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मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

स्मृति गीत, अभियंता, मुक्तिका, गीत, नर्मदा, अक्टूबर, कन्या भोज, सॉनेट, सोरठा,हिंदी ग़ज़ल

हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह का ब्रम्हांश से संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म की परमात्म से फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
सॉनेट 
देह
देह पर अधिकार मेरा
यह अदालत कह रही है
गेह पर हक नहीं मेरा
धार कैसी बह रही है?

चोट मन की कौन देखे
लगीं कितनी कब कहाँ पर?
आत्मा को कौन लेखे
वेदना बिसरी तहा कर?

साथ फेरे जब लिए थे
द्वैत तज अद्वैत वरने 
वचन भी देकर लिए थे
दूरियाँ किंचित न धरने।

उसे हक किंचित नहीं हो
साथ मेरे जो रहा हो।
४-१०-२०२२
•••
एक रचना
*
अदालत की अदा लत जैसे लुभाती
झूठ-सच क्या है, नहीं पहचान पाती

न्याय करना, कराना है काम जिनका
उन्हीं के हाथों गला सच का दबाती 

अर्ज केवल अर्जियाँ  ही यहाँ होतीं
फर्ज फर्जी मर्जियाँ ही फसल बोतीं 

कोट काले सफेदी को धर दबाते
स्याह के हाथों उजाले मात खाते 

गवाहों की गवाही बाजार  बनती
कागजों की कागजी जय ख्वाब बुनती

सुपनखा की नाक काटी जेल होगी
एड़ियाँ घिरते रहो नहिं बेल होगी

गोपियों के वसन छीने चलो थाने
गड्डियाँ लाओ मिलेगा तभी जाने

बेच दो घर-खेत, दे दो घूस इसको
कर्ज लेकर चुका दो तुम फीस उसको

पेशियों पर पेशियाँ आगे बढ़ेंगी
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ लड़ती रहेंगी

न्याय का ले नाम नित अन्याय होगा
आस को, विश्वास को उपहार धोखा

वे करेंगे मौज, दीवाला हमारा
मर मिटे हम, पौ उन्हीं की हुई बारा
४-१०-२०२२
•••
सोरठा सलिला
रखें हमेशा ध्यान, ट्रेन रेल पर दौड़ती।
जाते हम लें मान, नगर न आ या जा सकें।।
मकां इमारत जान, घर घरवालों से बने।
जीव आप भगवान, मंदिर में मूरत महज।।
ब्रह्म कील पहचान, माया चक्की-पाट हैं।
दाना जीव समान, बचे कील से यदि जुड़े।।
४-१-२०२२
•••
विमर्श-
कन्या भोज
*
नव दुर्गा पर्व शक्ति आराधना का पर्व है। सृष्टि अथवा प्रकृति की जन्मदात्री शक्ति के ९ रूपों की उपसना पश्चात् ९ कन्याओं को उनका प्रतिनिधि मानकर पूजने तथा नैवेद्य ग्रहण करने की परंपरा चिरकालिक तथा सर्व मान्य है। कन्या रजस्वला होने के पूर्व तक की बालिकाओं के पूजन के पीछे कारण यह है की तब तक उनमें काम भावनाओं का विकास न होने से वे निष्काम होती हैं। कन्या की आयु तथा नाम - २ - कुमारी, ३- त्रिदेवी, ४- कल्याणी, ५- रोहिणी, ६- कालिका, ७-चंडिका, ८- शांभवी, ९- दुर्गा, १० सुभद्रा। बालिका की आयु के अनुसार नाम लेकर प्रणाम करें ''ॐ .... देवी को प्रणाम''। स्नान कर स्वच्छ वस्त्रधारी कन्या के चरण धो-पोंछ कर, आसन पर बैठाकर माथे पर चंदन, रोली, अक्षत (बिना टूटे चावल), पुष्प आदि से तिलक कर चरणों का महावर से श्रृंगार कर भर पेट भोजन (खीर, पूड़ी, हलुआ, मेवा, फल आदि) कराएँ। खट्टी, कड़वी, तीखी, बासी सामग्री वर्जित है। कन्याओं के साथ लँगूरे (लांगुर) अर्थात अल्प वय के दो बालकों को भी भोजन कराया जाता है। कन्या के हाथ में मौली (रक्षा सूत्र) बाँधकर, तिलक कर उपहार (श्रृंगार अथवा शिक्षा संबंधी सामग्री, कुछ नगद राशि आदि ) देकर चरण स्पर्श कर, आशीर्वाद लेकर बिदा किया जाता है।

कन्या भोज का महत्त्व सामाजिकता, सौहार्द्र, समरसता तथा सुरक्षा भावना की वृद्धि है। मेरे पिता श्री चिरस्मरणीय राजबहादुर वर्मा जेलर तथा जेल अधीक्षक रहे। वे अपने निवास पर स्वयं अखंड रामायण, कन्या पूजन तथा कन्या भोज का आयोजन करते थे। अधिकारीयों व् कर्मचारियों की कन्याओं को समान आदर, भोजन व उपहार दिया जाता था। जाती, धर्म का भी भेद-भाव नहीं था। जेल कॉलोनी की सभी कन्याएँ संख्या कितनी भी हो आमंत्रित की जाती थीं। पिता जी जेल में बंद दुर्दांत अपराधियों को प्रहरियों की देख-रेख में बुलवाकर उनसे भी कन्या (मेरी बहिनें भी होती थीं) पूजन कराते थे। इस अवसर पर वे बंदी भावुक होकर फूट-फूटकर रोते थे, आगे कभी अपराध न करने की कसम खाते थे। उन बंदियों-प्रहरियों को भी प्रसाद दिया जाता था। सेवा निवृत्ति के पश्चात् माँ श्रीमती शांति देवी घर में कन्या भोज के साथ मंदिरों के बाहर बैठी भिक्षुणियों को भी प्रसाद भिजवाती थीं।

वास्तव में संपन्न परिवारों को हर दिन दरिद्र भोजन करना चाहिए। अनाथालय, वृद्धाश्रम, महिलाश्रम, अस्पताल आदि से समय तय कर दिनांक तथा समय तय कर हर माह एक बार भोजन कराएँ तो कोइ भूखा न रहे। शास्त्रों के अनुसार इससे मातृ-पितृ ऋण से मुक्ति मिलती तथा काल दोष शांत होता है। कन्या भोजन को धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक सद्भाव के पर्व के रूप में नवाचारित किया जाना आवश्यक है।
***
कब...? क्या...??
माह - अक्टूबर २०१२.
(विक्रम संवत २०६९ / शक संवत १९३४ / बंगला सन १४१९ / हिजरी सन १४३३ / वीर निर्वाण संवत २५३८ / ईसवी सन २०१२).
०१ - विश्व वृद्ध दिवस / विश्व आवास दिवस / राष्ट्रीय रक्तदान दिवस, रहीम निधन १६२७, एनी बेसेंट जन्म १८४७, 
०२ - अहिंसा दिवस म. गाँधी / लाल बहादुर शास्त्री जयन्ती.
०३ -  अमृतलाल वेगड़ जन्म १९२८, दुर्गाष्टमी 
०४ राष्ट्रीय अखंडता दिवस / संत गणेश प्रसाद वरनी जयन्ती, आचार्य रामचंद्र शुक्ल जन्म १८८४, दुर्गा भाभी निधन १९९९, दुर्गा नवमी   
०५ - रानी दुर्गावती जयंती / संत तुकडो जी महाराज पुण्यतिथि, भगवतीचरण वर्मा निधन १९८१, दशहरा  
०६. डॉ. मेघनाद साहा जन्म १८९३, विश्व दृष्टि दिवस (अक्टूबर दूसरा गुवार ) 
०८ - भारतीय वायु सेना दिवस, प्रेमचंद निधन १९३६ , जे. पी. निधन १९७९ पटना, 
०९ - सीताराम कंवर बलिदान दिवस / .
१० - विश्व मानसिक स्वस्थ्य दिवस / राष्ट्रीय डाक-तार दिवस.
११ - जयप्रकाश नारायण जन्म १९०२, महीयसी महादेवी निधन १९७१, अमिताभ बच्चन जन्म १९४२, 
१२ - राम मनोहर लोहिया निधन १९६७,
१३ - विश्व दृष्टि दिवस (अक्टूबर दूसरा गुरुवार ) 
१५ - निराला निधन १९६१, डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जन्म १९३१, साई बाबा शिरडी निधन १९१८ 
१६ - विश्व खाद्य दिवस 
१७ - शिवानी जन्म, 
१९ - संगीतकार रविंद्र जैन निधन २०१५, 
२१ - आजाद हिन्द फ़ौज स्थापना दिवस , 
२२ - स्वामी रामतीर्थ जन्म १८७३, अशफाक उल्ला खां जन्म १९००, 
२४ - संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस.
२५ - निर्मल वर्मा निधन २००५, 
२६ - गणेश शंकर विद्यार्थी जयंती १८९०, 
३१ - सरदार पटेल जन्म १८७५ / इंदिरा गाँधी पुण्य तिथि / राष्ट्रीय एकता दिवस /अमृता प्रीतम निधन २००५, के. पी. सक्सेना निधन २०१३ 
***
नर्मदा स्तुति 
शिवतनया सतपुड़ा-विन्ध्य की बहिना सुगढ़ सलौनी
गोद अमरकंटक की खेलीं, उछल-कूद मृग-छौनी
डिंडोरी में शैशव, मंडला में बचपन मुस्काया
अठखेली कैशोर्य करे, संयम कब मन को भाया?
गौरीघाट किया तप, भेड़ाघाट छलांग लगाई-
रूप देखकर संगमरमरी शिला सिहर सँकुचाई
कलकल धार निनादित हरती थकन, ताप पल भर में
सांकल घाट पधारे शंकर, धारण जागृत करने
पापमुक्त कर ब्रम्हा को ब्रम्हांड घाट में मैया
चली नर्मदापुरम तवा को किया समाहित कैंया
ओंकारेश्वर को पावन कर शूलपाणी को तारा
सोमनाथपूजक सागर ने जल्दी आओ तुम्हें पुकारा
जीवन दे गुर्जर प्रदेश को उत्तर गंग कहायीं
जेठी को करने प्रणाम माँ गंगा तुम तक आयीं
त्रिपुर बसे-उजड़े शिव का वात्सल्य-क्रोध अवलोका
बाणासुर-दशशीश लड़े चुप रहीं न पल भर टोका
अहंकार कर विन्ध्य उठा, जन-पथ रोका-पछताया
ऋषि अगस्त्य ने कद बौनाकर पल में मान घटाया
वनवासी सिय-राम तुम्हारा आशिष ले बढ़ पाये
कृष्ण और पांडव तव तट पर बार-बार थे आये
परशुराम, भृगु, जाबाली, वाल्मीक हुए आशीषित
मंडन मिश्र-भारती गृह में शुक-मैना भी शिक्षित
गौरव-गरिमा अजब-अनूठी जो जाने तर जाए
मैया जगततारिणी भव से पल में पार लगाए
कर जोड़े 'संजीव' प्रार्थना करे गोद में लेना
मृण्मय तन को निज आँचल में शरण अंत में देना
४-१०-२०१२
***
गीत:
आईने अब भी वही हैं
*

आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें नहीं.
और हिम्मत हारकर
घुटने कभी टेकें नहीं...
*
बेहतर शंका भुला दें,
सोचकर ना सिर धुनें.
और होगा अधिक बेहतर
फिर नये सपने बुनें.
कौन है जिसने कहे
सुनकर कभी किस्से नहीं.
और मौका मिला तो
मारे 'सलिल' घिस्से नहीं...
*
भूलकर निज गलतियाँ
औरों को देता दोष है.
सच यही है मन रहा
हरदम स्वयं मदहोश है.
गल्तियाँ कर कर छिपाईं
दण्ड खुद भरते नहीं.
भीत रहते किन्तु कहते
हम तनिक डरते नहीं....
*
आइनों का दोष क्या है?
पूछते हैं आईने.
चुरा नजरें, फेरकर मुँह
सिर झुकाया भाई ने.
तिमिर की करते शिकायत

मौन क्यों धरते नहीं?'सलिल' बनकर दिया जलकर
तिमिर क्यों हरते नहीं??...
४-१०-२०११
***
मुक्तिका :
सिखा गया

*
जिसकी उँगली थामी चुप रहना सिखा गया.
जिसने उँगली थामी चट चलना सिखा गया..

दर्पण से बात हुई तो खुद को खुद देखा.
कोई न पराया है, जग अपना सिखा गया..

जब तनी तर्जनी तो, औरों के दोष गिने.
तब तीन उँगलियों का सच जगना सिखा गया..

आते-जाते देखा, हर हाथ मिला खाली.
बोया-पाया-खोया ही तजना सिखा गया..

ढाई आखर का सच, कोई न पढ़ा पाया.
अनपढ़ न कबीरा था, मन पढ़ना सिखा गया..

जब हो विदेह तब ही, हो पात्र प्रेम के तुम.
यमुना रज का कण-कण, रस चखना सिखा गया.

जग नेह नर्मदा है, जग अवगाहन कर लो.
हर पंकिल पग-पंकज, उठ चलना सिखा गया..

नन्हा सा तिनका भी जब पड़ा नयन में तो.
सब वहम अहम् का धो, रो-चुपना सिखा गया..

रे 'सलिल' न वारी क्यों, बनवारी पर है तू?
सुन बाँस मुरलिया बन, बज सुनना सिखा गया..
***
मुक्तिका:
किस्मत को मत रोया कर.
*
किस्मत को मत रोया कर.
प्रति दिन फसलें बोया कर..

श्रम सीकर पावन गंगा.
अपना बदन भिगोया कर..

बहुत हुआ खुद को ठग मत
किन्तु, परन्तु, गोया कर..

मन-पंकज करना है तो,
पंकिल पग कुछ धोया कर..

कुछ दुनियादारी ले सीख.
व्यर्थ न पुस्तक ढोया कर..

'सलिल' देखने स्वप्न मधुर
बेच के घोड़ा सोया कर..
४-१०-२०१०
***
विशेष लेख:


देश का दुर्भाग्य : ४००० अभियंता बाबू बनने की राह पर
रोम जल रहा... नीरो बाँसुरी बजाता रहा...
-: अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' :-

किसी देश का नव निर्माण करने में अभियंताओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका और किसी की नहीं हो सकती. भारत का दुर्भाग्य है कि यह देश प्रशासकों और नेताओं से संचालित है जिनकी दृष्टि में अभियंता की कीमत उपयोग कर फेंक दिए जानेवाले सामान से भी कम है. स्वाधीनता के पूर्व अंग्रेजों ने अभियंता को सर्वोच्च सम्मान देते हुए उन्हें प्रशासकों पर वरीयता दी. सिविल इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को 'सर' का सर्वोच्च सम्मान देकर धन्यता अनुभव की.

स्वतंत्रता के पश्चात् अभियंताओं के योगदान ने सुई तक आयत करनेवाले देश को विश्व के सर्वाधिक उन्नत देशों की टक्कर में खड़ा होने योग्य बना दिया पर उन्हें क्या मिला? विश्व के भ्रष्टतम नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों ने अभियंता का सतत शोषण किया. सभी अभियांत्रिकी संरचनाओं में प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी बना दिए गये. अनेक निगम बनाये गये जिन्हें अधिकारियों और नेताओं ने अपने स्वार्थ साधन और आर्थिक अनियमितताओं का केंद्र बना दिया और दीवालिया हो जाने पा भ्रष्टाचार का ठीकरा अभियंताओं के सिर पर फोड़ा. अपने लाड़ले गुंडों को ठेकेदार बनाकर, उनके लाभ के अनुसार नियम बनाकर, प्रशासनिक दबाब बनाकर अभियंताओं को प्रताड़ित कर अपने मन मर्जी से काम करना-करना और न मानने पर उन पर झूठे आरोप लगाना, उनकी पदोन्नति के रास्ते बंद कर देना, वेतनमान निर्धारण के समय कम से कम वेतनमान देना जैसे अनेक हथकंडों से प्रशासन ने अभियंताओं का न केवल मनोबल कुचल दिया अपितु उनका भविष्य ही अंधकारमय बना दिया.

इस देश में वकील, शिक्षक,चिकित्सक और बाबू सबके लिये न्यूनतम योग्यताएँ निर्धारित हैं किन्तु ठेकेदार जिसे हमेशा तकनीकी निर्माण कार्य करना है, के लिये कोई निर्धारित योग्यता नहीं है. ठेकेदार न तो तकनीक जानता है, न जानना चाहता है, वह कम से कम में काम निबटाकर अधिक से अधिक देयक चाहता है और इसके लिये अपने आका नेताओं और अफसरों का सहारा लेता है. कम वेतन के कारण आर्थिक अभाव झेलते अभियंता के सामने कार्यस्थल पर ठेकेदार के अनुसार चलने या ठेकेदार के गुर्गों के हाथों पिटकर बेइज्जत होने के अलावा दूसरा रस्ता नहीं रहता. सेना और पुलिस के बाद सर्वाधिक मृत्यु दर अभियंताओं की ही है. परिवार का पेट पलने के लिये मरने-मिटाने के स्थान पर अभियंता भी समय के अनुसार समझौता कर लेता है और जो नहीं कर पाता जीवन भार कार्यालय में बैठाल कर बाबू बना दिया जाता है.

शासकीय नीतियों की अदूरदर्शिता का दुष्परिणाम अब युवा अभियंताओं को भोगना पड़ रहा है. सरकारों के मंत्रियों और सचिवों ने अभियांत्रिकी शिक्षा निजी हाथों में देकर अरबों रुपयों कमाए. निजी महाविद्यालय इतनी बड़ी संख्या में बिना कुछ सोचे खोल दिए गये कि अब उनमें प्रवेश के लिये छात्रों का टोटा हो गया है. दूसरी तरफ भारी शुल्क देकर अभियांत्रिकी उपाधि अर्जित किये युवाओं के सामने रोजगार के लाले हैं. ठेकेदारी में लगनेवाली पूंजी के अभाव और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त गुंडे ठेकेदारों के कारण सामान्य अभियंता इस पेशे को जानते हुए भी उसमें सक्रिय नहीं हो पाता तथा नौकरी तलाशता है. नौकरी में न्यूनतम पदोन्नति अवसर तथा न्योंतम वेतनमान के कारण अभियंता जब प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठे तो उन्हें सर्वाधिक सफलता मिली किन्तु सब अभियंता तो इन पदों की कम संख्या के कारण इनमें आ नहीं सकते. फलतः अब अभियंता बैंकों में लिपिकीय कार्यों में जाने को विवश हैं.

गत दिनों स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की लिपिकवर्गीय सेवाओं में २०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त तथा ३८०० से अधिक अभियांत्रिकी स्नातक चयनित हुए हैं. इनमें से हर अभियंता को अभियांत्रिकी की शिक्षा देने में देश का लाखों रूपया खर्च हुआ है और अब वे राष्ट्र निर्माण करने के स्थान पर प्रशासन के अंग बनकर देश की अर्थ व्यवस्था पर भार बन जायेंगे. वे कोई निर्माण या कुछ उत्पादन करने के स्थान पर अनुत्पादक कार्य करेंगे. वे देश की राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के स्थान पर देश का राष्ट्रीय और प्रति व्यक्ति व्यय बढ़ाएंगे किन्तु इस भयावह स्थिति की कोई चिंता नेताओं और अफसरों को नहीं है.
***
स्मृति गीत-
पितृव्य हमारे नहीं रहे 
*
वे
आसमान की
छाया थे.
वे
बरगद सी
दृढ़ काया थे.
थे-
पूर्वजन्म के
पुण्य फलित
वे,
अनुशासन
मन भाया थे.
नव
स्वार्थवृत्ति लख
लगता है
भवितव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
हर को नर का
वन्दन थे.
वे
ऊर्जामय
स्पंदन थे.
थे
संकल्पों के
धनी-धुनी-
वे
आशा का
नंदन वन थे.
युग
परवशता पर
दृढ़ प्रहार.
गंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
*
वे
शिव-स्तुति
का उच्चारण.
वे राम-नाम
भव-भय तारण.
वे शांति-पति
वे कर्मव्रती.
वे
शुभ मूल्यों के
पारायण.
परसेवा के
अपनेपन के
मंतव्य हमारे
नहीं रहे.
पितृव्य हमारे
नहीं रहे....
२२-९-२००९
***

सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

गीत, सुरेंद्र पवार, पुरोवाक, सॉनेट, काली, छंद पुनीत

सॉनेट
काली
कल क्यों?, काल आज ला काली
अत्याचारी का विनाश कर
करा पाप से दुनिया खाली
सत्ता-सुख का भवन ताश कर

कलकत्ते की मातु कराली
घर घर आ नैवेद्य ग्रहण कर
हाथों में ले थाम भुजाली
शस्य श्यामला वसुंधरा कर

खप्पर कभी न हो माँ खाली
आतंकी का लहू पान कर
फूल-फलों लद झूमे डाली
सुजला सुफला सलिला हो हर

सींचो बगिया बनकर माली
सदय रहो हे मैया काली
३-१०-२०२२
•••
प्रार्थना

कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।

बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।

सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।

तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
***
छंदशाला ३०
पुनीत छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल व उज्जवला छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SSI ।

लक्षण छंद-
तिथि पुनीत पंद्रहवी खूब।
चाँद-चाँदनी सोहें खूब।।
गुरु गुरु लघु पद का हो अंत।
सरस सरल हो तो ही तंत।।

उदाहरण-
राजा नहीं, प्रजा का राज।
करता तंत्र लोक का काज।।

भूल न मालिक सच्चा- लोक।
सेवक है नहिं नेता- शोक।।

अफसर शोषण करता देख।
न्यायालय नहिं खींचे रेख।।

व्यापारी करता है लूट।
पत्रकारगण डाले फूट।।

सत्ता नहीं घटाती भाव।
जनता सहे घाव पर घाव।।
२-१०-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा :
खुद को 'परख' : साहित्य चख
*
भारतीय सृजन परंपरा सबका हित समाहित होने को साहित्य की कसौटी मानती है। 'सत्यं शिवं सुंदरं' के आदर्श को शब्द के माध्यम से समाज तक पहुँचाना ही साहित्य सृजन का ध्येय रहा है। साहित्य के भाव पक्ष का विवेचन कर उसमें अन्तर्निहित भव्य भावों की दिव्यता का दर्शन कर पाठकों-श्रोताओं को उनसे अवगत कराना समालोचना का उद्देश्य रहा है। साहित्य में लोकोत्तर आनंद का अन्वेषण कर साधक-बाधक तत्वों का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, सामान्य सिद्धांतों का निर्धारण ही समालोचना शास्त्र है। कालांतर में ऐसे सिद्धांत ही किसी रचना के मूल्यांकन हेतु आधार का कार्य करते हैं। ये सिद्धांत देश-काल-परिस्थिति अनुरूप परिवर्तित होते हैं। कालिदास के अनुसार न तो सब पुराण श्रेष्ठ है, न सब नया हेय। श्रेष्ठ जन गुणावगुण के अधरा पर निर्णय करते हैं -
"पुराण मित्येव न साधु सर्वं, न छापी काव्यं नवमित्यवजर्न।
संत: परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते, मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।। - (मालविकाग्निमित्र १-६)
एक बार प्लेटो ने कहा "आयम नो राइटर ऑफ़ हिस्ट्री."
डायोजनीज ने उत्तर दिया- "एव्री ग्रेट राइटर इस राइटर ऑफ़ हिस्ट्री, लेट हिम ट्रीट ऑन ऑलमोस्ट व्हाट सब्जेक्ट ही मे. ही कैरीज विथ हिम फॉर थाउसेंड ऑफ़ इयर्स ए पोरशन ऑफ़ हिज टाइम्स."
कवीन्द्र रवींद्र के शब्दों में "विश्व मानव का विराट जीवन साहित्य द्वारा आत्म-प्रकाश करता आया है।" वस्तुत: साहित्य की सीमा लिखने, पढ़ने और पढ़ने तक सीमित नहीं है, वह मनुष्य के शाश्वत जीवन में आनंद और अमृत का कोष है।
भारतीय वांग्मय में, निबंध अति प्राचीन अभिधान है। वर्तमान में हम जिसे निबंध कहते हैं, वह अपनी भावात्मक व वैचारिक यात्रा में साहित्य की चिर नवीन और सशक्त विधा के रूप में भारतेन्दु काल से अद्यतन स्वीकृत और विकसित होता रहा है। वर्तमान गद्य युग में, नीर-क्षीर विवेक का, समीक्षा-समालोचना का, तर्क-वितर्क (कभी-कभी कुतर्क भी) का और और वैश्विक आदान-प्रदान की हर अनुभूति निबंध में समाहित हो रही है। निबंध गंभीर गद्य साहित्य के अंतर्गत कथानक निरपेक्ष श्रव्य विधा के विशिष्ट रूप में पहचाना जा रहा है। वर्तमान निबंध प्राणवान, गतिशील, सशक्त, साहित्यिक, रसात्मक अभिव्यक्ति से संयुक्त विश्वजनीन वैचारिक परिदृश्य से संपुष्ट विधा के रूप में पाठकार्षण का केंद्र है। आचार्य त्रयी (रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी), लाला भगवान दीन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैनेन्द्र, महादेवी, डॉ, नगेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, गुलाबराय, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ, विवेकी राय, डॉ.जगदीश गुप्त, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, आदि ने विविध विधान में निबंध लेखन कर उसे समृद्ध किया है।
हिंदी को विरासत में "गद्यं कवीनां निकषं वदंति" का मानक मिला है। समीक्षा दृष्टि से निबंध लेखन कलात्मकता और वैज्ञानिकता के साँचे में साहित्यिकता को ढालकर शब्द-सामर्थ्य से अभिषिक्त करने का सारस्वत अनुष्ठान है। समीक्षा में विषय की विवेचना कर आख्यान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिभा, अध्ययन और मनन की पूँजी आवश्यक है। वर्तमान में प्राच्य समीक्षा से संपर्क सहज होने के कारण बिम्ब-विधान, प्रतीक, कल्पना, रस, अलंकार, भाषिक वैशिष्ट्य, अभिव्यक्तात्मक गुण-दोष, लक्षण, व्यंजना आदि को ही आधार मानकर समीक्षा-कर्म की इतिश्री नहीं मानी जा सकती। समीक्षा कर्म हेतु सिद्धांत, नियम और आदर्श की कसौटियों को लेकर पश्चिम में भी कलावादियों और भाववादियों में मतभेद है। समीक्षक का कार्य पाठक को गुण-दोष विषयक मान्यताओं से अवगत करना है, निर्णय देना नहीं। पाठकीय अभिरुचि के परिष्करण, बोधशक्ति और रसास्वादन वृद्धि तक ही समीक्षक का दायित्व है। कला, भाव, कथ्य, भाषा और प्रासंगिकता के पंचतत्वों पर चिंतन हेतु समीक्षक की दृष्टि का पूर्वाग्रहमुक्त होना अपरिहार्य है।
समालोचना के ४ प्रधान मार्ग १. सैद्धान्तिक आलोचना, २. निर्णयात्मक आलोचना, ३. प्रभावाभिव्यजंक आलोचना तथा ४. व्याख्यात्मक आलोचना हैं। सैद्धांतिक समालोचना किसी सिद्धांत को केंद्र में रखकर की जाती है। निर्णयात्मक समीक्षा में रचना के गुण-दोषों का आकलन कर स्थान निर्धारण किया जाता है। प्रभावाभिव्यजंक समीक्षा में रचना से व्युत्पन्न प्रभावों को प्रमुखता दे जाती है। व्याख्यात्मक समीक्षा में रचना के विविध अंगों की विशेषताओं को उद्घाटित करती है। समालोचना के कुछ अन्य प्रकार भी हैं। ऐतिहासिक समीक्षा में सामाजिक, राजनैतिक, अभियांत्रिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विविध परिप्रेक्ष्यों में कृति का मूल्यांकन और अन्य कृतियों से तुलना की जाती है। मनोवैज्ञानिक समीक्षा, दर्शन शास्त्रीय समीक्षा, विज्ञानपरक समीक्षा, अर्थ शास्त्रीय समीक्षा आदि विषय विशेष के अंगोपांगों, मूल्यों, विधानों आदि के अनुरूप होती हैं। निर्णायात्मक समीक्षा अब कालातीत हो गयी है। "द रैंकिंग ऑफ़ राइटर्स इन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट हैस बिकम ओब्सोलीट" - द न्यू क्रिटिसिज़्म, जे. ई. स्प्रिंगन
आधुनिक हिंदी में समीक्षा लेखन का सूत्रपात १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय से हुआ।'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बनी क्रिया 'लोच' से निर्गत है। 'लोच' का अर्थ है 'देखना'। 'लोच' का अर्थ देखना, प्रकाशित करना है। 'लोच' से ही 'लोचन' शब्द बना है। 'लोचन' में 'आ' प्रत्यय लगने पर 'आलोचन' फिर आलोचना बना।' आलोचना में 'सम' प्रत्यय जुड़कर 'समालोचना' बन। व्यवहार में समीक्षा, आलोचना, समालोचना (अंग्रेजी 'क्रिटिसिज्म') समानार्थी हैं।शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है।संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है - "यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"
अर्थात् आलोचना से आशय साहित्यक कृति की विश्लेषणपरक व्याख्या से है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।
लाला भगवान दीन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकमंगलपरक रसाश्रित आलोचना, शास्त्रानुमोदित सामाजिक सामयिकता और सटीक भाषिक अभिव्यक्ति से हिंदी समीक्षा भवन की नींव सुदृढ़ हुई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक गर्वानुभूति की चाशनी और पाण्डुलिपीय शोधपरक व्यावहारिक आदर्श को ध्रुव तारे की तरह समीक्षा जगत में स्थापित किया। डॉ. नगेंद्र की रसग्राही दृष्टि आचार्य नंददुलारे बाजपेई के राष्ट्रीय गौरव के साथ सम्मिश्रित होकर महादेवी की रहस्यात्मकता की ओर उन्मुख हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा ने समीक्षा का साम्यवादी यथार्थवाद और अस्तित्ववाद से परिचय कराया। हिंदी साहित्य के विशिष्ट, अभिजात्य, मौलिक हस्ताक्षर रहे अज्ञेय के अनुसार "यह सब अनुभव अद्वितीय, जो मैंने किया, सब तुम्हें दिया।" - आत्मने पद। वे साहित्य सृजन को 'व्यक्ति' विलयन का माध्यम मानते थे। ऋषिगण अपने 'अहं' को विलीन कर सृजन करते थे, अज्ञेय इस ऋषि बोध के कायल थे। उनके अनुसार - "लेखकों को नहीं, समालोचकों को शिक्षित बनने के प्रयत्न करना चाहिए। लेखक बंधन से परे है और रहेगा.... लेखक बंध सकता है पर रचना-शक्ति को नहीं बाँध सकता, बंधने से वह मर जाएगी।" अज्ञेय ने आलोचना और रचना प्रक्रिया को एक कर दिया। उन्होंने व्याख्यात्मक सैद्धांतिक आलोचना पर कम ध्यान दिया। अज्ञेय ने काव्य की आत्मा को शैली (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य, रस आदि) में न मानकर, मानव को केंद्र में रखा। रचनाकार और आलोचक का विभाजन पश्चिम में भी रहा। आलोचना की पहचान उसका शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, समाजपरक, ऐतिहासिक या सौंदर्यवादी होना है। व्यक्तिपरक, अध्यापकीय, भाषिक लालित्य को ध्येय मानने से आलोचना की शक्ति क्षीण होना स्वाभाविक है। आलोचना को तार्किक, संदर्भयुक्त, मूल्य-पोषित होना होगा। मूल्याश्रित आलोचना वस्तुनिष्ठता और तात्कालिकतापरक हो यह स्वाभाविक है। अज्ञेय के अनुसार "भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें। वही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" - (स्रोत और सेतु, पृष्ठ ९९) वे कहते हैं - "क्या किसी साहित्यकार को समझना, उसकी समीक्षा करना, साहित्य के विकास में उसका स्थान और महत्व निश्चित करना, रचना का मूल्य आँकना, क्या केवल उसी को देखकर संभव है? क्या उसकी तथाकथित विशेषता, भिन्नता को देखने के लिए हम उन्हें पूर्ववर्तियों के बीच रख- तुलना कर, पूर्ववर्तियों साहित्यकारों और कवियों के साथ संबंध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?"
मुक्तिबोध के अनुसार समीक्षा का अनिवार्य गुण जीवन, विवेक व उसकी मर्मज्ञता है। उनके अनुसार "वस्तुत: समीक्षात्मक कला में समीक्षा जीवनगत तथ्यों की हुआ करती है।"-नए साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, पृ. ९९। शारदा प्रसाद सक्सेना, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने मुक्तिबोध के चिंतन को 'मार्क्सवादी पूर्वाग्रह' कहा किन्तु डॉ. नामवर सिंह ने इसे 'प्रस्थान भेद और मूल्य केंद्रित दृष्टि' माना। मुक्तिबोध के अनुसार रचनाकार को "तत्व, अभिव्यक्ति और दृष्टिविकास, तीनों क्षेत्रों में रचनाप्रक्रिया को निरंतर उन्नत करना चाहिए। 'नयी कविता का दायित्व' में मुक्तिबोध मानव मुक्ति के संघर्ष को रचनाकार का सबसे बड़ा दायित्व कहते हैं। उनके अनुसार "रचनाकार की दायित्व चेतना मूलत: सामाजिक दृष्टि का प्रतिफल होती है जिसका सहकार उसकी सौंदर्य प्रतीति में अनिवार्य रूप से रहता है।" मुक्तिबोध 'नवीन समीक्षा का आधार' में जीवन संघर्ष के धरातल पर लेखक और समीक्षक में होड़ देखते हैं। " नि:संगता से सृजन नहीं उपजता" - काव्य की रचना प्रक्रिया। उनके अनुसार आलोचक के कर्तव्य और दायित्व बड़े हैं। उसे अहंकार शून्य होना चाहिए। - एक साहित्यकार की डायरी। "समीक्षा को मानवीय यथार्थ से जोड़े बिना कोई मूल्य नहीं दिया जा सकता।" -नयी कविता का आत्म संघर्ष, पृष्ठ १५८। मुक्तिबोध के अनुसार आलोचक का कार्य कलाकृति के भीतर के तत्वों को हृदयंगम कर तत्वों की समुचित व्याख्या करना है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता और लेखन अभियंता सुरेंद्र सिंह पवार की कृति 'परख' चयनित पुस्तकों पर समीक्षात्मक निबंधों का संकलन है। इस विधा पर हिंदी में अपेक्षाकृत कम कार्य हुआ है। यह कार्य समय, धन, बुद्धि और श्रम साध्य है।संकलन में विविध विधाओं, विविध विषयों, विविध आयुवर्ग और पृष्ठभूमि के रचनाकारों का होना इसका वैशिष्ट्य है। स्वाभाविक है कि हर कृति के साथ न्याय करने के लिए हर निबंध की विषयवस्तु, लेखन आधार, मानक और वर्णन शैली भिन्न रखना होगी। अन्तर्निहित ३२ निबंधों में से १८ पद्य कृतियों पर और १४ गद्य कृतियों पर हैं। पद्य कृतियों में २ दोहा संकलन (दोहा-दोहा नर्मदा - संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - डॉ. साधना वर्मा, बुंदेली दोहे - आचार्य भगवत दुबे), ४ खंड काव्य (जयद्रथ मरण - देवराज गोंटिया 'देवराज', महारानी मंदोदरी - प्रतिमा अखिलेश, कालजयी - अमरनाथ, प्राणमय पाषाण - गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ), २ काव्यानुवाद (धाविका - भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', श्री गीता मानस - उदयभानु तिवारी 'मधुकर'), ३ कविता संग्रह (फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक - बद्रीनारायण सिंह पहाड़ी, प्रेमांजलि - विष्णु प्रसाद पांडेय, खुशियों के रंग - मदन मोहन उपाध्याय,), ३ गीत संग्रह (पंख फिर भीगे सपन के - कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', जंगल राग - अशोक शाह, काल है संक्रांति का - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'), २ ग़ज़ल संग्रह (इन दिनों - कृष्ण कुमार राही, सरगोशियाँ - इंदिरा शबनम ), एक मुक्तक संग्रह (कुछ छाया कुछ धूप - चन्द्रसेन 'विराट') तथा एक महाकाव्य (रानी थी दुर्गावती - केशव सिंह दिखित) हैं। गद्य कृतियों में ३ उपन्यास (नींद क्यों रात भर नहीं आती - सूर्यनाथ सिंह, विक्रमादित्य कथा - प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, कितने पाकिस्तान - कमलेश्वर), ५ कहानी संग्रह (सही के हीरो - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, अपना अपना सच - संतोष परिहार, दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे, अष्टदल - डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', सरेराह - डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव), पर्यटन (नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा - भारती ठाकुर), इतिहास (मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार - शंकर सिंह 'राजन'), निबंध संग्रह (काल क्रीडति - डॉ.श्याम सुंदर दुबे), बाल कहानी संग्रह (अनमोल कहानियाँ - श्रीमती गुलाब दुबे), आत्मकथा (जब मेरी वादी हरी भरी थी - डॉ. कंवर के. कौल), लघुकथा (अंदर एक समंदर - सुरेश 'तन्मय' ) सम्मिलित हैं।
रचनाकारों में ६ अभियंता (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', देवराज गोंटिया 'देवराज', अमरनाथ, गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर', उदय भानु तिवारी 'मधुकर', चन्द्रसेन विराट), २ चिकित्सक (डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल), २ उच्च प्रशासनिक अधिकारी (मदन मोहन उपाध्याय, अशोक शाह), ४ शिक्षा शास्त्री (भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, डॉ.श्याम सुंदर दुबे), प्राध्यापक (डॉ. साधना वर्मा), चिकित्सा कर्मी (आचार्य भगवत दुबे), ३ शिक्षक (विष्णु प्रसाद पांडेय, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', केशव सिंह दिखित, ), शासकीय अधिकारी (सुरेश 'तन्मय'), पत्रकार (कमलेश्वर), गृहस्वामिनी (डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव) हैं। इनमें केवल ६ महिलाएँ (डॉ. साधना वर्मा, प्रतिमा अखिलेश, इंदिरा शबनम, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, भारती ठाकुर, श्रीमती गुलाब दुबे) हैं, शेष २६ पुरुष हैं। लगभग सभी रचनाकार उच्च शिक्षित हैं, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव डी.लिट्, डॉ. साधना वर्मा पीएच. डी. तथा डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल चिकित्सा क्षेत्र में शोधोपाधियाँ प्राप्त हैं। इससे उच्च शिक्षित वर्ग में साहित्य सृजन की बढ़ती रूचि का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। अब कबीर, रैदास आदि की तरह शिक्षा अवसर रहित किन्तु उच्चतम समझ से संपन्न रचनाकार अपवाद ही हैं। इसका प्रभाव रचनाओं में भाषिक शुद्धता, प्रांजल अभिव्यक्ति, विषय और कथ्य के प्रति स्पष्ट समझ तथा विचारों के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसमें स्वाभाविकता पर कृत्रिमता के हावी होने का खतरा भी है। कथ्य पर शिल्प हावी हो सकता है जिसका दुष्परिणाम संवेदनाओं का पाठक / श्रोता तक संवेदनाएँ न पहुँचने के कारण जुड़ न पाने के रूप में होने के रूप में हो सकता है। सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं है और इसीलिये ये कृतियाँ समीक्षक की चयन सूची में आ सकी हैं।
कृतिकार सुरेंद्र जी अभियंता हैं, गुणवत्ता के प्रति सजग रहना उनका स्वभाव है। कृति चयन, पठन और उन पर समीक्षात्मक निबंध लेखन का कार्य रज्जु पर नर्तन की तरह दुष्कर कृत्य है। एक ओर अपनों के नाराज होने की संभावना, दूसरी ओर कृति और कथ्य के साथ न्याय न हो पाने का खतरा, तीसरी और समीक्षा के मानकों का पालन न होने से आलोचना का भय। इन सबके मध्य कृतियाँ विविध विषयों और विधाओं की हों जिनमें कुछ के परिक्षण के मानक ही अस्पष्ट हों तो समीक्षक का कार्य अधिक कठिन हो जाता है। संतोष है की सुरेंद्र जी धुआँधार जलप्रपात से व्युत्पन्न भँवर युक्र नर्मदा सलिल धार की तरह जटिल समीक्षा नद को कुशल तैराक की तरह पार कर सके हैं। इसमें सबसे बड़ी सहायक उनकी तर्क-शक्ति, ग्राह्य सामर्थ्य और निष्पक्षता हुई है। वे संबंधों के शोणभद्र को नैकट्य की जोहिला पर मुग्ध नहीं होने देते और निश्छल नर्मदा की तरह सत्य-शिव-सुंदर को सराहते हुए नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हुए, खूबियों को सराहते, खामियों को इंगित कर समीक्षक धर्म का पालन कर सके हैं।
दोहा संकलन
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग १ 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा की समीक्षा करते हुए वे लगभग १७०० दोहों में से कुछ दोहों को उद्धृत करने के साथ किसी छंद पर अब तक हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्य की हिंदी साहित्य के हिमालय 'तार सप्तक' के साथ जोड़ने में संकोच नहीं करते। प्रत्येक दोहाकार के गुण-दोष संकेतन के साथ एक-एक दोहा उद्धृत कर संतुलित-निष्पक्ष समीक्षा सुरेंद्र जी ने की है।
बुंदेली दोहे में सदाबहार छंद दोहा और सरस बुंदेली का सम्मिलन रसधार की तरह प्रवाहित हो, यह स्वाभाविक है। समीक्षक ने कृति में प्रयुक्त बुंदेली शब्द-संपदा के महत्व को रेखांकित किया है। वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे की यह कृति बुंदेली साहित्य का रत्न है।
खंड काव्य
जयद्रथ मरन अभियंता कवि देवराज गोंटिया 'देवराज' लिखित महत्वपूर्ण बुंदेली खंड काव्य है। इसी प्रसंग पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'जयद्रथ वध' खंड काव्य की रचना हरगीतिका छंद ( ४ x ११२१२) में की है। देवराज ने आल्हा छंद (१६-१५ पर यति, विषम पदांत गुरु, सम पदांत लघु) का प्रयोग किया है। सुरेंद्र जी ने बुंदेलखंड में वाचिक छंद परंपरा, अलंकारों, रसों आदि का उल्लेख करते हुए कृति का सम्यक विवेचन किया है।
प्रतिमा अखिलेश की औपन्यासिक कृति महारानी मंदोदरी पर विमर्श में पंचकन्याओं में परिगणित मंदोदरी द्वारा धर्म या परंपरा के नाम पर वैयक्तिक महत्ता के स्थान पर कर्तव्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने की स्वागतेय वृत्ति को इंगित किया गया है।
लखनऊ के वरिष्ठ कवि अभियंता अमरनाथ द्वारा रचित खंड काव्य कालजयी की समीक्षा में कारण की मनोग्रंथियों, आदर्शों तथा कवि द्वारा प्रयुक्त अभियांत्रिकीय उपमानों झरता - दीवार, घुनता - लकड़ी, रिसता - छत, दीमक - काया, पानी - आँखें आदि की प्रस्तुति परख की सजगता की परिचायक है।
प्राणमय पाषाण खंड काव्य अभियंता कवि गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' की काव्य कृति है। यह मदन महल की शिलाओं से सद्गुरु कृपालु जी महाराज के संवाद की भावभूमि पर आधृत है। समीक्षक ने कवि के कथ्य के साथ न्याय करने के प्रयास करते हुए भी काल क्रम दोष को उचित ही इंगित किया है।
काव्यानुवाद
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बुंदेलखंड के वरिष्ठ शिक्षा विद रहे हैं। उनहोंने सत्य साईं बाबा की शिक्षा संस्था में अध्यापन के समय बाबा का नैकट्य पाया और अंत में बापू की कम भूमि अहमदाबाद में सारस्वत साधना की। आंग्ल कवि विलियम मॉरिस के महाकाव्य 'अर्थली पैरेडाइज' के १२ वे सर्ग 'एटलांटाज रेस' को खंड काव्य के रूप में धाविका शीर्षक से रचकर नियाज़ जी ने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। समीक्षक ने कथानक, प्रकृति चित्रण, चरित्र चित्रण, कला पक्ष आदि अनुच्छेदों में कृति का सम्यक विवेचन किया है।
श्री गीता मानस में उदयभानु तिवारी 'मधुकर' ने गीता के कथ्य को मानस के शिल्प में ढाला है। से मूल ग्रंथ की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए भाषा और भाव की दृष्टि से अद्वितीय काव्यानुवाद ठीक ही कहा गया है।
कविता संग्रह
फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक काव्य संग्रह में बद्रीनारायण सिंह 'पहाड़ी' द्वारा प्रयुक्त आम भाषा की पैरवी करता रचनाकार मानव मूल्यों के ह्रास से चिंतित है।सुरेंद्र कवि द्वारा पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन के प्रति चिंता को उकेरते ही नहीं उभरते भी हैं।
शिक्षक कवि विष्णु प्रसाद पांडेय प्रणीत काव्य कृति प्रेमांजलि प्रकृति को आध्यत्मिक दृष्टिकोण से निहारते हुए उत्पन्न भावों से समृद्ध है। समीक्षक ने 'काम' और 'राम' दोनों को पहचाना है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कवि मदन मोहन उपाध्याय के काव्य संग्रह 'खुशियों के रंग' की १२९ कविताओं में अंतर्निहित अनीश्वरवाद, विषय वैविध्य और हुलास की तलाश समालोचक की दृष्टि से नहीं बचते। कवि ने कथ्य और समीक्षक ने रचनाओं के विवेचन में नीर-क्षीर दृष्टी का परिचय दिया है।
गीत संग्रह
पंख फिर भीगे सपन के संस्कारधानी जबलपुर के सरस्-समर्थ गीतकार कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' के रचनाकर्म की बानगी है। समीक्षक इन गीतों में रजऊ और मीरा की दीवानगी, अनुरागी तन-बैरागी मन देख सका है।
गीत संग्रह 'जंगल राग' के रचयिता अशोक शाह उच्चतम तकनीकी शिक्षा प्राप्त प्रशासकीय अधिकारी हैं। उनका गहन अध्ययन और सुदीर्घ प्रशासनिक अनुभव उनकी अनुभूतियों को सामान्य से इतर अभिव्यक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बनाये, यह स्वाभाविक है। ऐसे रचनाकर को पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। सुरेंद्र जी ने कृति में प्रयुक्त प्राचीन मिथकों, वनवासियों की वाचिक परंपराओं आदि से संपन्न जंगल राग को जीवन राग से ठीक ही जोड़ा है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' अभियंता रचनाकारों द्वारा नई लीक गढ़ने का अन्यतम उदाहरण है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की इस कृति को समीक्षक सुरेंद्र जी ने 'गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीत रूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान' करता पाया है। वे इन गीतों के केंद्र में आम आदमी को देख पाते हैं जो श्रम जीवी है और जिसे हर दिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। उनके अनुसार इन नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और संपन्न रूप में मौजूद है। इन नवगीतों में अन्तर्निहित कसावट, संक्षिप्तता, नूतन बिम्ब, अभिनव प्रतीक और छांदस प्रयोग मिथकों, मुहावरों आदि आदि को भी समीक्षक की सूक्ष्म दृष्टि देख-परख लेती है।
ग़ज़ल संग्रह
हिंदी गीति काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता चंद्रसेन विराट रचित हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह इस सदी का आदमी की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए 'बहरों का दरबार जोर से बोल यहाँ / मिमिया मत, हुंकार जोर से बोल यहाँ' का उल्लेख समालोचक की सुधारात्मक सोच का संकेत करता है।
ग़ज़ल संग्रह 'इन दिनों' की रचनाओं में कृष्ण कुमार 'राही' पर समकलिक अन्य ग़ज़लकारों का प्रभाव देख पाना समीक्षक की पैनी दृष्टि का साक्ष्य है।
सरगोशियाँ ग़ज़ल संग्रह इंदिरा शबनम की कृति है। इन ग़ज़लों के हिन्दुस्तानी तेवर को सराहता समीक्षण उनकी छन्दबद्धता, मौलिकता और भाव प्रवणता को भी परखता है।
मुक्तक संग्रह 'कुछ छाया कुछ धूप' हिंदी के यशस्वी साहित्यकार अभियंता चन्द्रसेन 'विराट' की कीर्ति पताका है। समीक्षक ने विराट जी द्वारा अपनाये गए उर्दू छंद की चर्चा की है जो हिंदी का पौराणिक जातीय छंद का एक प्रकार है।
महाकाव्य
रानी थी दुर्गावती भारतीय इतिहास के उज्वल चरित्र को सामने लता है जिसके उत्सर्ग को वनवासी क्षत्राणी होने के नाते वह महत्व नहीं मिला जो मिलना था। केशव सिंह दिखित ने इस कृति द्वारा दुर्गावती के बलिदान के साथ न्याय किया है। दुर्गावती पाए वृन्दावन लाल वर्मा, हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने उपन्यास और गोविन्द प्रसाद तिवारी ने खंड काव्य पूर्व में लिखा है। समालोचक ने क्षत्रिय राज वंशों की विस्तृत चर्चा करते हुए चंदेल-गोंड विवाह को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार उचित ठहराया है। महाकाव्यत्व के निकष पर कृति खरी है।
उपन्यास
सूर्यनाथ सिंह के मनोवैज्ञानिक उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' की समीक्षा करते समय किस्सागोई की देशज परंपरा का उल्लेख कल को आज से जोड़कर कल के लिए उसकी प्रासंगिकता को इंगित करता है।
'विक्रमादित्य कथा' ज्येष्ठ साहित्यकार प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी लिखित, ६वीं सदी के संस्कृत साहित्य सुमेरु डंडी के अप्राप्य ग्रंथ पर आधारित कृति है। सुरेंद्र जी ने इसे उद्भट विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कालजयी कृति बाणभट्ट की आत्मकथा के समकक्ष रखा है किंतु दोनों के मध्य समानता के बिंदु नहीं दिए हैं।
कितने पाकिस्तान ख्यात साहित्यकार-प्रकार-संपादक कमलेश्वर की बहुचर्चित कृति है। इसे पढ़ते समय सूयरंध्र जी की सजग पाठकीय दृष्टि बुन्देल केसरी छत्रसाल संबंधी तथ्यात्मक चूक की और गयी और उन्होंने निस्संकोच पत्र लिखकर कमलेश्वर को इसकी प्रतीति कराई। यह निबंध उपन्यास की समीक्षा न होकर इस प्रसंग पर सुरेंद्र जी के अध्ययन पर केंद्रित है।
कहानी संग्रह
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल लिखित कहानी संग्रह 'सही के हीरो' में प्रयुक्त अहिन्दी शब्दों से हिंदी की श्रीवृद्धि होने की समझ, ऐसे शब्दों को परे रखने की संकुचित सोच पर करारा प्रहार है। पारंपरिक कहावतों, मुहावरों के प्रासंगिक प्रयोग पर समीक्षकीय दृष्टिपात सजगता का परिचायक है।
अपना अपना सच में संतोष परिहार की कहानियों के मूल में प्रेमचंद-प्रभाव का संकेत और तब से अब तक विसंगतियों का अक्षुण्ण प्रभाव समीक्षक की पैनी निगाह से बचा नहीं है।
दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे का चर्चित कथा संग्रह है। कहानियां खड़ी बोली में होने पर भी पात्रों के संवाद परिवेशानुकूल बुंदेली में होने को समीक्षक ने ठीक ही, ठीक ठहराया है। समकालिक कहानीकारों के प्रभाव का उल्लेख उपयुक्त है।
अष्टदल डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल' की ८ ऐसी कहानियों का संग्रह है जिनमें सामाजिक विसंगतियों और अंतर्द्व्न्दों के बावजूद आदमियत की अहमियत बरक़रार है। समीक्षक इनमें अच्छी कहानी के सब गुण पाता है।
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव विदुषी गृहस्वामिनी हैं। अभियंता पति के साथ व्यस्त रहते हुए भी उन्होंने कायस्थ परिवार की विरासत शब्द संस्कृति को जीवंत रखकर अपनी शोध यात्रा को शिखर पर पहुँचाया है। संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी चारों भाषाओँ में दखल रखने वाली कहानीकार 'सरेराह' की २८ कहानियों में ऑटोरिक्षा में आते-जाते समय होते वार्तालाप को कहानियों का धार बनाती हैं। सुरेंद्र जी अपनी परख में इन कहानियों में अंतर्व्याप्त बहुरंगी जीवंत छवियों को कहानी और लघुकथा के बीच उकेरे गए कथा-चित्र पाते हैं।
पर्यटन
हिंदी में पर्यटन साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है। नर्मदा घाटी पर्यटकों को हमेशा लुभाती रही है। स्व. अमृतलाल वेगड़ कृत 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'तीरे-तीरे नर्मदा' तथा 'नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो', 'नदी तुम बोलती क्यों हो?' - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, 'समय नर्मदा धार सा' - मस्तराम गहलोत, 'नर्मदा की धारा से' - शिव कुमार तिवारी-गोविन्द प्रसाद मिश्र, आदि के क्रम में 'नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा' लिखकर भारती ठाकुर ने सत्प्रयास किया है। कृति के गुण-दोष विवेचन पश्चात् समीक्षक ने बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करने के तथ्य सामने लाकर सामाजिक प्रसंगों के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है।
इतिहास
शंकर सिंह 'राजन' की कृति मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार इतिहास के उस पृष्ठ को समने लाती है जिससे वर्तमान सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुँच सकती है। सुरेंद्र जी ने संक्षिप्त चर्चा कर इस प्रसंग को उचित ही काम महत्व दिया है।
डॉ.श्याम सुंदर दुबे विंध्य क्षेत्र के ख्यात शिक्षाविद, ४० से अधिक कृतियों के रचयिता हैं। उनके ३३ निबंधों का संग्रह 'काल क्रीडति' अपने नाम से ही अंतर्वस्तु का परिचय देता है। प्रकृति के विविध रति रंगों से क्रेडा करता पुरुष, आप ही उसका खिलौना न बन जाए। ऐसी चेतना जगाते इन निबंधों पर विमर्श करते समय उतनी ही संवेदनशीलता का परिचय देता है, जितनी अपेक्षित है।
बाल कहानी संग्रह 'अनमोल कहानियाँ' में श्रीमती गुलाब दुबे ने २८ कहानियों तथा ८ पद्य रचनाओं को स्थान दिया है। ये पारंपरिक कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रही हैं। लेखिका ने पारंपरिक कथ्य को अपने शब्दों का बाना पहनाकर बच्चों को प्रेरित करने के साथ समीक्षकीय समर्थन भी पाया है।
डॉ. कंवर के. कौल की अंगरेजी आत्मकथा 'व्हेन माय वैली वाज ग्रीन' का हिंदी रूपांतर 'जब मेरी वादी हरी थी' को समीक्षक ने आप बीती घटनाओं, यादों, यात्राओं, संस्मरणों, अनुभवों, घटनाओं व परिवर्तनों का पिटारा ठीक ही निरूपित किया है।
लघुकथा
हिंदी और निमाड़ी के समर्थ रचनाकार सुरेश 'तन्मय' का लघुकथा संग्रह 'अंदर एक समंदर' में ८२ लघुकथाएँ हैं। समीक्षक ने लघुकथा के मानकों को लेकर हो रहे अखाड़ेबाजी से दूर रह कर लघुकथाओं को कथ्य के आधार पर परखा है।
समीक्षात्मक निबंधों में कृति के हर पक्ष की चर्चा अनावश्यक विस्तार-भय से नहीं हो पाती है। समीक्षा करते समय उससे होने वाले प्रभावों और प्रतिक्रियाओं का भी ध्यान रखना होता है। कहा गया है 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' अर्थात 'जब सच बोलो प्रिय सच बोलो, अप्रिय सच को कभी न बोलो'। सुरेन्द्र जी ने इसी नीति का अनुसरण किया है। कृतियों के वैशिष्ट्य को यत्र-तत्र उद्घाटित किया है किन्तु न्यूनताओं को प्रे: अनदेख किया है। आलोचना के निकष पर यह नीति आलोचना की पात्र होगी किन्तु सम ईक्षा की दृष्टि से इसे सहनीय मानने में किसी को आपत्ति न होगी। इस तरह की कृतियाँ नव रचनाकारों के लिए पथ दर्शक की भूमिका निभा सकती हैं। गहन और व्यापक अध्ययन हेतु सुरेंद्र जी साधुवाद के पात्र हैं।
***
गीत:
कम हैं...
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...

हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
३-१०-२०११
***

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

मुक्तिका, नवगीत, गाँधी, चौबोला, गोपी, जयकारी, चौपई, भुजंगिनी, गुपाल, उज्ज्वला, छंद


छंदशाला २५
चौबोला छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर  शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि,  मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस व मनोरम छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत IS ।
लक्षण छंद-
पंद्रह मात्रा के पद रखे।
लघु-गुरु पदों का अंत सखे।।
चौबोला बोला गह हाथ।
शारद सम्मुख हो नत माथ।।

उदाहरण-
बुंदेली खें मीठे बोल।
रस कानन मां देउत घोल।।

बम्बुलिया गा भौतइ नीक।
तुरतइ रचौ अनूठी लीक।।

आल्हा सुन खें मूँछ मरोर।
बैरी सँग अजमाउत जोर।।

मचलें कजरी राई कबीर।
फाग गा रए मलें अबीर।।

सारद माँ खें पूजन  जांय।
पैले रेवा खूब नहांय।।
१-१०-२०२२
•••

छंदशाला २६
गोपी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर  शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि,  मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम व चौबोला छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदादि त्रिकल, पदांत S ।
लक्षण छंद-
पंद्रह कल, त्रिकलादि न भुला।
रास रचा कान्हा मन खिला।।
गोपी-गोप अंत गुरु रखें।
फोड़ें मटकी, माखन चखें।।

उदाहरण-
छंद साथ गोपी मिल रचें।
आदि त्रिकल, अंत गुरु परखें।।

कला दिखा पंद्रह सुख दिया।
नंद-यशोदा हुलसा हिया।।

बंसी बजी गोप सुन गए।
रास रचा प्रभु पुलकित हुए।।

जमुना तट पर खेलें खेल।
होता द्वैताद्वैती मेल।।

कान्हा हर गोपी सह नचे।
नाना रूप मनोहर रचे।।
१-१०-२०२२
•••

छंदशाला २७
जयकारी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर  शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि,  मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला व गोपी छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SI ।

लक्षण छंद-
अंतिम तिथि कल संख्या मीत।
गुरु-लघु पद का अंत सुनीत।।
जयकारी-चौपई सुनाम।
गति-यति-लय-रस छंद ललाम।।
(संकेत- अंतिम तिथि १५)

उदाहरण-
जयकारी की कला महान।
चमचे सीखें, भरें उड़ान।।

करे वार तारीफ अचूक।
बढ़ती जाती सुनकर भूख।।

कंकर को शंकर कह रहे।
बहती गंगा में बह रहे।।

चरते खेत ईनामों का।
समय है बेईमानों का।।

लेन-देन सौदे कर रहे।
कवि चारण जीकर मर रहे।।
१-१०-२०२२
•••

छंदशाला २८
भुजंगिनी/गुपाल छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी व जयकारी/चौपई छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत ISI ।

लक्षण छंद-
नचा भुजंगिनी नच गुपाल।
वसु-ऋषि नाचे ले करताल।।
लघु-गुरु-लघु पद अंत रसाल।
छंद रचे कवि, करे कमाल।।
(संकेत- वसु८+ऋषि७=१५)

उदाहरण-
अपना भारत देश महान।
जग करता इसका गुणगान।।

सजा हिमालय सिर पर ताज।
पग धोता सागर दे मान।।

नदियाँ कलकल बह दिन-रात।
पढ़तीं गीता, ग्रंथ, कुरान।।

पंछी कलरव करें हमेश।
नाप नील नभ भरें उड़ान।।

बहा पसीना करें समृद्ध। 
देश हमारे श्रमिक-किसान।।

चूसें नेता-अफसर-सेठ।
खून बचाओ कृपानिधान।।

एक-नेक हम करें निसार।
भारत माँ पर अपनी जान।।
१-१०-२०२२
•••

छंदशाला २९
उज्ज्वला छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई व भुजंगिनी/गुपाल छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SIS ।
   
लक्षण छंद-
उज्ज्वला रच बात बोलिए।
पंद्रह कला लिए डोलिए।।
गुरु-लघु-गुरु पदांत हो सखे!
बात में रस सलिल घोलिए।।

उदाहरण-
कृष्ण भजें पल पल राधिका।
कान्ह सुमिरे अचल साधिका।।

भव भुला चुप डूब भाव में।
भक्ति हो पतवार नाव में।।

शांत बैठ मन कर साधना।
अमला विमला रख भावना।।

नयन सूर हो बृज देख ले।
कान्ह पद रज शीश लेख ले।।

काम न आई मन कामना। 
जब तक मिलता हँस श्याम ना।

२-१०-२०२२
•••

मुक्तिका
*
वो ही खुद को तलाश पाया है 
जिसने खुद को खुदी भुलाया है

जो खुदी को खुदा में खोज रहा
वो खुदा में खुदी समाया है

आईना उसको क्या दिखाएगा
जिसने कुछ भी नहीं छिपाया है

जो बहा वह सलिल रहा निर्मल
जो रुका साफ रह न पाया है

देखता है जो बंदकर आँखें
दीप हो उसने तम मिटाया है

है कमालों ने क्या कमाल किया
आ कबीरों को बेच-खाया है

मार गाँधी को कह रहे बापू
झूठ ने सत्य को हराया है
***
*


नवगीत:
गाँधी
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
२-१०-२०२०
***

नवगीत: उत्सव का मौसम

*

उत्सव का

मौसम आया

मन बन्दनवार बनो...

*

सूना पनघट और न सिसके.

चौपालों की ईंट न खिसके..

खलिहानों-अमराई की सुध

ले, बखरी की नींव न भिसके..

हवा विषैली

राजनीति की

बनकर पाल तनो...

*

पछुआ को रोके पुरवाई.

ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई

खिला किसन को हँसे जसोदा-

आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..

कंस बिराजे

फिर सत्ता पर

बन बलराम धुनो...

*

नेह नर्मदा सा अविकल बह.

गगनविहारी बन न, धरा गह..

खुद में ही खुद मत सिमटा रह-

पीर धीर धर, औरों की कह..

दीप ढालने

खातिर माटी के

सँग 'सलिल' सनो.

२-१०-११

***







शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, ग़ज़ल, दोहा, छंद

छंदशाला १ लौकिक जातीय, सुगती छंद • विधान- प्रति पद सात मात्रा, पदांत गुरु। उदाहरण- सत लोक है। सुख-शोक है।। धीरज धरो। साहस वरो।। कुछ काम हो। कुछ नाम हो।। कुछ नित पढ़ो। कुछ नित लिखो।। जीवन खिले। सुगती मिले।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला २ वासव जातीय, छवि छंद • विधान- प्रति पद आठ मात्रा, पदांत जगण। अठ वसु न भूल। छवि सदृश फूल।। रख जगण अंत। रच छंद कंत।। उदाहरण- पुरखे अनाम। पुरखों प्रणाम।। तुम थे महान। हम हों महान।। कर काम चाम। हो कीर्ति-नाम।। तन तज न राग। मन वर विराग।। जप ईश-नाम। चुप सुबह-शाम।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ३ गंग छंद (सुगती छंद तथा छवि छंद के बाद) • विधान- प्रति पद नौ मात्रा, पदांत दो गुरु। अंक नौ सीखो। सफलतम दीखो।। अंत गुरु दो हो। गंग रच डोलो।। उदाहरण- सूरज उगाओ। तम को मिटाओ।। आलस्य छोड़ो। नाहक न जोड़ो।। रखो दोस्ताना। करो न बहाना।। सच मत बिसारो। दुनिया सँवारो।। पौधे लगाओ। सींचो बढ़ाओ।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ४ निधि छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि तथा गंग छंद) • विधान- प्रति पद नौ मात्रा, पदांत लघु। निधि नौ न बिसार। तुम लो न उधार।। लघु अंत न भूल। चुभ सके न शूल।। उदाहरण- जग सको उजार। कुछ करो सुधार।। हँस, भुला न नीत। झट पाल न प्रीत।। यदि कर उपकार। मत समझ उधार।। उठ उगा विहान। मत मिटा निशान।। बन फूल गुलाब। अब छोड़ हिजाब।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ५ दीप छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग तथा निधि छंद) • विधान- प्रति पद दस मात्रा, पदांत नगण गुरु लघु। बाल कर दस दीप। रख प्रभु-पग महीप।। नगण गुरु लघु साथ। पद अंत नत माथ।। उदाहरण- हो पुलकित निशांत। गगनपति रवि कांत।। प्राची विहँस धन्य। कहे नमन प्रणम्य।। दें धरणि उजियार। बाँट कण-कण प्यार।। रच पुलक शुभ गीत। हँसे कलम विनीत।। कूक पिक हर शाम। करे विनत प्रणाम।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ६ अहीर छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि तथा दीप छंद) • विधान- प्रति पद १२ मात्रा, पदांत जगण। ग्यारह कला अहीर। पद-अंत जगण सुधीर।। रौद्र जातीय छंद। रस गंग हो न मंद।। उदाहरण- भारत देश महान। देव भूमि शुभ जान।। नगपति हिमगिरि ताज। जन हितमयी सुराज।। जनगण धीर उदार। पलता हर दिल प्यार।। हैं अनेक पर एक। जाग्रत रखें विवेक।। देश हेतु बलिदान। होते विहँस जवान।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ७ शिव छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप तथा अहीर छंद) विधान- प्रति पद ११ मात्रा, पदांत सरन। एकादश शिव भज मन। पद अंत रखो सरन।। रख भक्ति पूज उमा। माँ सदय करें क्षमा।। उदाहरण- नदी नर्मदा नहा। श्रांति-क्लांति दे बहा। धुआँधार घूम ले। संग देख झूम ले।। लहर-लहर मचलती। नाच मीन फिसलती।। ईश भक्ति तारती। पूज करो आरती।। गहो देव की शरण। करो नेक आचरण।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ८ भव छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर तथा शिव छंद) • विधान- प्रति पद ११ मात्रा, पदांत यगण। भव का भय भुला रे। यगण अंत लगा रे।। ग्यारह कल जमाएँ। कविता गुनगुनाएँ।। उदाहरण- अरि से डर न जाएँ। भय से मर न जाएँ।। बना न अब बहाना। लगा सही निशाना।। आँख मिला न पाए। दुश्मन बच न पाए।। शीश सदा उठाएँ। मुट्ठियाँ लहराएँ।। पताका फहराएँ। जय के गीत गाएँ।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला ९ तोमर छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव तथा भव छंद) • विधान- प्रति पद १२ मात्रा, पदांत गुरु लघु। बारह कल रहें साथ। तोमर में लिए हाथ। गुरु लघु पद अंत मीत। निभा सकें अटल प्रीत।। उदाहरण आल्हा तलवार थाम। जूझ पड़ा बिन विराम।। दुश्मन दल मुड़ा भाग। प्राणों से हुआ राग।। ऊदल ने लगा होड़। जा पकड़ा बाँह तोड़।। अरि भय से हुआ पीत। चरण-शरण मुआ भीत।। प्राणों की माँग भीख। भागा पर मिली सीख।। २५-९-२०२२ ••• ॐ छंदशाला १० ताण्डव छंद (अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव व तोमर छंद) • विधान- प्रति पद १२ मात्रा, पदादि-पदांत लघु। करें ताण्डव मुदित मन। कल बारह बिसर न मन।। पद आदि लघु रख विहँस। लघु पदांत सरस बरस।। उदाहरण जप शिव को मन हर पल। रह आपद में अविचल।। भव-भय मिटे, मिले फल। बन कलकल करता जल।। कल को दोष न दे कल। मनुज न कल बन खो कल।। उगकर रवि सम चल ढल। ढलकर उग हँस फिर कल।। दिनकर दिन कर, मत छल। तम हर सतत अचंचल।। २७-९-२०२२ ••• (काव्य रूप- हिंदी ग़ज़ल)
***
तरही मुशायरा
दर्द का साग़र भी साक़ी मेरी क़िस्मत में न था
शौक़ में करना पड़ा आख़िर लहू पानी मुझे - यगाना चंगेजी
✍️ वज़्न -- 2122 2122 2122 212
✍️ अर्कान -- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
✍️ बह्र -- बह्रे - रमल मुसम्मन महज़ूफ़
✍️ क़ाफ़िया -- पानी ('आनी' की बंदिश)
✍️ रदीफ़ -- मुझे
✍ क़वाफ़ी (क़ाफ़िया के उदाहरण) --
22 -- फ़ानी, सानी , बानी ,धानी, आनी, जानी, खानी, मानी, पानी, रानी, दानी, नानी, ठानी, लानी,
222 -- आसानी, तुग्यानी, तूफानी, नूरानी, लाफ़ानी, रूमानी, मर्दानी, निगरानी, मरजानी, जज़मानी, लासानी, शैतानी मस्तानी, अन्जानी, दीवानी,जेठानी,सेठानी, रूहानी, नादानी,
1222 -- पशेमानी, महारानी, ... आदि ।
इसी बह्र पर गीत गुनगुना कर देखें
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गीत
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1 -- यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी
2 -- मंज़िलें अपनी जगह हैं रास्ते अपनी जगह
3 -- चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
4 -- सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
5 -- आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल हमें
6 -- होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
7 -- दिल के टुकड़े-टुकड़े करके मुस्क्रुरा के चल दिए
8 -- दिल दिया है यार ने तो मेहरबानी यार की
9 -- दिल दिया है जां भी देंगे ए वतन तेरे लिए
मुक्तिका 
2122 2122 2122 212
रोज मन की बात सहनी पड़ी मनमानी मुझे 
श्रीमती की डाँट भी तो रोज है खानी मुझे 

सूर्य ऊषा का लिए था हाथ भागा जा रहा 
देख दोपहरी मुई थी दे रही पानी मुझे 

प्यार बस लिव इन नहीं है, साथ होना प्यार है 
रोज लड़-मिल एक होना रीत भानी है मुझे 

इश्क़ संध्या से किया, कुड़माई रजनी से करी 
चाँद धोखा चाँदनी को दे परेशानी मुझे 

ठोकरों पे ठोकरें दे रो जमाना क्यों रहा 
देखता है दर्द लगता है मिहरबानी मुझे 

रिज़्क़ ने परवाज को रोका हमेश ही 'सलिल'  
शौक़ में करना पड़ा आख़िर लहू पानी मुझे

***
दोहा सलिला:
राम सत्य हैं, राम शिव.......
*
राम सत्य हैं, राम शिव, सुन्दरतम हैं राम.
घट-घटवासी राम बिन सकल जगत बेकाम..

वध न सत्य का हो जहाँ, वही राम का धाम.
अवध सकल जग हो सके, यदि मन हो निष्काम..

न्यायालय ने कर दिया, आज दूध का दूध.
पानी का पानी हुआ, कह न सके अब दूध..

देव राम की सत्यता, गया न्याय भी मान.
राम लला को मान दे, पाया जन से मान..

राम लला प्रागट्य की, पावन भूमि सुरम्य.
अवधपुरी ही तीर्थ है, सुर-नर असुर प्रणम्य..

शुचि आस्था-विश्वास ही, बने राम का धाम.
तर्क न कागज कह सके, कहाँ रहे अभिराम?.

आस्थालय को भंगकर, आस्थालय निर्माण.
निष्प्राणित कर प्राण को, मिल न सके सम्प्राण..

मन्दिर से मस्जिद बने, करता नहीं क़ुबूल.
कहता है इस्लाम भी, मत कर ऐसी भूल..

बाबर-बाकी ने कभी, गुम्बद गढ़े- असत्य.
बनीं बाद में इमारतें, निंदनीय दुष्कृत्य..

सिर्फ देवता मत कहो, पुरुषोत्तम हैं राम.
राम काम निष्काम है, जननायक सुख-धाम..

जो शरणागत राम के, चरण-शरण दें राम.
सभी धर्म हैं राम के, चाहे कुछ हो नाम..


पैगम्बर प्रभु के नहीं, प्रभु ही हैं श्री राम.
पैगम्बर के प्रभु परम, अगम अगोचर राम..

सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..

रामालय निर्माण में, दें मुस्लिम सहयोग.
सफल करें निज जन्म- है, यह दुर्लभ संयोग..

पंकिल चरण पखार कर, सलिल हो रहा धन्य.
मल हर निर्मल कर सके, इस सा पुण्य न अन्य..
***
तरही मुक्तिका ३ :
क्यों है?
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
३०-९-२०१०
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गुरुवार, 29 सितंबर 2022

परिचय २०२२

परिचय : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'। 
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश। ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८।
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा।
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.।
उपलब्धि : 'हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी अब विमल मति दे' सरस्वती शिशु मंदिरों में दैनिक प्रार्थना करोड़ों विद्यार्थियों द्वारा गायन, इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी में तकनीकी लेख 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएँ को द्वितीय श्रेष्ठ तकनीकी प्रपत्र पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति द्वारा, ५०० से अधिक नए छंदों की रचना, ९ बोलिओं में रचना, ७५ सरस्वती वंदना लेखन। 
विशेष: विश्व रिकॉर्ड - विविध अभियंता संस्थाओं द्वारा जबलपुर में भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या की ९ मूर्तियों की स्थापना कराई। 
संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री / पूर्व संभागीय परियोजना यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अध्यक्ष इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर, अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर - अभियान जबलपुर, संचालक समन्वय प्रकाशन संस्थान, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद, पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन जबलपुर।
प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७), २. भूकंप के साथ जीना सीखें (जनोपयोगी तकनीकी १९९७), ३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१), ४. मीत मेरे (कविताएँ २००२), ५. काल है संक्रांति का नवगीत संग्रह २०१६, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य, ७. सड़क पर नवगीत संग्रह, ८. ओ मेरे तुम श्रृंगार गीत संग्रह २०२१, ९. आदमी अभी जिन्दा है लघुकथा संग्रह २०२२, १०. २१ श्रेष्ठ (आदिवासी) लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२, ११. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोककथाएँ मध्य प्रदेश २०२२ ।
संपादन: (क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५), ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. सौरभः (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, ६. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ७. यदा-कदा (ऑफ़ एंड ओं का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ८. द्वार खड़े इतिहास के २००६, ९. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, १०-११. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, १२, दोहा दोहा नर्मदा २०१८, १३. दोहा सलिला निर्मला २०१८, १४. दोहा दीप्त दिनेश २०१८।
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १७. आरोहण रोटरी क्लब २०१२, १७. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।
(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४, ७. शब्द समिधा २०१९ ।
(घ). भूमिका लेखन: ७५ पुस्तकें।
(च). तकनीकी लेख: १५।
(छ). समीक्षा: ३०० से अधिक।
अप्रकाशित कार्य-
मौलिक कृतियाँ:
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ), आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।
अनुवाद:
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र), नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।
(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)।
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)।
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
परिचय प्रकाशित ७ कोश।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, शताधिक छंदों पर लेखमाला।
विशेष उपलब्धि: ५०० से अधिक नए छंदों की रचना।, हिंदी, अंग्रेजी, बुंदेली, मालवी, निमाड़ी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बृज, राजस्थानी, सरायकी, नेपाली आदि में काव्य रचना।

सम्मान- ११ राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल, झारखण्ड) की विविध संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख - संपादक रत्न २००३ श्रीनाथद्वारा, सरस्वती रत्न आसनसोल, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न हरयाणा, आचार्य हरयाणा, वाग्विदाम्बर उत्तर प्रदेश, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३) बेंगलुरु, काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान कोलकाता, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान कोलकाता, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, सर्वोच्च कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण जबलपुर, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, लोक साहित्य शिरोमणि अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, सर्वोच्च राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७, सर्वोच्च भवानी प्रसाद तिवारी प्रसंग अलंकरण जबलपुर २०२०, सर्वोच्च भारतेंदु पुरस्कार (५०००/-) उत्कर्ष साहित्य अकादमी दिल्ली २०२२ आदि।