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मंगलवार, 11 जुलाई 2023

शम्भुनाथ सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र, नवगीत

स्मृति आलेख -
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
हिन्दी नवगीत परंपरा के शीर्ष प्रवर्तक होने के कारण आधुनिक भरत मुनि की प्रतिष्ठा पानेवाले प्रगतिशील कवि डॉ. शम्भुनाथ सिंह का यह शताब्दी वर्ष है | उनके साहित्यिक महत्त्व को सम्मान देते हुए केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने 8 जुलाई को उनकी कर्मभूमि वाराणसी में राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की है,जिसमें देश के अनेक जाने-माने साहित्यकार भाग लेंगे | इसके अलावा देश के विभिन्न नगरों और संस्थानों में शम्भुनाथ शती समारोह मनाने की तैयारी चल रही है | वे ऐसे जुझारू रचनाकार थे,जिन्होने जीवन भर विपरीत परिस्थितियों से लोहा लिया और अपने दम पर हारी हुई बाजी को हमेशा जीत में बदलकर दिखाया। वे परवर्ती पीढ़ियों के संरक्षक भी थे और सहभागी भी। वे एक साथ सृजन की कई दिशाओं पर राज करते थे। वे कवि थे, कहानीकार थे, समीक्षक थे, नाटककार थे, प्राध्यापक थे, पुरातत्वविद थे और आगे बढ़कर, हर किसी की मदद करनेवाले नेक इन्सान थे। इसलिए, आज पूरा हिन्दी जगत उस महान कृती पुरुष के सम्मान में खड़ा है |
शम्भुनाथ जी ने न केवल नवगीत के स्वरूप और सीमान्त का निर्धारण किया, बल्कि अपने `नवगीत दशकों’ के माध्यम से उन्होंने समकालीन हिंदी कविता में नवगीत को `डीही’ का स्थान दिलाने की पुरजोर कोशिश की,जिससे आज नवगीत विधा विभिन्न विश्वविद्यालयों में शिक्षण और शोध के विषय के रूप में प्रतिष्ठित है | काशी में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर, उन्होंने जिस समय काव्ययात्रा शुरू की, उस समय काशी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में चरमोत्कर्ष पर थी | उसका लाभ डॉक्टर साहब को भी मिला और वे `कुछ कर गुजरने के लिए’ निरंतर सृजनशील रहे |
प्रथम संग्रह `रूपरश्मि’ से `समय की शिला’ के प्रकाशन तक डॉक्टर साहब सही अर्थों में राहों के अन्वेषी थे | इसी मोड़ पर (1969) मैं उनसे मिला था | तबतक उन्होंने नवगीत विधा को शैक्षणिक जगत की उपेक्षा और अवहेलना से उबारने के लिए कमर कस ली थी | उसके बाद उनके जो संग्रह आये, चाहे वह `जहां दर्द नीला है’ हो या `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ या `वक्त के मीनार पर’,सबमें उन्होंने अपनी अपार सृजन-क्षमता से नवगीत के नए प्रतिमान स्थापित किये |
उनके एक गीत ने हिन्दी काव्यमंचों पर वैश्विक प्रसिद्धि पाई :
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसीने बनाये, किसीने मिटाये।
एक और गीत था, जो लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया था और जिसे वे उन काव्यमंचों पर जरूर सुनाते थे, जो ग्रामीण शिक्षालयों में होते थे:
टेर रही प्रिया, तुम कहाँ? किसकी यह छाँह और किसके ये गीत रे/ बरगद की छाँह और चैता के गीत रे। सिहर रहा जिया, तुम कहाँ?
लेकिन उनके जिस नवगीत ने एक नया वैज्ञानिक गवाक्ष खोला ,वह था ‘दिग्विजय’:
बादल को बाँहों में भर लो/ एक और अनहोनी कर लो। अंगों में बिजलियाँ लपेटो/ चरणों में दूरियाँ समेटो/ नभ को पदचापों से भर दो/ ओ दिग्विजयी मनु के बेटो! इन्द्रधनुष कंधों पर धर लो /एक और अनहोनी कर लो।
इसी प्रकार का उनका एक और गीत ‘अन्तर्यात्रा’ शीर्षक से है:
टूट गये बन्धन सब टूट गये घेरे/ और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे! छूट गयीं नीचे धरती की दीवारें/आँगन के फूल बने,चाँद और तारे/घुल-मिलकर एक हुए रोशनी-अँधेरे/और कहाँ तक ले जाओगे मन मेरे!
शम्भुनाथ जी मूलतः देवरिया के ग्रामीण परिवार के थे। देवरिया जनपद के रावतपार गाँव में संवत्‌(सन्‌1916) की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी यानी 17 जून को उनका जन्म हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और पीएच.डी. करने के बाद उन्होने कुछ दिनो तक पत्रकारिता भी की थी, मगर जल्द ही वे अपने रचना-कर्म के लिए अनुकूल अध्यापन-कार्य से जुड़ गये और काशी विद्यापीठ में व्याख्याता(1948-59),वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1959-70), फिर काशी विद्यापीठ में हिन्दी विभागाध्यक्ष (1970-76) रहने के बाद पाँच वर्षों तक(1975- 80) विद्यापीठ के तुलसी संस्थान के निदेशक रहे। सन्‌से वे विधिवत्‌लिखने लगे थे। 1941 में उनका पहला गीत संग्रह ‘रूप रश्मि’ प्रकाशित हुआ था और दूसरा संग्रह ‘छायालोक’ 1945 में। ये दोनो उनके पारम्परिक गीतों के संग्रह थे। इसके बाद वे नयी कविता के आकर्षण में आये,जिसकी उपज है ‘उदयाचल’(1946) मन्वन्तर (1948),माध्यम मैं और खण्डित सेतु|
`खण्डित सेतु’ मात्र एक टूटा हुआ पुल नहीं था, बल्कि नयी कविता के पक्षधर समीक्षकों की गोलैसी के कारण मुक्तछन्द कविता में अपनी पहचान न बना पाने के कारण शम्भुनाथ जी का खण्डित विश्वास भी था,जिसने उन्हें फिर से गीतों की ओर मुड़ने को बाध्य किया। उसके बाद उनके दो नवगीत संग्रह ‘समय की शिला पर’(1968) और ‘जहाँ दर्द नीला है’(1977)प्रकाशित हुए,जिनमें उनके नये तेवर के गीत संकलित हैं| परवर्ती काल में उनके दो और संग्रह आये-‘वक्त की मीनार पर'(1986) और `माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः'(1991) जो हिन्दी नवगीत के प्रतिमान बने। प्रारम्भिक दौर में उनके दो कहानी संग्रह ‘रातरानी’(1946) और ‘विद्रोह’(1948) भी छपे थे,लेकिन कवि के अतिरिक्त जिस सर्जनात्मक विधा ने उन्हें विशेष प्रतिष्ठा , वह थी नाट्य-विधा। उनके नव नाटक ‘धरती और आकाश’(1950) और ‘अकेला शहर’ (1975) को हिन्दी के प्रतिनिधि नाटकों में रखा जा सकता है। काशी की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘श्रीनाट्यम’ ने जब ‘अकेला शहर’ को नगर में मंचित किया,तो उसमें एक छोटी-सी भूमिका मेरी भी थी।यदि इन नाटकों की चर्चा हिंदी कक्षाओं में नहीं होती है, तो इसे हिंदी अध्यापकों का जन्मान्धत्व ही माना जाए |
मूलतः हिन्दी का छात्र न होने के कारण काशी के अन्य रचनाकारों की तरह शम्भुनाथ जी से भी मेरा कोई परिचय नहीं था। सन्‌में अंग्रेजी से एम.ए. करने के बाद मैं कविगोष्ठियों में जाने लगा था और दो-एक कविगोष्ठी से ही मुझे वह पहचान मिल गयी थी,जो अन्य कवियों को वर्षों बाद भी नसीब नहीं होती। ऐसी ही एक मराठियों के गणेशोत्सव वाली गोष्ठी में शम्भुनाथ जी ने मेरा गीत ‘नाच गुजरिया नाच! कि आयी कजरारी बरसात री’ सुनी,तो मुझे बहुत प्यार से रिक्शे पर बैठाकर अपने घर ले गये और रास्ते भर मुझे पारम्परिक गीत और नवगीत में अन्तर बताते हुए नवगीत लिखने के लिए प्रेरित करते रहे।
मैं मिश्र पोखरा मुहाल में रहता था,जो उनके सोनिया स्थित घर के पास ही था; और मेरे पास कोई खास काम भी नहीं था,इसलिए मैं अक्सर उनके घर जाने लगा और उस परिवार में ऐसा शामिल हुआ कि डॉक्टर साहब कभी-कभी व्यंग्य भी कर देते थे कि ‘तुम पूर्व जन्म में जरूर चूहा रहे होगे’। जैसे चूहा रसोई घर के कोना –कोना छान मारता है, वैसे ही मैं भी सीधे रसोई घर तक जाकर गृहस्वामिनी से, जिन्हें मैं ‘सन्तोषी माता’ कहा करता था, कुछ न कुछ खाद्य पदार्थ प्राप्त कर लेता था। उनके तीनो बेटे और दोनो बेटियों से मेरी जो प्रगाढ़ आत्मीयता बन गयी थी, वह आज भी तरोताजा है।
उस परिवार से, मुझसे पूर्व श्रीकृष्ण तिवारी, उमाशंकर तिवारी और मेरे बाद डॉ. सुरेश (व्यथित) भी उसी तरह जुड़े थे। उमाशंकर काशी विद्यापीठ के छात्र थे । छात्र के रूप में ही एक बार उन्होंने उस मंच से एक गीत पढा, जो फिल्मी धुन पर था। डॉक्टर साहब ने उसे रोक दिया। छात्रों ने हंगामा कर दिया,लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। काव्यमंच पर वे किसी प्रकार की अनुशासनहीनता या गन्दगी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। काश! यही दृढ़ता यदि उस समय के अन्य अग्रणी गीतकारों ने दिखायी होती, तो कविसम्मेलनों की आज इतनी दुर्दशा नहीं होती। उस समय उमाशंकरजी को उन्होने डाँट दिया,मगर बाद में उन्हें अपने घर बुलाकर गीत लिखने की कला सिखाते रहे, जिसके कारण उमाशंकर नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर बन गये। इसी प्रकार ,श्रीकृष्ण तिवारी को भी उन्होने हाथ पकड़कर नवगीत लिखना सिखाया। मैं गंडा बँधवाकर उनका शिष्य तो नहीं बन सका, लेकिन उनकी दिवालोक में अपना पथ निर्माण करने में मुझे भरपूर सम्बल मिला था।
उन्होंने मूर्तिकला की कोई शिक्षा नहीं पाई थी,मगर काशी में राय कृष्णदास के बाद मूर्तिकला के वही विशेषज्ञ थे | उन्होंने मिर्जापुर के वनांचलों से अनेक दुर्लभ मूर्तियों का उद्धारकर पहले अपने घर पर,बाद में काशी विद्यापीठ में उन्हें संग्रहालय का अंग बनाया |
धारा के विरुद्ध चलकर,नवगीत विधा को प्रतिष्ठित करने में उन्होने जीवन के अन्तिम चरण में जो अहर्निश संघर्ष किया, वह स्वतन्त्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह के बलिदान की याद दिलाता है। 1980 के दशक में उन्होने अज्ञेय-सम्पादित ‘सप्तकों’ के जवाब में न केवल तीन खण्डों में ‘नवगीत दशक’ (पराग प्रकाशन,दिल्ली) निकाले, बल्कि हर खण्ड में लम्बी भूमिका लिखकर नवगीत की परती जमीन को नयी फसल के लिए तैयार किया। इतना ही नहीं, इन ‘दशकों’ के प्रचार-प्रसार के लिए नगर-नगर में उन्होने, अपने सम्बन्धों का उपयोग करते हुए, ऐतिहासिक आयोजन भी किये, जिनमें दिल्ली में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के आवास पर हुई काव्यगोष्ठी चिरस्मरणीय है। 3 सितम्बर 1991 को उनके निधन से नवगीत की वह विजय-यात्रा एक प्रकार से थम-सी गयी,क्योंकि उनके बाद रथ पर चढ़नेवाले तो बहुत थे, मगर रथ में जुतनेवाला कोई नहीं। तथापि, उन्होंने जो नवगीत की अमराई लगायी है,वह अच्छी तरह फल-फूल रही है और हर साल नयी कलमें पुराने बीजू वृक्षों का स्थान ले रही हैं |
आज शताब्दी वर्ष में उनकी ही गीत-पंक्तियों से उन्हें नमन करता हूँ:
मैं वह पतझर,जिसके ऊपर से/धूल भरी आँधियाँ गुजर गयी/दिन का खँडहर जिसके माथे पर/अँधियारी साँझ-सी ठहर गयी/जीवन का साथ छुटा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो। मन का आकाश उड़ा जा रहा/ पुरवैया धीरे बहो।
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
देवधा हाउस,गली-5, वसन्त विहार एन्क्लेव, देहरादून-248006
मो.-9412992244 buddhinathji@yahoo.co.in

सोमवार, 10 जुलाई 2023

मोहन छंद, मुक्तिका, सॉनेट, नवगीत, बेटी, भाषा, काल है संक्रांति का, अंसार क़म्बरी, रोहिताश्व अस्थाना,

सॉनेट
जब बच्चा था, तब सच्चा था, नहीं जरूरत थी तब ज्यादा,
जैसे जैसे बड़ा हुआ मैं, अपने पैरों खड़ा हुआ मैं,
बढ़ी जरूरत धीरे धीरे, हर दिन थोड़ी ओढ़ लबादा,
वादा कर जुमला बतलाया, तोड़ दिया झट बुरा हुआ मैं।

बेहद ज्यादा बढ़ी जरूरत, मेरे सिर पर चढ़ी जरूरत,
इच्छाओं का दास हो गया, अमन गँवाया, चैन खो गया,
जीना मुश्किल करे जरूरत, कभी न किंचित् घटे जरूरत,
सोच-समझकर कदम बढ़ाया, घटा जरूरत कुछ सुख पाया।

बूढ़ा हुआ समझ आई अब, संग न यौवन-तरुणाई अब,
जो जैसा स्वीकार रहा हूँ, सुख को कर साकार रहा हूँ,
करी हँसी की पहुनाई जब, हसीं जिंदगी मन भाई तब,
लुटा सभी पर प्यार रहा हूँ, खुद को सब पर वार रहा हूँ।

कमी न कोई अब खलती है, खुद में ही गल्ती मिलती है,
श्वास आस से भुज मिलती है, साँझ रात में चुप ढलती है।
१०-७-२०२३
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सॉनेट
पावस
*
सनन सनन सन पवन प्रवाहित
छनन छनन छन बूँदें बरसें
धरा मिलन को पल-पल तरसें
मन मुकुलित, तन हर्षित-पुलकित
पर्ण-पर्ण पर नव निखार है
कली-कली इठला-इतराए
तितली-भँवरे गीत सुनाए
तिनके-तिनके पर खुमार है
नागर कैदी नहीं हुलसते
पंखे-ए सी चला झुलसते
कांक्रीट वर सतत दहकते
आग बर रई रे तन-मन मा
भोग-विलास भरो जीवन मा
का जानें बेंच जीवन व मा
३५१ पलाश, भोपाल
९-७-२०२२
•••
सॉनेट
चिंता कल की
सगा न कोई यहाँ किसी का
सेंक रहे सब अपनी रोटी
कुत्ते हरदम पूँछ हिलाता
उसके आगे जो दे बोटी
घर का भेदी ढाता लंका
मीर जाफरों की होती जय
जयचंदों का बजता डंका
शूर्पणखाएँ फिरतीं निर्भय
पूतनाएँ पुजती हैं घर-घर
बंद देवकी कारा में भय
नंद भागते छिपते डर-डर
कंसराज की करते जय-जय
वेदव्यास सत्ता के चारण
चिंता कल की है इस कारण
३५१ पलाश, भोपाल
९-७-२०२२, ००•४०
•••
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सॉनेट
बिजुरी
दमक दमक दम दमके बिजुरी
'हाय' करें जे, 'वाह' कहें बे
जलवे देखें, जवां जलें रे
कौन कहे कहँ गिरती ससुरी?
तड़-तड़ तड़के, भड़-भड़के
भीत मेघ झट भू पर बरसे
लौटे नहिं, जो निकसे घर से
जीत न कौनऊ पाए लड़ के
दिन भर रहे, रात गायब हो
जैसे दफ्तर से साहब हो
घातक ज्यों यम की नायब हो
नैन गिराएँ मादक बिजुरी
बैन बिसैली मारक बिजुरी
सब सुहाए साधक बिजुरी
१०•७•२०२२
रुद्राक्ष, गुलमोहर, भोपाल
•••
सॉनेट
एकनाथ
एकनाथ की महिमा न्यारी
गाँठ कमल से ली है यारी
मत भूलो कीचड़ में उगता
जो थामे कीचड़ में सनता
कमल न शिवजी के मन भाता
नहीं शेर को तनिक सुहाता
कमला कमल न साथ निभाए
छलिया मायापति तरसाए
केर-बेर का संग अनूठा
रूठा, अपनों से ही टूटा
घर का भेदी लंका ढाए
जनगण के मन तनिक न भाए
ऐंठे थामे डोर मदारी
नाच नचाए बना भिखारी
१०-७-२०२२
भोपाल
•••
सॉनेट
रुचि
*
रुचि का रखें हमेशा ध्यान
रुचि ही करती है गुणवान
खुश हो सुरुचि, उठाए ऊपर
रूठ कुरुचि हो, जैसे ऊसर
रुचि बन संस्कार मन बसिया
करे सुगंधित जीवन बगिया
अमला धवला सरला तरला
चंचल चपला कमला विमला
हो संतोष सदा मन भाए
अंजलि सुरभित पवन सुहाए
सफल साधना पार लगाए
निशि-दिन रुचि की जय-जय बोलो
नेह नर्मदा पावन हो लो
हो सुशील हँस मधुरस घोलो
१०-७-२०२२
३५१ रुद्राक्ष, गुलमोहर,भोपाल
•••
गीत
आँख की महिमा भारी
*
आँख खुली तो जनम हो गओ, आँख मुँदी तो मरन।
आँख मिली झुक उठ लड़ गई तो, आँख लग गई लगन।।
आँख दिखाई बैर पल गओ, आँख लाल की जलन।
आँख नटेरी, आँख फूट गई, कोऊ नें रै गओ स्वजन।।
आँख से करिए यारी
आँख की महिमा भारी
*
आँख बस गओ हाय रे, आँख खों अंजन घाईं।
आँख बचाकर आँख नें, करी आँख पहुनाई।।
आँख आँख बैरन भईं, फूटी आँख नें भाईं।
आँख कलेजो चीरकर, रो-रो आँख गँवाईं।।
आँख कर रई अय्यारी
आँख की महिमा भारी
*
आँख समा गओ आप तो, टँसुआ आँख बहाए।
आँख भई मीरा मगन, सूर स्याम पतियाए।।
आँख दिवानी राधिका, नैना स्याम बसाए।
आँख चार भईं, फेर लईं, आँधर राह दिखाए।।
आँख है तेज कटारी
आँख की महिमा भारी
*
***
विमर्श : भाषिक शुद्धता
*
भाषा वाहक भाव की, करे कथ्य अभिव्यक्त
शब्द यथोचित यदि नहीं, तो मानें है त्यक्त
अनुभूत को अभिव्यक्त करने का माध्यम है भाषा। बच्चा भाषा सीखता है माँ और स्वजनों से। माता-पिता दोनों की भाषिक पृष्ठ भूमि प्राय: भिन्न होती है। भाषा कोई भी हो लोक दैनंदिन कार्य व्यापार में विविध भाषाओं-बोलिओं के शब्दों का प्रयोग करता है। ग्रामीण बोली और बाजारू भाषा इसी तरह बनती है। अध्ययन की भाषा शिक्षा के स्तर और विषयानुसार रूप ग्रहण करती है। प्राथमिक स्तर का भाषा शोधकार्य के उपयुक्त नहीं हो सकती। इसी तरह प्राणीशास्त्र में प्रयुक्त भाषा वाणिज्य अथवा यांत्रिकी को लिए अनुपयुक्त होगी।
भाषिक शुद्धता का शब्दों से संबंध नहीं
सामान्यतः भाषिक शुद्धता के शब्द-प्रयोग से जोड़ दिया जाता है। मैं इससे सहमत नहीं हूँ। शब्द साझा होते हैं। मनुष्य जहाँ जाता है, जिनसे मिलता है, जो पढ़ता है, उससे शब्द ग्रहण करता है। वर्तमान में दूरदर्शन व अंतर्जाल ने 'छोटी सी ये दुनिया' की सोच को साकार कर दिया है। इसे शब्दों की यात्रा और सहज हो गयी है। जिस देश के पात्र, स्थान और लोकाचार की चर्चा की जाएगी, उस देश के शब्द प्रयोग में आएंगे ही। रूसी परिवेश की कहानी में रूस के पात्र, स्थान और लोकाचार स्वाभाविक है। वहाँ भारतीय वनस्पतियों, नामों, शहरों का उल्लेख अनुपयुक्त होगा। कहते हैं "पाँच कोस पे पानी बदले, बीस कोस पे बानी" अगर भाषा के स्वाभाविकता ही न होगी तो कृत्रिम भाषा से रसानंद कैसे मिलेगा?
भाषिक शुद्धता का आधार व्याकरण और पिंगल
भाषिक शुद्धता या अशुद्धता को देखने का आधार भाषा का व्याकरण और पिंगल होता है। हर भाषा की भिन्न प्रकृति और संस्कार होता है। हिंदी में २ लिंग हैं, संस्कृत में ३, अंग्रेजी में ४। भाषिक शुद्धता को महत्वहीन समझनेवाले यह बताएं की अंग्रेजी में हिंदी की तरह दो लिंग मानकर लिखा जाए तो उन्हें हजम होगा? यदि अंग्रेजी के पर्चे में परीक्षार्थी हिंदी की क्रिया, विशेषण आदि का प्रयोग करे तो उसे सही मानेंगे? अंग्रेजी में उचित शब्द होते हुए भी तमिल, मराठी या हिंदी के शब्द उपयोग करने पर अंक देंगे?
भाषिक संस्कार
इसी तरह हिंदी में जो सम्यक शब्द हैं उनका प्रयोग किया ही जाना चाहिए। गाँव के किसान 'गेहूं' की जगह 'व्हीट' कहे तो असहनीय होगा। लोक अन्य भाषिक शब्दों को अपने संस्कार में ढालता है। तभी 'मास्टर साहेब' को 'मास्साब', 'डॉक्टर साहेब' को 'डाक्साब' बनाकर ग्रहण कर लेता है। 'स्टेशन' को 'टेशन' कहे तो भी स्वाभाविकता बनी रहती है। किन्तु पौधरोपण की जगह 'प्लांटेशन' का प्रयोग भाषिक प्रदूषण ही है।
साहित्य में भाषा
लोक साहित्य के माध्यम से भाषा को संस्कारित करता है। साहित्य की भाषा लक्ष्य पाठक के अनुरूप होती है। हिंदी साहित्य के स्नातक को जिस भाषा में पढ़ाया जायेगा वह चिकित्सा के स्नातक विद्यार्थी के लिए प्रयोग नहीं की जा सकती। साहित्य में भाषिक शुद्धता का आग्रह बिलकुल उचित है। हिंदी में अंग्रेजी, अरबी-फ़ारसी शब्दों के आग्रही क्या अंग्रेजी रचना कर्म में हिंदी शब्दों का प्रयोग करेंगे? प्रो. अनिल जी ने 'ऑफ़ एन्ड ऑन' या 'द सेकेण्ड थॉट' में शुद्ध अंग्रेजी नहीं लिखी क्या? इन किताबों कितने हिंदी शब्द हैं? अंग्रेजी में लिखें तो भाषा शुद्ध हो, हिंदी में लिखें तो भाषिक शुद्धता का प्रश्न गलत कैसे ?
रचना का कथ्य और भाषा
बाल साहित्य की भाषा तकनीकी लेख या व्यंग्य लेख की तरह नहीं होगी। कबीर और तुलसी की भाषा में भिन्नता स्वाभाविक है और दोनों में से किसी को अशुद्ध नहीं कहा जाता। क्या रामचरित मानस ग़ालिब की भाषा में लिखा जा सकता है? सपना जी! बहुत विनम्रता से महान है कि उर्दू का तो कोई शब्द ही नहीं है। उर्दू शब्द कोष में सम्मिलित सब और हर शब्द किसी अन्य भाषा से लिया गया है। उर्दू हिंदी की एक शैली है जिसमें कुछ विदेशी (अरबी, फ़ारसी) और कुछ भारतीय भाषाओँ के शब्दों का संकलन है। इसी तरह जबलपुर के निकट पचेली बोली जाती है जिसमें ५ भारतीय भाषाओँ के शब्द सम्मिलित हैं।
भाषिक सहजता जरूरी
अनिल जी! यह सही है कि अनावश्यक क्लिष्टता नहीं होना चाहिए, पर यह लेखक की शैली से जुड़ा बिंदु है। मैथिलीशरण गुप्त और हजारी प्रसाद द्विवेदी दोनों की भाषा और शब्द चयन भिन्न हों तो दोनों में से किसी को निरस्त नहीं किया जा सकता जबकि एक की भाषा सरल दूसरे की क्लिष्ट है।
देवकांत जी से सहमत हूँ कि जहाँ भाषा में उपयुक्त शब्द हों वहाँ अनावश्यक अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग नहीं चाहिए।
सारांश जी की बात सही है। मिलमा दाल, सब्जी तो खाई जा सकती है पर खीर और कढ़ी को मिलाकर नहीं खाया जा सकता।
भाषा की नदी में सहायक नदियों क पानी मिले तो आपत्ति नहीं है किन्तु रासायनिक कारखाने का दूषित जल मिले तो आपत्ति करनी ही होगी।
पाखी जी हिंदी में शोध निरंतर हो रहा है। हमें अंग्रेजी से स्नेह रखते हुए अंग्रेजियत से दूरी बनानी होगी। अंग्रेजी के प्राध्यापक को भी पूरी तरह भारतीय संस्कार, हिंदी भाषा और स्थानीय बोली से जुड़ा होना चाहिए।
भाषी प्रदूषण गलत शब्द प्रयोग से भी होता है। रेल लेट है। इसे हिंदी कैसे स्वीकार करे? रेल का अर्थ पटरी होता है। ट्रेन का समानार्थी रेलगाड़ी है। जबलपुर आ रहा है। जबलपुर नहीं आता-जाता, आती-जाती रेलगाड़ी है। हमें भाषिक शुद्धता के प्रति सजग होना ही होगा। मेरी एक द्विपदी का आनंद लें-
क्या पूछते हो, राह यह जाती कहाँ है?
आदमी जाते हैं नादां रास्ते जाते नहीं हैं।
पौधरोपण का प्रयोग न कर वृक्षारोपण का प्रत्योग करने के पक्षधर क्या प्लांटेशन की जगह ट्री टेशन कहेंगे? हम हिंदी के प्रति स्वस्थ्य दृष्टिकोण अपनाएं और भाषिक शुद्धता, सरलता तथा सहजता को अपनाएँ यह आवश्यक है।
अभी कल ही मिजोरम विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी में अनुवाद कार्य पर अन्तर्राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी थी। उसमें बुगरिया और अन्य देशों के विदेशी प्राध्यापक शुद्ध हिंदी पूरी तरह भारतीय लहजे में बोल रहे थे किन्तु कुलपति महोदय पूरे समय अंग्रेजी बोलते रहे। विदेशी प्राध्यापक द्वारा अंग्रेजी समझने में कठिनाई व्यक्त करने पर भी उन्हें अंग्रेजी बोलने में शर्म नहीं आई। अंत में भारतेन्दु के दोहे के साथ अपने बात समाप्त करता हूँ -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के मिठे न हिय को सूल
* ।
***
बेटी पचीसा
(बेटी पर २५ दोहे)
*
सपना है; अरमान है, बेटी घर का गर्व।
बिखरा निर्झर सी हँसी, दुख हर लेती सर्व।।
*
बेटी है प्रभु की कृपा, प्रकृति का उपहार।
दिल की धड़कन सरीखी, करे वंश-उद्धार।।
*
लिए रुदन में छंद वह, मधुर हँसी में गीत।
मृदुल-मृदुल मुस्कान में, लुटा रही संगीत।।
*
नन्हें कर-पग हिलाकर, मुट्ठी रखती बंद।
टुकुर-टुकुर जग देखती, दे स्वर्गिक आनंद।।
*
छुई-मुई चंपा-कली, निर्मल श्वेत कपास।
हर उपमा फीकी पड़े, दे न सके आभास।।
*
पूजा की घंटी-ध्वनि, जैसे पहले बोल।
छेड़े तार सितार के, कानों में रस घोल।।
*
बैठ पिता के काँध पर, ताक रही आकाश।
ऐंठ न; बाँधूगी तुझे, निज बाँहों के पाश।।
*
अँगुली थामी चल पड़ी, बेटी ले विश्वास।
गिर-उठ फिर-फिर पग धरे, होगा सफल प्रयास।।
*
बेटी-बेटा से बढ़े, जनक-जननि का वंश।
एक वृक्ष के दो कुसुम, दोनों में तरु-अंश।।
*
बेटा-बेटी दो नयन, दोनों कर; दो पैर।
माना नहीं समान तो, रहे न जग की खैर।।
*
गाइड हो-कर हो सके, बेटी सबसे श्रेष्ठ।
कैडेट हो या कमांडर, करें प्रशंसा ज्येष्ठ।।
*
छुम-छुम-छन पायल बजी, स्वेद-बिंदु से सींच।
बेटी कत्थक कर हँसी, भरतनाट्यम् भींच।।
*
बेटी मुख-पोथी पढ़े, बिना कहे ले जान।
दादी-बब्बा असीसें, 'है सद्गुण की खान'।।
*
दादी नानी माँ बुआ, मौसी चाची सँग।
मामी दीदी सखी हैं, बिटिया के ही रंग।।
*
बेटी से घर; घर बने, बेटी बिना मकान।
बेटी बिन बेजान घर, बेटी घर की जान।।
*
बेटी से किस्मत खुले, खुल जाती तकदीर।
बेटी पाने के लिए, बनते सभी फकीर।।
*
बेटी-बेटे में 'सलिल', कभी न करिए फर्क।
ऊँच-नीच जो कर रहे, वे जाएँगे नर्क।।
*
बेटी बिन निर्जीव जग, बेटी पा संजीव।
नेह-नर्मदा में खिले, बेटी बन राजीव।।
*
सुषमा; आशा-किरण है, बेटी पुष्पा बाग़।
शांति; कांति है; क्रांति भी, बेटी सर की पाग।।
*
ऊषा संध्या निशा ऋतु, धरती दिशा सुगंध।
बेटी पूनम चाँदनी, श्वास-आस संबंध।।
*
श्रृद्धा निष्ठा अपेक्षा, कृपा दया की नीति।
परंपरा उन्नति प्रगति, बेटी जीवन-रीति।।
*
ईश अर्चना वंदना, भजन प्रार्थना प्रीति।
शक्ति-भक्ति अनुरक्ति है, बेटी अभय अभीति।।
*
धरती पर पग जमाकर, छूती है आकाश।
शारद रमा उमा यही, करे अनय का नाश।।
*
दीपक बाती स्नेह यह, ज्योति उजास अनंत।
बेटी-बेटा संग मिल, जीतें दिशा-दिगंत।।
***
१०.७.२०१८
***
पुस्तक समीक्षा
आधुनिक समय का प्रमाणिक दस्तावेज 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई
*
गीत संवेदनशील हृदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवदी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं, एवं टटके बिंबों के सहारे दुनिया जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप के विद्रोह स्वरूप नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुत: यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- "काल है संक्रांति / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित का कर रही है तंग / मनुज-करनी देखकर खुद नियति भी है दंग' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत-नवगीत उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है-
''तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं, मन भी खिले
करना सदा- वह जो सही।''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है-
"मिली दिहाड़ी
चल बाजार।
चवल-दाल किलो भर ले ले,
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया मिर्ची ताज़ी।"
सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवालों की दशा अति दयनीय है। इसी विषय पर 'राम बचाये' शीर्षक नवगीत की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य है -
"राम-रहीम बीनते कूड़ा
रजिया-रधिया झाड़ू थामे
सड़क किनारे बैठे लोटे
बतलाते कितने विपन्न हम ?"
हमारी नयी पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कम शब्दों में संकेतों के माध्यम से गहरे बातें कहने में कुशल कवि हर युवा के हाथ में हर समय दिखेत चलभाष (मोबाइल) को अपसंस्कृति का प्रतीक बनाकर एक और तो जमीन से दूर होने पर चिंतित होते हैं, दूसरी और भटक जाने की आशंका से व्यथित भी हैं-
" हाथों में मोबाइल थामे
गीध-दृष्टि पगडण्डी भूली,
भटक न जाए।
राज मार्ग पर जाम लगा है
कूचे-गली हुए हैं सूने।
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने ?"
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के शब्द-चित्र कमाल के खींचे हैं। वे विविध बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं जो आम-ख़ास हर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है और सोचने के लिए विवश भी करता है-
"लोकतंत्र का पंछी बेबस
नेता पहले दाना डालें
फिर लेते पर नोच।
अफसर रिश्वत-गोली मारें
करें न किंचित सोच।"
अथवा
"बातें बड़ी-बड़ी करते हैं,
मनमानी का पथ वरते हैं।
बना-तोड़ते संविधान खुद
दोष दूसरों पर धरते हैं।"
इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी-छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- "वह जो खासों में खास है / रूपया जिसके पास है। ", "तुम बंदूक चलो तो / हम मिलकर कलम चलायेंगे। ", लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है। ", वेश संत का / मन शैतान। ", "अंध श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है। ", "खुशियों की मछली को। / चिंता बगुला / खा जाता है। ", कब होंगे आज़ाद? / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?" आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन-हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- "उम्मीदों की फसल / उगाना बाकी है
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं ?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं??"
इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है-
"खों-खों करते / बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी।
पछुआ अम्मा / बड़बड़ करतीं
डाँट लगातीं तगड़ी।"
निष्कर्षत: कृति के सभी गीत-नवगीत एक से बरहकर एक सुन्दर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छन्दों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर सौ टंच खरी उतरने वाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आइना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिन्तनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से ऐसी ही सार्थक, युगबोधक परक और मन को छूनेवाली कृतियों की आशा की सकती है।
***
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, चलभाष ९४२५१८३२४४]
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, निकट बावन चुंगी चौराहा, हरदोई २४१००१ उ. प्र. दूरभाष ०५८५२ २३२३९२।
***
पुस्तक समीक्षा -
नव आयामी नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का'
डाॅ. अंसार क़म्बरी
*
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का गीत-नवगीत संग्रह ‘‘काल है संक्रांति का’’ प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। गीत हिन्दी काव्य की प्रभावी एवं सशक्त विधा है । इस विधा में कवि अपनी उत्कृष्ट अनुभूति एवं उन्नत अभिव्यक्ति व्दारा काव्य का ऐसा उदात्त रूप प्रस्तुत करता है जिसके अंतर्गत तत्कालीन, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों को साकार करते हुये मानव-मनोवृृत्तियों की अनेक प्रतिमायें (बिम्ब)चित्रित करता है। आत्मनिरीक्षण और शुक्ताचरण की प्रेरणा देते हुये कविवर आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा नवगीत को नए आयाम दिए हैं।
इधर समकालीन कवियों ने भी विचार बोझिल गद्य-कविता की शुष्कता से मुक्ति के लिये गीत एवं नवगीत मात्रिक छंद को अपनाना श्रेष्ठकर समझा है, जैसा कि सलिल जी ने प्रस्तुत संग्रह में बड़ी सफलता से प्रस्तुत किया हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनकी भाषा भाव-सम्प्रेषण में कहीं अटकती नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल के शब्दों को धड़ल्ले से प्रयोग करते हुये आंचलिक भाषा का भी समावेश किया है जो उनके गीतों का प्राण है। उनके गीत नवीन विषयों को स्वयम् में समाहित करने के उपरान्त अपनी अनुशासनबध्दता यथा- आत्माभिव्यंजकता, भाव-प्रवणता, लयात्मकता, गेयता, मधुरता एवं सम्प्रेषणीयता आदि प्रमुख तत्वों से सम्पूरित हैं अर्थात उन्होंने हिन्दी-गीत की निरंतर प्रगतिशील बहुभावीय परम्परा एवं नवीनतम विचारों के साथ गतिमान होने के बावजूद गीति-काव्य की सर्वांगीणता को पूर्णरुपेण समन्वित किया है।
'काल है संक्रान्ति का' में नवगीतकार ने प्रत्येक गीत को एक शीर्षक दिया है जो कथ्य तक पहुँचने में सहायक होता है। आचार्य जी, चित्रगुप्त प्रभु एवं वीणापाणि के चरणों में बैठकर रचनाधर्मिता, जीवंतता तथा युगापेक्षी सारस्वत साधनारत समर्थ प्रतीक रस सिध्द कवि हैं। वंदन करते हुये वो अपनी लेखनी से विनती करते हैं:
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु !
हाथ पसारे आये।
अनहद, अक्षय, अजर, अमर हे !
अमित, अभय, अविजित, अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर मिटाने
अरुणागत हम
व्दार तिहारे आये।
$ः$ः$ः
माॅै वीणापाणि को - स्तवन
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी।
जय-जय वीणापाणी।।
अमल-धवन शुचि, विमल सनातन मैया।
बुध्दि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति खेलें तब कैंया।
अनहद सुनवा दो कल्याणी।
जय-जय वीणापाणी।।
उनके नवीन गीत-सृजन समसामयिक चेतना की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति से संपन्न हैं किंतु वे प्रारम्भ में पुरखों को स्मरण करते हुए कहते है। यथा:
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ ! करें प्रणाम।
काया-माया-छायाधारी
जिन्हें जपें विधि-हरि-त्रिपुरारी
सुर, नर, वानर, नाग, द्रविण, मय
राजा-प्रजा, पुरुष-शिशु-नारी
मूर्त-अमूर्त, अजन्मा-जन्मा
मति दो करें सुनाम।
आओ! करें प्रणाम।
पुस्तक शीर्षक को सार्थकता प्रदान करते हुये ‘संक्रांति काल है’ रचना में जनमानस को कवि झकझोरते हुये जगा रहा है। यथा:
संक्रांति काल है
जगो, उठो
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आॅैखें रहते भी हो सूर
संसद हो चैपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर।
अब भ्रांति टाल दो
जगो, उठो।
उक्त भावों को शब्द देते हुये कवि ने सूरज के माध्यम से कई रचनाएँ दी हैं जैसे - उठो सूरज, हे साल नये, जगो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे, सूरज बबुआ, छुएँ सूरज आदि - यथा:
आओ भी सूरज।
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ।
गाओ भी सूरज।
$ः$ः$ः$ः$ः
उग रहे या ढल रहे तुम
क्रान्त प्रतिपल रहे तुम ।
उगना नित
हँस सूरज।
धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत।
उनके गीत जीवन में आये उतार-चढ़ाव, भटकाव-ठहराव, देश और समाज के बदलते रंगों के विस्तृत व विश्वसनीय भावों को उकेरते हुये परिलक्षित होते हैं। इस बात की पुष्टि के लिये पुस्तक में संग्रहीत उनके गीतों के कुछ मुखड़े दे रहा हूँ। यथा:
तुम बंदूक चलाओ तो
हम मिलकर
क़लम चलायेंगे।
$ः$ः$ः$ः
अधर पर धर अधर छिप
नवगीत का मुखड़ा कहा।
$ः$ः$ः$ः
कल के गैर
आज हैं अपने।
$ः$ः$ः$ः
कल का अपना
आज गैर है।
$ः$ः$ः$
काम तमाम, तमाम का
करतीं निश-दिन आप।
मम्मी, मैया, माॅै, महतारी
करुॅै आपका जाप।
अंत में इतना ही कह सकता हूॅै कि आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ आदर्शवादी संचेतना के कवि हैं लेकिन यथार्थ की अभिव्यक्ति करने में भी संकोच नहीं करते। अपने गीतों में उन्होंने भारतीय परिवेश की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि विसंगतियों को सटीक रूप में चित्रित किया है। निस्संदेह, उनका काव्य-कौशल सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। उनके गीतों में उनका समग्र व्यक्तित्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। निश्चित ही उनका प्रस्तुत गीत-नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ साहित्य संसार में सराहा जायेगा। मैं उन्हें कोटिशः बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूॅै और ईश्वर से प्रार्थना करता हूॅै कि वे निरंतर स्वस्थ व सानंद रहते हुए चिरायु हों और माँ सरस्वती की ऐसे ही समर्पित भाव से सेवा करते रहें।
**********
संपर्क - ज़फ़र मंज़िल’, 11/116, ग्वालटोली, कानपुर-208001, चलभाष 9450938629

***
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
***
***
नवगीत:
*
व्यापम की बात मत करो
न खबर ही पढ़ो,
शव-राज चल रहा
कोई तुझको न मार दे.
*
पैंसठ बरस में क्या किया
बोफोर्स-कोल मात्र?
हम तोड़ रहे रोज ही
पिछले सभी रिकॉर्ड.
यमराज के दरबार में
है भीड़-भाड़ खूब,
प्रभु चित्रगुप्त दीजिए
हमको सभी अवार्ड.
आपातकाल बिन कहे
दे दस्तक, सुनो
किसमें है दम जो देश को
दुःख से उबार ले.
*
डिजिटल बनो खाते खुला
फिर भूख से मरो.
रोमन में लिखो हिंदी
फिर बने नया रिकॉर्ड.
लग जाओ लाइनों में रोज
बंद रख जुबां,
हर रोज बनाओ नया
कोई तो एक कार्ड.
न कोई तुम सा, बोल
खाओ मुफ्त मिले खीर
उसमें लगा हो चाहे
हींग-मिर्च से बघार.

१०-७-२०१५

***

रविवार, 9 जुलाई 2023

सुमेरु छंद, छंद इन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा सवैया, दोहा, जान, गुरु, मोहन छंद, साहित्यकारी दोहे

स्नेहिल सलिला सवैया ​​ : १.
द्वि इंद्रवज्रा सवैया
सम वर्ण वृत्त छंद इन्द्रवज्रा (प्रत्येक चरण ११-११ वर्ण, लक्षण "स्यादिन्द्र वज्रा यदि तौ जगौ ग:" = हर चरण में तगण तगण जगण गुरु)
SSI SSI ISI SS
तगण तगण जगण गुरु गुरु
विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः, प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो, सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उदाहरण-
०१. माँगो न माँगो भगवान देंगे, चाहो न चाहो भव तार देंगे। होगा वही जो तकदीर में है, तदबीर के भी अनुसार देंगे।। हारो न भागो नित कोशिशें हो, बाधा मिलें जो कर पार लेंगे।
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!, नौका न चाहें मँझधार लेंगे।
०२ नाते निभाना मत भूल जाना, वादा किया है करके निभाना।
या तो न ख़्वाबों तुम रोज आना, या यूँ न जाना करके बहाना। तोड़ा भरोसा जुमला बताया, लोगों न कोसो खुद को गिराया।
छोड़ो तुम्हें भी हम आज भूले, यादों न आँसू हमने गिराया।
_ ८.७.२०१९
***
एक मुक्तिका:
महापौराणिक जातीय, सुमेरु छंद
विधान: १९ मात्रिक, यति १०-९, पदांत यगण
*
न जिंदा है; न मुर्दा अधमरी है.
यहाँ जम्हूरियत गिरवी धरी है.
*
चली खोटी; हुई बाज़ार-बाहर
वही मुद्रा हमेशा जो खरी है.
*
किये थे वायदे; जुमला बताते
दलों ने घास सत्ता की चरी है.
*
हरी थी टौरिया; कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है.
*
हवेली गाँव की; हम छोड़ आए.
कुठरिया शहर में, उन्नति करी है.
*
न खाओ सब्जियाँ जो चाहता दिल.
भरा है जहर दिखती भर हरी है.
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है.
***
कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
दोहा सलिला:
जान जान की जान है
*
जान जान की जान है, जान जान की आन.
जहाँ जान में जान है, वहीं राम-रहमान.
*
पड़ी जान तब जान में, गई जान जब जान.
यह उसके मन में बसी, वह इसका अरमान.
*
निकल गई तब जान ही, रूठ गई जब जान.
सुना-अनसुना कर हुई, जीते जी बेजान.
*
देता रहा अजान यह, फिर भी रहा अजान.
जिसे टेरता; रह रहा, मन को बना मकान.
*
है नीचा किरदार पर, ऊँचा बना मचान.
चढ़ा; खोजने यह उसे, मिला न नाम-निशान.
*
गया जान से जान पर, जान देखती माल.
कुरबां जां पर जां; न हो, जब तक यह कंगाल.
*
नहीं जानकी जान की, तनिक करे परवाह.
आन रहे रघुवीर की, रही जानकी चाह.
*
जान वर रही; जान वर, किन्तु न पाई जान.
नहीं जानवर से हुआ, मनु अब तक इंसान.
*
कंकर में शंकर बसे, कण-कण में भगवान.
जो कहता; कर नष्ट वह, बनता भक्त सुजान.
*
जान लुटाकर जान पर, जिन्दा कैसे जान?
खोज न पाया आज तक, इसका हल विज्ञान.
*
जान न लेकर जान ले, जो है वही सुजान.
जान न देकर जान दे, जो वह ही रस-खान.
*
जान उड़ेले तब लिखे, रचना रचना कथ्य.
जान निकाले ले रही, रच ना; यह है तथ्य.
*
कथ्य काव्य की जान है, तन है छंद न भूल.
अलंकार लालित्य है, लय-रस बिन सब धूल.
*
९.७.२०१८

***

दोहे साहित्यकारों पर
*
नहीं रमा का, दिलों पर, है रमेश का राज.
दौड़े तेवरी कार पर, पहने ताली ताज.
*
आ दिनेश संग चंद्र जब, छू लेता आकाश.
धूप चांदनी हों भ्रमित, किसको बाँधे पाश.
*
श्री वास्तव में साथ ले, तम हरता आलोक.
पैर जमाकर धरा पर, नभ हाथों पर रोक.
*
चन्द्र कांता खोजता, कांति सूर्य के साथ.
अग्नि होत्री सितारे, करते दो दो हाथ.
*
देख अरुण शर्मा उषा, हुई शर्म से लाल.
आसमान के गाल पर, जैसे लगा गुलाल.
*
खिल बसन्त में मंजरी, देती है पैगाम.
देख आम में खास तू, भला करेंगे राम.
*
जो दे सबको प्रेरणा, उसका जीवन धन्य.
गुप्त रहे या हो प्रगट, है अवदान अनन्य.
*
वही पूर्णिमा निरूपमा,जो दे जग उजियार
चंदा तारे नभ धरा, उस पर हों बलिहार
*
श्वास सुनीता हो सदा, आस रहे शालीन
प्यास पुनीता हो अगर, त्रास न कर दे दीन
*
प्रभा लाल लख उषा की, अनिल रहा है झूम
भोर सुहानी हो गई क्यों बतलाये कौन?
***
दोहा सलिला:
*
गुरु न किसी को मानिये, अगर नहीं स्वीकार
आधे मन से गुरु बना, पछताएँ मत यार
*
गुरु पर श्रद्धा-भक्ति बिन, नहीं मिलेगा ज्ञान
निष्ठा रखे अखंड जो, वही शिष्य मतिमान
*
गुरु अभिभावक, प्रिय सखा, गुरु माता-संतान
गुरु शिष्यों का गर्व हर, रखे आत्म-सम्मान
*
गुरु में उसको देख ले, जिसको चाहे शिष्य
गुरु में वह भी बस रहा, जिसको पूजे नित्य
*
गुरु से छल मत कीजिए, बिन गुरु कब उद्धार?
गुरु नौका पतवार भी, गुरु नाविक मझधार
*
गुरु को पल में सौंप दे, शंका भ्रम अभिमान
गुरु से तब ही पा सके, रक्षण स्नेह वितान
*
गुरु गुरुत्व का पुंज हो, गुरु गुरुता पर्याय
गुरु-आशीषें तो खुले, ईश-कृपा-अध्याय
*
तुलसी सदा समीप हो, नागफनी हो दूर
इससे मंगल कष्ट दे, वह सबको भरपूर
***
९-७-२०१७
***
हिंदी ग़ज़ल / मुक्तिका
[रौद्राक जातीय, मोहन छंद, ५,६,६,६]
*
''दिलों के / मेल कहाँ / रोज़-रोज़ / होते हैं''
मिलन के / ख़्वाब हसीं / हमीं रोज़ / बोते हैं
*
बदन को / देख-देख / हो गये फि/दा लेकिन
न मन को / देख सके / सोच रोज़ / रोते हैं
*
न पढ़ अधि/क, ले समझ/-सोच कभी /तो थोड़ा
ना समझ / अर्थ राम / कहें रोज़ / तोते हैं
*
अटक जो / कदम गए / बढ़ें तो मि/ले मंज़िल
सफल वो / जो न धैर्य / 'सलिल' रोज़ / खोते हैं
*
'सलिल' न क/रिए रोक / टोक है स/फर बाकी
करम का / बोझ मौन / काँध रोज़ / ढोते हैं
९-७-२०१६
***

सोनेट, समर्थ स्वामी रामदास, दोहा, सोरठा,

***
सोरठा सलिला 
हों समर्थ यदि आप, बनें न स्वामी दास हों।
दास राम का जाप, करे नृपति को शिष्य कर।।
*
प्रभु वह जो बल-धाम, दास आप बलवान हो।
हैं बल हीन न राम, राम-दास समरथ रहे।।
*
करते सूर्य प्रणाम, आत्म सूर्य कर प्रकाशित।
मंदिर में हनुमान, गढ़ते सुदृढ़ चरित्र भी।।
*
नहीं आत्म हित लक्ष्य, तीर्थाटन जन हित करे।
हुई गुलामी भक्ष्य, स्वतंत्रता हित प्राण हैं।।
*
कर्म कांड आरंभ, यही न केवल धर्म है।
तजें लोभ मद दंभ, त्याग धर्म का मर्म है।।
*
भक्त तेज से युक्त, विचलित दुख से हो नहीं।
हो कर पाए मुक्त, सब सुख हँसकर छोड़ दे।।
*
कब क्या पाई सिद्धि,आत्म प्रचार करे नहीं।
सदा सजग हो बुद्धि, राष्ट्र-धर्म प्रति समर्पित।।
१६-७-२०२३
***
सोनेट
समर्थ स्वामी रामदास
*
संत 'दीपमाला' सदृश, करते सतत प्रकाश।
'रानी' आत्मा मानते, राजा ब्रह्म अनंत।
'नारायण' की कीर्ति गा, तोड़ें भव का पाश।।
'एकनाथ' छवियाँ अगिन, देखें दिशा-दिगंत।।

नीलगगन खुद 'राणु' बन, 'सूर्या' स्वामी साथ।
'सूर्य स्रोत' के पाठ से, ले 'मोनिका' प्रकाश।
'गंगाधर' अग्रज सहित, गह 'नारायण' हाथ।।
चाहें बनें ग्रहस्थ पर, तोड़ें भव के पाश।।

'सावधान' हो तपस्या, पथ पर बढ़े सुसंत।
'दासबोध' को बताया, 'सुगमोपाय' महान।
हो 'समर्थ' गुरु 'शिवा' के, हुए दिखाया पंथ।
'छत्रसाल' आशीष पा, असि रख पाए तान।।

'रामदास' वैराग से, करें लोक कल्याण।
कंकर से शंकर रचें, शव को कर संप्राण।।
छंद - दोहा
९-७-२०२३
***
महाराजा छत्रसाल का जन्म गहरवार (गहड़वाल) वंश की बुंदेला शाखा के राजपूतो में हुआ था,काशी के गहरवार राजा वीरभद्र के पुत्र हेमकरण जिनका दूसरा नाम पंचम सिंह गहरवार भी था,वो विंध्यवासिनी देवी के अनन्य भक्त थे,जिस कारण उन्हें विन्ध्य्वाला भी कहा जाता था,इस कारण राजा हेमकरण के वंशज विन्ध्य्वाला या बुंदेला कहलाए,हेमकर्ण की वंश परंपरा में सन 1501 में ओरछा में रुद्रप्रताप सिंह राज्यारूढ़ हुए, जिनके पुत्रों में ज्येष्ठ भारतीचंद्र 1539 में ओरछा के राजा बने तब बंटवारे में राव उदयजीत सिंह को महेबा (महोबा नहीं) का जागीरदार बनाया गया, इन्ही की वंश परंपरा में चंपतराय महेबा गद्दी पर आसीन हुए।
चम्पतराय बहुत ही वीर व बहादुर थे। उन्होंने मुग़लो के खिलाफ बगावत करी हुई थी और लगातार युद्धों में व्यस्त रहते थे। चम्पतराय के साथ युद्ध क्षेत्र में रानी लालकुँवरि भी साथ ही रहती थीं और अपने पति को उत्साहित करती रहती थीं। छत्रसाल का जन्म दिनांक 04 मई 1649 ईस्वी को पहाड़ी नामक गाँव में हुआ था। गर्भस्थ शिशु छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए। यही युद्ध के प्रभाव उनके जीवन पर असर डालते रहे और माता लालकुँवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियाँ बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं।
छत्रसाल के पिता चंपतराय जब मुग़ल सेना से घिर गये तो उन्होंने अपनी पत्नी 'रानी लाल कुंवरि' के साथ अपनी ही कटार से प्राण त्याग दिये, किंतु मुग़लों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया।
छत्रसाल उस समय चौदह वर्ष की आयु के थे। क्षेत्र में ही उनके पिता के अनेक दुश्मन थे जो उनके खून के प्यासे थे। इनसे बचते हुए और युद्ध की कला सीखते हुए उन्होंने अपना बचपन बिताया। अपने बड़े भाई 'अंगद राय' के साथ वह कुछ दिनों मामा के घर रहे, किंतु उनके मन में सदैव मुग़लों से बदला लेकर पितृ ऋण से मुक्त होने की अभिलाषा थी। बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा। अपने पिता के वचन को ही पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या 'देवकुंवरि' से विवाह किया।

====छत्रपति शिवाजी से सम्पर्क और ओरंगजेब से संघर्ष=====
दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे। अंगद राय ने जब सैनिक बनकर राजा जयसिंह के यहाँ कार्य करना चाहा तो छोटे भाई छत्रसाल को यह सहन नहीं हुआ। छत्रसाल ने अपनी माता के कुछ गहने बेचकर एक छोटी सा सैनिक दल तैयार करने का विचार किया। छोटी सी पूंजी से उन्होंने 30 घुड़सवार और 347 पैदल सैनिकों का एक दल बनाया और मुग़लों पर आक्रमण करने की तैयारी की। 22 वर्ष की आयु में छत्रसाल युद्ध भूमि में कूद पड़े। छत्रसाल बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने पहले ऐसे लोगों को हटाया जो मुग़लों की मदद कर रहे थे।
सन 1668 ईस्वी में उन्होंने दक्षिण में छत्रपति शिवाजी से भेट की,शिवाजी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें वापस बुंदेलखंड जाकर मुगलों से अपनी मात्रभूमि स्वतंत्र कराने का निर्देश दिया,
शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित 'भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुग़लन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।
छत्रसाल ने वापिस अपने गृह क्षेत्र आकर मुग़लो के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत कर दी। इसमें उनको गुरु प्राणनाथ का बहुत साथ मिला। दक्षिण भारत में जो स्थान समर्थगुरु रामदास का है वही स्थान बुन्देलखंड में 'प्राणनाथ' का रहा है, प्राणनाथ छत्रसाल के मार्ग दर्शक, अध्यात्मिक गुरु और विचारक थे.. जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता से, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया। .
छत्रसाल ने पहला युद्ध अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों से किया हाशिम खां को मार डाला और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बाँटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बाँसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए। ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रुहल्ला खां के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा।
बार बार युद्ध करने के बाद भी औरंगज़ेब छत्रसाल को पराजित करने में सफल नहीं हो पाया। छत्रसाल को मालूम था कि मुग़ल छलपूर्ण घेराबंदी में सिद्धहस्त है। उनके पिता चंपतराय मुग़लों से धोखा खा चुके थे। छत्रसाल ने मुग़ल सेना से इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकला सहित अनेक स्थानों पर लड़ाई लड़ी और मुग़लों को धूल चटाई। छत्रसाल की शक्ति निरंतर बढ़ती गयी। बन्दी बनाये गये मुग़ल सरदारों से छत्रसाल ने दंड वसूला और उन्हें मुक्त कर दिया। धीरे धीरे बुन्देलखंड से मुग़लों का एकछत्र शासन छत्रसाल ने समाप्त कर दिया।
छत्रसाल के शौर्य और पराक्रम से आहत होकर मुग़ल सरदार तहवर ख़ाँ, अनवर ख़ाँ, सहरूदीन, हमीद बुन्देलखंड से दिल्ली का रुख़ कर चुके थे। बहलोद ख़ाँ छत्रसाल के साथ लड़ाई में मारा गया और मुराद ख़ाँ, दलेह ख़ाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार बुन्देला वीरों से पराजित होकर भाग गये थे।
====राज्याभिषेक और राज्य विस्तार====
छत्रसाल के राष्ट्र प्रेम, वीरता और हिन्दूत्व के कारण छत्रसाल को भारी जन समर्थन प्राप्त था। छत्रसाल ने एक विशाल सेना तैयार कर ली जिसमे क्षेत्र के सभी राजपूत वंशो के योद्धा शामिल थे। इसमें 72 प्रमुख सरदार थे। वसिया के युद्ध के बाद मुग़लों ने भी छत्रसाल को 'राजा' की मान्यता प्रदान कर दी थी। उसके बाद महाराजा छत्रसाल ने 'कालिंजर का क़िला' भी जीता और मांधाता चौबे को क़िलेदार घोषित किया। छत्रसाल ने 1678 में पन्ना में अपनी राजधानी स्थापित की और विक्रम संवत 1744 मे योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया।
छत्रसाल के गुरु प्राणनाथ आजीवन हिन्दू मुस्लिम एकता के संदेश देते रहे। उनके द्वारा दिये गये उपदेश 'कुलजम स्वरूप' में एकत्र किये गये। पन्ना में प्राणनाथ का समाधि स्थल है जो अनुयायियों का तीर्थ स्थल है। प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। किंवदन्ती है कि जहाँ तक छत्रसाल के घोड़े की टापों के पदचाप बनी वह धरा धनधान्य, रत्न संपन्न हो गयी। छत्रसाल के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ गौरव के साथ दोहरायी जाती है-
'इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोस छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौस।'
बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल के समय में बुंदेलखंड की सीमायें अत्यंत व्यापक हो गई। इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्य प्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला, मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड और मोण्डेर के ज़िले और परगने शामिल थे। छत्रसाल ने लगातार युद्धों और आपस में लूट मार से त्रस्त इस पिछड़े क्षेत्र को एक क्षत्र के निचे लाकर वहॉ शांति स्थापित की जिससे बुंदेलखंड का पहली बार इतना विकास संभव हो सका।
छत्रसाल का राज्य प्रसिद्ध चंदेल महाराजा कीर्तिवर्धन से भी बड़ा था। कई शहर भी इन्होंने ही बसाए जिनमे छतरपुर शामिल है। छत्रसाल तलवार के धनी थे और कुशल शस्त्र संचालक थे। वह शस्त्रों का आदर करते थे। लेकिन साथ ही वह विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे और स्वयं भी बहुत विद्वान थे। वह उच्च कोटि के कवि भी थे, जिनकी भक्ति तथा नीति संबंधी कविताएँ ब्रजभाषा में प्राप्त होती हैं। इनके आश्रित दरबारी कवियों में भूषण, लालकवि, हरिकेश, निवाज, ब्रजभूषण आदि मुख्य हैं। भूषण ने आपकी प्रशंसा में जो कविताएँ लिखीं वे 'छत्रसाल दशक' के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'छत्रप्रकाश' जैसे चरितकाव्य के प्रणेता गोरेलाल उपनाम 'लाल कवि' आपके ही दरबार में थे। यह ग्रंथ तत्कालीन ऐतिहासिक सूचनाओं से भरा है, साथ ही छत्रसाल की जीवनी के लिए उपयोगी है। उन्होंने कला और संगीत को भी बढ़ावा दिया, बुंदेलखंड में अनेको निर्माण उन्होंने करवाए। छत्रसाल धार्मिक स्वभाव के थे। युद्धभूमि में व शांतिकाल में दैनिक पूजा अर्चना करना छत्रसाल का कार्य रहा।
====कवि भूषण द्वारा छत्रसाल की प्रशंसा====
कविराज भूषण ने शिवाजी के दरबार में रहते हुए छत्रसाल की वीरता और बहादुरी की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखीं। 'छत्रसाल दशक' में इस वीर बुंदेले के शौर्य और पराक्रम की गाथा गाई गई है।
छत्रसाल की प्रशंसा करते हुए कवि भूषण दुविधा में पड़ गये और लिखा कि-----
"और राव राजा एक,मन में लायुं अब ,
शिवा को सराहूँ या सराहूँ छत्रसाल को"
====मुगल सेनापति बंगश का हमला और पेशवा बाजीराव का सहयोग====
महाराज छत्रसाल अपने समय के महान शूरवीर, संगठक, कुशल और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल को अपने जीवन की संध्या में भी आक्रमणों से जूझना पडा।सन 1729 में सम्राट मुहम्मद शाह के शासन काल में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने छत्रसाल पर आक्रमण किया। उसकी इच्छा एरच, कौच, सेहुड़ा, सोपरी, जालोन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुग़लों से लड़ने में दतिया, सेहुड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। उनका पुत्र हृदयशाह भी उदासीन होकर अपनी जागीर में बैठा रहा। तब छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा -
'जो गति मई गजेन्द्र की सोगति पहुंची आय
बाजी जात बुन्देल की राखो बाजीराव'
बाजीराव सेना सहित सहायता के लिये पहुंचा और उसने बंगस को 30 मार्च 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हार कर वापिस लौट गया।
4 अप्रैल 1729 को छत्रसाल ने विजय उत्सव मनाया। इस विजयोत्सव में बाजीराव का अभिनन्दन किया गया और बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र स्वीकार कर मदद के बदले अपने राज्य का तीसरा भाग बाजीराव पेशवा को सौंप दिया, जिस पर पेशवा ने अपनी ब्राह्मण जाति के लोगो को सामन्त नियुक्त किया।
प्रथम पुत्र हृदयशाह पन्ना, मऊ, गढ़कोटा, कालिंजर, एरिछ, धामोनी इलाका के जमींदार हो गये जिसकी आमदनी 42 लाख रू. थी।
दूसरे पुत्र जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, नांदा, सरिला, इलाका सौपा गया जिसकी आय 36 लाख थी।
बाजीराव पेशवा को काल्पी, जालौन, गुरसराय, गुना, हटा, सागर, हृदय नगर मिलाकर 33 लाख आय की जागीर सौपी गयी।
=====निधन====
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया।
इस वीर बहादुर छत्रसाल का 83 वर्ष की अवस्था में 13 मई 1731 ईस्वी को मृत्यु हो गयी। छत्रसाल के लिए कहावत है -
'छत्ता तेरे राज में,
धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करे,
तित-तित फत्ते होय।'
मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है-
‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
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सन्दर्भ----
3-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 305-313


सोनेट, अज्ञान वंदना

 सोनेट 

अज्ञान वंदना 
*
ज्ञान न मिले प्रयास बिन, मिले आप अज्ञान।
व्यर्थ वंदना प्रार्थना, चल न साधना-राह।   
पढ़ना-लिखना क्यों कहो, खा पी मस्त सुजान।।
कभी न कर सत्संग मन, पा कुसंग कर वाह।। 

नित नव करें प्रपंच हँस, कभी नहीं सत्संग। 
खा-पी जी भर मौज कर, कभी न कुछ भी त्याग। 
भोग लक्ष्य कर योग तज, नहीं नहाना गंग।। 
प्रवचन कीर्तन हो जहाँ, तुरत वहाँ से भाग।। 

सुरापान कर कर्ज ले, करना अदा न जान। 
द्यूत निरंतर खेलना, चौर्य कर्म ले सीख।  
तज विनम्रता पालकर, निज मन में अभिमान।। 
अपराधी सिरमौर बन, दुष्ट-रत्न तू दीख।।

वंदन कर अज्ञान का, मूर्खराज का ताज। 
सिर पर रख ले बेहया, बन निर्लज्ज न लाज।। 
८-७-२०२३ 
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शनिवार, 8 जुलाई 2023

चित्रगुप्त, कमल, नवगीत, कमलिनी, लोकोक्ति

॥ ॐ यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नमः ॥
कायस्थ - धर्मराज चित्रगुप्त के वंसज
वर्ण / जति - द्विज -क्षत्रिय ( राजन्य कायस्थ )
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि चित्रगुप्त का राज्य सिंहासन यमपुरी में है और वो अपने न्यायालय में मनुष्यों के कर्मों के अनुसार उनका न्याय करते हैं तथा उनके कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, जो कि निम्नवत स्पष्ट हैं :-
‘धर्मराज चित्रगुप्त: श्रवणों भास्करादय: कायस्थ तत्र पश्यनित पाप पुण्यं च सर्वश:’
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम। कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
☻ भवन्तौ क्षत्रवर्णस्थौ द्विजन्मनौ महाशयी । कृतोप वितीनो स्थान वेद शस्त्रधिकारिणी ॥ (पद्म पुराण )
" चित्रगुप्त को क्षत्रिय वर्ण का बताते हुए कहा गया है की वेदो को समझने व् ज्ञान रखने के वजह से आप यज्ञोपवीत के अधिकारी हैं जिन्हे द्विज -क्षत्रिय कहा जाता है । "
कमलाकरभट्ट क्रित वृहत्ब्रहम्खण्ड् में लिखा है-
भवान क्षत्रिय वर्णश्च समस्थान समुद्भवात्। कायस्थ्: क्षत्रिय: ख्यातो भवान भुवि विराजते॥
☻चित्र वचो मयागुप्तम् चित्रगुप्त स्मृत बुधै । सः गत्वा कोट नगरे चंडी भजन तत्परः ॥ (पद्म पुराण )
" आपका निवास संयम नगरी में है जो नगरकोट में है और आप चंडी के उपाशक हो । "
विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत। स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
स्कंद पुराण में कायस्थ के सात लक्षणों को बताया गया है ।
" विद्या वाश्च्य शुचि; धीरो , दाता परोप्कराकः ! राज्य सेवी , क्षमाशील; कायस्थ सप्त लक्षणा ; !!
यजुर्वेद आपस्तम्ब शाखा चतुर्थ खंड यम विचार प्रकरण से ज्ञात होता है कि महाराज चित्रगुप्त के वंसज चित्ररथ ( चैत्ररथ ) जो चित्रकुट के महाराजाधिराज थे और गौतम ऋषि के शिष्य थे ।
बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे। चित्रगुप्त: सिथति: स्वर्गे चित्रोहिभूमण्डले।।
चैत्ररथ: सुतस्तस्य यशस्वी कुल दीपक:। ऋषि वंशे समुदगतो गौतमो नाम सतम:।।
तस्य शिष्यो महाप्रशिचत्रकूटा चलाधिप:।।
“प्राचीन काल में क्षत्रियों में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र (वंसज ) चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।”
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च। वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने। वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन। यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है।
☻द्विज - हिन्दू रीती रिवाज के अनुसार जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) कराने के बाद दूसरा जन्म मानते हैं जो जातियां इन्हे करती हैं द्विज कहलाती है ।
☻द्विज -क्षत्रिय :- प्राचीन वेद ज्ञान परंपरा के अनुसार ब्राहमणो के सामान वेद ज्ञानी क्षत्रिय को द्विज क्षत्रिय कहा गया है ।

॥ जय माँ चंडी जय धर्मराज ॥

नवगीत:

पैर हमारे लात हैं....
संजीव 'सलिल'
*
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण कमल.
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम हरिकर, वे श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम उत्पल शतदल...
अभिनव प्रयोग- गीत: कमल-कमलिनी विवाह संजीव 'सलिल'
कमल-कमलिनी विवाह
संजीव 'सलिल'
*
* रक्त कमल
अंबुज शतदल कमल
अब्ज हर्षाया रे!
कुई कमलिनी का कर
गहने आया रे!...
*
* हिमकमल
अंभज शीतल उत्पल देख रहा सपने
बिसिनी उत्पलिनी अरविन्दिनी सँग हँसने
कुंद कुमुद क्षीरज अंभज नीरज के सँग-
नीलाम्बुज नीलोत्पल नीलोफर भी दंग.
कँवल जलज अंबोज नलिन पुहुकर पुष्कर
अर्कबन्धु जलरुह राजिव वारिज सुंदर
मृणालिनी अंबजा अनीकिनी वधु मनहर
यह उसके, वह भी
इसके मन भाया रे!...
*
* नील कमल
बाबुल ताल, तलैया मैया हँस-रोयें
शशिप्रभ कुमुद्वती कैरविणी को खोयें.
निशापुष्प कौमुदी-करों मेंहदी सोहे.
शारंग पंकज पुण्डरीक मुकुलित मोहें.
बन्ना-बन्नी, गारी गायें विष्णुप्रिया.
पद्म पुंग पुन्नाग शीतलक लिये हिया.
रविप्रिय श्रीकर कैरव को बेचैन किया
अंभोजिनी अंबुजा
हृदय अकुलाया रे!...
*
श्वेत कमल
चंद्रमुखी-रविमुखी हाथ में हाथ लिये
कर्णपूर सौगन्धिक श्रीपद साथ लिये.
इन्दीवर सरसिज सरोज फेरे लेते.
मौन अलोही अलिप्रिय सात वचन देते.
असिताम्बुज असितोत्पल-शोभा कौन कहे?
सोमभगिनी शशिकांति-कंत सँग मौन रहे.
'सलिल'ज हँसते नयन मगर जलधार बहे
श्रीपद ने हरिकर को
पूर्ण बनाया रे!...
***************
* ब्रम्ह कमल
टिप्पणी:
* कमल, कुमुद, व कमलिनी का प्रयोग कहीं-कहीं भिन्न पुष्प प्रजातियों के रूप में है, कहीं-कहीं एक ही प्रजाति के पुष्प के पर्याय के रूप में. कमल के रक्तकमल, नीलकमल तथा श्वेतकमल तीन प्रकार रंग के आधार पर वर्णित हैं. कमल-कमलिनी का विभाजन बड़े-छोटे आकार के आधार पर प्रतीत होता है. कुमुद को कहीं कमल, कहीं कमलिनी कहा गया है. कुमद के साथ कुमुदिनी का भी प्रयोग हुआ है. कमल सूर्य के साथ उदित होता है, उसे सूर्यमुखी, सूर्यकान्ति, रविप्रिया आदि कहा गया है. रात में खिलनेवाली कमलिनी को शशिमुखी, चन्द्रकान्ति, रजनीकांत, कहा गया है. रक्तकमल के लाल रंग की श्री तथा हरि के कर-पद पल्लवों से समानता के कारण हरिपद, श्रीकर जैसे पर्याय बने हैं, सूर्य, चन्द्र, विष्णु, लक्ष्मी, जल, नदी, समुद्र, सरोवर आदि से जन्म के आधार पर बने पर्यायों के साथ जोड़ने पर कमल के अनेक और पर्यायी शब्द बनते हैं. मुझसे अनुरोध था कि कमल के सभी पर्यायों को गूँथकर रचना करूँ. माँ शारदा के श्री चरणों में यह कमल-माल अर्पित कर आभारी हूँ. सभी पर्यायों को गूंथने पर रचना अत्यधिक लंबी होगी. पाठकों की प्रतिक्रिया ही बताएगी कि गीतकार निकष पर खरा उतर सका या नहीं?
* कमल हर कीचड़ में नहीं खिलता. गंदे नालों में कमल नहीं दिखेगा भले ही कीचड़ हो. कमल का उद्गम जल से है इसलिए वह नीरज, जलज, सलिलज, वारिज, अम्बुज, तोयज, पानिज, आबज, अब्ज है. जल का आगर नदी, समुद्र, तालाब हैं... अतः कमल सिंधुज, उदधिज, पयोधिज, नदिज, सागरज, निर्झरज, सरोवरज, तालज भी है. जल के तल में मिट्टी है, वहीं जल और मिट्टी में मेल से कीचड़ या पंक में कमल का बीज जड़ जमता है इसलिए कमल को पंकज कहा जाता है. पंक की मूल वृत्ति मलिनता है किन्तु कमल के सत्संग में वह विमलता का कारक हो जाता है. क्षीरसागर में उत्पन्न होने से वह क्षीरज है. इसका क्षीर (मिष्ठान्न खीर) से कोई लेना-देना नहीं है. श्री (लक्ष्मी) तथा विष्णु की हथेली तथा तलवों की लालिमा से रंग मिलने के कारण रक्त कमल हरि कर, हरि पद, श्री कर, श्री पद भी कहा जाता किन्तु अन्य कमलों को यह विशेषण नहीं दिया जा सकता. पद्मजा लक्ष्मी के हाथ, पैर, आँखें तथा सकल काया कमल सदृश कही गयी है. पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना के नेत्र गुलाबी भी हो सकते हैं, नीले भी. सीता तथा द्रौपदी के नेत्र क्रमशः गुलाबी व् नीले कहे गए हैं और दोनों को पद्माक्षी, कमलाक्षी या कमलनयना विशेषण दिए गये हैं. करकमल और चरणकमल विशेषण करपल्लव तथा पदपल्लव की लालिमा व् कोमलता को लक्ष्य कर कहा जाना चाहिए किन्तु आजकल चाटुकार कठोर-काले हाथोंवाले लोगों के लिये प्रयोग कर इन विशेषणों की हत्या कर देते हैं. श्री राम, श्री कृष्ण के श्यामल होने पर भी उनके नेत्र नीलकमल तथा कर-पद रक्तता के कारण करकमल-पदकमल कहे गये. रीतिकालिक कवियों को नायिका के अन्गोंपांगों के सौष्ठव के प्रतीक रूप में कमल से अधिक उपयुक्त अन्य प्रतीक नहीं लगा. श्वेत कमल से समता रखते चरित्रों को भी कमल से जुड़े विशेषण मिले हैं. मेरे पढ़ने में ब्रम्हकमल, हिमकमल से जुड़े विशेषण नहीं आये... शायद इसका कारण इनका दुर्लभ होना है. इंद्र कमल (चंपा) के रंग चम्पई (श्वेत-पीत का मिश्रण) से जुड़े विशेषण नायिकाओं के लिये गर्व के प्रतीक हैं किन्तु पुरुष को मिलें तो निर्बलता, अक्षमता, नपुंसकता या पाण्डुरोग (पीलिया ) इंगित करते हैं. कुंती तथा कर्ण के पैर कोमलता तथा गुलाबीपन में साम्यता रखते थे तथा इस आधार पर ही परित्यक्त पुत्र कर्ण को रणांगन में अर्जुन के सामने देख-पहचानकर वे बेसुध हो गयी थीं.
* हिम कमल: विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से चीन के सिन्चांग वेवूर स्वायत्त प्रदेश में खड़ी थ्येनशान पर्वत माले में समुद्र सतह से तीन हजार मीटर ऊंची सीधी खड़ी चट्टानों पर एक विशेष किस्म की वनस्पति उगती है, जो हिम कमल के नाम से चीन भर में मशहूर है। हिम कमल का फूल एक प्रकार की दुर्लभ मूल्यवान जड़ी बूटी है, जिस का चीनी परम्परागत औषधि में खूब प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से ट्यूमर के उपचार में, लेकिन इधर के सालों में हिम कमल की चोरी की घटनाएं बहुत हुआ करती है, इस से थ्येन शान पहाड़ी क्षेत्र में उस की मात्रा में तेजी से गिरावट आयी। वर्ष 2004 से हिम कमल संरक्षण के लिए व्यापक जनता की चेतना उन्नत करने के लिए प्रयत्न शुरू किए गए जिसके फलस्वरूप पहले हिम कमल को चोरी से खोदने वाले पहाड़ी किसान और चरवाहे भी अब हिम कमल के संरक्षक बन गए हैं।
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विमर्श
रूढ़ियाँ और तथ्य
पिछले दिनों लेखिकाओं की आपबीती बयान करने वाली तथा नारी की निष्ठुर नियति का सर्जनात्मक चित्रण करने वाली आत्मकथाओं के अंशों का संकलन कर सुविख्यात कथाकार, सम्पादक और चिन्तक राजेन्द्र यादव के सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक ’देहरी भई बिदेस’ की चर्चा चली तो हमारे मानस में वह दिलचस्प और रोमांचक तथ्य फिर उभर आया कि बहुधा कुछ उक्तियाँ, फिकरे या उद्धरण लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी यह ध्यान में नहीं आता कि वह उद्धरण ही गलत है, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं जो उस फिकरे में लोककंठ में आ बसी है।
’देहरी भई बिदेस’ भी ऐसा ही उद्धरण है जो कभी था नहीं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये।
पुरानी पीढी के वयोवृद्ध गायकों को तो शायद मालूम ही होगा कि वाजिद अली शाह की सुप्रसिद्ध शरीर और आत्मा के प्रतीकों को लेकर लिखी रूपकात्मक ठुमरी "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" सदियों से प्रचलित है जिसके बोल लोककंठ में समा गये हैं - "चार कहार मिलि डोलिया उठावै मोरा अपना पराया छूटो जाय" आदि। उसमें यह भी रूपकात्मक उक्ति है - "देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस, लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस"। जैसे परबत उलाँघना दूभर हो जाता है वैसे ही विदेश में ब्याही बेटी से फिर देहरी नहीं उलाँघी जाएगी, बाबुल का आँगन बिदेस बन जाएगा। यही सही भी है, बिदेस होना आँगन के साथ ही फबता है, देहरी के साथ नहीं, वह तो उलाँघी जाती है, परबत उलाँघा नहीं जा सकता, अतः उसकी उपमा देहरी को दी गई। हुआ यह कि गायक शिरोमणि कुन्दनलाल सहगल किसी कारणवश बिना स्क्रिप्ट के अपनी धुन में इसे यूँ गा गये "अँगना तो परबत भया देहरी भई बिदेस" और उनकी गाई यह ठुमरी कालजयी हो गई। सब उसे ही उद्धृत करेंगे। बेचारे वाजिद अली शाह को कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि बीसवीं सदी में उसकी उक्ति का पाठान्तर ऐसा चल पडेगा कि उसे ही मूल समझ लिया जाएगा। सहगल साहब तो ’चार कहार मिल मोरी डोलियो सजावैं" भी गा गये जबकि कहार डोली उठाने के लिए लगाये जाते हैं, सजाती तो सखियाँ हैं। हो गया होगा यह संयोगवश ही अन्यथा हम कालजयी गायक सहगल के परम प्रशंसक हैं।
नई पीढी को उस गीत की तो शायद याद भी नहीं होगी जो सुप्रसिद्ध सुगम संगीत गायक जगमोहन ने गाया था और गैर-फिल्मी सुगम संगीत में सिरमौर हो गया था - ’ये चाँद नहीं, तेरी आरसी है।’ उसमें गाते-गाते एक बार उनके मुँह से निकल गया "ये चाँद नहीं तेरी आरती है।" बरसों तक यह बहस चलती रही कि मूल पाठ में ’आरसी"शब्द है या ’आरती"।
लोकप्रसिद्धि और चलन में आ जाने के कारण खोटे-खरे सिक्के के अन्तर करने में तथा मूलतः किसी उक्ति का क्या आशय रहा होगा इसके निर्णय में कैसी मुश्किलें आती हैं इसके अनेक उदाहरण हैं। केवल दो-एक ही नमूने की दृष्टि से प्रस्तुत हैं। एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’अक्ल बडी कि भैंस "? इसका अर्थ दशकों से हमारे समझ में नहीं आता था, भला अक्ल और भैंस की तुलना क्यों की जा रही है ? क्या भैंस को बेअक्ल मानने के कारण ? हमने बुजुर्गों से पूछा तो जितने मुँह उतने निर्वचन सामने आये। कुछ ने कहा भैंस जैसी मोटी अक्ल की दृष्टि से यह कहा गया होगा। कुछ समझदारों ने यह तरीका निकाला कि यह मूलतः ’अक्ल बडी कि बहस"? रहा होगा। बहस करने से गलत को सही थोडे ही बताया जा सकता है। जिन्होंने यह समझाया कि हमारे यहाँ प्राचीनकाल से यह अवधारणा चली आ रही है कि केवल उम्रदराज होने से ही आदमी बडा नहीं हो जाता, जो बुद्धिमान है वही बडा होता है - "अक्ल बडी कि वयस (उम्र) "?, वह बात अवश्य हमारे गले उतरी। मनुस्मृति से लेकर आज तक संस् त की उक्ति प्रसिद्ध है कि जो बुद्धिमान है वह महान् है, केवल वयोवृद्ध नहीं, हमें ज्ञानवृद्ध होना चाहिए आदि। "अक्ल बडी कि वयस" में वयस भैंस हो गई। अपभ्रंश की यही तो सरणि होती है।
इसी प्रकार हमारे समय में इस लोकोक्ति का अर्थ कभी नहीं आया था - "दूर के ढोल सुहावने होते हैं।" लोगों ने बहुत विवेचन किया कि पास से ढोल कर्णकटु लगता है, दूर से ही सुहावना लगता है पर यह इसलिए ठीक नहीं लगा कि सुहावना दृश्य होता है, श्रव्य नहीं। इसका रहस्य तब समझ में आया जब संस् त की वह प्रसिद्ध सूक्ति ध्यान में आई जिसमंि कहा गया कि तीन चीजें दूर से ही सुहावनी लगती हैं - पहाड दूर से रम्य लगते हैं, वेश्या का शृंगार दूर से ही अच्छा लगता है, युद्ध की चर्चा ही अच्छी होती है, युद्ध वस्तुतः विनाशक होता है। ’दूरस्थाः पर्वता रम्याः" उक्ति सुप्रसिद्ध है। यह पहले राजस्थानी में गई ’दूर के टोल सुहावने लगते हैं" बनकर और हिन्दी में बन गई "दूर के ढोल" क्योंकि वहाँ ढोल नहीं होते। राजस्थानी में टोळ अनगढ पत्थर पहाडी, टीला आदि के लिए आता है जो ऊबड-खाबड होता है पर दूर से हरियाली आदि के कारण सुरम्य लगता है।
इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है - ’कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली ’? इसका अर्थ समझे बिना हम इसका प्रयोग ऐसे अवसरों पर करते हैं जब कोई किसी अत्यन्त समर्थ या समृद्ध व्यक्ति की तुलना किसी दरिद्र से करने लगता है। इसका अर्थ भी किसी ने हमें सही ढंग से नहीं बतलाया था। हम यही समझते थे कि राजा भोज के राज में कोई तेली गंगाराम नाम का रहा होगा जिसकी तुलना राजा भोज से करना नितान्त हास्यास्पद माना गया। इस लोकोक्ति का सही अर्थ तब समझ में आया जब डॉ. विद्यानिवास मिश्र जैसे कुछ प्राच्य विद्याविदों ने मध्यकालीन इतिहास में एक तथ्य की ओर संकेत कर यह समझाया कि यह लोकोक्ति धारानगरी के नरेश राजा भोज की वीरता को लक्ष्य कर कही गई थी। भोज के समकालीन दो राज्य और थे जिन्होंने धारानगरी पर चढाई कर राजा भोज को हराना चाहा था। ये थे कलचुरिनरेश राजा गांगेय और चालुक्यनरेश तैलप। इन्होंने मिलकर राजा भोज पर आक्रमण किया था पर उसे नहीं हरा सके थे। ये ही गंगू और तेली हैं। दोनों मिलकर भी राजा भोज की बराबरी नहीं कर पाये यह बतलाने के लिए यह उक्ति चल पडी "कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू और तेली"? और हम समझते हैं कि गंगू नाम का एक कोई तेली था जिसकी तुलना राजा भोज से करने पर तुलना करने वाले की हँसी उडाई जाती है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध "कलचुरियों की राजधानी" में इस सारे इतिहास का विवरण दिया है।
यह तो बात हुई लोकोक्तियों की जिनका अर्थ लगाने में भ्रान्तियों के कैसे-कैसे कुहासे हमारी दृष्टि को ढके रखते हैं इसका कुछ अन्दाजा अब आपको हो गया होगा। कुछ प्रसिद्ध दोहे भी ऐसे हैं जिनके अर्थ के बीच में कुहासे आ जाते हैं। बिहारी सतसई के दोहे प्रसिद्ध हैं। उनकी तारीफ में यह दोहा बहुत प्रचलित हो गया है - ;सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर’। देखन में छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर। इसमें नावक के तीर क्या होते हैं यह तो हम समझते नहीं, इसे बोलते हैं "नाविक के तीर" क्योंकि नाविक का अर्थ हम जानते हैं नाव चलाने वाला। पर नाव चलाने वाला तो पतवार चलाता है, तीर नहीं चलाता। फिर इसका अर्थ क्या होगा ? इसका अर्थ भी मध्यकालीन "नावक" का अर्थ समझे बिना नहीं लगाया जा सकता। जब बारूद का प्रचलन हो गया तो नुकीले लोहे के तीर छोटी तोप में बारूद भरकर उससे इतनी जोर से छोडे जाते थे कि शरीर के आरपार भी हो जाते थे। इस छोटी तोपची या तोप को ही "नावक" कहा जाता था (यह फारसी शब्द है)। उससे चले तीर छोटे तो होते थे पर तेजी से घुस जाते थे शरीर में। ये नावक ज्यादातर ऊँट या हाथी की पीठ पर लादकर सेना के साथ ले जाए जाते थे। अब नावकों का चलन तो रहा नहीं, अतः हमें "नाविक" ही समझ में आता है और बडे-बडे विद्वान भी कुछ इसी प्रकार का अर्थ करने लग जाते हैं। क्या किया जाए ?
ये कुछ दिलचस्प उदाहरण है बहुप्रचलित भ्रान्तियों के। जब तक इनका वास्तविक अर्थ समझने के स्रोत उपलब्ध हैं तब तक भले ही इनका सही रहस्य हम समझ लें अन्यथा लोक प्रचलन अर्थ को कहाँ से कहाँ ले जा सकता है, इसका अन्दाजा आप इन्हें देखकर भलीभाँति लगा सकते हैं।
इसी प्रकार सामन्तकालीन अभिवादन शैली का एक वाक्यांश सदियों से सुप्रचलित है। जनतंत्र् के सुप्रतिष्ठित होने के बाद ऐसी अभिवादन शैलियाँ विरल अवश्य हो गई थीं, किन्तु सामन्तकालीन परिवेश पर बने दूरदर्शन आदि के धारावाहिकों के कारण यह अभिवादन फिर सुना जाने लगा है। यह है अनुयायियों, अधीनस्थों तथा कनिष्ठों आदि के द्वारा राजा, राजवर्गीय वरिष्ठ व्यक्ति या सामन्त के अभिवादन करते समय बोला जाने वाला वाक्यांश - ’घणी खम्मा’ या ’खम्मा घणी’। यह क्यों बोला जाता है इस पर हमें सदा जिज्ञासा रही थी। सदियों से अधिकांश लोग अर्थ समझे बिना इसे राजवर्गीय सम्मानित व्यक्ति को अभिवादन करते समय बोल देते थे। हाल ही में एक सीरियल में तो इसे उत्तर-प्रत्युत्तर शैली द्वारा इस प्रकार बोलते देखा गया है कि पहला ’घणी खम्मा’ कहता है, दूसरा प्रत्युत्तर में ’खम्मा घणी’ कहता है,जैसे ’सलाम अलैकुम’ सुनकर प्रत्युत्तर में ’अलैकुम अस सलाम"बोला जाता है।
अधिकतर लोग इसका अर्थ क्षमा शब्द से लगाते हैं और समझते हैं कि अभिवादक चाहता है कि उस पर घणी (बहुत) क्षमा रखी जाए, अर्थात् वह अपराध करता भी जाए तो उसे क्षमा किया जाता रहे। हमें सदा से यह जिज्ञासा रही थी कि ’क्षमा’ शब्द की बजाय ’ कृपा’, ’दया’ बनी रहे ऐसे शब्द उचित रहते, क्षमा तो गलती होने पर ही की जाती है। संस् त, प्रा त, राजस्थानी और मध्यकालीन इतिहास के परिनिष्ठित प्राचीन पंडितों से जब इसका रहस्य पूछा गया तो उन्होंने इसका जो अर्थ बताया उसे सुनकर हमें विनोदमिश्रित आश्चर्य हुआ, यह भय भी लगा कि यदि इसका यह वास्तविक अर्थ किसी को बताएँगे तो वह शायद ही विश्वास करे, हमें पागल भी समझ सकता है पर इसका वास्तविक रहस्य यही है।
वस्तुतः सामन्त लोग अपने राजा को इसी कामना के साथ अभिवादन करते थे कि ’आपकी दीर्घ आयु हो"। सर्वत्र् सामन्तीकाल में ऐसे ही अभिवादन होते थे जैसे अंग्रेजी में लॉङ्ग लिव द किंग अभिव्यक्ति सुविदित है। इसके लिए बोला जाता था ’घणी आयुष्यम्" (घणी आयु हो आपकी) राजस्थानी में आयुष्यम् ’आयुख्यम्म" बोला जाता है। अतः यों बोला जाता था यह वाक्यांश "घणी आयुख्यम्मा" धीरे-धीरे ’अ’ गायब हुआ, "युख्यम्मा’ रह गया, फिर ’यु’ भी गायब हुआ, ’घणी ख्यम्मा’ रह गया और आज जो बोला जाता है वह आप जानते ही हैं। ’ख्यम्मा घणी’ और ’घणी ख्यम्मा’ दोनों का अर्थ एक ही है, किन्तु जिस प्रकार चलन में इसका अपभ्रंश कर दिया है उसके कारण इसका वास्तविक अर्थ बतलाने वाला पागल या झाँसेबाज समझा जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं। हमने भी इस अर्थ को झाँसा ही समझा था पर जब मुनि जिनविजय जी से लेकर स्वामी नरोत्तमदास जी, पं. गोपालनारायण वहुरा आदि सभी ने इसी तथ्य की पुष्टि की तब हमें विश्वास हुआ।
चलन में सदियों से आकर शब्द किस प्रकार बदल जाते हैं इसके ठीक इसी प्रकार के अनेक उदाहरण वयोवृद्ध व्यक्तियों को आज भी याद होंगे, यद्यपि नई पीढी को तो वे शब्द ही अजूबा लग सकते हैं। राजस्थानी में एक शब्द बोला जाने लगा था ’’खैरसल्ला’। इसका प्रयोग कभी तो बात की समाप्ति हेतु होता था, कभी लापरवाही बताने के लिए, कभी ’सब कुछ चलता है’ के अर्थ में। इसका अर्थ क्या है यह भी जब विद्वानों ने बताया तो हमारी आँख खुली। पूरा वाक्य इस प्रकार बोला जाता था ’अल्ला-अल्ला, खैर सल्ला’ अर्थात् भगवान की कृपा से सब कुछ ठीक है। अल्ला अल्ला तो इसमें समझ में आता ही है ’खैर सल्ला’ क्या है ? यह वस्तुतः ’खैर-उल-इस्लाम’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है इस्लाम की खैर हो। वह उसी पद्धति के अनुरूप बोला जाता था जिसमें ’अस सलाम अलैकुम’ बोलकर सवाल का जवाब दिया जाता है। ’खैर उल इस्लाम’, ’खैर सल्लाम’ बना, फिर ’खैर सुल्ला’ रह गया। आज इसका यह रहस्य बतलाने वाले को भी पागल समझा जाने का डर अवश्य लगेगा। हो सकता है ’खैर सल्ला’ ही कम लोगों ने सुना हो।
बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि अंग्रेजी राज में रात को गश्त लगाने वाले संतरी (जो सेंटिनल शब्द का अपभ्रंश है) सुरक्षा के अन्तर्गत आने वाले स्थल के आगे घूमते रहते थे और कई बार यह नारा लगाते थे ’हुकम सदर’। हमने बाल्यकाल में (स्वतंत्र्ता से पूर्व अंग्रेजी राज में) जब यह फिकरा सुना तो इसका यही अर्थ समझा कि ’सदर’ (मालिक) के हुकम से यह हो रहा है पर इसका यह अर्थ नहीं था। जब पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी ने इसका रहस्य समझाया तब विनोदमिश्रित आश्चर्य होना ही था। वस्तुतः यह अंग्रेजी वाक्य है जो संतरी किसी भी अजनबी को गश्त के समय देखते ही यह पूछने हेतु बोला था - ’तुम कौन हो’ ? ’कौन आ रहा है’ ? ’हू कम्स देयर’ ? (Who comes there ?) यह ’हुकमसदेयर’ हुआ, फिर ’हुकम सदर’ हो गया। ऐसे अनेक फिकरे हैं जो अन्य भाषाओं से हमारी अपनी भाषाओं में आते-आते बदल गए हैं, जिनका अध्ययन ज्ञानवर्धक और मनोरंजक होगा।
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