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शनिवार, 17 जुलाई 2021

सुभाष राय

मुक्तिका:
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२ 
*********
सुभाष राय संजीव वर्मा 'सलिल'
17 जुलाई 2010 ·



मित्र हुए हम सलिल के , हमको इसका नाज
हिन्दी के निज देश के पूरे होंगे काज

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

जनक छन्द सलिला

जनक छन्द सलिला
*
श्याम नाम जपिए 'सलिल'
काम करें निष्काम ही
मत कहिये किस्मत बदा
*
आराधा प्रति पल सतत
जब राधा ने श्याम को
बही भक्ति धारा प्रबल
*
श्याम-शरण पाता वही
जो भजता श्री राम भी
दोनों हरि-अवतार हैं
*
श्याम न भजते पहनते
नित्य श्याम परिधान ही
उनके मन भी श्याम हैं
*
काला कोट बदल करें
श्वेत, श्याम परिधान को
न्याय तभी जन को मिले
*
शपथ उठाते पर नहीं
रखते गीता याद वे
मिथ्या साक्षी जो बने
*
आँख बाँध तौले वज़न
तब देता है न्याय जो
न्यायालय कैसे कहें?
******
१६-७-२०१६

मालिनी छंद

कार्य शाला

मालिनी छंद
*
विधान
गणसूत्र : न न म य य
पदभार : १११ १११ २२२ १२२ १२२
*
अतुलित बल धामं, स्वर्णशैलाभदेहं
दनुज वन कृशाणं ज्ञानिनामग्रगण्यं
सकल गुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नमामी -तुलसी
*
अमल विमल गंगा ही हमेशा रहेगी
'मलिन न कर' पूछो तो हमेशा कहेगी
जननि कह रहा इंसां रखे साफ़ भी तो -
मलिन सलिल हो तो प्यास से भी दहेगी
*
नित प्रति कुछ सीखो, पाठ भूलो नहीं रे!
रच नव कविताएँ, जाँच भी लो कभी रे!
यह मत समझो सीखा नहीं भूलते हैं-
फिर-फिर पढ़ना होता, नहीं भूलना रे!
*
प्रमुदित जब होते, तो नहीं धैर्य खोते।
नित श्रम कर पाते, तो नहीं आज रोते।
हमदम यदि पाते, हो सुखी खूब सोते।
खुद रचकर गाते, छंद आनंद बोते।
*
नयन नयन में डूबे रहे आज सैंया।
लगन-अगन ऐसी है नहीं लाज सैंया।
अमन न मन में तेरा यहाँ राज सैंया।
ह्रदय ह्रदय से मिला बना काज सैंया।
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
विश्व वाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
****
सुन -सुन मितवा रे,चाँदनी रात आई।
मधुर धुन बजा लें,रागिनी राग लाई।
दमक- दमक देखो,दामिनी गीत गाई
नत -नत पलकों से कामिनी भी लजाई। -सरस्वती कुमारी
*
छमछम कर देखो,सावनी बूँद आती।
विहँसकर हवा में,डोलती डाल पाती।
पुलक-पुलक कैसे,नाचती है धरा भी।
मृदु प्रणय कथा को ,बाँचती है धरा भी। -सरस्वती कुमारी
*

क्षणिका, दोहा सलिला

क्षणिका
तुम कौन ?
पूछे आईना
हम मौन
*
दोहा सलिला
सर्वोदय को भूलकर, करें दलोदय लोग.
निज हित साधन ही हुआ, लक्ष्य यही है रोग
*
दोहा सलिला
सर्वोदय को भूलकर, करें दलोदय लोग.
निज हित साधन ही हुआ, लक्ष्य यही है रोग
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर

बाल गीत: धानू बिटिया

बाल गीत:
धानू बिटिया
*
धानू बिटिया रानी है।
सच्ची बहुत सयानी है।।
यह हरदम मुस्काती है।
खुशियाँ खूब लुटाती है।।
है परियों की शहजादी।
तनिक न करती बर्बादी।।
आँखों में अनगिन सपने।
इसने पाले हैं अपने।।
पढ़-लिख कभी न हारेगी।
हर दुश्मन को मारेगी।।
हर बाधा कर लेगी पार।
होगी इसकी जय-जयकार।।
**

हास्य रचना: मेरी श्वास-श्वास में कविता

हास्य रचना:
मेरी श्वास-श्वास में कविता
*
मेरी श्वास-श्वास में कविता, छींक-खाँस दूँ तो हो गीत।
युग क्या जाने खर्राटों में, मेरे व्याप्त मधुर संगीत।

पल-पल में कविता कर देता, क्षण-क्षण में मैं लिखूँ निबंध।
मुक्तक-क्षणिका क्षण-क्षण होते, चुटकी बजती काव्य प्रबंध।

रस-लय-छंद-अलंकारों से लेना-देना मुझे नहीं।
बिंब-प्रतीक बिना शब्दों की, नौका खेना मुझे यहीं।

धुंआधार को नाम मिला है, कविता-लेखन की गति से।
शारद भी चकराया करतीं हैं; मेरी अद्भुत मति से।

खुद गणपति भी हार गए, कविता सुन लिख सके नहीं।
खोजे-खोजे अर्थ न पाया, पंक्ति एक बढ़ सके नहीं।

एक साल में इतनी कविता, जितने सर पर बाल नहीं।
लिखने को कागज़ इतना हो, जितनी भू पर खाल नहीं।

वाट्स एप को पूरा भर दूँ, अगर जागकर लिख दूँ रात।
गूगल का स्पेस कम पड़े, मुखपोथी की क्या औकात?

ट्विटर, वाट्स एप, मेसेंजर, मुझे देख डर जाते हैं।
वेदव्यास भी मेरे सम्मुख, फीके से पड़ जाते हैं।

वाल्मीकि भी पानी भरते, मेरी प्रतिभा के आगे।
जगनिक और ईसुरी सम्मुख, जाऊँ तो पानी माँगे।

तुलसी सूर निराला बच्चन, से मेरी कैसी समता?
अब का कवि खद्योत सरीखा, हर मेरे सम्मुख नमता।

किसमें क्षमता है जो मेरी, प्रतिभा का गुणगान करे?
इसीलिये मैं खुद करता हूँ, धन्य वही जो मान करे। 

विन्ध्याचल से ज्यादा भारी, अभिनंदन के पत्र हुए। 
स्मृति-चिन्ह अमरकंटक सम, जी से प्यारे लगें मुए।

करो न चिता जो व्यय; देकर मान पत्र ले, करूँ कृतार्थ।
लक्ष्य एक अभिनंदित होना, इस युग का मैं ही हूँ पार्थ।
***
१४.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

हिंदी गीतों में वर्षा मंगल

हिंदी गीतों में वर्षा मंगल
*



सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
अलि घिर आए घन पावस के
लख ये काले-काले बादल
नील सिंधु में खिले कमल दल
हरित ज्योति चपला अति चंचल
सौरभ के रस के

द्रुम समीर कंपित थर-थर-थर
झरती धाराएँ झर-झर-झर
जगती के प्राणों में स्मर शर
बेध गए कस के

*

माखनलाल चतुर्वेदीकैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं


ये बरसातें आतीं जातीं?

महादेवी वर्मा
कहाँ से आए बादल काले?
कजरारे मतवाले!

शूल भरा जग, धूल भरा नभ, झुलसीं देख दिशाएँ निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह करूणा के रखवाले?
आँसू का तन, विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर, दुख-पाथेय सँभाले!

नरेंद्र शर्मा

नाच रे मयूरा!

खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा!
नाच रे मयूरा!
*
बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

सखि, वन-वन घन गरजे!
श्रवण निनादा-मगन
मन उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!

परम अगम प्रियतमा गगन की शंख-ध्वनि आई
मंथर गति रति चरण चारू की चाप गगन में छाई
अंबर कंपित पवन संचरित संसृति अति सरसाई
मंद्र-मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण उन्मादी
कौन इन्हें अब बरजे?
*
भवानी प्रसाद मिश्र

पी के फूटे आज प्यार के
पानी बरसा री
हरियाली छा गई,
हमारे सावन सरसा री

बादल छाए आसमान में,
धरती फूली री
भरी सुहागिन, आज माँग में
भूली-भूली री
बिजली चमकी भाग सरीखी,
दादुर बोले री
अंध प्रान-सी बही,
उड़े पंछी अनमोले री
छिन-छिन उठी हिलोर
मगन-मन पागल दरसा री
*
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

जा रहे वर्षांत के बादल

हैं बिछुड़ते वर्ष भर को नील जलनिधि से,
स्निग्ध कज्जलिनी निशा की उर्मियों से,
स्नेह-गीतों की कड़ी-सी राग रंजित उर्मियों से,
गगन की शृंगार-सज्जित अप्सराओं से,
जा रहे वर्षांत के बादल
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'

दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!

भींग रहीं अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी!

*
शिवमंगल सिंह 'सुमन'

मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।
*
रमानाथ अवस्थी

याद बन-बनकर गगन पर
साँवले घन छा गए हैं

ये किसी के प्यार का संदेश लाए
या किसी के अश्रु ही परदेश आए।
श्याम अंतर में गला शीशा दबाए
उठ वियोगिनी! देख घर मेहमान आए
धूल धोने पाँव की
सागर गगन पर आ गए हैं
*
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

मेघ आए
बड़े बन ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।
*

पूर्णिमा बर्मन

आज अचानक सड़कों पर दंगा-सा है
साथ हमारे मौसम बेढंगा-सा है

तेज़ हवाएँ बहती हैं टक्कर दे कर
तूफ़ानों ने रोका है चक्कर दे कर
दृढ़ निश्चय फिर भी कंचनजंघा-सा है
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा-सा है
*
मधु प्रसाद

बिना तुम्हारे कैसे बीते
सावन के पलछिन।

तुमने ही पहले भेजी थी
प्रेम भरी पाती
ढ़ाई आख़र की सुलगाई
अंतर में बाती
गूँज रही हैं दसों दिशाएँ
उत्तर से दक्खिन।
*
संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
यश मालवीय

बारिश के दिन आ गए हँसे खेत खपरैल
एक हँसी मे धुल गया मन का सारा मैल

अबरोही बादल भरें फिर घाटी की गोद
बजा रहे हैं डूब कर अमजद अली सरोद

जब से आया गाँव में यह मौसम अवधूत
बादल भी मलने लगे अपने अंग भभूत


वर्षा गीत - सलिल

गीत वर्षा के सलिल
बाल गीत
पानी दो
🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃
पानी दो, प्रभु पानी दो
मौला धरती धानी दो,
पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गई
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो,
पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो,
पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो,
पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो,
पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो,
पानी दो...
*
बाल गीत:
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
***
गीत 
बरसातों में
संजीव
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
***
नवगीत:
संजीव
*
मेघ बजे
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी
तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई
जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे
*
नवगीत:
संजीव
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....

नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
***
नवगीत
बारिश
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
***
दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
***
नवगीत
कारे बदरा 
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे 
आकर प्यास बुझा 
रीते कूप-नदी भरने की 
आकर राह सुझा 
ओ रे कारे बदरा 
*
देर न कर अब तो बरस 
बजा-बजा तबला 
बिजली कहे न तू गरज 
नारी है सबला 
भा रे कारे बदरा 
*
लहर-लहर लहरा सके 
मछली के सँग झूम 
बीरबहूटी दूब में 
नाचे भू को चूम 
गा रे कारे बदरा 
*
लाँघ न सीमा बेरहम 
धरा न जाए डूब 
दुआ कर रहे जो वही 
मनुज न जाए ऊब 
जारे कारे बदरा 
*
हरा-भरा हर पेड़ हो 
नगमे सुना हवा 
'सलिल' बूंद नर्तन करे 
गम की बने दवा
जारे कारे बदरा
*****
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***

अनुगीत छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति, अचल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अनुगीत छंद से
अनुगीत छंद
संजीव
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
*********
१५-७-२०१६

हास्य षट्पदी

हास्य षट्पदी 
नियति
संजीव
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाये, एक अदद तब बीबी पाये
सोचे धौन्स जमाऊं इस पर, नचवाये वह आंसू भरकर
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाये गोद ले
कही पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***
१५-७-२०१४

दोहा सलिला

दोहा सलिला
झलक दिखा बादल गए, दूर क्षितिज के पार.
जैसे अच्छे दिन हमें , दिखा रही सरकार.
*
मन में क्या है!; क्यों कहें?, आप करें अनुमान.
सच यह है खुद ही हमें. पता नहीं श्रीमान.
*
गगरी कहीं उलट रहे, कहीं न बूँद-प्रसाद.
शिवराजी सरकार सम, बादल करें प्रमाद.
*
नहीं पेंशनर को मिले, सप्तम वेतनमान.
सत्ता सुख में चूर जो, पीड़ा से अनजान.
*
नित्य नई कर घोषणा, जीत न सको चुनाव.
गर न पेंशनर का मिटा, सकता तंत्र अभाव.
*
चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी, बाँटें अंधे रोज.
देते सिर्फ अपात्र को, क्यों इसकी हो खोज.
*
नाले सँकरे कर दिए, जमीं दबाई खूब.
धरती टाइल से पटी, खाक उगेगी दूब.
*
दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान.
गायब होंगे शीघ्र ही, धरती से इंसान.
*
पौध लगा मत; पेड़ जो काट सके तो काट.
मानव कर ले तू खड़ी खुद ही अपनी खाट.
*
सादा जीवन अब नहीं, रहा हमारा साध्य.
उच्च विचार न रुच रहे, स्वार्थ कर रहा बाध्य.
*
आवश्यकता से अधिक, पा न कहें: पर्याप्त
जो वे दनुज, मनुज नहीं सत्य वचन है आप्त.
*
पत्ता-पत्ता चीखकर, कहता: काट न वृक्ष.
निज पैरों पर कुल्हाड़ी, चला रहे हम दक्ष.
*
धरती का मंगल न कर, मंगल भेजें यान.
करें अमंगल लड़-झगड़ दंगल कर इंसान.
*
खूं के आँसू रोय हम, वे ले लाल गुलाब.
कहते हुआ विकास अब, हँस लो जरा जनाब.
*
इधर भुखमरी पेट में, लगी हुई है आग.
उधर न वे खा पा रहे, इतना पाया भाग.
*
दिल ने दिल को तौलकर, दिल से की पहचान.
दिल ने दिल का दिल दुखा, कहा न तू अरमान.
*
१५-७-२-१८ 


दोहा कविता

कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
*
15.7.2018, 7999559618

बुधवार, 14 जुलाई 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला
आशा
*
आशा मत तजना कभी, रख मन में विश्वास।
मंजिल पाने के लिए, नित कर अथक प्रयास।।
*
आशा शैली; निराशा, है चिंतन का दोष।
श्रम सिक्का चलता सदा, कर सच का जयघोष।।
*
आशा सीता; राम है, कोशिश लखन अकाम।
हनुमत सेवा-समर्पण, भरत त्याग अविराम।।
*
आशा कैकेयी बने, कोशिश पा वनवास।
अहं दशानन मारती, जीवन गहे उजास।।
*
आशा कौशल्या जने, मर्यादा पर्याय।
शांति सुमित्रा कैकयी, सुत धीरज पर्याय।
*
आशा सलिला बह रही, शिला निराशा तोड़।
कोशिश अंकुर कर रहे, जड़ें जमाने होड़।।
*
आशा कोलाहल नहीं, करती रहती मौन।
जान रहा जग सफलता, कोशिश जाने कौन?
*
आशा सपने देखती, श्रम करता साकार।
कोशिश उनमें रंग भर, हार न देती हार।।
*
आशा दिख-छिपती कभी, शशि-बादल सम खेल।
कहे धूप से; छाँव से, रखना सीखो मेल।।
*
आशा माँ बहिना सखी, संगिन बेटी साध।
श्वास-आस सम साथ रख, आजीवन आराध।।
*
आशा बिन होता नहीं, जग-जीवन संजीव।
शैली सलिल सदृश रहे, निर्मल पा राजीव।।
*
१४-७-२०१९

गीत

गीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा
कोयल का स्वर रुद्ध
कर रहेे रक्षित
कागा काँव
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५

दोहा गीत रात रात से बात की

दोहा गीत 
रात रात से बात की
*
रात रात से बात की, थी एकाकी मौन।
सिसक पड़ी मिल गले; कह, कभी पूछता कौन?
*
रहा रात की बाँह में, रवि लौटा कर भोर।
लाल-लाल नयना लिए, ऊषा का दिल-चोर।।
*
जगजननी है रात; ले, सबको गोद-समेट।
स्वप्न दिखा बहला रही, भुज भर; तिमिर लपेट।।
*
महतारी है प्रात की, रात न करती लाड़।
कहती: 'झटपट जाग जा, आदत नहीं बिगाड़।।'
*
निशा-नाथ है चाँद पर, फिरे चाँदनी-संग।
लौट अँधेरे पाख में, कहे: 'न कर दिल संग।।'
*
राका की चाहत जयी, करे चाँद से प्यार।
तारों की बारात ले, झट आया दिल हार।।
*
रात-चाँद माता-पिता, सुता चाँदनी धन्य।
जन्म-जन्म का साथ है, नाता जुड़ा अनन्य।।
*
रजनी सजनी शशिमुखी, शशि से कर संबंध।
समलैंगिकता का करे, क्या पहला अनुबंध।।
*
रात-चाँदनी दो सखी, प्रेमी चंदा एक।
घर-बाहर हों साथ; है, समझौता सविवेक।।
*
सौत अमावस-पूर्णिमा, प्रेमी चंदा तंग।
मुँह न एक का देखती, दूजी पल-पल जंग।।
*
रात श्वेत है; श्याम भी, हर दिन बदले रंग।
हलचल को विश्राम दे, रह सपनों के संग।।
*
बात कीजिए रात से, किंतु न करिए बात।
जब बोले निस्तब्धता, चुप गहिए सौगात।।
*
दादुर-झींगुर बजाते, टिमकी-बीन अभंग।
बादल रिमझिम बरसता, रात कुँआरी संग।।
*
तारे घेरे छेड़ते, देख अकेली रात।
चाँद बचा; कर थामता, बनती बिगड़ी बात।।
*
अबला समझ न रात को, झट दे देगी मात।
अँधियारा पी दे रही, उजियाला सौगात।।
***
14.7.2018, 7999559618

गीत

गीत:
हारे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन किसे कैसे समझाए
सब निज मन से हारे हैं?.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह खुद को
तीसमारखाँ पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनसे बिजली ले
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं...
*
पान, तमाखू, जर्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस,
या दिशाहीन गुब्बारे हैं...
*
करें भोर से भोर शोर हम,
चैन न लें, ना लेने दें.
अपनी नाव डुबाते, औरों को
नैया ना खेने दें.
वन काटे, पर्वत खोदे,
सच हम निर्मम हत्यारे है...
*
नदी-सरोवर पाट दिये,
जल-पवन प्रदूषित कर हँसते.
सर्प हुए हम खाकर अंडे-
बच्चों को खुद ही डंसते.
चारा-काँटा फँसा गले में
हम रोते मछुआरे हैं...
*

नवगीत

नवगीत:
पैर हमारे लात हैं....
संजीव 'सलिल'
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण
कमल
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर
हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज
हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज
हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम
हरिकर, वे
श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम
उत्पल शतदल
***************** 

गीत

युगल गीत: बात बस इतनी सी थी...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..
बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.
बात बस इतनी सी थी, धागा मिला उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
**********************

दोहा सलिला

दोहा सलिला
दिव्या भव्या बन सकें, आत्मा यदि हो चाह.
नित्य नयी मंजिल चुने, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
१४-७-२०१० 

वर्षा मंगल गीत सलिला

वर्षा मंगल गीत सलिला 
*
नरेंद्र शर्मा

नाच रे मयूरा!

खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा!
नाच रे मयूरा!

गूँजे दिशि-दिशि मृदंग,
प्रतिपल नव राग-रंग,
रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तानपूरा!
नाच रे मयूरा!

सम पर सम, सा पर सा,
उमड़-घुमड़ घन बरसा,
सागर का सजल गान
क्यों रहे अधूरा?
नाच रे मयूरा!

***

पूर्णिमा बर्मन

आज अचानक सड़कों पर दंगा-सा है
साथ हमारे मौसम बेढंगा-सा है

तेज़ हवाएँ बहती हैं टक्कर दे कर
तूफ़ानों ने रोका है चक्कर दे कर
दृढ़ निश्चय फिर भी कंचनजंघा-सा है
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा-सा है

निकल पड़े हैं दो दीवाने यों मिलकर
सावन में ज्यों इंद्रधनुष हो धरती पर
उड़ता बादल अंबर में झंडा-सा है
पत्तों पर ठहरा पानी ठंडा-सा है

जान हवाओं में भरती हैं आवाज़ें
दौड़ी रही घाटी के ऊपर बरसातें
हरियाली पर नया रंग रंगा-सा है
दूर हवा में एक चित्र टँगा-सा है

भीगी शाम बड़ी दिलवाली लगती है
चमकती बिजली दीवाली-सी लगती है
बारिश का यह रूप नया चंगा-सा है
मीठा-मीठा दिल में कुछ पंगा-सा है

***

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

सखि, वन-वन घन गरजे!
श्रवण निनादा-मगन
मन उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!

परम अगम प्रियतमा गगन की शंख-ध्वनि आई
मंथर गति रति चरण चारू की चाप गगन में छाई
अंबर कंपित पवन संचारित संसृति अति सरसाई
मंद्र-मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण उन्मादी
कौन इन्हें अब बरजे?

मेरा गगन और मम आँगन आज सिहर कर काँपा
मेरी यह आल्हाद बिथा सखि, बना असीम अमापा
आवेंगे वे चरण जिन्होंने इस त्रिलोक को नापा
सखि मैंने ऐसा आमंत्रण-श्रुति स्वर कब आलापा?
लगता है मानो ये बादल कुछ यों ही हैं तरजे!

श्रवण-निनाद-मगन
मन-उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!
***

भवानी प्रसाद मिश्र

पी के फूटे आज प्यार के
पानी बरसा री
हरियाली छा गई,
हमारे सावन सरसा री

बादल छाए आसमान में,
धरती फूली री
भरी सुहागिन, आज माँग में
भूली-भूली री
बिजली चमकी भाग सरीखी,
दादुर बोले री
अंध प्रान-सी बही,
उड़े पंछी अनमोले री
छिन-छिन उठी हिलोर
मगन-मन पागल दरसा री

फिसली-सी पगडंडी,
खिसकी आँख लजीली री
इंद्रधनुष रंग-रंगी आज मैं
सहज रंगीली री
रुन-झुन बिछिया आज,
हिला डुल मेरी बेनी री
ऊँचे-ऊँचे पैंग हिंडोला
सरग-नसेनी री
और सखी, सुन मोर विजन
वन दीखे घर-सा री

फुर-फुर उड़ी फुहार
अलक दल मोती छाए री
खड़ी खेत के बीच किसानिन
कजली गाए री
झर-झर झरना झरे
आज मन-प्रान सिहाये री
कौन जनम के पुन्न कि ऐसे
औसर आए री
रात सखी सुन, गात मुदित मन
साजन परसा री
***

मधु प्रसाद

बिना तुम्हारे कैसे बीते
सावन के पलछिन।

तुमने ही पहले भेजी थी
प्रेम भरी पाती
ढ़ाई आख़र की सुलगाई
अंतर में बाती
गूँज रही हैं दसों दिशाएँ
उत्तर से दक्खिन।

बादल के हाथों सौंपी थी
सपनों-सी आशा
नदिया को पर्वत सिखलाता
जीवन-परिभाषा
मदमाते मौसम के द्वारे
सपने हुए नलिन।

पात-पात सिहरन होती है,
अब तो आहट से
भ्रमर ढूँढ़ता फिरता है निज
घर अकुलाहट से।
पीड़ा के पल कब कटते हैं
वे तो हैं अनगिन।
***

महादेवी वर्मा

कहाँ से आए बादल काले?
कजरारे मतवाले!

शूल भरा जग, धूल भरा नभ, झुलसीं देख दिशाएँ निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह करूणा के रखवाले?
आँसू का तन, विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर, दुख-पाथेय सँभाले!

लाँघ क्षितिज की अंतिम दहली, भेंट ज्वाल की बेला पहली,
जलते पथ को स्नेह पिला पग-पग पर दीपक वाले!
गर्जन में मधु-लय भर बोले, झंझा पर निधियाँ घर डोले,
आँसू बन उतरे तृण-कण ने मुस्कानों में पाले!

नामों में बाँधे सब सपने रूपों में भर स्पंदन अपने
रंगो के ताने बाने में बीते क्षण बुन डाले
वह जडता हीरों मे डाली यह भरती मोती से थाली
नभ कहता नयनों में बस रज बहती प्राण समा ले!
***

माखनलाल चतुर्वेदी

कैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं?

इनमें श्याम सलोना ढूँढ़ो
छुपा लिया है अपने उर में,
गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी
फल उठी सारे अंबर में!
***

यश मालवीय

बारिश के दिन आ गए हँसे खेत खपरैल
एक हँसी मे धुल गया मन का सारा मैल

अबरोही बादल भरें फिर घाटी की गोद
बजा रहे हैं डूब कर अमजद अली सरोद

जब से आया गाँव में यह मौसम अवधूत
बादल भी मलने लगे अपने अंग भभूत

बदली हँसती शाम से मुँह पर रख रूमाल
साँसो में सौगंध है आँखें हैं वाचाल

बादल के लच्छे खुले पेड़ कातते सूत
किसी बात का फिर हवा देने लगी सबूत

कठिन गरीबी क्या करे अपना सरल स्वाभाव
छत से पानी रिस रहा जैसे रिसता घाव

मीठे दिन बरसात के खट्टी मीठी याद
एक खुशी के साथ हैं सौ गहरे अवसाद

बिजली चमके रात भर आफ़त में है जान
मैला आँचल भीगता सीला है गोदान

सासों में आसावरी आँखो में कल्यान
सहे किस तरह हैसियत बूँदो वाले बान
***

रमानाथ अवस्थी

याद बन-बनकर गगन पर
साँवले घन छा गए हैं

ये किसी के प्यार का संदेश लाए
या किसी के अश्रु ही परदेश आए।
श्याम अंतर में गला शीशा दबाए
उठ वियोगिनी! देख घर मेहमान आए
धूल धोने पाँव की
सागर गगन पर आ गए हैं

रात ने इनको गले में डालना चाहा
प्यास ने मिटकर इन्हीं को पालना चाहा
बूँद पीकर डालियाँ पत्ते नए लाईं
और बनकर फूल कलियाँ खूब मुस्काईं
प्रीति-रथ पर गीत चढ़कर
रास्ता भरमा गए हैं

श्याम तन में श्याम परियों को लपेटे
घूमते हैं सिंधु का जीवन समेटे
यह किसी जलते हृदय की साधना है
दूरवाले को नयन से बाँधना है
रूप के राजा किसी के
रूप से शरमा गए हैं

***

रामधारी सिंह 'दिनकर'

दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!

भींग रहीं अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी!

किसका मातम? कौन बिखेरे
बाल आज नभ पर आई?
रोई यों जी खोल, चले बह
आँसू के नाले सजनी!

आई याद आज अलका की,
किंतु, पंथ का ज्ञान नहीं,
विस्मृत पथ पर चले मेघ
दामिनी-दीप बाले सजनी!

चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन,
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी!

बुझती नहीं जलन अंतर की,
बरसें दृग, बरसें जलधर,
मैंने भी क्या हाय, हृदय में
अंगारे पाले सजनी!

धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,
मेरी ही चिंता न धुली,
पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ
टलीं नहीं टाले सजनी!

किंतु, आज क्षिति का मंगल-क्षण,
यह मेरा क्रंदन कैसा?
गीत-मग्न घन-गगन, आज
तू भी मल्हार गा ले सजनी!
***

रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

जा रहे वर्षांत के बादल

हैं बिछुड़ते वर्ष भर को नील जलनिधि से,
स्निग्ध कज्जलिनी निशा की उर्मियों से,
स्नेह-गीतों की कड़ी-सी राग रंजित उर्मियों से,
गगन की शृंगार-सज्जित अप्सराओं से,
जा रहे वर्षांत के बादल

किस महावन को चले
अब न रुकते अब न रुकते ये गगनचारी
नींद आँखों में बसी गति में शिथिलता
किस गुफ़ा में लीन होंगे-
सांध्य-विहगों से थके डैने लिए भारी

साथ इनके जा रहा
अगणित विरहिणी विरहियों का दाह
दे रही अनिमेष नयनों से हरित वसुधा विदाई
किस सुदूर निभृत कुटी में-
शुजिता सुधि की इन्हें फिर याद आई
भर गई आ रिक्त कानों में
किस कमल वन में अनिदित
शारदीया की करुण चंचल रुलाई
जा रहे अलोक-पथ से मंद गति
वर्षांत के बादल

हैं सलिल प्लावित नदी-नद-ताल-पोखर
वेग-विह्वल झर रहे गिरि-स्रोत निर्झर
दे भरे मन से विदा कर कुसुम किरणों से नमन
छोड़कर अंकुरित नूतन फुल्ल खेत
छोड़ उत्सुक बंधुओं के नेत्रों का प्यार
छोड़ लघु पौधे व्यथातुर शस्य शालि अपार
जा रहे वर्षांत के बादल

खोह अंजन की कहाँ वह गुरु गहन
आगार वह विश्राम-मुग्ध विराम की
जा रहे जिसमें चले थे थके वन-पशु से
प्यास होठों पर लिए किसके मिलन की
भर जगत में नव्य जीवन
जा रहे किस प्रिया की सुधि से घिरे
नयी आकांक्षा भरे वर्षांत के बादल
जा रहे वर्षांत के बादल।
***

शिवमंगल सिंह 'सुमन'

मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।

मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।

हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।
***

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

मेघ आए
बड़े बन ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी घूँघट सरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

बूढे पीपल ने आगे बढ़ जुहार की,
बरस बाद सुधि लीन्हीं
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल, लाया पानी परात भर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

क्षितिज-अटारी गहराई दामिनी दमकी,
'क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की',
बाँधा टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


अलि घिर आए घन पावस के

लख ये काले-काले बादल
नील सिंधु में खिले कमल दल
हरित ज्योति चपला अति चंचल
सौरभ के रस के

द्रुम समीर कंपित थर-थर-थर
झरती धाराएँ झर-झर-झर
जगती के प्राणों में स्मर शर
बेध गए कस के

हरियाली ने अलि हर ली श्री
अखिल विश्व के नवयौवन की
मंद गंध कुसुमों में लिख दी
लिपि जय की हंस के

छोड़ गए गृह जब से प्रियतम
बीते कितने दृश्य मनोरम
क्या मैं ऐसी ही हूँ अक्षम
जो न रहे बस के
***


संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***