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रविवार, 11 जनवरी 2015

laghukatha: anand pathak

लघुकथा:
गोली
आनंद पाठक
.
" तुम ’राम’ को मानते हो ?-एक सिरफिरे ने पूछा
-"नहीं"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योकि मै उसकी सोच का हमसफ़ीर नहीं था और उसे स्वर्ग चाहिए था
"तुम ’रहीम’  को मानते हो ?"-दूसरे सिरफिरे ने पूछा
-"नही"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योंकि मैं काफ़िर था और उसे जन्नत चाहिए थी।
" तुम ’इन्सान’ को मानते हो"- दोनो सिरफिरों ने पूछा
-हाँ- मैने कहा
फिर दोनों ने बारी बारी से मुझे गोली मार दी क्योंकि उन्हें ख़तरा था कि यह इन्सानियत का बन्दा कहीं  जन्नत या स्वर्ग न हासिल कर ले
 xx                       xxx                           xxx                      xxx

बाहर गोलियाँ चल रही हैं। मैं घर में दुबका बैठा हूँ ।घर से बाहर नहीं निकलता ।
 अब मेरी ’अन्तरात्मा’ ने मुझे गोली मार दी
मैं घर में ही मर गया ।

-आनन्द.पाठक-
09413395592

aaiye! kavita karen: 2 -sanjiv

आइये कविता करें:२ .
संजीव  
*
अब इस रचना का तुकांत-पदांत की दृष्टि से परीक्षण करें. हर पंक्ति के अंत में उपस्थित दीर्घ वर्ण (है, के, ठी, की, ठे, या, ले, तीं, का आदि वर्ण) पदांत है पंक्ति के अंत में प्रयुक्त समान उच्चारणवाले एक या अनेक शब्द पदांत कहे जाते हैं पदांत के ठीक पहले प्रयुक्त समान वर्ण तुकांत कहा जाता है तुकांत एक मात्रा भी हो सकती है तुकांत को ही पदांत मानकर भी काव्य रचना हो सकती है

बागों में बसन्त आया है

​​
पर्वत
​​
 पर पलाश छाया है 

यहाँ 'आया' तुकांत और 'है' पदांत है. 

पहली दो पंक्तियों में समान तुकांत और फिर एक-एक पंक्ति को छोड़कर तुकांत हो तो ऐसी रचना को मुक्तिका कहा जाता है. सामान्यतः मुक्तिका की दो पंक्तियाँ अपने आप में पूर्ण तथा पूर्व या पश्चात की पंक्त्तियों से मुक्त होती हैं. कुछ रचनाकार मुक्तिका रचनाओं को 'गीतिका' शीर्षक देते हैं किन्तु गीतिका हिंदी का  प्रतिष्ठित छंद है जिसका रचना विधान बिलकुल भिन्न है. विवेच्य रचना को मुक्तिका का रूप कई तरह से दिया जा सकता है. पूरी रचना 'आया' तुकांत तथा 'है' पदांत लेकर लिखी जा सकती है, 

​​
बागों में बसन्त आया है

​​
पर्वत
​​
 पर पलाश छाया है 

ऋतु ने ली अँगड़ाई जमके
चुप बैठी मन अलसाया है   ​ 

​​
घर जाऊँ मैं किसके-किसके
मौसम कुछ तो गरमाया है  

कहो दुबककर क्यों बैठे तुम
बिस्तर क्यों तुमको भाया है? 

तन्नक हँस के चैया पीलो 
सरसों भी तो पिलियाया है 

देख अटारी बहुएँ चढ़तीं 
लुक-छिप सबने बतियाया है 

है बसंत ऋतुराज यहाँ का 
उड़ पतंग ने बतलाया है 

अब होली की तैयारी है
रंग-अबीर घर में आया है 

मुक्तिका में द्विपदी की कहन सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण होना चाहिए। किसी बात को कहने का तरीका ही उसे सहज ग्राह्य और दूसरों से अलग बनाता है।  
'आया' तुकांत के साथ 'रे' पदांत भी लिया जा सकता है

​ ऐसा करने से रचना में कुछ बदलाव आएंगे और प्रभाव में भिन्नता अनुभव होगी

​ अभ्यास के तौर पर ऐसा करें
​ इनके अलावा अन्य पदांत-तुकांत लेकर भी अभ्यास किया जा सकता है

navgeet: -sanjiv

नवगीत: 
संजीव  
छोडो हाहाकार मियाँ!
दुनिया अपनी राह चलेगी 
खुदको खुद ही रोज छ्लेगी 
साया बनकर साथ चलेगी 
छुरा पीठ में मार हँसेगी   
आँख करो दो-चार मियाँ!
आगे आकर प्यार करेगी 
फिर पीछे तकरार करेगी 
कहे मिलन बिन झुलस मरेगी 
जीत भरोसा हँसे-ठगेगी
करो न फिर भी रार मियाँ!
मंदिर में मस्जिद रच देगी 
गिरजे को पल में तज देगी 
लज्जा हया शरम बेचेगी  
इंसां को बेघर कर देगी 
पोंछो आँसू-धार मियाँ!

शनिवार, 10 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
रब की मर्ज़ी
डुबा नाखुदा
गीत गा रहा
.
किया करिश्मा कोशिश ने कब?
काम न आयी किस्मत, ना रब
दुनिया रिश्ते भूल गयी सब
है खुदगर्ज़ी
बुला, ना बुला
मीत भा रहा
.
तदबीरों ने पाया धोखा
तकरीरों में मिला न चोखा
तस्वीरों का खाली खोखा
नाता फ़र्ज़ी
रहा, ना रहा
जीत जा रहा
.
बादल गरजा दिया न पानी
बिगड़ी लड़की राह भुलानी
बिजली तड़की गिरी हिरानी
अर्श फर्श को
मिला, ना मिला
रीत आ रहा
…  

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
उम्मीदों की फसल
उगना बाकी है
.
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं?
मत मुगालता रखें जरूरी खाकी है
सत्ता साध्य नहीं है
केवल साकी है
.
जिसको नेता चुना उसीसे आशा है
लेकिन उसकी संगत तोला-माशा है
जनप्रतिनिधि की मर्यादा नापाकी है
किससे आशा करें
मलिन हर झाँकी है?
.
केंद्रीकरण न करें विकेन्द्रित हो सत्ता
सके फूल-फल धरती पर लत्ता-पत्ता
नदी-गाय-भू-भाषा माँ, आशा काकी है
आँख मिलाकर
तजना ताका-ताकी है



    

karya shala: aaiye kavita karen: 1 -sanjiv

कार्यशाला:

आइये कविता करें:१.


काव्य रचना के आरम्भिक तत्व १. भाषा, २. कथ्य या विषय, ३. शब्द भण्डार आभा जी के पास हैं. शब्दों को विषय के भावों के अनुसार चुनना और उन्हें इस तरह जमाना की उन्हें पढ़ते-सुनते समय लय की अनुभूति हो, यही कविताई या कविता करने की क्रिया है. आप नदी के किनारे खड़े होकर देखें बहते पानी की लहरें उठती-गिरती हैं तो उनमें समय की एकरूपता होती है, एक निश्चित अवधि के पश्चात दूसरी लहर उठती या गिरती है. संगीत की राग-रागिनियों में आरोह-अवरोह (ध्वनि का उतार-चढ़ाव) भी समय बढ़ होता है. यहाँ तक की कोयल के कूकने, मेंढक के टर्राने आदि में भी समय और ध्वनि का तालमेल होता है. मनुष्य अपनी अनुभूति को जब शब्दों में व्यक्त करता है तो समय और शब्द पढ़तै समय ध्वनि का ताल मेल निश्चित हो तो एक प्रवाह की प्रतीति होती है, इसे ले कहते हैं. लय कविता का अनिवार्य गुण है. 
लय को साधने के लिये शब्दों का किसी क्रम विशेष में होना आवश्यक है ताकि उन्हें पढ़ते समय समान अंतराल पर उतार-चढ़ाव हो, ये वांछित शब्द उच्चारण अवधि के साथ सार्थक तथा कविता के विषय के अनुरूप और कवि जो कहना चाहता है उसके अनुकूल होना चाहिए। यहाँ कवि कौशल, शब्द-भण्डार और बात को आवश्यकता के अनुसार सीधे-सीधे, घुमा-फिराकर या लक्षणों के आधार पर या किसी बताते हुए इस तरह लय भंग न हो और जो वह कह दिया जाए। छान्दस कविता करना इसीलिये कठिन प्रतीत होता है, जबकि छन्दहीन कविता में लय नहीं कथ्य (विचार) प्रधान होता है, तरह कह दी जाती है, विराम स्थलों पर पंक्ति परिवर्तन कर दिया जाता है.

कविता में पंक्ति (पद) उच्चारण का समय समान रखने के लिए ध्वनि को २ वर्ग में रखा गया है १. लघु २. दीर्घ। लघु ध्वनि की १ मात्रा तथा दीर्घ मात्राएँ गिनी जाती हैं. छोटे-बड़े शब्दों को मिलकर कविता की हर पंक्ति समान समय में कही जा सके तो जा सके तो लय आती है. पंक्ति को पढ़ते समय जहाँ श्वास लिए शब्द पूर्ण होने पर रुकते हैं उसे यति कहते हैं. यति का स्थान पूर्व निश्चित तथा आवश्यक हो तो उससे पहले तथा बाद के भाग को चरण कहा जाता है. अ,इ, उ तथा ऋ को लघु हैं जिनकी मात्रा १ है, आ, ई, ऊ, ओ, औ, तथा अं की २ मात्राएँ हैं.


आभा सक्सेना: संजीव जी मेरा आपके दिये मार्गदर्शन के बाद प्रथम प्रयास प्रतिक्रिया अवश्य दें.....
बसन्त
बागों में बसन्त छाया जब से २२ २ १२१ २२ ११ २ = १८
खिल उठे हैं पलाश तब से ११ १२ २ १२१ ११ २ = १५
रितु ने ली अंगडाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही कुछ बैठी बैठी २१ १२ ११ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही है ठंड की झालर २१ १२ २ २१ २ २११ = १७
ठंडी ठंडी छांव भी खिसके २२ २२ २१ २ ११२ = १७
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
दुबक रजाई में क्यों तुम बैठे १११ १२२ २ २ ११ २२ = १८
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
लिये जा रहे चाय के चस्के १२ २ १२ २१ २ २२ = १७
फूल खिल उठे पीले पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं वह मुझसे हंसके ११२२ ११ ११२ ११२ = १६
बसन्त है रितुराज यहाँ का १२१ २ ११२१ १२ २ = १६
पतंग खेलतीं गांव गगन के १२१ २१२ २१ १११ २ = १७
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६
 
इस रचना की अधिकांश पंक्तियाँ १६ मात्रीय हैं. अतः, इसकी शेष पंक्तियों को जो कम या अधिक मात्राओं की हैं, को १६ मात्रा में ढालकर रचना को मात्रिक दृष्टि से निर्दोष किया जाना चाहिए। अलग-अलग रचनाकार यह प्रयास अपने-अपने ढंग से कर सकते हैं. एक प्रयास देखें:

बागों में बसन्त आया है २२ २ १२१ २२ २ = १६
पेड़ों पर पलाश छाया है २२ ११ १२१ २२ २ = १६
रितु ने ली अँगड़ाई जम के ११ २ २ ११२२ ११ २ = १६
सोच रही है बैठी-बैठी २१ १२ २ २२ २२ = १६
घर जाऊँ मैं किसके-किसके ११ २२ २ ११२ ११२ = १६
टूट रही झालर जाड़े की २१ १२ २११ २२ २ = १६
ठंडी-ठंडी छैंया खिसके २२ २२ २२ ११२ = १६
अब तो मौसम भी अच्छा है ११ २ २११ २ २२ २ = १६
कहो दुबककर क्यों तुम बैठे १२ १११११ २ ११ २२ = १६
क्यों बिस्तर में बैठे ठसके २२ २११ २ २२ ११२ = १६
अब तो बाहर निकलो भैया ११ २ २११ ११२ २२ = १६
चैया पी लो तन्नक हँसके २२ २ २ २११ ११२ = १६
फूल खिल उठे पीले-पीले २१ ११ १२ २२ २२ = १६
सरसों भी तो पिलियायी है ११२ २ २ ११२२ २ = १६
देख अटारी बहुयें चढ़तीं २१ १२२ ११२ ११२ = १६
बतियातीं आपस में छिपके ११२२ २११ २ ११२ = १६
है बसन्त रितुराज यहाँ का २ १२१ ११२१ १२ २ = १६
उड़ा पतंग गाँव में हँसके १२ १२१ २१ २ ११२ = १६
होली की अब तैयारी है २२ २ ११ २२२ २ = १६
रंग अबीर उड़ेगे खिल के.. २१ १२१ १२२ ११ २ = १६

मात्रिक संतुलन की दृष्टि से यह रचना अब निर्दोष है. हर पंक्ति में १६ मात्राएँ हैं. एक बार और देखें: यहाँ हर पंक्ति का अंतिम वर्ण दीर्घ है. 




संदेश में फोटो देखें
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

navgeet: - sanjiv ,

नवगीत:
संजीव
.
लोकतंत्र का
पंछी बेबस
.
नेता पहले डालें दाना
फिर लेते पर नोच
अफसर रिश्वत गोली मारें
करें न किंचित सोच
व्यापारी दे
नशा रहा डँस
.
आम आदमी खुद में उलझा
दे-लेता उत्कोच
न्यायपालिका अंधी-लूली
पैरों में है मोच
ठेकेदार-
दलालों को जस
.
राजनीति नफरत की मारी
लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूँगा खो दी
निज निर्णय की लोच
एकलव्य का
कहीं न वारिस
…  

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

2 kshanikayen: sindhi anuwad sahit

9-1-2015 क्षणिका, संजीव, देवी नागरानी, सिंधी, काव्यानुवाद,

poorvanchal morcha patrika men prakashit navgeet:

गीत : जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



फिसल गए तो हर हर गंगे,
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


वो विकास की बातें करते करते जा कर बैठे दिल्ली

कब टूटेगा "छीका" भगवन ! नीचे बैठी सोचे बिल्ली
शहर अभी बसने से पहले ,इधर लगे बसने भिखमंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! ........


नई हवाऒं में भी उनको जाने क्यों साजिश दिखती है

सोच सोच बारूद भरा हो मुठ्ठी में माचिस  दिखती है
सीधी सादी राहों पर भी चाल चला करते बेढंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! .....


घड़याली आँसू झरते हैं, कुर्सी का सब खेलम-खेला

कौन ’वाद’? धत ! कैसी ’धारा’, आपस में बस ठेलम-ठेला
ऊपर से सन्तों का चोला ,पर हमाम में सब हैं नंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


रामराज की बातें करते आ पहुँचे हैं नरक द्वार तक

क्षमा-शील-करुणा वाले भी उतर गए है पद-प्रहार तक
बाँच रहे हैं ’रामायण’ अब ,गली गली हर मोड़ लफ़ंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !


अच्छे दिन है आने वाले साठ साल से बैठा ’बुधना"

सोच रहा है उस से पहले उड़ जाए ना तन से ’सुगना’
खींच रहे हैं "वोट" सभी दल शहर शहर करवा कर दंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !



-आनन्द-पाठक-

09413395592

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव 
.
उठो पाखी!
पढ़ो साखी
.
हवाओं में शराफत है
फ़िज़ाओं में बगावत है
दिशाओं की इनायत है
अदाओं में शराफत है
अशुभ रोको
आओ खाखी
.
अलावों में लगावट है
गलावों में थकावट है
भुलावों में बनावट है
छलावों में कसावट है
वरो शुभ नित
बाँध राखी
.
खत्म करना अदावत है
बदल देना रवायत है
ज़िंदगी गर नफासत है
दीन-दुनिया सलामत है
शहद चाहे?
पाल माखी
***

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
.
दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
***  

muktika:

मुक्तिका:
संजीव
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता

रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता

निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?

बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता

चंदा कहलाती कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?

नागिन क्वांरी रह जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता

'सलिल' न होता तो सच मानो  
बाट घाट घर बाग़ न होता
***

kavyottar:

काव्योत्तर:
स्वीट कॉर्न सूप यानि की मक्का के दाने का सूप लेकिन कोई ये बताये की ये स्वीट कैसे हुआ? मक्का के खेत में चीनी कौन डाल के आया था?(बेटे से हुई बातचीत)

 संजीव 
कॉर्न स्वीट होता नहीं, लेकिन मीठा सूप 
कैसे होता बतायें?, पूछे बेटा भूप   
पूछे बेटा भूप, निरुत्तर माँ क्या बोले?
ठिठके सुन संजीव, दिया उत्तर: 'सुन भोले!
माँ की ममता से हुआ मीठा, पढ़ ले ट्वीट'
हो प्रसन्न बेटा पिए सूप कॉर्न का स्वीट 

hasya kavita;

हास्य
कविता-प्रतिकविता:

"'लल्ला' इस संसार मेँ जितने हुए महान
उन्हेँ बनाने के समय ठलुआ था भगवान!"
"ठलुआ इस संसार मेँ सबसे ज्यादा व्यस्त
कामकाज वाला दुखी लेकिन ठलुआ मस्त"
"फेसबुक के घाट पर भयी ठलुअन की भीर
चलते चारोँ तरफ से तरह तरह के तीर"
"दुनिया मानेगी सदा ठलुओं का उपकार
ठलुआई की देंन हैं सारे आविष्कार"
*
 संजीव वर्मा 'सलिल'
ठलुआ-रत्न जयेंद्र जी! आप पहन लें हार
ठलुआ मिला न आप सा मान रहे हम हार
मान रहे हम हार, बनायें ठलुआ-संसद
मैनपुरी में तब हो फिर संजीव बरामद
शिवा करें आतिथ्य, विराजें शिव संग ललुआ
करें मुलायम भी जय-जय जब घेरें ठलुआ 

chikitsa:

चिकित्सा :

सोमवार, 5 जनवरी 2015

navgeet:

नवगीत:
संजीव
.
आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
.
करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
.
खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ 
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल 
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ  
आओ भी सूरज!
.

रविवार, 4 जनवरी 2015

nav geet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
उगना नित
हँस सूरज

धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज

लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज

कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज 

***
(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५


navgeet: sanjiv,

नवगीत:
संजीव
.
संक्रांति काल है
जगो, उठो
.
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
.
खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
.
दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
.
सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
.
नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में 
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो 
जगो, उठो
*

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
गोल क्यों?
चक्का समय का गोल क्यों?
.
कहो होती
हमेशा ही
ढोल में कुछ पोल क्यों?
.
कसो जितनी
मिले उतनी
प्रशासन में झोल क्यों?
.
रहे कड़के
कहे कड़वे
मुफलिसों ने बोल क्यों?
.
कह रहे कुछ
कर रहे कुछ
ओढ़ नेता खोल क्यों?
.
मान शर्बत
पी गये सत
हाय पाकी घोल क्यों?
.