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शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

दोहा दुनिया

शिव ही शिव जैसे रहें,
विधि-हरि बदलें रूप।
चित्र गुप्त हो त्रयी का,
उपमा नहीं अनूप।।
*
अणु विरंचि का व्यक्त हो,
बनकर पवन अदृश्य।
शालिग्राम हरि, शिव गगन,
कहें काल-दिक् दृश्य।।
*
सृष्टि उपजती तिमिर से,
श्यामल पिण्ड प्रतीक।
रवि मण्डल निष्काम है,
उजियारा ही लीक।।
*
गोबर पिण्ड गणेश है,
संग सुपारी साथ।
रवि-ग्रहपथ इंगित करें,
पूजे झुकाकर माथ।।
*
लिंग-पिण्ड, भग-गोमती,
हर-हरि होते पूर्ण।
शक्तिवान बिन शक्ति के,
रहता सुप्त अपूर्ण।।
*
दो तत्त्वों के मेल से,
बनती काया मीत।
पुरुष-प्रकृति समझें इन्हें,
सत्य-सनातन रीत।।
*
लिंग-योनि देहांग कह,
पूजे वामाचार।
निर्गुण-सगुण न भिन्न हैं,
ज्यों आचार-विचार।।
*
दो होकर भी एक हैं,
एक दिखें दो भिन्न।
जैसे चाहें समझिए,
चित्त न करिए खिन्न।।
*
सत्-शिव-सुंदर सृष्टि है,
देख सके तो देख।
सत्-चित्-आनंद ईश को,
कोई न सकता लेख।।
*
१९.१.२०११, जबलपुर।

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

doha shatak: arun sharma

दोहा शतक:
अरुण शर्मा 

Arun Sharma का प्रोफ़ाइल फ़ोटो

मिट्टी की इस देह से, पाल रहे अनुराग।
जब तक साँसें मित्रता, टूट गई तब आग।। 
*
अगर-मगर में क्यों प्रिये, जीवन रहीं गुजार।
जब तक साँसें चल रही, तब तक यह संसार।। 
*
अब कहने को शेष क्या, तुमसे दिल की बात।
मौन हुए अहसास सब, सुप्त हुए जज्बात।। 
*
कथनी-करनी पर मुझे, खूब मिला उपदेश।
वही हलाहल बाँटता, जो खुद है अमरेश।। 
*
शीत मौसमी भेंट है, घना कोहरा, ओस।
सर्दी के कारण हुआ, तरल जलाशय ठोस।। 
*
इस विस्तृत संसार की, सोच हुई संकीर्ण।
सिमट गये सब आज में, कल जो रहे प्रकीर्ण।। 
*
वैधानिक चेतावनी, सिर्फ कागजी काम।
धूम्र-मद्य का पान कर, मरता रोज अवाम।। 
*
हम-तुम दोनों ठीक थे, बहके थे जज्बात।
ढूँढ़ रहा हूँ आज भी, नगमों वाली रात।। 
*
अंतर में छल छंद है, बाह्य आवरण शुद्ध।
ऐसे कैसे तुम भला, बन पाओगे बुद्ध।। 
*
अति ही व्याकुलता भरे, अति करती मजबूर।
प्रेम करें अनिवार्य से, अति से रहना दूर।।
*
खौफ न है कानून का, और न है अनुराग।
इसीलिए है देश में, पाकिस्तानी राग।।
*
आशाओं के बीज से, निकले हैं कुछ खार।
हम तो भूखे रह गये, व्यंग्य करे संसार।। 
*
क्रोध कभी मत कीजिए, यह दुर्गुण की खान।
हरता बुद्धि, विवेक भी, नहीं छोड़ता ज्ञान।।
*
छप्पन इंची वक्ष में, दुनिया का परिमाप।
तब क्यों भूखी देहरी,  पेट रही है नाप।। 
*
इन नैनों की कोर से, टपक रहे हैं शब्द।
प्रिय! अब तो आकर मिलो, बीत रहा है अब्द।। 
*
पाहन कब कहता हमें, पूज्य बनाओ यार।
मानो तो मैं देव हूँ, या पत्थर बेकार।। 
*
नवल वर्ष ये आपको, रखे सुखद, समृद्ध।
पूर्ण करे हर कामना, हो न हुलासा वृद्ध।। 
*
लाए वर्ष नवीनता, पाएं हर पल हर्ष।
सुखमय हो जीवन सदा, मिले नित्य उत्कर्ष।। 
*
गत ने आगत से कहा, खुश रखना हर हाल।
हाथ तुम्हारे दे दिया, मैनें पूरा साल।।
*
अंतर के संताप ने, कलम थमा दी हाथ।
शब्द न रोटी बन सका, बस आँसू का  साथ।।
*
ऐसे- कैसे तुम मुझे, कहते हो कंगाल।
अंतरघट में है छुपा, माया का जंजाल।। 
*
पावक नभ जल भू हवा, पंचभूत की देह।
सिक्के से क्यों तौलता, होना है जब खेह।। 
*
आँसू तेरा मोल क्या, तुझ में ऐब हजार।
जग क्या जाने पीर को, नीर दिखे हर बार।। 
*
जिसने पायी ज़िंदगी, निश्चित है अवसान।
फिर भी  माया-मोह में, डूब रहा इंसान।। 
*
ढल जाएगी एक दिन, उम्र, समय यह देह।
फिर तन से है प्रेम क्यों, जो मिट्टी का गेह।।
*
कर्कश स्वर है काग का, करता दूर विछोह।
कोयल काली है मगर, वाणी लेती मोह।।
*
दिल को जो अच्छा लगे, कर लेना निष्काम।
कल की चिंता में कहाँ,खत्म हुआ सब काम।।
*
इस कलियुग ने आजकल,किस्से सुने तमाम।
दशरथ जैसे पिता सौ, पुत्र न पाया राम।। 
*
खुशबू बसी गुलाब में, पीर छुपाये शूल।
जैसी जिसकी कामना, मिला उसे अनुकूल।।
*
विनती करना प्रेम से, करना नहीं दहाड़।
चंद मिनट में आजकल, राई बने पहाड़।।
*
ढ़ल जाएँगे एक दिन, उम्र, रूप, यह देह।
तन पर इतना प्रेम क्यों, जो मिट्टी का गेह।। 
*
अगर चाहिए जिंदगी, सेहत भी भरपूर।
परामर्श मेरा यही, हों व्यसनों से दूर।। 
*
राहों में बिखरे पड़े, बैर-भाव के शूल।
सोंच-समझकर पैर रख, राह नहीं माकूल।। 
*
है खराब वह व्यंजना, बाँट रही जो मौत।
बात हमारी सत्य है,व्यसन जिंदगी सौत।। 
*
एक पंक्ति में हैं खड़े, तुलसी, नीम बबूल।
अलग-अलग तासीर को, जाने वही रसूल।।
*
मौत सत्य है जान लें, जीवन कपट सलील।
जीने को क्यों जिन्दगी, करता रोज दलील।। 
*
सुखद सुभग सानिध्य को, नमन करूँ कर जोर।
चिरकालिक हो बंधुता, सहज मैत्री डोर।। 
*
रखना सदा कुटुंब में, समरसता का भाव।
नियम बने समुदाय को, अपनों में सद्भाव।। 
*
जाना सबको एक दिन, राजा रंक फकीर।
सुखद कर्म करते रहें, जब तक रहे शरीर।। 
*
रूपवती के रूप में, मैं खोया दिन-रात।
बुद्धिमती समझी नहीं, मेरे मन की बात।। 
*
कुछ तारक,कुछ तारका, तारकमय आकाश।
एक सूर्य के उदय से, घर-घर हुआ उजास।। 
*
पराधीन को बेड़ियाँ, कर देतीं मजबूर।
आज़ादी संग जिन्दगी, जी ले मित्र जरूर।। 
*
कुछ क्यारी में पुष्प हैं, कुछ में उगे बबूल।
सोच-समझ अनुबंध कर, काँटे,खुशबू, फूल।। 
*
मौन भला कब राह दे, मार्ग न दे वाचाल।
नियत काल की उक्ति ही,करती मालामाल।। 
*
शाकाहारी शुद्ध है, नित्य करें आहार।
जीवन को देते कहाँ, मृत शरीर आधार।। 
*
रे! मन क्यों होता रहा,जग में नित्य अधीर।
वही कर रहा कर्म तू, जो कहती तकदीर।। 
*
स्वयं सिद्धि का मंत्र जो, जपता सुबहो-शाम।
अंत समय में क्या उसे, मिल जाता सुखधाम।। 
*
कौन उजाला बाँटता, कौन घनेरी रात?
अपने-अपने कर्म ही, देते फल सौगात।। 
*
अणुवत जन्मा जो वही, होगा आप विलीन।
कद बढ़ना निस्सार है,  मानस अगर मलीन।। 
*
विषधर विष धारे सदा, कभी न करता पान।
दशन करे वह अन्य का, नहीं गँवाता जान।। 
*
चादर छोटी हो गई, या बढ़ गया शरीर।
चला सांत्वना ओढ़कर, जब से हुआ फकीर।। 
*
लेखा-जोखा कर्म का, दिया तराजू डाल।
कलयुग बैठा तौलने, सद्गुण दिया निकाल।। 
*
जीवन भर परिहास को, रहा तौलता रोज।
अंत हुआ जब सन्निकट,करे स्वयं की खोज।। 
*
चंदन घिस-घिस कर मनुज, मस्तक लेता थोप।
पाएगा क्या सत्य को, करे अकारण कोप।। 
*
हाथ जोड़कर ज्ञान पा, हाथ पसारे दान।
इज्जत मिलती प्रेम से, भक्ति-मिले भगवान।। 
*
जीवन के परिप्रेक्ष्य में, आँखें रखना चार।
दो आँखें सत्कर्म पर, दो रोकें व्यभिचार।। 
*
प्रतिस्पर्धा स्वच्छ रहे, हृदय न किंचित द्वेष।
हार-जीत संज्ञान से, समझे लोग विशेष।। 
*
जीवन में प्रभु के लिए, रखें समर्पण-भाव।
भवसागर तारे यही, बनकर सुंदर नाव।। 
*
कंकर में शंकर मिले, शंकर में शमशान।
अंतरपट को स्वच्छ रख, पा जाएगा ज्ञान।। 
*
काल प्रवर्तित आज में, बदले रोज स्वरूप।
ढाई आखर छोड़कर, कुछ न रहा अनुरूप।। 
*
हमने उनसे आज तक, की केवल फरियाद।
और उन्हें लगता रहा, बातें हैं अपवाद।। 
*
हार हृदय की हार है, हार यथार्थ, अतीत।
हार मान ले हार जब, तब बेहतर हो जीत।। 
*
ठंडक इतनी बढ़ गयी, काँपे नित्य शरीर।
मौन हो गए सूर्य भी, कौन हरे अब पीर।। 
*
दिवा स्वप्न जैसे हुई, सुखद सुनहरी धूप।
आग, अँगीठी ही लगे, सुखमय दिव्य अनूप।। 
*
कर्म किये हैं जो यहाँ, उसका है परिणाम।
पर लोगों को लग रहा, शरद ऋतु का काम।। 
*
शीत लहर में हो गया,सर्द दिवस सह रात।
चिंगारी बस आँख में, सुप्त रहे जज्बात।।65
*
काले कागज हो रहे, दोहे लिख-लिख यार।
रोटी भर क्या मोल है, अगर बिके बाजार।।
*
***********

doha shatak: anil kumar mishra

दोहा शतक
anil kumar Mishra का प्रोफ़ाइल फ़ोटोअनिल कुमार मिश्र

आत्मज:
 
श्रीमती कलावती
​- ​
स्व. राम नरेश 
​मिश्रा​
 
​जीवन साथी:
 श्रीमती रजनी मिश्रा
जन्म
​:
 
​३१
 मार्च 
​१९५८,
 
इलाहाबाद (उ
​.​
 प्र
​.​
)
शिक्षा
​:
 एम. ए. ( समाजशास्त्र
​​
,
​ ​
हिंदी)
​​
विधा
​:
 नुक्ता चीनी, गीत, व्यंग, दोहे आदि
 
प्रकाशन
​: 
दृष्टि (यात्रा संस्मरण)
​, ​
इन्द्रधनुष (काव्य संकलन
​)
सम्प्रति
​:
 विद्युत पर्यवेक्षक, उमरिया कालरी
। सचिव वातायन साहित्यिक
​-
सांस्कृतिक संस्था उमरिया (म.प्र.)
सचिव - हिंदी साहित्य 
​सम्मेलन
​ 
म. प्र.  भोपाल
 ( उमरिया इकाई )
​​
 
​संपर्क: ​
आवास क्रमांक 
​बी ५८
 , 
​९ वीं
 कालोनी उमरिया
​ 
​४८४६६१ 
​ 
चलभाष: ९४२५८९१७५६ , ९०३९०२५५१०, व्हाटस एप: ७७७३८७०७५७ 
​ ईमेल: mishraakumr @gmail.com 
 
​*
अष्टभुजी जगदंबिके, लुटा रहीं आशीष।
आदि शक्ति की अर्चना, करते हैं जगदीश।। 
मोक्षदायनी अंब हैं, महाशक्ति विख्यात।
पाप-शाप देतीं गला, शुभाशीष विख्यात
।। 
 
*
मातु चरण जब-जब पड़े, होते मंगल काज।
विघ्नहरण वरदायनी, चढ़ आईं मृगराज।। 
*  
रखूँ भरोसा राम का ,क्या करना कुछ और।  
राघव पद रज बन रहूँ, और न चाहूँ ठौर
।। 
राम नाम महिमा बड़ी, पाहन जाते तैर। 
छोड़ जगत जंजाल तू, पाल न राग, न बैर।। 
पूरे जग में राम सा,
​ 
नहीं 
​अन्य ​
आदर्श।
राम भजन
​-अनुकरण दे
,
​ ​
जीवन 
​में
 उत्कर्ष
।। 
धन्य भूमि साकेत पा, राघव नंगे पाँव। 
निरख हँसे माता-पिता, विहँस उठे पुर-गाँव।। 
*
रखूँ भरोसा राम का, क्या करना कुछ और। 
राघव पद रज बन रहूँ, और न चाहूँ ठौर
।। 
*
राम नाम शर साधिये, मिटते कष्ट समूल। 
सारे जग के मूल में, राम नाम है मूल।। 
गुणाधीश हनुमंत हैं, पंडित परम सुजान।
आर्तनाद सुन दौड़ते, महावीर हनुमान।।  
*
मर्यादामय राम है, सतत कर्ममय श्याम।
जिस ढिग ये दोनों रहे, जीवन चरित ललाम।। 
*
धन बल यश का क्या करूँ, साथ न हों जब राम।
व्यर्थ हुईं अक्षौहिणी, सँग नहीं यदि श्याम।। 
*
मन में रखिये राम को, कर में रखिये श्याम।
मर्यादामय राम हैं, कर्म योग घनश्याम।। 
*
देवी के मन शिव रमे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।। 
*
कुञ्ज गली कान्हा फिरें, ग्वाल-बाल के साथ।
सच बड़भागी हैं बहुत, मोहन पकड़े हाथ।। 
*
मायापति क्रीड़ा करें, चकित हुआ ब्रज धाम। 
पञ्च तत्व भजते रहे, राधे राधे श्याम।। 
*
पाँव डुबोये जमुन-जल, छेड़े मुरली तान।
कालिंदी पुलकित मुदित, धरकर प्रभु का ध्यान।। 
*
धेनु चराई ग्वाल बन, दधि लूटा बिन दाम। 
बने द्वारिकाधीश जब, फिरे नहीं फिर श्याम।। 
*
श्याम विरह में तरु सभी, खड़े हुए निष्पात। 
शरद पूर्णिमा भी हुई, स्याह अमावस रात।।
गोवर्धन सूना खड़ा, कुञ्ज मौन बिन वेणु। 
राह श्याम की ताकते, कालिंदी तट-रेणु।। 
*
लोभ मोह मद स्वार्थ के, ताले लगे अनेक।
ईश-कृपा सब लौटतीं ,बंद द्वार पट देख।। 
*
लोभ मोह मद हम फँसे, लो प्रभु हमें निकाल। 
जीवन में शुचिता रहे, उन्नत हो मम भाल।। 
*
महासमर तम कर रहा, लोभ-मोह ले साथ।
लड़ने में सक्षम करो, प्रभु थमा तव हाथ।। 
*
ईश कृपा जिसको मिली, उसको व्यर्थ कुबेर। 
​ 
शुचिता की आभा रहे, थमे अमावस फेर।। 
*२५ 
सहज सरल को प्रभु मिलें, करें न पल की देर। 
हेम कुण्ड में हरि नहीं, अथक थके सब हेर।। 
*
मन वातायन खोलिए, निर्मल मन संसार। 
​ 
प्रभु-छवि आँखों में बसा, होगा बेड़ा पार।। 
*
तुम साधन अरु साधना, मन चित भाव विचार। 
​ 
ध्यान योग प्रभु आप हो,
​ ​
अवगुण के उपचार
​ 
।। 
*
मायापति की शरण जा, छूटे बंधन-मोह। 
​ 
मानव मन भटका हुआ, है विराट जग खोह
।। 
*
मिट जाएगी दीनता, भज ले  मारुति-नाम। 
​ 
यश-वैभव पौरुष मिले, बिन कौड़ी बिन दाम।। 
*
सत्कर्मो से कीजिये , कलुषित मन को साफ। 
​ 
करते हैं प्रभु ही सदा, त्रुटियाँ सारी माफ़
।। 
*
मन में प्रभु कैसे रहें, बसी मलिन यदि सोच।
जैसे गति आती नहीं, अगर पाँव में मोच।। 
*
पुष्कर में ब्रह्मा बसे, अवधपुरी में राम। 
कान्हा गोकुल में रहे, शिव जी काशी धाम।। 
सागर में हरि रम रहे, रमा रहें नित संग। 
देव सभी मम हिय बसें, हो निष्-दिन सत्संग।। 
*
मन गुरुर कर भूलता, प्रभु दिखलाते राह।
प्रभु के द्वारे एक हैं, दीन कौन, क्या शाह।। 
*
कर्मठता कब देखती,
​ ​नक्षत्रों
 की चाल। 
​ 
श्रम पूंजी जिसकी रही, वह है मालामाल
।। 
*​ 
रहें न गृह वक्री कभी, रहें राशि शुभ वार। 
नखत सभी अनुचर बने, राम कृपा आगार।। 
*​ 
राम चषक पी लीजिये, करिए तन-मन चंग।
धर्मध्वजा फहराइए, नीति-सुयश की गंध।। 
*​ 
अंधकार मन में रहा, बुझा ज्ञान का दीप।
प्रभु अंतर ऐसे छिपे, ज्यों मोती में सीप ।। 
*​ 
श्वास-श्वास यह फुका, जली न इच्छा एक। 
​ 
राम-नाम धूनी जला, लोभ चदरिया फेंक।। 
*​ 
राम नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़-मूल।। 
*​ 
उहा-पोह में क्यों फसें?, पूछे नवल विहान। 
कर्मठता के साथ ही, सदा रहें भगवान
।। 
*​ 
दीप पर्व अरि तमस का, देता जग उजियार।
पाप मिटे हरी-भक्ति से, हो शुचि-शुभ संसार।। 
*​ 
प्रेम वह्नि दहकाइए, बैर-शत्रुता फूक। 
​ 
माना यह पथ कठिन है, राम उपाय अचूक।। 
*​ 
जीवन में मत कीजिये, मिथ्या से गठजोड़।
क्षमा,शील, तप, सत्य का, कहीं न कोई तोड़।। 
*​ 
भक्ति-भाव से सींचिये, मन का रेगिस्तान ।
महक उठेगा हरित हो, जीवन का उद्यान।। 
*​ 
मन में शुचिता धार ले, त्याग लोभ मद काम।
स्वर्ग-नर्क हैं यहीं पर, मोक्ष यहीं सब धाम।। 
*​ 
छठ मैया जी आ गयीं, बहती भक्ति बयार।
भूख-प्यास तिनका हुईं, श्रद्धा अपरम्पार
।। 
*​ 
पाई-पाई में हुई, हाय! अकारथ श्वास। 
गिनते बीती जिंदगी, राम न आये पास।। 
*​ 
नींद खुली जब भोर में, खड़ा सामने पूस।
भानु महोदय हो गये, ज्यादा ही कंजूस।
।।
​ 
*
कौड़ा और अलाव से, रखिये अब सद्भाव। 
इनके ही बल शिशिर के, घट पा
​एं
गे भाव
।।
​ 
*
​  ​
पूस बाँटने चल प
​ड़े
, पाला 
​शीत
 कुहास।
कूकुर चूल्हा में घुसा, साध रहा है साँस।।
​ 
*
नई नवेली सोचती, काश न आये भोर।
पड़ी प्रीत ले पाश में, टूट रहे हैं पोर।।
​ 
*
चादर ओढ़े धवल सी, खेत खपड़ खलिहान।
ठिठुरे
​-​
ठिठुरे से दिखे, मचिया 
​मेड़
 मचान।।
​ 
*
स्वेटर शाल रजाइयाँ, ताप रहीं हैं धूप।
कल तक सारे बंद थे, मंजूषा के कूप।।
​ 
*
चना-चबेना-गुड़ बहुत, पूस माँगता खोज।
बजरे की रोटी रहे, चटनी भरता रोज।।
​ 
*
हीर कनी तृण कोर पर, पूस रखे हर रात।
बिन लेतीं हैं रश्मियाँ, आकर संग प्रभात।।
​ 
*
भानु न धरणी पग रखे, देख शिशिर का जोर।
जा दुबके हैं नीड़ में, शान्त पड़ा खग शोर।।
​ 
*
खल हो
​ सूरज जेठ में​
, और समीरण यार।
माघ मास सब उलट है, मानव का व्यवहार।।
​ 
*
कज्जल,
​ ​
वेणी,
​ ​
हार,
​ ​
नथ, 
​व
सन
​ हुए​
 बेहाल ।
दहकी प्रिय संग बाँह गह, भू
​ली
 सभी मलाल।।
​ 
*
शिशिर यातना दे रहा, भूल सभी व्यवहार। 
पृष्ठ भरे हैं जुल्म से, बाँच सुबह अखबार।। 
*
कुछ सोये फुटपाथ पर, कुछ ऊँचे प्रासाद
​​
सबके अपने भाग हैं, नहीं शिशिर अवसाद।।
​ 
*
रखे मृत्यु सम दृष्टि ही,
​ ​
करे न कोई  भेद
 
सत्कर्मी जब भी गया, जग को होता खेद।। 
*
हत्या हिंसा से रंगी, दिखी पंक्तियाँ ढेर
डरा रहे अख़बार हैं, आकर देर सबेर।।
​ 
*
 
सीता
​ को ​
सब खोजते, 
​किंतु न बनते 
राम
​​
शर्त सरल पर कठिन है, पहले हों निष्काम।।
​ 
*
रिश्ते
​-नाते
 टाँकिये, नेह
​-​
सूत ले हाथ
साँसें जो छिटकी रहीं, चल देंगी सब साथ।।
​ 
*
हम मानव अति हीन हैं, तरु हैं हमसे श्रेष्ठ
छाया ,पानी, फल दिया, 
​माँगा
 नहीं अभीष्ट।।
​ 
*
 
साँसों का मेला लगा, पिंजर है मैदान
​इच्छाएँ
 ग्राहक बनी, मोल करे नादान।। 
*
​  ​
गिनती 
​की
 
​साँसें
 मिलीं, क्यों खर्चे बेमोल
​मिट्टी
 में मिल जागा, अस्थि चाम का खोल
​​
।।
​ 
*
हाँ - हाँ , हूँ - हूँ कर रहा, करके नीचे माथ
लालच कब करने दिया, ऊपर अपना हाथ
।।
​ . ​
*
कृषकायी सरिता हुई, शोक मग्न हैं कूल
सांस जगत की फूलती, होता सब प्रतिकूल
।।
 
​*​
बेला 
​बिकता विवश हो
,
​ ​
सोच
​ रहा 
निज भाग
​​
। 
मंदिर या कोठा रहूँ 
​,
 या दुल्हिन 
​की माँग
​​
।।
*
बेला कभी न सोचता, कौन लिए है हाथ
उसको ही महका रहा, जो रखता है साथ।।
​*
बेला जब गजरा बने
​,
 उप
​जें​
 भाव अनेक
बेणी बन जूड़ा गुथे,
​ 
मन न र
​हे
 फिर नेक
।।
​ 
*
खोलो मन की साँकली,
​ ​
झाँके अन्दर भोर।
भागे तम डेरा लिए,
​ ​
सम्मुख देख अँजोर
​​
​​
  
*
भास्कर नभ पर आ कहे,
​ ​
उठ जाओ सब लोग
तन मन नित प्रमुदित रहे , काया रहे निरोग
 
*
धमनी-धमनी में बहे,
​ ​
नूतन शोणित धार
​​
तन
​-​
मन 
​यदि हुलसित ​
रहे,
​ ​भुला बैद का 
द्वार
*
पायल 
​सहमी
 पाँव में, चूड़ी है बेहाल
​​
सावन 
​सूना हो नहीं
, जैसे पिछले साल
। 
 
​आएगा
 जब गाँव में, कागा ले 
​संदेश
पल में ही कट जायगा, शाप बना परदेश
।।
​ 
*
सावन पापी ठहर तो ,मत बरसा
​ रे!
 आग।
विधि ने खुशियाँ कम लिखीं, मैं ठहरी हत भाग
*​
पावक से लिपटे हुए,
​ ​
अंग - अंग श्रृंगार
​​
। 
पावस में रजनी हुई, जैसे सौतन नार
​ 
*
दर्पण हैं चंचल नयन, बाहुपाश हैं हार।
प्रियतम से अनुपम भला ,कब कोई श्रृंगार
​ 
*
पावस बूँदें छेड़तीं, जाने किस अधिकार। 
प्रियतम
​!​
 निज थाती गहो, यौवन लागे भार
​ 
*
प्रीतम बरसें मेघ बन, तन भिसके 
​ज्यों
 भीत।
पोर-पोर टूटन 
​कहे
​हा!
 पावस की रीत
। 
​ 
*
प्रियतम की आहट मिली, पायल बोली कूक
​​
मध्य भाल टिकली हँसी, कंगन रहा न मूक
​ 
*
दिवा हुआ है शिशिर सा,
​ ​
और ग्रीष्म की रात
​​
नयन-नयन संवाद 
​सुन
,
​ ​
अधर-अधर 
​की बात
।।
​ 
*
अंग-अंग वाचाल 
​लख
,
​ ​
काँधा आँचल छोड़।
आँखें प्रियतम 
​को तकें
,
​ ​
सब मर्यादा तोड़
*
गोरी ने खुद को किया,
​ ​
प्रियतम के अनुकूल।
​आँचल
 में भी फूल हैं,
​ ​
चोटी में भी फूल
। 
​ 
 
*
नथ अधरों से कर रही,
​ गुप
चुप कुछ 
​संवाद
मैं शोभा की पात्र बस,
​ ​
तुम हरदम आबाद
।।
​ 
*
तुम हो किस रस में पगे, पूछे नथ यह राज।
अधर कहे हम मित्र हैं,
​ ​
मिलें त्याग कर लाज
। 
​ 
*
पग आलक्तक से रंगे,
​ ​
नयन हुए अरुणाभ
​​
अंग
​-​
अंग 
​हँस
 कह रहे, जगे हमारे भाग
​ 
*
फेंक न जूता मारिये, इनका भी है मान
​​
​नेता को पड़ रो रहा
, आज हुआ अपमान
*
​ 
बेटा से माता कहे,
​ ​
बेटा
​!​
 गारी 
​बोल
​​
संसद की भाषा 
​यही
,
​ ​
​बोल बजाकर ढोल
*
चोर द्वार से है घुसे,
​ ​
लड़ते नहीं चुनाव
लोकतंत्र के पीठ पर,
​ नेता ​
करते घाव
 
*
हिंदी का निज देश में,
​ ​
होता है अपमान।
पखवाड़े के रूप में,
​ ​
लेते हैं 
​सं
ज्ञान
​*
कैसे कुछ सौ वर्ष में,
​ ​
बदल गया 
​है
 रूप
​​
​हिंदी दासी रह गयी
,
​ अंगरेजी है भूप
।।
*
हिंदी को अपनाइये,
​ ​
​तनिक
 न करिये लाज।
इस
​से
 अपना कल रहा,
​ ​
इस
​से
 ही है आज
*
दोहा छंद कवित्त हैं,
​ ​
हिंदी के श्रृंगार।
​चिर ​
गौरव सेयुक्त हैं,
​ ​
हिंदी के युग चार।।
*
सारी लज्जा छोड़ दें ,
​ ​
हो हिंदी व्यवहार।
अगर परायी सी रही,
​ ​
हमको है धिक्कार
​​
।।
*
भारत ही वह भूमि है,
​ ​
जहाँ हुए रसखान
​​
कबिरा रहिमन सूर अरु ,तुलसी हुए महान
​​
।।
*
धीरे - धीरे झाँकती ,जा सागर के पार।
​हिंदी छवि मृदुल
,
​ ​
मिलता इसे दुलार।।
*
शील क्षमा साहस दया, उन्नति के सोपान।
इसी मार्ग चल मिलेंगे,
​ ​
कृपासिंधु भगवान।।
***