कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

लौट आया मधुमास- शशि पाधा

योगिता यादव 
प्रत्येक पुस्तक किसी व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का सार होती है। जीवन भर के उसके अनुभवों, उनसे उपजी अनुभूतियों और प्रति उत्तर में उसके अपने समाधानों का निचोड़ होती कही जा सकती है उसकी किताब। आज जो किताब मेरे हाथ में है उसका शीर्षक है 'लौट आया मधुमास। यह जम्मू की बेटी ओर प्रवासी लेखिका शशि पाधा जी का चौथा काव्य संग्रह है।

मधुमास यानी नायक-नायिका का केलि काल। जब वे दोनों ही प्रकृति के संपूर्ण सौंदर्य और रस का असीम पान करते हैं। परंतु यह केवल मधुमास नहीं, लौट आया मधुमास है। शीर्षक में ही एक लंबे सफर के तय हो जाने का संकेत मिलता है -कि यह किसी लोकाचार से अबोध व्यक्ति का केलि काल नहीं है, बल्कि यह जीवन पथ पर सुघढ़ता से आगे बढ़ रहे एक परिपक्व व्यक्ति के सुंदर समय का उसके पास फिर से लौट आना है।

कवयित्री जम्मू की बेटी हैं, सैन्य अधिकारी रहे जनरल केशव पाधा की पत्नी हैं और आत्मनिर्भर अपने परिवार को गरिमा से संभाल रहे बच्चों की माँ भी हैं। कवयित्री जिम्मेदारियों और अनुभवों का एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं। रिश्तों के धरातल पर भरी हुई झोली, सौंदर्य की माप में असीम आंचल और सम्मान की दृष्टि से भी कोई कम नहीं है उनका वितान। फिर यह बेचैनी क्यों? मैं यह मानती हूँ कि कविता या गीत सिर्फ आनंद का ही स्रोत नहीं है, बल्कि यह कवि की बेचैनियों की भी उपज है। निश्चित रूप से कविता स्वांत: सुखाय है, लेकिन यह सिर्फ स्वांत: सुखाय ही नहीं है, इसके और भी कई प्रयोजन है। जब हम इन प्रयोजनों की खोज करते हैं तब सिद्ध होता है कि इस किताब को क्यों पढ़ा जाना चाहिए? हिंदी के असीम संसार में 'लौट आया मधुमास की यह दस्तक क्यों खास है?, इसका संधान करने की मैंने यह छोटी सी कोशिश की है।

प्रस्तुत पुस्तक कवयित्री का चौथा काव्य संग्रह है। इससे पहले वे पहली किरण, मानस मंथन और अनंत की ओर शीर्षक से तीन काव्य संग्रह पाठकों के सुपुर्द कर चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह में सत्तर गीतों ने स्थान बनाया है। इनमें नए सरोकारों से जुड़े, नई भाषा और बिंब प्रयोग से बुने गए नवगीत भी शामिल हैं।
इसे मैं कवयित्री का अपने जीवन का चौथा फेरा कहूँगी। पिछले तीन फेरों में वे अनुगामिनी बनी सौंपे गए अनुभवों को अपने अनुभवों में समाहित करते हुए आगे बढ़ रहीं थीं। जबकि अब चौथे फेरे में आगे बढऩे की जिम्मेदारी उनकी है। अब वे अपनी निज अनुभूतियों से जीवन को देख रही हैं और इन दृश्यों को अपने साठोत्तरी नायक को नवल मधुमास की सौगात के रूप में सौंपती जा रहीं हैं। उनके पास केवल शब्द ही नहीं स्वर और ताल भी हैं। ये सब निधियाँ कवयित्री ने प्रकृति से ही पाईं हैं। यहाँ स्त्री ही प्रकृति है और प्रकृति ही नायिका है। वही धूप की ओढऩी ओढ़ती है, वही तारों की वेणी सजाती है, पीली चोली में सजती है, तो वही माँग पर चंदा टाँकती है।
पहले ही गीत में अपने कौशल, अपनी दृष्टि और अपने सामथ्र्य को पुख्ता करती नायिका नायक से कहती हैं-
'' मैं तुझे पहचान लूँगी

लाख ओढ़ो तुम हवाएँ
ढाँप दो सारी दिशाएँ
बादलों की नाव से
मैं तुम्हारा नाम लूँगी

रश्मियों की ओट में भी
मैं तुझे पहचान लूँगी

एक और अनुच्छेद है -

''हो अमा की रात कोई
नयनदीप दान दूँगी
पारदर्शी मेघ में
मैं तुझे पहचान लूँगी

प्रस्तुत संग्रह में प्रकृति तो अपने भरपूर सौंदर्य के साथ है ही, अपने देस अर्थात जम्मू (भारत) से दूर होने की पीड़ा भी है। वहीं बेटी, पत्नी और माँ के तीन फेरों की तीन जिम्मेदारियों के समय को उन्होंने कैसे निभाया इसके सूत्र भी हैं। रिश्तों के टकराने, और कभी बँध जाने के अलग-अलग अनुभव भी हैं। इन अनुभवों से गुजरते हुए उनमें जो बड़प्पन आया है, उसी का विस्तार है इस गीत में - जिसका शीर्षक है बड़े हो गए हम -

'सूरज ना पूछे
उगने से पहले
ना रुकती हवाएँ
उड़ने से पहले

कड़ी धूप झेली
कड़े हो गए हम
बड़े हो गए हम।

प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य से सजे इन गीतों में धूप, छाँव, भोर, रात, सूर्य, रश्मियाँ, चाँद, चाँदनी बार-बार स्थान बनाते हैं। खास तौर से धूप के विविध रूप सर्वाधिक आकर्षक बन पड़े हैं। संभवत: धूप-छाँव और दिन-रात की इस आँखमिचौली की वजह कवयित्री का एक ऐसे देश में होना है जहाँ प्रकृति की चाल, दिन रात की चहलकदमी उसकी अपनी मातृभूति की प्राकृतिक चाल से अलहदा है। यहाँ दिन, तो वहाँ रात और वहाँ रात, तो यहाँ दिन। जैसे सूरज-चंदा इस परदेसन से आँख मिचौली खेल रहे हैं, हँसी ठिठौली कर रहे हैं। उस देश में जहाँ वर्ष का अधिक समय ठंडा, बर्फ में छुपा बीतता है, वहाँ वे आँखें मूँदती हैं तो उन्हें अपने देश की षट ऋतुएँ महसूस होती हैं।

खिड़कियों में घुटी रहने वाली भावनाएँ धूप के सतरंगी दहलीजें लाँघ जाना चाहती हैं। चाँदनी को अंजुरि के दोनो में पी लेना चाहती हैं। वे प्रकृति को अपनी बाहों में समेट लेना चाहती हैं पर बीच में बाधा है दूर देश की। वे हर घड़ी, पल, क्षण अपने देश की ऋतुओं को, प्रकृति के मनोहारी चित्रों को याद करती हैं और अपने मन के लिए सौंदर्य की मेखला बुनते हुए मनोहारी गीत रचती हैं। जिनका पाठ तो रसपूर्ण है ही, उनका गान भी चित्त को मोह लेने वाला है। मूलत: वे प्रकृति की कवयित्री हैं पर इसी संग्रह में उनके संकल्प गीत भी दिखते हैं, तो अध्यात्म की ओर बढ़ते हुए संपूर्ण रागात्मकता से विरक्त होने के संकेत भी मिलते हैं।

एकाकी चलती जाऊँगी

'संकल्पों के सेतु होंगे
निष्ठा दिशा दिखाएगी
साहस होगा पथ प्रदर्शक
आशा ज्योत जलाएगी

विश्वासों के पंख लगा मैं
नभ में उड़ती जाऊँगी
राहें नई बनाऊँगी।
----
एक अन्य स्वर पहचानिए खोल दे वितान मन शीर्षक गीत में -

''कल की बात कल रही, आज भोर हँस रही
हवाओं के हिंडोल पे, पुष्प गंध बस रही
उड़ रही हैं दूर तक, धूप की तितलियाँ
तू भी भर उड़ान मन ,
खोल दे वितान मन।

कभी-कभी चलते-चलते क्षण भर को हौसला थकता भी है। इन थके हुए क्षणों में भी वे अपने प्रयास नहीं छोड़ती हैं। फिर भी समाधान हो यह जरूरी तो नहीं -

''बँधी रह गईं मन की गाँठें
उलझन कोई सुलझ न पाई
बन्द किवाड़ों की झिरियों से
समाधान की धूप न आई

सन्नाटों के कोलाहल में
शब्द बड़ा लाचार देखा।

ना थीं कोई ईंट दीवारें - शीर्षक से रचित इस गीत का शीर्षक संभवत: कुछ अलग रहा हो। इस गीत में सर्वाधिक लिखी गई पंक्ति है - 'मौन का विस्तार देखा। वही इस रचना का मूल स्वर भी है। पर यह थकान उनका स्थायी भाव नहीं है, बल्कि उनकी मूल प्रवृत्ति तो आगे बढ़ते जाने की है। यही तो उन्होंने अपनी माँ और अपनी प्रकृति माँ से भी सीखा है। यही मूल वह अपने साथी और आने वाली पीढिय़ों को भी सौंपती हैं -


जल रहा अलाव -

'दिवस भर की विषमता
ओढ़ कोई सोता नहीं
अश्रुओं का भार कोई
रात भर ढोता नहीं

पलक धीर हो बँधा
स्वप्न भी होंगे वहीं।

अपना देस, उसका सौंदर्य और प्रकृति के बिंब कवयित्री की स्मृतियों में ही नहीं बल्कि महसूस करने वाली इंद्रियों में भी साँस लेता है। तभी तो परदेस में जब हिमपात होता है, तो उसकी नीरवता को तो वे महसूस करती ही हैं, लेकिन श्वेत वर्णी दिशा-दशाओं के माध्यम से अपने कुल देवताओं को मनाने का दृश्य रचती हैं।
हिमपात गीत से -
'जोगिन हो गईं दिशा-दशाएँ
आँख मूँद कुल देव मनाएँ
मौन हुआ संलाप चुपचाप-चुपचाप!

प्रकृति के रंगों से सजी एक और सुंदर रचना है 'हरा धरा का ताप' जेठ महीने की झुलसी पाती जब अंबर ने पाई तो उसने अपनी गठरी में बँधी नेह की बूँदे धरा पर उड़ेल, उसका ताप हर लिया है। धरती को अकसर आकाश या सूर्य को मीत बनाने के कई बिंब कवियों ने रचे हैं पर यहाँ कवयित्री सागर को धरती का और बादल को अम्बर का मीत बताती हैं। इस मित्रता में सहचर्य है। साथ-साथ हर रिश्ते की रीत निभाने का मूक वचन भी है। देखें -
''धरती-सागर, अम्बर-बादल
बरसों के हैं मीत
हर पल अपना सुख-दुख बांटें
रिश्तों की हर रीत

जीवन एक परतीय नहीं होता, इसकी कई परतें और कई आयाम होते हैं। यही वजह है कि एक लेखक कभी एकालाप के अनुभवों का गान करता है, तो कभी सामूहिक सौहार्द के आह्वान के गीत लिखता है। यह तभी संभव है जब आपमें जीवन को कई आयाम से देख सकने की दृष्टि का विकास हो चुका हो। दृष्टि का यही विकास लेखक को लगातार अलग-अलग विषयों पर लिखने को प्रेरित करता है। वह कभी निज अनुभूतियों को स्वर देता है, तो कभी बाह्य अनुभूतियों अर्थात अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं पर कलम चलाता है। वे प्रकृति की संतानों के द्वेष को देख कर दुखी है। बेटियों के साथ हो रहे अत्याचार पर शस्त्र उठा लेने का आह्वान भी करती हैं। द्रौपदी की सी पीड़ा झेल रही बेटियों के लिए वे सृष्टि के पालनहार कान्हा से सीधा संवाद करती हैं। साथ ही प्रकृति के साथ असभ्य खिलवाड़ कर रहे मनुष्य को चेताती भी हैं कि अब भी नहीं रुके तो ये पशु, ये देवदार केवल किताबों के चित्र रह जाएँगे।
अपनी पीड़ा को समेटते हुए व्यथित मन में वे कहती हैं
कि मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ -

'जहाँ देखो भवनों के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम ना आने की जिद पे अड़े हैं
घुलती रही हर नदी आँख मींचे
बहती रहीं रात भर वेदनाएँ
मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ।

पर कवि कोई साधारण मानव भर नहीं है। वह केवल वही नहीं बता रहा कि क्या है, वह समाधान रूप में यह भी बता रहा है कि क्या होना चाहिए। वह सृजनकर्ता है। वह अपनी इच्छित दुनिया रचने का सामथ्र्य रखता है। इसी सुंदर दुनिया को रचते हुए कवयित्री प्रस्तुत स्वर के विपरीत स्वर का गीत रचती हैं - दीवानों की बस्ती -

''उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में

खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
भर लो झोली सस्ती में।
---

एक भारतीय नागरिक और सैन्य अधिकारी की पत्नी होते हुए वे चिंतित हैं और चेतावनी के स्वर में कहती हैं-
''सरहदों पे आज फिर
आ खड़ा शैतान है
रात दिन आँख भींचे
सोया हिंदुस्तान है।

वहीं वर्ष २०१६ में भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद गर्वोन्नत सैन्य अधिकारी की पत्नी त्वरित भावों से उपजा गीत 'अचूक प्रहार रचती हैं।

'गर्वित जन-जन मुदित तिरंगा
सही समय, आघात सही।
रह गए कायर छिपते-छिपाते
रस्ता कोई सूझा ना
वीर सेनानी की मंशा का
भेद किसी ने बूझा ना।

यह त्वरित भाव था, जिस भाव में उस समय लगभग पूरा देश गर्वोन्नत हो रहा था। लेकिन यह न अंत था, न समाधान। शुभ की स्थापना की राह में हिंसा समाधान हो भी कैसे सकती है। यह तो गांधी का देश है। यहाँ की मिट्टी में युद्ध के नहीं बुद्ध के संस्कार हैं। गर्वोन्नत होकर सैन्य कामयाबी पर गीत रचने वाली यह कवयित्री जम्मू की बेटी भी तो है। जो जानती है कि गोली कहीं से भी चले, सूनी तो किसी माँ की गोद ही होती है। तोपों के मुँह इस ओर हों या उस ओर लहूलुहान तो सीमा ही होती है। सीमांत गाँवों के रुदन और पीड़ा को महसूस करते हुए वे कुछ अंतराल पर एक और गीत रचती हैं, 'सीमाओं का रुदन
ये एक माँ का रुदन है, जिसने राजनीतिक बिसात पर प्यादे की तरह इस्तेमाल हो रहे अपने लाल खोए हैं और लगातार खो रही है। वह कहती है,
''जहाँ कभी थी फूल क्यारी
रक्त नदी की धार चली
बिखरी कण-कण राख बारूदी
माँग सिंदूरी गई छली

शून्य भेदती बूढ़ी आँखें
आँचल छोर भिगोती हैं
सीमाएँ तब रोती हैं।
----

यह मधुमास एक-दूसरे को जानने की दैहिक अनुभूतियों का समय नहीं है, बल्कि संपूर्ण सृष्टि, मौजूदा परिवर्तनों, अपने समय और उसकी चुनौतियों को अपनी परिपक्व दृष्टि में तौलने का समय है। जहाँ निजी जिम्मेदारियों से ऊपर उठकर कवयित्री समष्टि के अपने दायित्वों की पहचान करती और करवाती हैं। अनुभवों के बीज मंत्र सौंपते हुए वे संकल्प राह पर प्रतिबद्ध रहने का पाठ पढ़ाती हैं। कहन की शैली तो ध्यान खींचती ही है, कुछ शब्दों के अभिनव बिंब भी याद रह जाते हैं जैसे हाथ से हाथ की, मेखलाएँ गढें अथवा हठी नटी सी मृगतृष्णा, कितना नचा रही।

पुरवाई, अखुँयाई, धूप, साँझ, सूर्य, रश्मियाँ, गठरी, गाँठें ये ऐसे शब्द हैं जो गीतों में अलग-अलग बिंब विधान के लिए प्रयोग किए गए हैं और जिन्होंने गीतों को अलंकृत भी किया है। कवयित्री प्रयोग से भी नहीं चूकतीं, उनका अपना व्याकरण है। वे गीत के सौंदर्य में अभिवृदिध करने हेतु शब्दों को मनचाहे अंदाज में बरतती हैं। यथा - पतझड़ का पतझार , रेखा का रेख, आभा के लिए आभ, इंद्रधनुष के लिए इंद्रधनु। फूलों से लदी लताओं, घुँघरुओं से सजी झाँझरों और हवाओं संग उड़ते रंगों के इन गीतों में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग भी मिलते हैं, जो तमाम रागात्मकता से विकृत होकर कहीं किसी की प्रतीक्षा, किसी वैराग और अध्यात्म की ओर संकेत करते हैं। जैसे मन मोरा आज कबीरा, बंजारन, योगिनी, जोगिन आदि। संभवत: यह उनके अगले काव्य संग्रह के बीज हैं। जिनके लिए उनकी कलम अपने अनुभवों से ही स्याही सोखेगी। इसी शुभाकांक्षा के साथ इस पत्र को विराम देती हूँ। वैश्विक सुख की कामना में सब और सौंदर्य का आह्वान करती कवयित्री के ही शब्दों में -
''कहीं किसी भोले मानुष ने
जोड़े होंगे हाथ
विनती सुन अम्बर ने कर दी
रंगों की बरसात।
१.३.२०१८ 
----------------------
गीत नवगीत संग्रह- लौट आया मधुमास, रचनाकार-शशि पाधा, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २५०, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- योगिता यादव

समीक्षा

कृति चर्चा:

बोलना सख्त मना है- पंकज मिश्र 'अटल'

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं।  विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता  से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतर्प्रवाहित भावों का पूर्वाभास करा देता है।  

उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूँ और जो भोग रहा हूँ, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभिव्यक्ति कोई पढ़ा-लिखा या अशोषित कैसे कर सकता है? तब कोई स्त्री पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।     

कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएँ, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएँ, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएँ, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं हो सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।      

कवि की अपेक्षा है कि  उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें।  क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाँ होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। 

हिंदी में स्नातकोत्तर कवि  अभिव्यक्ति सामर्थ्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएँ जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह प्रयोग करता है। पेपरों  तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।    

हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाँ तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एँ’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएँ’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयोग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य  यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएँ चाप के बिना किसी को घेर नहीं सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूँगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएँ हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएँ है, रेखाएँ /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुँधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याँ/हॅंसती हैं/आँगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं। 

अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता  पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
---------------------
गीत- नवगीत संग्रह - बोलना सख्त मना है, रचनाकार- पंकज मिश्र 'अटल', प्रकाशक- बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- , समीक्षा- संजीव सलिल। ISBN 978-93-85942-09-9

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

मृगजल के गुंतारे - शशिकांत गीते

श्रीकांत जोशी 
“मृगजल के गुंतारे” सुंदर, गठीले, विरल और व्यक्तित्व– दीप्त गीतों का संग्रह है. पहला ही गीत कवि की क्षमता को प्रमाणित करता है, इसके अरूढ़ शब्द- प्रयोग गीत को, ‘गीत शिल्प को’ एवं गीतकार को, अपनी परच देते हैं। “खंतर”, “धरती की गहराई”, “ठाँय लुकुम हर अंतर की”, “बीज तमेसर बोये” जैसे प्रयोग लोक-लय का वरण कर गीत- ग्रहण को ललकीला बना सके हैं। संग्रह का “गूलर के फूल” टूटे सपनों का गीत है, पर कसे छंद और अनुभूति- सिद्ध भाषा से “थूकी भूल” को भूलने नहीं देता। ऐसे कई गीत हैं।

श्री शशिकांत गीते की भाषा जिन्दगी से जन्म लेती है। इसी से किसी दूसरे गीत- कवि से मेल नहीं खाती, पर हमारे दिल को भेद देती है। वर्तमान भारतीय लोकतंत्र जो अविश्वास उत्पन्न करता चल रहा है, वह भी इन गीतों में है, पर ये राजनीति के गीत नहीं हैं। ये समय के सुख- दुःख के गीत हैं। ये “सच” के गीत हैं, ठोस भाषा में। गीतों में समय का संशय और अनिश्चय भी है पर वे वर्तमान होने की प्रतिज्ञा से बंधे नहीं हैं। आज के ये गीत कल मरेंगे नहीं। ये मात्र समय- बोध के नहीं, आत्मबोध के गीत भी हैं और प्रकृति से सम्बल लेते चलते हैं:-

एक टुकड़ा धूप ने ही
अर्थ मुझको दे दिया
--------------------
शेष है कितना समय
ओह! मैने क्या किया? [गीत ४ ]

इन गीतों में शब्द और मुहावरे लाये से नहीं लगते , आये से लगते हैं और ठीक अपनी जगह पर विराज रहे हैं :-

आँगन धूं-धूं जलता है पर
चूल्हे की आगी है ठंडी
सुविधा के व्यापारी, आँखों
आगे मारे जाते डंडी

इन गीतों में ॠतु-सत्य और जीवन-सत्य की जुगलबंदी का अपना आकर्षण है। यह शीत चित्र देंखे :-

थाम धूप की मरियल लाठी
कुबड़ा कुबड़ा चलता दिन

पर इस गीत- कवि की वास्तविक जीवन- दृष्टि इन पंक्तियों में है:-

मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ॠतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना [गीत ८]

इन गीतों में समय की दग्धता लोक- लय की स्निग्धता में गुँथकर विलक्षण हो उठी है। कम गीतकारों में मिल पाती है यह खूबसूरत जुझारू असंगति :-

आँगन में बोल दो
बोल चिरैया ।
जीवन क्या केवल है
धूप, धूल, किरचें
जलती दोपहरी चल
चाँदनी हम सिरजें
आँधियों को तौल
पर खौल चिरैया
आँगन में बोल दो
बोल चिरैया । [गीत १०]

गीतों में जीवनोपलब्ध उपमाएँ हैं अतः सटीक हैं और अपरंपरागत हैं। ये गीतों को तरोताजा रखती हैं :-

कटे अपने आप से हम
छिपकली की पूँछ- से [गीत ११]

गीतकार समय की निष्ठुरता, जटिलता और विवशता की धधक में दहकने- झुलसने के बावजूद अपने उल्लास को, अपने छवि- ग्रहण को कायम रख सका है। यह साधारण बात नहीं :-

मेरे आँगन धूप खिली है
दुःख- दर्दों की जड़ें हिली हैं। [गीत १२]

एक विशेष बात यह है कि ये गीत लिजलिजी भावुकता से मुक्त हैं। निश्चय ही बहुत सशक्त गीत- संग्रह है “मृगजल के गुंतारे”। इन्हें मेरे शब्दों की जरूरत नहीं थी पर शशिकान्त का आग्रह था, अतः यह कुछ मैनें लिखा है। इन गीतों को बार- बार
पढ़ते रहने वाले मन से। ये गीत जो जीवन की झुलस में झुलसाते चलते हैं, जीवन की उमंग और हमारे हौसलों को तेज चुस्त- दुरुस्त भी रखते हैं।
५.११.२०१२ 
--------------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - मृगजल के गुंतारे, रचनाकार- शशिकांत गीते, प्रकाशक- ज्ञान साहित्य घर, जबलपुर, प्रथम संस्करण- १९९४, मूल्य- रूपये ३०/-, पृष्ठ- ५७, समीक्षा लेखक- श्रीकांत जोशी (भूमिका से)।

पुस्तक चर्चा:

शब्द अपाहिज मौनी बाबा - शिवानंद सिंह सहयोगी

मधुकर अष्ठाना 
सहयोगीजी की रचनाओं में सम्वेदनात्मक अनुभूतियों की चरम परिणति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कवि सामान्य व्यक्तियों से अधिक सम्वेदनशील होते हैं तथा सम्वेदना उन्हें काव्यकला के सहयोग से कृतित्व के लिये प्रेरित करती है। संगीत यदि काव्य का शरीर है तो निजी भावातिरेक और आत्मनिवेदन उसकी आत्मा है। निजी भावातिरेक और आत्मनिवेदन सम्वेदना का प्रतिबिम्ब होता है तथा इसमें अतिरेक का सूचक ही सम्वेदना है। 

इस क्रम में यह कहना आवश्यक कि सम्वेदना का प्रभावी अवतरण करुणा में होता है इसीलिये भवभूति ने करुण रस को एक मात्र रस माना है। यही करुणा गीत में जब प्रगतिशील विचारों के साथ समाजोन्मुखी होती है तो उसमें हमारे परिवेश में व्याप्त सम्वेदना और आसपास की वास्तविकताएँ मदिखाई पड़ने लगती हैं। क्ल्पनातिरेक के स्थान पर यथार्थ का दर्शन होने लगता है। 

इतिकृतात्मकता को त्याग कर गीत का रूप लघु हो जाता है और रचनाकार न्यूनतम शब्दों में अधिकतम कथ्य प्रस्तुत करने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है जिसके लिये प्रतीक-बिम्ब, मिथक, मुहावरों एवं कहावतों के माध्यम से कथ्य प्रस्तुत करने लगता है। नवगीत संकेतों में अपनी बात पाठक के सम्मुख रखने में जिस भाषा, शिल्प और मानवीयकरण का उपयोग करता है वह गीत से उसे पृथक कर देता है। नवगीत का रचनाकार इसी संकेतात्मक शिल्प में समाज में व्याप्त विषमता, विसंगति, विघटन, विवशता, विडम्बना, विद्रूपता आदि की करुणा को प्रस्तुत करता है जिससे सामान्य-जन के कठोर जीवन-संघर्ष और उसकी जिजीविषा का बोध होने लगता है और इस कारण गीत का स्थान नवगीत ले लेता है। गीत सामन्तवादी मनोरंजनी प्रवृत्ति और कवि-सम्मेलनी गलेबाजी से ऊपर उठकर साधारण-मानव की भूख-प्यास, गरीबी और उसके समस्त सुख-दुःख से जुड़ जाता है। सहयोगीजी की रचनाओं में अधिकतर यही तथ्य और तत्व रचे-बसे हैं जो समय-सम्वेदना की अभिव्यक्ति में सक्षम हैं। ’मुटुरी मौसी’ के प्रतीक के साथ आंचलिकता का परिचय देते हुए वे ग्रामीण महिला के श्रम, निर्धनता, उसका जीवन-संघर्ष, जिजीविषा और पूरे जग का मंगल मनाती बिम्बात्मक शैली और शिल्प सराहना योग्य है जो निम्नांकित है :- 
 "चढ़ी बाँस पर पतई तोड़े
 बछिया खातिर मुटुरी मौसी

झुककर पकड़ी ऊँची फुनगी
जीती केवल अपनी जिनिगी
डाल मरोड़ी अपने दम से
पतई तोड़ी आते क्रम से
स्नेह लुटाती
मुटुरी मौसी

चना-चबेना फाँका-फाँका
चावल घर में कभी न झाँका
गिरता आँसू चाट रही है
घर की खाई पाट रही है
अंजर-पंजर
मुटुरी मौसी"
मुटुरी मौसी के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सरलता, कठिन परिश्रम और समस्त दुखों के अतिरिक्त सबके लिये मंगलकामना, यही तो है ग्रामीण जीवन। अब भी हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड आदि में खेत विहीन मजदूर वर्ग रोजी-रोटी के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चला जाता है और गाँव में शेष रह जाते हैं उनके परिवार के वृद्ध-जन और ऐसी स्थिति में उनका जीवन यापन दुष्कर हो जाता है। ’सहयोगीजी’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में गाँव से सम्बन्धित हैं और ग्राम्य जीवन से सुपरिचित हैं अत: उनकी ऎसी अनुभूतियाँ प्रामाणिक हैं। वास्तव में नवगीत संकेतों की शिल्पता को प्रधानता देता है। ’सहयोगीजी’ ने प्रतीक के द्वारा परोक्ष रूप से ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को ही प्रस्तुत किया है जिसमें मुटुरी मौसी लाखों निर्धन ग्रामीण वृद्धजनों की प्रतीक बन गई है। एक विशेष तथ्य यह भी है कि ‘सहयोगीजी’ के कथ्य की व्यंजना को पूरब के लोग ही समझ सकेंगे।

‘सहयोगीजी’ की रचनाएँ अर्थबोधक, शब्द-रस और अभिव्यंजना से अभिसिंचित हैं जिसके पीछे उनकी दीर्घ साधना का परिचय मिलता है। मौलिक रचनाएँ उनके मौलिक चिन्तन और पर्यवेक्षण का परिणाम है जिसके प्रतिफल में नवगीत की दहलीज पर वे दस्तक दे रहे हैं। नवगीत की विशेषता है कि उसमें मानवीयकरण पर बल दिया जाता है और ‘सहयोगीजी’ की अधिकांश रचनाओं में यह विशेषता नवगीत पर उनकी पकड़ का द्योतक है। इस प्रकरण में उनकी एक रचना प्रस्तुत है-
"सुनो बुलावा !
क्या खाओगे !
घर में एक नहीं है दाना

सहनशीलता घर से बाहर
गई हुई है किसी काम से
राजनीति को डर लगता है
किसी ‘अयोध्या’ ‘राम-नाम’ से
चढ़ा चढ़ावा !
धरे पुजारी !
असफल हुआ वहाँ का जाना

आजादी के उड़े परखचे
तड़प रही है सड़क किनारे
लोकतंत्र का फटा पजामा
पैबंदों के पड़ा सहारे
लगा भुलावा !
वोटतंत्र यह !
मनमुटाव का एक घराना"


इस रचना में सहनशीलता, राजनीति, आजादी तथा लोकतंत्र आदि का मानवीकरण दर्शनीय है। चाहे सामाजिक विसंगति हो अथवा राजनीतिक, सभी पर ‘सहयोगीजी’ सटीक व्यंग्य करते हैं। वास्तव में वर्तमान साहित्य का मूल स्वर ही व्यंग्य है। व्यंग्य ही नवगीत को धार और तेवर देता है जिससे उसकी मारक क्षमता श्रोता को सोचने की प्रेरणा देती है। इस सम्बन्ध में ‘सहयोगीजी’ पर्याप्त सजग हैं और व्यंग्य के माध्यम से प्रतिरोध की भूमिका तैयार करते हैं। ’सहयोगीजी’ ने नवगीत की समस्त भाषिक एवं शिल्पात्मक विशेषताओं को आत्मसात कर लिया है। कहा जाता है कि प्रथम सोपान शब्दों की साधना है, द्वितीय सोपान में गीत का स्थान है और अच्छे गीत सिद्ध होने के उपरान्त ही नवगीत का द्वार खुलता है। एक विशेष तथ्य यह भी है कि जो जिस परिमाण में सम्वेदनशील होगा उसी के अनुसार उसके नवगीतों की श्रेणी होगी। निश्चित रूप से ‘सहयोगीजी’ का अंतर्मन सम्वेदना का सागर है जिसमें व्यक्तिगत सम्वेदनाएँ भी समाजोन्मुखी हैं। इस प्रकार उनकी यथार्थ अनुभूतियाँ समष्टिगत आकार ग्रहण कर अपने सामाजिक सरोकार का उत्तरदायित्व निर्वहन करने में पूरी तरह सक्षम हैं। नवगीत बहुआयामी सृजनधर्मा है जिसमें जीवन के प्रत्येक पक्ष को समेटकर प्रस्तुत करने की विलक्षणता वर्तमान है। इसी के क्रम में ‘सहयोगीजी’ का सृजन भी बहुआयामी है। इस सन्दर्भ में पर व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं :-
"नेता हैं कुछ भी कह देंगे
भाषा से क्या लेना-देना
इनको तो बस
वोट चाहिये

ये तो हैं केले के पत्ते
भिड़ के हैं ये लटके छत्ते
चापलूस बस बनकर रहिये
भूख-प्यास की बात न कहिये
जनता से क्या लेना-देना
इनको तो बस
नोट चाहिये"

नेताओं के चरित्र और आचरण से देश की जनता सुपरिचित है। वोट प्राप्त करने के लिये वे कितने वादे करते हैं और कितने सपने दिखाते हैं, किन्तु एक बार जीत जाने के उपरान्त पाँच वर्ष तक दिखाई भी नहीं पड़ते। सत्तर वर्षों में स्वतन्त्रता के उपरान्त गरीब और गरीब हुआ है और पूँजीपति की पूंजी में दिन दूना रात चौगुना वृद्धि हुई है। जीत कर नेता एक ही वर्ष में कोठी, कार और बड़ा बैंक बैलेंस बना लेता है किन्तु निर्धन की झोंपड़ी तो और खस्ता हाल हो जाती है जो भारतीय राजनीति में मूल्यों का क्षरण, अपसंस्कृति और सम्वेदन हीनता का कटु परिचायक है। नवगीत की भाषा संकेतात्मक होती है जो प्रतीक और बिम्ब के माध्यम से न्यूनतम शब्दों में कथ्य प्रस्तुत कर देती है और व्याख्या द्वारा उसका विस्तार होता है। ’सहयोगी जी’ की भाषा भी इसी प्रकार की शिल्पता से समृद्ध है। इस सन्दर्भ में उनकी एक रचना प्रस्तुत है-

"अनुशासन के
तोड़फोड़ का हुआ धमाका है

आँखें सूजी हैं फागुन की किस्से बदल गए
बातचीत की दीवारों के  हिस्से बदल गए
तिड़कझाम से भरा हुआ यह
सघन इलाका है

त्योहारों की साँस-साँस पर भृकुटी के पहरे
मेलजोल की शहनाई के  कान हुए बहरे
पटाक्षेप के गगनांचल में
फटा पटाका है

असमंजस की जोड़-तोड़ की  झाँझ लगी बजने
उठा-पटक की शंकाओं के  साम लगे सजने
बोलचाल के सूट-बूट का
सजा ठहाका है"
देश में अनुशासन का नाम नहीं है, चारों ओर तोड़-फोड़ और धमाके हो रहे हैं, देश द्रोह और आतंक का बोलबाला है, समाज में समरसता, प्रेम, सद्भाव का वातावरण समाप्त हो गया है। त्योहारों की धूमधाम का मौसम जब आता है तो दंगे होने लगते हैं और साम्प्रदायिक मेलजोल का नामोनिशान नहीं है। हर तरफ आराजकता की तूती बोल रही है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता और ऐसे समय में कट्टरपंथी अलगाववादी ठहाके लगा रहे हैं। अविश्वास, अशिक्षा का लाभ सत्ताधारी ‘बाँटों और राज करो’ की नीति से लाभान्वित हो रहे हैं। जहाँ गाँवों में अभी अनपढ़ लोग अँगूठा लगाते हैं वहाँ अनीति और अन्याय जन्म लेती है। विधायिका को गरम जलेबी समझकर माफिया और तिहाड़िये संसद तक पहुँचने में कामयाब हो रहे हैं। राजनीतिक दल उसी को उम्मीदवार बनाते हैं जो अपने धन-बल और छल-बल द्वारा जीतने की सामर्थ्य रखते हों। ईमानदार और सच्चा व्यक्ति चुनाव में खड़ा भी नहीं हो पाता। लोकतंत्र तो एक खेल है जिसमें एक लगाओ तो एक हजार पाओ का तौर चलता है। राजभवन का स्वप्न तो छोटे-गरीब लोग देखते ही रह जाते हैं, जिसका कोई अंत नहीं।

इस बार काव्य का सर्वोच्च सम्मान ‘नोबेल प्राइज’ एक गीतकार को दिया गया है, जो नई कविता के पतन-पराभव की ओर इंगित करता है और ऐसी स्थिति में नवगीत ही उसका स्थान ले सकता है तथा इस ओर अग्रसर भी है। ऐसी स्थिति में नवगीतकार का दायित्व एक वृहत्तर रूप में समाज के सम्मुख उभर रहा है। नवगीत के प्रति समाज का दृष्टिकोण सकारात्मक हो रहा है। अत: नवगीत को भी सामाजिक सरोकारों की विशेष चिंता होनी चाहिये। नयी कविता के न तो अब पाठक हैं और न श्रोता। नवगीत की सम्वेदनापूर्ण यथार्थ के चित्रण में और भी सजग होना पड़ेगा तथा सामाजिक परिवर्तन की दिशा में अपनी ठोस भूमिका भी निर्धारित करनी होगी। नवगीत को सहज, संप्रेषणीय, प्रसाद गुण सम्पन्न होने के लिये अभी भी कई मंजिलें पार करनी हैं, उसकी उपयोगिता और प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए सार्थक सृजन की ओर गतिशील होना उसे दीर्घजीवी बनने का एक मात्र आधार है। ’सहयोगीजी’ ऐसे ही उटपटांग कुछ पंक्तियों को उलटा–सीधा जोड़ने वाले रचनाकारों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-
“शब्दों की इस पीच सड़क पर
चलने वाले बहुत हो गए

लय-यति-गति का शब्द-योनि का
बदल गया है तौर-तरीका अनुभव प्यासा अनुबोधों को
निकली चेचक लगता टीका रचनाओं की गरिमाओं को
छलने वाले बहुत हो गए

शाब्दिक गौरव पड़े अपाहिज भाव-प्रबलता तिनके चुनती
कालिदास अब रहा न कोई बिंब-संपदा गीत न बुनती
पुरस्कार की मृगतृष्णा में
पलने वाले बहुत हो गए"
वास्तव में पुरस्कार, विशेष रूप से राजकीय पुरस्कार तो कविसम्मेलनी भाँड़ों और गलेबाजों अथवा जुगाड़ करने वालों को ही मिलता है। श्रेष्ठ और सच्चे साधक न तो चाटुकार होते हैं न जुगाड़ करने वाले होते हैं। पुरस्कार तो ऐसे लोग प्राप्त कर लेते हैं जिन्हें साहित्य की समझ ही नहीं है किन्तु वह सब उनके जीवन काल तक सीमित रहता है जबकि श्रेष्ठ साहित्यकार का सुयश इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहता है जो चिर काल तक प्रेरणास्रोत के रूप में मार्गदर्शन करता है। ’सहयोगीजी’ की रचनाधर्मिता इसी कोटि में आती है।

एक ओर नयी पीढ़ी रोजी-रोटी के लिये नगरों में जीवन-संघर्ष की जटिल परिस्थितियों से जूझ रही है तो दूसरी ओर पुरानी पीढ़ी अपने को नगरीय जीवन-शैली में अपने को समायोजित नहीं कर पा रही है। नयी पीढ़ी ने जिस अराजक समय में जन्म लिया है, उसमें बचपन से ही अपने को स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील है क्योंकि उसके अभाव में जीना ही असंभव है। किन्तु दूसरी ओर पुरानी पीढ़ी अपनी मानसिकता को समयानुकूल नहीं ढाल पा रही है। वैचारिक मतभेद के अतिरिक्त पारिस्थितिक भेद भी हैं जिसमें पुरानी पीढ़ी शान्ति अनुभव नहीं करती और उसका मन नहीं लगता। ’सहयोगीजी’ लिखते हैं कि -
"आज पिताजी शहर छोड़कर
गाँव लगे जाने

बोल रहे हैं शहरों में अब साँस अटकती है
घर में बैठी पड़ी आत्मा राह भटकती है
बरगद की वह छाँह छबीली
मार रही ताने

ऊँचे महलों के छज्जों तक किरणों का आना
खिड़की पर चढ़ पड़ी खाट तक पास न आ पाना
सता रहे हैं सोरठी-बिरहा
कोयल के गाने

पगडंडी पर ईख चाभना खेतों से मिलना
मखमल की उस गद्दी पर सो कलियों का हिलना
जहाँ जिन्दगी जीना होता
जीने का माने"
प्रदूषण रहित गाँवों का खुला

कहावत है कि "जाके पाँव न फटी बिवाई  सो क्या जाने पीर पराई" और इस क्रम में जब मैं ‘सहयोगीजी’ की कृति की अंतर्यात्रा करता हूँ तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रचनाओं में आनुभूतिक सम्वेदना के यथार्थ का दर्शन होता है। मैं तो इनकी रचनाओं के माध्यम से ही उनके अंतर्मन की व्यथा-कथा को पढ़ रहा हूँ जो अगाध है जिसका आकलन जितना सरल है उतना ही कठिन भी। वे फैशन में नवगीत नहीं लिख रहे हैं बल्कि यही उनकी नियति है क्योंकि नवगीत-सृजन से ही उन्हें शांति मिलती है। उनकी मुठभेड़ अंध विश्वासों, रूढ़ियों, पाखण्डों से है जो समाज में व्याप्त हैं, सामाजिक विसंगति, धार्मिक कट्टरता, भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था और अमानुषी सम्वेदनहीनता से है जिसमें सामान्य जन पिस रहा है। रचनाकार तटस्थ द्रष्टा होता है और किसी विशेष का पक्षधर नहीं होता, इसीलिये यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि नवगीत वैचारिकता दासता से मुक्त होकर आनुभूतिक यथार्थ का गीत है जो पारम्परिक गीत से बिलकुल अलग है। राजनीतिक हथकण्डों पर ‘सहयोगीजी’ लिखते हैं-
"उड़न खटोले पर बैठी है
राजनीति की चाय

शुभचिंतक की कुशल-क्षेम की फूट गई है आँख अफवाहों की
पूँजी की बस फुदक रही है पाँख घपलेबाजी जुटा रही है
 राजनीति की राय

फिर चुनाव की बैसाखी पर हर वादा आरूढ़ कुछ थाली के
बैंगन भी हैं कुछ चमचे हैं गूढ़ भटकी मुद्दों की मथुरा में
राजनीति की गाय

गांधी टोपी पहन लँगोटी टहल रही है गाँव
आसमान पर जमे हुए हैं उसके सक्षम पाँव
मत का बटुआ ढूँढ़ रही है
राजनीति की आय"


‘सहयोगीजी’ के अंतर्मन में उनके बचपन का गाँव बसता है। वही सीधा, सरल गाँव जहाँ वास्तव में इनसान बसते थे। साम्प्रदायिकता का कहीं भी स्थान नहीं था लेकिन जब वे वर्तमान गाँव की दशा पत्र के द्वारा ज्ञात करते हैं तो उनके भीतर के गाँव की छवि को आघात लगता है जिसमें
“बरगद का वह पेड़ कट गया
टूटा पीपल कटी नीम की छाँह
बाँसों के उस झुरमुट पर अब
नई प्रगति की नई ईंट की बाँह "

लेकिन दबंग हवलदार का लखराँव अब भी सुरक्षित है। गाँव एक अविकसित नगर सा हो गया है जहाँ समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। इस रचना में कुछ ऐसे आंचलिक बोली के शब्द भी आए हैं जिन्हें समझना हो तो बोली का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि इस शब्द का प्रचलन किसी भी रूप में दूर-दराज के पश्चिमी क्षेत्र में नहीं है जैसे ‘बो’, ’तर’ आदि। कौन समझेगा कि ‘बो’ का अर्थ ‘पत्नी’ और ‘तर’ का अर्थ ‘नीचे’ है। इससे भाषा में जटिलता का आना सम्भव है। बिम्ब भी कुछ और स्पष्ट हों तो अधिक प्रभावोत्पादक बन सकते हैं। लेकिन मुझे विश्वास कि आगामी कृतियों में वे और प्रभावशाली ढंग से कथ्य को प्रस्तुत कर सकेंगे यद्यपि मेरे जैसे कुछ लोगों को इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। अब भी हमारे देश में पचास प्रतिशत जनता अशिक्षित है जो आवश्यकता पड़ने पर केवल अँगूठा लगाती है। इसके अतिरिक्त दहेज की कुरीति भी समाज में व्याप्त है। इन परिस्थितियों में जहाँ अनपढ़ को लोग मूर्ख बनाकर उसका सब कुछ छीन लेते हैं वहीं दहेज न दे पाने के कारण लड़कियों का विवाह नहीं हो पाता है। ’सहयोगीजी’ की दृष्टि समाज की समस्त विसंगतियों पर पड़ती है और उनकी लेखनी उसे रेखांकित करने में पीछे नहीं रहती। वे लिखते हैं-
 "अक्षर तक भी चीन्ह न पाती बीस साल की गीता
 ईंगुर खातिर भटक रही है तीस साल की सीता
 गुणा-भाग के बीजगणित में
 उलझी है कंगाली"

‘सहयोगीजी’ अंतर्मन की गहराई से सृजन करते हैं जिसमें जीवन का प्रत्येक पक्ष प्रतिबिम्बित होता है। उनकी रचनाएँ स्वतः जीवन का यथार्थ महाकाव्य बन जाती हैं जिसके सन्दर्भ में निम्नांकित रचना प्रस्तुत है :-
"अविरत पथ का असहज अनुभव
इस जीवन का रथ पैदल है

मृग-मरीचिका भूल-भुलैया  झेल चुका है कुछ गतांक तक
पता नहीं है खेल चले यह ओलम्पिक का किस क्रमांक तक
एक नदी का दग्ध किनारा
एक प्रतीक्षित टुक मखमल है

 काल खंड की जिस रेती पर  दौड़ रही वय   चक्करघिरनी
 उसी रेत पर लिये कमंडल  लेट रही है   नींद-सुमिरनी
 समय सिन्धु के धवल धरातल
 पर लहरों की   कुछ हलचल है

कब सलीब पर यह लटकेगा साँस श्लेष का   मदन मसीहा
रामेश्वर हो या हो काशी या मथुरा हो   प्राण पपीहा
जहाँ खड़ा है जहाँ पड़ा है
वह जमीन भी   कुछ दलदल है "
अंतर्मन में छिपे खारे सागर में डुबकी लगाकर निकली रचना असीमित व्यथाओं की ऐसी भूलभुलैया है जहाँ एक मरुस्थल बसता है जिसमें मृगमरीचिका में भागते रहना जीवन-संग्राम की नियति है। न कहीं विश्राम, न कहीं मंजिल। आजीवन सलीब पर लटके रहने की बेबसी, घोर निराशा और हताशा की दलदली धरती पर मानव कब तक टिका रहे। जीवन के लिये एक उम्मीद, एक आशा का होना अपरिहार्य है, अन्यथा जिजीविषा की जीवन्तता का क्या होगा ?

‘सहयोगीजी’ की रचनाएँ विशेष रूप से ग्राम्य-बिम्बों से सजी हुई हैं जिनकी छान्दसिक प्रौढ़ता विद्वानों और पाठकों को सम्मोहित करती हैं। निर्दोष छंद और अनछुए बिम्ब नवता के साथ गेयता से सम्बद्ध हैं। इस सन्दर्भ में उनकी ये पंक्तियाँ कितनी सार्थक प्रतीत होती हैं -
"बिंब बिंबित आ रहा है अनुनयी उद्गार लेकर 
व्याकरण की पालकी में सृजन का श्रृंगार लेकर
रागिनी की माँग भरता अर्थ का सिन्दूर कोई"
वास्तव में तथ्यगत सत्य है। ’सहयोगीजी’ की प्रत्येक रचना में प्रशंसा और सराहना लिये बहुत कुछ है और प्रत्येक रचना उद्धृत करने योग्य है। जब वे लिखते हैं :-
"घर में बैठी हुई गरीबी
तोड़े रोज चटाई

हँड़िया-पतुकी के सब कंधे हुए शहर के राही
भूख गई है पेट कमाने बाहर खड़ी उगाही
पैर तुड़ाई पगडंडी पर
सोई पड़ी कटाई "
या
"तड़पी भूभल जला पसीना आँख बनीं डल झील
फटही गमछी झाँझर कुरता अचरज में तबदील
पड़े उघारे होंठ सूखकर हुए छुहारे
धूप रही ललकार "
आदि ऐसे नव्य बिम्ब हैं जो अन्यत्र अभी सामने नहीं आए ’सहयोगी जी’ प्रत्येक दृष्टि से मौलिकता से परिपूर्ण हैं। इन रचनाओं में गाँवों की गरीबी, पलायन और रुग्ण व्यवस्था के अनेक स्वानुभूत चित्र हैं जो सम्वेदना के सागर प्रतीत होते हैं।

दैवी आपदा अर्थात सूखा, बाढ़, अग्निकाण्ड आदि दुर्घटनाएँ होती हैं तो शासन अनुदान की घोषणा करता है किन्तु यह अनुदान दुर्घटना ग्रस्त लोगों तक पहुँच ही नहीं पाता अथवा उसके लिये रिश्वत देनी पड़ती है। ’सहयोगी जी’ ने इसे भी अपनी लेखनी की धार पर तेवर के साथ अभिव्यक्त किया है -
"राजभवन में अब तक बैठा
राजकीय अनुदान

लिखते तो थे खुशबू को खत सरसों के हर फूल
बहती नदियों के आँचल में हँसते भी थे कूल
कहाँ चैन से सोने देती
सठिया गई कटान

बोरिया-बिस्तर बाँध चुका है उजड़ा हुआ असाढ़
है पलंग पर आकर लेटी जोगिन बनकर बाढ़
छप्पर लेकर भाग रहा है
आया हुआ नहान

कई दिनों से बादल के घर रात बिताई धूप
पता लगा है बूड़ गया है सरकारी नलकूप
अनिजक छत पर जला रही है
चूल्हा रोज धसान"

गाँव के जीवन के, प्रकृति के, उसकी विषम परिस्थितियों और समस्याओं के बिम्बात्मक अभिनव चित्र ‘सहयोगी जी’ की रचनाओं को अन्यतम बनाते हैं और वे श्रेष्ठ नवगीतकार की संज्ञा के सुपात्र हैं। मुझे विश्वास है कि उनकी प्रस्तुत कृति का हिन्दी जगत में समुचित स्वागत होगा और यह कृति नवगीत के इतिहास में एक मील का पत्थर सिद्ध होगी। 
१.१२.२०१७
------------------
गीत नवगीत संग्रह- शब्द अपाहिज मौनी बाबा, रचनाकार- शिवानंद सहयोगी, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. ३४०, पृष्ठ- १७१, समीक्षा- मधुकर अस्थाना

पुस्तक चर्चा:

सूरज भी क्यों बंधक - शिवानंद सिंह सहयोगी

डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय 
गीत का प्राणतत्व गेयता है, जिसमें लयात्मकता हो, ध्वन्यात्मकता हो और संगीतात्मकता हो – वही सार्थक शब्द रचना गीत कहलाती है। सृष्टि स्वयं लयात्मक है जिसमें एक लय है, एक स्पंदन है और एक सक्रियता का वेग है। जहाँ यह लय नहीं है वहाँ प्रलय का तांडव होने लगता है। यही कारण है कि आदि काल से गीति काव्य धारा लोक जीवन से सम्पृक्त सतत प्रवाहित होती चली आ रही है। आदिम मनोभावों की अभिव्यंजना गीतों में सहज सम्भाव्य है जिसमें भाव की तीव्रता और सौन्दर्यबोध की विलक्षणता निहित होती है। गीत प्रसूता नवगीत अद्यतन परिवेश में अपना स्वरूप निखार रहा है जिसे पूर्व में प्रगीत, जनगीत आदि नामों से पुकारा गया। सम्प्रति नवगीत गीत का परिष्कृत और परिमार्जित संस्करण है जिसमें रचनाकारों ने सहजता, सरलता एवं सुगमता के आधार पर उन्मुक्तता को अंगीकार किया है।         
          
उपभोक्तावादी प्रवृत्ति, बाजारवादी संस्कृति एवं प्रतियोगितावादी वृत्ति से किसी न किसी रूप में रचनाकार प्रभावित हुआ है। वैश्विक स्तर पर द्रुतगति से परिवर्तन हो रहे हैं। साहित्य और साहित्यकार भी  सम्प्रति भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में अपने को अछूता नहीं रख सका है जिसके परिणाम स्वरूप शार्टकट और द्रुतगति से लेखन हो रहा है। रचनाधर्मिता का निर्वहन प्रतियोगिता-जगत में उत्पादन पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए किया जा रहा है। कोई भी रचनाकार किसी भी विधा या किसी भी काव्य रूप में पीछे रहना नहीं चाहता। यही कारण है कि गीतकारों ने भी नवगीत के प्रति अपनी काव्य-प्रतिभा का दिग्दर्शन किया है जिसकी परिणति में शिवानन्द सिंह “सहयोगी” का नवगीत संग्रह “सूरज भी क्यों बन्धक” प्रकाशित है।
          
समीक्ष्य कृति में एक सौ छ: रचनायें हैं, जिनमें बहुविषयक भावानुभूति की अभिव्यंजना काम्य सिद्ध है। गूँगी गरम हवायें आवाजाही करती हुई प्रतीत होती हैं क्योंकि नल की लापरवाही से पियास की छीना झपटी हुई है। गरीबी के कारण चाँदी की सिकड़ी भी कई साल से गिरवी रखी है। ग्राम्य संस्कृति से प्रभावित रचनाकार पाकड़, पीपल एवं नीम की छाँव में ही विश्राम लेता है तथा ढोल की थाप गाँव में सुनकर रसानुभूति करता है क्योंकि,

                    गीत गाँव के रहनेवाले 
                    शहर ठिकाना है
                    धूप-छाँह का आना-जाना
                    एक बहाना है              (पृष्ठ-२५)
          
भोजन के टेबल की थाली को रोटी माँगते हुये रचनाकार ने खुली आँखों से देखा है। सामाजिक विषमताओं, अस्त-व्यस्त व्यवस्थाओं एवं जीर्ण-शीर्ण अवधारणाओं को आनुभूतिक धरातल पर अभिव्यंजित किया गया है जिसमें राष्ट्रीय ज्वलंत समस्याओं को भी वर्ण्य-विषय बनाया गया है। संवेदनशील रचनाकार साम्प्रतिक वातावरण और परिवेश से क्षुब्ध है, दुखी है, देखें-

                    पाल रही है अपना बच्चा 
                    ठटरी महुआ बीन 
                    कुरसी-कुरसी बैठ गया है 
                    वंशवाद का जीन
                    खुला हुआ आतंकवाद का 
                    टोला-टोला जीम               (पृष्ठ-२८)
          
राजनीतिक परिवेश और राजनीतिक प्रदूषण पर भी चिंता व्यक्त की गई है। सड़क से संसद तक यह प्रदूषण सर्वत्र व्याप्त है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं फिर भी राजनेता कुरसी पर आज भी काबिज हैं। प्रजातन्त्र माखौल बनकर रह गया है। शासन-प्रशासन मौन हैं। राजनेता स्वार्थपरता की रीति-नीति में रत हैं। व्यंग्योक्ति द्रष्टव्य है,

                    भूख-प्यास का कैसा अंतर 
                    कैसी दिल्ली जंतर-मंतर
                    कैसा गँवई कैसा शहरी 
                    अर्थनीति की खिंचड़ी-तहरी
                    साँस-साँस है आहत-आहत
                    अवगत नहीं प्रशासन आला 
                    गीत कहानी कविता मौन 
                    इनकी बिजली काटे कौन?      (पृष्ठ-३१)
           
रोजी-रोटी के लिए लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं और शहर में भीड़ कर रहे हैं तथा मजबूरी में शहर में बने हुये हैं। चमक-दमक का गिरवी होना, सूरज तक का बन्धक होना, भौतिकता में सभी का लिप्त होना, सुन्दरता की अँगूठी में काँटों का नग होना, अव्यवस्था, असमानता एवं अस्त-व्यस्तता का प्रतीक है। मनचली हवायें, खेतों की हरियाली की गह गह, गाती घटायें, कमर हिलाती भदई आदि ने मनमोहक वातावरण उत्पन्न कर दिया है। व्यंजना से आपूरित शब्दावली प्रयोग करनेवाले, वर्णमाला को सुघर रूप में पिरोनेवाले तथा वेदना से काव्यविधा को विधा हुआ देखनेवाले रचनाकार की स्पष्टोक्ति है-

                   खिलखिलाहट भरी जिन्दगी 
                   छंद शबनम लिए चल पड़ी 
                   हलचलों की छिड़ी रागिनी 
                   वर्तनी की कली खिल पड़ी 
                   भावना का मुखर अवतरण 
                   शब्द का संकलन हो गया       (पृष्ठ-३९)
          
जातिवाद, क्षेत्रवाद, राजनीतिक प्रपंच, धर्म भेद, भीड़ भाड़, वादों का बाजार, आपाधापी, छीना झपटी आदि के कारण रचनाकार अफसोस जाहिर करता है। गंगासागर भी खारा-खारा लगता है तथा आजादी के बाद भी आजतक राशन कंगाल दिखता है क्योंकि-

                    सड़क किनारे जहाँ खड़ा है 
                    लफड़ा रोटी का
                    रोज-रोज का एक झमेला 
                    रगड़ा रोटी का              (पृष्ठ-४५)

उसे आत्मानुभूति को अभिव्यंजित करने के लिये बाध्य करते हैं। कागज के टुकड़े वाद के प्रतीक हैं जबकि नदी की देह विरहाग्नि का द्योतन करती है। ग्रामीण आँचल में जन्मा, पला-बढ़ा रचनाकार प्रौढ़ावस्था में भी उसी खाटी माटी की गंध में अपने को सुवासित करना चाहता है क्योंकि उसका संस्कार पुन: उसी पुरातन परिवेश में, स्वर्णिम अतीत में लौटने को विवश करते हैं। अभिव्यंजना साक्ष्य है-

                    माटी की वह धूल भुरभुरी
                    मेरा खेल-खिलौना होती 
                    लंगड़ी-बिछिया छीना-झपटी 
                    मेरी माया मेरा मोती 
                    धूल रगड़कर हाथ-पैर में 
                    बचपन ढोया और बढ़ा हूँ     (पृष्ठ-४८)
          
गीतों में तुकान्त शब्दावली का प्रयोगधर्मी रचनाकार नवगीतों में भी उसी लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता एवं संगीतात्मकता का आग्रही दिखाई पड़ता है तथा स्वस्थ परम्परानुमोदन का पक्षधर भी है। वह नव्य प्रयोग उसी सीमा तक करना चाहता है जहाँ तक भारतीय संस्कृति, मानवीय मूल्य और स्वस्थ परम्पराओं पर प्रहार न होता हो। उसका लकीर का फकीर बनने में विश्वास नहीं है। यही कारण है कि उसके अधिकांश नवगीत गेयता, लयात्मकता, ध्वन्यात्मकता  एवं संगीतात्मकता से आपूरित हैं, समन्वित हैं एवं मंडित हैं। शब्दानुशासन को सतर्कतापूर्ण कायम बनाये रखने में रचनाकार दक्ष हैं, कुशल हैं एवं सक्षम हैं। लोकमानस की रागात्मकता और बौद्धिकता को संतुष्ट करनेवाली ये रचनायें निश्चय ही नव्य-चिंतन की परिणति हैं। साम्प्रतिक परिप्रेक्ष्य में रचनाकारों का पुनीत दायित्व है कि वे अपने जीवन की अभिव्यक्ति करते हुये राष्ट्रीय समकालीन ज्वलन्त समस्याओं पर विचार करें तथा जनमानस को जागरित करें। 
“सहयोगीजी” ने इस पर चलने का प्रयास किया है और उन्हें सफलता भी मिली है। सावन की नशीली घूप, खुशियों की पिअरी, नव वसंत का कोमल कोंपल, गजल गाती खंजनों की टोलियाँ, बहकती हुई शाम की हवा, उगता हुआ खिला-खिला सूरज आदि प्राकृतिक तथ्यों और तत्वों ने रचनाकार के मानस को काव्य-सर्जना के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। जीवन को एक लहर की संज्ञा से अभिहित करनेवाले रचनाकार ने सुख-दुःख, आरोह-अवरोह, मधुर-तिक्त, राग-विराग आदि के परिप्रेक्ष्य में अपनी अभिव्यंजना की है। देखें-

                    मर्त्यलोक का एक निवासी 
                    सपनों का जंगल है 
                    मानवता का एक प्रवासी 
                    चंदा है मंगल है 
                    गीत गाँव का एक फरिश्ता 
                    उजड़ा हुआ शहर है             (पृष्ठ-५७)
          
विकास के नाम पर मात्र आदमकद विश्वास दिया गया है। नवयुग का स्वप्न साकार नहीं हो सका है। प्रगतिवाद विनाश लीला में व्यस्त है। मनुस्मृतियों की कथा-कहानी बया सुनाती है तथा सुषमा गायब है। संकल्पों की खाट खड़ी होना, आस का कटोरा लिये घूमना, ऊसर में आश्वासन मिलना, सामाजिकता का आँख मूँदकर सोना, प्रजातंत्र का रोना तथा दुराचार के कारटून का रोना आदि ऐसे कथ्य और तथ्य हैं जिनसे रचनाकार की कारयित्री प्रतिभा प्रभावित हुई है फिर भी वह जीवन यापन कर रहा है। कारण है-

                    हिंदी की नौका पर चढ़कर 
                    गीतों का संसार बसाता 
                    पीड़ा की घनघोर गली में 
                    भावाकुल बाजार लगाता 
                    हार निरंतर हाथ लगी है 
                    जीत नहीं पर जीता हूँ मैं       (पृष्ठ-७०)
          
बहरा शासन, दानवी मानवता, लांछन का सैलाब, संवादों का गहन विभाजन, अनुबंधों का अनमन रहना, विषयी अत्याचार, संबंधों के नये गठजोड़, दुरभिसंधि की डाँट-डपट का डंका बजना, नगर की सड़कों की दुर्दशा, नगरवधुओं की सोचनीय स्थिति, स्नेह के दरिया का सूखना आदि की दयनीय स्थिति और परिस्थिति को देखकर संवेदनशील रचनाकार का हृदय व्यथित हो उठा है। यही कारण है कि वह कह उठता है-

                    भीड़ भरी सडकों पर बाईक 
                    तेज चलाते हैं 
                    और नशा का सेवन करते 
                    पान चबाते हैं 
                    छेड़-छाड़ कलियों से करते 
                    ऐसे लमहों को समझाऊँ 
                    मन तो करता है              (पृष्ठ-९२)
          
मानवीय मूल्यों के ह्रास और परिहास तथा उपहास ने रचनाकार की व्यथा बढ़ा दी है। आशावादी जीवन दृष्टि से रूपायित रचनाओं में प्रेमगीत, मौसम बदल रहा, जिन्दगी का भागवत, समय का हाथ आदि हैं जिनमें जीवन मूल्यों के प्रति आशा और विश्वास जागरित करने का रचनाकार ने अथक प्रयास किया है। आंचलिकता की चाशनी में पगे ये गीत-नवगीत मिश्रित वृत्ति का द्योतन करते हैं जिनमें गीत की गेयता सम्पूर्ण कृति में ध्वनित हुई है। भोजपुरी भाषा की शब्दावली को चुन-चुनकर यथेष्ट प्रयोग करने में रचनाकार को सफलता मिली है। धूप-छनौटा, कजरौटा, पियास, भूभल, भगई, टुटही-टटिया, सतुई, चिचियाहट, बिसुखी गाय, गड़ही, लेंढ़ा, जाँत-लोढ़ा, बेना, मसहरी, रसरी, सानी-पानी, डीह, सतुआन, ढेला, खपड़े की ओरी, भाखी, मकई, चिरइया मोड़, भभक, तिलंगी, छरहरी, लँगड़ी-बिछिया, छितराया, निहोरा, पिअरी, चुहानी, जिनिगी, ताक, बतियाता, लमहर, चिरई, रेहन, गमछी, चिखुर, हरिअर, ददरी मेला  आदि शब्दों के प्रयोग ने एक ओर रचनाकार को भोजपुरी भाषा पर आधिपत्य को रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर आंचलिकता की प्रवृत्ति से भाषायी संप्रेषणीयता और समृद्धि का भी साक्ष्य प्रस्तुत हुआ है। पूर्वांचल का ददरी मेला जनपद बलिया की बलिदानीवृत्ति, भृगुनाथ मंदिर से जुड़ी संस्कृति एवं ऐतिहासिक क्षितिज की निर्मिति को आंचलिकता के धरातल पर अधिष्ठित और प्रतिष्ठित करता है जिसका वर्णन भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने निबन्ध “भारतवर्षोन्नति” में किया है जो सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक सिद्ध हुआ है।
         
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि शीर्षक सटीक, उपयुक्त एवं अपनी सार्थकता स्वयं प्रमाणित करता है। संग्रह की रचनायें षड् रस का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनमें गीत, नवगीत, मुक्तक एवं गजल के शेअरों की अभिव्यंजना के स्वर ध्वनित होते हैं। आंचलिकता ग्राम्य परिवेश, प्रकृति-चित्रण, सांस्कृतिक-चैतन्यता, यथार्थवादी चित्रांकन, राजनीतिक परिवेश की अभिव्यक्ति आदि प्रवृत्तियों में कृति की वृत्ति अधिक रमी है। नवगीत के क्षेत्र में रचनाकार का यह ट्रायलबाल का नव प्रयोग काव्यानुरागियों को प्रीत करेगा ऐसा मेरा विश्वास है जिसके लिये शिवानन्द सिंह “सहयोगी” बधाई के पात्र हैं। कृति स्वागत योग्य है जिसमें काव्य-निकष रस का प्रतिमान ही काम्य सिद्ध है। 
१.७.२०१७ 
------------------
गीत नवगीत संग्रह- सूरज भी क्यों बंधक, रचनाकार- शिवानंद सहयोगी, प्रकाशक-कोणार्क प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य-२०० रुपये, पृष्ठ-१२८, समीक्षा- डा. पशुपतिनाथ उपाध्याय, ISBN-979-81-920238-7-8

समीक्षा

पुस्तक चर्चा 

रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे- शीला पांडे

मधुकर अष्ठाना 
गीत-नवगीत की सार्थकता और जनप्रियता के साथ ही उसकी सम्वेदनीय-शक्ति से प्रभावित होकर अन्य विधाओं के रचनाकार भी इस विधा में उत्तम प्रयास कर रहे हैं और अनेक रचनाकारों के गीत-नवगीत-संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे ही रचनाकारों में श्रीमती शीला पाँडे का अनुदान आकर्षित करता है। इसी क्रम में उनकी सद्य प्रकाशित कृति "रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे" बहुत चर्चित हुई है। प्रश्न यह नहीं है कि वे किस स्तर की रचनाकार हैं बल्कि यह सराहनीय है कि नयी कविता का मोह त्याग कर गीत-धर्मिता के लिये जागरुक हुई हैं। 

उसी प्रकार उनके संग्रह को भी विद्वानों, ने गम्भीरता से लिया है और गीत-विधा में पदार्पण का स्वागत किया है। पहले ही संग्रह में उनकी रचनायें पढ़ कर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि यह उनकी प्रथम कृति है। उनके गीतों का फलक बहुत व्यापक है जिसमें विविधता है और उनकी संघर्षशील प्रवृत्ति जिसमें जिजीविषा की लगन एवं आत्मविश्वास की झलक मिलती है जिससे उनके उज्जवल भविष्य का संज्ञान होता है। भारतीय संस्कृति की लयात्मकता जिसमें लोकभाषा संस्कार-गीतों एवं पर्वों-उत्सवों में गाये जाने वाले गीतों का प्रभाव उन पर भी पर्याप्त पड़ा है। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति आस्था एवं विश्वास की भी परिचायक है और इसी संदर्भ में रीति का पालन करते हुए पाँडे जी ने सर्वप्रथम प्रस्तुत संग्रह में वाणी-वन्दना को स्थान दिया है जिसमें उनकी आकांक्षाओं का ज्ञान होता है:-
"शारदे! मन ज्ञान दे माँ।
इक नवल वरदान दे माँ!
दूर हो मन का अँधेरा
मन में हो नित वास तेरा
भक्ति, श्रृद्धा का अनोखा-
राग दे, स्वर तान दे माँ!"

वन्दना के उपरान्त भी अगले गीत में वे जड़ता से मुक्ति की कामना करती हैं। इस गीत में हमें छान्दसिक प्रयोग भी दिखाई पड़ता है। अनेक गीत इस संग्रह के कवयित्री के निजी जीवन के सुख-दुख, हर्ष-वेदना आदि के भी संग्रहीत हैं जिनमें व्यक्तिगत चिन्ताओं तथा पीड़ाओं की मार्मिक सम्वेदनात्मक अभिव्यक्ति लक्षित की जा सकती है। अनेक चिन्ताओं और मानसिक उद्वेलनों के बावजूद कवयित्री अपने कर्तव्य-पथ से विमुख नहीं होती है और अपने अंतर की कामना निन्नांकित शब्दों में व्यक्त कर देती है:-
"बीज का तरु धर्म होता।
माटी का कुछ कर्म होता।
सबको एकाकार करके।
मधुर फल बन टूट जाओ।"

व्यंजना में प्रस्तुत ये पंक्तियाँ प्रतीक रूप में नारी-जीवन के संघर्ष और कर्त्तव्य का बोध कराती हैं जिसमें नारी को धरती के समान बताया गया है। भावावेश और पारम्परिकता के बावजूद कहीं-कहीं अनूठे बिम्ब और सुन्दर शब्द संयोजन में मौलिकता दृष्टिगत होती है। उनके अवचेतन में सम्वेदना का महासागर है और प्रगतिशील चेतना भी, जो उन्हें दूर तक ले जाने को प्रतिबद्ध है।

संग्रह के गीतों की प्रमुख विशेषता है कि अभाव और मानसिक पीड़ा के बावजूद गीतों के अंत में आशा का समावेश अवश्य होता है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा दे जाता है।
"बिना रुके चलती जाती है
कैसी लगन नवेली
जाने किस धुन में है व्याकुल
तजती हृदय, हवेली

अरे कोटरों में जाने कब
यह उजियारा कौन दे गया"

ऐसी ही पंक्तियाँ हैं जो आशा का संचार करती हैं। पाँडे जी ऋतुओं और प्रकृति के विभिन्न रूपों से भी बेहद प्रभावित होती हैं। वर्षा ऋतु है और पुष्पित पीला कनेर जिसकी शोभा उन्हें मुग्ध कर देती है और उनकी लेखनी चल पड़ती है:-
"मोहित कर जन-मन की चितवन बीचों-बीच गड़ा है।
वर्षा ऋतु वर्षा में खिलकर यौवन भरे घड़ा है।

कवयित्री एक कुशल चित्रकार की भाँति इस प्रकार शब्द-चित्र खींचती हैं कि प्रतीत होता है वह दृश्य हमारे सम्मुख है। पूरे विस्तार के साथ प्रत्येक कोने-अतरे में झाँक कर वह सूक्ष्म निरीक्षण करती हैं। इस प्रकार वर्णनात्मक रचनाओं में उन्हें अधिक सफलता मिली है। कुछ नवीन उद्भावनायें और कुछ नूतन उपमायें इस रचना को साकार करने में सहायक हैं यथा-पीत वर्ण के टिमटिम तारे, सोने की घंटी उलट पड़ी हो, ज्यों ताले में ताली आदि।

कवयित्री ने अपने व्यक्तित्व को भी अनेक गीतों में बाँधने का सुन्दर प्रयास किया है। धवल-चाँदनी, देव-नदी, स्वाति-बूँद, अश्रु-बूँद आदि अनेक उपमाओं से अपनी प्रकृति और अन्तरमन के सर्व हिताय विचारों को प्रस्तुत किया है जो निम्नांकित पंक्ति में अर्न्तनिहित है:-
मैं, चंचल-सी धवल चाँदनी
देवनदी का अमृत रूप।
होकर मलिन व्यथा कर संचय
‘जग दूषित', प्रत्यक्ष स्वरूप।
.......
मूल्यवान मैं हीरे जैसी-
वर्षा की हूँ‘स्वाति बूँद’हूँ।
मन-पीड़ा धोकर जो खारी-
नयनों की वो‘अश्रु बूँद’हूँ।"

कभी चाँदनी, कभी देवनदी आदि के माध्यम से कवयित्री ने अपने जीवन और विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपनी त्रासदियों को भी "पियूँ अमिय-विषय का प्याला, अश्रु बूँद आदि उपमाओं के द्वारा व्यक्त कर दिया हैं। चाँदनी से प्रारम्भ कर स्वयं के जीवन पर घटित करते हुए कवयित्री ने सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है। वहीं यह रचना ‘जल के स्वरूपों और परणति को भी, लक्षित करती है। जो रचना में दो-दो अर्थों में विलक्षणता पैदा करती है। नारी पर आह्वान गीत पच्चीस बन्द की रचना यह सिद्ध करती है कि पांडे जी की लेखनी में प्रबन्ध काव्य लिखने की भी क्षमता है।" "घड़ी पहर कब लगते" गीत में नवता दिखाई पड़ती है जो गीत से नवगीत की और अग्रसर होने की प्रक्रिया में एक पड़ाव प्रतीत होता है। यथा:-
"घड़ी-पहर कब लगते हैं।
ताल-टूटने में?
बात गयी होठों पर
साँझ गई, कोठों पर
तीर, ज्यों कमान से
बूँद, आसमान से
बिखर, द्वार कब टिकते हैं
‘ठाँव’ छूटने में?"

श्रीमती पाँडे समाज और प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के साथ ही मानव की वृत्तियाँ, उसकी क्रिया-अक्रिया-प्रतिक्रिया का भी दूर विक्षीय अवलोकन तथा विवेचनात्मक विश्लेषण अपने गीतों में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास करती हैं। अर्थ एवं अन्यार्थ के सम्प्रेषणार्थ अपेक्षित शब्दों उपर्युक्त तुकान्तों के प्रयोग में प्रवीण हैं। कथ्य और शिल्प के परिप्रेक्ष्य में उनके समस्त गीत प्रस्तुत किये जा सकते हैं। फिर भी कुछ ऐसे विशिष्ट गीत हैं, उनका उदाहरण अनिवार्य प्रतीत होता है। ऐसे गीतों में कृति का शीर्षक गीत जिसमें २६/११ में, मुम्बई में आतंकवादी आक्रमण की त्रासदी सम्मिहित है, जब गेट वे आफ इण्डिया पर स्थित ताज होटल में सैकड़ों बेकसूर लोगों की हत्या हुई थी। कवयित्री को ऐसा भयंकर आतंकी आक्रमण झकझोर देता है और वे अपनी मनोव्यथा निम्नांकित पंक्तियों में व्यक्त करती हैं:-
"रे मन! गीत लिखूँ मैं कैसे?
कैसे-कैसे मंजर देखे। हर सीने में खंजर देखे।
चौराहे जो ना थे थमते थे सहमे से, बंजर देखे।
इसको भूलूँ, उसको भूलूँ?
दिल में पास रहूँ मैं कैसे?

कब थी भोर सुनहरी लाली। मौत-नृत्य करती मतवाली।
हौले-हौले मीठी धुन की गलियारों में नागन काली।
डँसती-साँसें, भरती-चीखें
अपने प्राण वरूँ मैं कैसे?"

श्रीमती पांडे ऐसी भयानक आतंकवादी घटनाओं से आहत हो जाती हैं। समाज में व्याप्त अराजक स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी सुरक्षित नहीं है। मानवीय मूल्यों का क्षरण, संस्कृति का पतन, समरसता-सद्भाव का अभाव और साम्प्रदायिक विद्वेष की ऐसी अनिष्टकारी परिणति में चारों ओर भय का वातावरण है। जो चौराहे जनता से भरे रहते थे वहाँ सन्नाटा पसरा है और लोग सहमे हुए हैं। सड़कें, सूनी हो गई हैं। मानवता के प्रति ईमानदार और निष्ठावान व्यक्ति कब तक अपनी खैर मना सकेंगे। पूर समाज अपराधीकरण से संत्रस्त है। ऐसी स्थिति में कवयित्री यह सोचती है कि गीत लिखना सरल नहीं रह गया है।

प्रस्तुत कृति में कवयित्री की बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। उन्होंने प्रत्येक सामयिक चुनौतियों को स्वीकार कर उन पर लेखनी चलाई है और बेबाक टिप्पणी की है। जब घोर वर्षा से बाँध टूट गये, फसल बरबाद हो गयी। किसानों का असीम दुख, उनकी बरबादी का दर्द धरती को भी असह्य हो जाता है। किसानों के लिये धरती माँ के समान ही है। धरती अपने किसान पुत्रों को पत्र, कवयित्री की लेखनी से लिखती है जिसमें वात्सलय के स्रोत के रूप में अपना संदेश देती हैः-
"माटी! ने एक रोज़ लिखा खत लल्ला तू मन की फुलवारी।
भाँति-भाँति ऋतु, नये निवाले चुन-चुन मुख रखती महतारी।
पिता व्योम क्षण रूठ गया तो। त्याज्य बना, मुख मोड़ चलेगा।
क्या, ले लेगा जान हमारी?

तू मेरी माटी का हिस्सा। तू मेरे कण-कण का किस्सा।
तू नभ की आँखों का तारा। तू धरती पर सबसे प्यारा।
प्राण मेरे बसते हैं तुझमें दूध-भात कर, छूट गिरा जो
क्या तज देगा आन हमारी।

खून-पसीना रस बन जाता। बिन छूए बंजर हो जाता।
मुझ चातक को तेरी आशा लाल नहीं बन तू दुर्वासा।
तू तो है हारिल की लकड़ी अंत समय तक हाथ रहेगा।
क्या तज देगा, तान हमारी?"

तात्पर्य यह कि प्रस्तुत गीत-संग्रह "रे मन! गीत लिखूँ मैं कैसे?" में संग्रहीत रचनायें स्वयं के प्रति, समाज के प्रति, प्रकृति के प्रति, वात्सल्य-देश-पर्वों के प्रति हमें जागरुक बना कर नूतन संदेश देती हैं जिससे चेतना एवं चिन्तन का विस्तार होता है और कवयित्री की सृजनशीलता, कलात्मक शिल्प एवं बहुकोणीय वैचारिक प्रबुद्धता का भी ज्ञान होता है जो सहज, सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण है। अंत में डॉ॰ शम्भूनाथ के कथन का उल्लेख करते हुए, उससे सहमति व्यक्त करता हूँ- "इस संग्रह के गीत एक भावनात्मक उत्तेजना के साथ रचे गये हैं जिनमें पारम्परिक तत्वों के साथ नवीनता की आकुलता भी है। शिल्प के स्तर पर प्रचलित प्रयोग नवीन संस्कारों को अर्जित करते हैं।" जागरुक चेतना के साथ श्रीमती शीला पांडे में अपार सम्भावनाएँ हैं। मैं उनके सृजनरत, सक्रिय जीवन के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।
------------------
गीत- नवगीत संग्रह - रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे, रचनाकार- शीला पांडे, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, लखनऊ। प्रथम संस्करण- २०१५, मूल्य- रूपये ८०/-, पृष्ठ-८८ , समीक्षा- मधुकर अष्ठाना, ISBN 978-93-85942-02-0

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

जिंदगी की तलाश में- श्याम श्रीवास्तव

रामशंकर वर्मा 
कविता की लोकप्रियता के प्रष्न पर जब यह जुमला चस्पा किया जाता है कि आमजन तक पहुँचना ही उसका अन्तिम लक्ष्य है। तब इस कसौटी पर कसने के लिए एक ही परीक्षणयन्त्र काफी है कि कविता कितनी सम्प्रेषणीय है। इस सम्प्रेषणीयता में कितनी लोकसम्पृक्ति है और कितने लोग इससे गुजर कर कहते हैं कि भई वाह! ऐसा तो हमें भी महसूस होता है, अरे! यह तो हमारे गाँव, मुहल्ले की आँखिनदेखी है या फिर कि यह तो हमारे साथ भी गुजरी है। अब जिज्ञासा उठती है कि यह लोकसम्पृक्ति क्या बला है। लोकसम्पृक्ति किसी रचनाकार की समय पर सतर्क अन्वीक्षण दृष्टि है, उसका संवेदन है, पीड़ा का आर्तनाद और पुलकन का रोमाकुलन है। इस कसौटी पर यदि अधिकांश समकालीन कविताओं की परख की जाये तो यही निकष हाथ लगता है कि कविता की लोकसम्पृक्ति का क्षय हुआ है। और यह निकष कविता के अलोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण है।

लोकसम्पृक्ति के क्षय की इस चुनौती को जिन कुछेक कवियों ने भगीरथ-भाव से स्वीकार किया है, उनमें से एक नाम लखनऊ के ख्यातिनाम गीतकार श्याम श्रीवास्तव का है। वर्ष २०१६ की पहली त्रैमासिकी में आया उनका गीत संग्रह ‘जिन्दगी की तलाश में’ लोकसम्पृक्ति के रसायनों से भरपूर है। वे स्वयं कहते हैं कि ‘सम-सामयिक सन्दर्भों में मानव-जीवन से जुड़े सामाजिक संत्रास को शब्दिता प्रदान करना और जीवन की जिजीविषा को अक्षुण्णता प्रदान करना ही मेरे गीतों का अभिप्रेत है।’ वे अपने रचनाकर्म में गीत-नवगीत के विभेद या सीमारेखा को सिरे से ही नकारते हैं। मुखड़े से अन्तरों तक गीत की काया में वे कैसे नवगीत का परकायाप्रवेश करा देते हैं, उन्हें स्वयं नहीं मालूम। नवगीत की इस परकायाप्रवेशी विद्या के वे शायद अकेले विक्रमादित्य हैं।

वर्ण्यविषय और प्रसंगानुसार गीतों में गेयता, लय और टेक के समुचित निर्वाह, माधुर्यता के साथ ही नवगीति रचनाओं में रोजमर्रा की यथार्थ विद्रूपताओं और विडम्बनाओं के विम्ब उकेरने में वे सिद्धहस्त हैं। उनके कुछ कालजयी नवगीत तो जैसे उनका पर्याय बन गये हैं।
यह मुआ अखबार फेंको
इधर हरसिंगार देखो
जागते ही बैठ जाते आँख पर ऐनक चढ़ा के
भूल जाते दीन-दुनिया दृष्टि खबरों पर गड़ा के.......।

उठ रहीं लहरें खड़े हो घाट पर टाई लगाये
क्या पता कल यह लहर फिर, इस तरह आये न आये...।
रूप देखो या न देखो
रूप के उस पार देखो।

नयी सुबह में हृदय चाक करती अखबारों की खबरों का यह विम्ब सचमुच अप्रतिम है और अन्तिम पद की समटेक में अनुपम है नैसर्गिक प्रीति की आकांक्षा। ‘अभी तो चल रहा हूँ मैं’ चौतरफा प्रभंजनों से घिरे आम आदमी की चार कदम आगे बढ़ने और दो कदम पीछे हटने की स्वीकारोक्ति का एक और जिजीविषामूलक गीत है।

कमी रही
कई अनय सबल रहे झुके नहीं
मगर जिन्हें कुचल सका
उन्हें कुचल रहा हूँ मैं
अभी तो चल रहा हूँ मैं
मुझे न मित्र देखिए
उड़ी-उड़ी निगाह से
किताब हूँ वही महज कवर बदल रहा हूँ मैं।

५२ नवगीत, जिन्हें वे नवगीत की संज्ञा देना या न देना पाठक पर छोड़ते हैं, उनकी बहुआयामी गीत साधना का ऐसा प्रतिसाद हैं, जिन्हें ग्रहण कर पाठक क्षणांश को आत्मविस्मृत हो जाता हैं। उनके नवगीतों में जहाँ अम्मा-बापू के दैनिक गृह जंजाल में पिसते स्मृतिबिम्ब हैं वहीं संस्कारवान बेटे के प्रति वर्तमान सर्वभक्षी संस्कृति से अनिष्ट की सहज आशंका भी है।
‘बेटा कुछ बदला दिखता है
माँ डरती है।
‘पुरा पड़ोसी
कुत्ता बिल्ली
सबकी प्यारी रामरती’ में दूसरे के घरों में चौका-बासन करती कामकाजी महिला की कसक के बहाने समाज के अन्तिम पायदान के चरित्र का सन्तोषी जीवन दर्शन और ‘शिला मत बन’ में पुलिस-मीडिया-न्यायतन्त्र का आदमखोर गठजोड़ कुछ भी उनकी कहन की परिधि से बाहर नहीं है। पूजितों के प्रति आस्था विखंडन के दौर में ‘मन नहीं लगता विनय विरुदावली में’ के अतिरिक्त और क्या कह सकता है।

पूँजीवाद और आयातित रहन-सहन की गिरफ्त में लोक कलाओं का पराभव, ग्राम्य जीवन की सहजता का विलोप आदि तो कविता की सभी विधाओं के वर्ण्य विषय हैं, गीतकार ने इन्हें भी अपनी कहन से जीवंत किया है। ‘इधर उधर की छोड़ो बबुआ/घर की कथा कहो’ तथा बहुत बोझा नहीं अच्छा/सफर में सादगी अच्छी’ कहकर उन्होंने प्रकारान्तर से ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ वाली शाश्वत भारतीय परम्परा की निर्गुण और सूफी परम्परा की वकालत की है।

एक बात और उल्लेखनीय है कि ‘जिंदगी की तलाश में’ अतीतजिविता, परम्परामण्डन या स्मृतिविलाप के रूप में नहीं है, यह हमारी लोकमंगल कामना और श्रेय के संरक्षण के सन्दर्भ में है। यहाँ पारम्परिक प्रतीकों में दुर्धर्ष समय से मुठभेड़ करने का प्रतिकार और प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध ‘दो बाँके’ का दिखावटी न होकर घन की चोट मारकर आततायी को लहूलुहान और पराजित करने का है। ऐसा जनवादी जनपक्षधर गीत जिसे सुनकर भुजायें फड़क उठें, नथुने फूल जायें, शिराओं का रक्त खौल उठे।

कुलबुला कर ही न रह जा यार
मार घन की चोट कस के मार

बेहया है सीख से हरगिज न सुधरेगा
कायदे कानून चुटकी से घुमा देगा
और कितनी हाय कितनी बार
मार घर की चोट
कस के मार।

हिंसकों से साबका तो मौन व्रत कैसा
जोर शब्दों में उगा शमशीर के जैसा
गीत में भर वक्त की ललकार
मार घर की चोट
कस के मार
यूँ न हॅंसकर टाल फुंसी बनेगी फोड़ा
जान लो चौपट फसल, है खर अगर छोड़ा
देर होगी तो कठिन उपचार
मार घन की चोट
कस के मार।

ऐसे कालजयी नवगीत, नवगीत साहित्य की धरोहर हैं। क्या प्रतीक, क्या विम्ब, क्या लय, क्या कहन, क्या शिल्प सब कुछ अनुपमेय।

हाथों में पैमाने थामे, पंचसितारा होटलों में जन सरोकारों के झंडाबरदार कवियों पर वे बड़ी साफगोई से आत्मस्वीकृति के बहाने तंज करते हैं कि
‘प्यासे को नीर पिला न सका
चोटिल तन-मन सहला न सका
मेरा अपराध क्षमा करना।

आम बोली-बानी में रचे गये गीत-नवगीत संग्रह ‘जिंदगी की तलाश में’ की सभी रचनायें गीत-नवगीत के शिल्प, छन्दानुशासन, कथ्य की दृष्टि से पुष्ट हैं। कथ्यानुकूल प्रतीक और विम्ब इसे हृदयग्राही संप्रेषण की क्षमता से लैस करते हैं। आशा है इस गीत-नवगीत संग्रह को पाठकवृन्द और कविजगत सिर माथे पर लेगा।
१५.५.२०१६ 
--------------
गीत- नवगीत संग्रह - जिंदगी की तलाश में, रचनाकार- श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- नमन प्रकाशन, २१० चिन्टल्स हाउस, १६ स्टेशन रोड, लखनऊ-२२६००१। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- अजिल्द रुपये १५०/- सजिल्द रुपये २००, पृष्ठ-९९ , समीक्षा- रामशंकर वर्मा। ISBN 978-81-89763-42-8

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

किन्तु मन हारा नहीं- श्याम श्रीवास्तव

कुमार रवीन्द्र 
अंकिचन हम कहाँ हैं
पास यादों के/खजाने हैं
हमारे पास जीने के/अभी लाखों बहाने हैं
अपना अमृतवर्ष पूरा कर रहे वरिष्ठ कवि भाई श्यामनारायण श्रीवास्तव 'श्याम' की यह आस्तिक भंगिमा उनकी जीवन के प्रति सात्विक आस्था की परिचायक है। जीने के उनके 'लाखों बहाने' वस्तुतः इस समग्र जिजीविषा को परिभाषित करते हैं, जो सृष्टि की आदिम लीला में सन्निहित हैं। अच्छा लगता है जानकर कि 'जिधर भी हम गये/हमने उधर खींची नई रेखा' का उनका जीवनाग्रह और 'अभी लव पर हमारे/सैकड़ों नगमें तराने हैं' का उनका काव्याग्रह अभी भी पूरी तरह युवा है।
उनके प्रस्तुत तीसरे कविता संग्रह 'किन्तु मन हारा नहीं' का शीर्षक भी तो इसी ओर इंगित करता है। और इस प्रखर जिजीविषा का आधार है वह सकारात्मक जीवानुभवों का प्रतिकार करती उनकी सहज उत्सवी मुद्रा इस संग्रह के तमाम गीतों में उपस्थित दिखाई देती है। संग्रह के पहले ही गीत 'रूप के उस पार' में वे 'मुखड़ा-पंक्तियों' 'यह मुआ/अखबार फेंको/इधर हरसिंगार देखो' से ही जीवन के तमाम नकारात्मक प्रसंगों के प्रतिकार की भावभूमि में उपस्थित दिखते हैं। इसी गीत में आगे वे एकदम ताजे बिम्बों में जीवन के सहज अस्तित्व से हमें जोड़ जाते हैं। देखें तो जरा-
क्या धरा गुजरे-गए में / डोलती मनुहार देखो
चाय बाजू में धरी है / गर्म है, प्याली भरी है
सोंठ, कालीमिर्च / तुलसी, लौंग मिसरी सब पड़ी है
जो नहीं मिलता खरीदे / घुला वह भी प्यार देखो
उपरोक्त पंक्तियों में आज के क्षीण होते एहसासों के बरअक्स सहज प्रीतिभाव को सहेजने का उनका आग्रह बानगी देती है उनकी रागात्मक मानुषी संचेतना की। हाँ, यही तो है वह भावभूमि जिसकी आज के तेजी से अमानुषिक एवं संवेदनशून्य होते परिवेश में नितान्त आवश्यकता है।
 कविता में आत्मपरक किस्सागोई उसे जीवन्त बनाती है। संग्रह की कई कविताएँ इसी आत्मानुभूति का कथानक करती है। ये अतीतगंधी रचनाएँ पलायन की नहीं अपितु जीवन के स्वस्थ स्वीकार की भावभूमि उपजाती हैं। देखें संग्रह के एक गीत का यह अंश-
 बेमौसम भी / पंचवटी में / गाना चलता है

 सावन खूब नहाना / नाव बना के तैराना,
 खुशबू के पीछे / पागल बन / रातों दिन मँडराना,
 साँसों संग / अतीत का / तानाबाना चलता है
यह तो देह की पाँच तत्वों की पंचवटी है, उसमें भीतर की जिजीषु स्वीकृति स्मृतियों के ताने बुनती रहती है और उन्हीं से बनती है कबिरा की 'जतन से ओढ़ी' चदरिया श्याम भाई एक कुशल बुनकर हैं। वे अपनी कविताई की चदरिया विविध रंगी धागों से बुनते हैं। यह धागे हैं आज के तमाम राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ, जिनकी इन गीतों में जगह-जगह सहज बुनावट हुई है। चारों ओर छत एवं प्रपंच का जो वातावरण व्याप्त रहा है, उसकी ख़बर देते हुए वे कहते हैं-
 कागज पर कुछ और / हकीकत केवल / छल ही छल
 दिखता नहीं दूर तक / नंगी आँखों कोई हल
 बहुचर्चित अपराध / दूसरे दिन रद्दी के डिब्बे
 पीड़ित आँखों के हिस्से / आये काले धब्बे
 जिरह पेशियों बीच / मौत जाती आदमी निगल मुश्किल यह है कि आम आदमी को
 सौ तीरों की जद में / यहाँ खुले में रहना है
 तख़्त और आतंक / बीच पाटों में पिसना है
 बेलगाम हर तंत्र / कसें तो कैसे कसें लगाम
यह जो हमारी सामाजिक संरचना का अपराधीकरण हुआ है, उसके लिए जिम्मेंदार है हमारी स्वयं की निष्क्रियता और उदासीनता, कवि की अन्तर्व्यथा इसी को लेकर है। वह कहता है-
'कैसी खुशियाँ/जहाँ जवानी भी/घुटनों के बल चलती है
रात नहीं चुप्पी खलती है'
कैसा मानुस/अन्यायी के सम्मुख/चारण बन जाता है।
हमें शिकायत उन शहरों से/हमें शिकायत उन गलियों से
जहाँ अनय की टीस/क्रोध में नहीं/आँसुओं में ढलती है।
और उनकी खीझ इसी बात को लेकर है क्या करिए/ऐसे पौरूष का/आंतकों के पाँव पखारे।

एक ओर अनय और आतंक से न जूझ पाने की यह टीस और दूसरी ओर मनुष्य की विपदाओं की बढ़ती फेहरिस्त/ संग्रह का 'कुढन' शीर्षक गीत इन्हीं आपदाओं की गाथा कहता है! 'ऊधो! कठिन हो गया जीना' का एहसास लिए इस गीत की बिंबाकृतियाँ एकदम सहज और सपाट हैं और आज की किसिम-किसिम की दुविधाओं का हवाला देती हैं। एक ओर 'कम्प्यूटर/मोबाइल आगे/चिट्ठी, नेह-निमंत्रण भागे' की व्यथा है, तो दूसरी ओर 'सूत-सूत में/ठनी लड़ाई/छिन्न-भिन्न चादर के धागे/दाँव-पेंच के पौ-बारह है’ के माध्यम से घर के बिखराव की पीर का बिम्बात्मक अंकन है। 'मँहगाई की तिरछी चालें, जिसमें दूध-दही/गुड़-शक्कर जैसी आम पोषण की जिनसे दुर्लभ हो गयी हैं के साथ तिल-तिल/आदर्शों से गिरना' की कुढ़न भी है। आज एक ओर है हाट-संस्कृति का दबाव तो दूसरी ओर है जीवन मूल्यों का अधःपतन/'कुढ़न' गीत में इनके ही हम रू-ब-रू होते हैं।
'घाट-घाट पर/बैठे पंडे/सच्चों के सिर बजते डंडे
सजीं दुकानें/क्षत्रप बाँटें/दुराग्रही ताबीजें-गंडे
रखवारों ने ही/डोली का/चैन पिटारा छीना'
एक अन्य गीत में श्याम भाई, 'दिन घोटाले/रात रंगीली' वाले समसामयिक परिवेश की भ्रष्ट घुनखाई हालत को बदलने का आह्वान करते हैं। इसके लिए 'आलस की जंजीरें' तोड़ कर संकल्पों की अलख जगाने की बात करते हैं।
पारिवारिक उलझनों का हवाला देते कई संग्रह में हैं। 'आँगन बन बैठे जलसाघर' के वर्तमान अपसांस्कृतिक माहौल में घर की संरचना और सामान्य रिश्ते-नाते में जो बदलाव आया है, उसका हवाला 'बापू', 'माँ, 'चिट्ठी आई', 'कैसे रहे शहर में', 'भग्न हृदय' जैसे गीतों में बखूबी हुआ है। बुढ़ापे की जो दुविधाएँ हैं और उसके प्रति युवा पीढ़ी के सोच में जो बदलाव आया है, उसके इंगित इन गीतों में जगह-जगह मिलते हैं। आज पीढ़ियों का अंतर भारतीय समाज की मूल इकाई परिवार के विघटन का कारक औ पर्याय बन गया है। और फिर जाने-पहचाने, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये सांस्कृतिक परिवेश का बिखराव। इस सबके प्रति एक उम्रदराज व्यक्ति की क्या सोच है, इसी का ज़िक्र हुआ है संकलन के शीर्षक गीत 'किंतु मन हारा नहीं' में। अतीतजीवी होना उसकी परवशता है और संभवतः आवश्यकता भी। व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर वह समग्र बिघटन-टूटन का भोक्ता जो है। देखें, उस कविता का कुछ अंश-
'जी रहे हैं उम्र/रेगिस्तान में/लड़ते समय से
हाँ एक ओर...उड़ गई चिड़िया-चिरौटे/दिन बचे बेचारगी के'

'अब कहाँ/वे कहकहे/रंग इन्द्रधनुषी जिन्दगी के,' की अकेले पड़ जाने की व्यक्तिगत व्यथा
तो दूसरी ओर 'ऊबता जी/हर घड़ी सुन/अटपटे संवाद घर में
और सुनते उधर डेरे रहजनों के/हैं शहर में' का सामूहिक सामाजिक एकसास
और इनके बीच में कवि का संवेदनशील सांस्कृतिक मन 'कहाँ जायें/कट सनातन/संस्कृति की गूँज लय से' की अपने परिवेश से निर्वासन की नियति को झेलता हुआ। किंतु उसकी जिजीविषा एवं रागात्मक इयता हार नहीं स्वीकारती-
'वक्त नाजुक है/पता है/ किंतु मन हारा नहीं है
ढाल देखे/उस तरफ/वह जाये, जलधारा नहीं है
तन शिथिल/पर मन समर्पित/टेक पर अक्षत हृदय में'
संग्रह की एक और रचना का जिक्र करना यहाँ जरूरी है। वह रचना है 'रामरती'। इस कविता में एक पूरा रेखाचित्र है एक कर्मठ जिजीविषा का। रामरती मात्र एक चरित्र नहीं, वह तो प्रतीक है भारतीय अस्मिता का, जो तमाम संघर्षों के बीच भी उत्फुल्ल जीवन्त बनी रहती है। समूची सृष्टि से जुड़ने का जो सगा भाव है। आज इस महाभाव की मानवता को कितनी जरूरत है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। वेसे तो पूरी कविता ही पठनीय है, किंतु यहाँ उसका कुछ अंश देखें-
'कुत्ता-बिल्ली/पुरा पड़ोसी/सबको प्यारी रामरती
थकी देह भी/खिलखिलकरती/सबसे मिलती रामरती
गीली माटी सा/कोमल मन/पल में फागुन, पल में सावन
हमदर्दी के/बोल बतासे/अक्सर कर देते वृन्दावन
छिछले पानी में भी/अक्सर, तिरने लगती रामरती
बेमौसम भी/हरसिंगार-सी/झरने लगती रामरती'
एक समूची भारतीय नारी की यह प्रतीक-कथा, सच में अनूठी बन पड़ी है। मेरी राय में, यह रचना इस संग्रह की ही नहीं, पूरे हिन्दी गीत-साहित्य की एक उपलब्धि है। साधुवाद है भाई श्यामनारायण 'श्याम' का इस एक रचना हेतु ही।
श्याम भाई मेरे अग्रज हैं, प्रणम्य हैं उनसे मेरा परिचय कुछेक सालों का ही है। वे एक विनम्र सीधे सरल व्यक्ति हैं और यही उनकी पूँजी है। पारम्परिक गीत के वे पुराने गायक हैं। उन गीतों से जब मैं कुछ वर्ष पूर्व परिचित हुआ, तो मुझे यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उनमें भी कई बार ऐसे ताजे-टटके अनुभूति-बिम्ब उभरे थे कि नवगीत के रचयिताओं को भी उनसे ईर्ष्या हो। प्रस्तुत संग्रह के सभी पैंतालिस गीत नवगीत की कहन-भंगिमा के इतने अधिक निकट हैं कि उन्हें नवगीत कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। उम्र के पचहत्तर के पड़ाव पार के इस युवा मन गीतकार को मेरा विनम्र प्रणाम। अभी तो उनकी गीतयात्रा के कितने ही पड़ाव शेष हैं। प्रभु से प्रार्थना है कि हमें वर्षों-वर्षों तक उनके सहयात्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।
८.३.२०१५ 
----------------------------------------------------------------
गीत- नवगीत संग्रह - किन्तु मन हारा नहीं, रचनाकार-श्याम श्रीवास्तव, प्रकाशक- उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण- २००९, मूल्य- रूपये १५०/-, पृष्ठ- १०४, भूमिका से- कुमार रवीन्द्र