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मंगलवार, 28 जून 2016

smruti geet

स्मृति गीत
*
अपलक तुम्हें निहारूँ कैसे ?
*
नयन खुले तो लुक-छिप जाते
नयन मुँदे तो झलक दिखाते
ओ मेरे तुम! कहाँ खो गये?
रोक न पाये हम पछताते
जब तक सिर पर छाँव रही तव
तब तक हमने धूप न जानी
तुम बिन नाते हुए पराये
तुम बिन यह दुनिया बेगानी
बोलो तुम्हीं गुहारूँ कैसे
अपलक तुम्हें निहारूँ कैसे ?
*
सुधियों से मन भर आता है
तुम्हें याद कर तर जाता है
तुम नर्मदा-अमरकंटक से-
जननि-जनक पावन नाता है
बूँद मात्र हम, सलिल-धार तुम
जान सके अब, थे अपार तुम
शिला सदृश जग निर्मम-निष्ठुर
करो कृपा, सुन लो गुहार तुम
तनिक कहो अवतारूँ कैसे?
अपलक तुम्हें निहारूँ कैसे ?
*
कैंया मिली, मचलना सीखा
अँगुली थामी, चलना सीखा
गिर-रोये, आ तुरत उठाया
गिर-उठ,चलना-बढ़ना सीखा
तुमसे साँसें-सपने पाये
रिश्ते-नाते अपने पाये
हमसे कब-क्या खता हो गयी?
गये दूर, अब तलक न आये
श्वास-श्वास में बसे हुए हो
पल भर कहो बिसारूँ कैसे?
***
(संस्कारी जातीय, मुक्तक छन्द)

geet

गीत-
*
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
राकेशी ज्योत्सना न शीतल, लिये क्रांति की नव मशाल है 
*
कल तक रही विदेशी सत्ता, क्षति पहुँचाना लगा सार्थक
आज स्वदेशी चुने हुए से टकराने का दृश्य मार्मिक
कुरुक्षेत्र की सीख यही है, दु:शासन से लड़ना होगा
धृतराष्ट्री है न्याय व्यवस्था मिलकर इसे बदलना होगा
वादों के अम्बार लगे हैं, गांधारी है न्यायपीठ पर
दुर्योधन देते दलील, चुक गये भीष्म, पर चलना होगा
आप बढ़ा जी टकराने अब उसका तिलकित नहीं भाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
हाथ हथौड़ा तिनका हाथी लालटेन साइकिल पथ भूले
कमल मध्य को कुचल, उच्च का हाथ थाम सपनों में झूले
निम्न कटोरा लिये हाथ में, अनुचित-उचित न देख पा रहा
मूल्य समर्थन में, फंदा बन कसा गले में कहर ढा रहा
दाल टमाटर प्याज रुलाये, खाकर हवा न जी सकता जन
पानी-पानी स्वाभिमान है, चारण सत्ता-गान गा रहा
छाते राहत-मेघ न बरसें, टैक्स-सूर्य का व्याल-जाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
*
महाकाल जा कुंभ करायें, क्षिप्रा में नर्मदा बहायें
उमा बिना शिव-राज अधूरा, नंदी चैन किस तरह पायें
सिर्फ कुबेरों की चाँदी है, श्रम का कोई मोल नहीं है
टके-तीन अभियंता बिकते, कहे व्यवस्था झोल नहीं है
छले जा रहे अपनों से ही, सपनों- नपनों से दुःख पाया
शानदार हैं मकां, न रिश्ते जानदार कुछ तोल नहीं है
जल पलाश सम 'सलिल', बदल दे अब न सहन के योग्य हाल है
भूल नहीं पल भर को भी यह चेतन का संक्रान्तिकाल है
***

navgeet

नवगीत 
खिला मोगरा ​

*
खिला मोगरा 
जब-जब, तब-तब 
याद किसी की आई। 
महक उठा मन 
श्वास-श्वास में 
गूँज उठी शहनाई। 
 
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ 
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली। 
माँ के आँचल सी 
सुगंध
​ ने ​
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा 
जब-जब, तब-तब 
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे 
छेड़ें भँवरे देवर। 
भौजी के अधरों पर सोहें 
मुस्कानों के जेवर। 
ससुर गगन ने 
विहँस बहू की 
की है मुँह दिखलाई। 
खिला मोगरा 
जब-जब, तब-तब  
याद किसी की आई। 
सजन पवन जब अंग लगा तो 
बिसरा मैका-अँगना। 
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया 
खनके पायल-कँगना।  
घर-उपवन में 
स्वर्ग बसाकर 
कली न फूल समाई। 
खिला मोगरा 
जब-जब, मुझको 
याद किसी की आई।
***

रविवार, 26 जून 2016

समीक्षा

पुस्तक चर्चा-
स्तुत्य, सम्यक, सरस,सुगन्धित पुष्प वल्लरी है ‘काल है संक्रांति का’
राजेश कुमारी ‘राज‘
*
                                हमारे वेद शास्त्रों में कहा गया है “छन्दः पादौ वेदस्य” अर्थात छंद वेद के पाँव हैं | यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो कविताओं की कसौटी छंद है| कवि के मन के भाव यदि छंदों का कलेवर पा जाएँ तो पाठक के लिए हृदय ग्राही और स्तुत्य हो जाते हैं | आज ऐसी ही स्तुत्य सुगन्धित सरस पुष्पों की वल्लरी “काल है संक्रांति का” गीत नवगीत संग्रह मेरे हाथों में है | जिसके रचयिता आचार्य संजीव सलिल जी हैं|

                                आचार्य सलिल जी हिंदी साहित्य के जाने माने ऐसे हस्ताक्षर हैं जो छंदों के पुरोधा हैं छंद विधान की गहराई से जानकारी रखते हैं| जो दत्त चित्त होकर रचनाशीलता में निमग्न नित नूतन बिम्ब विधान नवप्रयोग चिन्तन के नए धरातल खोजती हुई काव्य सलिला, गीतों की मन्दाकिनी बहाते हुए सृजनशील रहते हैं|  आपका सद्य प्रकाशित काव्य संकलन ‘काल है संक्रांति का इसी की बानगी है|

             
                कुछ दिनों पूर्व भोपाल के ओबीओ साहित्यिक आयोजन में सलिल जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था आपके कृतित्व से तो पहले ही परिचय हो चुका था जिससे मैं बहुत प्रभावित थी भोपाल में मिलने के बाद उनके हँसमुख सरल सहृदय व्यक्तित्व से भी परिचय हुआ | वहाँ मंच पर आपकी कृति काल है संक्रांति का” पर बोलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  "काल है संक्रांति का” ६५  गीत - नवगीतों का एक सुन्दर संग्रह है|  समग्रता में देखें तो ये  गीत - नवगीत एक बड़े कैनवस पर वैयक्तिक जीवन के आभ्यांतरिक और चयनित पक्षों को उभारते हैं, रचनाकार के आशय और अभिप्राय के बीच मुखर होकर शब्द अर्थ छवियों को विस्तार देते हैं जिनके मर्म पाठक को सोचने पर मजबूर कर देते हैं। 

                                सलिल जी ने वंदन, स्तवन, स्मरण से लेकर ‘दरक न पायें दीवारें’ तक यद्यपि पाठक को बाँध कर रखा है तथापि उनका कवि अपनी रचनाओं का श्रेय खुद नहीं लेना चाहता -- - "नहीं मैंने रचे हैं ये गीत अपने /क्या बताऊँ कब लिखाए और किसने?"

                                पुस्तक के शीर्षक को सार्थक करती प्रस्तुति ‘संक्रांति काल है" की निम्न पंक्तियाँ दिल छू जाती हैं -

                                "सूरज को ढाँपे बादल

                                सीमा पर सैनिक घायल"

                                पुस्तक में नौ - दस नवगीत सूरज की गरिमा को शाब्दिक करते हैं कवि सूरज को कहीं नायक की तरह, कहीं मित्रवत संबोधित करते हुए कहता है –

                                "आओ भी सूरज !

                                छट गए हैं फूट के बादल

                                पतंगे एकता की मिल उड़ाओ

                                गाओ भी सूरज"   (आओ भी सूरज से)  

                                कवि ने अपने कुछ नवगीतों में नव वर्ष का खुले हृदय से स्वागत किया है | “मत हिचक” में व्यंगात्मक लहजा अपनाते हुए कवि पूछता है – "नये साल मत हिचक,  बता दे क्या होगा ?" अर्थात आज की जो सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिस्थितियाँ हैं क्या उनमे कोई बदलाव या सुधार होगा? यह बहुत सारगर्भित प्रस्तुति है |

                                "सुन्दरिये मुंदरिये एक ऐसा गीत है जो बरबस ही आपके मुख पर मुस्कान ले आएगा |कवि ने पंजाब में लोहड़ी पर गाये आने वाले लोकगीत की तर्ज़ पर इसे लिखा है | पाठक को मुग्ध कर देंगी उनकी ये पंक्तियाँ –

                                "सुन्दरिये मुंदरिये होय!
                                सब मिल कविता करिए होय!
                                कौन किसी का प्यारा होय|
                                स्वार्थ सभी का न्यारा होय|"

                                समसामयिक विषयों पर भी कवि की कलम जागरूक रहती है – "ओबामा आते देस में करो पहुनाई"|  आना और जाना प्रकृति का नियम है और शाश्वत सत्य भी जिसे हृदय से सब स्वीकारते हैं वृक्ष पर फूल - पत्ते आयेंगे, पतझड़ में जायेंगे ही सब इस तथ्य को स्वीकार करते हुए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं किन्तु जहाँ बेटी के घर छोड़कर जाने की बात आती है तो कवि की कलम भी द्रवित हो उठती है हृदय को छू गया ये नवगीत –
                                “अब जाने की बारी”-- --

                                देखे बिटिया सपने, घर आँगन छूट रहा
                                है कौन कहाँ अपने, ये संशय है भारी
                                सपनो की होली में, रंग अनूठे ही
                                साँसों की होली ने,कब यहाँ करी यारी
                                अब जाने की बारी"

                                ‘खासों में ख़ास’ रचना में कवि ने व्यंगात्मक शैली में पैसों के गुरूर पर जो आघात किया है देखते ही बनता है |

                                "वह खासो में ख़ास है
                                रुपया जिसके पास है
                                सब दुनिया में कर अँधियारा
                                वह खरीद लेता उजियारा"

                                ‘तुम बन्दूक चलाओ तो’ आतंकवाद जैसे सामयिक मुद्दे पर कवि की कलम तीक्ष्ण हो उठती है जिसके पीछे एक लेखक, एक कवि की हुंकार है वो ललकारता हुआ कहता है –

                                "तुम बन्दूक चलाओ तो
                                हम मिलकर कलम चलाएंगे
                                तुम जब आग लगाओगे
                                हम हँस के फूल खिलाएंगे"

                                एक मजदूर जो सुबह से शाम तक परिश्रम करता है अपना पसीना बहता तो दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता है| ‘मिली दिहाड़ी’ एक दिल छू लेने वाली रचना है जो पाठकों को झकझोर देती है |

                                "चूड़ी - बिंदी दिला न पाया
                                रूठ न मों से प्यारी
                                अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
                                अब तो दे मुस्का री"     - मिली दिहाड़ी चल बाज़ार

                                अंधविश्वास, ढकोसलों,रूढ़िवादिता जैसे विषयों के विरोध और उन्मूलन हेतु रची गयी रचनाओं से भी समृद्ध है यह संग्रह | ‘अंधश्रद्धा’ एक ऐसा ही नवगीत है जिसमे मनुष्यों को कवि आगाह करता हुआ कहता है –

                                "आदमी को देवता मत मानिए

                                आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए"

                                कवि निकटता से कैंसर जैसे भयंकर रोग से रूबरू हुआ है तथा अपनी निजी जिंदगी में अपनी अर्धांगनी को उस शैतान के जबड़े से छुडा कर लाया है उसकी कलम उस शैतान को ललकारते हुए कहती है -- -

                                "कैंसर! मत प्रीत पालो
                                शारदा सुत पराजित होता नहीं है
                                यह जान लो तुम। 
                                पराजय निश्चित तुम्हारी
                                मान लो तुम।" 

                                "हाथों में मोबाईल" एक सम सामयिक रचना है जिसमें  पश्चिमी सभ्यता में रँगी नव पीढ़ी पर जबरदस्त तंज है|

                                ‘लोकतंत्र का पंछी’ आज की सियासत पर बेहतर व्यंगात्मक नवगीत है|

                                ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’ प्रस्तुति में आज के स्वार्थी भ्रष्ट नेताओं को अच्छी नसीहत देते हुए कवि कहता है –

                                "सत्ता पाते ही रंग बदले
                                यकीं न करना किंचित पगले
                                काम पड़े पीठ कर देता
                                रंग बदलता है पल-पल में।"

                                ‘उड़ चल हंसा’ एक शानदार रचना है जिसमें हंस का बिम्ब प्रयोग करते हुए मानव में होंसला जगाते हुए कवि कहता है –

                                "उड़ चल हंसा! मत रुकना

                                यह देश पराया है। "

                                आज के सामाजिक परिवेश में पग पग पर उलझनों जीवन की समस्याओं से दो चार होता कवि मन आगे आने वाली पीढ़ी को प्रेरित करता हुआ कहता है –‘आज नया इतिहास लिखें हम’ बहुत अच्छे सन्देश को शब्दिक करता शानदार नवगीत है | इस तरह ‘उम्मीदों की फसल’ उगाती हुई आचार्य सलिल जी की ये कृति ‘दरक न पायें दीवारे’ इसका ख़याल और निश्चय करती हुई ‘अपनी मंजिल’ पर आकर पाठकों की साहित्यिक पठन पाठन की क्षुदा को संतुष्ट करती हैं| निःसंदेह यह पुस्तक पाठकों को पसंद आएगी मैं इसी शुभकामना के साथ आचार्य संजीव सलिल जी को हार्दिक बधाई देती हूँ | 

काल है संक्रांति का
गीत-नवगीत संग्रह 
समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर ४८२००१
 २४१११३१,  
समीक्षक –राजेश कुमारी ‘राज‘ देहरादून 
***

samiksha

पुस्तक सलिला-
'दिन बड़े कसाले के' जिजीविषा की जयकार करते नवगीत 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
***
[पुस्तक विवरण- दिन बड़े कसाले के. नवगीत संग्रह, आनंद तिवारी, प्रथम संस्करण अगस्त २०११, आकार २२ से. मी. x १४ से. मी., आवरण सजिल्द, बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १२०,  मूल्य १५०/-, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक़्टर २३ राजनगर गाजियाबाद, गीतकार संपर्क समीप साईं मंदिर, छोटी खिरहनी, कटनी ४८३५०१, चलभाष ९४२५४६४७७९ ] 
***
                                      स्वतंत्रता की नवचेतना के साथ करवट बदलता, यथार्थ की नव धरती पर अंकुरित होता हुआ हिंदी गीतिकाव्य साहित्यिक मठाधीशों की खींचतान का माध्यम बनकर तथाकथित प्रगतिशील कविता के व्याल-जाल में दम तोड़ता, इसके पहले ही हिंदी गीत ने नूतन भाव भंगिमा के साथ प्राणवायु देते हुए 'नवगीत' के  नाम से कायाकल्प कर नवजीवन देने में सफलता प्राप्त की। साठ के दशक का नवगीत आरंभिक सीमाओं और मानकों में घुटन अनुभव करते हुए, सीमाओं के पुनर्निर्धारण की चाह करने लगा।  ऐसी स्थिति में जिन नयी कलमों ने नवगीत को नयी जमीन और नया आकाश देने की सम्भावना को मूर्त करने का प्रयास किया उनमें आनंद तिवारी भी हैं।  नर्मदा के अंचल में लीक को तोड़ने और जड़ता को तोड़ने की विरासत नयी नहीं है।  श्री अनूप अशेष के अनुसार- "आनंद तिवारी का नवगीत संग्रह 'दिन बड़े कसाले के' अपने पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़ों की माप दे रहा है। गाँव-गिराँव की दबी, दबाई जीवन नियति की आह है इसमें। सुख-दुःख की यथार्थता और संवेदना परत-दर-परत खुलती गयी है संग्रह की नवगीत कविताओं में।  अदृश्य मुक्ति के आवेग में कहीं-कहीं कवि गीत का लेप भी  लगाता गया है।"

                                      कविता और गीत का सम्मिश्रण यथार्थ और कल्पना के नीर-क्षीर मिलन की तरह होता है जिसमें सत्य और सोच दोनों का समान महत्व होता है। लय सोने में सुगंध की तरह कथ्य को सर्वग्राह्य बनती है।  आनंद जी यह तथ्य भली-भाँति जानते हैं।  इस संग्रह के नवगीत कथ्य, भाषा, शिल्प  की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।  वरिष्ठ नवगीतकार श्री राम सेंगर ने ठीक ही आकलन किया है कि इन "गीतों में शब्द अपने व्यापक अर्थ में भावों को समेटे हुए चलता है।  यह बात अलग है कि कहीं-कहीं यह  उनका यह शब्द-संयोजन कथ्य और भाव से एकात्म होकर, आंतरिकता और एकाग्रता के साथ साधा हुआ प्रतीत नहीं होता, जिससे छन्दानुशासन तो भंग हुआ ही है, साथ ही साथ, लयात्मकता भी प्रभावित हुई है। "

                                      'बुचकी-बुचकी लगे कमरिया' तथा 'दुर्दिन खड़े ओसारे' शीर्षक दो खण्डों में क्रमश: ४५ तथा ३३ नवगीतों का यह गुलदस्ता बुंदेली जन-जीवन की जीवंत झलकियों से समृद्ध है। बुंदेली जन-मन को साहित्यिक फलक पर प्रतिष्ठित होते देखना सुखद है किन्तु बुंदेली भाषा-संस्कृति से अपरिचित पाठक की कठिनाई ठेठ बुंदेली शब्द हिंदी के मानक शब्दकोष में न होने के कारण उनका अर्थ और रस ग्रहण न कर पाना होगा।  इसलिए रचनाओं के साथ पाद टिप्पणी के रूप में देशज शब्दों के अर्थ और पारंपरिक रीतियों के संकेत हों तो इस नवगीतों और गीतकार को व्यापक स्वीकृति मिलेगी। आनंद जी हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र तथा समाज शास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हैं। इसलिए  देशज,  नगरीय, संस्कृतनिष्ठ, उर्दू तथा अंग्रेजी शब्दों का विशाल भण्डार उनकी भावाभिव्यक्ति को पैनापन देने में सहायक होता है। वे अद्भुत अभिव्यक्ति सामर्थ्य के धनी हैं।  खेत में लहलहाती फसलों  सौंदर्य देखकर कवि-मन झूम उठता है -
                                      'गेहूँ के सिर / फबती मौरी।
                                      मौसम करता / नाटक नौरी।
                                      अलसी कटी / पड़ी / निगडौरे।
                                      कलसी / डिगलन-डिगलन / दौरे।
                                      खड़ी / फसल को / चरती धौरी।
                                      अरहर,  चना / झाँझ / अस बाजें।
                                      सेमल-टेसू /  धरती साजें।
                                      विहट गई / रतिया की / गौरी।

                                      नवगीत को केवल विसंगति और विडम्बना तक सीमित देखने के पक्षधर भले ही न सराह सकें किंतु जनगण इन पंक्तियों पर झूम जाएगा।  प्राकृतिक विपदा की मार भारतीय किसान हमेशा सहता है। इस नवगीत में त्रासद विपदा की पीड़ा शब्द-शब्द में मुखरित है-
                                      पाला पड़ा / झुरानी अरहर / मौसम मूठ हुआ।
                                      सहते-सहते / मार ठंड की / बरगद ठूँठ हुआ।
                                      ले डूबा / कोहरा फसलों को / चना-मसूर बिलाये।
                                      अलसी को / लग गया पीलिया / गेहूँ आस बँधाये।
                                      पानी, फिर कर / किये-धरे पर / विष का घूँट हुआ।
                                  यहाँ 'पानि फिरना' तथा 'किया-धरा' मुहावरों का मनोरम प्रयोग दृष्टव्य है। बरगद सबसे अधिक मजबूत पेड़ है, वह ठूँठ हो जाए तो पाले के विभीषिका का अनुमान किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में कोमल पौधे समाप्त हो जायेंगे।  यहाँ 'बिलाना' कम लिखे से अधिक समझना की तरह प्रयुक्त है।

                                      समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता समाजशास्त्र के अध्येता आनंद को खलती ही नहीं चुभती भी है -
                                      ठंडी रातें / बर्फ हो रहीं / सिकुड़ा हुआ शहर है।
                                      लौहपूत / रिक्शेवाला वह / फुलगुंटी से ढाँके तन को।
                                      पैर उपनहे / फ़टी बिमाई / बैरागी सा साधे तन को।
                                      सुविधाओं की / गठरी बाँधे / रिक्शे पर अफसर है।
                                      शीत-लहर के कोड़े खाकर, / रिक्शे को साँसों से खींचे।
                                      'तेज चलो, / देरी होती है', / 'जी हाँ' कह, करता सिर नीचे।
                                      यहाँ पंक्तियाँ शब्द चित्र बन जाती हैं।  कवि की सामर्थ्य पूरे दृश्य को शब्दित कर देती है।  पाठक या श्रोता की आँखों में पूरा दृश्य ज़ीवंत हो उठता है।

                                      आनंद तमाम विडंबनाओं के बाद भी जीवन को निरानन्दित नहीं होने देते।  अपने नाम के अनुरूप वे दुःख में भी सुख, निराशा में भी आशा खोज ही लेते हैं-
                                      बीजों को / नवजीवन देने / आये बादल
                                      रस भरने को / मन में जैसे / बजते मादल
                                      कोयल / मूक हुई / धरती लेती अँगड़ाई
                                      नई उमंगें / लेकर / वर्षा रानी आई 
                                      तैर रहीं / खुशियाँ जीवन में
                                      चमका आँखों का काजल
                                      सपनों सा / लघु जीवन लेकर / उड़ें पतंगें 
                                      नहा रही चिड़िया / प्रफुल्ल / कहती हर गंगे
                                      शीतलता / आई घर-बाहर
                                      छूटे हाथों से छागल 

                                      जीवन के दोनों रंग आनंद के नवगीतों में धूप-छाँव के से रंग बिखेरते हैं-
                                      बुचकी-बुचकी लगे कमरिया / तुचके-तुचके गाल 
                                      निहुरी -निहुरी औचक भौचक / रमकी ठुमकी चाल 
                                      कटी उमरिया भाग दौड़ में / मिले न कमीना
                                      संघर्षों के चक्रव्यूह से / दुर्निवार जीवन
                                      क़र्ज़ कसाई नाचे-गाये / छाती चढ़ प्रतिक्षण
                                      बेघर भर धरती ने / जीवन का सब रस छीना

                                      आनंद छन्द की लय पर शब्द की अर्थवत्ता को वरीयता देते हैं। देशज बुंदेली शब्द, हिंदी के तत्सम-तद्भव तथा उर्दू भाइयों के साथ धमा-चौकड़ी मचाते हुए शब्द-चित्र उपस्थित कर देते हैं। ग्रामीण जीवन की गतिमयता में घुला ठहराव, आगे बढ़ने की आकांक्षा के साथ विरासत से जुड़े रहने का मोह आज ही कल को कल से जोड़ने की चाह इन नवगीतों को आम आदमी की रोजमर्रा की ज़िन्दगी की कशमकश की बानगी देकर मन्त्र मुग्ध कर देती है-
                                      इच्छाएँ / सारी अनब्याही
                                      थका - थका लगता है राही
                                      घुप्प अँधेरा फैला / पथरीले पथ में
                                      कील बिना, धुरी लगी / जीवन के रथ में
                                      एक ठौर रोटी है / एक ठौर ममता है
                                      दोनों की मुस्किल है पाही 

                           ग्रामीण जन मानस की जिजीविषा अभावों की घूटी पीकर भी हर्ष-हुलास की पतंग उड़ाना नहीं भूलती। जहाँ महानगरों में सम्पन्नता हो या विपन्नता सगे नेह-नाते भी दम तोड़ते नज़र आते हैं वहीं गाँवों में मुँहबोले रिश्ते भी पूरे अपनत्व के साथ निबाहे जाते हैं।
                                      भाभी की रसभीनी / नेह भरी बातें
                                      महानदी के तट पर / सिहराती रातें
                                      ...
                                      बाबा का शंख और / पूजा का देवासन
                                      बचपन से चाचा का / गाँठ भरा अनुशासन
                                      ...
                                      छोटी बहना का वह / चेहरा सुकुमार

                                      मौसम मूठ हुआ, दिन बड़े कसाले के, धार नदिया की लगे सुतली, वह अनाम सा परस तुम्हारा, सहज हो लें, चुग्गा भूल रही, संग-साथ की जुगत फगुआरे दिन, बाँध डिठौने, मेकल सुता सी, विंध्य पर अठखेलियाँ करते, पुरइन के पात, डोल रही पुरवाई,  भूंजी भाँगग नहीं, दुर्दिन खड़े ओसारे आदि नवगीत पाठक के मन पर छाप छोड़ते हैं। समय का बदलाव 'मोबाइल पीढ़ी' शीर्षक नवगीत में उभरता है-
                                      शिखरों के / सपने हैं / कटी हुई सीढ़ी
                                      कम्प्यूटर की दुनिया / मोबाइल पीढ़ी
                                      घाल-मेल / बनियों का /  पॅकेज हैं बड़े-बड़े
                                      बाहर से / सजे-धजे / भीतर से सड़े-सड़े  
                                      कोलती / युवाओं को / शोषण की कीड़ी

                                      आनंद के इन नवगीतों में माटी की पीड़ा है तो लोक-जीवन का माधुर्य भी है।  छन्दों को साधने का प्रयास कहीं सयास-कहीं अनायास होना स्वाभाविक है।  नए छन्दों की तलाश का संकेत आश्वस्त करता है कि नर्मदांचल का यह युवा कवि इस सत्य से अवगत है कि 'सितारों के आगे जहां और भी है' । आनंद को आगामी संकलनों में आंचलिक नवगीतकार के ठप्पे से बचना होगा।  इन नवगीतों में बुंदेली नवगीत एक भी नहीं है। ये बुंदेली शब्द समेटे हिंदी नवगीत हैं।  नगरीय या हिंदीतर पाठक इन शब्दों को समझने में  कठिनाई अनुभव कर कवि से दूरी बना ले।  कथ्य के स्तर पर यह संकलन संपन्न है।  अधिकांश सामयिक समस्याओं, घटनाओं और बदलावों पर नवगीतकार की दृष्टि गयी है। धार्मिक पाखण्ड, सांप्रदायिक तनाव, निर्धनता, बेरोजगारी, शोषण, धार्मिक आडम्बर, राजनैतिक भ्रष्टाचार के साथ आशावादिता, संघर्ष की ललक, पारस्परिक स्नेह-सद्भाव, श्रृंगार, सद्भाव आदि के सनातन तत्व भी इन नवगीतों में हैं जो इन्हें सामायिक संघर्ष काल में उपयोगी बनाते हैं। आनंद के आगामी संकलन की प्रतीक्षा की जाना स्वाभाविक है।
***  
-समन्वय, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

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​​रचना - प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव 'सलिल'
*
रचना-
जिन कर्जों को चुका न पायें उनके रोज तकाजे आते
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

हमने चाहा था मेघों के
उच्छवासों से जी बहलाना
इन्द्रधनुष बाँहों में भरकर
तुम तक सजल छन्द पहुँचाना
वनफूलोळ की छवियों वाली
मोहक खुश्बू को संवार कर
होठों पर शबनम की सरगम
आंखों में गंधों की छाया

किन्तु तूलिका नहीं दे सकी हमें कोई भी स्वप्न सिन्दूरी
रही मांहती रह रह सांसें अपने जीने की मजदूरी

सीपी रिक्त रही आंसू की 
बून्दें तिरती रहीं अभागन
खिया रहा कठिन प्रश्नों में
कुंठित होकर मन का सर्पण
कुछ अस्तित्व नकारे जिनका 
बोध आज डँसता है हमको
गज़लों में गहरा हो जाता
अनायास स्वर किसी विरह का

जितनी चाही थी समीपता उतनी और बढ़ी है दूरी
हमसे मांग रही हैं सांसें अपने जीने की मजदूरी

नहीं सफ़ल जो हुये उन्हीं की
सूची में लिखलो हम को भी
पर की कब स्वीकार पराजय ?
क्या कुछ हो जाता मन को भी
बुझे बुझे संकल्प सँजोये
कटी फ़टी निष्ठायें लेकर
जितना बढ़े, उगे उतने की
संशय के बदरंग कुहासे


किसी प्रतीक्षा को दुलराते, भोग रहे ज़िन्दगी अधूरी
और मांगती रहती सांसें अपने जीने की मजदूरी.

***
प्रतिरचना- 
हम कर्ज़ों को लेकर जीते, खाते-पीते क़र्ज़ जरूरी
रँग लाएगी फाकामस्ती, सोच रहे हैं हम मगरूरी 
जिन कर्जों को चुका न पायें, उनके रोज तकाजे आते
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मेघदूत से जी बहलाता, 
           अलकापुरी न यक्ष जा सका 
इंद्रधनुष के रंग उड़ गए, 
           वन-गिरि बिन कब मेघ आ सका?  
ऐ सी में उच्छ्वासों से जी, 
           बहलाते हम खुद को छलते  
सजल छन्द को सुननेवाले, 
           मानव-मानस खोज न मिलते 

मदिर साथ की मोहक खुशबू, सपनों की सरगम सन्तूरी 
आँखों में गंधों की छाया, बिसरे श्रृद्धा-भाव-सबूरी 
अर्पण आत्म-समर्पण बन जब, तर्पण का व्यापार बन गया 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

घड़ियाली आँसू गंगा बन, 
           नेह-नर्मदा मलिन कर रहे 
साबरमती किनारेवाले, 
           काशी-सत्तापीठ वर रहे
क्षिप्रा-कुंभ नहाने जाते, 
           नीर नर्मदा का ही पाते  
ग़ज़ल लिख रहे हैं मनमानी 
           व्यर्थ 'गीतिका' उसे बताते 

तोड़-मरोड़ें छन्द-भंग कर, भले न दे पिंगल मंजूरी 
आभासी दुनिया के रिश्ते, जिए पिए हों ज्यों अंगूरी 
तजे वर्ण-मात्रा पिंगल जब, अनबूझी कविताएँ रचकर 
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी

मानपत्र खुद ही लिख लाये  
           माला श्रीफल शाल ख़रीदे 
मंच-भोज की करी व्यवस्था  
           लोग पढ़ रहे ढेर कसीदे 
कालिदास कहते जो उनको  
           अकल-अजीर्ण हुआ है गर तो 
फर्क न कुछ, हम सेल्फी लेते 
           फाड़-फाड़कर अपने दीदे 

वस्त्र पहन लेते लाखों का, कहते सच्ची यही फकीरी
पंजा-झाड़ू छोड़ स्वच्छ्ता, चुनते तिनके सिर्फ शरीरी 
जनसेवक-जनप्रतिनिधि जनगण, को बंधुआ मजदूर बनाये    
हमसे माँग रही हैं साँसें, अपने जीने की मजदूरी
*****

शनिवार, 25 जून 2016

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​​रचना-प्रति रचना 
राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल 
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित - 
बहुत बधाई तुमको भैया! 
अब तुम गीत नहीं लिखते हो 
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है? 
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है   
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें? 
वर देते हैं शिव असुरों को  
अभय दान फिर करें सुरों को   
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को 
महाकाल दें दण्ड भयंकर  
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब 
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब   
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते  
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते  
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर  
सोता कुम्भकर्ण जब जागे  
थाना हो या हो न्यायालय  
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे  
भोग करें, ले आड़ योग की 
पेड़ काटकर छीनें छैंया  
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी 
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी  
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया 
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया 
कहता प्रेम-पंथ को तज कर 
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर 
कौन कहे पोंगा पंडित से 
नहीं महल, हमने चाहा घर 
रहें द्वारका में महारानी 
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण  
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण   
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया   
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया       
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती, 
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं 
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है 
खरे हारकर दूर हुए हैं   
वैतरणी करने चुनाव की 
पार, हुई है साधन गैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?   
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना 
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना  
जान जाए पर नीति न छोड़ें  
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें  
महिषासुरमर्दिनी देश-हित  
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें   
सात जन्म के सम्बन्धों में 
रोज न बदलें सजनी-सैंया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है 
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है 
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी  
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी   
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में  
जो वे स्वार्थ साध टकराते  
भूले, बंदर रोटी खाता  
बिल्ले लड़ते ही रह जाते  
डुबा रहे मल्लाह धार में  
ले जाकर अपनी ही नैया 
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी    
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी    
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल  
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल   
बिन साहित्य कहें भाषा को   
नेता-अफसर उद्धारेंगे    
मात-पिता का जीना दूभर 
कर जैसे बेटे तारेंगे  
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर  
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया   
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*****

मंगलवार, 21 जून 2016

navgeet - ram re

नवगीत 
राम रे!
*
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
भोर-साँझ लौ गोड़ तोड़ रए 
कामचोर बे कैते। 
पसरे रैत ब्यास गादी पै 
भगतन संग लपेटे। 
काम पुजारी गीता बाँचें 
गोपी नचें निढाल-
आँधर ठोंके ताल  
राम रे! 
बारो डाल पुआल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
भट्टी देह, न देत दबाई
पैलउ माँगें पैसा। 
अस्पताल मा घुसे कसाई 
थाने अरना भैंसा। 
करिया कोट कचैरी घेरे 
बकरा करें हलाल-
बेचें न्याय दलाल 
राम रे !
लूट बजा रए गाल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
*
झिमिर-झिमिर-झम बूँदें टपकें 
रिस रओ छप्पर-छानी। 
दागी कर दई रौताइन की 
किन नें धुतिया धानी?
अँचरा ढाँके, सिसके-कलपे 
ठोंके आपन भाल 
राम रे !
जीना भओ मुहाल। 
राम रे! 
कैसो निरदै काल?
***

सोमवार, 20 जून 2016

doha

दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त 
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त 
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम 
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत 
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत 
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम 
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार 
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार 
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम 
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम 
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६ 
lnct jabalpur 

dwipadiyan

एक रचना 
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।। 

प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी  
हमें यातना-पीर घनेरी ।। 

प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला   
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।

प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती   
तुम दुलहा, हम महज घराती।।

प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली 
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।

प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा 
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।

प्रभु जी! भोग और हम अनशन   
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।

प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा  
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।

प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता 
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
​***
२०-११-२०१५ 
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर