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रविवार, 6 सितंबर 2020

विमर्श यायावर हैं शब्द

विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
संजीव
६-९-२०१९
७९९९५५९६१८

हिंदी ग़ज़ल

हिंदी ग़ज़ल
छंद दोहा
*
राष्ट्र एकता-शक्ति का, पंथ वरे मिल साथ।
पैर रखें भू पर छुएँ, नभ को अपने हाथ।।
अनुशासन का वरण कर, हों हम सब स्वाधीन।
मत निर्भर हों तंत्र पर, रखें उठाकर माथ।।
भेद-भाव को दें भुला, ऊँच न कोई नीच।
हम ही अपने दास हों, हम ही अपने नाथ।।
श्रम करने में शर्म क्यों?, क्यों न लिखें निज भाग्य?
बिन नागा नित स्वेद से, हितकर लेना बाथ।।
भय न शूल का जो करें, मिलें उन्हीं को फूल।
कंकर शंकर हो उन्हें, दिखलाते वे पाथ।।
***
संजीव
६-९-२०१९
७९९९५५९६१८

गीत : कौन हूँ मैं

गीत :
कौन हूँ मैं?...
संजीव 'सलिल'
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
*******

एकाक्षरी दोहा

एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
***

सुरेश उपाध्याय

मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी



शत-शत वंदन
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***

नवगीत

नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
***
३०-११-२०१४

लघुकथा पीड़ा

लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष शिष्य गर्वित हो रहे थे।
सबसे अंत में खड़ा, सहम-सँकुच वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पता लपककर कमरे से निकल गए।
दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हों, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखे तक नहीं। मेजपर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा उसके शिक्षक थे 'मुझसे भूल हो गयी, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गयी उसके मन की पीड़ा।
***

विमर्श: शिष्य दिवस और शुभ कामनायें

विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
*
अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण के शिष्य रूप आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं. यदि किसी एक नाम का चयन करना हो तो एकलव्य। क्यों?
सोचिए?
किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
*
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा. हिंदी भाषा, व्याकरण, पिंगल, वास्तु, आयुर्वेद और नागरिक अभियांत्रिकी में जो जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ साझा करता रहता हूँ. हिन्दयुग्म, साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, फेसबुक पृष्ठों, ऑरकुट, वॉट्सऐप और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ. इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ।, इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है. युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो.
विस्मित हूँ यह देखकर कि जन्मदिवस पर १,००० से अधिक मित्रों ने शुभ कामना के संदेश भेजे। इनमें से कई से मैं कभी नहीं मिला. क्या यह औपचारिकता मात्र है या इन शुभकामनाओं में संवेदनशील मन की भावना अन्तर्निहित है?
मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु…
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म
*

नव गीत: क्या?, कैसा है?

नव गीत:   क्या?, कैसा है?...   संजीव 'सलिल' * क्या?, कैसा है? कम लिखता हूँ, अधिक समझना... * पोखर सूखे, पानी प्यासा. देती पुलिस चोर को झाँसा. सड़ता-फिंकता अन्न देखकर खेत, कृषक, खलिहान रुआँसा. है गरीब की किस्मत, बेबस भूखा मरना. क्या?, कैसा है? कम लिखता हूँ, अधिक समझना... * चूहा खोजे मिले न दाना. सूखी चमड़ी तन पर बाना. कहता: 'भूख नहीं बीमारी'. अफसर-मंत्री सेठ मुटाना. न्यायालय भी छलिया लगता. माला जपना. क्या?, कैसा है? कम लिखता हूँ, अधिक समझना... * काटे जंगल, भू की बंजर. पर्वत खोदे, पूरे सरवर. नदियों में भी शेष न पानी. न्यौता मरुथल हाथ रहे मल. जो जैसा है जब लिखता हूँ देख-समझना. क्या?, कैसा है? कम लिखता हूँ, अधिक समझना... *****************

शनिवार, 5 सितंबर 2020

सरस्वती वंदना

सरस्वती वंदना
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।
शक्ति ऐसी दो हमें माँ,सत्य लिख संसार का दूँ।
सार समझा दूँ जगत का,ज्ञान बस परिहार का दूँ।
आन बैठो नित्य जिह्वा,कंठ में मृदु राग भर दो-
नाद अनहद बज उठे उर,प्राण निर्मल भावना हो।
काव्य हो अभिमान मेरा,तूलिका पहचान मेरी।
छंद रंगित पृष्ठ शोभित,वंद्य कूची शान मेरी।
छिन भले लो साज सारे,पर कलम को धार दो माँ-
मसि धवल शुचि नीर लेकर,अम्ब!तेरी अर्चना हो।
लिख सकूँ अरमान सारे,रच सकूँ इतिहास स्वर्णिम।
ठूँठ पतझर के हृदय पर,रख सकूँ मधुमास स्वर्णिम।
शब्द अभिधा अर्थ अभिनव,रक्त कणिका में घुला दो-
शारदे! निज कर बढ़ा दो,शुभ चरण आराधना हो।
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।

गीत

गीत
*
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६

आत्मालाप: संजीव 'सलिल

कविता: आत्मालाप: संजीव 'सलिल' * क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब?  कौन किसे बतलाये? मन की मात्र यही जिज्ञासा हम क्या थे संग लाये? आए खाली हाथ गँवाने को कुछ कभी नहीं था. पाने को थी सकल सृष्टि हम ही कुछ पचा न पाये. ऋषि-मुनि, वेद-पुराण, हमें सच बता-बताकर हारे कोई न अपना, नहीं पराया हम ही समझ न पाये. माया में भरमाये हैं हम वहम अहम् का पाले. इसीलिए तो होते हैं सारे गड़बड़ घोटाले. जाना खाली हाथ सभी को सभी जानते हैं सच. धन, भू, पद, यश चाहें नित नव कौन सका इनसे बच? जब, जो, जैसा जहाँ घटे हम साक्ष्य भाव से देखें. कर्ता कभी न खुद को मानें प्रभु को कर्ता लेखें. हम हैं मात्र निमित्त, वही है रचने-करनेवाला. जिससे जो चाहे करवा ले कोई न बचनेवाला. ठकुरसुहाती उसे न भाती लोभ, न लालच घेरे. भोग लगा खाते हम खुद ही मन से उसे न टेरें. कंकर-कंकर में वह है तो हम किससे टकराते? किसके दोष दिखाते हरदम? किससे हैं भय खाते? द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें तभी मिल सके दृष्टि. तिनका-तिनका अपना लागे अपनी ही सब सृष्टि. कर अमान्य मान्यता अन्य की उसका हृदय दुखाएँ. कहें संकुचित सदा अन्य को फिर हम हँसी उड़ायें.. कितना है यह उचित?, स्वयं सोचें, विचार कर देखें. अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें, व्यर्थ अन्य को लेखें.. जिनके जैसे पंख, वहीं तक वे पंछी उड़ पायें. ऊँचा उड़ें,न नीचा उड़नेवाले को ठुकराएँ.. जैसा चाहें रचें, करे तारीफ जिसे भायेगा.. क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी नेह-प्रीत लाएगा??.. सृजन नहीं मसखरी,न लेखन द्वेष-भाव का जरिया. सद्भावों की सतत साधना रचनाओं की बगिया.. शत-शत पुष्प विकसते देखे सबकी अलग सुगंध. कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह, उस पर हो प्रतिबन्ध.' कभी न एक पुष्प को देखा दे दूजे को टीस, व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे जो वह दिखे कपीश.. नेह नर्मदा रहे प्रवाहित चार दिनों का साथ. जीते-जी दें कष्ट बिछुड़ने पर करते नत माथ? माया है यह, वहम अहम् का इससे यदि बच पाये. शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन करे 'सलिल' तर जाये.   *********************

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

बाल कविता : तुहिना-दादी

बाल कविता :
तुहिना-दादी
संजीव 'सलिल'
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
*********************
७-६-२०१०

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
-- संजीव 'सलिल'
*
जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..
जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..
कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..
माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..
रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..
समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..
तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.