बिंदिया?
नहिं सखी निंदिया।
याद भुलाए से नहिं भूले
पलक बंद नैनों में झूले
संग सेज पर आए, भाए
यारां बन्नी?
ना रे! निन्नी।
बीन बिना वह बीन बजा ले
गैरों से अपनापन पाले
नहीं तनिक भी रखता अंतर
बूझूँ? मच्छर
ना रे! झींगुर।
बिन मंडप वह डाले फेरे
मंत्र पढ़े, सजनी को टेरे
भैंस बराबर उसको अक्षर
लालबुझक्कड़?
नहिं रे मच्छर।
बिन चेताए करता हमला
रोक न पाता कोई अमला
बिन कारण होता हमलावर
पाक-चाइना?
ना सखि! मच्छर।
जब बोले तब मन को भाए
मौन रहे तो याद न जाए
पंथ हेर मन होता बेकल
क्या वह नूपुर?
ना रे हूटर।
सचमुच है वह बिल्कुल अपना
नाप न पाता कोई नपना
जब दिखता तब बहुत लुभाता
गुइयाँ सजना?
ना सखि! सपना।
स्वप्न दिखाकर तोड़ा करता
मँझधारों में छोड़ा करता
करा न कहता, कहा न करता
समझी, बेटा
ना सखि! नेता।
२२-६-२०२२
•••
मैया शारदे! पत रखियो
*
छंद - सड़गोड़ासनी।
पद - ३, मात्राएँ - १५-१२-१५।
पहली पंक्ति - ४ मात्राओं के बाद गुरु-लघु अनिवार्य।
गायन - दादरा ताल ६ मात्रा।
*
मैया शारदे! पत रखियो
मोखों सद्बुधि दइयो
मैया शारदे! पत रखियो
जा मन मंदिर मैहरवारी
तुरतइ आन बिरजियो
मैया शारदे! पत रखियो
माया-मोह राच्छस घेरे
झट सें मार भगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
अनहद नाद सुनइयो माता!
लागी नींद जगइयो
मैया शारदे! पत रखियो
भासा-आखर-कवित मोय दो
लय-रस-भाव लुटइयो
मैया शारदे! पत रखियो
मात्रा-वर्ण; प्रतीक बिम्ब नव
अलंकार झलकइयो
मैया शारदे! पत रखियो
२५-११-२०१९
***
शारद वंदन
*
बीना लेकर प्रगट हों, बीनावादिनी साथ
कृपा कोर कर हो सदय, रखो सीस पै हाथ
मोरी मति चकरानी है, ऐ मैया! मोए बचा लइयो
मो खों गैल भुलानी है, ऐ मैया! पार लगा दइयो
जनम-जनम की मैली चादर
रीती सत करमन की गागर
सदय नईं नटराज हो रए
दया नईँ कर रए नटनागर
प्रभु की कृपा करानी है, रमा-उमा लै आ जइयो
तनक न जानौं पूजन-वंदन
नईँ जुट रए अच्छत्-चंदन
प्रगट नें होते चित्रगुप्त जू
सदय नें होते गिरिजानंदन
दरसन की जिद ठानी है, ऐ मैया! दरस दिला दइयो
सारद! हंसबाहिनी माता
सकल भुवन तुमरे जस गाता
नीर-छीर मति दो ममतामई!
कलम लए कर रऔ जगराता
अलंकार रस छंद न जानूँ, भगतें सुझा लिखा लइयो
***
संजीव
११-६-२०२०
***
शारद वंदना
सतमात्रिक नवान्वेषित छंद
सूत्र : ननल।
*
सुर सति नमन
नित कर अमन
*
मुख छवि प्रखर
स्वर-ध्वनि मधुर
अविचल अजर
अविकल अमर
कर नव सृजन
सुरसति नमन
*
पद दल असुर
रच पद स-सुर
कर जननि घर
मम हृदयपुर
कर गह सु मन
सुरसति नमन
*
रस बन बरस
नित धरणि पर
शुभ कर मुखर
सुख रच प्रचुर
शुभ मृदु वचन
सुरसति नमन
२२-६-२०२०
***
नवान्वेषित सवैया
गणसूत्र - जरज रजर जर।
वर्ण यति - ८-८-८ ।
मात्रा यति - १२-१२-१२।
*
तलाशते रहे कमी, न खूबियाँ निहारते, प्रसन्नता कहाँ मिले?
विरासतें रहे हमीं, न और को पुकारते, हँसी-खुशी कहाँ मिले?
बटोरने रहे सदा, न रंकबंधु हो सके, न आसमां-जमीं मिले।
निहारते रहे छिपे, न मीत प्रीत पा सके, मिले- कभी नहीं मिले ।
२२-६-२०१९
९४२५१८३२४४
***
हम अभियंता...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...
*
अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.
वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.
साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.
'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
***
पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
***
संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।
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विमर्श
प्रश्न: भारतीय बोलियाँ हिंदी का हिस्सा हैं या नहीं?
हिस्सा हैं तो अलग मान्य क्यों?,
हिस्सा नहीं हैं तो उनके साहित्यकारों को हिंदी का माना जाए या नहीं??
*
भारत की सभी बोलियाँ भाषाएँ हिंदी की बहनें हैं. विद्यापति भारत और हिंदी के भी हैं. आपस में फूट डालने का कार्य निंदनीय है. सूर को ब्रज, तुलसी को अवधी, जगनिक और ईसुरी को बुंदेली, चंद बरदाई को राजस्थानी, खुसरो-कबीर को उर्दू का कवि बताकर हिंदी को विपन्न करने की दुर्बुद्धि हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है. हम हिंदीभाषी तो भारत की हर भाषा और बोली के हर रचनाकार को अपनाते हैं. हिंदी महासागर है. होना तो यह चाहिए कि हर भाषा बोली के सामान्य प्रयोग में आनेवाले शब्द हिंदी शब्दकोष में उसी तरह सम्मिलित किये जाएँ जैसे अंग्रेजी विश्व की विविध भाषाओँ के शब्द लेती है. भारत की सब भाषाओँ केबहु उपयोगी शब्दों से समृद्ध हिंदी उन्हें तभी अपनी लगेगी जब हिंदी में वे अपने शब्द भी पायेंगे. आवश्यकता डॉ. प्रभाकर माचवे जैसे बहुभाषा-बोलीविद होने की है. सब एक-दुसरे की बोलीओं में लिखें. साहित्यकार को राजनीति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. सियासत सिया के सत से पूरी तरह दूर है. साहित्यकार शब्द-सेतु बनाकर ही सद्भावना-सेतु बना सकेगा.
२२-६-२०१७
***
विमर्श :
हिंदी की शब्द सलिला
*
आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है.
इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा।
संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि।
हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला,
हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला,
हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,
अपनी आवश्यकता हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली व्यापक में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
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गीत
अपने अम्बर का छोर
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
*
हल धर कर
हलधर से, हल ना हुए सवाल
पनघट में
पन घट कर, पैदा करे बवाल
कूद रहे
बेताल, मना वैलेंटाइन
जंगल कटे,
खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल
पजर गयी
अमराई, कोयल झुलस गयी-
नैन पुतरिया
टँगी डाल पर, रोये भोर.…
*
लूट सिया-सत
हाय! सियासत इठलायी
रक्षक पुलिस
हुई भक्षक, शामत आयी
अँधा तौले
न्याय, कोट काला ले-दे
शगुन विचारे
शकुनी, कृष्णा पछतायी
युवा सनसनी
मस्ती मौज मजा चाहें-
आँख लड़ायें
फिरा, न पोछें भीगी कोर....
*
सुर करते हैं
भोग प्रलोभन दे-देकर
असुर भोगते
बल के दम पर दम देकर
संयम खो,
छलकर नर-नारी पतित हुए
पाप छिपायें
दोष और को दे-देकर
मना जान की
खैर, जानकी छली गयी-
चला न आरक्षित
जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर....
*
सरहद पर
सर हद करने आतंक डटा
दल-दल का
दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा
बढ़ी अमीरी
अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी
अंतर में पलता
अंतर, बढ़ नहीं पटा
रमा रमा में
मन, आराम-विराम चहे-
कहे नहीं 'आ
राम' रहा नाहक शोर....
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
२२-६-२०१४
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सनातन साहित्य : वेद, पुराण स्मृतियाँ
हमारा पारम्परिक सनातन साहित्य विश्व मानवता की अमूल्य धरोहर है. इसकी एक झलका निम्न है। इस में आप भी अपनी जानकारी जोड़िये:
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वेद हमारे धर्मग्रन्थ हैं । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा – इन चार ऋषियों को एक साथ दिया था । वेद मानवमात्र के लिये हैं ।
वेद चार हैं ----
१. ऋग्वेद – इसमें तिनके से लेकर ब्रह्म – पर्यन्त सब पदार्थो का ज्ञान दिया हुआ है । इसमें १०,५२२ मन्त्र हैं ।
२. यजुर्वेद – इसमें कर्मकाण्ड है । इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है । इसमें १,९७५ मन्त्र हैं ।
३. सामवेद – यह उपासना का वेद है । इसमें १,८७५ मन्त्र हैं ।
४. अथर्ववेद – इसमें मुख्यतः विज्ञान – परक मन्त्र हैं । इसमें ५,९७७ मन्त्र हैं ।
उपवेद – चारों वेदों के चार उपवेद हैं । क्रमशः – आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद ।
वेदांग - ज्योतिष: नेत्र (सौरमंडल, मुहूर्त आदि), निरुक्त, कान: (वैदिक शब्द-व्याख्या आदि), शिक्षा: नासिका ( वेद मंत्र उच्चारण), व्याकरण: मुख (वैदिक शब्दार्थ), कल्प: हाथ (सूत्र / कल्प साहित्य- धर्म सूत्र: वर्ण, आश्रम आदि, श्रोत सूत्र: वृहद यज्ञ विधान, गृह्य सूत्र: लघु यज्ञ विधान, संस्कार, शुल्व सूत्र: वेदी निर्माण), छंद: पैर (काव्य लक्षण, आदि) ।
पुराण - मुख्य १८ ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव, नारदीय, श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, वायु (ब्रम्हांड) । स्कंद पुराण का एक भाग नर्मदापुराण के नाम से प्रकाशित है। सेठ गोविन्ददास ने गांधी पुराण लिखा किन्तु वह इस श्रेणी में नहीं है।
उपनिषद – अब तक प्रकाशित होने वाले उपनिषदों की कुल संख्या २२३ है , परन्तु प्रामाणिक उपनिषद ११ ही हैं । इनके नाम हैं --- ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , माण्डूक्य , तैत्तिरीय , ऐतरेय , छान्दोग्य , बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर ।
ब्राह्मण ग्रन्थ – इनमें वेदों की व्याख्या है । चारों वेदों के प्रमुख ब्राह्मणग्रन्थ ये हैं ---
ऐतरेय , शतपथ , ताण्ड्य और गोपथ ।
दर्शनशास्त्र – आस्तिक दर्शन छह हैं – न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , पूर्वमीमांसा और वेदान्त ।
स्मृतियाँ – स्मृतियों की संख्या ६५ है। मुख्य १८ स्मृतियाँ मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, अंगिरस, यम, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, दक्ष, गौतम, शातातप तथा वशिष्ठ रचित हैं।
इनके अतिरिक्त आरण्यक, विमानशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
२२-६-२०१४

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शुक्रवार, 21 जून 2024

जून २१, गीत, योग, महाकाव्य, दोहा सदोका, लघुकथा

सलिल सृजन जून २१
*
लघुकथा
दूसरा चेहरा
साहित्य सेवा को अपना जूनून बताकर उन्होंने संपर्क किया।उनके शहर जाना हुआ तो बहुत आग्रह के साथ अपने आवास पर आमंत्रित किया, सास, पति, पुत्र आदि से परिचय कराकर स्वादिष्ट भोजन कराया, आते-जाते समय चरण स्पर्श किए।
मेरे शहर में उनका आगमन हुआ तो उन्हें गृह आमंत्रित कर मैंने अपने परिवारजनों से मिलवाया, उनके स्वागत में गोष्ठी आदि का आयोजन किया। वे जिस विधा में लेखन कर रही थीं, उसकी कुछ अनुपलब्ध पुस्तकें भेंट कीं, कुछ योजनाएँ बनाई गईं, उनकी संस्था की अपने शहर में ईकाई आरंभ कराई।
सार यह कि बहुत आत्मीय, मधुर और पारिवारिक संबंध हो गए।
कुछ वर्ष बाद उनका पुनरागमन हुआ। अब तक वे अपनी विधा की प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गयी थीं, अपना प्रकाशन गृह आरंभ कर चुकी थीं। प्रकाशन गृह संबंधी कई समस्याओं की चर्चा उन्होंने की। एक महिला रचनाकार के बारे में बताया जिसने उनके अनुसार, उन्हें विश्वास में लेकर अपनी पुस्तक छपाकर भुगतान ही नहीं किया।
मैंने उन्हें सहयोग करने की भावना से अपनी एक पुस्तक की पी डी एफ और नगर के मुद्रक ने जो राशि बताई थी, वह अग्रिम देते हुए उनके प्रकाशन की सफलता हेतु शुभकामना दी।
इसके बाद माह पर माह बीतते रहे पर पुस्तक की प्रगति नहीं हो पाई। इस मध्य बेटे का विवाह तय हुआ तो सोचा कि नव दंपत्ति से नव प्रकाशित पुस्तक का विमोचन कराऊँ। उन्होंने अन्य कार्यों में व्यस्त होने का कारण बताकर पुस्तक उपलब्ध कराने में असमर्थता व्यक्त कर दी। लंबी चर्चा के बाद कहा कि दस प्रतियाँ भिजवा देती हूँ। मैंने यह सोचकर संतोष किया कि शेष २९० प्रतियाँ कुछ विलंब से ही सही, मिलेंगी तो।
बेटे का विवाह हुए डेढ़ साल बीत चुका है, अब तक पुस्तक की शेष प्रतियाँ अप्राप्त हैं। अब वे निरंतर प्रकाशकीय गतिविधियाँ बढ़ाती जा रही हैं पर मेरी पुस्तक का भेजने या का अवकाश नहीं है उनके पास।
मैं स्तब्ध हूँ यह देखकर कि एक सुसंस्कारी महिला के सुपरिचित चेहरे पर हावी हो गया है व्यावसायिक प्रकाशक का दूसरा चेहरा।
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द्विपदी
मौन दर-दीवार हैं; चौपाल चुप
दोस्त भी मिलते हैं अंतरजाल पर।
शब्द सलिला सूखती जा रही है
जमाना अब इमोजी का आ आ गया।
सदोका सलिला ५
योग-वियोग
जग की रीत-नीत
जीवन का संगीत।
योग-संयोग
ऐसे होते प्रतीत
जैसे प्रीत-संगीत।२६।
रिश्ते-नाते
सत्य ही बताते
कोई नहीं किसी का।
कोई न गैर
वही अपना सगा
जो मनाता है खैर।२७।
वादा निभाना
आदमी की निशानी
दुनिया आनी-जानी।
वादा भुलाना
सुरासुरी चलन
स्वार्थ-भोग अगन।२८।
देर सबेर
मिलता कर्म-फल
मत होना विकल।
धीरज धर
तलाश अवसर
वर देगा ईश्वर।२९।
मन उन्मन
हरि का सुमिरन
लगी रहे लगन।
दूर हो भ्रांति
जब न हो संक्रांति
तभी मिलेगी शांति।
२१-६-२०२२
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दोहा सलिला
*
दोहा सलिला-स्नान दे, ग्रहण दोष से मुक्ति।
ग्रहण करें रस भाव लय, गति-यति कल संयुक्ति।।
*
ग्रहण करे सुख-दुख धरा, दे-पा सह समभाव।
ग्रहण न लगता इसलिए, हर ग्रह रखे लगाव।।
*
ग्रहण न रवि-शशि कुछ करें, देते जग उजियार।
राहु-केतु निज स्वार्थ हित, फैलाते अँधियार।।
*
राहु-केतु पथ रोकते,बनें आप दीवार।
नहीं अधिग्रहण कर सकें, हटें विवश लाचार।।
*
अब तक ग्रहण किया सलिल, जो तूने दे बाँट
दुष्प्रभाव हर ग्रहण का, दूर करो झट छाँट।।
*
संग्रहणी का योग ही, सबसे सरल इलाज।
सद्गृहणी संयोग से, मिले राज बिन राज।।
*
योग-भोग सम भोग ही, तन-मन का संभोग।
मिलन आत्म-परमात्म का, दूर करे हर रोग।।
*
जोड़-घटाना व्यर्थ है, गुणा-भाग फलहीन।
योग मात्र संतोष है, पाकर रहें न दीन।।
*
२२-६-२०२०
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विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
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संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
२१-६-२०१९
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विमर्श:
योग दिवस...
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- योग क्या?
= जोड़ना, संचय करना.
- संचय क्या और क्यों करना?
= सृष्टि का निर्माण और विलय का कारक है 'ऊर्जा', अत: संचय ऊर्जा का... लक्ष्य ऊर्जा को रूपांतरित कर परम ऊर्जा तक आरोहण कर पाना.
- ऊर्जा संचय और योग में क्या संबंध है?
= योग शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को चैतन्य कर, उनकी वृद्धि करता है .फलत: नकारात्मकता का ह्रास होकर सकारात्मकता की वृद्धि होती है. व्यक्ति का स्वास्थ्य और चिंतन दोनों का परिष्कार होता है.
- योग धनाढ्यों और ढोंगियों का पाखंड है.
= योग के क्षेत्र में कुछ धनाढ्य और ढोंगी हैं. धनाढ्य होना अपराध नहीं है, ढोंगी होना और ठगना अपराध है. पहचानना और बचना अपनी जागरूकता और विवेक से ही संभव है, गेहूं के बोर में कुछ कंकर होने से पूरा गेहूं नहीं फेंका जा सकता. इसी तरह कुछ पाखंडियों के कारण पूरा योग त्याज्य नहीं हो सकता.
- दैनिक जीवन की व्यस्तता और समयाभाव के कारण योग करने नहीं जाया जा सकता.
= योग करने के लिए कहीं जाना नहीं है, न अलग से समय चाहिए. एक बार सीखने के बाद अभ्यास अपना काम करते हुए भी किया जा सकता है. कार्यालय, कारखाना, खेत, रसोई हर जगह योग किया जा सकता है, वह भी अपना काम करते-करते.
- योग कैसे कार्य करता है?
= योग मुद्राएँ शरीर की शिराओं में रक्त प्रवाह की गति को सुधरती हैं. मन को प्रसन्न करती है. फलत: थकान और ऊब समाप्त होती है. प्रसन्न मन काम करने पर परिणाम की मात्रा और गुण दोनों में वृद्धि होती है. इससे मिली प्रशंसा और सफलता अधिक अच्छा करने की प्रेरणा देती है.
- योग खर्ची ला है.
= नहीं योग बिन किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है. योग रोग घटाकर बचत कराता है.
- कैसे?
= योग से सही आसन सीख कर कार्य करते समय शरीर को सही स्थिति में रखें तो थकान कम होगी, श्वास-प्रश्वास नियमित हो तो रक्त प्रवाह की गति और उनमें ओषजन की मात्रा बढ़ेगी.फलत: ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता और सामर्थ्य में वृद्धि होगी.
- योग सिखाने वाले बाबा ढोंगी और विलासी होते हैं.
= निस्संदेह कुछ बाबा ऐसे हो सकते हैं. उन्हें छोड़कर सच्च्ररित्र प्रशिक्षक को चुना जा सकता है. दूरदर्शन, अंतरजाल आदि की मदद से बिना खर्च भी सीखा जा सकता है.
- योग और भोग में क्या अंतर है?
= योग और भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं. 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा', जीने के लिए अन्न, वस्त्र, मकान का भोग करना ही होगा. बेहतर जीवन स्तर और आपदा-प्रबंधन हेतु संचय भी करना होगा. राग और विराग का संतुलन और समन्वय ही 'सम्भोग' है. इसे केवल दैहिक क्रिया मानना भूल है. 'सम्भोग' की प्राप्ति में योग सहायक होता है. 'सम्भोग' से 'समाधि' अर्थात आत्म और परमात्म के ऐक्य की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. अत्यधिक योग और अत्यधिक भोग दोनों अतृप्ति, अरुचि और अंत में विनाश के कारण बनते हैं. 'योग; 'भोग' का प्रेरक और 'भोग' 'योग' का पूरक है.
- योग कौन कर सकता है?
= योग हर जीवित प्राणी कर सकता है. पशु-पक्षी स्वचेतना से प्रकृति अनुसार आचरण करते हैं जो योग है. मनुष्य में बुद्धितत्व की प्रधानता उसे सर्वार्थ से दूर कर स्वार्थ के निकट कर देती है. योग उसे आत्म तत्व के निकट ले जाकर ब्रम्हांश होने की प्रतीति कराता है. कंकर-कंकर में शंकर होने की अनुभूति होते ही वह सृष्टि के कण-कण से आत्मीयता अनुभव करता है. योग मौन से संवाद की कला है. बिन बोले सुनना-कहना और ग्रहण करना और बाँट देना ही सच्चा योग है.
- योग दिवस क्यों?
योग दिवस केवल स्मरण करने के लिए कि अगले योग दिवस तक योगरत रहकर अपने और सबके जीवन को बेहतर और प्रसन्नता पूर्ण बनाएँ.
२१.६.२०१८
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नवगीत
राम रे!
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राम रे!
कैसो निरदै काल?
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भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए
कामचोर बे कैते।
पसरे रैत ब्यास गादी पै
भगतन संग लपेटे।
काम पुजारी गीता बाँचें
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा।
अस्पताल मा घुसे कसाई
थाने अरना भैंसा।
करिया कोट कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल
राम रे !
लूट बजा रए गाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें
रिस रओ छप्पर-छानी।
दागी कर दई रौताइन की
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे
ठोंके आपन भाल
राम रे !
जीना भओ मुहाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
२१-६-२०१६
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गीत :
उड़ने दो…
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पर मत कतरो
उड़ने दो मन-पाखी को।
कहो कबीरा
सीख-सिखाओ साखी को...
*
पढ़ो पोथियाँ,
याद रखो ढाई आखर।
मन न मलिन हो,
स्वच्छ रहे तन की बाखर।
जैसी-तैसी
छोड़ो साँसों की चादर।
ढोंग मिटाओ,
नमन करो सच को सादर।
'सलिल' न तजना
रामनाम बैसाखी को...
*
रमो राम में,
राम-राम सब से कर लो।
राम-नाम की
ज्योति जला मन में धर लो।
श्वास सुमरनी
आस अंगुलिया संग चले।
मन का मनका,
फेर न जब तक सांझ ढले।
माया बहिना
मोह न, बांधे राखी को…
२१-६-२०१३
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