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बुधवार, 14 जुलाई 2021

दोहा गीत रात रात से बात की

दोहा गीत 
रात रात से बात की
*
रात रात से बात की, थी एकाकी मौन।
सिसक पड़ी मिल गले; कह, कभी पूछता कौन?
*
रहा रात की बाँह में, रवि लौटा कर भोर।
लाल-लाल नयना लिए, ऊषा का दिल-चोर।।
*
जगजननी है रात; ले, सबको गोद-समेट।
स्वप्न दिखा बहला रही, भुज भर; तिमिर लपेट।।
*
महतारी है प्रात की, रात न करती लाड़।
कहती: 'झटपट जाग जा, आदत नहीं बिगाड़।।'
*
निशा-नाथ है चाँद पर, फिरे चाँदनी-संग।
लौट अँधेरे पाख में, कहे: 'न कर दिल संग।।'
*
राका की चाहत जयी, करे चाँद से प्यार।
तारों की बारात ले, झट आया दिल हार।।
*
रात-चाँद माता-पिता, सुता चाँदनी धन्य।
जन्म-जन्म का साथ है, नाता जुड़ा अनन्य।।
*
रजनी सजनी शशिमुखी, शशि से कर संबंध।
समलैंगिकता का करे, क्या पहला अनुबंध।।
*
रात-चाँदनी दो सखी, प्रेमी चंदा एक।
घर-बाहर हों साथ; है, समझौता सविवेक।।
*
सौत अमावस-पूर्णिमा, प्रेमी चंदा तंग।
मुँह न एक का देखती, दूजी पल-पल जंग।।
*
रात श्वेत है; श्याम भी, हर दिन बदले रंग।
हलचल को विश्राम दे, रह सपनों के संग।।
*
बात कीजिए रात से, किंतु न करिए बात।
जब बोले निस्तब्धता, चुप गहिए सौगात।।
*
दादुर-झींगुर बजाते, टिमकी-बीन अभंग।
बादल रिमझिम बरसता, रात कुँआरी संग।।
*
तारे घेरे छेड़ते, देख अकेली रात।
चाँद बचा; कर थामता, बनती बिगड़ी बात।।
*
अबला समझ न रात को, झट दे देगी मात।
अँधियारा पी दे रही, उजियाला सौगात।।
***
14.7.2018, 7999559618

गीत

गीत:
हारे हैं...
संजीव 'सलिल'
*
कौन किसे कैसे समझाए
सब निज मन से हारे हैं?.....
*
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं.
उस पर भी तुर्रा यह खुद को
तीसमारखाँ पाते हैं.
रास न आये सच कबीर का
हम बुदबुद गुब्बारे हैं...
*
बिजली के जिन तारों से
टकरा पंछी मर जाते हैं.
हम नादां उनसे बिजली ले
घर में दीप जलाते हैं.
कोई न जाने कब चुप हों
नाहक बजते इकतारे हैं...
*
पान, तमाखू, जर्दा, गुटका,
खुद खरीदकर खाते हैं.
जान हथेली पर लेकर
वाहन जमकर दौड़ाते हैं.
'सलिल' शहीदों के वारिस,
या दिशाहीन गुब्बारे हैं...
*
करें भोर से भोर शोर हम,
चैन न लें, ना लेने दें.
अपनी नाव डुबाते, औरों को
नैया ना खेने दें.
वन काटे, पर्वत खोदे,
सच हम निर्मम हत्यारे है...
*
नदी-सरोवर पाट दिये,
जल-पवन प्रदूषित कर हँसते.
सर्प हुए हम खाकर अंडे-
बच्चों को खुद ही डंसते.
चारा-काँटा फँसा गले में
हम रोते मछुआरे हैं...
*

नवगीत

नवगीत:
पैर हमारे लात हैं....
संजीव 'सलिल'
*
पैर हमारे लात हैं,
उनके चरण
कमल
ह्रदय हमारे सरोवर-
उनके हैं पंकिल...
*
पगडंडी काफी है हमको,
उनको राजमार्ग भी कम है.
दस पैसे में हम जी लेते,
नब्बे निगल रहा वह यम है.
भारतवासी आम आदमी -
दो पाटों के बीच पिस रहे.
आँख मूँद जो न्याय तौलते
ऐश करें, हम पैर घिस रहे.
टाट लपेटे हम फिरें
वे धारे मलमल.
धरा हमारा बिछौना
उनका है मखमल...
*
अफसर, नेता, जज, व्यापारी,
अवसरवादी-अत्याचारी.
खून चूसते नित जनता का,
देश लूटते भ्रष्टाचारी.
हम मर-खप उत्पादन करते,
लूट तिजोरी में वे भरते.
फूट डाल हमको लड़वाते.
थाना कोर्ट जेल भिजवाते.
पद-मद उनका साध्य है,
श्रम है अपना बल.
वे चंचल ध्वज, 'सलिल' हम
हैं नींवें अविचल...
*
पुष्कर, पुहुकर, नीलोफर
हम,
उनमें कुछ काँटें बबूल के.
कुई, कुंद, पंकज, नीरज
हम,
वे बैरी तालाब-कूल के.
'सलिल'ज क्षीरज
हम, वे गगनज
हम अपने हैं, वे सपने हैं.
हम
हरिकर, वे
श्रीपद-लोलुप
मनमाने थोपे नपने हैं.
उन्हें स्वार्थ आराध्य है,
हम न चाहते छल.
दलदल वे दल बन करें
हम
उत्पल शतदल
***************** 

गीत

युगल गीत: बात बस इतनी सी थी...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
चाहते तुम कम नहीं थे, चाहते कम हम न थे.
चाहतें क्यों खो गईं?, सपने सुनहरे कम न थे..
बात बस इतनी सी थी, रिश्ता लगा उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
बाग़ में भँवरे-तितलियाँ, फूल-कलियाँ कम न थे.
पर नहीं आईं बहारें, सँग हमारे तुम न थे..
बात बस इतनी सी थी, चेहरा मिला मुरझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
*
दोष किस्मत का नहीं, हम ही न हम बन रह सके.
सुन सके कम दोष यह है, क्यों न खुलकर कह सके?.
बात बस इतनी सी थी, धागा मिला उलझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी, तुमने नहीं समझा मुझे.
बात बस इतनी सी थी...
**********************

दोहा सलिला

दोहा सलिला
दिव्या भव्या बन सकें, आत्मा यदि हो चाह.
नित्य नयी मंजिल चुने, भले कठिन हो राह..
*
प्रेम परिश्रम ज्ञान के, तीन वेद का पाठ.
करे 'सलिल' पंकज बने, तभी सही हो ठाठ..
*
छंद शर्करा-नमक है, कविता में रस घोल.
देता नित आनंद नव, कहे अबोले बोल..
*
कर्ता कारक क्रिया का, करिए सही चुनाव.
सहज भाव अभिव्यक्ति हो, तजिए कठिन घुमाव..
*
बिम्ब-प्रतीकों से 'सलिल', अधिक उभरता भाव.
पाठक समझे कथ्य को, मन में लेकर चाव..
*
अलंकार से निखरता, है भाषा का रूप.
बिन आभूषण भिखारी, जैसा लगता भूप..
*
रस शब्दों में घुल-मिले, करे सारा-सम्प्राण.
नीरसता से हो 'सलिल', जग-जीवन निष्प्राण..
*
कथनी-करनी में नहीं, 'सलिल' रहा जब भेद.
तब जग हमको दोष दे, क्यों? इसका है खेद..
*
मन में कुछ रख जुबां पर, जो रखते कुछ और.
सफल वही हैं आजकल, 'सलिल' यही है दौर..
*
हिन्दी के शत रूप हैं, क्यों उनमें टकराव?
कमल पंखुड़ियों सम सजें, 'सलिल' न हो बिखराव..
*
जगवाणी हिन्दी हुई, ऊँचा करिए माथ.
जय हिन्दी, जय हिंद कह, 'सलिल' मिलाकर हाथ..
*
१४-७-२०१० 

वर्षा मंगल गीत सलिला

वर्षा मंगल गीत सलिला 
*
नरेंद्र शर्मा

नाच रे मयूरा!

खोल कर सहस्त्र नयन,
देख सघन गगन मगन
देख सरस स्वप्न, जो कि
आज हुआ पूरा!
नाच रे मयूरा!

गूँजे दिशि-दिशि मृदंग,
प्रतिपल नव राग-रंग,
रिमझिम के सरगम पर
छिड़े तानपूरा!
नाच रे मयूरा!

सम पर सम, सा पर सा,
उमड़-घुमड़ घन बरसा,
सागर का सजल गान
क्यों रहे अधूरा?
नाच रे मयूरा!

***

पूर्णिमा बर्मन

आज अचानक सड़कों पर दंगा-सा है
साथ हमारे मौसम बेढंगा-सा है

तेज़ हवाएँ बहती हैं टक्कर दे कर
तूफ़ानों ने रोका है चक्कर दे कर
दृढ़ निश्चय फिर भी कंचनजंघा-सा है
झरनों का स्वर मंगलमय गंगा-सा है

निकल पड़े हैं दो दीवाने यों मिलकर
सावन में ज्यों इंद्रधनुष हो धरती पर
उड़ता बादल अंबर में झंडा-सा है
पत्तों पर ठहरा पानी ठंडा-सा है

जान हवाओं में भरती हैं आवाज़ें
दौड़ी रही घाटी के ऊपर बरसातें
हरियाली पर नया रंग रंगा-सा है
दूर हवा में एक चित्र टँगा-सा है

भीगी शाम बड़ी दिलवाली लगती है
चमकती बिजली दीवाली-सी लगती है
बारिश का यह रूप नया चंगा-सा है
मीठा-मीठा दिल में कुछ पंगा-सा है

***

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

सखि, वन-वन घन गरजे!
श्रवण निनादा-मगन
मन उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!

परम अगम प्रियतमा गगन की शंख-ध्वनि आई
मंथर गति रति चरण चारू की चाप गगन में छाई
अंबर कंपित पवन संचारित संसृति अति सरसाई
मंद्र-मंद्र आगमन सूचना हिय में आन समाई
क्षण में प्राण उन्मादी
कौन इन्हें अब बरजे?

मेरा गगन और मम आँगन आज सिहर कर काँपा
मेरी यह आल्हाद बिथा सखि, बना असीम अमापा
आवेंगे वे चरण जिन्होंने इस त्रिलोक को नापा
सखि मैंने ऐसा आमंत्रण-श्रुति स्वर कब आलापा?
लगता है मानो ये बादल कुछ यों ही हैं तरजे!

श्रवण-निनाद-मगन
मन-उन्मन
प्राण-पवन-कण
लरजे!
***

भवानी प्रसाद मिश्र

पी के फूटे आज प्यार के
पानी बरसा री
हरियाली छा गई,
हमारे सावन सरसा री

बादल छाए आसमान में,
धरती फूली री
भरी सुहागिन, आज माँग में
भूली-भूली री
बिजली चमकी भाग सरीखी,
दादुर बोले री
अंध प्रान-सी बही,
उड़े पंछी अनमोले री
छिन-छिन उठी हिलोर
मगन-मन पागल दरसा री

फिसली-सी पगडंडी,
खिसकी आँख लजीली री
इंद्रधनुष रंग-रंगी आज मैं
सहज रंगीली री
रुन-झुन बिछिया आज,
हिला डुल मेरी बेनी री
ऊँचे-ऊँचे पैंग हिंडोला
सरग-नसेनी री
और सखी, सुन मोर विजन
वन दीखे घर-सा री

फुर-फुर उड़ी फुहार
अलक दल मोती छाए री
खड़ी खेत के बीच किसानिन
कजली गाए री
झर-झर झरना झरे
आज मन-प्रान सिहाये री
कौन जनम के पुन्न कि ऐसे
औसर आए री
रात सखी सुन, गात मुदित मन
साजन परसा री
***

मधु प्रसाद

बिना तुम्हारे कैसे बीते
सावन के पलछिन।

तुमने ही पहले भेजी थी
प्रेम भरी पाती
ढ़ाई आख़र की सुलगाई
अंतर में बाती
गूँज रही हैं दसों दिशाएँ
उत्तर से दक्खिन।

बादल के हाथों सौंपी थी
सपनों-सी आशा
नदिया को पर्वत सिखलाता
जीवन-परिभाषा
मदमाते मौसम के द्वारे
सपने हुए नलिन।

पात-पात सिहरन होती है,
अब तो आहट से
भ्रमर ढूँढ़ता फिरता है निज
घर अकुलाहट से।
पीड़ा के पल कब कटते हैं
वे तो हैं अनगिन।
***

महादेवी वर्मा

कहाँ से आए बादल काले?
कजरारे मतवाले!

शूल भरा जग, धूल भरा नभ, झुलसीं देख दिशाएँ निष्प्रभ,
सागर में क्या सो न सके यह करूणा के रखवाले?
आँसू का तन, विद्युत का मन, प्राणों में वरदानों का प्रण,
धीर पदों से छोड़ चले घर, दुख-पाथेय सँभाले!

लाँघ क्षितिज की अंतिम दहली, भेंट ज्वाल की बेला पहली,
जलते पथ को स्नेह पिला पग-पग पर दीपक वाले!
गर्जन में मधु-लय भर बोले, झंझा पर निधियाँ घर डोले,
आँसू बन उतरे तृण-कण ने मुस्कानों में पाले!

नामों में बाँधे सब सपने रूपों में भर स्पंदन अपने
रंगो के ताने बाने में बीते क्षण बुन डाले
वह जडता हीरों मे डाली यह भरती मोती से थाली
नभ कहता नयनों में बस रज बहती प्राण समा ले!
***

माखनलाल चतुर्वेदी

कैसा छंद बना देती हैं
बरसातें बौछारों वाली,
निगल-निगल जाती हैं बैरिन
नभ की छवियाँ तारों वाली!

गोल-गोल रचती जाती हैं
बिंदु-बिंदु के वृत्त बना कर,
हरी हरी-सी कर देता है
भूमि, श्याम को घना-घना कर।

मैं उसको पृथिवी से देखूँ
वह मुझको देखे अंबर से,
खंभे बना-बना डाले हैं
खड़े हुए हैं आठ पहर से।

सूरज अनदेखा लगता है
छवियाँ नव नभ में लग आतीं,
कितना स्वाद ढकेल रही हैं
ये बरसातें आतीं जातीं?

इनमें श्याम सलोना ढूँढ़ो
छुपा लिया है अपने उर में,
गरज, घुमड़, बरसन, बिजली-सी
फल उठी सारे अंबर में!
***

यश मालवीय

बारिश के दिन आ गए हँसे खेत खपरैल
एक हँसी मे धुल गया मन का सारा मैल

अबरोही बादल भरें फिर घाटी की गोद
बजा रहे हैं डूब कर अमजद अली सरोद

जब से आया गाँव में यह मौसम अवधूत
बादल भी मलने लगे अपने अंग भभूत

बदली हँसती शाम से मुँह पर रख रूमाल
साँसो में सौगंध है आँखें हैं वाचाल

बादल के लच्छे खुले पेड़ कातते सूत
किसी बात का फिर हवा देने लगी सबूत

कठिन गरीबी क्या करे अपना सरल स्वाभाव
छत से पानी रिस रहा जैसे रिसता घाव

मीठे दिन बरसात के खट्टी मीठी याद
एक खुशी के साथ हैं सौ गहरे अवसाद

बिजली चमके रात भर आफ़त में है जान
मैला आँचल भीगता सीला है गोदान

सासों में आसावरी आँखो में कल्यान
सहे किस तरह हैसियत बूँदो वाले बान
***

रमानाथ अवस्थी

याद बन-बनकर गगन पर
साँवले घन छा गए हैं

ये किसी के प्यार का संदेश लाए
या किसी के अश्रु ही परदेश आए।
श्याम अंतर में गला शीशा दबाए
उठ वियोगिनी! देख घर मेहमान आए
धूल धोने पाँव की
सागर गगन पर आ गए हैं

रात ने इनको गले में डालना चाहा
प्यास ने मिटकर इन्हीं को पालना चाहा
बूँद पीकर डालियाँ पत्ते नए लाईं
और बनकर फूल कलियाँ खूब मुस्काईं
प्रीति-रथ पर गीत चढ़कर
रास्ता भरमा गए हैं

श्याम तन में श्याम परियों को लपेटे
घूमते हैं सिंधु का जीवन समेटे
यह किसी जलते हृदय की साधना है
दूरवाले को नयन से बाँधना है
रूप के राजा किसी के
रूप से शरमा गए हैं

***

रामधारी सिंह 'दिनकर'

दूर देश के अतिथि व्योम में
छाए घन काले सजनी,
अंग-अंग पुलकित वसुधा के
शीतल, हरियाले सजनी!

भींग रहीं अलकें संध्या की,
रिमझिम बरस रही जलधर,
फूट रहे बुलबुले याकि
मेरे दिल के छाले सजनी!

किसका मातम? कौन बिखेरे
बाल आज नभ पर आई?
रोई यों जी खोल, चले बह
आँसू के नाले सजनी!

आई याद आज अलका की,
किंतु, पंथ का ज्ञान नहीं,
विस्मृत पथ पर चले मेघ
दामिनी-दीप बाले सजनी!

चिर-नवीन कवि-स्वप्न, यक्ष के
अब भी दीन, सजल लोचन,
उत्कंठित विरहिणी खड़ी
अब भी झूला डाले सजनी!

बुझती नहीं जलन अंतर की,
बरसें दृग, बरसें जलधर,
मैंने भी क्या हाय, हृदय में
अंगारे पाले सजनी!

धुलकर हँसा विश्व का तृण-तृण,
मेरी ही चिंता न धुली,
पल-भर को भी हाय, व्यथाएँ
टलीं नहीं टाले सजनी!

किंतु, आज क्षिति का मंगल-क्षण,
यह मेरा क्रंदन कैसा?
गीत-मग्न घन-गगन, आज
तू भी मल्हार गा ले सजनी!
***

रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

जा रहे वर्षांत के बादल

हैं बिछुड़ते वर्ष भर को नील जलनिधि से,
स्निग्ध कज्जलिनी निशा की उर्मियों से,
स्नेह-गीतों की कड़ी-सी राग रंजित उर्मियों से,
गगन की शृंगार-सज्जित अप्सराओं से,
जा रहे वर्षांत के बादल

किस महावन को चले
अब न रुकते अब न रुकते ये गगनचारी
नींद आँखों में बसी गति में शिथिलता
किस गुफ़ा में लीन होंगे-
सांध्य-विहगों से थके डैने लिए भारी

साथ इनके जा रहा
अगणित विरहिणी विरहियों का दाह
दे रही अनिमेष नयनों से हरित वसुधा विदाई
किस सुदूर निभृत कुटी में-
शुजिता सुधि की इन्हें फिर याद आई
भर गई आ रिक्त कानों में
किस कमल वन में अनिदित
शारदीया की करुण चंचल रुलाई
जा रहे अलोक-पथ से मंद गति
वर्षांत के बादल

हैं सलिल प्लावित नदी-नद-ताल-पोखर
वेग-विह्वल झर रहे गिरि-स्रोत निर्झर
दे भरे मन से विदा कर कुसुम किरणों से नमन
छोड़कर अंकुरित नूतन फुल्ल खेत
छोड़ उत्सुक बंधुओं के नेत्रों का प्यार
छोड़ लघु पौधे व्यथातुर शस्य शालि अपार
जा रहे वर्षांत के बादल

खोह अंजन की कहाँ वह गुरु गहन
आगार वह विश्राम-मुग्ध विराम की
जा रहे जिसमें चले थे थके वन-पशु से
प्यास होठों पर लिए किसके मिलन की
भर जगत में नव्य जीवन
जा रहे किस प्रिया की सुधि से घिरे
नयी आकांक्षा भरे वर्षांत के बादल
जा रहे वर्षांत के बादल।
***

शिवमंगल सिंह 'सुमन'

मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।

मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।

हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।
***

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

मेघ आए
बड़े बन ठन के सँवर के।

आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,
दरवाज़े खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए,
बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी घूँघट सरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

बूढे पीपल ने आगे बढ़ जुहार की,
बरस बाद सुधि लीन्हीं
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,
हरसाया ताल, लाया पानी परात भर के
मेघ आए
बडे बन-ठन के सँवर के।

क्षितिज-अटारी गहराई दामिनी दमकी,
'क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की',
बाँधा टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके
मेघ आए
बड़े बन-ठन के सँवर के।

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


अलि घिर आए घन पावस के

लख ये काले-काले बादल
नील सिंधु में खिले कमल दल
हरित ज्योति चपला अति चंचल
सौरभ के रस के

द्रुम समीर कंपित थर-थर-थर
झरती धाराएँ झर-झर-झर
जगती के प्राणों में स्मर शर
बेध गए कस के

हरियाली ने अलि हर ली श्री
अखिल विश्व के नवयौवन की
मंद गंध कुसुमों में लिख दी
लिपि जय की हंस के

छोड़ गए गृह जब से प्रियतम
बीते कितने दृश्य मनोरम
क्या मैं ऐसी ही हूँ अक्षम
जो न रहे बस के
***


संजीव वर्मा 'सलिल'

दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***


लेख वर्षा मंगल

लेख 
वर्षा मंगल 
*
भारतीय जन मानस उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ तरह तरह के पर्व मनाये जाते हैं। वर्षा ऋतु ग्रीष्म से तप्त धरा, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और मानवों को सलिल बिंदुओं के साथ जीवन्मृत प्रदान कर उनमें नव चेतना का संचार करती है। लोक मानस झूम कर गाने-नाचने लगता है। चौपालों पर आल्हा, कजरी, सावन गीत, रास आदि सुनाई देने लगते हैं। धरती कर सर्वत्र नवांकुरों का हरित-पीत सौंदर्य बिखर जाता है। बेलें हुमसकर वृक्षों से लिपटकर बढ़ चलती हैं। आसमान पर गरजते मेघ, तड़कती बिजली भय हुए हर्ष की मिली-जुली भावनाओं का संचार करती है। बरसाती जलधार धरा को तृप्त कर आप भी तृप्त होती है। सुखी सलिलाएँ मदमाती नारी के तरह किनारे तोड़कर बहने लगती हैं।   

ऋग्वेद के पाँचवे मंडल के ८३वें सूक्त की प्रथम ऋचा में उस वैदिक बलवान, दानवीर, भीम गर्जना करनेवाले पर्जन्य देवता की स्तुति की गई है- जो वृषभ के समान निर्भीक है और पृथ्वीतल की औषधियों में बीजारोपण करके नवजीवन के आगमन की सूचना देते हैं। यहाँ पर्जन्य  "पृष' (जह सींचना) धातु में "अन्य' प्रत्यय लगाने से और ष को ज या य से विस्थापित करने से बना है। धारणा कि पर्जन्य देवता यानि मानसून के मेघ बरस कर धरती को जल से परिपूरित कर प्रकृति में नवजीवन की सृष्टि करते हैं। पर्जन्य देवता गर्जना करने वाले वृषभ हैं। संस्कृत भाषा में "वृष' का अर्थ भी सींचना है और इसी धातु से वृषभ, वृषण, वृष्टि, वर्षण, वर्षा और वर्ष आदि शब्द बने हैं।महाभारत में अपने देश को भारतवर्ष कहा गया है, कृष्ण अर्जुन को 'भारत' कहते हैं। भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित मेघालय के अंतर्गत पूर्वी खासी पहाड़ी में मौसिनराम नामक एक गाँव में विश्व में सर्वाधिक वर्षा होती है। भारतवर्ष नामकरण का अन्य कारण  कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था का वर्षा पर आश्रित होना है।

भारतीय जनमानस को प्रतिबिंबित करता भारतीय साहित्य भी वर्षा ऋतु की नैसर्गिक सुषमा से परिपूर्ण है। संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि और कवियों में श्रेष्ठ कालिदास ने तो वर्षा का जैसा बखान किया है, वह विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के २८ वें सर्ग में राम वर्षा की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहते हैं, "वर्षाकाल आ पहुँचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूह से आकाश आच्छादित हो गया है। आकाश सूर्य की किरणों के माध्यम से समुद्र के जल को खींचकर और नौ मास (मध्य आश्विन से मध्य ज्येष्ठ तक) तक गर्भ धारण कर, अब वृष्टि रूपी रसायन को उत्पन्न कर रहा है। इस समय इन मेघ रूपी सीढ़ियों से आकाश में पहुँचकर, कौरेया और अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिम्ब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।'

पहाड़ों की ढलानों पर उतरते हुए मेघों को देखकर कवि मुग्ध हो कह उठते हैं, "इन पहाड़ों ने जिनकी कन्दरा रूपी मुखों में हवा भरी हुई है, जो मेघ रूपी काले मृगचर्म और वर्षा की धारा रूपी यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं, मानो वेदोच्चारण करना आरम्भ कर दिया है।' ध्यातव्य है कि प्राचीन काल में राजा, सैनिक, व्यापारी, गृहस्थ, ब्रााहृण और साधु-संत अपनी यात्रायें स्थगित कर देते थे और इस चातुर्मास की अवधि को वेद अध्ययन के लिए उपयुक्त माना जाता था, साथ ही चातुर्मास के आरम्भ से ही वर्षा का आरंभ मान्य था। कवि ने वर्षा काल में नदियों के कलकल निनाद, झरनों के झर-झर, मेढकों के टर्र-टर्र, झींगुरों के झिर-झिर और वनों, उपवनों की सुंदरता तथा पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-किल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। कवि कुछ किंवदन्तियों का भी जिक्र करते हैं, यथा राजहंस नीर-क्षीर विवेकी होते हैं, अतएव वे बरसात के गंदले जल को छोड़ इस ऋतु में हिमालय स्थित मानसरोवर को प्रस्थान कर जाते हैं।

प्रवासी चिड़िया चातक /पपीहा की खासियत यह है कि यह मानसून (अरबी मूल व-स-म, चिह्न से बने शब्द मौसम से) के आगमन से कुछ पहले मई-जून में अफ्रीका से उड़ती हुई भारतीय प्रायद्वीप आ जाती है। इसे वर्षा के आगमन का पूर्व दूत माना जाता है। इसके नर "पियु पियु' की आवाज निकालते हैं, जिसे लोग "पिय आया, पिय आया' का संदेश समझते हैं। संस्कृत में चातक की व्युत्पत्ति -भीख माँगना और  प्रत्यय है। किंवदन्ती है कि चातक मात्र वर्षा जल ही पीते हैं, अतएव ये गगन की ओर टकटकी लगाकर मेघों से वर्षा जल की भीख माँगते हैं। वर्षा ऋतु का एक पर्यायवाची शब्द चातकानंदन यानि चातक आनंदन (चातक को आनंद देने वाली ऋतु) भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरान्त अक्टूबर-नवम्बर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुनः अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं, ठीक वैसे जैसे परदेशी बलम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे।

क्या पावस (प्रवृष) ऋतु का यह शब्दचित्र अन्यत्र सम्भव है? इसका उत्तर कविकुल शिरोमणि तुलसीदास कृत रामचरितमानस के वर्षा-वर्णन में हिंदी की लोकभाषा अवधी में रामकथा कहकर तुलसी वाल्मीकि से भी ज़्यादा जन-जन में ख्याति पाते हैं। 

संस्कृत कवियों में श्रेष्ठ कालिदास रचित 'मेघदूतम्' विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसमें अलकापुरी से भटके, शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम सन्देश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेश भेजना चाहते थे। आधुनिक हिंदी साहित्य के पहले नाटक "आषाढ़ का पहला दिन' में मोहन राकेश ने इसी विषय को उठाया है। इस नाटक पर आधारित कई फिल्में भी बन चुकी हैं। कालिदास से इतर सोच रखने वाले आधुनिक कवि श्रीकांत वर्मा का अंतर्द्व्न्द कविता 'भटका मेघ' में है।

भारतीय साहित्य ही नहीं मुगलकालीन चित्रों और भारतीय संगीत भी वर्षा-मंगल या वर्षा-उमंग से परिपूर्ण है। संगीत में राग मल्हार से जुड़े अनेक मिथक हैं और आम धारणा है कि यह राग ग्रीष्म ऋतु के मल को हर लेता है और मेघ-वर्षण का माहौल बनाता है। किंतु कम लोगों को यह पता है कि मालाबार केरल राज्य मे अवस्थित पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिम तट के समानांतर एक संकीर्ण तटवर्ती क्षेत्र है। मलयालम में माला का अर्थ है - पर्वत और वारम् का अर्थ है- क्षेत्र। कालांतर में मालाबार से दक्षिण भारत के पूरे चन्दन वन क्षेत्र को जाना जाने लगा। संस्कृत में मलयज का अर्थ - चन्दन से जन्मा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में मलय पवन या मलय मरुत् का जन्म स्थान भारत का यही दक्षिण पश्चिमी तट है, जहाँ गर्मियों के बाद अरब सागर से मानसून पवन दस्तक देता है और फिर पूरे भारत में वर्षा होती है। यह मलय पवन ही सम्भवतः मॉनसून विंड है, जिसकी चर्चा मलयानिल के नाम से काव्यों में है। 

बंकिम बाबू "वन्दे मातरम्' में भारत भूमि को "मलयज शीतलाम् शस्य श्यामलाम्' कहते हैं, जिसका साधारण अर्थ - चन्दन सी शीतल और धान के श्यामल रंग से सुशोभित है; किन्तु इसका व्यापक अर्थ है - मलय पवन की वर्षा से ग्रीष्म ऋतु को शीतलता देती, धान्य सम्पन्न धरती। भारतीय संगीत का मल्हार राग वस्तुतः मलय पवन को हरने वाला, आहरित करने वाला राग है। जिस तरह राग दीपक में वातावरण में ऊष्मा का आभास कराने का सामर्थ्य है, उसी तरह मल्हार में वर्षा ऋतु का माहौल पैदा किया जाता है। राग मल्हार समेत उपशास्त्रीय संगीत की वर्षाकालीन विधा कजरी (कद् जल या काजल जैसे मेघ का संगीत)  है। भारत में वर्षा काल ज्येष्ठ से शुरू होकर भादों तक चलता है। ज्येष्ठ ज्या (पृथ्वी) के तपन की शुरुआत है। आषाढ़ असह्र गर्मी का द्योतक है। श्रावण में प्रकृति के स्वरों का श्रवण होता है और भाद्रपद में घर-आँगन समेत पूरा बिखरे मेघों वाला आकाश ऐसा दिखता है, मानो किसी गाय (भद्रा) ने अपने खुर (पाद) से रौंद दिया हो। हमारे प्रवासी मित्र परदेस में वर्षा ऋतु का आनन्द-उत्सव कैसे मनाते हैं, इसे हमने ख़ास तौर पर जानने का प्रयास किया है। वर्षा ऋतु भारत के लिए सर्वतोभद्र है। यह महीनों रेगिस्तान की गर्मी में सफर कर रहे क्लांत पथिक को नदी का किनारा मिलने जैसा है। यह सुखद संयोग है कि इस वर्ष मौसम वैज्ञानिकों ने औसत से ज़्यादा वर्षा होने की भविष्यवाणी की है। इससे हमारे कृषकों को लाभ पहुँचे और हमारी अर्थव्यवस्था मज़बूत हो।
***

दोहा दोहा चिकित्सा कीट दंश, श्वान दंश

दोहा दोहा चिकित्सा
कीट दंश  
*
मधुमक्खी काटे अगर, गेंदा पत्ती आप। 
मलें दर्द हो दूर झट, शांति सके मन व्याप।।
*
पीस सोंठ केसर तगर, पानी संग सम भाग। 
मधुमक्खी के दंश पर, लेप  सराहें भाग।।
मधुमक्खी के दंश पर, काट रगड़िए प्याज। 
दर्द घटे पीड़ा मिटे, बन जाए झट काज।। 
*
बर्रैया काटे मलें, सिरका-शहद तुरंत। 
चिंता तनिक न कीजिए, पीड़ा का हो अंत।।
बर्र काट दे अगर तो, आक दूध मल मीत। 
मुक्ति दर्द से पाइए, मर बिसराएँ रीत।।
*
बर्र ततैया दंश से, पीड़ित हो यदि चाम। 
मिटटी तेल लगाइए, मिले तुरत आराम।।
*
माचिस-तीली-मसाला, गीला कर लें लेप। 
कीट दंश में लाभ हो, बिसरा दें आक्षेप।।
*  
दंश ततैया का मिटे, मिर्च लेपिए पीस। 
शीघ्र मिले आराम तो, आप निपोरें खीस।।
*  
डंक ततैया मार दे, मलिए मूली काट। 
झट पीड़ा हरा दे, मनो धोबीपाट।।
*
कीट दंश पर लगाएँ, झटपट अर्क कपूर। 
दर्द मिटा सूजन करे, बिना देर यह दूर।।
*
चौलाई-जड़ पीसकर गौ-घी संग कर पान। 
कीट जहर से मुक्त हों, पड़े जान में जान।।
*
सिरका और कपूर संग, धनिया-पत्ती-अर्क। 
कीट दंश पर लगाएँ, मारिए नहीं कुतर्क।।
*
दोहा-दोहा चिकित्सा 
श्वान दंश 
*
पीस-घोल चौलाई जड़, बार-बार पी आप। 
श्वान जहर हो शीघ्र कम, भैरव का कर जाप।।
*
पिसी प्याज मधु मिलाकर, बाँधें दिखे न घाव। 
विष-प्रभाव हो नष्ट अरु, बढ़े न तनिक प्रभाव।।
*
आक धतूरा पुनर्नवा जड़ लेकर सम भाग।
मधु में पीस लगाइए, मिटे दंश की आग।।
*
लाल मिर्च का पाउडर, श्वान दंश पर बाँध। 
जलन न यदि पागल कुकुर, अगर न जानें आँध।।
*
मुर्ग-बीट पानी मिला, श्वान दंश पर लेप। 
शयन न कर जागे रहें, विष कम हो मत झेंप।।
*
गूदा कड़वी तुरई का, घोल-छान पी मीत। 
पाँच दिनों दोनों समय, करिए स्वस्थ्य प्रतीत।।
*
सेंधा नमक-गिलोय का गूदा बाँधें रोज। 
श्वान जहर हो नष्ट फिर, हो चेहरे पर ओज।।  
काली मिर्च पिसी सहित, सरसों तेल सुलेप। 
श्वान दंश विष नष्ट कर, हरे दर्द की खेप।।
*
हींग पीस पानी सहित, श्वान-दंश पर बाँध।। 
शीघ्र स्वस्थ्य हो जाइए, मिले न माँगे काँध।।
*
सबसे सरल उपाय है, रहें श्वान से दूर। 
हो समीप तो सजगता, रखें आप भरपूर।।
*
श्वान काट ले तो सलिल, हो सकता उपचार। 
नेता काटे तो नहीं, बचते किसी प्रकार।।
*
गए चिकित्सालय अगर, लूट मचेगी खूब। 
जान बचे या मत बचे, क़र्ज़ चढ़ेगा खूब।।
संजीव ९४२५१८३२४४ 

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

मुक्तक

मुक्तक
था सरोवर, रह गया पोखर महज क्यों आदमी?
जटिल क्यों?, मिलता नहीं है अब सहज क्यों आदमी?
काश हो तालाब शत-शत कमल शतदल खिल सकें-
आदमी से गले मिलकर 'सलिल' खुश हो आदमी।।
१३-७-२०२०

गीतः सुग्गा बोलो

गीतः
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
सन्जीव
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
१३-७-२०१४

दोहा सलिला रूप धूप का दिव्य, क्षणिका

क्षणिका :
*
मन-वीणा पर चोट लगी जब,
तब झंकार हुई.
रिश्तों की तुरपाई करते
अँगुली चुभी सुई.
खून जरा सा सबने देखा
सिसक रहा दिल मौन?
आँसू बहा न व्यर्थ
पीर कब,
बाँट सका है कौन?
*
दोहा सलिला 
रूप धूप का दिव्य
*
धूप रूप की खान है, रूप धूप का दिव्य।
छवि चिर-परिचित सनातन, पल-पल लगती नव्य।।
*
रश्मि-रथी की वंशजा, या भास्कर की दूत।
दिनकर-कर का तीर या, सूर्य-सखी यह पूत।।
*
उषा-सुता जग-तम हरे, घोर तिमिर को चीर।
करती खड़ी उजास की, नित अभेद्य प्राचीर।।
*
धूप-छटा पर मुग्ध हो, करते कलरव गान।
पंछी वाचिक काव्य रच, महिमा आप्त बखान।।
*
धूप ढले के पूर्व ही, कर लें अपने काम।
संध्या सँग आराम कुछ, निशा-अंक विश्राम।।
*
कलियों को सहला रही, बहला पत्ते-फूल।
फिक्र धूप-माँ कर रही, मलिन न कर दे धूल।।
*
भोर बालिका; यौवना, दुपहर; प्रौढ़ा शाम।
राग-द्वेष बिन विदा ले, रात धूप जप राम।।
*
धूप राधिका श्याम रवि, किरण गोपिका-गोप।
रास रचा निष्काम चित, करें काम का लोप।।
*
धूप विटामिन डी लुटा, कहती- रहो न म्लान।
सूर्य-़स्नान कर स्वस्थ्य हो, जीवन हो वरदान।।
*
सलिल-लहर सँग नाचती, मोद-मग्न हो धूप।
कभी बँधे भुजपाश में, बाँधे कभी अनूप।।
*
रूठ क्रोध के ताप से, अंशुमान हो तप्त।
जब तब सोनल धूप झट, हँस दे; गुस्सा लुप्त।।
*
आशुतोष को मोहकर, रहे मेघ ना मौन।
नेह-वृष्टि कर धूप ले, सँग-सँग रोके कौन।।
*
धूप पकाकर अन्न-फल, पुष्ट करे बेदाम।
अनासक्त कर कर्म वह, माँगे दाम न नाम।।
*
कभी न ब्यूटीपारलर, गई एक पल धूप।
जगती-सोती समय पर, पाती रूप अनूप।।
*
दिग्दिगंत तक टहलती, खा-सो रहे न आप।
क्रोध न कर; हँसती रहे, धूप न करे विलाप।।
*
salil.sanjiv@gmail.com
13.7.2018, 7999559618

सोमवार, 12 जुलाई 2021

अभियान वार्षिकोत्सव


विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ भारत 
*
संस्था के स्थापना दिवस (२० अगस्त) पर वार्षिकोत्सव एवं अधिवेशन किया जाना प्रस्तावित है। 
भोपाल ईकाई की संयोजक श्रीमती सरला वर्मा ने यह आयोजन करने का आमंत्रण दिया है। 
तदनुसार प्रतिनिधियों के तीन समय भोजन, तीन समय नाश्ते, एक दिवस आवास तथा आयोजन की व्यवस्थाओं पर लगभग सवा लाख रुपयों का व्यय अनुमानित है। 
इस हेतु आगंतुकों के आवास-भोजनादि व्यवस्था हेतु ३०००/- प्रतिनिधि शुल्क प्रस्तावित है। जो अतिथि आवास व्यवस्था अन्यत्र करना चाहें उनके लिए प्रतिनिधि शुल्क १५००/- है। प्रतिनिधि शुल्क स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया गुलमोहर शाखा भोपाल में श्रीमती सरला वर्मा के लेखा क्रमांक 30170589041IFSC 0004415  में जमाकर, sarlaverma251957@gmail.com, चलभाष: 9770677453 पर सूचित करें। 
जबलपुर ईकाई द्वारा कार्यक्रम निर्धारण, प्रतिनिधि चयन, विमोचन हेतु पुस्तक चयन, सत्रों के विषय निर्धारण, आगामी वर्ष हेतु कार्यकारिणी चयन आदि हेतु कार्यसमिति की बैठक तत्काल की जाना आवश्यक है। 
अधिवेशन प्रक्रिया 
पूर्व संध्या कार्य समिति बैठक - समिति पुनर्गठन, संविधान संशोधन, आगामी वर्ष हेतु कार्यक्रम निर्धारण  आदि। 
अधिवेशन 
स्वलपाहार 
उद्घाटन सत्र प्रात: ८.३० बजे - वंदना, स्वागत, समिति घोषणा, संविधान संशोधन प्रस्ताव पारित करना, पदाधिकारियों के प्रतिवेदन। 
विमर्श सत्र १ : १० बजे से - निर्धारित विषय पर चर्चा। 
दोपहर भोजन 
विमर्श सत्र २ : २ बजे से - निर्धारित विषय पर चर्चा।
समापन सत्र : ५ बजे से - पुस्तक विमोचन, अलंकरण, प्रतिनिधि सम्मान, अतिथि तथा नवनिर्वाचित अध्यक्ष आदि के संबोधन। 
स्वल्पाहार 
काव्य सत्र : ७ बजे से। 
रात्रि भोजन। 


   

समस्या पूर्ति

समस्या पूर्ति चरण-तब लगती है चोट
*
तब लगती है चोट जब, दुनिया करे सवाल.
अपनी करनी जाँच लें, तो क्यों मचे बवाल.
*
खुले आम बेपर्द जब, तब लगती है चोट.
हैं हमाम में नग्न सब, फिर भी रखते ओट.
*
लाख गिला-शिकवा करें, सह लेते हम देर.
तब लगती है चोट, जब होता है अंधेर.
*
होती जब निज आचरण, में न तनिक भी खोट.
दोषी करें सवाल जब, तब लगती है चोट.
*
१२-७-२०१८ 

दोहे अलंकार के

प्रदत्त शब्द :- आभूषण, गहना
दिन :- बुधवार
तारीख :- ११-०७-२०१८
विधा :- दोहा छंद (१३-११)
*
आभूषण से बढ़ सकी, शोभा किसकी मीत?
आभूषण की बढ़ा दे, शोभा सच्ची प्रीत.
*
'आ भूषण दूँ' टेर सुन, आई वह तत्काल.
भूषण की कृति भेंट कर, बिगड़ा मेरा हाल.
*
गहना गह ना सकी तो, गहना करती रंज.
सास-ननदिया करेंगी, मौका पाकर तंज.
*
अलंकार के लिए थी, अब तक वह बेचैन.
'अलंकार संग्रह' दिया, देख तरेरे नैन.
*
रश्मि किरण मुख पर पड़ी, अलंकार से घूम.
कितनी मनहर छवि हुई, उसको क्या मालूम?
*
अलंकारमय रमा को, पूज रहे सब लोग.
गहने रहित रमेश जी, मन रहे हैं सोग.
*
मिली सुंदरी ज्वेल सी, ज्वेलर हो हूँ धन्य.
माँगे मिली न ज्वेलरी, हुई उसी क्षण वन्य.
*

दोहा मन की बात

दोहा सलिला
दोहा मन की बात
*
बात-बात में कर रहा, दोहा मन की बात।
पर न बात बेबात कर, करे कभी आघात।।
*
बात निकलती बात से, बात-बात में जोड़।
दोहा गप्प न मारता, लेकर नाहक होड़।।
*
बिना बात की बात कर, संसद में हुड़दंग।
भत्ते लेकर मचाते, सांसद जनता तंग।।
*
बात काटते बात से, नेता पंडित यार।
पत्रकार पीछे नहीं, अधिवक्ता दमदार।।
*
मार न मारें मारकर, दें बातों से मार।
मीठी मार कभी करे, असर कभी फटकार।।
*
समय बिताने के लिए, लोग करें बतखाव।
निर्बल का बल बात है, सदा करें ले चाव।।
*
वार्ता विद्वज्जन करें, पंडितगण शास्त्रार्थ।
बात 'वाक्' हो जाए तो, विहँस करें वागार्थ।।
*
श्रुति-स्मृति है बात से, लोक-काव्य भी बात।
समझदार हो आमजन, गह पाए गुण तात।।
*
बातें ही वाचिक प्रथा, बातें वार्तालाप।
बात अनर्गल हो अगर, तब हो व्यर्थ प्रलाप।।
*
प्रवचन संबोधन कथा, बातचीत उपदेश।
मन को मन से जोड़ दे, दे परोक्ष निर्देश।।
*
बंधन है आदेश पर, स्वैच्छिक रहे सलाह।
कानाफूसी गुप्त रख, पूरी कर लें चाह।।
*
मन से मन की बात को, कहें मंत्रणा लोग।
बने यंत्रणा वह अगर, तज मत करिए सोग।।
*
बातें ही गपशप बनें, दें मन को आनंद।
जैसे कोई सुनाता, मद्धिम-मधुरिम छंद।।
*
बातें भाषण प्रबोधन, सबक पाठ वक्तव्य।
विगत-आज़ होता विषय, कभी विषय भवितव्य।।
*
केवल बात न काम ही, आता हरदम काम।
बात भले अनमोल हो, कह-सुन लो बेदाम।।
*
बिना बात का बतंगड़, पैदा करे विवाद।
बना सके जो समन्वय, वह करता संवाद।।
*
बात गुफ्तगू हो करे, मन-रंजन बिन मोल।
बात महाभारत बने, हो यदि उसमें झोल।।
*
सबक सिखाती बात या, देती है संदेश।
साखी सीख सबद सभी, एक भिन्न परिवेश।।
*
टाक लैक्चर स्पीच दे, बात करे एड्रैस।
कमुनिकेट कर घटा दें, बातें सारा स्ट्रैस।।
*
बात बात को मात दे, लेती है दिल जीत।
दिल की दूरी दूरकर, बात बढ़ाती प्रीत।।
*
12.7.2018, 7999559618.

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
कथ्य, भाव, रस, शिल्प, लय, साधें कवि गुणवान.
कम न अधिक कोई तनिक, मिल कविता की जान..
*
मेघदूत के पत्र को, सके न अब तक बाँच.
पानी रहा न आँख में, किससे बोलें साँच..
ऋतुओं का आनंद लें, बाकी नहीं शऊर.
भवनों में घुस कोसते. मौसम को भरपूर..
पावस ठंडी ग्रीष्म के. फूट गये हैं भाग.
मनुज सिकोड़े नाक-भौं, कहीं नहीं अनुराग..
मन भाये हेमंत जब, प्यारा लगे बसंत.
मिले शिशिर से जो गले, उसको कहिये संत..
पौधों का रोपण करे, तरु का करे बचाव.
भू गिरि नद से खेलता, ऋषि रख बालक-भाव..
मुनि-मन कलरव सुन रचे, कलकल ध्वनिमय मंत्र.
सुन-गा किलकिल दूर हो, विहँसे प्रकृति-तंत्र..
पत्थर खा फल-फूल दे, हवा शुद्ध कर छाँव.
जो तरु सम वह देव है, शीश झुका छू पाँव..
तरु गिरि नद भू बैल के, बौरा-गौरा प्राण .
अमृत-गरल समभाव से, पचा हुए सम्प्राण..
सिया भूमि श्री राम नभ, लखन अग्नि का ताप.
भरत सलिल शत्रुघ्न हैं, वायु- जानिए आप..
नाद-थाप राधा-किशन, ग्वाल-बाल स्वर-राग.
नंद छंद, रस देवकी, जसुदा लय सुन जाग..
वृक्ष काट, गिरि खोदकर, पाट रहे तालाब.
भू कब्जाकर बेचते, दानव-दैत्य ख़राब..
पवन, धूप, भू, वृक्ष, जल, पाये हैं बिन मोल.
क्रय-विक्रय करते असुर, ओढ़े मानव खोल..
कलकल जिनका प्राण है, कलरव जिनकी जान.
वे किन्नर गुणवान हैं, गा-नाचें रस-खान..
वृक्षमित्र वानर करें, उछल-कूद दिन-रात.
हरा-भरा रख प्रकृति को, पूजें कह पितु-मात..
ऋक्ष वृक्ष-वन में बसें, करें मस्त मधुपान.
जो उलूक वे तिमिर में, देख सकें सच मान..
रहते भू की कोख में, नाग न छेड़ें आप.
क्रुद्ध हुए तो शांति तज, गरल उगल दें शाप..
***

मुक्तिका

 मुक्तिका:

मन में यही...
संजीव 'सलिल'
*
मन में यही मलाल है.
आदम हुआ दलाल है..
लेन-देन ही सभ्यता
ऊँच-नीच जंजाल है
फतवा औ' उपदेश भी
निहित स्वार्थ की चाल है..
फर्ज़ भुला हक माँगता
पढ़ा-लिखा कंगाल है..
राजनीति के वाद्य पर
गाना बिन सुर-ताल है.
बहा पसीना जो मिले
रोटी वही हलाल है..
दिल से दिल क्यों मिल रहे?
सोच मूढ़ बेहाल है..
'सलिल' न भय से मौन है.
सिर्फ तुम्हारा ख्याल है..
१२-७-२०१०
*

कुंडलिया दाँत

कार्यशाला
दाँत दिखाते देखकर, डेनटिस्ट लें फीस
दाँत निपोरो बेधड़क, चमक उठें बत्तीस 
चमक उठें बत्तीस, दाँत बज देते ताली
दाँत पीसना नहीं, छटा हो तभी निराली
दाँत पेट में अगर, नहीं तब दाँत दिखाते
दाँत किटकिटा रहे, दाँत को दाँत डराते
*
रहो दाँत में जीभ बन, खट्टे कर दो दाँत।
तिनका पकड़ो दाँत से, व्यर्थ न तोड़ो दाँत।।
व्यर्थ  न तोड़ो दाँत, दाँत काटी रोटी हो।
अगर हुए बेदाँत, बड़ी मुश्किल छोटी हो।।
दाँत दूध के टूट सकें हँस राह वह गहो।
दाँत पेट में अगर, बेहतर दूर ही रहो।।
*
संजीव 
९४२५१८३२४४
**
दाँत के वे मुहावरे अर्थ सहित लिखें जो इन कुंडलियों में नहीं हैं।

रविवार, 11 जुलाई 2021

नवगीत

नवगीत
संजीव 
*
मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा।
*
लाख दागो गोलियाँ 
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा। 
गया विद्यालय 
न वापिस लौट पाया। 
तुम गए हो जीत 
यह किंचित न सोचो। 
भोर होते ही उठाकर 
फिर नए बस्ते हजारों 
मैं बढूँगा, मैं बढूँगा, मैं बढूँगा। 
मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा।।
*
खून की नदियाँ बहीं 
उसमें नहा 
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा। 
कसम रब की है 
मदरसा हो न सूना। 
मैं रचूँगा गीत 
मिलकर अमन बोओ। 
भुला औलादें तुम्हें 
मेरे साथ होंगी। 
मैं गढ़ूँगा,  मैं गढ़ूँगा, मैं गढ़ूँगा।
मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा।।
*
आसमां गर स्याह है 
तो क्या हुआ? 
हवा बनकर मैं बहूँगा। 
दहशतों के 
बादलों को उड़ा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य 
तुम रण हार रोओ। 
वक़्त लिक्खेगा कहांणी 
फाड़ मैं पत्थर उगूँगा। 
मैं खिलूँगा, मैं खिलूँगा, मैं खिलूँगा। 
मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा, मैं लड़ूँगा।।
***
(टीप - पेशावर के मदरसे में दहशतगर्दों द्वारा गोलीचालन के विरोध में) 

गीता अध्याय १०, ११

ॐ 
गीता अध्याय १० 
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हरि बोले फिर निश्चय ही  हे ! महाबाहु सुन मेरी बात। 
जो तुमको प्रिय मान कहूँ मैं, हितकारी तुझको यह तात ।१। 
*
नहीं जानते मेरा उद्भव, सुरगण या कि महा ऋषि भी। 
मैं ही आदिमूल देवों का, और महर्षि गणों का भी।२। 
*
जो मुझको बिन जन्म-आदि भी, जाने लोक महेश्वर ही।  
असम्मूढ़ वह मर्त्य जनों में, सब पापों से मुक्ति मिली।३। 
*
बुद्धि ज्ञान असम्मोह क्षमा सत, इन्द्रिय दमन मनोनिग्रह। 
सुख-दुख; भाव-अभाव; भय भी अरु, अभय भाव भी बिन संशय ।४। 
*
भाव अहिंसा समता तप संतुष्टि दान यश अरु अपयश। 
होते भाव प्राणियों के सब, मुझसे ही तो पृथक-पृथक।५। 
*
सात महर्षि; पूर्व के चारों सनक और चौदह मनु भी। 
मुझमें भाव मनस से उपजे, जिनकी जग में प्रजा सभी।६। 
*
इस सारे ऐश्वर्य योग को, मेरे जो जानता सही।
वह निश्चय ही भक्ति लीन हो, तनिक यहाँ संदेह नहीं।७। 
*
मैं सबका उत्पत्ति हेतु हूँ, मुझसे सब उद्भूत हुए। 
ऐसा जान भजें मुझको मतिमान भाव संयुक्त हुए।८। 
*
मुझमें रमे मुझे अर्पित जो, दें उपदेश परस्पर वे। 
कथन करें मेरे बारे में, सतत प्रसन्न रहें रमते।९। 
*
सतत लीन रहनेवाले वे, प्रीतिसहित जो भजते हैं। 
देता बुद्धियोग जिससे वे, मुझको ही पा सकते हैं।१०। 
*
उन पर निश्चय अनुकंपा कर, मैं अज्ञान जनित तम को।
हरता उस में बसे ज्ञान के, दीपक  द्वारा भासवित हो।११। 
*
अर्जुन बोला 'परम् ब्रह्म हैं, परम धाम पावन भी हैं। 
पुरुष शाश्वत दिव्य आदि सुर, आप अजन्मा विभु भी हैं।१२।
*
कहें आपको ऋषिगण सारे, देवों के  ऋषि नारद भी।  
असित व देवल व्यास आप भी, यही बताते हैं मुझको'।१३।    
*
इस सब सच को मान रहा जो, मुझसे कहते हो केशव!
कभी न भगवन रूप आपका, जान सकें सुर या दानव।१४। 
*
खुद ही खुद के खुद को जानें, हे पुरुषों में उत्तम आप। 
भूत-रुचिर हे!; भूत नाथ हे!, देव-देव जगस्वामी आप।१५। 
*
कहने योग्य अशेष आप ही, दैवी अपनी विभूतियाँ।
जिस विभूति से सब लोकों में, आप व्याप्त हो स्थित भी हैं।१६। 
*
कैसे जानूँ हे योगी मैं, सदा सतत चिंतन करता। 
किन किन रूपों में पल पल मैं, याद आपकी हूँ करता।१७। 
विस्तार से निज योग शक्ति को, विभूतियों को जन-अर्दन। 
फिर कहिए संतुष्टि श्रवण कर, हुई न मेरी अमृत को।१८। 
*
श्री बोले - 'हाँ, तुम्हें कहूँगा, दैवी निज ऐश्वर्यों को। 
प्रमुख रूप से; हे कुरु उत्तम!, अंत न विस्तारों का है।१९। 
*
मैं ही आत्मा हूँ हे अर्जुन!, सब जीवों के हृदय बसा।
मैं उद्गम भी और मध्य भी, अंत सकल जीवों का हूँ।२०। 
*
आदित्यों में मैं हूँ विष्णु, द्युतियों में रवि अंशुमान। 
मरीचि हूँ मरुतों में मैं ही, नक्षत्रों में मैं रजनीश।२१। 
*
वेदों में मैं सामवेद हूँ, देवों में वासव हूँ मैं।     
और इन्द्रियों में मन हूँ मैं, जीवों में चेतना कहो।२२। 
*
रुद्रों में शंकर हूँ मैं अरु, यक्षों में कुबेर मैं हूँ । 
वसुओं में पावक हूँ मैं अरु, शिखरों में सुमेरु गिरि हूँ।२३। 
*
पुरोहितों में मुखिया हूँ मैं, पार्थ बृहस्पति मैं जानो। 
सेनापतियों में स्कन्द कहो, जलाशयों में सिंधु कहो।२४। 
*
महर्षियों में भृगु ऋषि, शब्दों में एकाक्षर ॐ कहो। 
यज्ञों में जप यज्ञ और हूँ सभी स्थिरों में हिम आलय।२५। 
*
पीपल सब वृक्षों में हूँ मैं, हूँ सुर-ऋषियों में नारद। 
सब गंधर्वों में हूँ चित्ररथ, सिद्धजनों में कपिल मुनि।२६। 
*
उच्चैःश्रवा सभी घोड़ों में, जानो मुझे जलधि उत्पन्न।
ऐरावत गजराजों में मैं, तथा मनुष्यों में राजन।२७। 
*
अस्त्रों में मैं वज्र अजय हूँ, कामधेनु हूँ गायों में। 
प्रजनन में हूँ कामदेव मैं, सब साँपों में वासुकि हूँ।२८। 
*
हूँ अनंत मैं सब नागों में, वरुण देव जल-जीवों में। 
पितर गणों में जान अर्यमा, यम नियमनकर्ताओं में।२९। 
*
हूँ प्रह्लाद राक्षसों में मैं, काल दमनकर्ताओं में। 
पशुओं में मृग इंद्र शेर हूँ, गरुण पंछियों में  हूँ मैं।३०। 
वायु शुद्ध करनेवालों में, राम शस्त्रधारियों में। 
मत्स्य जीव में मगर और मैं, नदियों में जाह्नवी नदी।३१। 
*
सृष्टि आदि हूँ, मध्य-अंत भी, निश्चय ही मैं हे अर्जुन!
हूँ आध्यात्म ज्ञान विद्या में, वाद सभी तर्कों में मैं।३२। 
*
सभी अक्षरों में अकार मैं, हूँ मैं द्वन्द समासों में। 
निश्चय मैं हूँ काल सनातन, सृष्टा मैं ही हूँ ब्रह्मा।३३। 
*
मृत्यु सर्वभक्षी भी हूँ मैं, मैं ही सृष्टि भविष्यों की। 
यश ऐश्वर्य वाक् नारी मैं, याद बुद्धि दृढ़ता धृति भी।३४। 
*
वृहत्साम साम गीतों में, गायत्री छंदों में मैं। 
माहों में हूँ मार्गशीर्ष मैं, ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।३५। 
*
द्युत सभी छलियों में हूँ मैं, तेज जान तेजस्वियों में। 
जय सब व्यवसायों में मैं ही, एसटीवी सत्ववादियों का मैं।३६। 
*
वृष्णिवंश में वासुदेव हूँ, और पांडवों में अर्जुन। 
मुनियों में हूँ व्यासदेव मैं, कवियों में उष्ण कवि हूँ।३७। 
*
दंड दमन साधन में हूँ मैं, नीति विजय आकांक्षी में।
मौन रहस्यों में मैं ही हूँ, ज्ञान ज्ञानियों में हूँ मैं।३८। 
*
जो भी संभव सब भूतों में, बीज वही मैं हूँ अर्जुन। 
है ही नहीं बिना मेरे जो, जीव चर-अचर-जड़ न कहीं।३९। 
*
नहीं अंत है मम विभूति का, जो कि दिव्य है अरिजेता। 
यह सब लेकिन उदाहरणवत, किया विभूति विशद वर्णन।४०। 
*
जो विभूतियुत सत्व श्रीमयी, तेजस्वी निश्चय ही वह। 
जानो तुम मेरे तेजस को, अंशभाग से है उत्पन्न।४१। 
*
यह अनेक विध इसे जानकर, क्या पाएगा रे अर्जुन!
व्याप्त हुआ मैं सकल विश्व में, एक अंश के ही द्वारा।४२। 
***
ॐ 
गीता अध्याय ११ 
यथावत हिंदी काव्यान्तरण
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
अर्जुन बोला 'कृपा करी है, गुह्याध्यात्मिक विषय कहा। 
जो भी तुमने शब्द कहे हैं, उनसे मोह मिटा मेरा।१। 
*
प्रगट-प्रलय निश्चय ही सारे जीवों का मैं जान गया। 
कमलनयन महिमा भी जानी, मैं ने मैंने तुमसे अविनाशी।२। 
*
ऐसे जैसे कहा तुम्हीं ने, खुद को खुद ही परमेश्वर। 
देख सकूँ इच्छा है मेरी, रूप तुम्हारा पुरुषोत्तम।३। 
*
सोच रहे यदि शक्य मुझे है, देख सकूँ मैं हे प्रभुवर!
योगेश्वर! तब मुझे दिखाएँ, अपने रूप संतान को'।४। 
*
प्रभु बोले 'देखो मेरा हे पार्थ! रूप ऐश्वर्यमयी। 
नाना रूप-दिव्य ; रंग नाना, आकृतियाँ अनगिन देखो।५। 
लख आदित्य वसू रुद्रों को, द्व्य अश्विनी; मरुत को भी।
अगिन अदेखे इसके पहले, देख अचरजों को भारत!६। 
*
इसमें एक जगह जग देखो पूरा, सहित चर-अचर सब। 
मेरे तन में गुडाकेश हे!, जो भी अन्य देखना हो।७। 
*
कभी नहीं लेकिन मुझको तुम, देख सकोगे आँखों से। 
दिव्य दे रहा तुम्हें चक्षु मैं, देखो मेरा योगैश्वर्य। ८। 
*
संजय बोला हे राजन! तब, महायोगशाली हरि ने।
दिखलाया अर्जुन को अपना, दिव्य रूप ऐश्वर्य सभी।९। 
*
आनन अगणित नैन अनेकों, दिव्य दृश्य अगणित अद्भुत । 
दिव्य अलौकिक अलंकार बहु, विविध शस्त्र दिव्य अनुपम।१०। 
*
दैवी माला, वसन सुशोभित, दिव्य सुगंधि विलेपित भी।
अचरज पूर्ण प्रकाशयुक्त छवि, सीमाहीन सर्वव्यापी।११। 
*
आसमान में सूर्य सहस्त्रों, एक साथ ही दमक उठें। 
यदि; प्रकाश संभव सदृश्य हो, उस महात्म के तेज सदृश।१२। 
*
वहाँ इकठ्ठा एक जगह में, सारी दुनिया बँट अनेक में। 
देख सका देवाधिदेव के, तन में पांडव अर्जुन तब।१३। 
*
तब आश्चर्यचकित अतिशय हो, हुआ हर्ष विव्हल अर्जुन। 
कर प्रणाम सिर से भगवन को, हाथ जोड़ मंतव्य कहा।१४। 
*
अर्जुन बोला- देव! देखता, सब सुर तन में जीव सभी। 
विधि शिव कमलासनधारी ऋषि, सभी दिव्य सर्पों को भी।१५। 
*
कई भुजाएँ उदर मुख नयन, देख रहा सर्वत्र अनंत।
अंत न मध्य न आदि आपका, दिखा विश्वरूप जगदीश।१६।
है किरीट अरु गदा-तेज भी, चारों ओर प्रकाश किए। 
देख देखने में अति दुष्कर, अग्नि सूर्य द्युति अंत बिना।१७। 
*
अक्षर परम जानने काबिल, तुम्हीं जग के परमाधार।
अव्यय शाश्वत धर्म गोप्ता, आप सनातन मेरा मत।१८। 
*
है अनादि मध्यांत असीमित, अगिन बाहु शशि रवि नैना। 
देखूँ दीप्त अग्नि तव मुख से, रही तेज से विश्व तपा।१९। 
*
नभ से भू तक और बीच में, व्याप्त आपसे दिशा सभी। 
देखें अद्भुत रूप भयानक, तीन लोक भयभीत प्रभो!२०। 
*
वे सुर संघ जा रहे तुममें, भीत कर जोड़ करें स्तवन।
कहकर स्वस्ति महर्षि-सिद्ध गण, करें प्रार्थना स्रोतों से।२१।
*
रुद्र सूर्य वसु साध्य जगाश्विन, मरुत पितर गंधर्व सहित। 
यक्ष असुर सुरसंघ देखते, तुम्हें चकित हो निश्चय सब।२२। 
*
रूप विशाल कई मुख आँखें, महाबाहु! भुज-बाँह-चरण।
कई उदर बहु दंत भयानक, देख लोक विचलित मैं भी।२३। 
*
तुम नभ छू दीपित बहुरंगी, खुला मुँह दीप्त बड़े चक्षु।
देख तुम्हें विचलित मन-आत्मा, धैर्य न प्राप्त शांति बिष्णो।२४। 
*
दाँत कराल; तुम्हारे मुख को, लख कालाग्नि लखी मानो।  
दिशा और आनंद न जानूँ, हों प्रसन्न  स्वामी जानो।२५।
ये धृतराष्ट्र पुत्र सारे ही, सहित वीर राजाओं के। 
भीष्म द्रोण सारथी तनय सह, योद्धा मुख्य हमारे भी।२६। 
*
मुख में तेरे गति से जाते, दाँत कराल भयानक हैं। 
कुछ दाँतों के बीच फँस गए, दीखते चूर्ण हुए सर से।२७। 
*
ज्यों नदियों की अगिन तरंगें, सागर ओर दौड़ती हैं। 
त्यों ही ये सब राजा तेरे, 'ज्वलित मुखों में जाते हैं।२८। 
ज्यों परवाने ज्वलित अग्नि में, घुसें विनाश हेतु गति से।      
त्यों विनाश के लिए घुस रहे, सब तेरे मुख में गति से।२९। 
*
चाट निगलते सभी ओर से, लोगों को जलते मुख से। 
तेजाच्छादित जगत सकल को, किरणें झुलसाती विष्णो।३०। 
*
कहें मुझे हैं कौन उग्र प्रभु, नमन सुरोत्तम खुश होवें। 
चाह जान लूँ आदि तुम्हें मैं, नहीं ज्ञात तेरा उद्देश्य।३१। 
*
प्रभु बोले - हूँ काल लोक का नाशक; नाश प्रवृत्त हुआ। 
बिन तेरे ये कभी न होंगे, जो विपक्ष में सैनिक हैं।३२। 
*
अत: तुम उठो, यश पा, अरि-जय कर समृद्ध राज्य भोगो। 
मेरे द्वारा हत पहले ही, कारण बनो सव्यसाची।३३। 
*
द्रोण भीष्म जयद्रथ व कर्ण अरु, अन्य महान लड़ाके भी।
मैंने पहले ही मारे, तुम मारो मत विचलित होओ।३४। 
*
संजय कहे- बात सुन हरि की, हाथ जोड़ कंपित अर्जुन। 
नमस्कार कर बोला हरि से, गद्गद भीत नमन करके।३५। 
*
अर्जुन कहे- इंद्रि-स्वामी तव, यश-हर्षित जग है अनुरक्त। 
असुर भीत; सब दिशा-भागते, नमन कर रहे सिद्ध पुरुष।३६। 
*
क्यों न नमित हों तुम्हें महात्मा!, श्रेष्ठ ब्रम्ह से आदि सृजक।
हे अनंत देवेश जगाश्रय, अक्षर दिव्य सतासत तुम।३७। 
*
आदि देव तुम पुरुष सनातन, सकल जगत के परमाश्रय।
ज्ञानी ज्ञेय व परम धाम, हो जग में व्याप्त अनन्तरूप।३८। 
*
अनिल यम अनल जल शशांक तुम, प्रजापति व प्रपितामह हो। 
नमन फिर नमन तुम्हें हजारों, फिर फिर नमन; नमन फिर से।३९। 
*
नमन सामने से पीछे से, सब दिश से सर्वस्व तुम्हीं। 
अनंतवीर्य हे अमित विक्रमी, सर्वाच्छादक हो सब कुछ।४०। 
*
                    
 

  


 


   

 

    

संजीव 
९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ 
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