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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

हाइकु

हाइकु
संजीव
.
दर्द की धूप 
जो सहे बिना झुलसे 
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
*

१४-२-२०१५ 

मुक्तिका: जमीं बिस्तर है

मुक्तिका:
जमीं बिस्तर है
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.
न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..
नहीं कुदरत करे अपना-पराया.
दिमागे-आदमी की गंदगी है..
बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है
इरादों-हौसलों की मंदगी है..
जबरिया बात मनवाना किसी से
नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है..
बात कहने से पहले तौल ले गर
'सलिल' कविताई असली छंदगी है..
**************************
१३-२- २०११

मुक्तिका साथ बुजुर्गों का

मुक्तक 
आशा की कंदील झूलती 
मिली समय की शाख पर 
जलकर भी देती उजियारा 
खुश हो खुद को राख कर
*
मुक्तिका
साथ बुजुर्गों का...
संजीव 'सलिल'
*
साथ बुजुर्गों का बरगद की छाया जैसा.
जब हटता तब अनुभव होता था वह कैसा?
मिले विकलता, हो मायूस मौन सहता मन.
मिले सफलता, नशा मूंड़ पर चढ़ता मै सा..
कम हो तो दुःख, अधिक मिले होता विनाश है.
अमृत और गरल दोनों बन जाता पैसा..
हटे शीश से छाँव, धूप-पानी सिर झेले.
फिर जाने बिजली, अंधड़, तूफां हो ऐसा..
जो बोया है वह काटोगे 'सलिल' न भूलो.
नियति-नियम है अटल, मिले जैसा को तैसा..
***********************************
१३-२-२०११

हाइकु नवगीत- टूटा विश्वास

हाइकु नवगीत :
संजीव
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है 
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.

कुण्डलिया

षटपदियाँ:
आभा की देहरी हुआ, जब से देहरादून 
चमक अर्थ पर यूं रहा, जैसे नभ में मून
जैसे नभ में मून, दून आनंद दे रहा
कितने ही यू-टर्न, मसूरी घुमा ले रहा 
सलिल धार से दूरी रख, वर्ना हो व्याधा
देख हिमालय शिखर, अनूठी जिसकी आभा.
.
हुए अवस्था प्राप्त जो, मिला अवस्थी नाम
राम नाम निश-दिन जपें, नहीं काम से काम
नहीं काम से काम, हुए बेकाम देखकर
शास्त्राइन ने बेलन थामा, लक्ष्य बेधकर
भागे जान बचाकर, घर से भंग बिन पिए
बेदर बेघर-द्वार आज देवेश भी हुए

नवगीत- कम लिखता हूँ

नवगीत:

कम लिखता हूँ...

संजीव 'सलिल'
*
क्या?, कैसा है??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत केवल
है गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही मंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
१३.२.२०११ 
***************

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

हस्तिनापुर की बिथा-कथा बुंदेली महाकाव्य डॉ. मुरारीलाल खरे


हस्तिनापुर की बिथा-कथा
बुंदेली महाकाव्य
डॉ. मुरारीलाल खरे
विश्ववाणी हिंदी संस्थान
समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर
*

हस्तिनापुर की बिथा-कथा
महाकाव्य
डॉ. मुरारीलाल खरे
प्रथम संस्करण २०१९
प्रतिलिप्याधिकार: रचनाकार
ISBN
मूल्य: २००/-
*
स्मरण:
*
समर्पण
*
भूमिका
*
अपनी बात

बुंदेली में ई लेखक कौ काव्य रचना कौ पैलो प्रयास 'बुंदेली रमायण सन २०१३ में छपो तो। ऊके बाद एक खंड काव्य साहित्यिक हिंदी में 'शर शैया पर भीष्म पितामह' सन २०१५ में छपो। तबहूँ जौ बिचार मन में उठो कै महाभारत की कथा खौं छोटो करकें बुंदेली में काव्य-रचना करी जाए। महाभारत की कथा तौ भौत बड़ी है। ऊखौं  पूरौ पड़बे की फुरसत और धीरज कोऊ खौं नइंयां। छोटो करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे। जौ बात कछू विद्वानन खौं खटक सख्त ई के लानें छमा चाउत। बुंदेली में हस्तिनापुर की बिथा-कथा लिखबे में कैऊ मुश्किलें आईं। एक तौ जौ कै बुंदेली कौ कोनउ  मानक स्वरुप सर्वसम्मति सेन स्वीकार नइंयां। एकई शब्द कौ अर्थ बताबे बारे जगाँ-जगाँ अलग-अलग शब्द हैं, जैसें 'बहुट के लाने भौत, भारी, बड़ौ, मटके, गल्लां, बिलात, ढेरन।  उच्चारन सोउ अलग-अलग हैं। ईसें कैऊ भाँत सें समझौता करने परो। हिंदी के 'ओस को कऊँ 'बौ' और कितऊँ 'ऊ' बोलो जात। उसको की जगां 'बाए' 'उयै', 'ऊखों' कौ इस्तेमाल होत। 'को' के लाने 'खौं' और 'खाँ' दोऊ चलत आंय। 'यहाँ', 'वहाँ' के लानें दतिया में 'हिना', हुआँ' झाँसी में 'हिआँ', 'हुआँ', कऊँ 'इहाँ-उहाँ' तौ कितऊँ 'इतै-उतै', 'इताएँ-उताएँ', इतईं-उतईं बोलो जात। ई रचना में जितै जैसो सुभीतो परौ वैसोइ शब्द लै लओ। बिद्वान लोग इयै   एक रूपता की कमी मान सकत। लेखक कौ बचपनो झाँसी, ललितपुर और मऊरानीपुर-गरौठा के ग्रामीण अंचल में बीतो, सो उतै की बोलियन कौ असर ई रचना में जरूर आओ हुये। 

बुंदेली में अवधी की भाँत 'श' को उच्चारन 'स' और 'व' को उच्चारन कऊँ-कऊँ 'ब' होत। ऐसोइ ई काव्य में है। 'ण' को उच्चारन 'न' है पर ई रचना में 'ण' जितै कोऊ के नाव में है तौ ऊकौ 'न' नईं करो गओ जैसें द्रोण, कर्ण, कृष्ण, कृष्णा में सुद्ध रूप लओ है, उनें द्रोन, करन, कृस्न, कृस्ना नईं करो। सब पात्रन के नाव सुद्ध रूप में रखे गए उनकों बुंदेली अपभृंस नईं करो। ठेठ बुंदेली के तरफ़दार ई पै ऐतराज कर सकत। शब्द खौं जबरदस्ती देहाती उच्चारन दैवे के लाने बिगारो नइयाँ। एकदम ठेठ देहाती और कम चलवे वारे स्थानीय शब्द न आ पाएँ, ऐसी कोसिस रई। व्याकरन बुंदेली कौ है, शब्द सब कऊँ बुंदेली के नइयाँ। ई कोसिस में लेखक खौं कां तक सफलता मिली जे तो पाठक हरें तै कर सकत। विनती है उनें जौ रचना कैसी लगी, जौ बतावे की किरपा करें। अंत में निवेदन है 'भूल-चूक माफ़'।  
विनयवंत 
एम. एल. खरे 
     (डॉ. मुरारी लाल खरे) 
*
कितै का है?
अध्याय संख्या और नाव                                                                पन्ना संख्या 
१. हस्तिनापुर कौ राजबंस 

२. कुवँरन की शिक्षा और दुर्योधन की ईरखा 

३. द्रौपदी स्वयंवर और राज कौ बँटवारौ 

४. छल कौ खेल और पांडव बनवास 

५. अज्ञातवास में पाण्डव 

६. दुर्योधन कौ पलटवौ और युद्ध के बदरा 

७. महायुद्ध (भाग १) पितामह की अगुआई में 

८. महायुद्ध (भाग २) आख़िरी आठ दिन 

९. महायुद्ध के बाद 

***

कैसी बिथा?

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्यावर्त गओ

घर में आग लगाई, घर में बरत दिया की भड़की लौ
सत्यानास देस कौ भओ  तो, नईं वंस कौ भओ भलो

लरकाईं में संग रये जो, संग-संग खाये-खेले
बेी युद्ध में एक दुसरे के हथयारन खौं झेले

दिव्य अस्त्र पाए ते जतन सें, होवे खौं कुल के रक्षक
नष्ट भये आपस में भिड़कें, बने बंधुअन के भक्षक

गरव करतते अपने बल कौ, जो वे रण में मर-खप गए
वेदव्यास आंखन देखी जा, बिथा-कथा लिख कें धर गए

***
पैलो अध्याय

हस्तिनापुर कौ राजबंस

कब, कितै और काए 

द्वापर के आखिरी दिनन भारत माता की छाती पै।
भाव बड़ौ संग्राम भयंकर कुरुक्षेत्र की थाती पै।१।

बा लड़ाई में शामिल भए ते केऊ राजा बड़े-बड़े।
कछू पाण्डवन संग रए ते, कछू कौरवां संग खड़े।२।

एकई राजबंस के ककाजात भइयन में युद्ध भओ। 
जीसें भारत भर के के कैऊ राजघरन कौ नास भओ।३।

भारी मार-काट भइती, धरती पै भौतइ गिरो रकत।
सत्यानास देस कौ भओ, बौ युद्ध कहाओ महाभारत।४।

चलो अठारा दिना हतो बौ, घमासान युद्ध भारी।
धरासाई भए बियर कैऊ, लासन सें पाती भूमि सारी।५।

जब-जब घर में फुट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब-तब भैया लड़न लगत।६।

ज्ञान धरम कौ नईं रहै जब, ऊकौ भटकन लगै अरथ।
भड़के भूँक राजसुख की, छिड़ जात छिड़ जात युद्ध होत अनरथ।७।

राज हस्तिनापुर के बँटवारे के लाने युद्ध भओ।
जेठौ कौरव तनकउ हिस्सा, देवे खौं तैयार न भओ।८।

उत्तर में गंगा के करकें, हतो हस्तिनापुर कौ राज।
जीपै शासन करत रये, कुरुबंसी सांतनु राजधिराज।९।

कथा महाभारत की शुरू, होत सांतनु म्हराज सें है।
सुनवे बारी, बड़ी बिचित्र, जुडी भइ सोउ कृष्ण सें है।१०।

सांतनु की चौथी पैरी एक न रई, दो फाँक भई।
नाव एक कौ परो पाण्डव, दूजी कौरव कही गई।११।
.... निरंतर        

नवगीत आश्वासन के उपन्यास

नवगीत:
संजीव

आश्वासन के उपन्यास 
कब जन गण की 
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.

नवगीत मफलर की जय

नवगीत:
संजीव
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई. 
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५ 

त्रिपदि / माहिया

कुछ त्रिपदियाँ
*
वादे मत बिसराना,
तुम हारो या जीतो-
ठेंगा मत दिखलाना।
*
जनता भी सयानी है,
नेता यदि चतुर तो
यान उनकी नानी है।
*
कर सेवा का वादा,
सत्ता-खातिर लड़ते-
झूठा है हर दावा।
*
पप्पू का था ठप्पा,
कोशिश रंग लाई है
निकला सबका बप्पा।
*
औंधे मुँह गर्व गिरा,
जुमला कह वादों को
नज़रों से आज गिरा।
*
रचना न चुराएँ हम,
लिखकर मौलिक रचना
निज नाम कमाएँ हम।
*
गागर में सागर सी
क्षणिका लघु, अर्थ बड़े-
ब्रज के नटनागर सी।
*
मन ने मन से मिलकर
उन्मन हो कुछ न कहा-
धीरज का बाँध ढहा।
*
है किसका कौन सगा,
खुद से खुद ने पूछा?
उत्तर जो नेह-पगा।
*
तन से तन जब रूठा,
मन, मन ही मन रोया-
सुनकर झूठी-झूठा।
*
तन्मय होकर तन ने,
मन-मृण्मय जान कहा-
क्षण भंगुर है दुनिया।
*

सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

नवगीत आम आदमी

नवगीत: 
संजीव 
.
आम आदमी 
हर्ष हुलास 
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
.

नवगीत दुनिया बहुत सयानी

नवगीत : 
संजीव
.
दुनिया 
बहुत सयानी लिख दे 
.
कोई किसी की पीर न जाने
केवल अपना सच, सच माने
घिरा तिमिर में
जैसे ही तू
छाया भी
बेगानी लिख दे
.
अरसा तरसा जमकर बरसा
जनमत इन्द्रप्रस्थ में सरसा
शाही सूट
गया ठुकराया
आयी नयी
रवानी लिख दे
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित
प्रणव-नाद कर
जनगण जागा
याद आ गयी
नानी लिख दे
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की
इनकी यारी सचमुच पक्की
सूखा बाढ़
ठंड या गर्मी
ड्योढ़ी बाखर
छानी लिख दे
.
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा
पानी लिख दे
.

१११.२.२०१५ 

रस चर्चा

रस-गगरी
*
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है।

भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः"
अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर कहा गया है।
रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं।
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है-
'रसौ वै स:'
अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है।
'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूँट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है।
रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय।
स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
करस प्रक्रिया: स्थायी भाव,  विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, शंकुक, विश्वनाथ कविराज, अभिनव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: हिंदी साहित्य में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स  अद्भुत, शांत और वात्सल्य रस मुख्य हैं।
१.  स्थायी भाव-
रति, हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम आदि।
२. विभाव-
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌
विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌।
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नायिका के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि।
४. संचारी (व्यभिचारी) भाव- आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
***
संजीव

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

navgeet sugga bolo

गीतः 
सुग्गा बोलो 
जय सिया राम...
सन्जीव
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
१३-७-२०१४

muktika mil gaya

मुक्तिका 
मिल गया 
*
घर में आग लगानेवाला, आज मिल गया है बिन खोजे. 
खुद को खुदी मिटानेवाला, हाय! मिल गया है बिन खोजे.
*
जयचंदों की गही विरासत, क्षत्रिय शकुनी दुर्योधन भी
बच्चों को धमकानेवाला, हाथ मिल गया है बिन खोजे.
*
'गोली' बना नारियाँ लूटीं, किसने यह भी तनिक बताओ?
निज मुँह कालिख मलनेवाला, वीर मिल गया है बिन खोजे.
*
सूर्य किरण से दूर रखा था, किसने शत-शत ललनाओं को?
पूछ रहे हैं किले पुराने, वक्त मिल गया है बिन खोजे.
*
मार मरों को वीर बन रहे, किंतु सत्य को पचा न पाते
अपने मुँह जो बनता मिट्ठू, मियाँ मिल गया है बिन खोजे.
*
सत्ता बाँट रही जन-जन को, जातिवाद का प्रेत पालकर
छद्म श्रेष्ठता प्रगट मूढ़ता, आज मिल गया है बिन खोजे.
*
अब तक दिखता जहाँ ढोल था, वहीं पोल सब देख हँस रहे
कायर से भी ज्यादा कायर, वीर मिल गया है बिन खोजे.
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२५.१.२०१८

navgeet gayee bhains

नवगीत:
संजीव
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गयी भैंस 
पानी में भाई!
गयी भैंस पानी में
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पद-मद छोड़ त्याग दी कुर्सी
महादलित ने की मनमर्जी
दाँव मुलायम समझा-मारा
लालू खुश चार पायें चारा
शरद-नितिश जब पीछे पलटे
पाँसे पलट हो गये उलटे
माँझी ने ही
नाव डुबोई
लगी सेंध सानी में
.
गाँधी की दी खूब दुहाई
कहा: 'सादगी है अपनाई'
सत्तर लाखी सूट हँस रहा
फेंक लँगोटी तंज कस रहा
'सब का नेता' बदले पाला
कहे: 'चुनो दल मेरा वाला'
जनगण ने
जब भौंहें तानीं
गया तेल घानी में
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८-२-२०१५

karya shala kavita karen

आये कविता करें: ११
पर्ण छोड़ पागल हुए, लहराते तरु केश ।
आदिवासी रूप धरे, जंगल का परिवेश ।। - संदीप सृजन
- सलिल सर! आपने मेरे दोहे पर टीप दी धन्यवाद .... मुझे पता है तीसरे चरण में जगण ऽ।ऽ हो रहा है इसे आप सुधार कर भेजने का कष्ट करे
= यहाँ एक बात और विचारणीय है. वृक्ष पत्ते अर्थात वस्त्र छोड़ पागल की तरह केश या डालियाँ लहरा रहे हैं. इसे आदिवासी रूप कैसे कहा जा सकता है? आदिवासी होने और पागल होने में क्या समानता है?
- क्या नग्न शब्द का उपयोग किया जाए
= नंगेपन और अदिवासियों में भी कोइ सम्बन्ध नहीं है. उनसे अधिक नग्न नायिकाएं दूर दर्शन पर निकट दर्शन कराती रहती हैं.
- आदिवासी शब्द प्रतीक है .... जैसे अंधे को सूरदास कहा जाता है
= लेकिन यह एक समूचा संवर्ग भी है. क्या वह आहत न होगा? यदि आप एक आदिवासी होते तो क्या इस शब्द का प्रयोग इस सन्दर्भ में करते?
पर्ण छोड़ पागल हुए, तरु लहराते केश
शहर लीलता जा रहा, जंगल का परिवेश. -यह कैसा रहेगा?
-बिम्ब के प्रयोग में क्या आपत्ति? ... कई लोगो ने ये प्रयोग किया है
= मुझे कोई आपत्ति नहीं. यदि आप वही कहना चाहते हैं जो व्यक्त हो रहा है तो अवश्य कहें. यदि अनजाने में वह व्यक्त हो रहा है जो मंतव्य नहीं है तो परिवर्तन को सोचें. दोहा आपका है. जैसा चाहें कहें. मैं अपना सुझाव वापिस लेता हूँ. आपको हुई असुविधा हेतु खेद है.
- शहरी परवेश का पत्ते त्यागने से कोई संबध नही होता ..... पेड कही भी हो स्वभाविक प्रक्रिया मे वसंत मे पत्ते त्याग देते है. सर! कोई असुविधा या खेद की बात नही .... मै जानता हूँ आप छंद के विद्वान है... मेरे प्रश्न पर आप मुझे संतुष्ट करे तो कृपा होगी .. मै तो लिखना सीख रहा हूँ. मुझे समाधान नही संतुष्टि चाहिए ... जो आप दे सकते है.
= साहित्य सबके हितार्थ रचा जाता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रचनाकार को होती ही है. मुझे ऐसा लगता है कि अनावश्यक किसी को मानसिक चोट क्यों पहुँचे ? उक्ति है: 'सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम' अर्थात जब सच बोलो तो प्रिय बोलो / अप्रिय सच को मत ही बोलो'.
- नीलू मेघ जी का एक दोहा देखें
महुआ भी गदरा गया , बौराया है आम
मौसम ने है काम किया मदन हुआ बदनाम...
यहाँ 'मौसम ने है काम किया' १३ के स्थान पर १४ मात्राएँ हैं. कुछ परिवर्तन ' मौसन ने गुल खिलाया' करने से मात्रिक संतुलन स्थापित हो जाता है, 'गुल खिलाना' मुहावरे का प्रयोग दोहे के चारूत्व में वृद्धि करता है.

navgeet man ki lagam

नवगीत:
संजीव
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मन की 
मत ढीली लगाम कर 
.
मन मछली है फिसल जायेगा
मन घोड़ा है मचल जायेगा
मन नादां है भटक जाएगा
मन नाज़ुक है चटक जायेगा
मन के
संयम को सलाम कर
.
तन माटी है लोहा भी है
तन ने तन को मोहा भी है
तन ने पाया - खोया भी है
तन विराग का दोहा भी है
तन की
सीमा को गुलाम कर
.
धन है मैल हाथ का कहते
धन को फिर क्यों गहते रहते?
धनाभाव में जीवन दहते
धनाधिक्य में भी तो ढहते
धन को
जीते जी अनाम कर
.
जीवन तन-मन-धन का स्वामी
रखे समन्वय तो हो नामी
जो साधारण वह ही दामी
का करे पर मत हो कामी
जीवन
जी ले, सुबह-शाम कर
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९-२-२०१५

navgeet khoob hansa

नवगीत:
संजीव
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जब जग मुझ पर झूम हँसा 
मैं दुनिया पर खूब हँसा
.
रंग न बदला, ढंग न बदला
अहं वहं का जंग न बदला
दिल उदार पर हाथ हमेशा
ज्यों का त्यों है तंग न बदला
दिल आबाद कर रही यादें
शूल विरह का खूब धँसा
.
मैंने उसको, उसने मुझको
ताँका-झाँका किसने-किसको
कौन कहेगा दिल का किस्सा?
पूछा तो दिल बोला खिसको
जब देखे दिलवर के तेवर
हिम्मत टूटी कहाँ फँसा?
***

९-२-२०१५ 

navgeet neki kar

नवगीत:
संजीव

'नेकी कर 
दरिया में डालो'
कह गये पुरखे
.
याद न जिसको
रही नीति यह
खुद से खाता रहा
भीती वह
देकर चाहा
वापिस ले ले
हारा बाजी
गँवा प्रीति वह
कुछ भी कर
आफत को टालो
कह गये पुरखे
.
जीत-हार
जो हो, होने दो
भाईचारा
मत खोने दो
कुर्सी आएगी
जाएगी
जनहित की
फसलें बोने दो
लोकतंत्र की
नींव बनो रे!
कह गए पुरखे
***