कुल पेज दृश्य

बुधवार, 23 जून 2021

नवगीत प्रश्नावली

नवगीत प्रश्नावली
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब 
ए ५७ राठ नगर, अलवर राजस्थान, ३०१००१, चलभाष ८७१७० ८४००५, ९०८६३ ४८४१८, sanjay4643n @gmail.com 
शोध निदेशक विनोद कुमार 
साक्षात्कार : 
प्रश्नकर्ता : डॉ. संजय यादव, लवली प्रोफेशनल विद्यालय , फगवाड़ा पंजाब
उत्तरदाता : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
प्रश्न १ - अध्ययन और मनन के और भी क्षेत्र थे लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्य का पथ अपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्यक्तित्व से प्रेरित होकर अपने इस ओर रुख किया?

उत्तर - मेरा जन्म मसिजीवी (कलम के बल पर जीविका कमानेवाले) बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में हुआ। मेरी मातुश्री शांति देवी वर्मा स्वयं कवयित्री थीं। पारिवारिक कारणों से उनकी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिला तथापि वे महिलाओं की मंडली में रामचरित पाठ के समय प्रसंगानुसार भक्तिगीत, भजन आदि लिखकर गाया करती थीं। 'राम नाम सुखदाई' शीर्षक से उनके द्वारा लिखित भजनों के दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पिताश्री राजबहादुर वर्मा जेलर और जेल अधीक्षक रहे। उन्हें शेरो-शायरी का शौक था। बचपन से घर में पुस्तकें पढ़ने का वातावरण था। हम ६ भाई-बहिन रोज शाम को आरती और भजन करते थे। मंगलवार और शनिवार को जेल परिसर में बजे मंदिर में शाम को मानस का पाठ होता। हम बच्चे सिपाहियों के साथ बैठकर मानस पढ़ते, कोई समझदार सिपाही चौपाई दोहों के अर्थ बताता। होली आदि त्योहारों पर सिपाहियों की पत्नियों हुए सिपाहियों के दल अलग-अलग बंगले पर आते और झूम-झूमकर फागें, कजरी, बिरहा, आदि लोकगीत सुनाते। हम बच्चों को इसमें विशेष रस मिलता। आजीविका से अभियंता होते हुए भी साहित्य की और रुझान का एक कारण यह परिवेश है।

दूसरा कारण मेरी बड़ी बहिन आशा जिज्जी और मेरे शिक्षक कवि द्वय सुरेश उपाध्याय व सुरेंद्र कुमार मेहता हैं। शिक्षा आरंभ होने पर स्वतंत्र दिवस, गणतंत्र पर्वों पर जिज्जी मेरे लिए भाषण लिखतीं या गीत याद करवातीं और उन्हें प्रस्तुत कर मुझे पुरस्कार मिलता। सुरेश उपाध्याय जी तथा सुरेंद्र कुमार मेहता ७ वीं से १० वीं तक सेठ नन्हेंलाल घासीराम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय होशंगाबाद में मेरे हिंदी शिक्षक थे। इन दोनों ने हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अभिरुचि विकसित करने में प्रेरक का कार्य किया।

प्रश्न २ - साहित्य में अन्य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्यों है?

उत्तर - केवल नवगीत मेरी प्रतिनिधि विधा नहीं है। प्रभु चित्रगुप्त और माँ शारदा की कृपा से मैं गद्य-पद्य की सभी मुख्य विधाओं और तकनीकी लेख आदि हिंदी में लिख पाता हूँ। मैं पद्य में गीत ५०० से अधिक, नवगीत ४०० से अधिक, हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) ५०० से अधिक, मुकताक लगभग १०००, क्षणिका, हाइकु लगभग ६००, माहिया आदि, गद्य में लघुकथा ३०० से अधिक, लेख, समीक्षा ४०० से अधिक, समालोचना, व्यंग्य लेख ५० से अधिक, तकनीकी लेख लगभग ५०, भूमिका ७५ आदि लिख चुका हूँ। गूगल सर्च पर मेरे नाम के साथ १ लाख ८५ हजार प्रविष्टियाँ दर्ज हैं। मेरे ब्लॉग दिव्य नर्मदा, मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजों) तथा वाट्स ऐप समूहों पर २०,००० से अधिक मेरी रचनाएँ हैं। अन्य विधाओं की तरह ही गीत-नवगीत मेरी प्रमुख सृजन विधाओं में से एक है।

प्रश्न ३ - जब गीत स्वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं लिखा जा सकता तो नवगीत नामकरण की क्या विवशता थी? इसे गीत के रूप में ही रहने दिया जाता।

उत्तर - गीत वृक्ष की एक शाखा है नवगीत। लोकगीत, बालगीत, आव्हान गीत, प्रयाण गीत, क्रांति गीत, ऋतु गीत, पर्व गीत, अनुगीत, प्रगीत, अगीत आदि अन्य अनेक शाखाएँ भी हैं। इन शाखाओं पर विविध रसों के गीत (श्रृंगार गीत, भक्ति गीत, लोरी आदि) कुसुम गुच्छ की तरह हैं। मेरी एक रचना का मुखड़ा है 'गीत और नवगीत / नहीं हैं भारत-पाकिस्तान'।

कथ्य के आधार पर नवगीत को विडंबना गीत, वैषम्य गीत, व्यथा गीत बनाने का आग्रह प्रबल रहा है किन्तु बहुसंखयक गीतकार नवगीत को इस रूप में नहीं देखते। युवा नवगीतकारों ने नवगीत के शिल्प में सभी रसों को स्थान देने के सफल प्रयास किया है। कुमार रवींद्र का 'अप्प दीपो भव' बुद्ध पर नवगीतीय प्रबंध कृति है। यह अपनी मिसाल आप है।

गीत की जानकारी के बिना तो बाल गीत या अन्य प्रकार के गीत भी नहीं लिखे जा सकते। गीत तो सभी हैं पर किस प्रकार के गीत हैं? इसका उत्तर देने के लिए वर्गीकरण की आवश्यकता है। यह नामकरण नहीं वर्गीकरण है। गीत किसी भी वर्ग का हो अंतत: गीत ही है। नवगीत को पृथक विधा मानने का दुराग्रह कुछ मठाधीशों का है जो यह सोचते हैं कि इस तरह वे नवगीत के इतिहास में अमर हो सकेंगे पर उन्हें गीत के इतिहास में गीत-द्रोहियों के रूप में लांछना ही मिलेगी।

प्रश्न ४ - क्या आपमें जन्म से लेकर आज तक अपने शिल्प और कथ्य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं? यदि परिवर्तन आए हैं तो वे क्या हैं?

उत्तर - मुझमें क्या हर रचनाकार में समय-समय पर परिवर्तन आते हैं। चेतन पल-पल बदलता है, जो न बदले वह जड़ होता है। साहित्यकार की चेतना प्रबल होती है। गीतकार तो सर्वाधिक संवेदनशील और चेतना संपन्न होता है

मैं आरंभ में छंदरहित कवितायेँ अधिक लिखता था। तब छंद की समझ थी नहीं, वरिष्ठ जन कुछ बताने या सिखाने के स्थान पर हतोत्साहित करते थे। शायद अपना स्पर्धी न बनाकर, कमजोर रखकर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखना उनका उद्देश्य था। छात्र जीवन से ही स्वाध्याय मेरा व्यसन रहा है। निरंतर पढ़ने से क्रमशः शब्द भंडार, भाषा-ज्ञान, लय की समझ, मात्रा व गण आदि की जानकारी मिलती रही। वरिष्ठों से मिली उपेक्षा ने एक जिद भी पैदा कर दी कि अपनी राह आप बनाना है। अभियांत्रिकी की पढ़ाई और नौकरी में साहित्य को उपेक्षित होते ही देखा। विभाग और साथी साहित्य से जुड़ाव होने के कारण मुझे विश्वसनीय नहीं मानते थे। उच्चाधिकारी संकेत में एक दूसरे से कहते 'मेहनती तो है, काम जानता भी है पर काम का नहीं है।' उनके लिए काम का वह होता था जो कार्य की गुणवत्ता पर ऊपरी कमाई को वरीयता दे। साहित्य से जुड़े नैतिक मूल्यों के कारण, साहित्यकार की समझ कुछ अधिक होने के कारण वह काम का कैसे रहता? मुझे कार्यस्थलीयों के स्थान पर कार्यालय में संलग्न रखा जाता। मैं इसे वरदान मानकर अधिक से अधिक किताबें पढ़ता। हिंदी प्रचारक संघ वाराणसी और राजकमल प्रकाशन की घरेलू पुस्तकालय योजना से कई वर्षों सैंकड़ों किताबें खरीदी और पढ़ीं। दो-तीन स्थानीय पुस्तकालयों से किताबें लेकर पढ़ता रहा। मेरे एक गीत का मुखड़ा है 'पहले एक पसेरी पढ़ / फिर तोला लिख।'

अभियंता संघ से जुड़ने पर मेरी कवि होने की ख्याति (?) के कारण मुझे संघ पत्रिका का संपादक बना दिया गया। अब सम्पादकीय लिखने, तकनीकी लेख लिखने, रिपोर्ताज लिखने, व्यंग्य लेख लिखने की और रुझान हुआ। फिर लघुकथा, पुस्तक समीक्षा, संस्मरण, साक्षात्कार आदि भी लिखे। सामाजिक पत्रिका चित्राशीष का संपादन-प्रकाशन किया तो सामाजिक समस्याओं पर जी भरकर लिखा। पर्यटन वृतांत भी लिखे। आवश्यकता होने पर अंग्रेजी में कविता, लेख आदि भी लिखे। धीरे-धीरे मेरा झुकाव छंद की और हुआ। गीत और ग़ज़ल में प्रयुक्त छंदों को जानने के लिए पिंगल ग्रंथों को पढ़ा। छंद लिखे अंतरजाल आने पर सबसे पहले वर्षों तक छंद लिखना सिखाया। ५०० से अधिक नए छंद बनाए। तकनीकी लेखन के लिए कई नए शब्द गढ़े। मोबाइल के लिए चलभाष, चैटबॉक्स के लिए दूरलेख मञ्जूषा, फेसबुक के लिए मुखपोथी जैसे शताधिक शब्द गढ़े। शिल्प और कथ्य मेरे कार्यानुभवों के अनुसार बदलता रहा है। मेरी सैंकड़ों रचनाएँ निर्माण स्थलियों पर लिखी गई हैं जिनमें स्थानों के, वहाँ की वनस्पतियों के, श्रमिकों के नाम आए हैं।

विधागत परिवर्तन कविता से, गीत, दोहा, लेख, संस्मरण, ग़ज़ल, लघुकथा, नवगीत, समीक्षा आदि के रूप में हुए। तदनुसार शिल्प और शैली में परिवर्तन आते गए। कथ्य भी सतत बदलता रहा है। अतीत के प्रति अंधश्रृद्धा, राष्ट्र गौरव से यथार्थ की और उन्मुख होने पर लिजलिजी भावुकता का स्थान सत्यपरकता ने लिया। सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक विद्रूपताओं से जैसे-जैसे और जब-जब साक्षात हुआ, उनकी अभिव्यक्ति ने कथ्य को भी बदला है। इस कोरोना काल में प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे कदाचार, भ्रष्टाचार, मौका परस्ती, धन लोलुपता, निर्ममता और गिरोहबंदी ने हर सीमा तोड़ दी है। साहित्यकार को इन पर आघात करना ही होगा। मेरी नई रचनाओं में यह पीड़ा मुखर हो रही है।

प्रश्न ५ - आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्या हैं? क्या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्वर दे पा रहा है, जैसे हिंदी के अन्य समकालीन काव्य रूप दे रहे हैं?

उत्तर - समय और परिस्थितिगत चुनौतियाँ साहित्य की हर विधा के रचनाकारों के सामने हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि चुनौती एक विधा के रचनाकारों के सामने हों, अन्य के सामने न हों। 
चुनौतियों को तीन वर्गों में रख सकते हैं- १. विधा के सामने चुनौतियाँ और २. रचनाकार के सामने चुनौतियाँ, ३. विधागत चुनौतियाँ।
नवगीत विधा के सामने चुनौती गंभीर है। नवगीत का उद्भव लगभग ८ दशक पूर्व का माना जा रहा है। उद्भव काल में दिए गए लक्षणों और मानकों को आज भी आदर्श बताया जा रहा है। इससे नवता कैसे होगी? इस कारण नवगीत में कथ्य और शिल्प का दुहराव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। नवगीत में ताजगी का अभाव और पिष्टपेषण की प्रवृत्ति चिंता का कारण है। इस चुनौती को स्वीकारते हुए मुझ सहित अनेक नवगीतकारों ने नवगीत को विडंबना, विसंगति, बिखराव, टकराव आदि के पिंजरे से निकालकर सभी रसों को समाविष्ट करते हुए नवगीत रचे हैं किन्तु हठधर्मी और संकुचित दृष्टि का परिचय देते हुए उनका स्वागत न कर अवहेलना का प्रयास किया गया तथापि कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर नवता को प्रधानता देने का कार्य निरंतर प्रगति पर है। 

नवगीतकार के सामने सामान्य चुनौती उसका लिखा हुआ समाज और शासन द्वारा न पढ़े-समझे जाने की है। लिखना और छपना बढ़ता जा रहा है किन्तु गंभीरतापूर्वक पढ़ना-सुनना और प्रतिक्रिया देना घटता जा रहा है। नवगीतकार के सामने व्यक्तिगत चुनौती अनुभूत की अनुभूति को संचित कर अभिव्यक्त कर पाने की है। इस राह पर सम्यक शब्द भंडार, भाषिक संस्कार, निजी कहन और मौलिक कथन की खोज और उसे स्थापित कर पाना सबसे कठिन चुनौती है। 

विधागत चुनौतियों को देखें तो गीत की गणना सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में की जाती है। नवगीत गीत का ही एक प्रकार है। स्वाभाविक रूप से नवगीत को गीत की लोकप्रियता विरासत में मिली है। विधा के रूप में गीत-नवगीत के सामने ग़ज़ल की चुनौती है। ग़ज़ल मुक्तक का विस्तार और गीत का ही एक अन्य प्रकार है। गीत की कहन मौलिक, अनूठी और चित्ताकर्षक होती है जिसे  'ग़ज़लियत'  कहा जाता है। गीत में अर्थ गांभीर्य, बिम्ब वैचित्र्य और आलंकारिकता का आकर्षण होता है। आजकल गीतकार ग़ज़ल और गज़लकार गीत लिखने लगे हैं जिस कारण दोनों में एक दूसरे के गुण मिलते हैं।  

प्रश्न ६ - युगबोध के विविध आयाम क्या हैं? क्या युगबोध की संकल्पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है यह विधा?

उत्तर - आप जिन आयामों की बात कर रहे हैं उनका उल्लेख करें तो उस संबंध में उत्तर दूँ। मेरी समझ में युग बोधात्मकता गीत का अविच्छिन्न लक्षण है। गीत जिस देश-काल-परिस्थिति से संबद्ध होता है, उसी की बात करता है। कथ्य की माँग के अनुसार युगबोध न हो तो गीत अप्रासंगिक हो जाएगा। 

प्रश्न ७ - आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनाएँ निहित हैं?

उत्तर - युगबोध में अन्तर्निहित संभावनाओं का आकलन, प्रस्तुति तथा प्रभाव रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है। युगबोध के अंतर्गत गतागत का मूल्यांकन, तुलना, शुभाशुभ, विसंगति, विडंबना, साहचर्य, सद्भाव, भविष्य आदि विविध संभावनाएँ समेटी जा सकती हैं। युगबोध समसामयिक परिस्थितियों के ज्ञान की अवधारणा है। समसामयिक परिस्थितियों में किसी काल की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, और आर्थिक स्थितियाँ सम्मिलित की जाती हैं। गीति रचनाओं में युगबोध की अभिव्यक्ति कथ्य चयन के साथ ही शिल्पगत प्रयोग के रूप में प्रकट होती है। युगबोधजनित मानसिकता का प्रस्फुटन गीतों के कथ्य व शिल्प में शब्दित होता है। आधुनिक गीत काव्य के तीन तत्व मिथक, प्रतीक और बिंब समसामयिक परिस्थितियों के यथार्थ पर आधारित हैं। ये आधार निश्चय ही आधुनिक युगबोध से प्रेरित हैं। आधुनिक युगबोध गीत / नवगीत में सर्वत्र शिल्पित होता है। 

प्रश्न ८ - वर्तमान सदी में २१ वीं सदी के नवगीतों को आप २० वीं सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्न पाते हैं?

उत्तर - २० वीं सदी के नवगीतों में भाषिक प्रांजलता, भावनात्मक सघनता, शिल्पिक निखार तथा कथ्यात्मक मौलिकता निखार पर थी। संवत: इसलिए कि नवगीत की पहचान स्थापित करने के लिए और नवगीतकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने के लिए नवगीतकार सजग और सतर्क थे। २१ वीं सदी के नवगीतों में विषयों का दुहराव, कथ्य का बासीपन, विषमताओं का अतिरेकी वर्णन, अस्वाभाविक राजनैतिक वैचारिक प्रतिबद्धता भी नवगीत के स्वाभाविक विकास, सहजता और सारल्य में बाधक है। आजकल नवगीतों में प्रचारात्मकता अधिक है, संवेदनात्मकता कम।     

प्रश्न ९ - हिंदी कविता की मुख्य धारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्या हैं?

उत्तर - कविता शब्द का उपयोग किस अर्थ में कर रहे हैं? मूलत: कविता का अर्थ पद्य (पोएट्री) है किंतु सामान्यत: छंदरहित काव्यरचनाओं को कविता कहा जाता है। मैं कविता को मूल अर्थ में लेते हुए कहना चाहता हूँ कि कविता गीतमय ही होती है। छंदानुसार गति-यति, लय आदि परिवर्तित होते हैं किन्तु गीति तत्व हमेशा बना रहता है। गीत-नवगीत की उपस्थिति रस तथा भाव की संवाहक होकर जन-मन को रसानंद और आत्मानंद पाने का अवसर सुलभ कराती है। इसीलिए लोक पर्वों, उत्सवों, विशिष्ट दिवसों पर गीत का आकंठ रसपान करता है। लोकगीत नवगीत का भी पूर्वज है। नवगीत के टटकापन, लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, विशिष्ट कहाँ जैसे लक्षण लोकगीतों से ही आते हैं।    
  
प्रश्न १०-  नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने सामने क्यों नहीं आ पा रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं कर पा रहा है?

उत्तर - गीत का लोकधर्मी रूप लोकगीत है। लोकगीत की जन जागरण से जुड़ी भावमुद्रा आह्वान गीत, जनगीत, प्रयाणगीत आदि हैं।  गीत का तथाकथित नवगीती रूप  वैचारिक प्रतिबद्ध  मठाधीशों  की दिमागी उपज है जिसमें सामाजिक टकराव-बिखराव जनित नकारात्मकता के अलावा जीवन से संबद्ध अन्य किसी रस या भाव के लिए स्थान ही नहीं है। तो तब हो जब जन के जीवन से जुडी सब भावनाएँ-कामनाएँ  नवगीत में समाहित और प्रतिबिंबित हो। कई नवगीतकार इस तरह का सृजन कर लोकप्रिय हो रहे हैं।  नवगीतों में पारंपरिक छंदों का प्रयोग, लोकधुनों का प्रयोग, लोकप्रतीकों का प्रयोग  है। मेरे दोनों गीत-नवगीत संग्रहों ''काल है संक्रान्ति का'' तथा ''सड़क पर'' में ऐसे कुछ नवगीत हैं। कुमार रवींद्र ने ''अप्प दीपो भव'' में अभिनव प्रयोग किये हैं। बुद्धिनाथ जी मिश्र का नवगीत 'एक बार जाल फिर फेंक रे मछेरे / जाने किस मछली में फँसने की चाह हो'', विनोद निगम का ''चलो चाय पी जाए'' जैसे नवगीत लोक में खूब सराहे जाते हैं। 

लोकप्रियता के लिए प्रस्तुतकर्ता की प्रस्तुति में लोकरंजकता होना भी आवश्यक है। प्रस्तुति की दृष्टि से गीतकार चार तरह के होते हैं। पहले जिनकी प्रस्तुति और कथ्य दोनों श्रेष्ठ हों जैसे हरिवंश राय बच्चन, दूसरे जिनकी प्रस्तुति अपेक्षाकृत कम आकर्षक और रचना श्रेष्ठ हो जैसे मैथिलीशरण गुप्त जी, तीसरे जिनकी प्रस्तुति आकर्षक पर रचना सामान्य हो तथा चौथे जिनकी प्रस्तुति और रचना दोनों सामान्य हों। सकल साहित्य विशेषकर गीत से जनमानस के दूर  कारण  के गीतकारों का बाहुल्य होना है। इस पारिस्थितिक चक्रव्यूह को दूरदर्शनी हास्य सम्मेलनों और नयनाभिराम रूप सज्जा को प्रधानता देती कवयित्रियों ने अभेद्य प्राय बना  दिया है।  
 
प्रश्न ११ - क्या नवगीत एक सीमित बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है?

उत्तर - दुर्भाग्य से यह बहुत हद तक सच है। नवगीत को तथाकथित बौद्धिक और राजनैतिक विचारधाराओं से प्रतिबद्ध रचनाकारों की कारा से मुक्त कराने की कोशिशें जारी हैं। धुर वामपंथी, धुर दक्षिण पंथी, धुर स्त्री विमर्शवादी, ध्रुव दलितपंथी खेमों में बँटकर गीत-नवगीत ही नहीं पूरे साहित्य की दुर्दशा हुई है। पुरस्कार और अलंकरण भी इसी आधार पर दिए जा रहे हैं।  

प्रश्न १२ - हिंदी कविता की मुख्य धारा की आलोचना नवगीत का मूल्याङ्कन करने से क्यों बचती रही?

उत्तर - हिंदी साहित्य में लाला भगवानदीन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि की तरह  समीक्षक-समालोचक है ही नहीं। रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक अधिकांश समालोचक साम्यवादी विचारधारा के रहे हैं। इसके बाद प्राध्यापकों ने समीक्षक बनकर निजी लाभों के लिए ''जैसी सरकार वैसी समीक्षा'' का सूत्र अपना लिया।  जिस समीक्षक को गीति काव्य की लोकधर्मिता की समझ ही नहीं है, वह निष्पक्ष और स्तरीय समीक्षा कैसे करेगा? आजकल समीक्षा के नाम पर संकलनों का सूचनापरक  आलेख पत्र-पत्रिकाओं  में उपलब्ध स्थान के अनुसार लिखी जा रही हैं हाशिये पर छापकर उपकृत है। निष्पक्ष समीक्षक को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तो कोई क्यों इसमें सिर खपाएगा?

प्रश्न १३ - समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएँ क्यों खींची गई हैं? क्या उसे आलोचना जगत से बहिष्कृत किया गया?

उत्तर - अघोषित रूप से ऐसी ही स्थिति है। वामपंथी समीक्षकों ने तथाकथित प्रगतिशील कविता-कहानी की समीक्षा के पोथे लिख डाले किन्तु साहित्य की शेष विधाओं को दरकिनार कर दिया। गीत / नवगीत भी इस प्रवृत्ति का शिकार हुए। 'कोढ़ में खाज' यह कि नवगीत, अपने मूल गीत  को नीचा और खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करने की मृगतृष्णा में समाज से जुड़ नहीं सका। 

प्रश्न १४ - हिंदी साहित्य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है परन्तु नवगीत पर केंद्रित पत्रिकाओं का अभाव क्यों है? 

उत्तर - जब गीत-नवगीत के पाठक-श्रोता न्यून हैं तो पत्रिका स्थान क्यों देंगी? विधा आधारित पत्रिका के ग्राहक ही कहाँ हैं? पत्रिकाएँ  विज्ञापनों और राजनैतिक हित साधन के लिए निकाली जा रही हैं। शिक्षा के प्रसार और टंकण तकनीक की सुलभता के कारण औसत और निम्न स्तरीय इतनी अधिक मात्रा में लिखा, छपाया  और निशुल्क बाँटा जा रहा है कि साहित्य खरीदने की प्रवृत्ति समाप्तप्राय है। सरकारी खरीद में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। पत्रिका निकालने का मेरा कटु अनुभव है, लागत ही नहीं निकलती। इसलिए नवगीत ही क्या, अन्य साहित्य विधाओं में भी पत्रिकाओं का अभाव है। नवगीत स्वतंत्र विधा है ही नहीं, तो केवल इस पर पत्रिका कैसे हो?

प्रश्न १५ - नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्या क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर - नवगीत अर्थात गीत की समालोचना हो रही है, होती है पर उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। समीक्षा कर्म दोधारी तलवार की तरह है। सत्य समीक्षा करो तो रचनाकार नाराज। विस्तृत समीक्षा करो तो पत्रिकाओं में स्थानाभाव। व्यवहारिकता से समझौता करो और रचनाकार को प्रिय, संपादक के अनुसार समीक्षा करो तो समीक्षा कर्म की महत्ता नष्ट होती है। समीक्षा कब, कहाँ, कैसे और कैसी करनी है यह जानना भी आवश्यक है। समीक्षा शास्त्र का अध्ययन किए बिना, प्रशंसात्मक पुस्तक परिचय को ही समीक्षा के नाम पर छपा जाता है जो पूरी तरह निरर्थक है। साहित्य-समीक्षा को समृद्ध करने के लिए (अ) समीक्षकों को समीक्षा शास्त्र का ज्ञान, (आ)रचनाकार में समीक्षक के प्रति आदरभाव और सहिष्णुता, (इ) संपादक में समीक्षा को प्राथमिकता और पर्याप्त स्थान देने की मनोवृत्ति तथा (ई) पाठक में समालोचना को पढ़कर साहित्य खरीदने-पढ़ने की दृष्टि आवश्यक है।    

प्रश्न १६ - नवगीत परंपरा को प्रतिष्ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

उत्तर - साहित्य की सभी विधाओं को जन्मने तथा स्वीकार कर प्रतिष्ठा देने का श्रेय और सामर्थ्य केवल और केवल ''लोक'' में है। किसी एक व्यक्ति की सामर्थ्य ही नहीं है कि वह सत्य-शिव-सुंदर' को अन्तर्निहित कर उसका पर्याय बननेवाले साहित्य या उसकी किसी विधा को प्रतिष्ठा दिला सके, जो ऐसे कहता है वह खुद को और खुद पर भरोसा करनेवाले को ठगता है। 

प्रश्न १७ - अपनी ६ दशकों की यात्रा में नवगीत को महिला साहित्यकारों का साथ क्यों नहीं मिल पाया है?

साहित्य की हर विधा में महिला रचनाकार पर्याप्त हैं। गीत (नवगीत सम्मिलित) विधा में माया गोविन्द, महाश्वेता चतुर्वेदी, मनोरमा तिवारी, पूर्णिमा बर्मन, शांति सुमन, नीलमणि दुबे, आदर्शिनी श्रीवास्तव, अंबर प्रियदर्शी, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, शांति सुमन, गरिमा सक्सेना, छाया सक्सेना, आभा सक्सेना, संध्या सिंह, शशि पुरवार, भावना सक्सेना, संगीता सक्सेना, कांति शुक्ला, सरिता शर्मा, सीमा अग्रवाल, विनीता श्रीवास्तव, सुनीता सिंह, सुनीता मैत्रेयी, प्रेमलता नीलम, अंजना वर्मा, अरुणा दुबे,  इंदिरा मोहन, मिथलेश बड़गैया, उषा यादव, कल्पना रामानी, कल्पना मनोरमा, कीर्ति काले, गीता पंडित, पूनम गुजरानी, शैल रस्तोगी, भावना तिवारी, मंजुलता श्रीवास्तव, मधु शुक्ला, ममता बाजपेई, मालिनी गौतम, मिथिलेश अकेला, मिथिलेश दीक्षित, मीना शुक्ला, यशोधरा यादव, यशोधरा राठोड़, रजनी मोरवाल, राजकुमारी रश्मि, रेखा लोढ़ा, पुनीता भारद्वाज, सरला वर्मा, वर्षा रश्मि, वर्षा सिंह, शीला पांडेय, शैल रस्तोगी,  सुशीला जोशी, शुचि भावी, रीता सिवानी, अनीता सिंह, आशा देशमुख, इंदिरा सिंह, नेहा वैद, नीलम श्रीवास्तव, निशा कोठरी, निर्मला जोशी, प्राची सिंह, प्रीता प्रिय, मधु शुक्ला, रंजना गुप्ता, शरद सिंह आदि सतत क्रियाशील तथा चर्चित हैं। 

गीत के क्षेत्र में प्रवासी महिला गीतकारों में शार्दूला नौगजा, मानोशी चटर्जी, कविता वाचक्नवी, शशि पाधा, ममता सैनी, तोशी अमृता, उषा वर्मा, उषा राजे सक्सेना आदि उल्लेखनीय हैं। 

प्रश्न १८ - २१वीं सदी  में युगबोध किस प्रकार व्यक्त हो रहा है?

उत्तर - युग अर्थात कालखंड और बोध अर्थात ज्ञान होना। किसी कालखंड विशेष की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक, यांत्रिक आदि क्षेत्रों का ज्ञान उस समय का युगबोध कहा जाता है। गीत में युगबोध कथ्य में अन्तर्निहित होता है। २१ वीं सदी द्रुत वैज्ञानिक और यांत्रिक परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक बिखराव का समय है। संयुक्त परिवार क्रमश: समाप्त हो रहे हैं। ग्रामों का शहरीकरण हो रहा है। नैतिक मूल्यों और मान्यताओं का क्षरण हो रहा है। संपन्नता और समृद्धि की वृद्धि के साथ-साथ सुख-सौहार्द्र-सहिष्णुता का ह्रास हो रहा है। स्त्रीपुरुष संबंध मन से कम, तन से अधिक जुड़ रहे हैं। 'लिव इन' और 'समलैंगिकता' ने पारंपरिक मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। 'लव जिहाद' तथा 'किराए की कोख' ने धार्मिक-नैतिक, सामाजिक-विधिक मूल्यों को चुनौती दी है। गीत में मिथक, बिम्ब, प्रतीक भी युगबोध की अभिव्यक्ति करते हैं।      

प्रश्न १९ - आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्व यथा वैश्वीकरण, उत्तर आधुनिकतावाद, बाज़ारवाद, महामारी, राष्ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं?

उत्तर - हिंदी गीतकारों में अंतर्राष्ट्रीय चेतना की कमी है। अधिकांश गीत-नवगीत भारत के ग्राम-शहरों, स्त्री-पुरुषों, नेताओं-धनपतियों, लोक-तंत्र के टकराव पर केंद्रित हैं। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' ने आधुनिक बाज़ारवाद और माल संस्कृति पर तीखे प्रहार किये हैं। मेरे कुछ गीत-नवगीत इसरो और अन्य यांत्रिक-वैज्ञानिक अभियानों को केंद्र में लाते हैं। कोरोना को लेकर मुखपोथी पृष्ठों (फेसबुक पेजेस) पर अनेक गीत-नवगीत हैं। वॉट्सऐप समूह और चिट्ठे (ब्लॉग) पर भी इन आयामों को स्पर्श करते गीत-नवगीत मिलते हैं किंतु हिंदी के प्राध्यापक अभी यहाँ तक नहीं पहुँच सके हैं। प्राध्यापकों को वाकिताबों के साथ-साथ सामाजिक विमर्श के इन नए पटलों पर पहुँचकर इनसे जुड़ना होगा। कोरोनाजनित तालाबंदी (लोकडाउन) ने इसके पूर्व अंतर्जाल से दूर रहनेवालों को भी अंतरजाल से जुड़ने के लिए विवश कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है।   

प्रश्न २० - दलित, स्त्री, आदिवासी आदि विमर्शों में नवगीत का क्या स्थान है? क्या यह वर्तमान विमर्शों को व्यक्त कर पा रहा है?

उत्तर - यह प्रश्न दोमुखी है। १. विविध विमर्शों में नवगीत का स्थान और २. नवगीत में विविध विमर्शों का स्थान। दलित, स्त्री, आदिवासी आदि से जुड़े तथाकथित विमर्श केवल वाग्विलास है। इस साहित्य का पुस्तकालयों और गोष्ठियों के बाहर शेष समाज से जुड़ाव ही नहीं है। जिन्हें केंद्र बनाकर इन्हें लिखा जाता है, उनसे रचनाकार का कोई संपर्क नहीं होता। आज अख़बार या दूरदर्शन पर खबर आई, कल उसे केंद्र बनाकर सैंकड़ों रचनाएँ तैरने लगती हैं इनके रचनाकार को पीड़ितों या मुद्दे से कुछ लेना-देना नहीं होता। एक स्त्री विमर्श में मैं भी आमंत्रित था। बहुओं पर हो रहे अत्याचारों पर धाराप्रवाह भाषणों के बाद मुख्य वक्ता के नाते मुझे बोलना था। जब मैंने पूछा की पूर्ववक्ताओं में से जिनके बेटे अविवाहित हैं क्या वे बिना दहेज़ के पुत्रवधुएँ स्वीकार करेंगी?, जिनके बेटे विधुर हैं क्या वे विधवाओं से विवाह मंजूर करेंगी?  सब यहाँ वहां बगलें झाँकने लगीं। इन विमर्शों का समाज में कोई स्थान नहीं है। विमर्शों में नवगीत का स्थान केवल रस परिवर्तन तक सीमित है। नवगीत में इन विमर्शों का महत्त्व शून्य है। इन्हें सुनकर कोी नवगीत नहीं लिखता किन्तु ये मुद्दे समाचार के रूप में रचनाकार तक पहुँचते हैं और रचनाकार बिना किसी संवेदना या आत्मानुभूति के केवल बुद्धि की दम पर कागज काले करने लगता है। 

प्रश्न २१ - वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्य कैसा प्रतीत होता है?

उत्तर - नवगीतों के मठाधीशों में नवता ही नहीं है। विषय पुनरावृत्ति के कारण आकर्षण खो बैठे हैं। कथ्य में अनुभूत सत्य न होने के कारण मर्मस्पर्शिता नहीं है। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, यायावर, निर्मल शुक्ल और मैंने जड़ता को तोड़कर नवगीत में नवत्व रोपने का प्रयास किया है। आंचलिक बोलिओं में प्रदीप शुक्ल का प्रयास महत्वपूर्ण है। नवगीत में हर रस का समावेश हो तो ताजा हवा की अनुभूति होगी। नवगीत में नए रुझान लोक धुनों (फाग, आल्हा, राई, रास आदि) के प्रयोग, यांत्रिक-वैज्ञानिक प्रगति जनित शुभाशुभ प्रभावों, नव बिम्ब-प्रतीकों, नवीन शब्द-प्रयोग, अछूते विषयों के रूप में यत्र-तत्र दृष्टव्य हैं। इस कारण उज्जवल भविष्य के प्रति आशान्वित हूँ।     

प्रश्न २२ - अनेक महाविद्यालयों / विश्व विद्यालयों में नवगीतों पर हुए शोधों/हो रहे शोध कार्य को आप नवगीत के विकास में कितना अहम मानते हैं?

उत्तर - गीत ही क्या सभी साहित्यिक शोधों का महत्व शोधार्थी को नौकरी मिलने और शोध ग्रंथ के बिकने से प्रकाशक का महल तनने तक सीमित है। इन शोध ग्रंथों का मक़बरा सरकारी पुस्तकालय हैं, जहाँ इनके कफ़न-दफन की पूरी व्यवस्था है। न तो ये शोधग्रंथ नवगीतकार तक पहुंचते हैं, न ही वह इन्हें खोजकर पढ़ता और तब इनमें की गई विवेचना को समझकर लिखता है।   

प्रश्न २३ - नवगीतों पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?

उत्तर - शोधार्थी येन-केन-प्रकारेण शोध पूर्णकर सबसे पहले नौकरी का जुगाड़ करें। तब शोधग्रंथ छपाकर सक्रिय नवगीतकारों को दें ताकि वे पढ़कर, शोध में व्यक्त विचारों से अवगत हो सकें। बेहतर है कि रचनाकारों को महाविद्यालयों / विश्वविद्यालयों में आमंत्रित कर विद्यार्थियों / शोधार्थियों के साथ विचार विनिमय हो ताकि दोनों पक्ष एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझ सकें। इस अनुष्ठान में राजनीतिक या प्रतिबद्ध विचारों से बचना होगा। 
आपका धन्यवाद। 
***  

दोहा दो दुम का

उषा सूर्य कर गह कहे, जगो हो गई भोर।
आलस तजकर थाम लो, श्रम-कोशिश की डोर।।
सफलता तभी मिलेगी
कहानी नई बनेगी

मंगलवार, 22 जून 2021

मैं भारत हूँ आमंत्रण

मैं भारत हूँ
आमंत्रण
भारत की स्वतंत्रता की ७५ वी वर्षगांठ  के अवसर पर "मैं भारत हूँ" पर केंद्रित ७५ काव्य रचनाओं का  संकलन अंतर्जाल पर प्रकाशित किया जाना है। इच्छुक कवि / कवयित्री दो काव्य रचनाएँ, चित्र, सूक्ष्म परिचय (नाम, जन्मतिथि, शिक्षा, माता-पिता, शिक्षा, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष आदि) salil.sanjiv@gmail.com पर या ९४२५१ ८३२४४ पर अविलंब भेजें।
*
रचनाएँ भेजने के लिए सादर आभार 
सर्व श्रीवास्तव / श्रीमती
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

विनीता श्रीवास्तव 

०१ मदन श्रीवास्तव 
०२ संतोष शुक्ला
०३ उदयभानु तिवारी 'मधुकर'
०४ इंद्रबहादुर श्रीवास्तव 
०५ मुकुल तिवारी
०६ मनोहर चौबे 'आकाश'
०७ सुरेश कुशवाहा 'तन्मय'
०८ अनिल बाजपेई 
०९ संतोष नेमा
१० राजलक्ष्मी शिवहरे
११ बसंत शर्मा
१२ गीता गीत
१३ भारती नरेश पाराशर 
१४ सुरेंद्र सिंह पवार 
१५ जयप्रकाश श्रीवास्तव 
१६ अर्चना गोस्वामी
१७
१८
१९
२०
***
अन्य स्थान
०१ धर्मेंद्र तिजोरीवाले 'आजाद' तेंदूखेड़ा
०२ श्यामल सिन्हा गुड़गाँव 
०३ दीपिका माहेश्वरी नजीबाबाद बिजनौर  
०४ सरला वर्मा भोपाल 
०५ अनिल अनवर जोधपुर 
०६ योगेंद्रनाथ शुक्ल इंदौर
०७ नीलमणि दुबे शहडोल
०८ अनुगूँजा सिन्हा मुजफ्फरपुर 
०९ नरेंद्र भूषण लखनऊ 
१० गीता चौबे 'गूँज' राँची
११ अशोक गिरि
१२ श्रीधरप्रसाद द्विवेदी पलामू
१३ देवकांत मिश्र भागलपुर 
१४ पद्मावती मुंबई 
१५ सुशीला जोशी 'विद्योत्तमा'
१६ संजय वर्मा 'दृष्टि' धार  
१७ रमेश श्रीवास्तव 'चातक' सिवनी 
१८ निधि जैन इंदौर 
१९ दीप्ति गुप्ता पुणे 
२० बबीता चौबे 'शक्ति' दमोह        
२१ हिमांशु कुमार सिंह दुआ 
२२ नूतन गर्ग दिल्ली 
२३ रंजना जैन दिल्ली 
२४ 
२५
२६
२७
२८
२९
३०
***
प्रवासी रचनाकार 
०१ सूर्य कुमार सुतार 'सूर्या' दार ए सलाम तंजानिया

            आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
                 संयोजक - संपादक

घनश्याम छंद

छंद सलिला :
घनश्याम छंद
*
संरचना १२१ १२१ २११ २११ २११ २ 
*
भजो नित इष्ट , श्री घनश्याम सदा जग के 
हरें हर कष्ट , गोकुलनाथ सदा सब के 
नहीं छल-छद्म , का कुछ काम कहे छलिया  
करे वह प्रीत , हो मनमीत अरे! रसिया 
न माखन चोर , के बिन शांत रहे मइया 
सदा गउपाल , का जप नाम सुखी गुइया
लगा पग धूल , लूँ निज माथ तरूँ भव से 
उठा सुखधाम , कंठ लगा लें खुद झट से 
***
  

शारद वंदना

शारद वंदना
सतमात्रिक नवान्वेषित छंद
सूत्र : ननल।
*
सुर सति नमन
नित कर अमन
*
मुख छवि प्रखर
स्वर-ध्वनि मधुर
अविचल अजर
अविकल अमर
कर नव सृजन
सुरसति नमन
*
पद दल असुर
रच पद स-सुर
कर जननि घर
मम हृदयपुर
कर गह सु मन
सुरसति नमन
*
रस बन बरस
नित धरणि पर
शुभ कर मुखर
सुख रच प्रचुर
शुभ मृदु वचन
सुरसति नमन

*** 

शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक

चिंतन
शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक
*
शासकीय विद्यालयों के परीक्षा परिणाम आने के साथ ही सर्वाधिक अंक प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियों को वाहवाही मिलने, पत्रकारों द्वारा खोजबीन, हेराफेरी और गत वर्षों के सफलता प्रतिशत की तुलना जैसी खबरों के बीच कुछ आत्महत्याओं के समाचार आने लगते हैं।
शिक्षा प्रणाली
सबसे पहली बात तो यह है कि देश में शिक्षा की एक ही प्रणाली होना चाहिए। भारत में शासकों और आम जनों के मध्य खाई को बनाए रखने ही नहीं उसे बढ़ाते जाने में भी नेता, अफसर और सेठों की रुची रही है. इस कारण मँहगे विद्यालय और सरकारी विद्यालय अस्तित्व में थे, हैं और रहेंगे।
मेरे पिताजी ने अधिकारी होने के बाद भी मुझे और मैंने अपने अभियंता और श्रीमती जी के कोलेज प्राध्यापक होने के बाद भी बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाया। हमें अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है किन्तु बच्चों को कभी-कभी शिकायत करते सुना है। अब अगली पीढ़ी को शायद ही सरकारी विद्यालय में पढ़ाया जाए। इसका कारण निजी विद्यालयों की श्रेष्ठता नहीं, सरकारी विद्यालयों में राजनीति, विद्यार्थियों का आरक्षण के आधार पर प्रवेश, शिक्षकों की अध्यापन में अरुचि, पुस्तकालयों का न होना तथा प्रयोगों हेतु उपकरणों का न होना है। दुःख यह है कि निजी विद्यालय भी श्रेष्ठ नहीं केवल कुछ बेहतर हैं। वस्तुत: भारत में शिक्षा को ही महत्व नहीं दिया जा रहा है।
शिक्षक: नौकर या गुरु?
शासकीय विद्यालयों के शिक्षकों को निजी विद्यालयों की तुलना में पर्याप्त अधिक वेतन मिलाता है, नौकरी स्थानान्तरणीय किन्तु सुरक्षित होती है जबकि निजी विद्यालयों में वेतन कम, आजीविका अनिश्चित किन्तु अस्थानान्तरणीय होती है। शिक्षक की आजीविका के साथ एक विशेष सामाजिक सम्मान जुड़ा होता है जो बड़े से बड़े नेता, अधिकारी या धनपति को नहीं मिलता। भारत में अधिकांश विद्यार्थी अपने शिक्षक के चरण स्पर्श करते हैं। शिक्षक को फटीचर टीचर नहीं गुरु माना जाता है। क्या शिक्षक स्वयं 'गुरुत्व' प्राप्त करने के प्रति सजग हैं?, अधिकांश नहीं। अधिकांश शिक्षक केवल फर्ज़ अदायगी और वेतन की चिंता करते हैं। यह स्थिति चिन्तनीय और शिक्षा के गिरते स्तर का कारण है। जिस व्यक्ति की शिक्षा कर्म में रुची न हो उसे शिक्षण नहीं होना चाहिए। शिक्षक स्वयं अस्थायी और शोषण का शिकार होगा तो अध्यापन कैसे कराएगा? योग्य शिक्षक को अपने विषय का ज्ञान, अध्यापन विधियों की जानकारी, बाल मनोविज्ञान की समझ तथा अपने कार्य में रुचि होना जरूरी है।
जानकारी, ज्ञान और दायित्व?
शिक्षा का लक्ष्य क्या है? पाठ्यक्रम की जानकारी या विषय का ज्ञान? हमारी शिक्षा प्रणाली विषय को समझने और उसमें कुछ नया सोचने-करने के प्रति उदासीन है। किताबी जानकारी को यादकर परीक्षा पुस्तिका में वामन कर देना ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया है। फलत:, अभियंता और चिकित्सक भी किताबी हैं जिन्हें व्यावहारिक ज्ञान नहीं के बराबर है। यह स्थिति बदली जाना बहुत जरूरी है। प्राथमिक शालेय शिक्षा से ही विद्यार्थी को व्यावहारिक शिक्षा, प्रकृति से जुड़ाव, देश और समाज के प्रति दायित्व आदि की बीज बो दिए जाने चाहिए। हमें बचपन में प्रभात फेरी, जुलूस, व्यायाम, बागवानी, कक्षा की सफाई आदि के काम कराकर अपने दायित्व का भान कराया गया किन्तु आजकल निजी विद्यालयों तो दूर शासकीय विद्यालयों में भी यह नहीं कराया जा रहा। विद्यालयों में राजनैतिक तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप न्यूनतम हो। सभी विद्यार्थियों को समान सुविधाएँ, व्यवहार व अवसर मिले तो भविष्य के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार होंगे जो स्वस्थ्य समाज का निर्माण करेंगे। अच्छे नागरिक और मनुष्य किसी कारखाने में किसी तकनीक से तैयार नहीं किये जा सकते केवल शिक्षक विद्यालयों में उन्हें विकसित कर सकता है। इसलिए शिक्षा और शिक्षक को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।
व्यावहारिक पाठ्यक्रम व विषय चयन
हर कक्षा के लिए पाठ्यक्रम विद्यार्थी की औसत उम्र में हुए मानसिक विकास के आधार पर बनाया जाए। अनावश्यक विषय न पढ़ाए जाए तथा आवश्यक विषय छोड़े भी न जाएँ। साथ ही साथ मानवीय, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों के विकास, शारीरिक मजबूती, चारित्रिक दृढ़ता के विकास संबंधी कार्यक्रम भी होना चाहिए। विद्यार्थियों का मनोवैज्ञानिक परिक्षण कर उनमें अंतर्निहित गुणों और प्रतिभा का आकलन कर तदनुसार विषय या शिल्प की शिक्षा दी जाना चाहिए ताकि उनका सर्वश्रेष्ठ विकास हो। अभिभावकों की इच्छा या समृद्धि को विषय चयन का आधार नहीं होना चाहिए।
एक ही शिक्षा प्रणाली
तत्काल संभव न हो तो भी क्रमश: पूरे देश में सभी व्द्यार्थियों को क्रमश: सामान्य पाठ्यक्रम तथा विद्यालय मिलना चाहिए। सभी जनप्रतिनिधियों और जनसेवकों के लिए अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। शिक्षा का व्यवसायीकरण बंद करने के लिए निजी विद्यालयों को हतोत्साहित करना आवश्यक है। कमजोर समाज के मतों के लिए राजनीति कर रहे दलों को इस ओर प्रतिबद्ध होना चाहिए। सरकारी विद्यालयों को अधिकाधिक साधन संपन्न और विकसित बनाकर निजी विद्यालयों को हतोत्साहित किया जा सकता है।
शासकीय विद्यालय अभिशाप नहीं वरदान
प्राय: साधन संपन्न जन अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में नहीं भेजते। यह स्थिति बदली जानी चाहिए। शासकीय संस्थानों में सुयोग्य शिक्षक, समृद्ध पुस्तकालय, सुसज्ज प्रयोगशाला, खेल-कूद उपकरण, समयानुकूल पाठ्यक्रम तथा परिणामोन्मुखी वेतनमान हों तो विद्यार्थी उन्हें चुनने लगेंगे। शासकीय विद्यालयों के श्रेष्ठ विद्यार्थियों को शासकीय सेवा में वरीयता दी जाने से भी स्थिति में सुधार होगा।
शासकीय शक्षकों को अपनी सोच बदलनी होगी। शासकीय विद्यालयों में निम्न अंक प्रतिशत के विद्यार्थी आने का लाभ कुशल शिक्षक ले सकता है। ४० % अंक ला रहे विद्यार्थी पर ध्यान देकर उसे ६०% के स्तर पर ले जाना आसान है किन्तु ९०% अंक ला रहे विद्यार्थी के स्तर को बढ़ाना या बनाये रखना अधि कठिन है। शासकीय विद्यालय के शिक्षक अपने हर विद्यार्थी को पूर्व परीक्षा से बेहतर अंक पाने योग्य बनाने का लक्ष्य रखें। जो शिक्षक यह लक्ष्य पा सकें उन्हें वार्षिक वेतन वृद्धि दी जाए, जो यह लक्ष्य न पा सकें उन्हें पूर्वत वेतन दिया जाए और जिनके विद्यार्थियों का परीक्षा परिणाम घटे उनके वेतन में एक वार्षिक वेतन वृद्धि की राशि काम कर दी जाए। ऐसी व्यवस्था होने पर शिक्षक पूरी क्षमता से अध्यापन कराएँगे।
परिणाम बेहतर आने औए उच्च कक्षा में प्रवेश में प्राथमिकता मिलने से विद्यार्थी भी मनोयोग से पढ़ने के लिए उत्साहित होंगे। निजी विद्यालयों में कमजोर विद्यार्थी जायेंगे तो उन्हें योग्य शिक्षक समुचित वेतनमान पट रखना होंगे। लाभांश कम होगा तो धंधेबाज शिक्षाजगत से बाहर होते जायेंगे और केवल समाज सेवा या देश सेवा को लक्ष्य बनाने वाले ही शिक्षा संस्थाएँ चलाएँगे।
शिक्षक असहाय नहीं
शिक्षा स्तर सुढारने की दिशा में हर शिक्षक अपने स्तर पर पहल कर सकता है। सत्र आरम्भ होने पर वह हर विद्यार्थी के प्राप्तांक की जानकारी ले ले तथा खुद अपने लिए लक्ष्य बनाए की हर विद्यार्थी के अंकों में कम से कम ५% अंक वृद्धि हो, इस तरह अध्यापन कराएगा। इससे और कुछ न हो उसे आत्म संतोष मिलेगा तथा विद्यार्थियों के समय परीक्षा परिणाम के समय यह घोषणा किये जाने पर विद्यार्थियों का सम्मान पायेगा। प्राचार्य ऐसे शिक्षकों के वार्षिक प्रतिवेदन में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए पुरस्कार हेतु अनुशंसा करें तथा जिला शिक्षाधिकारी पुरस्कृत करें। शासन उदासीन हो तो यह कार्य शिक्षक संघ भी कर सकते हैं या अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी। शिक्षक का सम्मान बढ़ेगा तो उसमें अध्यापन के प्रति रुचि भी बढ़ेगी।
धनहीन विद्यार्थियों के लिए गत वर्ष उत्तीर्ण हो चुके विद्यार्थियों की पुस्तकें उपलब्ध कराकर शिक्षक सहायता कर सकते हैं। इसी तरह निर्धन होशियार छात्रों से निचली कक्षा के कमजोर विद्यार्थी को ट्यूशन दिलाकर दोनों की मदद की जा सकती है। शिक्षकों को साधनहीनता, शासकीय उपेक्षा, काम वेतन आदि का रोना रोना बंद कर स्थिति को सुधारने के उपाय खोजना अपना कार्य मानना होगा तभी वे 'गुरु' हो सकेंगे।

***

हम अभियंता

 अभियंता दिवस (१५ सितंबर) पर विशेष रचना:

हम अभियंता...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...
*
माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.
नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...
*
अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.
वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.
साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...
*
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.
प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.
'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...
***
९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार संपादक मधुकर अष्ठाना

पुस्तक चर्चा:
लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार : गीत-नवगीतों का आगार
चर्चाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण: लखनऊ के प्रतिनिधि गीतकार, संपादक मधुकर अष्ठाना, प्रथम संकरण, वर्ष २००९, आकार २२ से.मी. x १५ से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १४४, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन एम् १६८ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, चलभाष ९८३९८२५०६२]
*
अवधी तहजीब और शामे लखनऊ का सानी नहीं। शाम के इंद्रधनुषी रंगों को गीत-नवगीत, ग़ज़ल और अन्य विधाओं में घोलकर उसका आनंद लेना और देना लखनऊ की अदबी दुनिया की खासियत है। अग्रजद्वय निर्मल शुक्ल और मधुकर अष्ठाना लखनवी अदब की गोमती के दो किनारे हैं। इन दोनों के व्यक्तित्व और कृतित्व ने साहित्य सलिला में अनेक कमल पुष्प खिलाने में महती भूमिका अदा की है। विवेच्य कृति एक ऐसा ही साहित्यिक कमल है। इस कमल पुष्प की १५ पंखुड़ियाँ १५ श्रेष्ठ ज्येष्ठ गीतकार हैं। सम्मिलित गीतकारों के नाम, गीत और पृष्ठ संख्या इस प्रकार है- कुमार रवीन्द्र ५ /७, निर्मल शुक्ल ८ / १०, भारतेंदु मिश्र ५/६, राजेंद्र वर्मा ८/९, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान ८/९, कैलाश नाथ निगम ८/१०, डॉ. रामाश्रय सविता ८/९, डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ८ /१०, डॉ. सुरेश ८/१०, शिव भजन कमलेश ८/९, रामदेव लाल विभोर ८/१०, अमृत खरे ८/९, श्याम नारायण श्रीवास्तव ८/१०, निर्मला साधना ८/१० तथा मधुकर अष्ठाना ८/१०। पुस्तक प्रकाशन के समय वरिष्ठतम सहभागी निर्मला साधना जी ७९ वर्षीय तथा कनिष्ठतम सहयोगी राजेंद्र वर्मा ५४ वर्षीय के मध्य २५ वर्षीय काल खंड है।
इन सभी काव्य सर्जकों की अपनी पहचान गंभीर सर्जक के रूप में रही है। आत्मानुशासन और साहित्यिक मानकों के अनुरूप रचनाधर्म का निर्वहन करने के प्रति संकल्पित-समर्पित १५ रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन काव्योद्यान से चुनी गयी काव्य-कलिकाओं का रंग-बिरंगा गुलदस्ता है। हर रचना का विषय, कथ्य, शिल्प और शैली नवोदितों के लिये पाठ्य सामग्री की तरह पठनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है।
गीत-नवगीत के शलाका पुरुष डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' ने पुरोवाक में ठीक ही लिखा है: "साहित्य और काव्य भी परिस्थिति, परिवेश और देश-कालगत सापेक्षता में अपने उत्कर्षापकर्ष की यात्रा को पूरा करता है। रूढ़ि और गतानुगतिकता की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती है जो विशिष्ट काव्य परंपरा और तदनुरूप शैलियों को जन्म देती है। उच्चकोटि के प्रतिभा संपन्न रचनाकार समय-समय पर क्रमागत शैलियों को उच्छिन्न करते हुए नयी अभिव्यक्ति और नव्यतर प्रारूपों के माध्यम से किसी नवोन्मेष को जन्म देते हैं।" चर्चित संग्रह में ऐसे हस्ताक्षरों को सम्मिलित किया गया है जिनमें नवोन्मेष को जन्म देने की न केवल सामर्थ्य अपितु जिजीविषा भी है।
कुमार रवीन्द्र जी नवगीत के शिखर हस्ताक्षर हैं। 'कहो साधुओं' शीर्षक नवगीत में साधुओं का वेश रखे हत्यारों का इंगित, 'हुआ खूब फ्यूजन' में पूर्व और पश्चिम के सम्मिलन से उपजी विसंगति, 'कहो बचौव्वा' में नव सक्रियता हेतु आव्हान, 'बोले भैया' में दिशाहीन परिवर्तन, 'इन गुनाहों के समय में' में युगीन विद्रूपता को केंद्र में रखा गया है। रवीन्द्र जी कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक और गहरी से गहरी बात कहने में सिद्धहस्त हैं। बानगी देखें-
'ईस्ट-वेस्ट' का / अब तो साधो, हुआ खूब 'फ्यूजन' / राजघाट पर / हुआ रात कल मैडोना का गान / न्यूयार्क में जाकर फत्तू / बेच रहे हैं पान / हफ्ते में है / तीन दिनों की 'योगा' की ट्यूशन / वेस्ट विंड है चली / झरे सब पत्ते पीपल के / दूर देश में जाकर / अम्मा के आँसू छलके / वहाँ याद आता है उनको / रह-रह वृन्दावन '।
निर्मल शुक्ल जी नवगीत दरबार के चमकते हुए रत्न हैं। 'दूषित हुआ विधान' तथा ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल में पर्यावरणीय प्रदूषण, 'आँधियाँ आने को हैं' में प्रशासनिक विसंगति, 'छोटा है आकाश', लकड़ीवाला घोड़ा', 'सब कोरी अफवाह', 'प्राणायाम' तथा 'विशम्भर' शीर्षक नवगीतों में युगीन विडंबना पंक्ति-पंक्ति में मुखरित हुई है। निर्मल जी अभिव्यंजना में अनकही को कहने में माहिर हैं।
'एक था राजा / एक थी रानी / इतनी एक कहानी / गिनी-चुनी सांसों में भी, तय / रिश्तों का बँटवारा / जितना कुछ आकाश मिला, वह / सब खारा का खारा / मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार / गुडिया के घर / गूँगी नानी / इतनी एक कहानी।
भारतेंदु मिश्र जी प्रगतिशील विचारधारा के गीतकार, समीक्षक और शिक्षाविद हैं। आपके पाँच नवगीतों में समाज के दलित-शोषित वर्ग का संघर्ष और पीड़ा मुखरित हुई है। अधुनातनता की आँधी में काँपती पारम्परिकता की दीपशिखा के प्रति चिंतित भारतेंदु जी के नवगीत, सामाजिक विद्रूपताओं को उद्घाटित करते हैं- 'रामधनी का बोझ उठाते / कभी नहीं अकुलाई / जलती हुई मोमबती है / रामधनी की माई / रामधनी मन से विकलांग / क्या जाने दुनिया के स्वांग? / भूख-प्यास का ज्ञान न उसको / जाने उसकी माई / जल बिन मछली सी रहती है / रामधनी की माई।
राजेन्द्र वर्मा जी साहित्यिक लेखन में भाषिक शुद्धता और विधागत मानकों के प्रति सजगता के पक्षधर हैं। 'कौन खरीदे?' में पारंपरिक चने पर हावी होते पाश्चात्य फास्ट फ़ूड से उपजी सामाजिक विसंगति, 'मीना' में श्रमजीवी युवती का विवाह न हो पाने से संत्रस्त परिवार, 'पर्वत ने धरा संन्यास' में सामाजिक बिखराव, 'अगरासन निकला', 'सत्यनरायन', 'बैताल' तथा 'कागजवाले घुड़सवार' में सामाजिक विसंगतियों का संकेत, दिल्ली का ढब' में राजनैतिक पाखण्ड पर सशक्त प्रहार दृष्टव्य है। 'बैताल' की कुछ पंक्तियाँ देखें-
'बूढ़े बरगद! / तू ही बतला, कैसे बदलूँ चाल? / मेरे ही कन्धों पर बैठा मेरा ही बेताल / स्वर्णछत्र की छाया में पल रहा मान-सम्मान / अमृतपात्र में विष पीने का मिलता है वरदान / प्रश्नों के पौरुष के आगे / उत्तर हैं बेहाल'
'कुटी चली परदेश कमाने' में गाँवों का सहारों के प्रति बढ़ता मोह, 'खड़े नियामक मौन' में असफल होती व्यवस्था, 'दो रोटी की खातिर', 'पंख कटे पंछी निकले हैं', 'काली बिल्ली ढूँढ रही है' तथा 'सोने के पिंजड़े' में सामाजिक वैषम्य, 'पराजित हो गए' में प्राकृतिक सौन्दर्य और अनुराग को शब्दित किया है शीलेंद्र सिंह चौहान जी ने। प्रशासनिक पदाधिकारी होते हुए भी विसंगतियों पर प्रहार करने में शीलेन्द्र जी पीछे नहीं हैं। वे नवगीत को केवल वैषम्य अभिव्यक्ति सीमित न रख प्रेम-सौंदर्य और उल्लास का भी माध्यम बनाते हैं-
'लो पराजित हो गए फिर / कँपकँपाते दिन / ढोलकों की थाप पर / गाने लगा फागुन / बज उठी मंजीर-खँजरी पर सुहानी धुन / आ गए मिरदंग, डफ / झाँझें बजाते दिन ... बोल मुखरित हो उठे / फिर नेह-सरगम के / कसमसाने लग गए / जड़बंध संयम के / आ गए फिर प्यार का / मधुरस लुटाते दिन'
'मधुऋतु ने आँखें फेरी', 'समय सत्ता', 'मीठे ज्वालामुखी', 'कब तक और सहें', 'आओ प्यार करें, इस कोने से उस कोने तक', 'मेरे देश अब तो जाग' तथा 'मिलता नहीं चैन' जैसे सरस गीतों-नवगीतों के माध्यम से कैलाशनाथ निगम जी ने संग्रह की शोभा-वृद्धि है। देश-काल-परिस्थिति के परिवर्तन को इंगित करती पंक्तिओं का रस लें-
'पीछे से तो वार, सामने मिसरी घुले वचन / शीशे जैसे मन को मिलता बस पथरीलापन / सच्चाई में जीनेवाली प्रथा निषिद्ध हुई / पल-पल रूप बदलनेवाली प्रथा प्रसिद्ध हुई / कानूनों की व्याख्या करती बुद्धि शकुनियों की / भीष्म हुए हैं मौन, लूट वैधानिक सिद्ध हुई / जनता का पांचाली जैसा होता चीर हरण।'
डॉ. रामाश्रय सविता जी के गीत 'ज़िंदगी तलाश हो गई', 'अपने में पराजय, 'आज का आदमी, 'रौशनी और आदमी', 'एक बार फिर', 'परजीवी बेल', 'कई ज़ीवन' तथा 'गधे रहे झूम' में पारंपरिक कथ्य और शिल्प मुखरित हुआ है। समय और परिस्थितियों में बढ़ रही विसंगतियों को इंगित किया है सविता जी ने-
'धरती के कोनों में आग लगी, / ताप रहे लोग / आत्मनिष्ठ व्यक्ति खड़े संशय के द्वार / कुंठा के पृष्ठ रहे जोरों से बाँच / उमस-घुटन के फेरे नचा रहे नाच / दिग्भ्रम का खूब मिला अक्षय-भण्डार।'
'किसी की याद आई', 'पितृपक्ष में', 'दूर ही रहो मिट्ठू', 'यह न पूछो', 'गीत छौने', 'क्षमा बापू', 'खत मिला' तथा 'जोड़ियाँ तो बनाता है रब' शीर्षक गीत-नवगीतों में डॉ. गोपालकृष्ण शर्मा ने सामाजिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में उपजी विसंगतियों को उद्घाटित करते हुए उनके उन्मूलन की कामना को स्वर दिया है-
'हाथ पकड़ अपने पापा का / हठ मुद्रा में बच्चा बोला / चलिए पापा / पितृपक्ष में बाबाजी को / वृद्धाश्रम से घर ले आयें .... पूरे साल नहीं तो छोड़ो / पितृपक्ष में ही कम से कम / बाबाजी को वापिस लाकर / मन-माफिक भोजन करवायें '. कृतघ्न पुत्र को उसके कर्तव्य का स्मरण कराता उसका पुत्र विसंगति मुक्त भविष्य के प्रति गीतकार की आस्था को इंगित करता है।
डॉ. सुरेश लिखित ' हम तो ठहरे यार बंजारे', 'सोने के दिन, चाँदी के दिन', 'मन तो भीगे कपड़े सा', 'समय से कटकर कहाँ जाएँ', 'कंधे कुली बोझ शहजादे', 'मैं घाट सा चुपचाप', 'दूर से चलकर', 'घर न लगे घर' आदि गीत-नवगीतों में युगीन विषमता को इंगित करते हुए विवशता को शब्द दिए गए हैं। इनमें परिवर्तन की मौन चाहत भी मुखर हो सकी है।
'वो नदी / मैं घाट सा चुपचाप / काटती है / काल की धारा मुझे भी / चोट करती हर पहर / टूटना ही / बिखरना ही नियति मेरी।' इस विवशता का चोला उतारकर बदलाव का आव्हान भी नवगीत को करना होगा। तभी उसकी सार्थकता सिद्ध होगी।
शिव भजन कमलेश जी 'कितना और अभी सोना हैँ, 'अपनी राह बनाऐंगे', 'सीताराम पढ़ो पट्टे', 'गाँव छोड़ क्या लेने आये', 'बिगड़ गया सब खेल', 'पोखर, पनघट, घाट, गली', 'महानगर' तथा 'तमाशा' शीर्षक रचनाओं में विसंगतियों को सामने लाते हैं। पारम्परिक गीतों के कलेवर में विस्तार तो है किन्तु पैनापन नहीं है। 'अपने में ही उलझा-सहमा / दिखता महानगर / जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर / सड़कें कम पड़ गईं, गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुईं / महाजाल बन रहीं मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुईं / भाग्यवान ही पूरा करते / जोखिम भरा सफ़र।'
हिंदी छंद शास्त्र के मर्मज्ञ रामदेव लाल 'विभोर' जी के 'कैसा यह अवरोह', 'मैं घड़ी हूँ', 'भरा कंठ तक दूषित जल है', 'बाज न आये बाज', 'कैसे फूल मिले', 'फूटा चश्मा बूढ़ी आँखें', 'वक्त' तथा 'अभी-अभी' शीर्षक गीतों-की कहन स्पष्ट तथा शैली सहज है।
'दो-दो होते चार / कहो क्या संशय है? / सर्पों की भरमार कहो क्या संशय है? / मोटा अजगर पड़ा राह में / काला विषधर छुपा बाँह में / बाहर-भीतर वार कहो क्या संशय है?'
'जीवन एक कहानी है', 'फिर याद आने लगेंगे', 'गुजरती रही जिंदगी', 'देह हुई मधुशाला', 'अभिसार गा रहा हूँ', 'फिर वही नाटक','जीवन की भूल भूलभुलैया' तथा 'कहाँ आ गया' शीर्षक गीतों में अमृत खरे जी सहज बोधगम्य और सरस हैं। एक बानगी देखें-
'फिर वही नाटक, वही अभिनय / वही संवाद, सजधज / अब चकित करता नहीं है दृश्य कोई / मंच पर जो घट रहा / झूठा दिखावा है / सत्य तो नेपथ्य में है / यह प्रदर्शन तो / कथानक की / चतुर अभिव्यक्ति के / परिप्रेक्ष्य में है / फिर वही भाषण, वही नारे / वही अंदाज़, वादे / अब भ्रमित करता नहीं है दृश्य कोई।'
सरस गीत-नवगीतकार श्यामनारायण श्रीवास्तव जी के गीत-नवगीत 'माँ उसारे में पड़ी लाचार', 'रामदीन', 'क्यों भाग लूँ धन-धाम से', 'बदली समय की संहिता', 'चाहता मन पुण्य तोया धार', 'द्वारिका नयी बसने दो', 'पकड़े रहना हाथ पिया', तथा 'जीने के बहाने' आनंदित करते हैं। 'रामदीन' की व्यथा-कथा दृष्टव्य है-
''वैसे रामदीन उनको / परमेश्वर कहता है / पर मन ही मन उनसे / थोड़ा बचकर रहता है / कन्धों पर बंदूकें उनके / होठों पर वंशी / पंच, दरोगा, न्याय, दंड / सबके सब अनुषंगी / जैसे भी हो रामदीन को / जीना तो है ही / मजबूरी में उनकी हाँ में / हाँ भी करता है'
संग्रह की एकमात्र महिला गीतकार निर्मला साधना जी के गीत 'क्षोभ नहीं पीड़ा ढोई है', 'साँसें शिथिल हुई जाती हैं', ' अतीत के ताने-बाने', 'लाई कौन सन्देश', 'संख्यातीत क्षणों में' तथा 'पूछ रे मत कौन हूँ मैं' से उनकी सामर्थ्य का परिचय मिलता है। आपकी रचनाओं में यत्र-तत्र छायावाद के दर्शन हो जाते हैं। कहन और कथन की स्पष्टता आपका वैशिष्ट्य है।
'मन का विश्वामित्र डिगा तो / दोष कहाँ संयम का इसमें / तन वैरागी हो जाता है / मन का होना बहुत कठिन है / अनहद नाद कहीं गूँजा तो / कहीं बजे नूपुर-अलसाई / कहीं हुई पीड़ा मर्माहत / कहीं फुहारों की अँगड़ाई / जिस दिन झूठा प्यार हो गया / वह युग का सबसे दुर्दिन है।'
संग्रह के अंतिम कवि तथा संपादक मधुकर अष्ठाना जी हिंदी तथा भोजपुरी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। अष्ठाना जी का हर नवगीत नए रचनाकारों के लिए मानक की तरह है। 'उगे शूल ही शूल', 'नया निजाम', 'कन्धों पर सर', ' आज अशर्फी बनी रुपैया', 'उसकी चालें', 'गली-गली में डगर-डगर में', 'और कितनी देर' तथा चाँदी, चाँवल, सोना, रोटी जैसे नवगीतों में विसंगतियों को चित्रित करने में मधुकर जी सफल हुए हैं।
कंधों पर सर रखने का / अब कोई अर्थ नहीं / केवल यहाँ संबंधों का ही / जीवन व्यर्थ नहीं / विश्वासों के मेले में / हैं ठगी-ठगी साँसें / गाड़ी हुई सबके सीने में / सोने की फाँसें / चीख-चीख कर हारे / लगता शब्द समर्थ नहीं।'
'लगता शब्द समर्थ नहीं' कहने के बाद भी मधुकर अष्ठाना जी से बेहतर और कौन जानता है कि उनके शब्द कितने समर्थ हैं। यह संग्रह रचनाकारों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए समान रूप से उपयोगी है। गीतों-नवगीतों की विविध भाव भंगिमाओं से पाठक का साक्षात् कराता यह संकलन तो युगों की कारयित्री प्रतिभाओं के रचनाकर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए निस्संदेह बहुत उपयोगी है। इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए मधुकर जी, निर्मल जी और सभी सहभागी रचनाकार साधुवाद के पात्र हैं।
***
संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।

---------------- 

चिंतन : हिंदी - भारतीय बोलियाँ

चिंतन : आप क्या सोचते हैं बताएँ.
प्रश्न: भारतीय बोलियाँ हिंदी का हिस्सा हैं या नहीं?
हिस्सा हैं तो अलग मान्य क्यों?,
हिस्सा नहीं हैं तो उनके साहित्यकारों को हिंदी का माना जाए या नहीं??
*
भारत की सभी बोलियाँ भाषाएँ हिंदी की बहनें हैं. विद्यापति भारत और हिंदी के भी हैं. आपस में फूट डालने का कार्य निंदनीय है. सूर को ब्रज, तुलसी को अवधी, जगनिक और ईसुरी को बुंदेली, चंद बरदाई को राजस्थानी, खुसरो-कबीर को उर्दू का कवि बताकर हिंदी को विपन्न करने की दुर्बुद्धि हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है. हम हिंदीभाषी तो भारत की हर भाषा और बोली के हर रचनाकार को अपनाते हैं. हिंदी महासागर है. होना तो यह चाहिए कि हर भाषा बोली के सामान्य प्रयोग में आनेवाले शब्द हिंदी शब्दकोष में उसी तरह सम्मिलित किये जाएँ जैसे अंग्रेजी विश्व की विविध भाषाओँ के शब्द लेती है. भारत की सब भाषाओँ केबहु उपयोगी शब्दों से समृद्ध हिंदी उन्हें तभी अपनी लगेगी जब हिंदी में वे अपने शब्द भी पायेंगे. आवश्यकता डॉ. प्रभाकर माचवे जैसे बहुभाषा-बोलीविद होने की है. सब एक-दुसरे की बोलीओं में लिखें. साहित्यकार को राजनीति में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है. सियासत सिया के सत से पूरी तरह दूर है. साहित्यकार शब्द-सेतु बनाकर ही सद्भावना-सेतु बना सकेगा.
***

हिंदी की शब्द सलिला

सामयिकी:
हिंदी की शब्द सलिला
संजीव
*
आजकल हिंदी विरोध और हिनदी समर्थन की राजनैतिक नूराकुश्ती जमकर हो रही है। दोनों पक्षों का वास्तविक उद्देश्य अपना राजनैतिक स्वार्थ साधना है। दोनों पक्षों को हिंदी या अन्य किसी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्तर के दशक में प्रश्न को उछालकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जा चुकी हैं। अब फिर तैयारी है किंतु तब आदमी तबाह हुआ और अब भी होगा। भाषाएँ और बोलियाँ एक दूसरे की पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। खुसरो से लेकर हजारीप्रसाद द्विवेदी और कबीर से लेकर तुलसी तक हिंदी ने कितने शब्द संस्कृत. पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, बुंदेली, भोजपुरी, बृज, अवधी, अंगिका, बज्जिका, मालवी निमाड़ी, सधुक्कड़ी, लश्करी, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अन्य देशज भाषाओँ-बोलियों से लिये-दिये और कितने अंग्रेजी, तुर्की, अरबी, फ़ारसी, पुर्तगाली आदि से इसका कोई लेख-जोखा संभव नहीं है.
इसके बाद भी हिंदी पर संकीर्णता, अल्प शब्द सामर्थ्य, अभिव्यक्ति में अक्षम और अनुपयुक्त होने का आरोप लगाया जाना कितना सही है? गांधी जी ने सभी भारतीय भाषाओँ को देवनागरी लिपि में लिखने का सुझाव दिया था ताकि सभी के शब्द आपस में घुलमिल सकें और कालांतर में एक भाषा का विकास हो किन्तु प्रश्न पर स्वार्थ की रोटी सेंकनेवाले अंग्रेजीपरस्त गांधीवादियों और नौकरशाहों ने यह न होने दिया और ७० के दशक में हिन्दीविरोध दक्षिण की राजनीति में खूब पनपा।
संस्कृत से हिंदी, फ़ारसी होकर अंग्रेजी में जानेवाले अनगिनत शब्दों में से कुछ हैं: मातृ - मातर - मादर - मदर, पितृ - पितर - फिदर - फादर, भ्रातृ - बिरादर - ब्रदर, दीवाल - द वाल, आत्मा - ऐटम, चर्चा - चर्च (जहाँ चर्चा की जाए), मुनिस्थारि = मठ, -मोनस्ट्री = पादरियों आवास, पुरोहित - प्रीहट - प्रीस्ट, श्रमण - सरमन = अनुयायियों के श्रवण हेतु प्रवचन, देव-निति (देवों की दिनचर्या) - देवनइति (देव इस प्रकार हैं) - divnity = ईश्वरीय, देव - deity - devotee, भगवद - पगवद - pagoda फ्रेंच मंदिर, वाटिका - वेटिकन, विपश्य - बिपश्य - बिशप, काष्ठ-द्रुम-दल(लकड़ी से बना प्रार्थनाघर) - cathedral, साम (सामवेद) - p-salm (प्रार्थना), प्रवर - frair, मौसल - मुसल(मान), कान्हा - कान्ह - कान - खान, मख (अग्निपूजन का स्थान) - मक्का, गाभा (गर्भगृह) - काबा, शिवलिंग - संगे-अस्वद (काली मूर्ति, काला शिवलिंग), मखेश्वर - मक्केश्वर, यदु - jude, ईश्वर आलय - isreal (जहाँ वास्तव इश्वर है), हरिभ - हिब्रू, आप-स्थल - apostle, अभय - abbey, बास्पित-स्म (हम अभिषिक्त हो चुके) - baptism (बपतिस्मा = ईसाई धर्म में दीक्षित), शिव - तीन नेत्रोंवाला - त्र्यम्बकेश - बकश - बकस - अक्खोस - bachenelion (नशे में मस्त रहनेवाले), शिव-शिव-हरे - सिप-सिप-हरी - हिप-हिप-हुर्राह, शंकर - कंकर - concordium - concor, शिवस्थान - sistine chapel (धर्मचिन्हों का पूजास्थल), अंतर - अंदर - अंडर, अम्बा- अम्मा - माँ मेरी - मरियम आदि।
हिंदी में प्रयुक्त अरबी भाषा के शब्द : दुनिया, ग़रीब, जवाब, अमीर, मशहूर, किताब, तरक्की, अजीब, नतीज़ा, मदद, ईमानदार, इलाज़, क़िस्सा, मालूम, आदमी, इज्जत, ख़त, नशा, बहस आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त फ़ारसी भाषा के शब्द : रास्ता, आराम, ज़िंदगी, दुकान, बीमार, सिपाही, ख़ून, बाम, क़लम, सितार, ज़मीन, कुश्ती, चेहरा, गुलाब, पुल, मुफ़्त, खरगोश, रूमाल, गिरफ़्तार आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त तुर्की भाषा के शब्द : कैंची, कुली, लाश, दारोगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त पुर्तगाली भाषा के शब्द : अलमारी, साबुन, तौलिया, बाल्टी, कमरा, गमला, चाबी, मेज, संतरा आदि ।
हिंदी में प्रयुक्त अन्य भाषाओ से: उजबक (उज्बेकिस्तानी, रंग-बिरंगे कपड़े पहननेवाले) = अजीब तरह से रहनेवाला,
हिंदी में प्रयुक्त बांग्ला शब्द: मोशाय - महोदय, माछी - मछली, भालो - भला,
हिंदी में प्रयुक्त मराठी शब्द: आई - माँ, माछी - मछली,
अपनी आवश्यकता हर भाषा-बोली से शब्द ग्रहण करनेवाली व्यापक में से उदारतापूर्वक शब्द देनेवाली हिंदी ही भविष्य की विश्व भाषा है इस सत्य को जितनी जल्दी स्वीकार किया जाएगा, भाषायी विवादों का समापन हो सकेगा।
२२-६-२०१४ 
******

गीत

गीत
अपने अम्बर का छोर
संजीव
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
*
हल धर कर
हलधर से, हल ना हुए सवाल
पनघट में
पन घट कर, पैदा करे बवाल
कूद रहे
बेताल, मना वैलेंटाइन
जंगल कटे,
खुदे पर्वत, सूखे हैं ताल
पजर गयी
अमराई, कोयल झुलस गयी-
नैन पुतरिया
टँगी डाल पर, रोये भोर.…
*
लूट सिया-सत
हाय! सियासत इठलायी
रक्षक पुलिस
हुई भक्षक, शामत आयी
अँधा तौले
न्याय, कोट काला ले-दे
शगुन विचारे
शकुनी, कृष्णा पछतायी
युवा सनसनी
मस्ती मौज मजा चाहें-
आँख लड़ायें
फिरा, न पोछें भीगी कोर....
*
सुर करते हैं
भोग प्रलोभन दे-देकर
असुर भोगते
बल के दम पर दम देकर
संयम खो,
छलकर नर-नारी पतित हुए
पाप छिपायें
दोष और को दे-देकर
मना जान की
खैर, जानकी छली गयी-
चला न आरक्षित
जनप्रतिनिधि पर कुछ जोर....
*
सरहद पर
सर हद करने आतंक डटा
दल-दल का
दलदल कुछ लेकिन नहीं घटा
बढ़ी अमीरी
अधिक, गरीबी अधिक बढ़ी
अंतर में पलता
अंतर, बढ़ नहीं पटा
रमा रमा में
मन, आराम-विराम चहे-
कहे नहीं 'आ
राम' रहा नाहक शोर....
*
मैंने थाम रखी
अपनी वसुधा की डोर
तुम थामे रहना
अपने अंबर का छोर.…
*

सनातन साहित्य : वेद, पुराण स्मृतियाँ

सनातन साहित्य : वेद, पुराण स्मृतियाँ
हमारा पारम्परिक सनातन साहित्य विश्व मानवता की अमूल्य धरोहर है. इसकी एक झलका निम्न है। इस में आप भी अपनी जानकारी जोड़िये:
*
वेद हमारे धर्मग्रन्थ हैं । वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं । वेद का ज्ञान सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा – इन चार ऋषियों को एक साथ दिया था । वेद मानवमात्र के लिये हैं ।
वेद चार हैं ----
१. ऋग्वेद – इसमें तिनके से लेकर ब्रह्म – पर्यन्त सब पदार्थो का ज्ञान दिया हुआ है । इसमें १०,५२२ मन्त्र हैं ।
२. यजुर्वेद – इसमें कर्मकाण्ड है । इसमें अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है । इसमें १,९७५ मन्त्र हैं ।
३. सामवेद – यह उपासना का वेद है । इसमें १,८७५ मन्त्र हैं ।
४. अथर्ववेद – इसमें मुख्यतः विज्ञान – परक मन्त्र हैं । इसमें ५,९७७ मन्त्र हैं ।
उपवेद – चारों वेदों के चार उपवेद हैं । क्रमशः – आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद ।
वेदांग - ज्योतिष: नेत्र (सौरमंडल, मुहूर्त आदि), निरुक्त, कान: (वैदिक शब्द-व्याख्या आदि), शिक्षा: नासिका ( वेद मंत्र उच्चारण), व्याकरण: मुख (वैदिक शब्दार्थ), कल्प: हाथ (सूत्र / कल्प साहित्य- धर्म सूत्र: वर्ण, आश्रम आदि, श्रोत सूत्र: वृहद यज्ञ विधान, गृह्य सूत्र: लघु यज्ञ विधान, संस्कार, शुल्व सूत्र: वेदी निर्माण), छंद: पैर (काव्य लक्षण, आदि) ।
पुराण - मुख्य १८ ब्रम्ह, पद्म, विष्णु, शिव, नारदीय, श्रीमद्भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रम्हवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, वायु (ब्रम्हांड) । स्कंद पुराण का एक भाग नर्मदापुराण के नाम से प्रकाशित है। सेठ गोविन्ददास ने गांधी पुराण लिखा किन्तु वह इस श्रेणी में नहीं है।
उपनिषद – अब तक प्रकाशित होने वाले उपनिषदों की कुल संख्या २२३ है , परन्तु प्रामाणिक उपनिषद ११ ही हैं । इनके नाम हैं --- ईश , केन , कठ , प्रश्न , मुण्डक , माण्डूक्य , तैत्तिरीय , ऐतरेय , छान्दोग्य , बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर ।
ब्राह्मण ग्रन्थ – इनमें वेदों की व्याख्या है । चारों वेदों के प्रमुख ब्राह्मणग्रन्थ ये हैं ---
ऐतरेय , शतपथ , ताण्ड्य और गोपथ ।
दर्शनशास्त्र – आस्तिक दर्शन छह हैं – न्याय , वैशेषिक , सांख्य , योग , पूर्वमीमांसा और वेदान्त ।
स्मृतियाँ – स्मृतियों की संख्या ६५ है। मुख्य १८ स्मृतियाँ मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, अंगिरस, यम, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, दक्ष, गौतम, शातातप तथा वशिष्ठ रचित हैं।
इनके अतिरिक्त आरण्यक, विमानशास्त्र आदि अनेक ग्रन्थ हैं।
***

सोमवार, 21 जून 2021

विमर्श हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा

विमर्श
हिंदी वांग्मय में महाकाव्य विधा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
संस्कृत वांग्मय में काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंध। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या करता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।
महाकाव्य के तत्व -
महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।
१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सरगारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्रे: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपतुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।
२. नायक - महाकव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (सीता, कैकेयी, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकव्य रचा जाए। प्राय: एक नायक रखा जाता है किन्तु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकव्य लिखा जाए तो गोखले, टिकल। लाजपत राय, रविंद्र नाथ, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजरंदर प्रसाद आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।
३. रस - रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। महाकव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व् परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।
अन्य नियम - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरुप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु पथिक जी ने कारण पर लिखित महाकव्य का शीर्षक 'सूतपुत्र' रखकर इस परंपरा को तोडा है।
महाकाव्य : कल से आज
विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अन्तर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।
इस विरासत पर हिंदी साहित्य की महाकाव्य परंपरा में प्रथम दो हैं चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की रामचद्रिका में पांडित्य जनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत साकेत और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत भी महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने प्रिय प्रवास और द्वारिका मिश्र ने कृष्णायन की रचना की। कामायनी - जयशंकर प्रसाद, वैदेही वनवास हरिऔध, सिद्धार्थ तथा वर्धमान अनूप शर्मा, दैत्यवंश हरदयाल सिंह, हल्दी घाटी श्याम नारायण पांडेय, कुरुक्षेत्र दिनकर, आर्यावर्त मोहनलाल महतो, नूरजहां गुरभक्त सिंह, गाँधी परायण अम्बिका प्रसाद दिव्य, उत्तर भगवत तथा उत्तर रामायण डॉ. किशोर काबरा, कैकेयी डॉ.इंदु सक्सेना देवयानी वासुदेव प्रसाद खरे, महीजा तथा रत्नजा डॉ. सुशीला कपूर, महाभारती डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, दधीचि आचार्य भगवत दुबे, वीरांगना दुर्गावती गोविन्द प्रसाद तिवारी, क्षत्राणी दुर्गावती केशव सिंह दिखित 'विमल', कुंवर सिंह चंद्र शेखर मिश्र, वीरवर तात्या टोपे वीरेंद्र अंशुमाली, सृष्टि डॉ. श्याम गुप्त, विरागी अनुरागी डॉ. रमेश चंद्र खरे, राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस रामेश्वर नाथ मिश्र अनुरोध, सूतपुत्र महामात्य तथा कालजयी दयाराम गुप्त 'पथिक', आहुति बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।
समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है।
***
संपर्क विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४

विमर्श: योग दिवस

विमर्श:
योग दिवस...
*
- योग क्या?
= जोड़ना, संचय करना.
- संचय क्या और क्यों करना?
= सृष्टि का निर्माण और विलय का कारक है 'ऊर्जा', अत: संचय ऊर्जा का... लक्ष्य ऊर्जा को रूपांतरित कर परम ऊर्जा तक आरोहण कर पाना.
- ऊर्जा संचय और योग में क्या संबंध है?
= योग शारीरिक, मानसिक और आत्मिक ऊर्जा को चैतन्य कर, उनकी वृद्धि करता है .फलत: नकारात्मकता का ह्रास होकर सकारात्मकता की वृद्धि होती है. व्यक्ति का स्वास्थ्य और चिंतन दोनों का परिष्कार होता है.
- योग धनाढ्यों और ढोंगियों का पाखंड है.
= योग के क्षेत्र में कुछ धनाढ्य और ढोंगी हैं. धनाढ्य होना अपराध नहीं है, ढोंगी होना और ठगना अपराध है. पहचानना और बचना अपनी जागरूकता और विवेक से ही संभव है, गेहूं के बोर में कुछ कंकर होने से पूरा गेहूं नहीं फेंका जा सकता. इसी तरह कुछ पाखंडियों के कारण पूरा योग त्याज्य नहीं हो सकता.
- दैनिक जीवन की व्यस्तता और समयाभाव के कारण योग करने नहीं जाया जा सकता.
= योग करने के लिए कहीं जाना नहीं है, न अलग से समय चाहिए. एक बार सीखने के बाद अभ्यास अपना काम करते हुए भी किया जा सकता है. कार्यालय, कारखाना, खेत, रसोई हर जगह योग किया जा सकता है, वह भी अपना काम करते-करते.
- योग कैसे कार्य करता है?
= योग मुद्राएँ शरीर की शिराओं में रक्त प्रवाह की गति को सुधरती हैं. मन को प्रसन्न करती है. फलत: थकान और ऊब समाप्त होती है. प्रसन्न मन काम करने पर परिणाम की मात्रा और गुण दोनों में वृद्धि होती है. इससे मिली प्रशंसा और सफलता अधिक अच्छा करने की प्रेरणा देती है.
- योग खर्ची ला है.
= नहीं योग बिन किसी अतिरिक्त व्यय के किया जा सकता है. योग रोग घटाकर बचत कराता है.
- कैसे?
= योग से सही आसन सीख कर कार्य करते समय शरीर को सही स्थिति में रखें तो थकान कम होगी, श्वास-प्रश्वास नियमित हो तो रक्त प्रवाह की गति और उनमें ओषजन की मात्रा बढ़ेगी.फलत: ऊर्जा, उत्साह, प्रसन्नता और सामर्थ्य में वृद्धि होगी.
- योग सिखाने वाले बाबा ढोंगी और विलासी होते हैं.
= निस्संदेह कुछ बाबा ऐसे हो सकते हैं. उन्हें छोड़कर सच्च्ररित्र प्रशिक्षक को चुना जा सकता है. दूरदर्शन, अंतरजाल आदि की मदद से बिना खर्च भी सीखा जा सकता है.
- योग और भोग में क्या अंतर है?
= योग और भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं. 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा', जीने के लिए अन्न, वस्त्र, मकान का भोग करना ही होगा. बेहतर जीवन स्तर और आपदा-प्रबंधन हेतु संचय भी करना होगा. राग और विराग का संतुलन और समन्वय ही 'सम्भोग' है. इसे केवल दैहिक क्रिया मानना भूल है. 'सम्भोग' की प्राप्ति में योग सहायक होता है. 'सम्भोग' से 'समाधि' अर्थात आत्म और परमात्म के ऐक्य की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है. अत्यधिक योग और अत्यधिक भोग दोनों अतृप्ति, अरुचि और अंत में विनाश के कारण बनते हैं. 'योग; 'भोग' का प्रेरक और 'भोग' 'योग' का पूरक है.
- योग कौन कर सकता है?
= योग हर जीवित प्राणी कर सकता है. पशु-पक्षी स्वचेतना से प्रकृति अनुसार आचरण करते हैं जो योग है. मनुष्य में बुद्धितत्व की प्रधानता उसे सर्वार्थ से दूर कर स्वार्थ के निकट कर देती है. योग उसे आत्म तत्व के निकट ले जाकर ब्रम्हांश होने की प्रतीति कराता है. कंकर-कंकर में शंकर होने की अनुभूति होते ही वह सृष्टि के कण-कण से आत्मीयता अनुभव करता है. योग मौन से संवाद की कला है. बिन बोले सुनना-कहना और ग्रहण करना और बाँट देना ही सच्चा योग है.
- योग दिवस क्यों?
योग दिवस केवल स्मरण करने के लिए कि अगले योग दिवस तक योगरत रहकर अपने और सबके जीवन को बेहतर और प्रसन्नता पूर्ण बनाएँ.
***
२१.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

गीत : उड़ने दो

गीत :
उड़ने दो…
संजीव
*
पर मत कतरो
उड़ने दो मन-पाखी को।
कहो कबीरा
सीख-सिखाओ साखी को...
*
पढ़ो पोथियाँ,
याद रखो ढाई आखर।
मन न मलिन हो,
स्वच्छ रहे तन की बाखर।
जैसी-तैसी
छोड़ो साँसों की चादर।
ढोंग मिटाओ,
नमन करो सच को सादर।
'सलिल' न तजना
रामनाम बैसाखी को...
*
रमो राम में,
राम-राम सब से कर लो।
राम-नाम की
ज्योति जला मन में धर लो।
श्वास सुमरनी
आस अंगुलिया संग चले।
मन का मनका,
फेर न जब तक सांझ ढले।
माया बहिना
मोह न, बांधे राखी को…
*
२१-६-२०१३

गीत राकेश खंडेलवाल

गीत
राकेश खंडेलवाल
*
आज सुबह मेट्रो में मैंने जितने भी सहयात्री देखे
सबकी नजरें थमी हाथ में इक डिवाइस पर टिकी हुई थी
लगा सोचने कहा गए पल जब नजरों से नजरे मिलती
दो अजनबियों की राहो में परिचय की नव कलियाँ खिलती
उद्गम से गंतव्यों की थी दूरी तय होती लम्हों में
जमी हुई अनजानेपन की जब सहसा ही बर्फ पिघलती
कल के बीते हुए दिवस की यादें फिर फिर लौट रही है
जब कि किताबों के पन्नों में सूखी कलियाँ धरी हुई थीं
न ही कोई अखबारों के पन्ने यहाँ बाँट कर पढ़ता
न ही कोई लिये हाथ में अब पुस्तक के पृष्ठ पलटता
न ही शब्द हलो के उड़ते ना मुस्कान छुये अधरों को
बस अपने ही खिंचे दायरे में हर कोई सिमटा रहता
नई सभ्यता की आंधी में उड़े सभी सामाजिक र्रिश्ते
सम्प्रेषण की संचारों की जिन पर नीवें रखी हुई थीं
चक्रव्यूह ने ट्विटर फेसबुक व्हाट्सऐप के उलझाया है
पूरी गठरी खो कर लगता बस आधी चुटकी पाया है
भूल गए सब कैसे सँवरे शब्द प्यार के अधरों पर आ
सिर्फ उंगलियों की थिरकन ने तन को मन को भरमाया है
चलो ठीक है झुके शीश अब परछाई तो देख सकेंगे

कल तक जिनकी दृष्टि फुनगियों पर ही जाकर टँकी हुई थी

नवगीत राम रे!

नवगीत
राम रे!
*
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए
कामचोर बे कैते।
पसरे रैत ब्यास गादी पै
भगतन संग लपेटे।
काम पुजारी गीता बाँचें
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल
राम रे!
बारो डाल पुआल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा।
अस्पताल मा घुसे कसाई
थाने अरना भैंसा।
करिया कोट कचैरी घेरे
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल
राम रे !
लूट बजा रए गाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें
रिस रओ छप्पर-छानी।
दागी कर दई रौताइन की
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे
ठोंके आपन भाल
राम रे !
जीना भओ मुहाल।
राम रे!
कैसो निरदै काल?
२१-६-२०१६
***