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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

हम इश्क के बंदे

लेख
'हम इश्क के बंदे' हैं : प्रेमपरक कहानियाँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की आधारशिला रखनेवाले स्वनामधन्य साहित्यकारों में रामानुजलाल जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' चिरस्मरणीय हैं। कवि, गीतकार, निबंधकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और प्रकाशक हर भूमिका में वे अपनी मिसाल आप रहे। जन जन के प्रिय 'कक्का जी' ने जब जो किया जमकर, डटकर और बेहिचक किया। दोहरे जीवन मूल्य और दोहरे चेहरे उन्हें कभी नहीं भाए। कक्का जी के जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव निरन्तर आते-जाते रहे पर वे सबको हक्का-बक्का छोड़ते हुए अविचलित भाव से जब जो करना होता, करते जाते। अट्ठइसा, रायबरेली उत्तर प्रदेश के जमींदार मुंशी गंगादीन नवाब के अत्याचारों से बचने के लिए प्रयाग होते हुए रीवा पहुँचे। महाराज रीवा ने उन्हें उमरिया के सूबेदार का खासकलम नियुक्त कर दिया। मुंशी जी के छोटे पुत्र मुंशी शिवदीन अपनी ससुराल कटनी से ९ मील दूर बिलहरी में गृह जामाता हो गए। उनके छोटे पुत्र लक्ष्मण प्रसाद जी का विवाह ग्राम कौड़िया के प्रतिष्ठित बख्शी परिवार की गेंदा बाई से हुआ। लक्ष्मण प्रसाद जी प्राथमिक और माध्यमिक प्राध्यापक विद्यालयों में प्राध्यापक रहे, आपके शिष्यों में रायबहादुर हीरालाल राय का नाम उल्लेखनीय है। लक्ष्मण प्रसाद जी की सातवीं संतान रामानुज लाल जी का जन्म हरतालिका तीज २८ अगस्त १८९८ को सिहोरा में हुआ। सन १९०० के लगभग लक्ष्मण प्रसाद राजनाँदगाँव के अवयस्क राजा राजेंद्र दास जी के शिक्षक हो गए। रामानुज लाल जी का शैशव और बचपन राजपरिवार की छत्रछाया में बीता। इस काल के साथी और अनुभव कालान्तर में उनकी कहानियों में प्रगट होते रहे। बचपन में हुई अनेक दुर्घटनाएँ रामानुजलाल जी के कथा साहित्य का हिस्सा बनीं। विद्यार्थी काल में मुस्लिम आबादी के बीच बैजनाथपारा में रहने के कारण रामानुजलाल जी सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्त रह सके। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' शीर्षक कथा संग्रह में उनकी १२ प्रतिनिधि कहानियाँ सम्मिलित हैं। वर्ष १९६० में प्रकाशित और बहुचर्चित यह संकलन ६० वर्ष बाद पुनर्प्रकाशित होना एक असामान्य और असाधारण घटना है। हिंदी साहित्य पढ़ रही नई पीढ़ी रामानुजलाल जी का नाम बमुश्किल याद भी करे तो कवि के रूप में ही याद करेगी। रामानुज लाल जी सशक्त कहानीकार भी थे, यह इस कृति को पढ़ने के बाद मानना ही होगा। यह अवश्य है कि कहानी विधा अब बहुत बदल गई है। कहानी कहने की जो कला रामानुजलाल जी में थी, वह आज भी उतनी ही लोकप्रिय होगी, जितनी तब थी।  

'हम इश्क़ के बंदे हैं' कहानी का नायक अज़ीज़, भाषा तथा घटनाक्रम, कोलकाता में हुई ठगी तथा मालिक के न पहुंचने पर भी उनकी शोहरत के किस्से सुनकर तरक्की पाने का घटनाक्रम राजनाँदगाँव के दरबार में हुई घटनाओं का रूपांतरण ही है। कहानी में उत्सुकता और रहस्यात्मकता पाठक को बांधे रखती है।    

पागल हथिनी बिजली से मुठभेड़ की घटना पर हिंदी-अंग्रेजी में लिखी गई उनकी कहानी प्रकाशित और चर्चित हुई। कथा नायिका हथिनी बिजली भी राजनाँदगाँव राजदरबार से ही जुड़ी हुई थी। 

'वीर-मंडल की महाविद्या, महामाया नहीं 
बाली की वनिता न समझो, जीव की जाया नहीं 
सत्यसागर, सूरमा, हरिचंद की रानी नहीं 
आपने यह पाँचवी तारा अभी जानी नहीं'  

यह पद्यांश क्या किसी कहानी का आरंभ हो सकता है? सामान्यत: नहीं किन्तु रामानुजलाल जी इसी से बिजली कहानी का श्री गणेश करते हैं। पाँचवी तारा को जानने की उत्सुकता, पाठक के मन में जगाने के बाद कथाकार रहस्योद्घाटन करता है कि बिजली ही पाँचवी तारा है।बिजली के पराक्रम और पागलपन का चित्रण करते हुए कथाकार बिजली के सामने प्राण संकट में पड़ने और तंग गली में घुसकर बचने की घटना इस तरह कहता है की पाठक की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाए। गजराज मोती और बिजली के रोचक संवाद कहानीकार की कथा कौशल की साक्षी देते हैं। यहाँ भी दरबारों में प्रतिष्ठित वाक् विशारदों की रोचक झलक दृष्टव्य है। मोती के प्रणय जाल में भटककर बिजली का गुलाम बनना, चतुरता से मोती को मौत के घाट उतारना, पागलपन का दौरा पड़ने पर बिसाहिन के मकान को क्षति पहुँचाना और अंत में बिजली का  न रहना, हर घटना पाठक को चौंकाती है। बुंदेलखंड में अल्हैत 'अब आगे का कौन हवाल?' गाकर श्रोता के मन में जैसी उत्सुकता जगाते हैं, वैसी ही उत्सुकता जागकर कथा-क्रम को बढ़ाना रामानुज लाल जी की विशेषता है। 

संग्रह की तीसरी कहानी 'कहानी चक्र' एक क्लर्क और एक ओवरसियर दो दोस्तों के माध्यम से आगे बढ़ती है। दाम्पत्य जीवन में संदेह का बीज किस तरह विष वल्लरी बनकर मन का अमन-चैन नष्ट कर देता है, यही इस कहानी का विषय है। घटनाक्रम और कहन का अनूठापन इस कहानी को ख़ास बनाती है। 

आदिवासी दंपत्ति रूपसाय और रुक्मिन की प्रणय गाथा 'मूंगे की माला' कहानी के केंद्र में है। जमींदारों के कारिंदों का अमानुषिक अत्याचार, सुखी दंपत्ति का नीड़ और जीवन नष्ट होना, प्रतिक्रिया स्वरूप रूपसाय का विप्लवी हो जाना, बरसों बाद बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन होने तक जारी रहा है। रूपसाय अत्याचारी दीवान को वह मारने जा रहा था तभी दीवान अंतिम समय आया जान कर 'रुक्की' का नाम लेकर चीत्कार करता है और बदले की आग में जल रहा रूपसाय यह जानते ही कि दीवान की भी कोई रुक्की है जो विधवा हो जाएगी, उसे ही नहीं बदला लेने की राह ही छोड़ देता है। सभ्य कहे जानेवालों की अमानुषिकता और असभ्य कहे जानेवाले आदिवासियों की संवेदनशीलता ने इस कहानी को स्मरणीय बना दिया है। 

इस कथा माला का पंचम कथा रत्न 'क्यू. ई. डी.' का नाम ही पाठक के मन में उत्सुकता जगाता है। ज्यामितीय प्रमेय से आरंभ और अंत होने का प्रयोग करती यह कहानी ५ भागों में पूर्ण होती है। शैलीगत अभिनव प्रयोग का कमाल यह कि कहानी का नायक दूसरा विवाह करना चाहता है। उसका पालक इसे रोकने के लिए एक यौन विशेषज्ञ की नियुक्ति करता है जो नायक की होनेवाली पत्नी, नायक, नायक की वर्तमान पत्नी से उनके न चाहने पर भी कुछ प्रश्नोत्तर करता है। इन प्रश्नों के माध्यम से पाठक उन पात्रों की मन:स्थिति से परिचित होता हुआ अंतिम अंक में विशेषज्ञ द्वारा अपने नियोक्ता को लिखा गया पत्र पढ़ता है जिससे विदित होता है कि भावी पत्नि ने विशेषज्ञ द्वारा दिखाई गयी राह पर चलते हुए अपना इरादा बदल दिया है। 

'मयूरी' कहानी का कथ्य छायावादी निबंध की तरह है। यह कथाकार की प्रिय रचना है जिसे रचने में स्व. केशव पाठक जी का विमर्श भी रहा है। कथाकार ज्ञान, संगीत, नृत्य में निमग्न हो आनंदित होते हुए प्रकृति के साहचर्य में मयूरी के प्रेम और सौंदर्य को पाने का स्वप्न देखता है जो अंतत: भग्न हो जाता है। 

कहानी 'जय-पराजय' के मूल में शासक और शासित का संघर्ष है। शासकीय उच्चाधिकारी पद के मद में मस्त हो अपने परिचारक के परिवारजनों की व्यथा को नहीं देखता, समर्थ होकर भी पीड़ितों का दर्द नहीं हरता और स्वयं पीड़ा भोगते हुए काल के गाल में समा जाता है। तुलसीदास का यह दोहा कथाक्रम को व्यक्त करता है- 
तुलसी हाय गरीब की कबहुँ न निष्फल जाय 
बिना काम के सांस के लौह भसम हो जाय 

आठवीं कहानी 'वही रफ्तार' रिक्शेवालों के माध्यम से श्रमजीवी और श्रम शोषक वर्ग संघर्ष की विद्रूपता को शब्द देते हुए श्रमजीवी का शोषण न मिटने का सत्य सामने लाती है। समाज और नेताओं पर तीखा व्यंग्य इस कहानी में है। 

'भूल-भुलैयाँ' कहानी की लखनवी पृष्ठभूमि और रामानुज बाबू की दिलचस्प किस्सागोई अमृतलाल नागर और शौकत थानवी की याद दिलाती है। बे सर-पैर की गप्प या चंडूखाने की बातें, परदेसी को ठगने की मानसिकता पूरी सचाई के साथ उद्घाटित की गई है। 

कहानी 'बहेलिनी और बहेलिया' भारत पर राज्य कर चुके अंग्रेजों की विलासिता, दुश्चरित्रता और अस्थायी वैवाहिक संबंधों को सामने लाती है। 'यहाँ नहीं है कोई किसी का, नाते हैं नातों का क्या?' अंग्रेज उच्चाधिकारी पत्नी की उपेक्षा कर शिकार पर गया और घायल होने पर अस्पताल ले जाए जाने पर उसकी पत्नी का साथ न जाना, पूछे जाने पर कहना 'मैं उसकी पत्नी नहीं हूँ, ....छुट्टियों में सैर सपाटे के लिए ऐसे एक दो उल्लू फाँस रखे हैं', दूसरी ओर यह तथ्य उद्घाटित होना कि 'वह साहब पहले भी दो बार आ चुका था, हर बार उसके साथ एक नई मेम रहती थी।' 

'आठ रूपए साढ़े सात आने' कहानी अत्यधिक धनलिप्सा के मारे धनपति की बखिया उधेड़ती है। 

इस कथा माल का अंतिम पुष्प 'माला, नारियल आदि' शीर्षक से लिखी गई कहानी है। इस कहानी में पति-पत्नी की नोंक-झोंक बेहद दिलचस्प है। भाषा में लखनवी पुट पाठक के लबों पर से मुस्कराहट हटने नहीं देता।

'हम इश्क़ के बंदे हैं' की कहानियों के कथानक 'देखन में छोटन लगें' हैं किन्तु उनकी मार इतनी तीखी है कि 'आह' और 'वाह' एक साथ निकलती है। इस कहानियों में कथोपकथन नाटकीयताप्रधान हैं। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' बात की बात में बात बना लेने की कला कोई रामानुजलाल जी की इन कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इन कहानियों का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी इन कहानियों के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। अधिकाँश कहानियाँ हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली साहित्य में दुर्लभ हो गयी है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुज लाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साथ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें। विश्ववाणीहिंदी संस्थान अभियान जबलपुट तथा अपनी ओर से मैं श्रद्धेय 'कक्का जी' रामनुजलाला जी श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' जी को प्रणतांजलि अर्पित करते हुए उनकी विरासत का वारिस होने की अनुभूति इस कृति को हाथ में पाकर कर रहा हूँ। संस्कारधानी की सभी साहित्यिक संस्थाएँ संकल्प कर एक-एक दिवंगत साहित्यकार की एक-एक कृति को प्रकाशित करें तो हिंदी की साहित्य मञ्जूषा से लापता हो चुके रचना रत्न पुन: माँ भारती के सारस्वत कोष को समृद्ध कर सकेंगे। 
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ 
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कहानी समीक्षा :
'हम इश्क के बन्दे हैं'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल 
हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकिफ। 
गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या? 

यह शे'र बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव की प्रसिद्ध कहानी 'हम इश्क के बन्दे हैं' के आदि और अंत में तो है ही, समूची कहानी ही इस के इर्द-गिर्द बुनी गई है। सामान्यत: कहानी में आवश्यकता होने पर काव्य पंक्ति का उपयोग उद्धरण की तरह कथानक में कर लिया जाता है अथवा किसी पात्र के मुँह से संवाद की तरह कहलवा लिया जाता है। काव्य पंक्ति का मर्म ग्रहण कर उसे किसी कहानी के घटनाक्रम और पात्रों के साथ इस तरह विकसित करना कि वे पंक्तियाँ और वह मर्म कहानी का अभिन्न अंग हो जाएँ, असाधारण चिंतन सामर्थ्य, भाषिक पकड़ तथा शैल्पिक नैपुण्य के बिना संभव नहीं होता। कहानी के आरंभ में अगली कक्षाओं में न जाने का संकल्प कर, विद्यालय की छात्र संख्या और शोभा में अभिवृद्धि करते बाप बनने की की उम्र में पहुँच चुके लड़कों की मटरगश्ती, होली के मुबारक मौके पर बांदा शहर से तशरीफ़ लाकर, नाज़ो-अदा के साथ उक्त शे'र सुनाकर, महफ़िल में हाजिर सभी कद्रदानों की जेब खाली करा लेनेवाली तवायफ द्वारा मुजरे में सुनने और यारों के साथ तमाशबीन बनकर मजे लूटने के किस्से पाठक की उत्सुकता जागते हैं। इन छात्ररत्नों में से एक मोहन बाबू की शान में कथाकार कहता है-

'उस के कूचे में सदा मस्त रहा करते हैं। 
वही बस्ती, वही नगरी, वही जंगल वही वन।।'

एक और तमाशबीन छात्र कंचन बाबू मोहन से भी कई कदम आगे थे -

'जब से उस शोख के फंदे में फँसे टूट गए। 
जितने थे मजहबी-मिल्लत के जहां में बंधन।।'

इन बिगड़ी तबीयत के साहबजादों के साथ होते हुए भी इनसे कुछ हटकर रहनेवाले मियाँ अज़ीज़ के बारे में अफसानानिगार कहता है -

'अपनी तबियत पर काबू था तो एक अज़ीज़ मियाँ को, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा ताकतवर, कमजोरों का दोस्त, दिमागवालों का दुश्मन, बड़ा चुप्पा, बड़ा मनहूस परन्तु एक गुण ऐसा था कि मंडली की मंडली बिना अज़ीज़ सूनी जान पड़ती थी। बस गुण क्या था? उससे पूछा गया -'कहिए खाँ साहब! कुछ आप के भी दिमागे-शरीफ में आया? तो उसने एक भोंड़ी सी मुस्कुराहट मुँह पर लाकर, जेब से बाँसुरी निकाली और ज्यों की त्यों तर्ज निकालकर रख दी। फिर तो वो खुशामदें हुईं अज़ीज़ मिया की, कि क्या किसी परीक्षक की हुई होगी। ज्यों ही वह बाँसुरी हाथ में लेता कि फरमाइशें होने लगतीं- 'हाँ भाई, इश्क के बंदे। हो भाई, इश्क के बंदे।' यहाँ तक कि स्पेंसर साहब भी कहते - 'लगा इश्क़ वाला बंदा लगा।' होते-होते बेचारे अज़ीज़ का नाम ही 'इश्क़ के बंदे' पड़ गया। यह खुदा का बंदा थोड़ी देर तो समा बाँध ही देता था। जान पड़ता था कि एक-एक स्वर में दिल की आह छिपी हुई है।' 

परीक्षा हुई, एक को छोड़कर सभी जहाँ के तहाँ रहे। अन्य संपन्न लड़कों के साथ अज़ीज़ मियाँ भी कलकत्ते तशरीफ़ ले गए। बरसों बाद नौकरपेशा मैंने, मालिक के काम से कोलकाता जाते समय अज़ीज़ मियाँ का पता उसके अब्बू से लिया।  हावड़ा स्टेशन पर उतरा तो 'कुली ने 'सलाम बड़ा साहब' कहकर सामान उठा लिया और टैक्सी पर रख दिया। बड़े साहब की उपाधि से प्रसन्न होकर मैंने एक चवन्नी कुली साहब के भेंट की। फिर से सलाम ठोंककर वह दो-चार कदम गया परंतु सहसा लौटकर गिड़गिड़ाने लगा 'सरकार, यह चवन्नी खोटी है, इसे बदल दीजिए।' इधर टैक्सी चलने पर थी। मैंने खोटी चवन्नी ले ली और चार इकन्नियाँ देकर सोचने लगा कि मैं तो खुद एक-एक पैसा ठोक-बजाकर लेता हूँ, यह बेईमान मेरे पास कहाँ आ गई? टैक्सी अब जोरों से भाग रही थी। ड्राइवर साहब ने कहा- 'बाबू, कुली ने आपसे आठ आने पैसे ऐंठ लिए। ' 

मैंने पूछा- 'कैसे?' 

ड्राइवर- 'यह खोटी चवन्नी उसने अपने पास से निकाली थी। आप परदेसी हैं। यहाँ के भले आदमियों से सम्हले रहिएगा।' 

चौराहे पर एक खां साहब 'पेरिस पिक्चर' की टिकिट का लिफाफा, पुलिस पीछे लगे होने का हवाला देकर ५० रु. का कहकर १ रु. में टिका गए। कलकत्ता होटल के दरवाजे पर टैक्सीवाले ने मीटर दिखाकर चार रूपए छह आने ले लिए। होटल के नौकर ने बताया स्टेशन से होटल तक का किराया एक रूपए दो आना होता है। लिफाफा फाड़कर देखा तो उसमें टिकिट नहीं मामूली तस्वीरें थीं। बार-बार ठगे जाकर जैसे-तैसे अज़ीज़ के  पते पर पहुँचे तो पता चला कि वह लापता है। बकौल कहानीकार 'अब पता चला कि गाँव के छैला शहर के बुद्धू होते हैं।' 

किराए का मकान लेकर मालिक की राह, नाटक और सिनेमा देखकर मन ऊब गया, बेगम साहिबा के लिए साड़ी  खरीदने निकले तो किस्सा कोताह यह कि दूकानदार ने साड़ी दिखाई कोई और बाँध दी कोई और। दूसरे दिन बदलने गए तो साफ़ मुकर गया कि इसी का सौदा हुआ और यह खाते में चढ़ गई, वह चाहिए तो उसे भी खरीदो। उसके अड़ोसी-पड़ोसी उसी की तरफ बोलने लगे किसी तरह 'जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्धू घर को आए'।

 अब आगे कौ सुनौ हवाल - 'एक रोज रात को भोजन करके रसा रोड पर टहल रहा था कि किसी ने धीरे से आकर कहा 'बड़ा साहब! प्राइवेट मिस साहब।' मैंने चौंककर झुँझलाकर कहा- 'क्या प्राइवेट मिस साहब रे?' उसने भेदपूर्ण स्वर में कहा -;बहुत अच्छा है हुजूर! बंबई से आया यही, नुमाइश देखने, फिर चला जाएगा, ऐसी चीज मिलने का नहीं।' मैंने देखा मैले-कुचैले कपड़े पहिने एक चुक्खी दाढ़ीवाला आदमी है।  एक शब्द कहता है तो दो बार सलाम करता है। ठीक उन लोगों की सूरत-शक्ल है जो  खपा देते हैं और कानों-कान किसी को खबर तक नहीं होती, तिस पर मैं ३-४ बच्चों का बाप और यह फन, तौबा-तौबा! परन्तु भीतर से किसी ने कहा देखिए मुंशी जी! अगर कहानी लिखने का हौसला है तो तजुर्बे इकट्ठे कीजिए, जान का क्या है ? अभी तो आपको चौरासी लाख जन्म मिलेंगे परंतु इस प्रकार का अनुभव प्रत्येक जन्म में हाथ नहीं आने का, जिन्होंने जान हथेली पर रखकर अनुभव संग्रह किए हैं, उन्हीं की तूती बोल रही है। उदाहरण के लिए देखिए श्रीयुत प्रेमचंद कृत 'सेवासदन' - सुमन के कोठे पर रईसों की धींगामस्ती तथा मरम्मत। मानते हैं कि काम खतरे का है पर अंजाम कितना नेक है यह भी तो सोचिए। लोग सौ छोटे-छोटे दोहे लिखकर अमर हो जाते हैं।  कौन जाने इसी प्लाट से आप की साढ़े साती उतर जाए।'
जनाब मुंशी जी ने विक्टोरिया बुलवाई, दलाल को खान-पान के लिए दो रूपए दिए, कपड़े बदले, कलकत्ता होटल के मैनेजर को पत्र लिखा कि फलां-फलां नंबर की गाड़ी में घूमने जा रहा हूँ, सवेरे तक लौट कर न आऊँ या मृत या घायल मिलूँ तो पुलिस को खबर कर, मालिक को तार दे दे। सूट पहनकर पिस्तौल में ६ कारतूस भरे और दो घंटे तक इन्तजार किया पर न दलाल, आया न गाड़ी, तब समझा की जान बची और लाखों पाए। 

अब बाहर निकलना ही छोड़ दिया। एक रोज पार्क में बैठा था कि वृद्ध और एक नवयुवती पास की बेंच पर आ बैठे। आध घंटे बाद चलने को हुए तो वृद्ध गश खाकर गिर पड़े, युवती चिल्लाई, सड़क पर टैक्सी रोक, वृद्ध को उनके घर ले जाकर, डॉक्टर से दवा दिला-खिलाकर, अपने डेरे पर जाकर सो गया। अगले दिन पता चला कि वे ब्रह्मसमाजी थे, डिस्ट्रिक्ट जज रह चुके थे, पुत्री की शिक्षा हेतु कलकत्ते में रह रहे थे। मालिक का तार आने पर कि वे नहीं आएँगे, मुंशी जी घर लौटे। 

'मालिक के दरबार में अपनी पेटेंट रीति से मैंने कलकत्ते के हाल-चाल सुनाए कि कैसे मालिक का नाम शहर में फ़ैल गया था, कितने बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, सवेरे-शाम मालिक के दर्शन की अभिलाषा से कोठी के चक्कर लगाया करते थे आदि-आदि और जब इन सच्ची बातों से खुश होकर मालिक ने मुझे मनचाही तरक्की दे दी। 

दो साल बाद 'कलकत्ता कथा' फिर सुनकर मालिक मुंशी जी के साथ कलकत्ते के लिए चल पड़े। मुंशी जी अपने खैरख्वाहों की तलाश में चले तो पता चला दत्त महाशय चल बसे और पुत्री ने कहीं घर बसा लिया। खिन्न मन खेल के मैदान के पास से जाते हुए भीड़ देख हॉकी का खेल देखने घुस गए, देखते हैं कि एक फुल बैक ने झपटकर गेंद पकड़ी और लगभग हो चुका गोल बचा लिया। दर्शक उछल पड़े, सबसे अधिक उछले मुंशी जी, क्योंकि वह फुल बैक अज़ीज़ था जो कहानी के आरंभ में बांसुरी बजा चुका था। अजीज ने अन्य धर्म की लड़की से शादी कर ली थी, लड़की धर्म परिवर्तन लिए तैयार नहीं थी। इस कारण न अज़ीज़ घर जा सका, न उसके पिता किसी को उसका पता देते थे की राज राज ही रहे। दोनों घर पहुँचे तो दरवाजा खुलते ही मुंशी जी बोले 'तुम?', दरवाजा खोलनेवाली मोहतरम चौंककर बोली 'आप?', अजीज ने कहा 'यह क्या? मुंशी जी ने राज खोला 'यह पिछली बार मेरी पड़ोसन थी', अजीज बोला 'अब तेरी भाभी है।' अजीज ने बताया कि वे दोनों कॉलेज में सहपाठी थे, पढ़ते-पढ़ते प्रेम करने लगे थे, शुरू में पिता को आपत्ति थी पर अंत में दोनों का हाथ मिला गए थे। 

लब्बोलुबाब यह - 'अजीज आया तो सुविमल चाय बनाने चली गई, रात हो रही थी, खिड़की से बगीचा दिख रहा था, उधर चाँद निकला हुए इधर हुगली मैया की ओर से हवा का एक ठंडा झोंका आया। अजीज उठा धीरे से टेबल पर से बांसुरी उठाई और बजाया 'हम इश्क़ के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाक़िफ़', मैंने कहा - 'वाह बेटा! सुनी तो बहुतेरों ने थी पर ठीक तर्ज एक तू ही उतार पाया।' 

आठ अंकों की यह कहानी किसी फ़िल्मी पठकथा की तरह रोचक, लगातार उत्सुकता बनाये रखनेवाली, जिंदगी के विविध रंग दिखानेवाली, पाठक को बाँधकर रखनेवाली है। कहानीकार की कहन, भाषा की रवानगी, शब्द सामर्थ्य, स्वतंत्र और मौलिक भाषा शैली के कारण इसे भुलाया नहीं जा सकता। एक तवायफ द्वारा गाई गई ग़ज़ल के एक शेर से आरंभ और अंत होती इस कहानी में कल्पना शक्ति और यथार्थ का गंगो-जमनी सम्मिश्रण इस तरह हुआ है कि पाठक न तो पूरी तरह भरोसा कर पता है, न झुठला पाता है। इस कहानी का कथोपकथन नाटकीयताप्रधान है। 'बेबात की बात' करते हुए 'बात से बात निकालकर' 'बात की बात में' 'बात बना लेने' की कला कोई रामानुजलाल जी की कहानियों से सीखे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रामानुजलाल जी 'गद्यं कवीनां निकषं वदंति' के निकष पर सौ टका खरे रहे हैं। इस कहानई का शिल्प और शैली अपनी मिसाल आप है। आधुनिक हिंदी कहानी नकारात्मक ऊर्जा से लबरेज, बोझिल स्यापा प्रतीत होती है जबकि रामानुजलाल जी सामाजिक विसंगतियों, व्यक्तिगत कमजोरियों और पारिस्थितिक विडंबनाओं का उद्घाटन करते समय भी चुटकी लेना नहीं भूलते। उनकी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी के संवाद और कथोपकथन पाठक के ह्रदय में तिलमिलाहट और अधरों पर मुस्कराहट एक साथ ला देते हैं। यह कहानी हास्य-व्यंग्य प्रधान हैं। अब यह शैली हिंदी साहित्य में दुर्लभ हो गई है। कौतुहल, उत्सुकता प्रगल्भता की त्रिवेणी 'हम इश्क़ के बंदे' को त्रिवेणी संगम की तरह तीन पीढ़ियों के लिए पठनीय बनती है। 

रामानुजलाल जी शब्दों के खिलाड़ी ही नहीं जादूगर भी रहे हैं। वे तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी, फ़ारसी शब्दों और शे'रों (काव्य पंक्तियों) का इस्तेमाल बखूबी करते हैं। इस कहानी संग्रह के अतिरिक्त रामानुजलाल जी ने बाल शिकार कथा संग्रह 'जंगल की सच्ची कहानियाँ' तथा पत्र-पत्रिकाओं में  कुछ और कहानियाँ लिखी हैं, वे भी पुनर्प्रकाशित हों तो हिंदी कहानी के अतीत से भविष्य को प्रेरणा मिल सकेगी। 'हम इश्क़ के बंदे हैं' को विस्मृति के गर्त से निकालकर साठ वर्षों की दीर्घावधि के पश्चात् पुनर्जीवित करने के लिए हम सबकी श्रद्धेय और प्रेरणा स्रोत साधना दीदी ने स्तुत्य कार्य किया है। उनका यह कार्य सच्चा पितृ तर्पण है। हम सब इस संग्रह को अधिक से अधिक संख्या में क्रय करें, पढ़ें और इस पर चर्चाएँ-समीक्षाएँ करें ताकि रामानुजलाल जी का शेष साहित्य भी पुनर्प्रकाशित हो सके और अन्य साहित्यकारों की अनुपलब्ध पुस्तकें भी सामने आ सकें।
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बाल रचना बिटिया छोटी

बाल रचना
बिटिया छोटी
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फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
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ऐनक के काँचों से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खिलाओ
तनिक न भाती इसको रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
४-९-२०१७ 
***

दोहा सलिला

दोहा सलिला-
तन मंजूषा ने तहीं, नाना भाव तरंग
मन-मंजूषा ने कहीं, कविता सहित उमंग
*
आत्म दीप जब जल उठे, जन्म हुआ तब मान
श्वास-स्वास हो अमिय-घट, आस-आस रस-खान
*
सत-शिव-सुंदर भाव भर, रचना करिये नित्य
सत-चित-आनन्द दरश दें, जीवन सरस अनित्य
*
मिले नकार नकार को, स्वीकृत हो स्वीकार।
स्नेह स्नेह को दीजिए, सके प्रहार प्रहार।।
१०-९-२०१६
*

नवगीत कौन?

नवगीत
कौन?
*
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
खुशियों की खेती अनसिंचित,
सिंचित खरपतवार व्यथाएँ।
*
खेत, कारखाने, कॉलोनी
बनकर, बिना मौत मरते हैं।
असुर हुए इंसान,
न दाना-पानी खा,
दौलत चरते हैं।
वन भेजी जाती सीताएँ,
मन्दिर पुजतीं शूर्पणखाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
गौरैयों की 
देखभाल कर
मिली बाज को जिम्मेदारी।
अय्यारी का पाठ रटाती,
पैठ मदरसों में बटमारी।
एसिड की शिकार राधाएँ
कंस जाँच आयोग बिठाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि करें न शिक़वा,
लछमी पुजती है गणेश सँग।
'ऑनर किलिंग' कर रहे दद्दू
मूँछ ऐंठकर, जमा रहे रंग।
ठगते मोह-मान-मायाएँ
घर-घर कुरुक्षेत्र-गाथाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
हर कर्तव्य तुझे करना है,
हर अधिकार मुझे वरना है।
माँग भरो, हर माँग पूर्ण कर
वरना रपट मुझे करना है।
देह मात्र होतीं वनिताएँ
घर को होटल मात्र बनाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*
दोष न देखें दल के अंदर,
और न गुण दिखते दल-बाहर।
तोड़ रहे कानून बना, सांसद,
संसद मंडी-जलसा घर।
बस में हो तो साँसों पर भी
सरकारें अब टैक्स लगाएँ।
कौन रचेगा राम-कहानी?
कौन कहेगा कृष्ण-कथाएँ??
*****
९-८-२०१६
गोरखपुर दंत चिकित्सालय
जबलपुर
*

गणेश भजनावली

शिशुगीत
.श्री गणेश



श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
***

प्रभाती
जागिए गणराज
*
जागिए गणराज होती भोर
कर रहे पंछी निरंतर शोर
धोइए मुख, कीजिए झट स्नान
जोड़कर कर कर शिवा-शिव ध्यान
योग करिए दूर होंगे रोग
पाइए मोदक लगाएँ भोग
प्रभु! सिखाएँ कोई नूतन छंद
भर सके जग में नवल मकरंद
मातु शारद से कृपा-आशीष
पा सलिल सा मूर्ख बने मनीष
***

श्री गणेश १
*
श्री गणेश! ऋद्धि-सिद्धिदाता!! घर आओ सुनाथ!
शीश झुका,माथ हूँ नवाता, मत छोड़ो अनाथ.
देव! घिरा देश संकटों से, रिपुओं का विनाश
नाथ! करो, प्रजा मुक्ति पाए, शुभ का हो प्रकाश.
(कामरूप छंद:)
***

 श्री गणेश २
*
गणपति 'निजता' भेंट ले, आए हैं इस साल.
अधिकारों की वृद्धि पा, हो कर्तव्य निहाल.
*
जनगण बढ़ते भाव से, नाथ हुआ बेहाल.
मिटे हलाला शेष हैं, अब भी कई सवाल.
*
जय गणेश! पशुपति! जगो, चीन रहा हुंकार.
नगपति लाल न हो प्रभु!, दो रिपुओं को मार.
*
गणाध्यक्ष आतंक का, अब तो कर दो अंत.
भारत देश अखंड हो, विनती सुन लो कंत.
*
जाग गजानन आ बसों, मन-मंदिर में नित्य.
ऋद्धि-सिद्धि हो संग में, दर्शन मिले अनित्य.
छंद - दोहा बघेली
***
 
मुक्तिका
गणपति बब्बा
*
रात-रात भर भजन सुनाएन गणपति बब्बा
मंदिर जाएन, दरसन पाएन गणपति बब्बा
कोरोना राच्छस के मारे, बंदी घर मा
खम्हा-दुअरा लड़ दुबराएन गणपति बब्बा
भूख-गरीबी बेकारी बरखा के मारे
देहरी-चौखट छत बिदराएन गणपति बब्बा
छुटकी पोथी अउर पहाड़ा घोट्टा मारिन
फीस बिना रो नाम कटाएन गणपति बब्बा
एक-दूसरे का मुँह देखि, चुरा रए अँखियाँ
कुठला-कुठली गाल फुलाएन गणपति बब्बा
माटी रांध बनाएन मूरत फूल न बाती
आँसू मोदक भोग लगाएन गणपति बब्बा
चुटकी भर परसाद मिलिस बबुआ मुसकाएन
केतना मीठ सपन दिखराएन गणपति बब्बा
***

गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
***

श्री गणेश पूजन मंत्र
हिंदी पद्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
गजानना पद्मर्गम गजानना महिर्षम
अनेकदंतम भक्तानाम एकदंतम उपास्महे

कमलनाभ गज-आननी, हे ऋषिवर्य महान.
करें भक्त बहुदंतमय, एकदन्त का ध्यान..

गजानना = हाथी जैसे मुँहवाले, पद्मर्गम = कमल को नाभि में धारण करनेवाले जिनका नाभिचक्र शतदल कमल की तरह पूर्णता प्राप्त है, महिर्षम = महान ऋषि के समतुल्य, अनेकदंतम = जिनके दाँत दान हैं, भक्तानाम भक्तगण, एकदंतम = जिनका एक दाँत है, उपास्महे = उपासना करता हूँ.
***

II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
== प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) ==
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..

प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..


प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..

जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..

नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***


लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :


पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित

पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..
*
बुन्देली पारंपरिक तर्ज:

मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.
रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.
बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.
ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.
दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.
'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.
नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
***

अवधी मुक्तक:
गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.
सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..
गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.
जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..
***

भजन: 

भोले घर बाजे बधाई

स्मृतिशेष मातुश्री शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौरा मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर 
इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
******************

श्री गणेश गिनती गणित, गणना में हैं लीन
जो समझे मतिमान वह, बिन समझे नर दीन. बिंदु शिव
___ रेखा पार्वती
o वृत्त गणेश
१. ॐ
२. मति, गति, यति, बल, सुख, जय, यश।
३. अमित, कपिल, गुणिन, भीम, कीर्ति, बुद्धि।
४. गणपति, गणेश, भूपति, कवीश, गजाक्ष, हरिद्र, दूर्जा, शिवसुत, हरसुत, हरात्मज।
५. गजवदन, गजवक्र, गजकर्ण, गजदंत, गजानन, प्रथमेश, भुवनपति, शिवतनय, उमासुत, निदीश्वर, हेरंब, शिवासुत, विनायक, अखूरथ, गणाधिप, विघ्नेश, रूद्रप्रिय।
६. गण-अधिपति, गणाध्यक्ष, एकदंत, उमातनय, विघ्नेश्वर, गजवक्त्र, गौरीसुत, लंबोदर, प्रथमेश्वर, शूपकर्ण, वक्रतुंड, गिरिजात्मज, शिवात्मज, सिद्धिसदन, गणाधिपति, स्कन्दपूर्व, विघ्नेंद्र, द्वैमातुर, धूम्रकेतु, शंकरप्रिय।
७. गिरिजासुवन, पार्वतीसुत, विघ्नहर्ता, मंगलमूर्ति, मूषकनाथ, गणदेवता, शंकर-सुवन, करिवर वदन, ज्ञान निधान, विघ्ननाशक, विघ्नहर्ता, गिरिजातनय।
८. गौरीनंदन, ऋद्धि-सिद्धिपति, विद्यावारिधि, विघ्नविनाशक, पार्वती तनय, बुद्धिविधाता, मूषक सवार, शुभ-लाभ जनक, मोदकदाता. मंगलदाता, मंगलकर्ता, सिद्धिविनायक, देवाधिदेव, कृष्णपिंगाक्ष।
९. ऋद्धि-सिद्धिनाथ, शुभ-लाभप्रदाता, गजासुरहंता, पार्वतीनंदन, गजासुरदंडक।
१०. ऋद्धि-सिद्धि दाता, विघ्नहरणकर्ता।
११. गिरितनयातनय। ९३
*
गजवदन = गति, जय, वर, दम, नमी।
गजानन = गरिमामय, जानकार, नवीनता प्रेमी, निरंतरता।
विनायक = विवेक, नायकत्व, यमेश, कर्मप्रिय।
*
Ganesha = gentle, active, noble, energetic, systematic, highness, alert.
Gajanana = generous, advance, judge, accuracy, novelty, actuality, non ego, ambitious.
Vinayaka = victorious, ideal, neutrality, attentive, youthful, administrator, kind hearted, attentive.
*
Nuerological auspect
[a 1, b 2, c 3, d 4, e 5, f 6, g 7, h 8, i 9, j 10, k 11, l 12, m 13, n 14, o 15, p 16, q 17, r 18, s 19, t 20, u 21, v 22, w 23, x 24, y 25, z 16]

1. Ganesha = 7 +1 + 14 + 5 + 19 + 8 + 1 = 55 = 10 = 1.
Gati = 7 + 1 + 20 + 9 = 37 = 10 = 1.
Ganadhyaksha = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 25 + 1 + 11 + 19 + 8 + 1 = 100 = 1.

Jaya = 10 + 1 + 25 + 1 = 37 = 10 = 1.
2. Ekdanta = 5 + 11 + 4 + 1 + 14 + 20 + 1 = 56 = 11 = 2.
3. Vinayaka = 22 + 9 + 14 + 1 + 25 + 1 + 11 + 1 = 84 = 12 = 3.
Heramba = 8 + 5 + 18 + 1 + 13 + 2 + 1 = 48 = 12= 3.
Buddhi = 2 + 21 + 4 + 4 + 8 + 9 = 48 = 12 = 3.
4. Ganadevata = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 5 + 22 + 1 + 20 + 1 = 76 = 13 = 4.
Gajanana = 7 + 1 + 10 + 1 + 14 + 1 + 14 + 1 = 49 = 13 = 4.
5. Vakratunda = 22 + 1 + 11 + 18 + 1 + 20 + 21 + 14 + 4 + 1 = 113 = 5.
Bhoopati = 2 + 8 + 15 + 15 + 16 + 1 + 20 + 9 = 86 = 14 = 5.
Kapila = 11 + 1 + 16 + 9 + 12 + 1 = 50 = 5.
6. Ganapati = 7 + 1 + 14 + 1 + 16 + 1 + 20 + 9 = 69 = 15 = 6.
7. Mahakaya = 13 + 1 + 8 + 1 + 11 + 1 + 25 + 1 = 61 = 7.
8. Gajavadana = 7 + 1 + 10 + 1+ 22 + 1 + 4 + 1 + 14 + 1 = 62 = 8.
Vighneshvara = 22 + 9 + 7 + 8 + 14 + 5 + 19 + 8 + 22 + 1 + 18 + 1 = 134 = 8.
Amita = 1 + 13 + 9 + 20 + 1 = 44 = 8.
9. Ganadhipati = 7 + 1 + 14 + 1 + 4 + 8 + 9 + 16 + 1 + 20 + 9 = 90 = 9.

===============
*

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

लिंगाष्टक, शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं, शिव स्तुति

लिंगाष्टक
ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गं निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् ।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥
देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम् ।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥२॥
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गं बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥३॥
कनकमहामणिभूषितलिङ्गं फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥४॥
कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गं पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम् ।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥५॥
देवगणार्चितसेवितलिङ्गं भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥६॥
अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गं सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥७॥
सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गं सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम् ।
परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥८॥
लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
***
शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय
भस्मांग रागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय
तस्मै ‘न’ काराय नमः शिवायः ॥1॥
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय
नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय
तस्मै ‘म’ काराय नमः शिवायः ॥2॥
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्री नीलकंठाय वृषध्वजाय
तस्मै ‘शि’ काराय नमः शिवायः ॥3॥
वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमार्य
मुनींद्र देवार्चित शेखराय।
चंद्रार्क वेश्वानर लोचनाय
तस्मै ‘व’ काराय नमः शिवायः ॥4॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगंबराय
तस्मै ‘य’ काराय नमः शिवायः ॥5॥
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिव सन्निधौ।
शिवलोक मवाप्रोगति शिवेन सह मोदते॥
|| इति श्रीमच्छड़राचार्य विरचितं शिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम् |
***
शिव स्तुति:
गोस्वामी तुलसीदास
*
नमामी शमीशान निर्वाण रूपमम् ।
विभुम् व्यापकम् ब्रह्म वेदस्सवरूपम् ।।
निजम् निर्गुणम् निर्विकल्पम् निरीहम् ।
चिदाकाशमाकाश वासं भजेहम् ।। १ ।।
निराकार ऊँकार मूलम् तुरीयम् ।
गिराग्यान गोतीश मीशम् गिरीशम् ।।
करालं महाकाल कालम् कृपालम् ।
गुणगार संसार पारम् नतोsहम् ।। २ ।।
तुषाराद्री संकाश गौरं गंभीरम् ।
मनोभूत कोटी प्रभा श्रीशरीरम् ।
स्फुरनमौली कल्लोलिनी चारू गंगा ।
लसत भालु बलेन्दु कंठे भुजंगा ।। ३ ।।
चलत कुण्डलम् भ्रू त्रिनेतरम् विशालम् ।
प्रसन्नानम् नील कंठम् दयालम् ।।
मृगाधीश चर्मामबरम् मुण्डमालम् ।
प्रिय शंकरम् सर्व नाथम् भजामी ।। ४ ।।
प्रचण्डम् प्रखंडम् प्रगलभम् परेशम् ।
अखंडम् अजम्भानु कोटी प्रकाशम् ।।
त्रिय शूल निर्मूलनम् शूलपाणी ।
भजेहम् भवानी पतिम् भाव गम्यम् ।। ५ ।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी ।
सदा सच्चिदान्नद दाता पुरारी ।।
चिदान्नद संदोह मोहापहारी ।
प्रसीद प्रसीद प्रभो मनमथारी ।। ६ ।।
ना यावत उमानाथ पादार विन्दम् ।
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।।
न तावत सुखम् शान्ति संताप नाशम् ।
प्रसीद प्रभो सर्व भूतादिवासम् ।। ७ ।।
ना जानामी योगं जपम् नैव पूजा ।
नsतोहम् सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्् ।।
ज़रा जन्म दुखोःध्य ता तप्यमानम् ।
प्रभो पाहीशापन नमामीश शंभो ।। ८ ।।
*
साभार: रामचरित मानस

५ शिव भजन शांति देवी वर्मा

शिव भजन
स्मृतिशेष मातुश्री शांति देवी वर्मा
*
१ शिवजी की आई बारात
*
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
देखन चलिए, मुदित मन रहिए,
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
भूत प्रेत बैताल जोगिनी, खप्पर लिए हैं हाथ।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कानों में बिच्छू के कुंडल सोहें, कंठ सर्प की माल।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
अंग बभूत, कमर बाघंबर, नैना हैं लाल विशाल।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर त्रिशूल-डमरू मन मोहे, नंदी करते नाच।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
कर सिंगार भोला बन दूलह, चंदा सजाए माथ।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*
'शांति' सफल जीवन कर दर्शन, करिए जय-जयकार।
चलो सखी देखन चलिए
शिव जी की आई बारात, चलो सखी देखन चलिए।
*

२ गिरिजा कर सोलह सिंगार
*
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
माँग में सेंदुर; भाल पे बिंदी, नैनन कजरा सजाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बेनी गूँथी मुतियन के संग; चंपा-चमेली महकाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बांह बाजूबंद हाथ में कंगन, नौलखा कंठ सुहाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कानन झुमका; नाक नथनिया, बेसर हीरा भाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
कटि करधनिया; पाँव पैजनिया, घुँघुरु रतन जड़ाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
बिछिया में मणि; मुंदरी नीलम, चलीं ठुमुक बल खाँय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
लहँगा लाल; चुनरिया नीली गोटा-जरी लगाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
ओढ़ चदरिया सात रंग की, शोभा बरनि न जाय।
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
गजगामिन हौले पग धरतीं, मन ही मन मुस्कांय। 
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*
नत नयनों; बंकिम सैनों से, अनकहनी कँह जांय। 
गिरिजा कर सोलह सिंगार,
चलीं शिव शंकर ह्रदय लुभांय.....
*

३ मोहक छटा पारवती-शिव की
*
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
ऊँचो तेरहो-मेढ़ो कैलाश परवत, बीच मां बहे गंग धार।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
शीश पे उमा के मुकुट सुहावे, भोले के जूट-रुद्राक्ष।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
माथे पे गौरी के सिंदूर बिंदिया, शंकर के भस्मी राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
सती के कानों में हीरक कुंडल, त्रिपुरारी के बिच्छू कान।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कंठ शिवा के नौलख हरवा, नीलकंठ के नाग।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
हाथ अपर्णा के मुक्तक कंगन, डमरू साथ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
कुँवरि बदन केसर-कस्तूरी, महादेव तन राख।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
पहने भवानी नौ रंग चूनर, भोले बाघ की खाल।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
दुर्गा रचतीं सकल सृष्टि को, महानाशक महाकाल।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
भुवन मोहनी महामाया हैं, औघड़दानी हैं नाथ ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*
'शांति' सार्थक जन्म दरस पा, सदय शिवा-शिव साथ।
मोहक छटा पारवती-शिव की,
देखन आओ चलें कैलाश.....
*

४ भोले घर बाजे बधाई
*
मंगल बेला आई,
भोले घर बाजे बधाई.....
*
गौरा मैया ने लालन जनमे, गणपति नाम धराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
द्वारे बंदनवार बँधे हैं, कदली खंब लगाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी आँगन लीपें, मुतियन चौक पुराई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
स्वर्ण कलश ब्रह्माणी लिए हैं, चौमुख दिया जलाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
लछमी जी पलना पौढ़ाएँ, झूलें गणेश सुखदाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
नृत्य करें नटराज झूमकर, नारद वीणा बजाई।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
देव-देवियाँ सोहर गावें, खुशियां त्रिभुवन छाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
भले बाबा जोगी बैरागी, उमा लालन कहाँ से लाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
सखियाँ सब मिल करें ठिठोली, उमा झेंप खिसियाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
झूम हिमालय हवन कर रहे, मैना देव मनाईं।
भोले घर बाजे बधाई.....
*
'शांति' गजानन दर्शन कर ले, सबरे पाप नसाई ।
भोले घर बाजे बधाई.....
*

५ धूमधाम भोले के गाँव
*
धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन दिशा में?, कैसे जावें?, किते बसो भोले का गाँव ?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
उत्तर दिशा में कैलाश परवत, बर्फ बीच भोले का गाँव।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन के लालन किते भए हैं?, का है पिता को नाम?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
गौरा के सखी लालन भए हैं, शंकर पिता को नाम।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
किते डालो लालन को पलना, बँधी काए की डोर ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कल्प वृक्ष पे झूला डालो है, अमरबेल की है डोर ।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन झुला कौन लोरी सुना रए?, कौन बलैंंया लेत?
चलो पाँव-पाँव सखी!
*
शंकर झुला उमा लोरी सुनाएँ, नंदी बलैंया लेत।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*

कौन नाच रए झूम-झूम के, कहो पहिर मुंड माल?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
भूत पिशाच जोगिनी नाचें, पहिरे गले मुंड माल।
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन चाह रए दर्शन पाएँ, कौन बाँच रए भाग?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
ब्रह्मा-शारद; विष्णु लक्ष्मी, बाँच नें पाएँ भाग। 
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
कौन कर्म-फल लिखे भाग में, किनकी कृपा अपार?
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*
लिखे कर्म फल चित्रगुप्त प्रभु, रिद्धि-सिद्धि मिले अपार। 
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
धूमधाम भोले के गाँव,
चलो पाँव-पाँव सखी!.....
*

निमाड़ी मुक्तिका

卐 ॐ 卐
निमाड़ी मुक्तिका
संजीव
*
दुनिया रंग-बिरंगी
छे मतलब को संगी
म्हारो-थारो भूलो
बण जा सच्चो जंगी
रेवा महिमा भारी
जल पी तबियत चंगी
माटी केसर चंदन
म्हिनत अपणो अंगी
निरमल हिरदा जिनगी
करी लेव मनमंगी
*
९-९-२०२० 

मालवी हाइकु

मालवी सलिला
हाइकु
संजीव
*
मात सरसती!
हात जोड़ी ने थारा
करूँआरती।
*
नींद में सोयो
जागी ने घणो रोयो
फसल खोयो।
*
मालवी बोली
नरमदा का पाणी
मिसरी घोली।
*
नींद में सोयो
टूट गयो सपनो
पायो ने खोयो।
*
कदी नी चावां
बड़ा बंगला, चावां
रेवा-किनारा
*
बिना टेका के
राम भरोसे कोई
छत ने टिकी।
*
लिखणेवाळा!
बोठी न होने दीजे
कलमहुण।
*
९-९-२०२० 

विमर्श धर्म

विमर्श
*
धर्म क्या है?
जिसे धारण किया जाए वह धर्म है।
किसे धारण किया जाए?
जो धारण करने योग्य हो।
धारण करने योग्य क्या है?
परिधान या आचरण?
अस्थि-मांस को चर्म का परिधान प्रकृति ही पहना देती है।
क्या चिरकालिक मानव सभ्यता केवल परिधान पर परिधान पहनने तक सीमित है या वह अाचार का परिधान धारण कर श्रेष्ठता का वरण करती है?
मानव देह मिलते ही तन को कृत्रिम परिधान पहना दिया जाता है। पर्व और उल्लास के हर अवसर पर नूतन परिधान पहन कर प्रसन्नता जाहिर की जाती है। जीवन साथी के चयन करते समय उत्तम परिधान धारण किया जाता है। यहाँ तक कि देहांत के पूर्व भी दैनिक परिधान अलग कर भिन्न परिधान में काष्ठ पर जलाया या मिट्टी में मिलाया जाता है।
क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि परिधान ही सभ्यता, संस्कृति या धर्म है?
कदापि नहीं।
परिधान आचार का संकेतक है । परिधान सामाजिक, आर्थिक स्थिति दर्शाता है। परिधान आचार को नियंत्रित नहीं कर सकता। परिधान धारण करनेवाले से तदनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती है। आचरण परिधान से भिन्न हो तो आलोचना और निंदा की जाती है। न्यायालय में न्यायकर्ता, अधिवक्ता और वादी-प्रतिवादी को परिधान से पहचाना तो जाता है पर प्रतिष्ठा अपने आचरण से ही प्राप्त होती है।
स्पष्ट है कि सुविचार से प्रेरित आचार न कि परिधान धर्म है।
सेवा से जुड़े हर वर्ग पंडित, न्यायाधीश, चिकित्सक, पुलिस, अधिवक्ता, पुलिस आदि का परिधान निश्चित है जबकि व्यवसाय से जुड़े वर्ग के लिए निश्चित परिधान नहीं है।
परिधान का उद्देश्य दायित्वों की अनुभूति कराकर तदनुसार आचरण हेतु प्रेरित करना है। चतुर व्यवसायी भी परिधान निर्धारित करने लगे हैं ताकि उनके कर्मचारी प्रतिष्ठान के प्रति लगाव व दायित्व का प्रतीति निर्धारित कार्यावधि के बाद भी करें।
क्या शासकीय पदों पर परिधान आमजन के प्रति दायित्व का प्रतीति कराता है? कराता तो किसी कार्यालय में कोई नस्ती लंबित न होती। कोई अधिवक्ता पेशी न बढ़वाता, हड़ताल न करता, कोई मरीज चिकित्सा बिना न मरता।
आचार, आचरण या कर्तव्य ही धर्म है। यही करणीय अर्थात करने योग्य कर्म है। 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते' कहकर श्री कृष्ण इसी कर्म मनुष्य ही नहीं जीव का भी अधिकार कहते हैं। 'मा फलेषु कदाचन' कहकर वे तुरंत ही सचेत करते हैं कि फल सा परिणाम कर्मकर्ता का अधिकार नहीं है।
दैनंदिन जीवन में हमारे कितने कर्म इस कसौटी पर खरे हैं? यह कसौटी आत्मानुशासन की राह दिखाती है। तब स्व+तंत्र, स्व+आधीन का अर्थ उच्छृंखलता, उद्दंडता, बल प्रयोग नहीं रहता। तब अधिकार पर कर्तव्य को वरीयता दी जाती है।
अपने आचरण को स्वकेंद्रित रखकर देव और दानव चलते हैं जबकि मनुष्य अपने आचरण को सर्वकेंद्रित, सर्वकल्याणकारी बनाकर मानव संस्कृति का विकास करता है। मानव होना देव और दानव होने से बेहतर है। इसीलिए तो देव भी मानव रूप में अवतरित होते हैं। प्रकृति के नियमानुसार मानवावतार देव ही नहीं दानव भी लेते हैं किंतु उन अति आचारियों (अत्याचारियों) को अनुकरणीय नहीं माना जाता।
धर्म कर्म का पूरक ही नहीं पर्याय भी है। प्राय: हम निज कर्महीनता का दोष अन्यों या परिस्थितियों को देते हैं, यह वृत्ति उतनी ही घातक है जितनी कर्मश्रेष्ठता का श्रेय स्वयं लेना। जो इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे ही महामानव बनते हैं।
कर्म धर्म को जीवन मर्म मानना ही एकमात्र राह है जिस पर चलकर आदमी मनुष्य बन सकता है। बकौल ग़ालिब 'आदमी को मयस्सर नहीं इंसां होना। धर्म आदमी को इंसान बनने का पथ दिखाता है पर धर्मगुरु रोकता है। वह जानता है कि आदमी इंसान बन गया तो उसकी जरूरत ही न रहेगी।
अपने धर्म पर चलकर मरना परधर्म को मानकर जीने से बेहतर है। इसलिए औरों को नहीं खुद को आत्मानुशासित करें तब दिशाएँ भी परिधान होंगी, तब दिगंबरत्व भी गणवेशों से अधिक मर्यादित होगा, तब क्षमा माँगने और करने की औपचारिकता नहीं आत्मा का आभूषण होगी।
***
संजीव
९-९-२०१९
७९९९५५९६१८

दोहा दुनिया

दोहा दुनिया
*
खोटे करते काम हम, खरे खरे कर काम।
सृजनशील जीवन जिएँ, मानक रचें ललाम।।
*
सम आमोद विनोद नित, करते लेखन कर्म।
कर्मदेव आराध्य हैं, सृजन कर्म ही धर्म।।
*
श्री वास्तव में हो तभी, होता है आलोक।
अगर न आत्मालोक तो, जीवन होता शोक।।
*
ग्यान परिश्रम प्रेम के, तीन वेद पढ़ आप।
बनें त्रिवेदी कीर्ति तब, दस दिश जाती व्याप।।
*
राय न रवि देता कभी, तम हरता चुपचाप।
पूजित होता जगत में, कीर्ति न सकते नाप।।
*
वंदन हो जग श्रेष्ठ का, तब मिटते है नेष्ठ।
नहीं उम्र से कार्य से, होता है मनु ज्येष्ठ।।
*
अपने जब अपनत्व से, करें मान-सम्मान।
तब ही ऐसा मानिए, हैं सच्चे इंसान।।
***
संजीव, ७९९९५५९६१८
रानी दुर्गावती संग्रहालय जबलपुर
व वरिष्ठ जन संघ का, ध्येय करें चुप कर्म।
शोर प्रचार न हो अधिक, तभी मिलेगा धर्म।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, जाग्रत सभी दिमाग।
ले अनुभव की बाँसुरी, गाते जीवन राग।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ की, मात्र एक है चाह।
देश-हितों हित काम कर, दिखा सकें मिल राह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ में, शेष नहीं है मोह।
आप न करता बगावत, किंतु रोकता द्रोह।।
*
युव वरिष्ठ जन संघ है, अनुभव का पर्याय।
कर्तव्यों को पाल कर, लिखें नया अध्याय।।
*

आर. पी. खरे

अग्रजवत इं. आर. पी. खरे की कालजयी रचना
कुछ दिन पूर्व एक मित्र ने तवा बाँध के स्पिलवे से निकलने वाले प्रवाह का
मनोरम दृश्य पोस्ट किया था ।मुझे सुखद अनुभूति हुई क्योंकि निर्माण काल
में मैं इस परियोजना मे पदस्थ था ।
तवा बाँध पर स्वप्न
———————————-
(यह कविता १९७० मे लिखी गई थी जब नर्मदा की सहायक नदी तवा पर बाँध
निर्माणाधीन था। एक और नदी देनवा का इसमें ज़िक्र है जो तवा में यहीं आकर मिलती है)
रात का दूसरा पहर
चाँदनी प्रगल्भ हुई
ऊपर उठा चाँद
फैल गया सम्मोहक
श्लथ सा आह्लाद ।
प्रेक्षामंडप में खड़ा इंजीनियर
बन गया कवि
तवा बनी तरुणी
देनवा से गलबहियाँ डालती
इठलाती बल खाती
काफर डैम की छेड़छाड से
बचती कतराती
शरमाती बह गई ।
फैल गया घाटी में रूप का प्रभाजाल
यौवन की पहिली पहिचान सी
मोहनी समाई सी रह गई ।
देखता रहा कवि-
तवा अभी वन्या है
किसी पुरुष की बाँहों मे नहीं बंधी
अभी भी चंचला कुमारिका गिरिकन्या है
सतत प्रवाहमयी
खोजती है राह
बाट जोहती उस विराट की
इस चट्टानी घाटी में
जो कवि की अन्तर्भूमि मे जग रहा है धीरे धीरे
पत्थर पर पत्थर
रखते हैं अनगिनत मज़दूर
रूप ग्रहण करता है विराट
पत्थर से बनता परमेश्वर ।
बाँध जब पूरा होगा
विराट दृढ़ संकल्प शिव की तरह
उन्नत मस्तक
फैलाकर मिट्टी के बाँध रूपी प्रलम्ब बाहु
बाँध लेगा इस पार्वती को
अपने बज्र वक्ष में
तवा बनेगी सरोवरा
यौवन की बाढ़ का हरहराता आवेग
शमित हो , जायेगा
शान्त हो जायेगा
तब यह बनेगी पयोधरा
फूटेंगी पयस्विनी ,रसस्विनी
वाम और दक्षिण नहर
और यहाँ अंतर मे
लहरायेगा शान्त सरोवर
वाम और दक्षिण भाग मे खड़े ये प्रेक्षामंडप
खड़े होंगे साक्षी से
कहेंगे कथा उस चाँदनी रात की
जब यहाँ एक इंजीनियर ने देखा था स्वप्न ।।

पुष्पा जिज्जी

प्रिय पुष्पा जिज्जी!
सादर प्रणाम सहित
भावांजलि
*
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
ॐ प्रकाशित हो  मुस्काओ
जीवन की जय-जय गुंजाओ
महके स्नेह-सुरभि दस दिश में
ममतामय नर्मदा बहाओ
पुष्पाओ तो हो
जग मधुवन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
अंशुमान अँगना उजियारे
आशुतोष उपकृत, मन वारे
सोनल तुमसे गहे विरासत
मृदुल मेघना जाती वारे
आशा-किरण
साधनामय मन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*
पूनम की सुषमा है तुमसे
अर्णव-श्रेया झूमे-हुमसे
राजिव-संजिव नज़र उतारें
आरोही कैयां में हुलसे
भाव सलिल
लहरों का गुंजन
शत-शत वंदन
शत अभिनंदन
अर्पित अक्षत रोली चंदन
*

श्रुत्यानुप्रास अलंकार

अलंकार चर्चा : ५
श्रुत्यानुप्रास अलंकार
समस्थान से उच्चरित, वर्णों का उपयोग
करे श्रुत्यानुप्रास में, युग-युग से कवि लोग
वर्णों का उच्चारण विविध स्थानों से किया जाता है. इसी आधार पर वर्णों के निम्न अनुसार वर्ग बनाये गये हैं.
उच्चारण स्थान अक्षर
कंठ अ आ क ख ग घ ङ् ह
तालु इ ई च छ ज झ ञ् य श
मूर्द्धा ऋ ट ठ ड ढ ण र ष
दंत लृ त थ द ध न ल स
ओष्ठ उ ऊ प फ ब भ म
कंठ-तालु ए ऐ
कंठ-ओष्ठ ओ औ
दंत ओष्ठ व
नासिक भी ङ् ञ् ण न म
जब श्रुति अर्थात एक स्थान से उच्चरित कई वर्णों का प्रयोग हो तो वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. अक्सर आया कपोत गौरैया संग हुलस
यहाँ अ क आ क ग ग ह कंठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
२. इधर ईद चन्दा-छटा झट जग दे उजियार
यहाँ इ ई च छ झ ज ज य तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
३. ठोंके टिमकी डमरू ढोल विषम जोधा रण बीच चला
यहाँ ठ, ट, ड, ढ, ष, ण मूर्धाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
४. तुलसीदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई
यहाँ त ल स द स स द त न स द न द त त न दन्ताक्षरों का प्रयोग किया गया है.
५. उधर ऊपर पग फैला बैठी भामिनी थक-चूर हो
यहाँ उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
६. ए ऐनक नहीं तो दो आँख धुंधला देखतीं
यहाँ ए, ऐ कंठव्य-तालव्य अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
७. ओजस्वी औलाद न औसर ओट देखती
यहाँ ओ औ औ ओ कंठ-ओष्ठ अक्षरों का प्रयोग किया गया है.
८. वनराज विपुल प्रहार कर वाराह-वध हित व्यथित था
यहाँ व दंत-ओष्टाक्षर का प्रयोग किया गया है.
९. वाङ्गमय भी वाञ्छित, रणनाद ही मत तुम करो
यहाँ ङ् ञ् ण न म नासिकाक्षरों का प्रयोग किया गया है.
९-९-२०१५ 

बुंदेली दोहा

दोहा सलिला :
बुंदेली दोहा
*
का भौ काय नटेर रय, दीदे मो खौं देख?
कई-सुनी बिसरा- लगा, गले मिटा खें रेख.
*
बऊ-दद्दा खिसिया रए, कौनौ धरें न कान
मौडीं-मौड़ां बाँट रय, अब बूढ़न खें ज्ञान.
*
९-९-२०१४

पुरोवाक, विद्यासागर महथा संगीता पुरी

पुरोवाक
पुरोवाक्:
आचार्य संजीव
*
पुरुषार्थ और भाग्य एक सिक्के के दो पहलू हैं या यूँ कहें कि उनका चोली-दामन का सा साथ है. जब गोस्वामी तुलसीदास जी 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'हुइहै सोहि जो राम रचि राखा' में से किसी एक का चयन नहीं कर पाते तो आदमी भाग्य और कर्म के चक्कर में घनचक्कर बन कर रह जाए तो क्या आश्चर्य?
आदि काल से भाग्य जानने और कर्म को मानने प्रयास होते रहे हैं. वेद का नेत्र कहा गया ज्योतिष शास्त्र जन्म कुंडली, हस्त रेखा, मस्तक रेखा, मुखाकृति, शगुनशास्त्र, अंक ज्योतिष, वास्तु आदि के माध्यम से गतागत और शुभाशुभ को जानने का प्रयास करता रहा किन्तु त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ भी काल को न जान सके और महाकाल के गाल में समा गये.
ज्ञान का विधिवत अध्ययन, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण, अवधारणाओं परिकल्पन परीक्षण तथा प्राप्त परिणामों का आगमन-निगमन, निगमन-आगमन पद्धतियों अर्थात विशिष्ट से सामान्य और सामान्य से विशिष्ट की ओर परीक्षण जाकर नियमित अध्ययन हो तब विषय विज्ञान माना जाता है. यंत्रोपकरणों, परीक्षण विधियों और परिणामों को हर दिन प्रामाणिकता के निकष पर खरा उतरना होता है अन्यथा सदियों की मान्यता पल में नष्ट हो जाती है.
भारतीय ज्योतिष शास्त्र और सामुद्रिकी विदेशी आक्रमणों, ग्रंथागारों को जलाये जाने और आचार्यों को चुन-चुन कर मरे जाने के बाद से 'गरीब की लुगाई' होकर रह गयी है जिसे 'गाँव की भौजाई' मानकर खुद को ज्योतिषाचार्य कहनेवाले पंडित-पुजारी-मठाधीश तथा व्यवसायी गले से नहीं रहे, उसका शीलहरण भी कर रहे है. फलतः, इस विज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण की कोई सुव्यवस्था नहीं है. शासन - प्रशासन की ओर से विषय के अध्ययन की कोई योजना नहीं है, युवा जन इस विषय को आजीविका का माध्यम बनाने हेतु पढ़ना भी चाहें तो कोई मान्यता प्राप्त संस्थान या पाठ्यक्रम नहीं है. फलतः जन सामान्य नहीं विशिष्ट और विद्वान जन भी विरासत में प्राप्त आकर्षण और विश्वास के कारण तथाकथित ज्योतिषियों के पाखंड का शिकार हो रहे हैं.
अंधकार में दीप जलने का प्रयास करनेवालों में श्री कृष्णमूर्ति के समान्तर श्री विद्यासागर महथा और उनकी विदुषी पुत्री श्रीमती संगीता पुरी प्रमुख हैं. प्रस्तुत कृति दोनों के संयुक्त प्रयास से विकसित हो रही नवीन ज्योतिष-अध्ययन प्रणाली 'गत्यात्मक ज्योतिष' का औचित्य, महत्त्व, मौलिकता, भिन्नता और प्रामाणिकता पर केंद्रित है. इस कृति का वैशिष्ट्य प्रचलित जन मान्यताओं, अवधारणाओं तथा परम्पराओं की पड़ताल कर पाखंडों, अंधविश्वासों तथा कुरीतियों की वास्तविकता उद्घाटित कर ज्योतिष की आड़ में ठगी कर रहे छद्म ज्योतिषियों से जनगण को बचने के लिये सत्योद्घाटन करना है. श्री महथा ने ज्योतिष को अंतरिक्षीय गृह-पथों कटन बिन्दुओं को गृह न मानने अथवा सभी ग्रहों के कटन बिन्दुओं को समान महत्व देकर गणना करने का ठोस तर्क देकर गत्यात्मक ज्योतिष प्रामाणिकता सिद्ध की है.
यह ग्रंथ जड़-चेतन, जीव-जंतु, मानव तथा उसके भविष्य पर सौरमंडल के ग्रहों की गति के प्रभावों का अध्ययन तथा विश्लेषण कर समयपूर्व भविष्यवाणी की आधार भूमि निर्मित करता है। श्री महथा रचित आगामी ग्रन्थ उनके तथा सुशीला जी द्वारा विश्लेषित कुंडलियों के आँकड़े व् की गयी भविष्यवाणियों के विश्लेषण से गत्यात्मक ज्योतिष दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर लोकप्रियता अर्जित करेगा अपितु शिक्षित बेरोजगार युवा पीढ़ी अध्ययन, शोध और जीविकोपार्जन का माध्यम भी बनेगा, इसमें संदेह नहीं। मैं श्री विद्यासागर जी तथा संगीता जी के इस भगीरथ प्रयास का वंदन करते हुए सफलता की कामना करता हूँ.

जन्म दिवस शुभकामना

जन्म दिवस शुभकामना 
*
खरे-खरे प्रतिमान रच जियें आप सौ वर्ष।
जीवन बगिया में खिलें पुष्प सफलता-हर्ष।।
चित्र गुप्त जिसका सकें उसे आप पहचान।
काया वासित है वही, कर्म देव भगवान।।
*
छंद शास्त्र : आंकिक प्रतिमान 
उलटी गणना 
दस हरि, नौ देवी नमन, अष्ट सिद्धि वसु योग। 
सप्त अग्नि, ऋषि, दिन, पुरी, लोक, रंग, नग भोग।।
छह दर्शन, रस, राग, ऋतु, शास्त्र, तंत्र, वेदांग। 
पाँच देव, नद, इन्द्रियाँ, प्राण, भूत, शर, स्वांग।।      
शिशु किशोर युव वृद्ध हैं, जग में केवल चार। 
भोर दिवस संध्या निशा, जाने सब संसार।।
गत अब आगत तीन हैं काल, मात्र दो द्वार। 
मृत्यु-जन्म के मध्य है, मात्र एक करतार।। 
जोड़-घटा ले शून्य को, पड़े न कुछ भी फर्क। 
गुणा-भाग हो शून्य का, मिले शून्य बिन तर्क।।
***  

बुधवार, 8 सितंबर 2021

आत्म कथ्य : श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत

आत्म कथ्य :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सरथा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
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