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शनिवार, 18 नवंबर 2023

सूर्यास्त गीत, शांत, समीक्षा, मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत,

नर्मदा-बंजर नदियों का संगम, सूर्यास्त
गीत
*
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
नेह-नर्मदा अरुणाई से
बिन बोले ही सजा गया।
*
सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी।
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी।
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे
मिलनातुर मन कहाँ गया?
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार।
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार।
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा।
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा।
सहस किरण-कर में बाँधे
भुजपाश पहन पहना गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक।
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक।
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा,
सखियों के मन भा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता।
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता।
जीवन जी मत नाहक भरमा
खुद को खो खुद पा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
१८.११.२०२१
***
***
कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहार जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१८.११.२०१९
===
***दोहा सलिला
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
*
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप.
लगा, दिखाते नासमझ अपनो पर ही कोप.
*
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान.
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान.
*
बना बतंगड़ बात का, उडी खूब अफवाह
बना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
*
यह प्रसंग है ही नहीं, झूठ रहा है फ़ैल
अपने चेहरे मल रहे, झूठे खुद ही मैल
१८.११.२०१७
***
मुक्तक
मन पर वश किसका चला ?
किसका मन है मौन?
परवश होकर भी नहीं
परवश कही कौन?
*
संयम मन को वश करे,
जड़ का मन है मौन
परवश होकर भी नहीं
वश में पर के भौन
***

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
१८.११.२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
१८.११.२०१५
...
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८.११.२०१४
***
एक दोहा
सुमन सदृश जो महकते, उन पर सलिल निसार
दोहा-दोहा दमकता, दीपित दिया उदार
१८.११.२०१३
।***
। श्रृद्धांजलि: बाल केशव ठाकरे ।।
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...
संजीव 'सलिल'
========
कर जोड़ो शीश झुकाओ रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा...
वह वह नेता जन-मन को प्रिय था,
वह मजदूरों में सक्रिय था।
उसके रहते कुछ कदम थमे-
आतंकवाद कुछ निष्क्रिय था।।
अब सम्हलो, चेतो, जागो रे!
महाराष्ट्र-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...

वह शिव सेना का नायक था,
वह व्यंग्यचित्र-शर धारक था।
हर शब्द तीक्ष्ण शर मारक था-
चिर-कुंठित का उद्धारक था।।
था प्रखर-मुखर, सर्वोच्च शिखर-
कार्टून-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व-केसरी नहीं रहा...

सरकारों का निर्माता था,
मुम्बई का भाग्य-विधाता था।
धर्मांध सियासत का अरि था-
मजहबी रोग का त्राता था।।
निज गौरव के प्रति जागरूक
इंसान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
उसके इंगित पर शिव सैनिक ,
तूफानों से टकराते थे।
उसकी दहाड़ सुन दिल्लीपति-
संकुचाते थे, शर्माते थे।।
मुंबई का बेटा! भूमि-पुत्र!!
बलिदान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
उसने सत्ता को ठुकराया,
पद-मोह न बाँध उसे पाया।
उन चुरुट दबाये अधरों का-
चीता सा दिल था सरमाया।।
दुर्बल काया, दृढ़ अंतर्मन-
अरमान-केसरी नहीं रहा,
हिंदुत्व केसरी नहीं रहा...
१८.११.२०१२
***

राजीव थेपरा दीप्ति गुप्ता, समीक्षा, उपन्यास

पुस्तक चर्चा- 
उपन्यास देवयानी : "स्त्री-पुरुष" के रिश्ते की मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक व्याख्या  
- राजीव थेपरा 
*
                         दर्द का हद से ज्यादा गुजर जाना भी जीवन को गहरा बनाता है, प्रेम के एहसास को दरिया बनाता है और प्रेम की अनुभूतियों को और भी ज्यादा सघन बनाता हुआ प्रेम को एक उच्चतर आयाम तक पहुंचाता है। लेकिन यह भी तभी संभव है, जब व्यक्ति उस तल का हो। यानी कि व्यक्ति में समय और परिस्थितियों के मुताबिक वह समझ विकसित होती चली जाए, जबकि वह दर्द के तमाम एहसासात को अपने भीतर बहुत ही गहराई तक महसूस करता हुआ अपने भीतर घनीभूत हुए उस "आत्म" को महसूस कर सके, जो उसके भीतर सदा से रूहानी है! और सच यह भी है कि कुछ एक विरले लोग ही ऐसा कर पाने में सक्षम होते हैं। ऐसा ही एक सक्षम व्यक्तित्व हजारों शब्दों की अभिव्यक्ति के द्वारा मुझ में से होकर गुजरा है, वह है - दीप्ति गुप्ता के उपन्यास की नायिका देवयानी। अगर मैं कहूँ कि दर्द का एक दूसरा नाम देवयानी, तो अत्युक्ति न होगी।

                         देवयानी नाम यूँ तो एक उपन्यास का है, जिसकी नायिका देवयानी है, जिसके जीवन के प्रथमार्ध में जिस प्रकार एक अजस्र प्रेम किसी अविरल बहती हुई, अथाह पानी से भरी हुई गंगा के रूप में आता है और तकरीबन 20 वर्षों तक यह अविरल प्रेम मनुज और देवयानी के हृदय को अपनी अनन्त ऊष्मा और ऊर्जा से तरंगायित कर, अचानक इस प्रकार विदा होता है, जैसे वह कभी था ही नहीं! तो पहले प्रेम, फिर पूरी तरह कानूनी धरातल पर विछोह, जिसके चलते फिर से एक-दूसरे का होने की कोई उम्मीद की किरण ही नहीं बचती। आगे अब क्या होगा....नायिका देवयानी अकेली दो बच्चों को पालने-पोसने, उन्हें शिक्षित करने से लेकर, सैटिल करने की महती ज़िम्मेदारी कैसे सम्भालेगी? नौकरी को भी ज़िम्मेदारी से निबाहना, दूसरी ओर भावनात्मक और सामाजिक सहारे का पीछे छूट जाना, इस दर्द और अकेलेपन के साथ जीवन कैसे काट पाएगी - ये अनेक तरह के विचार पाठक को घेर लेते हैं, उस पर हावी हो जाते हैं। एक सस्पेंस बनना शुरू हो जाता है कि आगे क्या होगा!

                         आरंभ में देवयानी की दिनचर्या, घर का सहज-सलोना वातावरण, बेटे-बेटी से प्यारी बातें, मन को मोहती हैं। देवयानी के मन में, कुछ साल पहले तक उससे बेहद लगाव रखने वाले पति "मनु" के बदले हुए रुख़ को रखकर, चिन्ता और आशंकाओं के तूफ़ान उठना और देवयानी का अपने विचलित व मायूस मन को समझाना....सहज भाव ओढ़े, घर-परिवार और नौकरी में अपने को बहलाए रखना, परंतु किसी को भी अपनी वेदना और व्यथा की भनक न लगने देना - इस सबसे रू-ब-रू हो, पाठक आगे जानने की जिज्ञासा के साथ, देवयानी के साथ बना रहता है। मूल कथा के साथ अवान्तर लघु कथाओं और घटनाओं को लेखिका ने बहुत ख़ूबसूरती के बुना है।

                         उत्तराखंड के कुछेक हिस्सों के एक विस्तृत इतिहास के विभिन्न पक्षों एवं उन तमाम वादियों की खूबसूरती का बखान करता सुख, उपन्यास धीरे-धीरे जब आगे बढ़ता है, तो, प्रेम के स्थूल रूप से लेकर उसके उत्ताल रूप तक का वर्णन करता हुआ, दर्शन एवं आध्यात्मिकता की गहराई तक पहुँच जाता है। कभी-कभी कुछ आख्यान इस तरह से कह दिए जाते हैं, कि उनके पूरे होने के पश्चात ऐसा लगता ही नहीं कि कि जैसे कि वह काल्पनिक हों, बल्कि उनका एक-एक शब्द किसी की बीते जीवन की दास्तान सा लगता है। इस अद्भुत रूप से हृदयग्राही उपन्यास में तेजी से चलता हुआ घटनाक्रम इस तरह बदलता जाता है कि पाठक उनसे बंधा रह जाता है। सच तो यह भी है कि प्रेम के अतिरेक के बाद एक समय ऐसा भी आता है , जब पुरुष मन उस अतिरेक की एकरसता से ही ऊबकर किसी और ही ठाह में रमने को उत्सुक होने लगता है। इसी बहाने पुरुष मन की समस्त परतों की तरह तरह से पड़ताल की गई है, उनका सांगोपांग वर्णन, मनोविज्ञान पर लेखिका की पकड़ को दर्शाता है, लेकिन साथ ही देवयानी के मन में उमड़-घुमड़ कर रहे भावों को दार्शनिकता और आध्यात्मिकता की दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए, जिस प्रकार देवयानी का व्यक्तित्व सामने रखा है, उससे नायिका का मात्र, बेहतरीन उदात्त स्वरूप ही सामने नहीं आता, बल्कि वो प्रेम की एक अटूट व धवल साधक के समान प्रतीत होती है।

                         किसी नए प्रेम के प्रति या किसी नए रिश्ते के प्रति पुरुष के अति उतावलेपन को रेखांकित करते हुए पुरुष की समस्त मन स्थितियों का जिस प्रकार का वर्णन लेखिका करती है, वह हमारे समाज में मौजूद अनेक व्यक्तियों में भी व्याप्त प्रतीत होता है। आए दिन हमारे सम्मुख घटने वाली घटनाओं में हम लगातार इसे होता हुआ पाते हैं कि किस प्रकार कोई पुरुष अपने जीवन में आने वाले किसी नई आने वाली स्त्री अथवा प्रेमिका के आगे बिछ-सा जाता है और वह उसकी इतनी मनुहार, इतनी बड़ाई और इतनी चिंता करता हुआ उस पर अपना प्यार और अधिकार जताता है, जैसे स्त्री के लिए उस पुरुष से बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं! बल्कि एकमात्र वह पुरुष ही उस स्त्री का खुदा है और अक्सर स्त्री पुरुष की बातों में आकर अपना सर्वस्व उसके सम्मुख हार बैठती है और यह सब कुछ प्रेम का यह घनीभूत स्वरूप तब तक चलता रहता है, जब तक कि उस पुरुष के जीवन में कोई नई स्त्री नहीं आ जाती! लेकिन जो पुरुष अपने जीवन में आई हुई एक निष्ठावान, हर प्रकार उसके लिए सुंदर और सुशील स्त्री के एकनिष्ठ प्रेम को भूलने में देर नहीं लगाता, वह भला दूसरी स्त्री में भी कब तक रम सकता हैं?

                         विभिन्न अभिव्यंजनाओं अध्यात्मिकताओं, दार्शनिकताओं और विश्वभर के अनेकानेक दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक प्रवर्तकों के उदगारों को अपने उपन्यास में परिस्थितियों के मुताबिक यथेष्ठ स्थान प्रदान करते हुए पुरुष मन की गहराई तक जाकर उसकी हर एक चपलता और कुटिलता को नापते हुए, लेखिका उसके पौरुष के विभिन्न उच्च पक्षों का भी बख़ूबी वर्णन करती हैं। उससे लेखिका की पुरुष के बारे में किसी एकपक्षीय दृष्टि नहीं, बल्कि संपूर्ण दृष्टि का वैभव दिखाई देता है। और यह वैभव उपन्यास के अंत में बख़ूबी नज़र आता है।

                         अपनी पहली प्रेमिका और पत्नी से ऊबा हुआ मनुज दूसरी प्रेमिका यानी पत्नी एना से कुछ ही वर्षों में ऊब करे, जब देवयानी के पास, वापस लौटने को व्यग्र होता है और अंततः देवयानी की जिंदगी में लौट आता है, तो उसके पश्चाताप भरे आवेगों का तथा उस पुरुष मन के पाक स्वरूप का परिचय देते हुए लेखिका आखिरकार अपने भावों द्वारा यह व्यक्त कर देती है कि यदि मानव अनजाने में की गई अपनी भूलों को किसी भी भांति स्वीकार कर लेता है, तो उसके जीवन में आया हुआ क्लेश भी दूर होकर जीवन पुन: स्वर्ग की भांति सुंदर और सुखमय हो सकता है। उसके जीवन में फिर से उजास फैल सकता है।

                         इस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ को पढ़ते हुए देवयानी के चरित्र के रूप में हर शब्द प्रेम का एक विराट प्रतिमान मालूम पड़ता है, क्योंकि अपने जीवन में आने वाले बिन बुलाए, किंतु एक जबरदस्त दीवाने के अकथनीय प्रेम में डूबी देवयानी को जब अपने उसी प्रेम पात्र से प्रथमत: तनाव और फिर अलगाव और फिर उस अलगाव से पैदा हुआ विरह के रूप में जो धोखा मिलता है, आरंभ में वह धोखा, वह तनाव उसे बिखेरता हुआ, उसे तोड़ डालने को उद्यत दिखता है। किंतु शीघ्र ही अपने दो- दो छोटे बच्चों को देखती हुई उस धोखे को, उस तनाव को, उस विचलन को और अपने दिल में उमड़ रहे तमाम झंझावातों को सहेजती हुई नायिका जिस प्रकार अपने आप को संतुलित करती है, वह किसी भी सुघड़ नारी के लिए एक नायाब उदाहरण की भांति है। पहले पहल नायिका का अपने स्कूल में सर्वश्रेष्ठ होना, फिर जीवन की अन्य गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना और फिर एक अयाचित प्रेम के अपने जीवन में आने के पश्चात और उसके अनचाहे ही फटाफट घर बसने के बाद में एक सुघड़ बहू के रूप में परिवर्तित हो जाना और अपनी समस्त महत्वकांक्षाओं को अपने से बिल्कुल परे करते हुए अपने आप को पूरी तरह से गृहस्थी में झोंक देना, फिर बीसों बरस इस तरह एक अभूतपूर्व और विराट प्रेम में गुजरने के पश्चात अचानक जीवन में एक नए और उतने ही अभूतपूर्व वैसे ही किसी ठीक विलोम झंझावात का आना किसी भी स्त्री को तोड़ देने के लिए काफी होता है और अक्सर स्त्रियाँ टूट भी जाती हैं और कोई भी टूट सकता है और यह स्वाभाविक भी है।

                         क्योंकि प्रेम में अचानक से उस प्रेम पात्र से संबंध टूट जाना, वह भी बिना किसी गलती के या बिना किसी संभावना के, जीवन में किसी मृत्यु से कम नहीं होता। यह बहुत बड़ी दुर्घटना होती है, जो व्यक्ति को न केवल अंदर से तोड़ती है, बल्कि धीरे-धीरे उसे झुलसाती हुई उसे एकदम से क्षीण ही बना डालती है। ऊपर-ऊपर ठीक-ठाक जीने की कोशिश करता हुआ आदमी अंदर ही अंदर कहाँ और कितना सुलग रहा होता है, इसकी थाह शायद ही कोई ले पाता है! हालांकि अनुमान सब लगाते हैं और अपने उन्हीं अनुमानों के आधार पर लोग उसे तरह तरह की सलाह भी देते हैं और नए जीवन साथी चुनने को उकसाने की कोशिश करते हैं!

                         लेकिन अपने करैक्टर के अचल खूँटे से बंधा हुआ कोई "दिल" यह सब करना अस्वीकार कर देता हैं और जीवन की चुनौतियों से जूझने का माद्दा पाल लेता है| तब फिर से अपनी लिखाई-पढ़ाई करते हुए अपने-आप को अध्ययन- अध्यापन के कार्य में व्यस्त करते हुए अपने जीवन को संजोने की कोशिश करता है। जीवन के इस संजोने के क्रम में आदमी के जीवन के मन में उमड़-घुमड़ करने वाले खयालात कभी उसे आध्यात्मिकता की राह पर ले जाते हैं, तो कभी किसी अछोर दार्शनिक आयामों के तले गुम करने की कोशिश करते हैं!

                         जीवन सदा उभय पक्षीय होता है। यह प्रेम भी है, तो कठोरता भी है। गिरना भी है, तो उठना भी है। आदमी के जीवन के आयाम निम्न तलों से लेकर सर्वश्रेष्ठ तलों तक को छूने में सक्षम होते हैं, कौन किस ओर बहता है, यही आदमी की दिशा तय करता है। घाटियों में जाना आसान है और पहाड़ों में चढ़ना सदा कठिन हुआ करता है और यही वह कारण है, जिसके चलते ज्यादातर लोग नीचे की ओर बहते दिखाई देते हैं, खाइयों में फिसलते और गिरते दिखाई देते हैं। विरले ही लोग इसके ठीक उलट ऊंचाई की ओर चलना पसंद करते हैं, बेशक कभी-कभार उनमें से कोई फिसल कर खाईयों में जा गिरता है, लेकिन उनकी वह यात्रा सदा एक ऊर्ध्वगामी यात्रा के रूप में ही स्वीकार की जाती है। बेशक वह अकेले लगते हों, लेकिन अंततः वही सिद्ध होते हैं और युगों तक अनेकानेक लोगों के लिए अनुकरणीय भी।

                         पैरेंटल लाइफ तो हर कोई जीता है, लेकिन पैरेंटल लाइफ को एक उदाहरण बनाना, एक मिसाल बनाना, एक उत्कृष्टता बनाना और उसके प्रति एक श्रद्धा पैदा करना, यह कार्य कुछ लोग ही कर पाते हैं और जो इसे कर पाते हैं, वही लोग विलक्षण होते हैं या कि सर्वश्रेष्ठ होते हैं या कि वही लोग लाजवाब होते हैं, अतैव इस भाँति वे ह लोग अनुकरणीय होते हैं। इस उपन्यास की मूल विषय वस्तु भी वही है और सच यह भी है कि घटनाओं के घटाटोप तो हर किसी के लिए होते हैं। इस धरती पर ऐसा कोई नहीं जो संघर्षों से न जूझता हो, जो तनावों से न गुजरता हो। जिसके जीवन में कलुषित पक्ष न आते हों। बावजूद इसके, जो जीवन को अपने अनुरूप एक धनात्मक पक्ष की ओर मोड़ता हुआ, अपने आपको एक उदाहरण की तरह प्रस्तुत करता है, वह अपने उस विरोधी के लिए भी अनुकरणीय बन जाता है, जिसने उसके प्रति व्यर्थ ही डाह पाला हुआ है। वह अपने शत्रुओं के प्रति ईर्ष्या का कारण बन जाता है, लेकिन उसकी यह ईर्ष्या उसके प्रति इज्जत के कारण ही पनपी होती है। क्योंकि अपनी ही कटुता या बेवजह की वैमनस्यता के कारण उसने जिसे अपना शत्रु बनाया हुआ है, वह यदि उससे सभी मामलों में उत्कृष्ट हो, तब उसे उस सच को स्वीकार करना ही पड़ता है। चाहे इसे स्वीकार करने में उसे कितनी ही देर क्यों ना हो जाए!

                         किंतु यदि किसी दूसरी घटिया शत्रुता के कारण उसी प्रकार जीवन में कोई, जो हमें धोखा देता है, उससे नफरत करना आसान है और उसे क्षमा भी न करें, तो चलेगा और ज्यादातर यही होता भी है। लेकिन धोखा देने वाले के मानवीय पक्ष को समझते हुए उसे न केवल क्षमा करना, बल्कि समय-समय पर उससे मित्रवत व्यवहार करना और एक मित्र के समान बराबर मिलते-जुलते रहना, बातचीत करना, अपने घर में बुलाना, और तो और इतना सब कुछ घटने के बावजूद कभी कोई भावनात्मक मदद भी करना, ऐसा शायद नगण्य प्रतिशत लोगों में ही होता होगा और ऐसी ही उस नगण्य प्रतिशत में शामिल है "देवयानी" का चरित्र! यद्यपि उपन्यास में उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों की अपूर्व सुंदरता का अनुपम वर्णन भी है। सूर्योदय व सूर्यास्त, पहाड़, घाटियाँ, फूल, उपवन, और विभिन्न ॠतुओं की ताजगी का एहसास इत्यादि-इत्यादि सब कुछ भरपूर है। लेकिन इन सबसे ऊपर इस उपन्यास का दार्शनिक पक्ष है, जो इसे इसी तरह के अन्य उपन्यासों से अलग करता है। किसी कवि ने कहा भी है दुख हमें मांजता है और इसका अनुपम उदाहरण "देवयानी" नाम का यह उपन्यास है, जिसमें नायिका का आत्मिकता का बोध- दुखों से सामना करते हुए शनै: शनै: परवान चढ़ता जाता है। इस तरह के गहन चिन्तन के अंत में देवयानी का अपना यह आत्मालाप'___

                         "खैर जाने दे देवयानी! त्याग, समर्पण, आत्मिक विसर्जन का अपना ही आनंद है, अपना ही अनोखा सुख है.... इसका स्वाद तो नारी ही जान सकती है! पुरुष यानी निरीह, बालक-सा मचलता, अधीर, बेचैन, हर पल अस्थिर, डगमगाया, दिल के हाथों लुटा...वह क्या जाने 'ढाई आखर' का सच्चा अर्थ, उसकी महिमा...! वह क्या जाने त्याग और समर्पण का परमानंद? यह तो निर्विवाद सत्य है कि अधिकांश पुरुष प्रेम से नहीं अपितु आसक्ति से भरे रहते हैं! अपनी आसक्ति को वे भ्रमवश प्रेम समझते हैं और नारी भी उनके भुलावे में आ जाती है, उनकी आसक्ति को ही प्रेम समझ बैठती है -पर, बाद में पछताती है विश्व के 90% पुरुष इसी आसक्ति और इसके साथ सेटेलाइट की तरह जुड़ी 'एकाधिकार' की अहम भावनाओं के जाल में उलझे होते हैं! तभी वे कभी "ओथेलो" बन अपनी "डैस्डीमोना" को शक की बिना पर मार डालते हैं, तो कभी दुष्यंत बन अपनी शकुंतला को भूल जाते हैं, तो कभी रावण बन परनारी का अपहरण कर लेते हैं, तो कभी वह उसे द्रौपदी के रूप में बांट लेते हैं! सब पुरुष और स्त्री एक से नहीं होते। पुरुष-पुरुष और स्त्री- स्त्री में बहुत अंतर होता है। लेकिन जिस 'उदात्त प्रेम' की 'एकनिष्ठता' के बारे में देवयानी सोच रही थी, उसके मामले में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों का बड़ा प्रतिशत ढुलमुल ही देखा गया। इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि वफादार पुरुष नहीं होते। साथ ही, ंंयह भी कि कायनात ने नारी और पुरुष को कुछ सहज-स्वाभाविक गुणों से नवाजा है। जिसके अनुसार पुरुष मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त, परुष(कठोर) और साहसी या कहें कि दुस्साहसी होता है, जबकि नारी अशक्त कोमल और सहज और असुरक्षा के भाव से भरी होती है। कायनात द्वारा प्रदत्त इन विशेषताओं को नकारा नहीं जा सकता! प्रकृति के इस नियम के तहत ही युगों से धीरे-धीरे बदलते परिवेश में नारी पर अतिरिक्त कार्यभार बढ़ा, उसकी शिक्षा-दीक्षा में बढ़ोतरी हुई, उसकी छवि बदली, लेकिन उसके "सहज गुण" भावनात्मकता, मृदुलता और कोमलता नारी में, हर युग में बनी रही! इसीलिए ही शायद नारी की इतनी प्रगति के बाद भी सब उनसे विनम्र होने की आस लगाते हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है! इस बात की आशा पुरुष से कम की जाती है। पुरुष भी "विनम्र" हों, तो किसे अच्छा नहीं लगता, लेकिन नारी से इस गुण की अपेक्षा अधिक की जाती है, क्योंकि प्रकृति ने यह गुण उसे अधिक दिया है। पुरुष और स्त्री का यह अंतर बना रहना जरूरी है - संतुलन के लिए! अगर दोनों ही कठोर हो गए या दोनों ही कोमल हो गए, तो असंतुलन हो जाएगा। जहॉं तक बुद्धिमानी और बौद्धिकता का प्रश्न है, उसे बीते युग से, पुरुष अपनी ही बपौती समझता आया है! कारण - युगों से नारी घर की चारदीवारी में रहती आई, कभी मुँह नहीं खोलती थी, न अपना दु:ख- सुख कहती थी, तर्क करना तो बहुत दूर की बात थी! उसकी स्थिति - "बैठ जा- बैठ गई, घूम जा- घूम गई", वाली थीं। अब जब बेटियों को शिक्षित किया जाने लगा, तो उनकी छुपी मानसिक और बौद्धिक क्षमता सहज ही अद्भुत रूप से सामने आई। वह क्षमता, वर्षों से अपनी सशक्त, शासक वाली छवि में जीने वाले पुरुष को नागवार लगी, तो पुरुष की नकारात्मक अनुभूति और कुंठित भावना जाहिर होना स्वभाविक थी। इसमें पुरुष की कोई गलती नहीं। लेकिन धीरे-धीरे पुरुष ने बौद्धिक नारी को स्वीकारना शुरू किया, गति भले ही थोड़ी धीमी रही, पर यह परिवर्तन अभी तक जारी है। यह पुरुष मनोविज्ञान है।

                         इस प्रकार "देवयानी" नाम का यह उपन्यास न केवल प्रेम, विरह, आलोड़न, विचलन, व्यथा, आदि की कथा कहता है, बल्कि पुरुष और स्त्री मनोविज्ञान की समस्त परतें भी उघाड़ता है। और खास तौर पर पुरुष मनोविज्ञान का एक पक्षीय नहीं, बल्कि संतुलित एवं सम्यक विवेचन प्रस्तुत करता है। हर लेखक की एक व्यापक दृष्टि होती है और उपन्यास की यही विशेषता भी होती है कि वह एक कथानक के साथ एक लेखक की विहंगम दृष्टि को भी प्रस्तुत करता है। क्योंकि लेखक को जो भी कहना होता है, वह अपने पात्रों के मुँह से ही कहलवाता है और यह कहलवाना जितना खूबसूरत बन पड़ता है, उपन्यास भी उतना ही खूबसूरत बन जाता है तथा अपने पाठकों को बांधे रखता है।

                         मेरी दृष्टि में यह उपन्यास अपने आप में एक लाजवाब एवं अनुपम कृति है और इसे हर एक सजग मनोविज्ञानी और एक आम आदमी को भी पढ़ना चाहिए कि किस प्रकार हमारा ईगो कई बार हमें बेवजह एक दूसरे से दूर ले जाता हैं और किस प्रकार हमारी अपनी भूलों को न मानने की वृत्ति हमें हमारे अपनों से दूर कर सकती है, वही अपने उन्हें भूलों को स्वीकार कर हम उन अपनों से पहले से भी ज्यादा और निकट और निकटतम आ सकते हैं, ऐसी भी संभावनाएँ हमारे इसी जीवन में होती हैं। इस उपन्यास के माध्यम से हम अपनी कमियों को भी परत दर परत उजागर करते हुए, उन्हें आत्मसात करते हुए, अपने जीवन को सरल और बेहतर बनाने का प्रयास कर सकते हैं।लेखिका डॉ. दीप्ति को ढेर बधाई !!

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.राजीव थेपरा




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शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

कीर्ति छंद, नव गीत, लघुकथा, दीपक अलंकार, सोमराजी छंद, सगुण छंद, दिंडी छंद, नेहरू, दोहा, दिल्लीवालो,

छंदशाला ५२
दिंडी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व नरहरी छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति ९-१०, पदांत गुरु गुरु।
लक्षण छंद
ग्रह-दिशा यति रख, लिखो छंद दिंडी।
घर घर विराजे, शिव जी की पिंडी।।
गुरु गुरु नमन लें, वर दें बनें छंद।
रस-लय सुसज्जित, दे भाव आनंद।।
(संकेत-ग्रह नौ, दिशा दस)
उदाहरण
हे हरि! दया कर, भक्तों को तारो।
भव सिंधु पीड़ा, मिटाओ उबारो।।
हमें लो शरण में, सुनो प्रार्थनाएँ-
हरकर तिमिर सब, जगत को उजारो।।
१७-११-२०२२
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छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
२-११-२०२२
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卐 ॐ 卐
एकता और शक्ति गीत
संजीव
*
बारा बरसी खटन गया
झट लै आया झंडा
तिरंगा फहराया
कि जन गण मन गाया
*
बारा बरसी खटन गया
सब दै रहे सलामी
गर्व से शीश तना
एक यह देश बना
*
बारा बरसी खटन गया
मिल मुट्ठी बन जाएँ
अँगुलियाँ अलग न हों
देश ताकतवर हो
*
बारा बरसी खटन गया
स्वच्छता रखें सभी
स्वस्थ तन-मन भी हो
नित नव सपने बो
*
बारा बरसी खटन गया
जहाँ हैं कर मेहनत
बनाएँ देश नया
झुके सारी दुनिया
***
हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
छत पर दिखी ज्यों फुलझड़ी, अनार मैं हुआ
कैसा गज़ब है एक ही पल में वो बम हुई
*
गृह लक्ष्मी से कहा 'आज है लछमी जी का राज
मुँहमाँगा वरदान मिलेगा रोक न मुझको आज'
घूर एकटक झट बोली वह-"भाव अगर है सच्चा
देती हूँ वरदान रही खुश कर प्रणाम नित बच्चा"
***
हास्य कविता
मेहरारू बोली 'ए जी! है आज पर्व दीवाली
सोना हो जब, तभी मने धनतेरस वैभवशाली'
बात सुनी मादक खवाबों में तुरत गया मन डूब
मैं बोला "री धन्नो! आ बाँहों में सोना खूब"
वो लल्ला-लल्ली से बोली "सोना बापू संग
जाती हूँ बाजार करो रे मस्ती चाहे जंग"
हुई नरक चौदस यारों ये चीखे, वो चिल्लाए
भूख इसे, हाजत उसको कोई तो जान बचाए
घंटों बाद दिखी घरवाली कई थैलों के संग
खाली बटुआ फेंका मुझ पर, उतरा अपना रंग
१७.११.२०२०
***
नवगीत
दिल्लीवालो!
*
दिल्लीवालो!
भोर हुई पर
जाग न जाना
घुली हवा में प्रचुर धूल है
जंगल काटे, पर्वत खोदे
सूखे ताल, सरोवर, पोखर
नहीं बावली-कुएँ शेष हैं
हर मुश्किल का यही मूल है
बिल्लीवालो!
दूध विषैला
पी मत जाना
कल्चर है होटल में खाना
सद्विचार कह दक़ियानूसी
चीर-फाड़कर वस्त्र पहनना
नहीं लाज से नज़र झुकाना
बेशर्मों को कहो कूल है
इल्लीवालो!
पैकिंग बढ़िया
कर दे जाना
आज जुडो कल तोड़ो नाता
मनमानी करना विमर्श है
व्यापे जीवन में सन्नाटा
साध्य हुआ केवल अमर्ष है
वाक् न कोमल तीक्ष्ण शूल है
किल्लीवालो!
ठोंको ताली
बना बहाना
१७-११-२०१९
***
दोहा सलिला
लट्टू पर लट्टू हुए, दिया न आया याद
जब बिजली गुल हो गई, तब करते फरियाद
*
उग, बढ़, झर पत्ते रहे, रहे न कुछ भी जोड़
सीख न लेता कुछ मनुज, कब चाहे दे छोड़
*
लोकतंत्र में धमकियाँ, क्यों देते हम-आप.
संविधान की अदेखी, दंडनीय है पाप.
*
१७.११.२०१७
***
स्मरण - चाचा नेहरू
*
जवाहरलाल नेहरू का जन्म इलाहाबाद में १४ नवम्बर १८८९ ई. को हुआ। वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के महान् सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री (१९४७-१९६४) थे। जवाहर लाल नेहरू, संसदीय सरकार की स्थापना और विदेशी मामलों में 'गुटनिरपेक्ष' नीतियों के लिए विख्यात हुए। १९३० - १९४० के दशक में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से वह एक थे। नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण परिवार के थे, जो १८ वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गये थे। वे पं. मोतीलाल नेहरू और श्रीमती स्वरूप रानी के एकमात्र पुत्र थे। अपने सभी भाई-बहनों में, जिनमें दो बहनें थीं, जवाहरलाल सबसे बड़े थे। उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई, १४ वर्ष की आयु में नेहरू ने घर पर ही कई अंग्रेज़ अध्यापिकाओं और शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त की। इनमें से सिर्फ़ एक, फ़र्डिनैंड ब्रुक्स का, जो आधे आयरिश और आधे बेल्जियन अध्यात्मज्ञानी थे, उन पर कुछ प्रभाव पड़ा। जवाहरलाल के एक समादृत भारतीय शिक्षक भी थे, जो उन्हें हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते थे। १५ वर्ष की उम्र में १९०५ में नेहरू एक अग्रणी अंग्रेज़ी विद्यालय इंग्लैण्ड के हैरो स्कूल में भेजे गए। हैरो में दाख़िल हुए, जहाँ वह दो वर्ष तक रहे। नेहरू का शिक्षा काल किसी तरह से असाधारण नहीं था। और हैरो से वह केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज गए, जहाँ उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन करके प्रकृति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। उनके विषय रसायनशास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र थे। केंब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की और उनके अपने ही शब्दों में परीक्षा उत्तीर्ण करने में उन्हें 'न कीर्ति, न अपकीर्ति'।
भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च, १९१६ में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ, जो दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। उनकी अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म १९१७ में हुआ; बाद में वह, विवाहोपरांत नाम 'इंदिरा गांधी', भारत की प्रधानमंत्री बनीं। तथा एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी। १९१२ ई. में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में वकालत प्रारम्भ की। वकालत में उनकी विशेष रुचि न थी और शीघ्र ही वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। १९१२ ई. में उन्होंने बाँकीपुर (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। भारत लौटने के बाद नेहरू ने पहले वकील के रूप में स्थापित होने का प्रयास किया लेकिन अपने पिता के विपरीत उनकी इस पेशे में कोई ख़ास रुची नहीं थी और उन्हें वकालत और वकीलों का साथ, दोनों ही नापसंद थे। उस समय वह अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की भांति भीतर से एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जो अपने देश की आज़ादी के लिए बेताब हो, लेकिन अपने अधिकांश समकालीनों की तरह उसे हासिल करने की ठोस योजनाएं न बना पाया हो। १९१६ ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये। गांधी उनसे २० साल बड़े थे। दोनों में से किसी ने भी आरंभ में एक-दूसरे को बहुत प्रभावित नहीं किया। बहरहाल, १९२९ में कांग्रेस के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने तक नेहरू भारतीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में नहीं आ पाए थे। इस अधिवेशन में भारत के राजनीतिक लक्ष्य के रूप में संपूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई। उससे पहले मुख्य लक्ष्य औपनिवेशिक स्थिति की माँग था। नेहरू जी के शब्दों में:- कुटिलता की नीति अन्त में चलकर फ़ायदेमन्द नहीं होती। हो सकता है कि अस्थायी तौर पर इससे कुछ फ़ायदा हो जाए।
जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन १४ नवंबर' बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे और यही कारण था कि उन्हें प्यार से चाचा नेहरू बुलाया जाता था। एक बार चाचा नेहरू से मिलने एक सज्जन आए। बातचीत के दौरान उन्होंने नेहरू जी से पूछा, "पंडित जी, आप सत्तर साल के हो गये हैं, लेकिन फिर भी हमेशा बच्चों की तरह तरोताज़ा दिखते हैं, जबकि आपसे छोटा होते हुए भी मैं बूढ़ा दिखता हूँ।" नेहरू जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "इसके तीन कारण हैं। मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, इससे मैं अपने आपको उनको जैसा ही महसूस करता हूँ। मैं प्रकृति प्रेमी हूँ, और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरनों, चाँद, सितारों से बहुत प्यार करता हूँ। मैं इनके साथ में जीता हूँ, जिससे यह मुझे तरोताज़ा रखते हैं। अधिकांश लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसके बारे में सोच-सोचकर दिमाग़ ख़राब करते हैं। मेरा नज़रिया अलग है और मुझ पर छोटी-छोटी बातों का कोई असर नहीं होता।" यह कहकर नेहरू जी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हँस पड़े। जवाहरलाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन।
जवाहरलाल नेहरू महात्मा गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़े। चाहे असहयोग आंदोलन की बात हो या फिर नमक सत्याग्रह या फिर १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन की बात हो उन्होंने गांधी जी के हर आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मलिक ने बताया कि नेहरू की विश्व के बारे में जानकारी से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे और इसीलिए आज़ादी के बाद वह उन्हें प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहते थे। सन् १९२० में उन्होंने उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ ज़िले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। १९२३ में वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव चुने गए। संसदीय प्रणाली को आधार मान कर बनाए गए भारतीय संविधान के तहत हुआ यह पहला चुनाव था जिसमें जनता ने मतदान के अधिकार का प्रयोग किया। इस चुनाव के समय मतदाताओं की कुल संख्या १७ करोड़ ६० लाख थी जिनमें से १५ फ़ीसदी साक्षर थे। १९५२ में पहले आमचुनाव हुए जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। इससे पहले वह १९४७ में आज़ादी मिलने के बाद से अंतरिम प्रधानमंत्री थे। संसद की ४९७ सीटों के साथ-साथ राज्यों कि विधानसभाओं के लिए भी चुनाव हुए। लेकिन जहाँ संसद में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ वहीं कुछ राज्यों में इसे दूसरे दलों से ज़बर्दस्त टक्कर मिली। कांग्रेस पार्टी बहुमत हासिल करने में इस शहरों चेन्नई, हैदराबाद और त्रावणकोर में विफल रही जहाँ उसे कम्युनिस्ट पार्टी ने कड़ी टक्कर दी। हालाँकि इन चुनावों में हिन्दू महासभा और अलगाववादी सिक्ख अकाली पार्टी को मुँह की खानी पड़ी। पहले चुनाव के बाद से ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने दक्षिणी राज्यों में जनसमर्थन बढ़ाना शुरू कर दिया जिसके नतीजे १९५७ में हुए चुनाव में उसे मिले। त्रावणकोर-कोचिन और मालाबार को मिला कर बने केरल में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई। १९२९ में जब लाहौर अधिवेशन में गांधी ने नेहरू को अध्यक्ष पद के लिए चुना था, तब से ३५ वर्षों तक १९६४ में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए मृत्यु तक, १९६२ में चीन से हारने के बावजूद, नेहरू अपने देशवासियों के आदर्श बने रहे।
राजनीति के प्रति उनका धर्मनिरपेक्ष रवैया गांधी के धार्मिक और पारंपरिक दृष्टिकोण से भिन्न था। गांधी के विचारों ने उनके जीवनकाल में भारतीय राजनीति को भ्रामक रूप से एक धार्मिक स्वरूप दे दिया था। गांधी धार्मिक रुढ़िवादी प्रतीत होते थे, किन्तु वस्तुतः वह सामाजिक उदारवादी थे, जो हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्ष बनाने की चेष्ठा कर रहे थे। गांधी और नेहरू के बीच असली विरोध धर्म के प्रति उनके रवैये के कारण नहीं, बल्कि सभ्यता के प्रति रवैये के कारण था। जहाँ नेहरु लगातार आधुनिक संदर्भ में बात करते थे। वहीं गांधी प्राचीन भारत के गौरव पर बल देते थे। देश के इतिहास में एक ऐसा मौक़ा भी आया था, जब महात्मा गांधी को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू में से किसी एक का चयन करना था। लौह पुरुष के सख्त और बागी तेवर के सामने नेहरू का विनम्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण भारी पड़ा और वह न सिर्फ़ इस पद पर चुने गए, बल्कि उन्हें सबसे लंबे समय तक विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की बागडोर संभालने का गौरव हासिल भी हुआ। हिन्दुस्तान एक ख़ूबसूरत औरत नहीं है। नंगे किसान हिन्दुस्तान हैं। वे न तो ख़ूबसूरत हैं, न देखने में अच्छे हैं- क्योंकि ग़रीबी अच्छी चीज़ नहीं है, वह बुरी चीज़ है। इसलिए जब आप 'भारतमाता' की जय कहते हैं- तो याद रखिए कि भारत क्या है, और भारत के लोग निहायत बुरी हालत में हैं- चाहे वे किसान हों, मज़दूर हों, खुदरा माल बेचने वाले दूकानदार हों, और चाहे हमारे कुछ नौजवान हों। -जवाहर लाल नेहरू
जवाहरलाल नेहरू ने बाँधों को "आधुनिक भारत का तीर्थ" कहा था, इससे बाँधों के महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है। सन १९६२ में भाखड़ा नांगल सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। २२ अक्टूबर, १९६३ को जवाहरलाल नेहरू ने इसे जनता को समर्पित किया। यह बाँध हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ज़िले के सतलुज नदी पर बना है। इस बाँध से १३२५ मेगावॉट बिजली का उत्पादन होता है। यह राजस्थान, पंजाब और हरियाणा की संयुक्त परियोजना है। पंडित नेहरू एक महान् राजनीतिज्ञ और प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, ख्यातिलब्ध लेखक भी थे। उनकी आत्मकथा १९३६ ई. में प्रकाशित हुई और संसार के सभी देशों में उसका आदर हुआ। उनकी अन्य रचनाओं में भारत और विश्व, सोवियत रूस, विश्व इतिहास की एक झलक, भारत की एकता और स्वतंत्रता और उसके बाद विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें से अन्तिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों और भाषणों के संग्रह हैं। बात उस समय की है जब जवाहरलाल नेहरू किशोर अवस्था के थे। पिता मोतीलाल नेहरू उन दिनों अंग्रेजों से भारत को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आज़ाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया। जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आज़ादी चाह रही है। तोता भी आज़ादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आज़ाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुँह देखते रह गये।
जवाहरलाल नेहरू जी ने अपने बचपन का क़िस्सा बयान करते हुए अपनी पुस्तक मेरी कहानी में लिखा है कि वे अपने पिता मोतीलाल नेहरू जी का बहुत सम्मान करते थे। हालांकि वे कड़कमिजाज थे सो वे उनसे डरते भी बहुत थे क्योंकि उन्होंने नौकर चाकरों आदि पर उन्हें बिगड़ते कई बार देखा था। उनकी तेज मिजाजी का एक क़िस्सा बताते हुये नेहरू जी ने लिखा है कि उनकी तेज मिजाजी की एक घटना मुझे याद है क्योंकि बचपन में ही मैं उसका शिकार हो गया था। कोई ५-६वर्ष की उम्र रही होगी। एक रोज मैंने पिताजी की मेज पर दो फाउन्टेन पेन पड़े देखे। मेरा जी ललचाया मैंने दिन में कहा पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेंगे? एक मैंने अपनी जेब मे डाल लिया। बाद में बड़ी ज़ोरों की तलाश हुई कि पेन कहाँ चला गया? तब तो मैं घबराया। मगर मैंने बताया नहीं। पेन मिल गया और मैं गुनहगार करार दिया गया। पिताजी बहुत नाराज़ हुए और मेरी खूब मरम्मत की। मैं दर्द व अपमान से अपना सा मुँह लिये माँ की गोद में दौड़ा गया और कई दिन तक मेरे दर्द करते हुए छोटे से बदन पर क्रीम और मरहम लगाये गये। लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि इस सज़ा के कारण पिताजी को मैंने कोसा हो। मैं समझता हूँ मेरे दिल ने यही कहा होगा कि सज़ा तो तुझे वाजिब ही मिली है, मगर थी ज़रूरत से ज़्यादा। जवाहरलाल नेहरू अपने कुछ ख़ास सहयोगियों के साथ एक दिन ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर रहे थे। एक खेत में उन्होंने चने की फ़सल देखी। अधपके चने देखकर सबके मुँह में पानी आ गया और कच्चे चने खाने के लिये कार रुकवाई। सब लोग खेत में घुस गये। नेहरू जी ने चने की केवल फलियाँ ही फलियाँ तोड़ी। कुछ लोगों ने पौधे ही उखाड़ लिए। इस पर नेहरू जी ने उन्हें डाँटा, 'पौधों में कुछ फलियाँ अभी लगी ही हैं जिनमें दाना नहीं है। तुम केवल दानेवाली फलियाँ ही तोड़ो जिनकी तुम्हें जरूरत हैं। पौधे उखाड़ लेने से नुक़सान हो रहा है। ऐसा तो जानवर करते हैं। भाखड़ा बाँध से सिंचाई योजना का शिलान्यास होना था। नेहरूजी को योजना के व्यवस्थापकों ने चाँदी का फावड़ा उद्घाटन करने के लिए पकड़ाया। इस पर नेहरू झुँझला गये। उन्होंने पास में पड़ा लोहे का फावड़ा उठाया और उसे ज़मीन पर चलाते हुए कहा, 'भारत का किसान क्या चाँदी के फावड़े से काम करता है। महाराष्ट्र में अकाल पड़ा तो वहाँ भूख से तमाम मौतें हुईं। नेहरूजी अकालग्रस्त क्षेत्रों के मुआयने के लिए गये। एक स्थान पर लोगों की भीड़ में से नन्हें ग्रामीण बच्चे को हाथों में ऊपर उठा लिया और उसकी ठोड़ी पकड़ कर सिर ऊँचा किया। लोग नेहरूजी का आशय समझ गये कि मुसीबत में मनोबल बनाए रखकर साहस के साथ मुक़ाबला करना चाहिए। एक मेले से नेहरूजी की कार गुज़र रही थी और सुरक्षा बल लोगों को हटाकर कार के लिए रास्ता बना रहे थे। भीड़ में से एक बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा, 'ओ नेहरू तू इत्ता बड़ा हो गया कि लोग तुझसे मिल नहीं सकते।' नेहरूजी कार से उतर पड़े, बुढ़िया के पास हाथ जोड़ते हुए गये और बोले, 'कहाँ बड़ा हो गया माँ, बड़ा हो जाता तो तू मुझसे ऐसे बोल पाती। फिर उन्होंने उसकी परेशानी पूछी। उसने अपनी फटेहाली बताई तो नेहरूजी ने अफ़सरों को सख्त हिदायत दी कि उसके लिए आर्थिक सहायता का इंतज़ाम तुरंत किया जाए।
एक कार्यक्रम में एक छात्र ने उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिए अपनी कॉपी उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, 'इसमें सिग्नेचर कर दीजिए। 'नेहरू जी ने उसमें अपने दस्तखत अंग्रेज़ी में कर दिए। छात्र को पता था कि नेहरूजी आमतौर पर हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। उसने पूछ लिया, 'आप तो हिन्दी में हस्ताक्षर करते हैं। फिर मेरी कॉपी में आपने अंग्रेज़ी में किए, ऐसा क्यों। नेहरूजी मुस्कराते हुए बोले, 'भाई, तुमने सिग्नेचर करने को बोला था, हस्ताक्षर करने को नहीं।'
वैज्ञानिक प्रगति के प्रेरणा स्रोत गाँधी जी के विचारों के प्रतिकूल जवाहरलाल नेहरू ने देश में औद्योगीकरण को महत्व देते हुए भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। विज्ञान के विकास के लिए १९४७ ई. में नेहरू ने 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' की स्थापना की। उन्होंने कई बार 'भारतीय विज्ञान कांग्रेस' के अध्यक्ष पद से भाषण दिया। भारत के विभिन्न भागों में स्थापित वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अनेक केंद्र इस क्षेत्र में उनकी दूरदर्शिता के स्पष्ट प्रतीक हैं। खेलों में नेहरू की व्यक्तिगत रुचि थी। उन्होंने खेलों को मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए आवश्यक बताया। एक देश का दूसरे देश से मधुर सम्बन्ध क़ायम करने के लिए १९५१ ई. में उन्होंने दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करवाया। समाजवादी विचारधारा से प्रभावित नेहरू ने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। उन्होंने आर्थिक योजना की आवश्यकता पर बल दिया। वे १९३८ ई. में कांग्रेस द्वारा नियोजित 'राष्ट्रीय योजना समिति' के अध्यक्ष भी थे। स्वतंत्रता पश्चात् वे 'राष्ट्रीय योजना आयोग' के प्रधान बने।
नेहरू जी ने साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया। उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। जवाहरलाल नेहरू ने भारत को तत्कालीन विश्व की दो महान् शक्तियों का पिछलग्गू न बनाकर तटस्थता की नीति का पालन किया। नेहरूजी ने निर्गुटता एवं पंचशील जैसे सिद्धान्तों का पालन कर विश्व बन्धुत्व एवं विश्वशांति को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जातिवाद एवं उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ जीवनपर्यन्त संघर्ष किया। अपने क़ैदी जीवन में जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया', 'ग्लिम्पसेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री' एवं 'मेरी कहानी' नामक ख्यातिप्राप्त पुस्तकों की रचना की। अपनी भारतीयता पर ज़ोर देने वाले नेहरू में वह हिन्दू प्रभामंडल और छवि कभी नहीं उभरी, जो गाँधी के व्यक्तित्व का अंग थी। अपने आधुनिक राजनीतिक और आर्थिक विचारों के कारण वह भारत के युवा बुद्धिजीवियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी के अहिंसक आन्दोलन कि ओर आकर्षित करने में और स्वतन्त्रता के बाद उन्हें अपने आसपास बनाए रखने में सफल रहे। पश्चिम में पले-बढ़े होने और स्वतन्त्रता के पहले यूरोपीय यात्राओं के कारण उनके सोचने का ढंग पश्चिमी साँचे में ढल चुका था। 17 वर्षों तक सत्ता में रहने के दौरान उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद को दिशा-निर्देशक माना। उनके कार्यकाल में संसद में कांग्रेस पार्टी के ज़बरदस्त बहुमत के कारण वह अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होते रहे। लोकतन्त्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता उनकी घरेलू नीति के चार स्तंभ थे। वह जीवन भर इन चार स्तंभों से सुदृढ़ अपनी इमारत को काफ़ी हद तक बचाए रखने में कामयाब रहे। नेहरू की इकलौती संतान इंदिरा गाँधी १९६६ से १९७७ तक और फिर १९८० से १९८४ तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा गाँधी के बेटे राजीव गाँधी १९८४ से १९८९ तक प्रधानमंत्री रहे। चीन के साथ संघर्ष के कुछ ही समय बाद नेहरू के स्वास्थ्य में गिरावट के लक्षण दिखाई देने लगे। उन्हें १९६३ में दिल का हल्का दौरा पड़ा, जनवरी १९६४ में उन्हें और दुर्बल बना देने वाला दौरा पड़ा। कुछ ही महीनों के बाद तीसरे दौरे में २७ मई, १९६४ में उनकी मृत्यु हो गई।
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कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं २
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गीत
फ़साना
(छंद- दस मात्रिक दैशिक जातीय, षडाक्षरी गायत्री जातीय सोमराजी छंद)
[बहर- फऊलुन फऊलुन १२२ १२२]
*
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हें देखता हूँ
तुम्हें चाहता हूँ
तुम्हें माँगता हूँ
तुम्हें पूजता हूँ
बनाना न आया
बहाना बनाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हीं जिंदगी हो
तुम्हीं बन्दगी हो
तुम्हीं वन्दना हो
तुम्हीं प्रार्थना हो
नहीं सीख पाया
बिताया भुलाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
*
तुम्हारा रहा है
तुम्हारा रहेगा
तुम्हारे बिना ना
हमारा रहेगा
कहाँ जान पाया
तुम्हें मैं लुभाना
कहेगा-सुनेगा
सुनेगा-कहेगा
हमारा तुम्हारा
फसाना जमाना
१७-११-२०१६
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शब्द चर्चा- सैलाब या शैलाब?
सही शब्द ’सैलाब’ ही है -’शैलाब ’ नहीं
’सैलाब’[ सीन,ये,लाम,अलिफ़,बे] -अरबी/फ़ारसी का लफ़्ज़ है अर्थात ’उर्दू’ का लफ़्ज़ है जो ’सैल’ और ’आब’ से बना है
’सैल’ [अरबी लफ़्ज़] मानी बहाव और ’आब’[फ़ारसी लफ़्ज़] मानी पानी
सैलाब माने पानी का बहाव ही होता है मगर हम सब इसका अर्थ अचानक आए पानी के बहाव ,जल-प्लावन.बाढ़ से ही लगाते है
सैल के साथ आब का अलिफ़ वस्ल [ मिल ] हो गया है अत: ’सैल आब ’ के बजाय ’सैलाब’ ही पढ़ते और बोलते है ।हिन्दी के हिसाब से इसे आप ’दीर्घ सन्धि’ भी कह सकते है’
चूँकि ’सैल’ मानी ’बहाव’ होता है तो इसी लफ़्ज़ से ’सैलानी’ भी बना है -वह जो निरन्तर सैर तफ़्रीह एक जगह से दूसरी जगह जाता रहता है।
आँसुओं की बाढ़ को सैल-ए-अश्क भी कहते है
हिन्दी के ’शैल’ से आप सब लोग तो परिचित ही हैं।
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अलंकार सलिला: ३१
दीपक अलंकार
*
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य में, देखे धर्म समान।
धारण करता हो जिसे, उपमा संग उपमान।।
जहाँ वर्ण्य (प्रस्तुत) और अवर्ण्य (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म स्थापित किया जाये, वहाँ दीपक अलंकार होता है।
अप्रस्तुत एक से अधिक भी हो सकते हैं।
तुल्ययोगिता और दीपक में अंतर यह है कि प्रथम में प्रस्तुत और प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत और अप्रस्तुत का धर्म
समान होता है जबकि द्वितीय में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समान धर्म बताया जाता है।
जब प्रस्तुत औ' अप्रस्तुत, में समान हो धर्म।
तब दीपक जानो 'सलिल', समझ काव्य का मर्म।।
यदि प्रस्तुत वा अप्रस्तुत, गहते धर्म समान।
अलंकार दीपक कहे, वहाँ सभी मतिमान।।
दीपक वर्ण्य-अवर्ण्य के, देखे धर्म समान।
कारक माला आवृत्ति, तीन भेद लें जान।।
उदाहरण:
१. सोहत मुख कल हास सौं, अम्ल चंद्रिका चंद्र।
प्रस्तुत मुख और अप्रस्तुत चन्द्र को एक धर्म 'सोहत' से अन्वित किया गया है।
२. भूपति सोहत दान सौं, फल-फूलन-उद्यान।
भूपति और उद्यान का सामान धर्म 'सोहत' दृष्टव्य है।
३. काहू के कहूँ घटाये घटे नहिं, सागर औ' गन-सागर प्रानी।
प्रस्तुत हिंदवान और अप्रस्तुत कामिनी, यामिनी व दामिनी का एक ही धर्म 'लसै' कहा गया है।
४. डूँगर केरा वाहला, ओछाँ केरा नेह।
वहता वहै उतावला, छिटक दिखावै छेह।।
अप्रस्तुत पहाड़ी नाले, और प्रस्तुत ओछों के प्रेम का एक ही धर्म 'तेजी से आरम्भ तथा शीघ्र अंत' कहा है।
५. कामिनी कंत सों, जामिनी चंद सोन, दामिनी पावस मेघ घटा सों।
जाहिर चारहुँ ओर जहाँ लसै, हिंदवान खुमान सिवा सों।।
६. चंचल निशि उदवस रहैं, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।
७. नृप मधु सों गजदान सों, शोभा लहत विशेष।
अ. कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. हेम पुंज हेमंत काल के इस आतप पर वारूँ।
प्रियस्पर्श की पुलकावली मैं, कैसे आज बिसारूँ?
किन्तु शिशिर में ठंडी साँसें, हाय! कहाँ तक धारूँ?
तन जारूँ, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूँ।।
२. इंदु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,
अनिल की ध्वनि में, सलिल की बीचि में।
एक उत्सुकता विचरती थी सरल,
सुमन की स्मृति में, लता के अधर में।।
३. सुर नर वानर असुर में, व्यापे माया-मोह।
ऋषि मुनि संत न बच सके, करें-सहें विद्रोह।।
४. जननी भाषा / धरती गौ नदी माँ / पाँच पालतीं।
५. रवि-शशि किरणों से हरें
तम, उजियारा ही वरें
भू-नभ को ज्योतित करें।
आ. माला दीपक:
जहाँ पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ माला दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. घन में सुंदर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।
प्रतिमा में सजीवता सी, बस गर्भ सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर ह्रदय में, जो अलग रही आँखों में।।
२. रवि से शशि, शशि से धरा, पहुँचे चंद्र किरण।
कदम-कदम चलकर करें, पग मंज़िल का वरण।।
३. ध्वनि-लिपि, अक्षर-शब्द मिल करें भाव अभिव्यक्त।
काव्य कामिनी को नहीं, अलंकार -रस त्यक्त।।
४. कूल बीच नदिया रे / नदिया में पानी रे
पानी में नाव रे / नाव में मुसाफिर रे
नाविक पतवार ले / कर नदिया पार रे!
५. माथा-बिंदिया / गगन-सूर्य सम / मन को मोहें।
इ. आवृत्ति दीपक:
जहाँ अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है।इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक,
अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं।
क. पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. तब इस घर में था तम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
-भ्रम छाया।
२. दीन जान सब दीन, नहिं कछु राख्यो बीरबर।
३. आये सनम, ले नयन नम, मन में अमन,
तन ले वतन, कह जो गए, आये नहीं, फिर लौटकर।
ख. अर्थावृत्ति दीपक:
जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. सर सरजा तब दान को, को कर सकत बखान?
बढ़त नदी गन दान जल उमड़त नद गजदान।।
२. तोंहि बसंत के आवत ही मिलिहै इतनी कहि राखी हितू जे।
सो अब बूझति हौं तुमसों कछू बूझे ते मेरे उदास न हूजे।।
काहे ते आई नहीं रघुनाथ ये आई कै औधि के वासर पूजे।
देखि मधुव्रत गूँजे चहुँ दिशि, कोयल बोली कपोतऊ कूजे।।
३. तरु पेड़ झाड़ न टिक सके, झुक रूख-वृक्ष न रुक सके,
तूफान में हो नष्ट शाखा-डाल पर्ण बिखर गये।
ग. पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है।
उदाहरण
१. संपत्ति के आखर तै पाइ में लिखे हैं, लिखे भुव भार थाम्भिबे के भुजन बिसाल में।
हिय में लिखे हैं हरि मूरति बसाइबे के, हरि नाम आखर सों रसना रसाल में।।
आँखिन में आखर लिखे हैं कहै रघुनाथ, राखिबे को द्रष्टि सबही के प्रतिपाल में।
सकल दिशान बस करिबे के आखर ते, भूप बरिबंड के विधाता लिखे भाल में।।
२.
दीपक अलंकार का प्रयोग कविता में चमत्कार उत्पन्न कर उसे अधिक हृद्ग्राही बनाता है।।
***
नव गीत
*
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
हम नहीं हैं एक
लेकिन एक हैं हम।
जूझने को मौत से भी
हम रखें दम।
फोड़ते हो तुम
मगर हम बोलते हैं
गगन जाए थरथरा
सुन बोल 'बम-बम'।
मारते तुम निहत्थों को
क्रूर-कायर!
तुम्हारा पुरखा रहा
दनु अंधकासुर।
हम शहादत दे
मनाते हैं दिवाली।
जगमगा देते
दिया बन रात काली।
जानते हैं देह मरती
आत्मा मरती नहीं है।
शक्ल है
कितनी घिनौनी, जरा
दर्पण तो निहारो
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
*
मनोबल कमजोर इतना
डर रहे परछाईं से भी।
रौंदते कोमल कली
भूलो न सच तुम।
बो रहे जो
वही काटोगे हमेशा
तडपते पल-पल रहोगे
दर्द होगा पर नहीं कम।
नाम मत लो धर्म का
तुम हो अधर्मी!
नहीं तुमसे अधिक है
कोई कुकर्मी।
जब मरोगे
हँसेगी इंसानियत तब।
शूल से भी फूल
ऊगेंगे नए अब ।
निरा अपना, नया सपना
नित नया आकार लेगा।
किन्तु बेटा भी तुम्हारा
तुम्हें श्रृद्धांजलि न देगा
जा उसे मारो।
मानवासुर!
है चुनौती
हमें भी मारो।
***
लघुकथा:
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
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नव गीत :
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
कहता है इतिहास
एक साथ लड़ते रहे
दानव गण सायास।
.
निर्बल को दे दंड
पाते थे आनंद वे
रहे सदा उद्दंड।
.
नहीं जीतती क्रूरता
चाहे जितने जुल्म कर
संयम रखती शूरता।
.
रात नहीं कोई हुई
जिसके बाद न भोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
*
उठो, जाग, हो एक
भिड़ो तुरत आतंक से
रखो इरादे नेक।
.
नहीं रिलीजन, धर्म
या मजहब आतंक है
मिटा कीजिए कर्म।
.
भुला सभी मतभेद
लड़, वरना हों नष्ट सब
व्यर्थ न करिए खेद।
.
कटे पतंग न शांति की
थाम एकता डोर
छाया है आतंक का
मकड़जाल चहुँ ओर
१६-११-२०१५
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छंद सलिला :
*
कीर्ति छंद
छंद विधान:
द्विपदिक, चतुश्चरणिक, मात्रिक कीर्ति छंद इंद्रा वज्रा तथा उपेन्द्र वज्रा के संयोग से बनता है. इसका प्रथम चरण उपेन्द्र वज्रा (जगण तगण जगण दो गुरु / १२१-२२१-१२१-२२) तथा शेष तीन दूसरे, तीसरे और चौथे चरण इंद्रा वज्रा (तगण तगण जगण दो गुरु / २२१-२२१-१२१-२२) इस छंद में ४४ वर्ण तथा ७१ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिटा न क्यों दें मतभेद भाई, आओ! मिलाएं हम हाथ आओ
आओ, न जाओ, न उदास ही हो, भाई! दिलों में समभाव भी हो.
२. शराब पीना तज आज प्यारे!, होता नहीं है कुछ लाभ सोचो
माया मिटा नष्ट करे सुकाया, खोता सदा मान, सुनाम भी तो.
३. नसीहतों से दम नाक में है, पीछा छुड़ाएं हम आज कैसे?
कोई बताये कुछ तो तरीका, रोके न टोके परवाज़ ऐसे.
१६-११-२०१३
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हास्य मुक्तक
नम आँख देखकर हमारी आँख नम हुई
दिल से करी तारीफ मगर वह भी कम हुई
हमने जलाई फुलझड़ी 'सलिल' ये क्या हुआ
दीवाला हो गया है वो जैसे ही बम हुई.
१६-११-२०१३
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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

गुजरात, लोककथा, ताना री री

गुजरात की लोककथा - ताना री री 
*
प्रायः हम बहुत से लोकश्रुत कथानकों से अनभिज्ञ होते हैं। ऐसे ही एक पक्ष को आज मेरी कलम से पढ़िये।
ताना और रीरी दो बहने (खयाल गायकी में जिन्हे श्रीगणेश के साथ 'नोम तोम ताना रीरी' के रूप में प्रथम स्मरण कर के सम्मान दिया जाता है।) जो (गुजराती के महाकवि सूरदास) नरसी मेहता की पुत्री कुंवरबाई की पुत्री शर्मिष्ठा की दो पुत्रियां थी। नागर ब्राह्मण कुल में जन्मी दो बहने उस मुगल युग के संक्रमण काल में संगीत के लिए शहीद हुईं। हिंदी पट्टी में प्रायः हम सुनते हैं कि तानसेन ने दीपक राग गाकर अकबर दरबार में दीपक जलाए थे, जिसे मल्हार राग गाकर उसकी बेटी ने ताप हरण किया था। लेकिन वास्तव में तानसेन के दीपक राग से उत्पन्न ताप को 'ताना रीरी' ने मल्हार गाकर ठीक किया था।
ताना रीरी पर बनी गुजराती फिल्म में ताना का किरदार कानन कौशल ने तथा रीरी का किरदार बिंदु ने निभाया है।
तानसेन दीपक राग गा तो लिये लेकिन दाह से पीड़ित होकर भ्रमण पर निकले तब (नरेन्द्र मोदी जी के गांव) वड़नगर (जिला मेहसाणा) के शर्मिष्ठा तालाब पर ठहरे, ताना और रीरी उसी समय पानी के घड़े लेकर आई। रीरी ने घड़ा भर लिया मगर ताना बार बार घड़ा भरती और फिर उलींच देती, रीरी ने कहा कि चलो देर होगी। तब ताना ने कहा कि जब तक मेरे घड़े में जल भरने में राग मल्हार का स्वर न निकलने लगे मैं पानी नहीं ले जाऊंगी।
पेड़ के नीचे ठहरे तानसेन की खोज पूरी हुई। ताना रीरी से आग्रह किया, उन्होने बगैर नागर कुल से अनुमति के बगैर गाने से मना किया। फिर तानसेन ने शपथ लेकर ताना रीरी का किसी को उल्लेख न करने की बात पर वह आयोजन सम्पन्न किया। तानसेन दाह से मुक्त हुए। मगर तानसेन को अकबर के सामने मृत्यु भय से राज खोलना पड़ा।
खैर कथा में बहुत सी अनुश्रुतियां है, मगर तानसेन की वादा खिलाफी के कारण उन दोनों बहनों को अल्पायु में आत्मोत्सर्ग करना पड़ा। कोई कहता है उन्होने कुए में कूद कर आत्म हत्या की, कोई कहता है उन्होने राग से अग्नि प्रज्वलित कर अग्निस्नान किया।
जो भी हो मगर ताना रीरी का वह आत्म बलिदान गुर्जर माटी के कण कण में व्याप्त है।
ताना रीरी के बलिदान की वर्षगांठ परसों दिनांक १८ नवम्बर २०१८ (कार्तिक शुक्ल ९) को है। गुजरात राज्य अपनी इन लाड़ली बेटियों को खूब सम्मान देता है। लता जी और उषा जी मंगेशकर, गिरिजा देवी, किशोरी अमोनकर जी, बेगम परवीन सुल्ताना, डॉ प्रभा अत्रे, मंजु बेन मेहता आदि इस पुरस्कार को प्राप्त कर चुकीं है।
इस बार के ताना रीरी महोत्सव में १७ नवम्बर २०१८ को कलागुरू महेश्वरी नागराजन, सप्तक स्कूल ऑफ म्यूजिक अहमदाबाद की समूह वादन प्रस्तुति तबला और संतूर, पियू बेन सरखेल का गायन, पंडित विश्वमोहन भट्ट और सलिल भट्ट की प्रस्तुति, हिमांशु मेहता की मोहन वीणा प्रस्तुति और सायली तलवलकर की प्रस्तुति होगी।
१८ नवम्बर २०१८ को पद्मश्री आशा भोसले, डॉ एन राजम और डॉ रूपान्दे शाह को ताना रीरी सम्मान से पुरस्कृत किया जाएगा। विशेष आयोजन में डॉ धारी पंचमदा ५ मिनट में २१ राग प्रस्तुत कर गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाएंगी। एन राजम वॉयलिन पर प्रस्तुति देंगी। साधना सरगम गीत और ऋषिकेश सेन का बांसुरी वादन होगा।