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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

विजया घनाक्षरी, क्षणिका, परिणाम अलंकार, मुक्तिका, नवगीत, दोहा, अक्षर गीत

  कार्य शाला

मुक्तिका १
वज़्न--212 212 212 212
*
गालिबों के नहीं कद्रदां अब रहे
शायरी लोग सोते हुए कर रहे
बोल जुमले; भुला दे सभी वायदे
जो हकीकत कही; आप भी डर रहे
जिंदगी के रहे मायने जो कभी
हैं नहीं; लोग जीते हुए मर रहे
ये निजामत झुकेगी तुम्हारे लिए
नौजवां गर न भागे; डटे मिल रहे
मछलियों ने मगर पर भरोसा किया
आसुओं की खता; व्यर्थ ही बह रहे
वेदना यातना याचना सत्य है
हुक्मरां बोलते स्वर्ग में रह रहे
ये सियासत न जिसमें सिया-सत रहा
खेलते राम जी किसलिए हैं रहे
***
मुक्तिका २
वज़्न--२१२ x ४
बह्रे - मुतदारिक़ मुसम्मन सालिम.
अर्कान-- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
क़ाफ़िया— "ए" (स्वर)
रदीफ़ --- हुए
*
मुक्तिका
कायदे जो कभी थे; किनारे हुए
फायदे जो मिले हैं; हमारे हुए
चाँद सोया रहा बाँह में रात भर
लाख गर्दिश मगर हम सितारे हुए
नफरतों से रही है मुहब्बत हमें
आप मानें न मानें सहारे हुए
हुस्न वादे करे जो निभाए नहीं
इश्किया लोग सारे बिचारे हुए
सर्दियाँ सर्दियों में बिगाड़ें गले
फायदेमंद यारां गरारे हुए
सर कटा तो कटा, तुम न मातम करो
जान लो; मान लो हम तुम्हारे हुए
धार में तो सदा लोग बहते रहे
हम बहे थे जहाँ वां किनारे हुए
***
उदाहरण
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में खुद को देखे हुए - शारिक़ कैफ़ी
गीत
1. कर चले हम फिदा जानो तन साथियों
2. खुश रहे तू सदा ये दुआ है मेरी
3. आपकी याद आती रही रात भर
4. गीत गाता हूँ मैं गुनगुनाता हूँ मैं
5. बेख़ुदी में सनम उठ गये जो क़दम
6. एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
7. हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम
8. आजकल याद कुछ और रहता नहीं
9. तुम अगर साथ देने का वादा करो
10. ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम
11. छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
■■■

अक्षर गीत

*
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गाएँ अक्षर गीत।
माँ शारद को नमस्कार कर
शुभाशीष पा हँसिए मीत।
स्वर :
'अ' से अनुपम; अवनि; अमर; अब,
'आ' से आ; आई; आबाद।
'इ' से इरा; इला; इमली; इस,
'ई' ईश्वरी; ईख; ईजाद।
'उ' से उषा; उजाला; उगना,
'ऊ' से ऊर्जा; ऊष्मा; ऊन।
'ए' से एड़ी; एक; एकता,
'ऐ' ऐश्वर्या; ऐनक; ऐन।
'ओ' से ओम; ओढ़नी; ओला,
'औ' औरत; औषधि; औलाद।
'अं' से अंक; अंग, अंगारा,
'अ': खेल-हँस हो फौलाद।
*
व्यंजन
'क' से कमल; कलम; कर; करवट,
'ख' खजूर; खटिया; खरगोश।
'ग' से गणपति; गज; गिरि; गठरी,
'घ' से घट; घर; घाटी; घोष।
'ङ' शामिल है वाङ्मय में
पंचम ध्वनि है सार्थक रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'च' से चका; चटकनी; चमचम,
'छ' छप्पर; छतरी; छकड़ा।
'ज' जनेऊ; जसुमति; जग; जड़; जल,
'झ' झबला; झमझम, झरना।
'ञ' हँस व्यञ्जन में आ बैठा,
व्यर्थ न लड़ना; करना प्रीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ट' टमटम; टब; टका; टमाटर,
'ठ' ठग; ठसक; ठहाका; ठुमरी।
'ड' डमरू; डग; डगर; डाल; डफ,
'ढ' ढक्कन; ढोलक; ढल; ढिबरी।
'ण' कण; प्राण; घ्राण; तृण में है
मन लो जीत; तभी है जीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'त' तकिया; तबला; तसला; तट,
'थ' से थपकी; थप्पड़; थान।
'द' दरवाजा; दवा, दशहरा,
'ध' धन; धरा; धनुष; धनवान।
'न' नटवर; नटराज; नगाड़ा,
गिर न हार; उठ जय पा मीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'प' पथ; पग; पगड़ी; पहाड़; पट,
'फ' फल; फसल; फलित; फलवान।
'ब' बकरी; बरतन, बबूल; बस,
'भ' से भवन; भक्त; भगवान।
'म' मइया; मछली; मणि; मसनद,
आगे बढ़; मत भुला अतीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'य' से यज्ञ; यमी-यम; यंत्री,
'र' से रथ; रस्सी; रस, रास।
'ल' लकीर; लब; लड़का-लड़की;
'व' से वन; वसंत; वनवास।
'श' से शतक; शरीफा; शरबत,
मीठा बोलो; अच्छी नीत।
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
*
'ष' से षट; षटकोण; षट्भुजी,
'स' से सबक; सदन; सरगम।
'ह' से हल; हलधर; हलवाई,
'क्ष' क्षमता; क्षत्रिय; क्षय; क्षम।
'त्र' से त्रय, त्रिभुवन; त्रिलोचनी,
'ज्ञ' से ज्ञानी; ज्ञाता; ज्ञान।
'ऋ' से ऋषि, ऋतु, ऋण, ऋतंभरा,
जानो पढ़ो; नहीं हो भीत
अक्षर स्वर-व्यंजन सुन-पढ़-लिख
आओ! गायें अक्षर गीत।
२९-३० नवंबर २०२०
***
दोहा सलिला
भौजी सरसों खिल रही, छेड़े नंद बयार।
भैया गेंदा रीझता, नाम पुकार पुकार।।
समय नहीं; हर किसी पर, करें भरोसा आप।
अपना बनकर जब छले, दुख हो मन में व्याप।।
उसकी आए याद जब, मन जा यमुना-तीर।
बिन देखे देखे उसे, होकर विकल अधीर।।
दाँत दिए तब थे नहीं, चने हमारे पास।
चने मिले तो दाँत खो, हँसते हम सायास।।
पावन रेवा घाट पर, निर्मल सलिल प्रवाह।
मन को शीतलता मिले, सलिला भले अथाह।।
हर काया में बसा है, चित्रगुप्त बन जान।
सबसे मिलिए स्नेह से, हम सब एक समान।।
*
मुझमें बैठा लिख रहा, दोहे कौन सुजान?
लिखता कोई और है, पाता कोई मान।।
३०.११.२०१९
***
कुछ शब्दार्थ
अंतरंग = अतिप्रिय
अंबर = आकाश
अंभोज = कमल
अंशुमाली = सूर्य
अक्षत = अखंड, पूर्ण
अक्षय = शिव
अक्षर = आत्मा,
अच्युत = ईश्वर
अतिस्वन = सुपर सोनिक
अतीन्द्रिय = आत्मा
अद्वितीय = अनुपम
अनंत = ईश्वर
अनुभव = प्रत्यक्ष ज्ञान
अन्वेषक = आविष्कारक
अपराजित = जिसे हराया नहीं जा सका, ईश्वर
अपरिमित = बहुत अधिक
अभिजीत = विजय दिलानेवाला,
अभिधान = नाम, उपाधि
अभिनंदन = स्वागत, सम्मान
अभिनव = नया
अमर = अविनाशी
अमिताभ = सूर्य
अमृत = मृत्यु से बचानेवाला
अमोघ = अचूक
अरुण = सूर्य
अर्चित = पूजित
अलौकिक - अद्भुत
अवतंस = श्रेष्ठ व्यक्ति
अवतार = ईश्वर का जन्म
अवनींद्र = राजा
अवसर = मौका
अविनाश = अमर
अव्यक्त = ब्रह्म
अशोक = शोक रहित
अशेष = संपूर्ण
अश्वत्थ = पीपल, जिसमें
अश्विनी = प्रथम नक्षत्र
असीम = सीमाहीन
अभियान = विष्णु
*
ॐ = ईश्वर
ओंकार = गणेश
ओंकारनाथ = शिव
ओजस्वी = तेजस्वी, प्रभावकारी
ओषधीष = चन्द्रमा,
ओजस = कांतिवाला, चमकनेवाला
ओदन = बादल
दोहा 
मिल बैठा गपशप हुई, खिंचे अनेकों चित्र
चर्चा कर मन खुश हुआ, विहँसे भाई सुमित्र
*
राम दीप बाती सिया, तेल भक्ति हनुमान।
भरत ज्योति तीली लखन, शत्रुघ्न उजाला जान।।
***
घनाक्षरी
*
चलो कुछ काम करो, न केवल नाम धरो,
उठो जग लक्ष्य वरो, नहीं बिन मौत मरो।
रखो पग रुको नहीं, बढ़ो हँस चुको नहीं,
बिना लड़ झुको नहीं, तजो मत पीर हरो।।
गिरो उठ आप बढ़ो, स्वप्न नव नित्य गढ़ो,
थको मत शिखर चढ़ो, विफलता से न डरो।
न अपनों को ठगना, न सपनों को तजना,
न स्वारथ ही भजना, लोक हित करो तरो।।
*
विजया घनाक्षरी
राम कहे राम-राम, सिया कैसे कहें राम?,
होंठ रहे मौन थाम, नैना बात कर रहे।
मौन बोलता है आज, न अधूरा रहे काज,
लाल गाल लिए लाज, नैना घात कर रहे।।
हेर उर्मिला-लखन, देख द्वंद है सघन,
राम-सिया सिया-राम, बोल प्रात कर रहे।
श्रुतिकीर्ति-शत्रुघन, मांडवी भरत हँस,
जय-जय सिया-राम मात-तात कर रहे।।
३०.११.२०१८
***
क्षणिका
मन में क्या है?
कौन कहे?
बेहतर है
मौन रहे.
*
शिकवों-शिकायतो ने कहा
हाले-दिल सनम.
लब सिर्फ़ मुस्कुराते रहे,
आँख थी न नम.
कानों में लगी रुई ने किया
काम ही तमाम-
हम ही से चूक हो गई
फ़ोड़ा नहीं जो बम.
.
उस्ताद अखाड़ा नहीं,
दंगल हुआ?, हुआ.
बाकी ने वृक्ष एक भी,
जंगल हुआ? हुआ.
दस्तूरी जमाने का अजब,
गजब ढा रहा-
हाय-हाय कर कहे
मंगल हुआ? हुआ.
*
घर-घर में गान्धारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
करती न रफ़ू आरियाँ हैं,
कोई क्या करे?
कुन्ती, विदुर न धर्मराज
शेष रहे हैं-
शकुनी-अशेष पारियाँ हैं,
कोई क्या करे?
३०.११.२०१७
***
अलंकार सलिला ३६
परिणाम अलंकार
*
*
हो अभिन्न उपमेय से, जहाँ 'सलिल' उपमान.
अलंकार परिणाम ही, कार्य सके संधान..
जहाँ असमर्थ उपमान उपमेय से अभिन्न रहकर किसी कार्य के साधन में समर्थ होता है, वहाँ परिणाम अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. मेरा शिशु संसार वह दूध पिये परिपुष्ट हो।
पानी के ही पात्र तुम, प्रभो! रुष्ट व तुष्ट हो।।
यहाँ संसार उपमान शिशु उपमेय का रूप धारण करने पर ही दूध पीने में समर्थ होता है, इसलिए परिणाम अलंकार है।
२. कर कमलनि धनु शायक फेरत।
जिय की जरनि हरषि हँसि हेरत।।
यहाँ पर कमल का बाण फेरना तभी संभव है, जब उसे कर उपमेय से अभिन्नता प्राप्त हो।।
३. मुख चन्द्र को / मनुहारते हम / पियें चाँदनी।
इस हाइकु में उपमान चंद्र की मनुहार तभी होगी जब वह उपमान मुख से अभिन्न हो।
४. जनप्रतिनिधि तस्कर हुए, जनगण के आराध्य।
जनजीवन में किस तरह, शुचिता हो फिर साध्य?
इस दोहे में तस्कर तभी आराध्य हो सकते हैं जब वे जनप्रतिनिधि से अभिन्न हों।
५. दावानल जठराग्नि का / सँग साँसों की लग्निका / लगन बन सके भग्निका।
इस जनक छंद में दावानल तथा जठराग्नि के अभिन्न होने पर ही लगन-शर्म इसे भग्न कर सकती है। अत:, परिणाम अलंकार है।
३०.११.२०१५
***
नवगीत:
नयन झुकाये बैठे हैं तो
मत सोचो पथ हेर रहे हैं
*
चहचह करते पंछी गाते झूम तराना
पौ फटते ही, नहीं ठण्ड का करें बहाना
सलिल-लहरियों में ऊषा का बिम्ब निराला
देख तृप्त मन डूबा खुद में बन बेगाना
सुन पाती हूँ चूजे जगकर
कहाँ चिरैया? टेर रहे हैं
*
मोरपंख को थाम हाथ में आँखें देखें
दृश्य अदेखे या अतीत को फिर-फिर लेखें
रीती गगरी, सूना पनघट,सखी-सहेली
पगडंडी पर कदम तुम्हारे जा अवरेखें
श्याम लटों में पवन देव बन
श्याम उँगलियाँ फेर रहे हैं
*
नील-गुलाबी वसन या कि है झाँइ तुम्हारी
जाकर भी तुम गए न मन से क्यों बनवारी?
नेताओं जैसा आश्वासन दिया न झूठा-
दोषी कैसे कहें तुम्हें रणछोड़ मुरारी?
ज्ञानी ऊधौ कैसे समझें
याद-मेघ मिल घेर रहे हैं?

***

नवगीत:

अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०.११.२०१४

***

गीत:

हर सड़क के किनारे
*
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।
बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का ।
साध्य-साधन मलिन, मंजु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
३०.११.२०१२
***

गुरुवार, 23 नवंबर 2023

सॉनेट, एकादशी, सरस्वती, मालवी, ब्रज, लघुकथा, गीत, मुक्तक

सॉनेट
एकादशी
एकादशी एकता लाए,
एक-एक ग्यारह होते हैं,
अगर न हों, हम सुख खोते हैं,
मैं-तुम प्रेमामृत पी पाए।
मत अद्वैत द्वैत बिसराए,
हँसे तभी जब मन रोते हैं,
सुख दुख में खाते गोते हैं,
अपरा-परा साथ जी जाए।

जले दीप से दीप निरंतर,
दीपमालिका होती तब ही,
तब ही धनतेरस मनती है।
नर्क मुक्त हो तब अभ्यंकर,

गोवर्धन हरियाए तब ही,
एकादशी बुद्धि जनती है।
गन्ना ग्यारस
२३.११.२०२३
•••
सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!
आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर
आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का
आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्य-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
●●●
सरस्वती स्तवन
मालवी
*
उठो म्हारी मैया जी
उठो म्हारी मैया जी, हुई गयो प्रभात जी।
सिन्दूरी आसमान, बीत गयी रात जी।
फूलां की सेज मिली, गेरी नींद लागी थी।
भाँत-भाँत सुपनां में, मोह-कथा पागी थी।
साया नी संग रह्या, बिसर वचन-बात जी
बांग-कूक काँव-काँव, कलरव जी जुड़ाग्या।
चीख-शोर आर्तनाद, किलकिल मन टूट रह्या।
छंद-गीत नरमदा, कलकल धुन साथ जी
राजहंस नीर-छीर, मति निरमल दीजो जी।
हात जोड़, शीश झुका, विनत नमन लीजो जी।
पाँव पडूँ लाज रखो, रो सदा साथ जी
***
मात सरस्वती वीणापाणी
मात सरस्वती वीणापाणी, माँ की शोभा न्यारी रे!
बाँकी झाँकी हिरदा बसती, यांकी छवि है प्यारी रे!
वेद पुराण कहानी गाथा, श्लोक छंद रस घोले रे!
बालक-बूढ़ा, लोग-लुगाई, माता की जय बोले रे !
मैया का जस गान करी ने, शब्द-ब्रह्म पुज जावे रे
नाद-ताल-रस की जै होवे, छंद-बंद बन जावे रे!
आल्हा कजरी राई ठुमरी, ख्याल भजन रच गांवां रे!
मैया का आशीष शीश पर, आसमान का छांवा रे!
***
सरस्वती स्तवन
बृज
*
मातु! सुनौ तुम आइहौ आइहौ,
काव्य कला हमकौ समुझाइहौ।
फेर कभी मुख दूर न जाइहौ
गीत सिखाइहौ, बीन बजाइहौ।
श्वेत वदन है, श्वेत वसन है
श्वेत लै वाहन दरस दिखाइहौ।
छंद सिखाइहौ, गीत सुनाइहौ,
ताल बजाइहौ, वाह दिलाइहौ।
*
सुर संधान की कामना है मोहे,
ताल बता दीजै मातु सरस्वती।
छंद की; गीत की चाहना है इतै,
नेकु सिखा दीजै मातु सरस्वती।
आखर-शब्द की, साधना नेंक सी
रस-लय दीजै मातु सरस्वती।
सत्य समय का; बोल-बता सकूँ
सत-शिव दीजै मातु सरस्वती।
*
शब्द निशब्द अशब्द कबै भए,
शून्य में गूँज सुना रय शारद।
पंक में पंकज नित्य खिला रय;
भ्रमरों लौं भरमा रय शारद।
शब्द से उपजै; शब्द में लीन हो,
शब्द को शब्द ही भा रय शारद।
ताल हो; थाप हो; नाद-निनाद हो
शब्द की कीर्ति सुना रय शारद।
२२-११-२०१९
***
लघुकथा
बदलाव का मतलब
*
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचरण, लगातार बढ़ते कर और मँहगाई, संवेदनहीन प्रशासन और पूंजीपति समर्थक नीतियों ने जीवन दूभर कर दिया तो जनता जनार्दन ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर सत्ताधारी दल को चारों खाने चित्त कर विपक्षी दल को सत्तासीन कर दिया।
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में निरंतर पेट्रोल-डीजल की कीमत में गिरावट के बावजूद ईंधन के दाम न घटने, बीच सत्र में अधिनियमों द्वारा परोक्ष कर वृद्धि और बजट में आम कर्मचारी को मजबूर कर सरकार द्वारा काटे और कम ब्याज पर लंबे समय तक उपयोग किये गये भविष्य निधि कोष पर करारोपण से ठगा अनुभव कर रहे मतदाता को समझ ही नहीं आया बदलाव का मतलब।
​३-३-२०१६ ​
***
गीत:
किरण कब होती अकेली…
*
किरण कब होती अकेली?
नित उजाला बाँटती है
जानती है सूर्य उगता और ढलता,
उग सके फिर
सांध्य-बेला में न जगती
भ्रमित होए तिमिर से घिर
चन्द्रमा की कलाई पर,
मौन राखी बाँधती है
चाँदनी भेंटे नवेली
किरण कब होती अकेली…
*
मेघ आच्छादित गगन को
देख रोता जब विवश मन
दीप को आ बाल देती,
झोपड़ी भी झूम पाए
भाई की जब याद आती,
सलिल से प्रक्षाल जाए
साश्रु नयनों से करे पुनि
निज दुखों का आचमन
वेदना हो प्रिय सहेली
किरण कब होती अकेली…
*
पञ्च तत्वों में समाये
पञ्च तत्वों को सुमिरती
तीन कालों तक प्रकाशित
तीन लोकों को निहारे
भाईचारा ही सहारा
अधर शाश्वत सच पुकारे
गुमा जो आकार हो साकार
नभ को चुप निरखती
बुझती अनबुझ पहेली
किरण कब होती अकेली…
२२-११-२०१६
*
मुक्तक
काैन किसका सगा है
लगता प्रेम पगा है
नेह नाता जाे मिला
हमें उसने ठगा है
*
दिल से दिल की बात हो
खुशनुमा हालात हो
गीत गाये झूमकर
गून्जते नग्मात हो
२३-११-२०१४
***

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

मुक्तक, दोहा, नवगीत, यमक

मुक्तक

परिंदों ने किया कलरव सुन तुम्हारी हँसी निर्मल
निर्झरों की तरंगों ने की नकल तो हुई कलकल
ज़िन्दगी हँसती रहे कर बंदगी चाहा खुदा से
मिटेगा दुःख का प्रदूषण रहो हँसते 'सलिल' पल-पल
७.११.२०१९
मुक्तक
'समझ लेंगे' मिली धमकी बताओ क्या करें हम?
समर्पण में कुशल है, रहेंगे संबंध कायम
कहो सबला या कि अबला, बला टलती नहीं है
'सलिल' चाहत बिना राहत कभी मिलती नहीं है
७.११.`०१६
***
रसानंद दे छंद नर्मदा :५
दोहा की छवियाँ अमित
- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
दोहा की छवियाँ अमित, सभी एक से एक ।
निरख-परख रचिए इन्हें, दोहद सहित विवेक ।।

रम जा दोहे में तनिक, मत कर चित्त उचाट ।
ध्यान अधूरा यदि रहा, भटक जायेगा बाट ।।

दोहा की गति-लय पकड़, कर किंचित अभ्यास ।
या मात्रा गिनकर 'सलिल', कर लेखन-अभ्यास ।।

दोहा छंद है शब्दों की मात्राओं के अनुसार रचा जाता है। इसमें दो पद (पंक्ति) तथा प्रत्येक पद में दो चरण (विषम १३ मात्रा तथा सम) होते हैं. चरणों के अंत में यति (विराम) होती है। दोहा के विषम चरण के आरम्भ में एक शब्द में जगण निषिद्ध है। विषम चरणों में कल-क्रम (मात्रा-बाँट) ३ ३ २ ३ २ या ४ ४ ३ २ तथा सम चरणों में ३ ३ २ ३ या ४ ४ ३ हो तो लय सहज होती है, किन्तु अन्य निषिद्ध नहीं हैं।संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सार्थकता, मर्मबेधकता तथा सरसता उत्तम दोहे के गुण हैं। 

कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य ।
गति-यति नौ गुण नौलखा, दोहा हो आदित्य ।।

डॉ. श्यामानन्द सरस्वती 'रौशन', खडी हिंदी
दोहे में अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद।
ज्यों गुलाब में रूप-रस. गंध और मकरंद ।।

रामनारायण 'बौखल', बुंदेली
गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय ।
चित चकमक लागे नहीं, याते बुझ-बुझ जाय ।।

मृदुल कीर्ति, अवधी
कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी वृन्द ।
सरल, सरस, रुचिकर,गहन, कविवर को वर छंद ।।

सावित्री शर्मा, बृज भाषा
शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ ।
होने लगे विकार सब, ज्ञान यज्ञ में होम ।।

शास्त्री नित्य गोपाल कटारे, संस्कृत
वृक्ष-कर्तनं करिष्यति, भूत्वांधस्तु भवान् ।
पदे स्वकीये कुठारं, रक्षकस्तु भगवान् ।।

ब्रम्हदेव शास्त्री, मैथिली
की हो रहल समाज में?, की करैत समुदाय?
किछु न करैत समाज अछि, अपनहिं सैं भरिपाय ।।

डॉ. हरनेक सिंह 'कोमल', पंजाबी
पहलां बरगा ना रिहा, लोकां दा किरदार।
मतलब दी है दोस्ती, मतलब दे ने यार।।

बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५)
कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु ।
ए दुई नैना मत छुहऊ, पिऊ देखन कि आसु ।।

दोहा के २३ प्रकार लघु-गुरु मात्राओं के संयोजन पर निर्भर हैं।

गजाधर कवि, दोहा मंजरी
भ्रमर सुभ्रामर शरभ श्येन मंडूक बखानहु ।
मरकत करभ सु और नरहि हंसहि परिमानहु ।।
गनहु गयंद सु और पयोधर बल अवरेखहु ।
वानर त्रिकल प्रतच्छ, कच्छपहु मच्छ विसेखहु ।।
शार्दूल अहिबरहु व्यालयुत वर विडाल अरु.अश्व्गनि ।
उद्दाम उदर अरु सर्प शुभ तेइस विधि दोहा करनि ।।
*
दोहा के तेईस हैं, ललित-ललाम प्रकार ।
व्यक्त कर सकें भाव हर, कवि विधि के अनुसार ।।

भ्रमर-सुभ्रामर में रहें, गुरु बाइस-इक्कीस ।
शरभ-श्येन में गुरु रहें, बीस और उन्नीस ।।

रखें चार-छ: लघु सदा, भ्रमर सुभ्रामर छाँट ।
आठ और दस लघु सहित, शरभ-श्येन के ठाठ ।।

भ्रमर- २२ गुरु, ४ लघु=४८
बाइस गुरु, लघु चार ले, रचिए दोहा मीत ।
भ्रमर सद्रश गुनगुन करे, बना प्रीत की रीत ।।

सांसें सांसों में समा, दो हो पूरा काज ।
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज ?

सुभ्रामर - २१ गुरु, ६ लघु=४८
इक्किस गुरु छ: लघु सहित, दोहा ले मन मोह ।
कहें सुभ्रामर कवि इसे, सह ना सकें विछोह ।।

पाना-खोना दें भुला, देख रहा अज्ञेय ।
हा-हा,ही-ही ही नहीं, है सांसों का ध्येय ।।

शरभ- २० गुरु, ८ लघु=४८
रहे बीस गुरु आठ लघु का उत्तम संयोग ।
कहलाता दोहा शरभ, हरता है भव-रोग ।।

हँसे अंगिका-बज्जिका, बुन्देली के साथ ।
मिले मराठी-मालवी, उर्दू दोहा-हाथ ।।

श्येन- १९ गुरु, १० लघु=४८
उन्निस गुरु दस लघु रहें, श्येन मिले शुभ नाम ।
कभी भोर का गीत हो, कभी भजन की शाम ।।

ठोंका-पीटा-बजाया, साधा सधा न वाद्य ।
बिना चबाये खा लिया, नहीं पचेगा खाद्य ।।

मंडूक- १८ गुरु, १२ लघु=४८
अट्ठारह-बारह रहें, गुरु-लघु हो मंडूक।
अड़तालीस आखर गिनें, कहे कोकोल कूक।। 

दोहा में होता सदा, युग का सच ही व्यक्त ।
देखे दोहाकार हर, सच्चे स्वप्न सशक्त ।।

मरकत- १७ गुरु, १४ लघु=४८
सत्रह-चौदह से बने, मरकत करें न चूक ।।
निराकार-निर्गुण भजै, जी में खोजे राम ।

गुप्त चित्र ओंकार का, चित में रख निष्काम ।।
दोहा के शेष प्रकारों पर फिर कभी विचार करेंगे।
===
***
नवगीत:
*
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
*
केर-बेर खों संग
बिधाता हेरें
मुंडी थाम.
दोउन खों
प्यारी है कुर्सी
भली करेंगे राम.
उंगठा छाप
लुगाई-मोंड़ा
सी एम - दावेदार।
पिछड़ों के
हम भये मसीहा
अगड़े मरें तमाम।
बात नें मानें जो
उनखों जुटे के तले मलें
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
सहें न तिल भर
कोसें दिन भर
पीड़ित तबहूँ हम.
अपनी लाठी
अपन ई भैंसा
लैन न देंहें दम.
सहनशीलता
पाठ पढ़ायें
खुद न पढ़ें, लो जान-
लुच्चे-लोफर
फूंके पुतला
रोको तो मातम।
देस-हितों से
का लेना है
कैसउ ताज मिले.
ताहू पे शिकवा
ऊगे से पैले
भोर ढले.
एक हाथ मा
छुरा छिपा
दूजे से मिले गले
*
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
७.११.२०१५
***
प्रयोगात्मक यमकीय दोहे:
*
रखें नोटबुक निज नहीं, कलम माँगते रोज
नोट कर रहे नोट पर, क्यों करिये कुछ खोज
*
प्लेट-फॉर्म बिन आ रहे, प्लेटफॉर्म पर लोग
है चुनाव बन जायेगा, इस पर भी आयोग
*
हुई गर्ल्स हड़ताल क्यों?, पूरी कर दो माँग
'माँग भरो' है माँग तो, कौन अड़ाये टाँग?
*
एग्रीगेट कर लीजिये, एग्रीगेट का आप
देयक तब ही बनेगा, जब हो पूरी माप
एग्रीगेट = योग, गिट्टी
*
फेस न करते फेस को, छिपते फिरते नित्य
बुक न करे बुक फुकटिया, पाठक सलिल अनित्य
*
सर! प्राइज़ किसको मिला, अब तो खोलें राज
सरप्राइज़ हो खत्म तो, करें शेष जो काज
*

पर्पल पेन

 

'पर्पल पेन' समूह दिल्ली की एक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था है, जो वर्ष 2015 से सतत साहित्य सेवा में जुटी है। काव्य गोष्ठियों एवं दैनिक लिखित आयोजनों के अतिरिक्त समूह समय-समय पर प्रतियोग्यताएँ भी आयोजित कर रहा है। समूह की ओर से गत आठ वर्ष में लगभग पैंसठ ज़मीनी कार्यक्रम किये गए जो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, प्रेस क्लब, मालवीय भवन, हिन्दी भवन, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नेहरू युवा केंद्र जैसी मशहूर जगहों पर किये गए।  पिछले आठ वर्षों में पर्पल पेन समूह ने छह साझा काव्य संग्रह प्रकाशित किये जिनमें से तीन -- काव्य सुरभि, किसलय और परिमल -- नवांकुरों के प्रोत्साहन हेतु नि:शुल्क प्रकाशित किये गए। अन्य तीन -- काव्याक्षर, अक्षरम् तथा कौस्तुभ -- समूह के सदस्यों के आग्रह पर अल्प आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुए। इन छह साझा संग्रहों के अलावा पर्पल पेन सदस्यों के लगभग एक दर्जन एकल संग्रहों को भी अपने मंच से लोकार्पित कर चुका है। इनमें से अधिकतर की यह पहली पुस्तक थी। साहित्य के अतिरिक्त हम समाज और देश के प्रति भी समर्पित भाव से अपनी श्रद्धांजलि कई प्रकल्पों के माध्यम से देते रहते हैं। इनमें पर्पल पेन बैनर के तले पुस्तक तथा लेखन सामग्री/खिलौने/खाद्य सामग्री वितरण, फौजियों को राखियां भेजना तथा राष्ट्रीय पर्वों पर तिरंगा बैज वितरण प्रमुख हैं।

समूह के सदस्यों एवं अन्य कविगण को भारत की परंपरा और धरोहर (हस्तकला, वास्तुकला, आदि) से परिचय कराने के उद्देश्य से 'पर्पल पेन हेरिटेज वॉक' आयोजित की जाती हैं। सर्दियों में लोधी गार्डन, जंतर मंतर, हुमायूं के मकबरे, जैसे खुले स्थानों पर भी हम काव्य गोष्ठियां करते रहे हैं जहाँ देशी और विदेशी पर्यटक भी कविताओं का आनंद लेते रहे हैं। लोकगीत, संगीत और लोक संस्कृति के संवर्धन एवं पुनः प्रवर्तन के लिए महिला सदस्यों के साथ 'तीज उत्सव' जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं जहाँ महिलाएं पारम्परिक वेशभूषा, श्रृंगार, आदि पहना कर लोकगीत-संगीत की प्रस्तुति देती हैं।

उत्सव 'जश्न-ए-अल्फ़ाज़' सहित अन्य कार्यक्रमों में अब तक करीब डेढ़ सौ से अधिक सम्मान (ट्रॉफी, मोमेंटो, सम्मान प्रतीक) साहित्यकारों, कलाकारों, समाजसेवियों, पर्यावरणविदों, मीडियकर्मियों आदि को प्रदान किये जा चुके हैं। इनमें साहित्य शिल्पी सम्मान, साहित्य कौस्तुभ सम्मान, साहित्य प्रसून, साहित्य केतु, साहित्य साधक सम्मान, साहित्य सेवी सम्मान, तेजस्विनी सम्मान, साहित्य श्री सम्मान, साहित्य प्रहरी सम्मान, कला श्री सम्मान प्रमुख हैं। कोविड के समय ऑनलाइन आयोजन और प्रशस्ति पत्र इनसे अलग हैं।

समूह साहित्य के प्रचार-प्रसार, देश और समाज सेवा के साथ भाषा उन्नयन के लिए भी प्रतिबद्ध है। हिन्दी दिवस पर प्रतियोगिताएं आयोजित कर सभी को हिन्दी तथा अपनी मातृ भाषा बोलने/लिखने के लिए प्रेरित करता है। (लेकिन हम अंग्रेजी के विरोधी नहीं हैं। हमारा मानना है की हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा को किसी विदेशी भाषा से कोई ख़तरा हो ही नहीं सकता। आवशयकता है दोनों के व्यावहारिक प्रयोग की और हिन्दी को कमतर न ममझने की। हिन्दी में अत्यंत क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग युवाोँ को इससे विमुख कर रहा है।) समूह की गतिविधियों के इस परिचय के उपरांत मैं आपको बताते हुए हर्षित हूँ की आगामी दिसंबर में हम अपने नवम स्थापना दिवस और अष्टम वार्षिक उत्सव मनाने जा रहे हैं।
*

ॐ 
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर 
समन्वय प्रकाशन जबलपुर 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संस्थापक-संयोजक

प्रिय वसुधा जी!  
                  सादर भारत-भारती । 

                 दिलवालों की दिल्ली में सतत साहित्यिक अलख जलाए रखनेवाली संस्था 'पर्पल पेन' किशोर हो रही है। इससे पूर्व के चरण चलना सीखने, चलने, बढ़ने और खुद को गढ़ने के रहे हैं। इसी मध्य पर्पल पेन ने 'पूत के पाँव पालने में दीखते हैं' कहावत को चरितार्थ करते हुए नव पीढ़ी की आवश्यकतानुसार भारत की भाषा को रूप देने की कोशिश की। एक ऐसी भाषा जो गत और आगत के बीच पुल बनती हो, जिसमें अतीत से लोक में व्याप्त ग्रामीण बोलियों, विद्वज्जनों से संस्कृत, आम लोगों से उर्दू और आधुनिक शिक्षा हेतु आवश्यक अंग्रेजी के शब्दों का सारगर्भित उपयोग हो।, भाषा जो बनावटी नहीं, स्वाभाविक-सरल-सहज हो। मेरा मत है- 

हिंदी आटा माढ़ लें, देशज मोयन डाल। 
'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।। 

                 भाषिक संस्कार हेतु प्रतियोगिताओं और प्रकाशनों के माध्यम से नवोदितों को प्रोत्साहित किया जाना अनुकरणीय गतिविधि है। इसके साथ-साथ हस्तकला, वास्तुकला और जश्ने अल्फ़ाज़ जैसे अनुष्ठानों से 'पर्पल पेन' ने अपनी बहु आयामी दूर दृष्टि का परिचय दिया है। मेरा निवेदन है कि पर्यावरण और परिवेश की शुद्धता की ओर भी 'पर्पल पेन' का ढेन जाए। 

जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्योहार। 
'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

                 'पर्पल पेन' में प्राण शक्ति का संचार कर आपने एक मिसाल कायम कहै। मैं आपका और सभी सदस्यों का अभिनंदन करते हुए सबके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।  

शुभाकांक्षी

 


संजीव वर्मा 'सलिल'