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शनिवार, 22 मई 2021

मुक्तिका

मुक्तिका:
 हो
संजीव 'सलिल'
*
बहुत दिनों में मुझसे मिलने आ
 हो.
यह जाहिर है तनिक भुला न पा
 हो..

मुझे भरोसा था-है, बिछुड़ मिलेंगे हम.
नाहक ही जा दूर व्यर्थ पछता
 हो..

खलिश शूल की जो हँसकर सह लेती है.
उसी शाख पर फूल देख मुस्का
 हो..

अस्त हुए बिन सूरज कैसे पुनः उगे?
जब समझे तब खुद से खुद शर्मा
 हो..

पूरी तरह किसी को कब किसने समझा?
समझ रहे यह सोच-सोच भरमा
 हो..

ढाई आखर पढ़ बाकी पोथी भूली.
जब तब ही उजली चादर तह पा
 हो..

स्नेह-'सलिल' में अवगाहो तो बात बने.
नेह नर्मदा कब से नहीं नहाए हो..
२२-५-२०११ 
*

स्वास्थ्य सलिला

स्वास्थ्य सलिला
*
रोज संतरा खाइए, किडनी रहे निरोग.
पथरी घुल निकले, करें आप सदा सुख-भोग..
*
सेवन से तरबूज के, मिले शक्ति-भंडार.
परा बैंगनी किरण का, करे यही प्रतिकार.
*
कब्ज़ दूरकर, विटामिन सी देते भरपूर.
रोज़ पपैया-गुआवा, जी भर खांय जरूर.
*
पौरुष ग्रंथिज रोग को, रखता तन से दूर.
रोज टमाटर खाइए, स्वाद रुचे भरपूर..
*
अजवाइन-जैतून का, तेल बढ़ाये आब.
बढ़ा हुआ घट जायेगा, 'सलिल' रक्त का दाब..
*
खा ब्रोकोली (गोभी) मूंगफली, बनिए सेहत मंद.
रक्त-शर्करा नियंत्रित , इंसुलीन हो बंद..
*
बड़ी आँत का कैंसर, उराघात से जूझ.
सेब और किवी खाइए, खनिज विटामिन बूझ.
*
खा हिसाल-शहतूत फल, रोग भगाएं आप.
प्रतिरोधक ताकत बढे, सके न कोई नाप..
*
अगर फेंफडे में हुआ, हो कैंसर का कष्ट.
नारंगी गहरी हरी, सब्जी होती इष्ट.
*
बंधा गोभी से मिले, अल्सर में आराम.
ज़ख्म ठीक हो शीघ्र ही, यदि न विधाता वाम..
*
अगर दस्त-अतिसार से, आप हो रहे त्रस्त.
खाएं केला-सेब भी, पस्त न हों, हों मस्त..
*
नाशपातियाँ खाइए, कम हो कोलेस्ट्रोल.
धमनी में अवरोध का, है इलाज अनमोल..
एवाकाडो = नाशपाती की तरह का ऊष्णकटिबंधीय फल.
*
अनन्नास खा-रस पियें, हड्डी हो मजबूत.
टूटी हड्डी शीघ्र जुड़, दे आराम अकूत..
*
याददाश्त गर दे दगा, बातें रहें न याद.
सेवन करिए शुक्ति का, समय न कर बर्बाद ..
शुक्ति = सीप
*
सर्दी-कोलेस्ट्रोल जब बढे, न हों हैरान.
लहसुन का सेवन करे, सस्ता-सुलभ निदान..
*
मिर्च खाइए तो रहे, बढ़ा हुआ कफ शांत.
ध्यान पेट का भी रखें, हो ना क्रुद्ध-अशांत..
*
गेहूँ चोकर खाइए, पत्ता गोभी संग.
वक्ष कैंसर में मिले, लाभ- आप हों दंग
*
नाक में दम कर दे दमा,'सलिल' न हो आराम.
खा-छाती पर लगा लें, प्याज़ करें विश्राम..
*
संधिवात-गठिया करे, अगर आपको तंग.
मछली का सेवन करें, मन में जगे उमंग..
*
उदर कष्ट से मुक्ति हो, केला खाएं आप.
अदरक उबकाई मिटा, हरती है संताप..
*
मूत्राशय संक्रमण में, हों न आप हैरान.
क्रेनबैरी का रस पियें, आए जां में जान..
क्रेनबैरी = करौंदा
*
मछली-सेवन से 'सलिल', शीश-दर्द हो दूर.
दर्द और सूजन हरे, अदरक गुण भरपूर...
*
दही -शहद नित लीजिये, मिले ऊर्जा-शक्ति.
हे-ज्वर भागे दूर हो, जीवन से अनुरक्ति..
*
हरी श्वेत काली पियें, चाय कमे हृद रोग.
धमनी से चर्बी घटे, पाचन बढे सुयोग..
*
नींद न आये-अनिद्रा, का है सुलभ उपाय.
शुद्ध शहद सेवन करें, गहरी निद्रा आय..
२२-५-२०१० 
***

शुक्रवार, 21 मई 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
*
मुश्किल कोई डगर नहीं है
बेरस कोई बहर नहीं है
किस मन में मिलने-जुलने की
कहिए उठती लहर नहीं है
सलिल-नलिन हैं रात-चाँद सम
इस बिन उसकी गुजर नहीं है
हो ऊषा तुम गृहाकाश की
तुम बिन होती सहर नहीं है
हूँ सूरज श्रम करता दिन भर
बिन मजदूरी बसर नहीं है
***
२१-५-२०२०

हास्य रचना

हास्य रचना 
*
औरत होती नहीं रिटायर
करती रोज पुरुष को टायर
माँ बन आँचल में दुबकाए
बहना बन पहरा दिलवाए
सखी अँगुलि पर नाच नचाए
भौजी ताने नित्य सुनाए
बीबी सहयोगिनी कह आए
पर गृह की स्वामिन बन जाए
बेटी चिंता-फिक्र बढ़ाए
पल-पुस कर झट फुर हो जाए
बहू छीन ले आकर कमरा
वृद्धाश्रम की राह दिखाए
कहो न अबला, नारी सबला
तबला नर को बना बजाए
नर बेचारा समझ रहा यह
तम में आशा दीप जलाए
शारद-रमा-उमा नित पूजे
घर न घाट का पर रह जाए
***
२१-५-२०२०

मुक्तिका: जिंदगी की इमारत

मुक्तिका: 
जिंदगी की इमारत

जिंदगी की इमारत में, नींव हो विश्वास की।
प्रयासों की दिवालें हों, छत्र हों नव आस की।
*
बीम संयम की सुदृढ़, मजबूत कॉलम नियम के।
करें प्रबलीकरण रिश्ते, खिड़कियाँ हों हास की।।
*
कर तराई प्रेम से नित, छपाई कर नीति से।
ध्यान धरना दरारें बिलकुल न हों संत्रास की।।
*
रेत कसरत, गिट्टियाँ शिक्षा, कला सीमेंट हो।
फर्श श्रम का, मोगरा सी गंध हो वातास की।।
*
उजाला शुभकामना का, द्वार हो सद्भाव का।
हौसला विद्युतिकरण हो, रौशनी सुमिठास की।।
*
फेंसिंग व्यायाम, लिंटल मित्रता के हों 'सलिल'।
बालकनियाँ पड़ोसी अपनत्व के अहसास की।।
*
वरांडे हो मित्र, स्नानागार सलिला सरोवर।
पाकशाला तृप्ति, पूजास्थली हो सन्यास की।।
***
7999559618, 9425183244
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका

मुक्तिका
.
शब्द पानी हो गए
हो कहानी खो गए
.
आपसे जिस पल मिले
रातरानी हो गए
.
अश्रु आ रूमाल में
प्रिय निशानी हो गए
.
लाल चूनर ओढ़कर
क्या भवानी हो गए?
.
नाम के नाते सभी
अब जबानी हो गए
.
गाँव खुद बेमौत मर
राजधानी हो गए
.
हुए जुमले, वायदे
पानी पानी हो गए
...
२१-५-२०१७

नवगीत

नवगीत
*
मात्र मेला मत कहो
जनगण हुआ साकार है।
*
'लोक' का है 'तंत्र' अद्भुत
पर्व, तिथि कब कौन सी है?
कब-कहाँ, किस तरह जाना-नहाना है?
बताता कोई नहीं पर
सूचना सब तक पहुँचती।
बुलाता कोई नहीं पर
कामना मन में पुलकती
चलें, डुबकी लगा लें
यह मुक्ति का त्यौहार है।
*
'प्रजा' का है 'पर्व' पावन
सियासत को लगे भावन
कहीं पण्डे, कहीं झंडे- दुकाने हैं
टिकाता कोई नहीं पर
आस्था कब है अटकती?
बुझाता कोई नहीं पर
भावना मन में सुलगती
करें अर्पित, पुण्य पा लें
भक्ति का व्यापार है।
*
'देश' का है 'चित्र' अनुपम
दृष्ट केवल एकता है।
भिन्नताएँ भुला, पग मिल साथ बढ़ते
भुनाता कोई नहीं पर
स्नेह के सिक्के खनकते।
स्नान क्षिप्रा-नर्मदा में
करे, मानें पाप धुलते
पान अमृत का करे
मन आस्था-आगार है।
*
२१-५-२०१६

अमीर खुसरो के रोचक घरेलू नुस्खे

 अमीर खुसरो के रोचक घरेलू नुस्खे






अमीर खुसरो ने वैद्यराज खुसरो के रूप में काव्यात्मक घरेलू नुस्खे भी लिखे हैं-
1 हरड़-बहेड़ा आँवला, घी सक्कर में खाए!
हाथी दाबे काँख में, साठ कोस ले जाए!!
2 मारन चाहो काऊ को, बिना छुरी बिन घाव!
तो वासे कह दीजियो, दूध से पूरी खाए!!
3 प्रतिदिन तुलसी बीज को, पान संग जो खाए!
रक्त-धातु दोनों बढ़े, नामर्दी मिट जाय!!
4 माटी के नव पात्र में, त्रिफला रैन में डारी!
सुबह-सवेरे-धोए के, आँख रोग को हारी!!
5 चना-चून के-नोन दिन, चौंसठ दिन जो खाए!
दाद-खाज-अरू सेहुवा-जरी मूल सो जाए!!
6 सौ-दवा की एक दवा, रोग कोई न आवे!
खुसरो-वाको-सरीर सुहावे, नित ताजी हवा जो खावे!!
*

दोहा, घनाक्षरी

 दोहा

*
प्राची से होती प्रगट, खोल कक्ष का द्वार.
अलस्सुबह ऊषा पुलक, गुपचुप झाँक-निहार..
*
मिले अकेलापन कभी, खुद से खुद कर भेंट
'सलिल' व्यर्थ बिखराव को, होकर मौन समेट
*
रक्त कमल दल मध्य है, मुक्ता मणि रद-पंक्ति
आप आप पर रीझते, नयन गहें भव-मुक्ति
*
स्वर्णहार ले आओ तो, विहँस कंठ में धार
पहना दूँ पल में तुम्हें, झट बाँहों का हार
*
तेल कान में डालकर, बैठे सत्तासीन
कौन सुधारे देश को, सब स्वार्थों में लीन
*
सूपे जैसे नख लिये, हुई सुपनखा निंद्य
सूपे जैसे कान ले, गणपति हुए अनिंद्य
*
रूप नहीं गुण देखते, जो- वे हैं मतिमान
सुनें सतासत कान पर, दें न असत पर ध्यान
*
जो जन कच्चे कान के, उनसे रहें सतर्क
अफवाहों पर भरोसा, करें- न मानें तर्क
*
कान खड़े कर सुन रहा, जो न समय की बात
कान बंद कर जो रहा, दोनों की है मात
*
छवि देखें मुख चन्द्र की, कर्ण फूल के साथ
शतदल पाटल मध्य ज्यों, देख मुग्ध शशिनाथ
*
आन गाँव का कनफटा, लगता जोगी सिद्ध
कौन बताये कब कहाँ, रहा मोह में बिद्ध
*
कनबहरी करिए नहीं, अवसर जाता चूक
व्यर्थ विवादों की दवा, लेकिन यही अचूक
*
कान खींचना ही नहीं, भूलों का उपचार
मार्ग प्रदर्शन भी करें, तब हो बेडा पार
*
कान कटे जिसके लगे, श्रीयुत भी श्री हीन
नकटी शूर्पनखा लगे, नहीं श्रेष्ठ अति दीन
*
आँखें चश्मा हीन हों, अगर नहीं हों कान
कान पकड़ चश्मा सजे, मगर न घटता मान
*
कान-नाक से जुड़ा है, नाज़ुक नाड़ी-तन्त्र
छेद-कीलते विज्ञ जन, स्वस्थ्य रहे तन-यंत्र
*
कान मकान दूकान से, बढ़ते क्रिया-कलाप
नहीं एक भी हो अगर, जीवन बने विलाप
*
कान न हों तो सुन सकें, हम कैसे आवाज?
हो न सके संवाद तो, रुक जाएँ जग-काज
*
कर्ण न हो तो श्रवण, रण, ज्यामिति शोभाहीन
कर्ण-शूल बेचैन कर, अमन चैन ले छीन
*
कान न भरिये किसी के, मत तोड़ें विश्वास
कान-दान मत कीजिए, पायेंगे संत्रास
*
कान कतरना चाहती, खुद को स्याना मान
अपने ही माँ-बाप के, 'सलिल' आज सन्तान
*
वाद-विवाद किये बिना, करते चुप सहयोग
कान धीर-गंभीर पर, नहीं चाहते शोर
*

घनाक्षरी : नाक
संजीव
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है।
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है।।
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें।
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें।।
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ राह निकालें।
नाक नकेल भी डाल सखे, न कटे जंजाल तो नाक़ चढ़ा लें।।
*

वास्तु सूत्र

वास्तु सूत्र ------ संजीव
***********
(१ ) भवन के मुख्य द्वार पर किसी भी ईमारत, मंदिर, वृक्ष, मीनार आदि की छाया नहीं पड़नी चाहिए।
(२ ) मुख्य द्वार के सामने रसोई बिलकुल नहीं होनी चाहिए।
(३ ) रसोई घर, पूजा कक्ष तथा शौचालय एक साथ अर्थात लगे हुए न हों। इनमे अंतर होना चाहिए।
(४ ) वाश बेसिन, सिंक, नल की टोंटी, दर्पण आदि उत्तरी या पूर्वी दीवार के सहारे ही लगवाएं।
(५) तिजोरी (केश बॉक्स या सेफ) दक्षिण या पश्चिमी दीवार में लगवाएं ताकि उसका दरवाजा उत्तर या पूर्व में खुले।
(६) भवन की छत एवं फर्श नैऋत्य में ऊँचा रखें एवं शान में नीचा रखें।
(७) पूजा स्थान इस तरह हो कि पूजा करते समय आपका मुँह पूर्व, उत्तर या ईशान (उत्तर-पूर्व) दिशा में हो।
(८) जल स्रोत (नल, कुआँ, ट्यूब वेल आदि), जल-टंकी ईशान में हो।
(९) अग्नि तत्व (रसोई गृह) भूखंड के आग्नेय में हो। चूल्हा, ओवन, बिजली का मीटर आदि कक्ष के दक्षिणआग्नेय में हों।
(१०) नैऋत्य दिशा में भारी निर्माण जीना, ममटी आदि तथा भारी सामान हो। घर की चहार दीवारी नैऋत्य में अधिक ऊँची व मोटी तथा ईशान में दीवार कम नीची व कम मोटी अर्थात पतली हो।
(११) वायव्य दिशा में अतिथि कक्ष, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, कारखाने का उत्पादन कक्ष रखें। यहाँ सेप्टिक टैंक बना सकते हैं। टैक्सी सर्विस वाले यहाँ वहां रखें तो सफलता अधिक मिलेगी।

नवगीत

नवगीत:
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
शांति-शिष्टता,
धैर्य-भद्रता,
जीवट की पहचान.
शांत सतह के
नीचे हलचल,
मचल रहे अरमान.
श्वेत-शयन लख
यह मत समझो
रंगों से अनजान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
ऊपर-नीचे
सब जानें पर
ऊँच-नीच से दूर.
दिक्-दिगंत पर
नजर जमाये
आशान्वित भरपूर.
मुस्कानों से
'सलिल' न होगा
पीड़ा का अनुमान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*
उत्तर का
प्रत्युत्तर देना
बहुत सहज आसान.
कह न अनर्गल
मौन साधना
क्या जानें नादान?
जी सचमुच
है बड़ा, 'सलिल' वह
नहीं दिखता शान.
मौन देखकर
यह मत समझो
मुँह में नहीं जुबान...
*

गुरुवार, 20 मई 2021

अभियान समाचार १८-५-२०२०

 अभियान समाचार १८-५-२०२० 




रूपमाला छंद

छंद सलिला:
रूपमाला छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति चौदह-दस, पदांत गुरु-लघु (जगण)
लक्षण छंद:
रूपमाला रत्न चौदह, दस दिशा सम ख्यात
कला गुरु-लघु रख चरण के, अंत उग प्रभात
नाग पिंगल को नमनकर, छंद रचिए आप्त
नव रसों का पान करिए, ख़ुशी हो मन-व्याप्त
उदाहरण:
१. देश ही सर्वोच्च है- दें / देश-हित में प्राण
जो- उन्हीं के योग से है / देश यह संप्राण
करें श्रद्धा-सुमन अर्पित / यादकर बलिदान
पीढ़ियों तक वीरता का / 'सलिल'होगा गान
२. वीर राणा अश्व पर थे, हाथ में तलवार
मुगल सैनिक घेर करते, अथक घातक वार
दिया राणा ने कई को, मौत-घाट उतार
पा न पाये हाय! फिर भी, दुश्मनों से पार
ऐंड़ चेटक को लगायी, अश्व में थी आग
प्राण-प्राण से उड़ हवा में, चला शर सम भाग
पैर में था घाव फिर भी, गिरा जाकर दूर
प्राण त्यागे, प्राण-रक्षा की- रुदन भरपूर
किया राणा ने, कहा: 'हे अश्व! तुम हो धन्य
अमर होगा नाम तुम हो तात! सत्य अनन्य।
*********
२०-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
दोहा सलिला
छीन रहे थे और के, मुँह से रोटी-कौर.
अपने मुँह से छिन गया, आया ऐसा दौर.
*
समय छोड़ पाया नहीं, अपना तनिक प्रभाव.
तब सा अब भी चेहरा, आदत, सृजन, स्वभाव.
*
मार न पड़ती उम्र की, बढ़ता अनुभव-तेज।
तब करते थे जंग, अब जमा रहे हैं रंग।।
*
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।।
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम।
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*
मार न पड़ती उम्र की, बढ़ता अनुभव-तेज।
तब करते थे जंग, रंग जमा हुए रंगरेज।।
*
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।।
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम।
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*
मिल कर भी मिलती नहीं, मंजिल खेले खेल।
यात्रा होती रहे तो, हर मुश्किल लें झेल।।
*
२०-५-२०१८ 





समीक्षा काल है संक्रांति का आचार्य भगवत दुबे

पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
पिसनहारी मढ़िया के निकट
जबलपुर ४८२००३, चलभाष ९३००६१३९७५

दोहों के रंग आँखके संग

दोहा सलिला:
दोहों के रंग आँख के संग
संजीव
*
आँख लड़ी झुक उठ मिली, मुंदी कहानी पूर्ण
लाड़ मुहब्बत ख्वाब सँग, श्वास-आस का चूर्ण
*
आँख कहानी लघुकथा, उपन्यास रस छंद
गीत गजल कविता भजन, सुख-दुःख परमानंद
*
एक आँख से देखते, धूप-छाँव जो मीत
वही उतार-चढ़ाव पर, चलकर पाते जीत
*
धूल झोंकते आँख में, आँख बिछाकर लोग
चुरा-मिला आँखें दिखा, झूठ मनाते सोग
*
कभी किसी की आँख का, बनें न काँटा आप
कभी आप की आँख में, सके न काँटा व्याप
*
२०-५-२०१५ 

नवगीत

 नवगीत:

संजीव
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*

द्विपदी सलिला


द्विपदी सलिला:
संजीव
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
शिखर सारे बिन रुके हम नापते हैं
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
आदमी-दूकान में कुछ फर्क ही नहीं 
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*
वक़्त सुनता ही नहीं, सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम
सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम
*
२०-५-२०१५ 

दोहा सलिला

दोहा सलिला  
*
भज न अगर मन से सतत, तो भजना है व्यर्थ। 
मन न अगर केंद्रित हुआ, नहीं मनन का अर्थ।।
*
चिंता तज चिंतन करे, प्रभु-छवि निरखें मीत। 
रूप-गुण अनगिन अमित, पाल चिरंतन प्रीत।।
*    
मन मनीष संतोष पा, सरला मति दे नाथ।
हो अशोक शशि भूमि रवि, रेखा विभा सनाथ।।
*
छाया मिले बसंत की, खिले मंजरी दैव।
ललिता मति हो निरुपमा, सद आनंद सदैव।।
*
हरि सहाय हों नित सलिल, आकांक्षा हो पूर्ण।
कर आनंद विनोद मन, सुख पा-दे संपूर्ण।।
*
कृपा किरण पा दे सकें, यही अपेक्षा ईश।
गीता गुंजन सुन तरें, सदय रहें जगदीश।।
*
भीम सदृश संकल्प हो, मन कोमल नवनीत।
पा आशीष-विवेक हम, निज मन पाएँ जीत।।
*

   
 








भजन

भजन :
प्रभु जी! हमको दें वरदान
संजीव
*
प्रभु जी! हमको दें वरदान
निश-दिन कर पाएँ गुणगान
*
हम माटी के महज खिलौने,
भारत माता के मृग-छौने.
कोशिश करें न बिना छुए नभ
कद रह जाएँ न ईश बौने.
जड़ें जमा धरती वर विचरें
बनें धरा का मान...
*
हम किस्मत के बनें डिठौने,
करें न कोई काम घिनौने.
रंग भर सकें जग-जीवन में-
हों न अधूरे स्वप्न सलौने.
दूर रहें दुर्गुण-दुःख हमसे
हों सद्गुण की खान...
*
श्वासों संग आसों का गौना,
प्यास हरे, रासों का दौना.
करे पूर्ण की प्राप्ति 'सलिल', पग
थमे नहीं पा औना-पौना.
समय-सत्य का कर पायें हम
समय-पूर्व अनुमान...
*