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शनिवार, 11 मई 2013

doha gatha 5 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा ५  

दोहा भास्कर काव्य नभ

संजीव 
*
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌

रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें। ‌

रसः 
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-

स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।

रस:  १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स,  ८. अद्भुत, ९. शांत,  १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।

क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय,  निर्वेद, ९.  १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।



विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌


आश्रयः 

जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌शृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌


विषयः 


जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌


उद्दीपन विभाव: 


आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।


अनुभावः 


आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌


संचारी भावः 


आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।


रस
१. श्रृंगार 


अ. संयोग श्रृंगार:

तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार

आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी

२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं

व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग

३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब

४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव 

५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद

६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद

७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- सलिल

८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस

९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी

१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव 

११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज

दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। पाठक अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी के दोहे भेजें और लिखें। ‌

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आभार: हिन्दयुग्म ७-२-२००९

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कविता-प्रति कविता
राकेश खंडेलवाल-संजीव
*


श्री आचार्य सलिल चरण प्रथम नवाऊँ माथ
वन्दन करूँ महेश का जोड़ूँ दोनों हाथ
सुमिर करूँ घनश्याम से, क्षमा प्रार्थना तात
पाऊँ सीताराम का अपने सर पर हाथ
 
जय महिपाल ग्वालियर वाले
जय हो अद्भुत प्रतिभा वाले
शुक्ल श्री हो लें अभिनन्दित
पाठक जी करते आनन्दित
सुमन सखा हैं अपने श्याल
कुसुम वीर का लेखन उज्ज्वल
ममताजी की बात करें क्या
रहीं मंच पर ममता फ़ैला
सन्मुख रहें द्विवेदी जब द्वय
गौतम तब गाते हो निर्भय
सब के सब हो जाते कायल
जब भी आते छाते घायल
प्रणव भारतीजी का वन्दन
काव्य महकता बन कर चन्दन
किसकी गलती मानी भारी
बैठीं होकर रुष्ट तिवारी
पल में दीप्ति पुन: खामोशी
ऐसे ही दिखती मानोशी
हुईं दूज का चाँद शार्दुला
अनुरूपा कहतीं, आ सिखला
किरण कुसुम की बातें न्यारी
कविताकी महके फ़ुलवारी
अद्भुत रहा विजय का चिन्तन
नयी सोच ले आते सज्जन
गज़ल वालियाजी की प्यारी
मान गये अनुराग तिवारी
मथुरा में सन्तोष मिल रहा
दिल्ली का दिल लगा हिल रहा
नज़्म सुनाते जब भूटानी
दांतों उंगली पड़े दबानी
श्री महेन्द्रजी और आरसी
दिखा रहे हैं काव्य आरसी
अमित त्रिपाठी जब उच्चारें
कविता, नमन मेरा स्वीकारें
अनिल अनूप ओम जी तन्मय
कभी कभी बोलेंगे है तय
अबिनव और अर्चना गायब
ये सचमुच है बड़ा अजायब
पूर्ण हुआ चालीसा रचना
मान्य अचलजी किरपा करना
 
इस कविता के मंच पर मिला समय जो आज
नमन आप सबको करूँ स्वीकारें कविराज.
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अग्रज दें आशीष, नहीं अनुजों का आदर श्लाघ्य, 
स्नेह-पूर्ण कर रहे शीश पर, यही अनुज का प्राप्य।

सलिल निराभित, बिम्बित हो राकेश-रश्मि दे मान 
ओम व्योम से सुनता, अनुरूपा लहरों से यश-गान।

शीश महेश सुशोभित निशिकर, मुदित नीरजा भौन  
जय-जय सीताराम कहें घनश्याम, अनिल सुन मौन।

प्रणव जाप महिपाल करें, शार्दुला-नाद हो नित्य
किरण-कुसुम की गमक-चमक, नित अभिनव रहे अनित्य।

श्यामल प्रतिभा पा गौतम तन्मय, इंदिरा-सुजाता 
चाह खीर की किन्तु आरसी राहुल रहा दिखाता।

श्री प्रकाश अनुराग वरे, संतोष नही नि:शेष 
हो अनूप आनंद, अमित हो दीप्ति, मुदित हों शेष।

मानोशी-ममता पा घायल, हो मजबूत महेन्द्र   
करे अर्चना विजय वरे, नर खुद पर बने नरेन्द्र।
 
कमल वालिया-भूटानी से, गले मिले भुज भेंट 
महिमा कविता की न सलिल, किंचित भी सका समेट।

जगवाणी हिंदी की जय-जयकार करें सब साथ 
नमन शारदा श्री चरणों में, विनत सलिल नत माथ। 
Sanjiv verma 'Salil'

शुक्रवार, 10 मई 2013

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एक कविता:
गीध 
संजीव 
*
जब 
स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध, 
तब 
समझ लो आदमी 
इंसान नहीं रह गया 
बन गया है गीध।
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

bundeli geet acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली गीत
संसद बैठ बजावैं बंसी
संजीव
*
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.
कपरा पहिरे फिर भी नंगो, राजनीति को छोरो….
*
कुरसी निरख लार चुचुआवै, है लालच खों मारो.
खाद कोयला सक्कर चैनल, खेल बनाओ चारो.
आँख दिखायें परोसी, झूलै अम्बुआ डार हिंडोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
सिस्ताचार बिसारो, भ्रिस्ताचार करै मतवारो.
कौआ-कज्जल भी सरमावै, मन खों ऐसो कारो.
परम प्रबीन स्वार्थ-साधन में, देसभक्ति से कोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बनो भिखारी बोट माँग खें, जनता खों बिसरा दओ.
फांस-फांस अफसर-सेठन खों, लूट-लूट गर्रा रओ.
भस्मासुर है भूख न मिटती, कूकुर सद्र्स चटोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
चोर-चोर मौसेरे भैया, मठा-महेरी सांझी.
संगामित्ती कर चुनाव में, तरवारें हैं भांजी.
नूरा कुस्ती कर भरमावै, छलिया भौत छिछोरो
संसद बैठ बजावैं बंसी, नेता महानिगोरो.....
*
बोट काय दौं मैं कौनौ खों, सबके सब दल लुच्चे।
टिकस न दैबें सज्जन खों, लड़ते चुनाव बस लुच्चे.
ख़तम करो दल, रास्ट्रीय सरकार चुनो, मिल टेरो
संसद बैठ बजावैं बंसी नेता महानिगोरो.....
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

गुरुवार, 9 मई 2013

dopade-chaupade acharya sanjiv verma 'salil'

चंद दोपदे -चौपदे
संजीव
*
जब जग हुआ समीप तब, पाई खुशी समीप।
खुद के हुए समीप जब, मन हो गया महीप।।

मिले समीप समीप मन, तन हो गया प्रसन्न।
अंतर से अंतर मिटा, खुशिया हैंआसन्न ..
*
ऊन न छोड़े गडरिया, भेड़ कर सके माफ़।
मांस नोच चूसे लहू, कैसे हो इन्साफ??
*
वक़्त के ज़ख्म पे मलहम भी लगाना है हमें।
चोट अपनी निरी अपनी, न दिखाना है हमें।।
सिसकियाँ कौन सुनेगा?, कहो सुनाएँ क्यों?
अश्क औरों के पोंछना, न बहाना  है हमें।।
*
हर भाषा-बोली मीठी है, लेकिन मन से बोलें तो,
हर रिश्ते में प्रेम मिलेगा, मन से नाता जोड़ें तो।
कौन पराया? सब अपने हैं, यदि अपनापन बाँट सकें-
हुई अपर्णा क्यों धरती माँ?, सोचें बिरवा बोयें तो।।
*

Sanjiv verma 'Salil'
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doha gatha 4 shabd bramh uchchar acharya sanjiv verma 'salil'


दोहा गाथा ४- 

शब्द ब्रह्म उच्चार

संजीव 

*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
*
सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति


सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर,  निर्मल दीजिए मति 

संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-

१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।

२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।

यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।

३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।

यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.

४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।

यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.

५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।

यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा

यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।

६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।

यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.

७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।

८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।

यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.

९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।

यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .

१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।

यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.

११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।

यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा  को यहाँ विराम  देते हुए यह संकेत करना उचित  होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही  स्वर, व्यंजन, अक्षर  व  शब्द का मेल या संधि  होकर  नये  शब्द बनते हैं।  दोहाकार  को  उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।

दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌

शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌


गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद

गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌


जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌


कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद
‌ ‌

भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।

कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।


छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।


दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।

छंद के अंग

छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।

वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।

मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।

इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.

पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।

गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।

यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।

तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।

गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।

क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४


उदित उदय गिरि मंच पर    ,           रघुवर बाल पतंग   । ‌                   - प्रथम पद   

    प्रथम विषम चरण       यति        द्वितीय सम चरण यति

विकसे संत सरोज सब       ,             हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ 
                   - द्वितीय पद
   तृतीय विषम चरण      यति      चतुर्थ सम चरण     यति
आगामी पाठ में बिम्ब, प्रतीक, भाव, शैली, संधि, अलंकार आदि काव्य तत्वों के साथ दोहा के लक्षण व वैशिष्ट्य की चर्चा होगी. 

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आभार: हिन्दयुग्म २५।१।२००९ 

bastar men adivasi vidroh 1876 aur jhada siraha -rajiv ranjan prasad




शोध:


बस्तर में 1876 का आदिवासी विद्रोह और झाड़ा सिरहा


बस्तर में हुए जन-आन्दोलनों के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1876 में झाडा सिरहा के नेतृत्व में हुए भूमकाल अथवा विद्रोह की महत्वपूर्ण जगह है। इस आन्दोलन को बारीकी से देखने पर यह ज्ञात होता है कि आदिवासी न केवल संघर्षशील कौम हैं, अपितु उनकी सिद्धांतवादिता का भी कोई सानी नहीं। 1876 के विद्रोह का दमन केवल इसीलिये हो सका था चूंकि आदिवासियों नें संयम और आदर्शवारिता की स्वयंस्थापित लकीर को पार नहीं किया था। आईये जानते हैं इस संघर्ष को विस्तार से:
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किसी भी क्रांति का सूत्रपात करने तथा उसे सुचारू रूप से संचालित करने का श्रेय उसके नायक को जाता है। बस्तर अंचल में दो बेहद शक्तिशाली जन-आन्दोलन हुए हैं वर्ष 1876 में तथा वर्ष 1910 में; जो लगभग व्यवस्था परिवर्तन की कगार तक पहुँचे किंतु फिर छल-बल से उनका दमन कर दिया गया। ये दोनो ही आन्दोलन क्रांति की मूल परिभाषा के अंतर्गत आते हैं जहाँ जनता अपनी इच्छा की व्यवस्था के लिये स्वयं संगठित हुई। मेरी धारणा है कि क्रांति का कोई ककहरा नहीं होता, क्रांति करने वालों को किसी रटे-रटाये वाक्यों या कि नारों और झंडों की आवश्यकता नहीं होती। मार्क्स-लेनिन-माओ को पढ़े बिना भी बदलाव आते रहे हैं और आयेंगे यह बात बस्तर के स्वत: स्फूर्त आन्दोलनों से बेहतर और कहीं सिद्ध नहीं होता। निश्चित ही मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि आधे बस्तर को लील चुका माओवाद न तो बस्तर का अपना आन्दोलन है न ही क्रांति से इसका कोई लेना देना है। आन्दोलन तो झाड़ा सिरहा ने किया था; आईये जानते हैं उसकी कहानी।

वर्ष 1876 तक अंग्रेजों की पकड़ बस्तर में पूरी तरह मजबूत हो चुकी थी। वर्ष 1862’ में चर्चित दीवान दलगंजन सिंह की मौत के बाद मोतीसिंह बस्तर राज्य के दीवान बनाये गये। दलगंजन सिंह जब तक राज की बागडोर संभाले हुए थे अंग्रेजों को बहुत हद तक मनमानी करने की स्वतंत्रता नहीं मिल रही थी। यही कारण है कि लाल दलगंजनसिंह के बाद राज्य के जो भी दीवान बनाये गये वे अंग्रेजों की पसंद और सलाह से नियुक्त व्यक्ति थे। यह स्वाभाविक था कि यहाँ के आदिवासियों के लिये सारा जंगल उनका है, सारी जमीन उनकी है, सारा पानी उनका है और इसलिये कोई जमीन से जुड़ी सरकानी नीति नहीं थी। दलगंजनसिंह ने अपने समय तक पटेली बन्दोबस्त को इस तरह लागू रखा कि उसमें फसल उगाने वाले और राजा के बीच कोई बिचौलिया नहीं था। सीधे फसल उगाने वाले से ही टैक्स वसूला जाता था। इसके लिये गाँव से ही किसी आदिवासी को पटेल नियुक्त कर दिया जाता जो वसूली करके टैक्स राजकोष में जमा करा देता। पटेलों से “हैसियत साल” नाम से सम्पत्ति कर वसूला जाता था। यहाँ फ्लक्सिबिलिटी थी कि फसल अच्छी है तो लगान की दर अलग और खराब हुई तो अलग। अगले दीवान मोतीसिंह ने टैक्स पेमेंट के ब्रिटिश पैटर्न को अपना लिया। इसका उद्देश्य था ज्यादा लगान वसूलना। अब फसल उगाने वाले और राजा के बीच में पूरी ब्यूरोक्रेसी काम करने लगी। फसल कैसी भी हो टैक्स फिक्ड है। दीवान मोतीसिंह ने बंजारों पर भी आयात शुल्क और चरवाहा कर लगा दिया था। इससे बंजारों की आमद कम होने लगी तथा राज्य का व्यापार प्रभावित होने लगा। यह कदम एक तरह से कालाबाजारी को प्रोत्साहन भी था।

गोपीनाथ राउत कपड़दार ‘वर्ष-1867’ मे ब्रिटिश आदेश पर दीवान नियुक्त किये गये। एक ‘राउत’ को दीवान आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। कपड़दार ने पूर्व दीवान मोती सिंह से एक कदम आगे निकलते हुए ठेकेदारी प्रथा को राज्य में लागू किया। उसने कर वसूलने का काम ठेके पर ग्रामप्रमुखों को दे दिया और इसी से वो ठेकेदार भी कहलाने लगे। यह एक छद्म सुधार था। नाप-जोख के अनुसार टैक्स तय कर दिया गया। जमीन की नाप का गणित तो किसी आदिवासी को समझ आता नहीं था। किसने कितनी जमीन जोती और कितनी आमदनी हुई सारा गुणा-भाग हवा में होने लगा। बढ़ा चढ़ा कर लगान वसूली करने का एक सिलसिला आरंभ हो गया। दीवान कपड़दार ने प्रति जोत भूमि का मूल्यांकन एक रुपये से चार रुपये कर दिया। इमारती लकड़ी पर अलग कर लगाया गया। शराब-लांदा-सलफी जो कि आदिवासियों की जिन्दगी थी उस पर भी उत्पाद शुल्क लिया जाने लगा।

केवल दीवान ही नहीं अंग्रेज भी अब नीतियों में सीधे हस्तक्षेप करने लगे थे। पैदावार बढ़ाने के लिये परम्परागत कृषि के तरीकों को बदलने पर जोर दिया जाने लगा। फसल वह ली जाने लगी जो अंग्रेजों को उपयोगी लगती थी। माँग ब्रिटेन में होती थी और कच्चामाल आदिवासी तैयार करते थे। इसी बीच “वन सुरक्षा अधिनीयम’ को लागू किया गया। यह बात समझी जानी चाहिये कि वनों को आदिवासियों से कभी खतरा नहीं था तो फिर उन पर वन सुरक्षा अधिनियम के क्या मायने हो सकते थे? जितने जंगल अंग्रेजों के आने के बाद कटे हैं उतना आदिवासियों की कई पीढ़ी मिल कर भी नहीं काट सकती थी? यह सही है कि जूम कल्टिवेशन के लिये जंगल के हिस्से साफ किये जाते हैं। आदिवासी इसके लिये ज्यादातर श्रब्स या झाडियों वाली जगहें चुनते हैं। पच्चीस पचास पेड़ किसी गाँव ने जूम खेती के नाम पर काट भी दिये तो वह इतना नुकसान हर्गिज नहीं था जो खुद अंग्रेज कर रहे थे। उनकी आरा मशीने जंगलों को मैदान बनाती जा रही थीं।

राजा को पूरी तरह अब नाम बना दिया गया था। हालाकि उसे सन-1865 से फ्यूडेटरी चीफ का स्टेटस दिया गया था किंतु उसकी हैसियत एक ‘सेशन-जज’ जितनी ही थी। उसे किसी भी बड़ी सजा या मृत्युदंड़ देने से पहले चीफ कमिश्नर से ऑर्डर लेने होते थे। इससे राज्य के अधिकारी मनमानी पर उतर आये थे। घोड़ा और कोड़ा शान का प्रतीक बन गया और रियाया की पीठ उनके अधिकारों की प्रदर्शनस्थली। काम जो भी हो उसके लिये ‘बेगार’ लिया जाता। दाम माँगे जाने की सूरत में पीठ पर कोड़े के निशान जख्म छोड़ दिया करते थे। राजा के लिये स्वेच्छा से बेगार करने वाले आदिम भी थे। राजा उनका ‘देव’ जो था; लेकिन उसके माहतहत? लगान के बोझ के बाद भी उन्हें नोचा जाता। किसी मुंशी की बीवी का जी मचलाये तो शाम को बोरा भर इमली उसकी देहरी पर होती थी, वह भी बिना दाम चुकाये। कुछ आदिवासी तो संपन्न लोगों के खरीदे हुए दास थे। इधर अंग्रेज भी बस्तर के राजा और निकटवर्ती रियासतों को छोटी छोटी बातों के लिये उलझाये रखते थे तथा अपने मनमाने फैसलों से किसी को अपमानित तो किसी के अहं को तुष्ट करते रहते थे। उदाहरण के लिये जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंग्रेजों ने इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव किया। हथिनी को पहले सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा। बाद में उसे जैपोर स्टेट को वापस सौंप दिया गया। वस्तुत: यह बस्तर के राजा को नीचा दिखाने की एक हरकत ही थी।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक दिन राजा ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के स्वागत के लिये दिल्ली रवाना हो रहे थे। काफिले में सबसे पीछे कई आदिवासी “बेगारी” थे, जो बोझ ढ़ोए चल रहे थे। काफिला जहाँ-जहाँ से गुजरता गाँव का गाँव राजा को देखने उमड़ आता। बच्चों के लिये यह जुलूस एक कौतूहल था तो युवाओं के लिये जिज्ञासा। जबकि कई बूढ़े-आदिम राजा के आगे दण्ड़वत हो रहे थे। सब कुछ सामान्य लग रहा था। काफिला बड़े-मारेंगा पहुँचा। तभी जुलूस ठहर गया। अभी जगदलपुर से महज चौदह किलोमीटर का सफर तय हुआ था। ‘आगरवारा परगना’ का माँझी और उसके साथ लगभग पाँच सौ मुरिया आदिवासियों ने राजा के काफिले को घेर लिया था। आदिवासियों राजा को दिल्ली न जाने का अनुरोध कर रहे थे। उनके अनुसार यदि राजा ही रियासत के बाहर चले गये तो संभव है अंग्रेज उन्हे दुबारा यहाँ आने नहीं देंगे। उनकी अनुपस्थिति में राज्य के सरकारी कर्मचारियों की मनमानी बढ़ जायेगी। आदिवासियों को मुख्य नाराजगी दीवान गोपीनाथ कपड़दार तथा दण्ड न्यायालय के प्रमुख अदितप्रसाद से थी। आदिवासियों द्वारा भैरमदेव को इस तरह रोकना उनके प्रति सम्मान दिखाना था। वह व्यवस्था, जिसके आधीन हुई नृशंसताओं की दास्तान सुनायी और दिखायी गयी, उसका दायित्व स्वयं राजा का ही था।

दीवान ने राजा के आगे की यात्रा का मार्ग तैयार कर दिया। सशस्त्र सिपाहियों के हथियार कंधे से उतर कर हाँथों में आ गये। अंगरक्षक सिपाहियों के हवा में लहराते कोड़ों की सांय सांय भीड़ को धमकाने के लिये थी। लेकिन अपेक्षा के विपरीत आदिवासी अड़ गये। “मैं राजा का सामान आगे नहीं ले जाउंगा” एक मुरिया बेगारी सम्मुख आ गया। उसकी आखों में बात नहीं मानने की शर्मिन्दगी के साथ साथ, बात नहीं मानूंगा की जिद थी। जैसे ही उसकी अवज्ञा का प्रत्युत्तर कोडे से दिया गया बात पूरी तरह बिगड़ गयी। सभी आदिवासियों ने राजा का सामान नीचे रख दिया। स्वाभाविक विरोध का उत्तर दमन नहीं होता है। बात बिगड़ गयी। मुरिया, राजा को आगे नहीं जाने देने पर तुल गये। बात दीवान की प्रतिष्ठा पर आ गयी थी। ‘बेगारी’ सामान ढ़ोने को तैयार नहीं और ग्रामीण काफिले को आगे बढ़ने देने के लिये सहमत नहीं हो रहे थे। राजा हाँथी पर बैठ गये लेकिन एक कदम आगे बढ़ना संभव नहीं था। दीवान की भाषा कड़वी और धमकी भरी थी जिससे मुरिया शांत होने की जगह और गुस्से से भर गये। बात आर या पार पर आ गयी। आखिरकार दीवान की आज्ञा से भीड़ पर गोली चलायी जाने लगी। कुछ ही देर में हाय तौबा और चीख पुकार के बाद चुप्पी हो गयी। तीन लाशों और अठारह गिरफ्तारियों के बाद हुई इस शांति में तूफान के आने की सुनिश्चितता अंतर्निहित थी। भैरमदेव ने स्थिति को समझा और अपनी दिल्ली यात्रा स्थगित कर दी।

राजा का काफिला जगदलपुर लौट आया। गिरफ्तार मुरिया कुरंगपाल जेल भेज दिये गये। गोपीनाथ कपड़दार के लिये तो राजा का वापस लौटना उसकी प्रशासनिक क्षमता की पराजय थी। उसकी क्या इज्जत रह गयी? आदिवासियों पर ही हुकूमत नहीं चला सका, तो किस काम का दीवान? वह एक पल भी जगदलपुर में नहीं रुका। घुड़सवार सैनिक टुकड़ी ले कर सीधे कुरंगपाल आ पहुँचा। दीवान से इस मूल्यांकन में चूक हो गयी कि विद्रोही हो जाने के बाद परिणाम कौन सोचता है? पतंगे जान कर और होश-हवास में ही शमां पर मर मिटते हैं। वह गिरफ्तार कैदियों पर ज्यादती कर अपनी हताशा का प्रतिशोध लेना चाहता था। आततायी हमेशा जोश में होते हैं किंतु वे आम जन के होश का सही मूल्यांकन कभी नहीं कर पाते। दीवान का कुरंगपाल आना कोई तय योजना नहीं, गुस्से में उठाया गया कदम था। कुरंगपाल आते हुए सैनिकों ने भी आतंक फैलाने का ही काम किया। किसी का घर उजाड़ दिया तो किसी के जानवर खोल दिये या किसी की पीठ कोड़े की मार से उधेड़ दी। अफरा-तफरी फैला दी गयी थी, बदला लिया जा रहा था।

कैदियों को जबरन जगदलपुर ले जाने के लिये निकाला गया। सैनिकों और कैदियों में जोर आजमाईश हो ही रही थी कि चार-पाँच सौ मुरिया ग्रामीण अचानक सैनिकों पर झपट पड़े। दीवान को अपने लिये खतरे का जैसे ही आभास हुआ उसने एक पल भी नहीं गँवाया और अपना घोड़ा राजधानी की ओर भगा लिया। भीड़ ने सभी कैदी छुड़ा लिये थे। दीवान के कुछ सिपाही तो भाग निकले लेकिन जो भी मुरियाओं के हत्थे चढ़े उन्हें अधमरा कर दिया गया। अब विद्रोह स्वरूप लेने लगा। मुरियाओं के सामने माँगे साफ हो गयी थीं। दीवान गोपीनाथ कपड़दार, दण्ड न्यायालय का प्रमुख अदित प्रसाद और राजा के तमाम वो मुंशी जिन्हे दीवान ने नियुक्त किया था, विद्रोहियों के निशाने पर थे। इस बीच विद्रोही मुरिया आरापुर गाँव में एकत्रित हुए और सबने मिल कर ‘झाड़ा-सिरहा’ को नेता चुन लिया गया था। चमत्कारी था झाड़ा सिरहा। जादू टोना जानता था। सब मानते थे कि उसने बहुत से पिरेत बस में किये हैं जिनसे वह अपनी बात मनवा लेता है। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति की नायक के रूप में स्वीकार्यता उसमे अंतर्निहित विशिष्ठताओं के कारण ही होती है। नेतृत्व के गुण झाड़ा सिरहा में कूट कूट कर भरे थे। उसके दिशा निर्देश पर विद्रोह की स्वीकार्यता को प्रसारित करने का निर्णय लिया गया तथा भागीदारी में सहमति के लिये प्रतीक स्वरूप तीर को गाँव गाँव भेजा गया। जगदलपुर और उससे लगे सभी गाँव-परगने विद्रोह के लिये तत्पर थे। तीर स्वीकार कर लेने का अर्थ ही विद्रोह को गाँव का समर्थन प्राप्त होना था। प्रतीक के रूप में गाँवों के खलिहान में आम की डाल रोंप दी गयी। अपेक्षित परिणाम भी सामने था। राजा की ओर से भी विद्रोह को टालने और सुलह करने की कोशिशे तेज हो गयीं। अपने सभासदों - ‘कुँअर दुर्जनसिंह’ और ‘दुबेदानी’ को राजा भैरमदेव ने विद्रोह का आंकलन करने और सुलह की जमीन तलाशने के लिये भेजा। झाड़ा सिरहा से बातचीत के बाद इस बात पर स्वीकार्यता बनी कि राजा स्वयं विद्रोहियों से बात करने आयेंगे। 
 
राजा के सुलह के लिये आने की खबर ने विद्रोहियों के उत्साह को दुगुना कर दिया। वे यही तो चाहते थे। झाड़ा सिरहा ने एहतियात बरतते हुए अलग अलग स्थानों पर ढ़ेर बना कर पत्थर और हड्डियाँ जमा करवा दीं। उसने विद्रोहियों को उनके शस्त्रों के हिसाब से विभाजित कर दिया था। कोई भी हमला होने की स्थिति में उसका उत्तर दिया जा सकता था। दोपहर ढ़लने लगी थी। राजा की पालकी आरापुर पहुँची। राजा आपनी सैनिक तैयारियों और सिपहसालारों के साथ पहुँचा था। एक सफेद घोड़े में वहाँ राजा का चचेरा भाई लाल कालिन्द्र सिंह भी उपस्थित था जिनके पिता रियासत के दिवंगत बहुचर्चित दीवान दलगंजन सिंह थे। विद्रोहियों और राजा में बात सौहार्द पूर्ण वातावरण में आरंभ हुई। बहुत संभव था कि राजा और विद्रोही किसी मान्य समझौते पर पहुँच भी जाते कि तभी एक दम से अराजकता फैल गयी थी। अचानक दीवान का घोड़ा आरापुर में आते देख कर विद्रोहियों के सब्र ने जवाब दे दिया। दीवान के खिलाफ पनप चुका आक्रोश इतना अधिक था कि उसे देखते ही जनसमूह के समक्ष राजा की उपस्थिति भी गौँण हो गयी। दीवान और राजा, दोनों ने ही इस बात की कल्पना नहीं की थी। अब तक तो यही होता आया था कि राजा का वाक्य अंतिम था।
 
मुरिया अपना आपा खो बैठे और सब कुछ अनियंत्रित हो गया। दीवान को निशाना बना कर पत्थर और हड्डियाँ फेंकी जाने लगी। कपड़दार बचाव के लिये राजा की पालकी की आड़ लेने लगा। विद्रोह के कारणों के केन्द्र में तो वही था और तनाव के माहौल में उसके घोड़े पर बैठ कर आने ने बुझाई जा रही चिंगारी को सुलगा कर दावानल बना दिया। अब बात राजा के हाँथ के बाहर थी। सुरक्षा सैनिकों ने राजा और दीवान को घेरे में ले लिया। विकल्पहीन राजा ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। एक ओर से गोली चलाई जाने लगी और दूसरी ओर से भीड़ पर हाँथी सवार सैनिक छोड़ दिये गये। छह मुरिया आदिवासी मारे गये। दीवान सहित कई सैनिक भी घायल हुए। राजा और दीवान लगभग बच कर वापस लौट आये थे। विद्रोही तितर बितर अवश्य हुए लेकिन अब उनके द्वारा पुन: संगठित हो कर अधिक आक्रामक जवाबी कार्यवायी किये जाने का अंदेशा था। जल्दबाजी में महल के भीतर अनाज का भंडारण किया गया। महल के सभी द्वार बंद कर दिये गये। ज्वालामुखी फट पड़ने से पहले सदियों घुटन सहता है, फिर कठोर चट्टानों को पिघला कर लावा अपना मार्ग बनाता हुआ भयंकर विस्फोट के साथ बाहर निकल आता है। इसके बाद एक नयी भू-आकृति होती है, नयी शिलायें जन्म लेती हैं नया वातावरण बनता है। झाड़ा सिरहा और उसके साथियों के लिये यह परीक्षा की घडी थी। रात होने से पहले ही हजारो विद्रोही मुरिया जगदलपुर पहुँच गये। अचरजपूर्ण रूप से बढ़ते बढ़ते यह संख्या बीस हजार से अधिक हो गयी। झाड़ा सिरहा की सोच और उसका रण कौशल देखते ही बनता था। घेराबन्दी इस तरह की गयी कि महल के भीतर न तो अनाज भेजा जा सकता था न ही पानी। महल से बाहर किसी तरह भी कोई संदेश नहीं ले जाया जा सकता था। इसी तरह दिन और महीने बीतते जा रहे थे।

राजमुरिया आदिवासियों ने राजधानी को चार महीनों से घेरा हुआ था। बीस हजार से अधिक नरमुंड़ अपना काम-काज, खेती-शिकार, परब-तिहार सब कुछ छोड़ कर एकत्रित थे। इन राजमुरियाओं में से हर एक सशस्त्र था। गंडासा, फरसा, टंगिया, भाला, तलवारें और धनुष-बाण से सुसज्जित यह भीड़ जिस क्षण चाहती राजधानी उनकी होती। आन्दोलन व्यवस्था को उलट देने के लिये ही नहीं होते। आन्दोलन इस लिये भी होते है कि व्यवस्था को जन-सामान्य के अनुरूप ढ़लने के लिये बाध्य किया जा सके। अन्यथा दुविधा क्यों थी? अंग्रेजी सत्ता ने राजा को बिना दाँत का कर ही दिया था। उसे सीमित संख्या में सैनिक रखने की अनुमति थी। महल में इतने सैनिक नहीं थे कि सामने एकत्रित राजमुरियाओं के संगठित हमले का जवाब दे सकें। आदिवासी अगर ठान लेते तो भैरमदेव काकतीय वंश के आखिरी राजा होते। ताकत ही सर्वोपरि नहीं होती। झाड़ा-सिरहा का अनुमान था कि महल मे अन्न के भंडार और जल संसाधन सीमित हैं। विद्रोहियों ने सरकारी खजाने को हथिया लिया था। जानकार मुरियाओं से खजाने की गिनती करवायी गयी। आठ से दस मुरिया कोष की निगरानी में तैनात किये गये। जिस गर्व से वह व्यवस्था को चुनौती दे रहा था यह देखते ही बनता था। यह लड़ाई भैरमदेव की जगह झाड़ा-सिरहा की सत्ता निरुपित करने के लिये नहीं थी। यह लड़ाई किसी धारा-विचारधारा या वाद की परिणति भी नहीं थी।

राजमहल के भीतर भी इन परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिये निरंतर मंथन चल रहा था। पहले राजगुरु लोकनाथ को समझौते के लिये झाड़ा सिरहा के पास भेजा गया किंतु विफलता ही हाथ लगी। अब एक नाटकीयता पूर्ण साजिश रची गयी। अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से एक पत्र लिखा गया। अब समस्या किसी भी तरह इस पत्र को जयपोर पहुँचाने की थी। चिठ्ठी को एक मिट्टी की हाँडी की तली में रख कर मोम से भर दिया गया। हाँडी में उपर तक पेज भरा गया। मोम और पेज का रंग एक ही होता है अत: यदि विद्रोही जांच भी करते तो चिट्ठी के पकडे जाने की संभावना न्यूनतम थी। हाँडी बाहर ले कर जाने के लिये जिस महिला का चयन किया गया था वह ‘माहरा जाति’ की थी। योजनाकार जानते थे कि महारा जाति के आदिमों की सामाजिक स्थिति हीन मानी जाती है। आम तौर पर माहरा जाति के लोग गाँव में कपड़े बुनने का कार्य करते हैं। वे किसी भी मुरिया ग्राम के आवश्यक निवासी होते हैं। इन कारणों को देखते हुए माहरा महिला की तलाशी होने की संभावना नहीं थी। एक अन्य कारण था कि माहरा ही विद्रोही और राजा के लोगों के बीच सूचना का आदानप्रदान भी कर रहे थे अत: महिला का महल से पेज भरी हांडी ले कर निकलना साधारण बात ही मानी जाती।

यह साजिश पूरी तरह से कामयाब हुई। राजगुरु विद्रोहियों से समझौता करा पाने में मिली विफलता को राजा की नाराजगी बता कर महल से बाहर चले आये। माहरा महिला जैसे ही चिट्ठी को विद्रोहियों से बचा कर निकाल लाने मे सफल हुई, राजगुरु लोकनाथ ने हांडी फोड कर उसे बाहर निकाल लिया। यह चिट्ठी कोरापुट में जा कर पोस्ट कर दी गयी। अंग्रेजों के लिये तो अंधा क्या चाहे दो आँखें वाली बात थी। विद्रोह को दबाने के बहाने राज्य की गर्दन अधिक बेहतर तरीके से दबाई जा सकती थी। तुरंत ही सिरोंचा से थलसेना की तीन रेजिमेंट जगदलपुर के लिये रवाना हुई। पड़ोसी राज्यों की पुलिस को भी अभियान का हिस्सा बनाया गया। अंग्रेज कमाण्डर मैक्जॉर्ज ने इस सेना का नेतृत्व किया। इधर महीनों की घेराबंदी ने झाड़ा सिरहा को निश्चिंत बना दिया था। विद्रोही ‘राज-मुरिया’ अपनी जीत सुनिश्चित मान कर चल रहे थे। उनका अनुमान था कि पानी और रसद की महल में कमी हो गयी है। किसी भी समय उनकी जीत हो सकती है। लम्बे अंतराल के कारण घेराबंदी की सुदृढ़ता में भी कमी आ गयी थी। एक समय में महल के गिर्द दस हजार से अधिक मुरिया एकत्रित रहा करते थे, घटते घटते यह संख्या, अब चार-पाँच हजार रह गयी थी। अचानक हमला हो गया। कुछ मुरिया उस समय खाना खा रहे थे तो कुछ सुस्ता रहे थे। गोलियाँ चलने की आवाजों के साथ ही सबको पैरों के नीचे से जमीन जाती दिखाई पड़ी। प्रतिरोध अव्यवस्थित हो गया। नगाड़े जोर जोर से पीटे जाने लगे जिससे विद्रोही खतरे के प्रति सजग हो जायें और आक्रमण के लिये तैयार हो सकें। नगाड़े की आवाज उन मुरियाओं के लिये भी संदेश था जो निकट के गाँवों में हों और अपने साथियों को सहयोग करने के लिये आ सकें। बहुत देर हो चुकी थी और चिडिया ने खेत चुग लिया। विद्रोही जी-जान से लड़े। कोई तय योजना नहीं रह गयी। कोई पेड़ पर चढ़ कर तीर चला रहा था तो कोई बंदूख से फरसे-भाले लिये भिड़ गया। झाड़ा सिरहा ने भगदड़ रोकने की भरसक कोशिश की। अंतिम परिणाम उसकी समझ में आ गया। अग्रेजों ने झाड़ा सिरहा को पकड़ कर न केवल मार ही डाला अपितु उसके पार्थिव शरीर को इन्द्रावती नदी में बहा दिया गया। एक वीर आदिवासी योद्धा की कहानी का यह दु:खद अंत था।

झाड़ा सिरहा का दुख़द अंत इस लिये कहना होगा चूंकि स्वयं मैकजॉर्ज मानते थे कि मुरिया वस्तुत: अपनी जीती हुई लड़ाई केवल नैतिकता के कारण हार गये थे। मैक्जॉर्ज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि “विद्रोहियों की संख्या इतनी थी कि वे किसी भी समय आक्रमण कर के महल पर कब्जा कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यहाँ तक कि जब हमने पीछे से इनपर आक्रमण किया तब भी यदि ये चाहते तो महल पर हमला कर अधिकारियों की हत्या कर सकते थे, उन्होंने वह भी नहीं किया। सबसे आश्चर्यजनक था कि विद्रोहियों ने राजा का लूटा हुआ खजाना उसे सही सलामत लौटा दिया था।“ इसी रिपोर्ट में मैक्जॉर्ज ने आगे जानकारी दी है कि “जब मुरियाओं ने घेराव कर रखा था तब राजपरिसर में ही उनकी पहुँच में राजकीय जेल भी था। जेल की सुरक्षा में राजा के कुल बीस सिपाही से अधिक तैनात नहीं थे। जेल भी कोई बहुत मजबूत नहीं था, इसकी दीवारे मिट्टी की और छप्पर घास-फूस की थीं। मुरिया विद्रोही जब चाहते जेल की दीवारे तोड़ कर कैदियों को मुक्त करा सकते थे। इनमे कई कैदी तो विद्रोहियों के साथी भी थे। लेकिन ऐसा संयम रखा गया जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती।“
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ऐसा नहीं था कि यह विद्रोह केवल पराजय की दास्तान भर था। आदिवासियों की सभी व्यवहारिक माँगे मान ली गयीं। यद्यपि कुछ विद्रोही भी गिरफ्तार किये गये थी साथ ही साथ गोपीनाथ कपड़दार, अदितप्रसाद और लोकनाथ ठाकुर को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन सभी मुंशियों को जिन्हें दीवान के आदेश से काम पर रखा गया था, उन्हें टर्मिनेट कर दिया और रियासत से बाहर जाने के ऑर्डर दे दिये गये। इसके बाद अपनी फितरत के अनुसार मैक्जॉर्ज ने ‘आदिवासी वर्सेज नॉन आदिवासी’ का कार्ड खेला तो इस लड़ाई का विलेन चेहरा दीवान और उसके लोग ही रह गये। इसके साथ ही 8 मार्च 1876 को पहली बार मुरिया दरबार बुलाया गया। दरबार में मैक्जॉर्ज ने राजा और विद्रोही मुरिया नेताओं से आमने-सामने बात की। चाल यह थी कि विद्रोही अगर राजा के प्रति जरा भी असंतोष दिखाते तो भैरमदेव को भी गिरफ्तार किया जा सकता था किंतु योजना से ठीक उलट, न चाह कर भी ‘मुरिया दरबार’ में अंग्रेजों को ‘राजा और प्रजा’ के बीच सुलह कराने में अपनी उर्जा खर्च करनी पडी।” मुरिया दरबार इसके पश्चात प्रतिवर्ष की अनिवार्य परम्परा बन गयी तथा आज भी दशहरे के पश्चात सिरासार में इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। निष्कर्षत: झाड़ा सिरहा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया था तथा 1876 का आन्दोलन मुरिया आदिवासियों की सफलता का इतिहास है।

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व्यंग्य चित्र

  


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धरोहर:

हास्य रचना

ससुराल चलो

गोपाल प्रसाद व्यास
*
तुम बहुत बन लिए यार संत,
अब ब्रम्हचर्य में नहीं तंत,
क्यों दंड व्यर्थ में पेल रहे,
ससुराल चलो बुद्धू बसंत।
मुख में बीड़ा, कर में गजरा,
आँखों में मस्ताना कजरा,
कुर्ते में चुन्नट डाल चलो, 
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
रूखे-रूखे से बाल चलो,
पिचके-पिचके से गाल चलो,
दो-दो चश्मे, छै-छै टोनिक,
दर्जन भर साथ रुमाल चलो,
स्लीपिंग टेबलेट, अमृतधारा,
कुछ च्यवनप्राश, शोधित पारा,
थैले में सब कुछ डाल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
छोडो फ़ाइल, छोडो लैदर,
देखो कैसा जोली वैदर,
क्यों कलम अकेले रगड़ रहे?
हो जाओ वन से टूगैदर।
वे वहाँ पड़ीं, तुम यहाँ पड़े,
वे वहाँ छड़ीं, तुम यहाँ छड़े।
अर्जेंट आ गयी काल चलो,

ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
मम्मी के मन के मून चलो,
डैडी के अफलातून चलो.
बंडी-बंडी बुश शर्ट पहन,
चिपकी-चिपकी पतलून चलो.
सींकिया सनम, मजनू माडल ,
आँखों पर बैलों सा गोगल।
जी नहीं नमस्ते, कहो 'हलो'
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
साली से गाली खाने को,
सरहज का लहजा पाने को, 
उनकी सखियों से नजर बचा,
कतराने को, इतराने को,
मनचले चलो, मन छले चलो
मन मले चलो, मन जले
भावों में लिए उबाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
लो नयी ट्यून सीखो मिस्टर,
डारा डारा डररर डररर.
फिल्मों के नए नाम रट लो, 
शौक़ीन बहुत उनकी सिस्टर।
वे शर्मीलीन, तुम शर्मीले,
मत ट्विस्ट करो ढीले-ढीले।
हो चुस्त-चपल, वाचाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...

  



navgeet maa ka pyar ompraksh tiwari

मेरी पसंद:
नवगीत
माँ का प्यार
- ओमप्रकाश तिवारी

प्रातकाल उठि के रघुनाथा । मातु-पिता गुरु नावहिं माथा।।

अर्थात, भारतीय संस्कृति में रोज सुबह मां को प्रणाम करके ही दिनचर्या शुरू करने का विधान है। फिर भी, पश्चिमी संस्कृति के अनुसार आज का दिन मातृ दिवस के रूप में निर्धारित है तो एक नवगीत प्रस्तुत है-
लेकिन पाया माँ का प्यार
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चॉकलेट
कम खाई मैंने,
लेकिन पाया
माँ का प्यार ।
घर में रहनेवाली
माँ थीं,
घर ही था
उनका संसार,
हँसते-हँसते
दिनभर खटतीं
लगी गृहस्थी
कभी न भार

गरम पराठे
दूध-मलाई,
फिर भी नखरे
मेरे हजार ।

न आया का
दूध चुराना
न मेरे
हिस्से का खाना,
खुद ही
उबटन-तेल लगाकर
थपकी देकर
मुझे सुलाना

पल भर को भी
बाहर जाऊँ,
तो आने तक
तकतीं द्वार ।

नहीं बोर्डिंग का
सुख पाया
न पड़ोस में
समय बिताया,
क्रेच व बेबी सिटिंग
कहाँ थे
था माँ के
आँचल का साया

जन्मदिवस पर
केक न काटा,
किंतु गुलगुलों
की भरमार

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बुधवार, 8 मई 2013

SHATPADEE : acharya sanjiv 'salil'

षट्पदी  :
संजीव 
*
भाल पर, गाल पर, अम्बरी थाल पर
चांदनी शाल ओढ़े ठिठककर खड़ी .
देख सुषमा धरा भी ठगी रह गयी
ओढ़नी भायी मन को सितारों  जड़ी ..
कुन्तलों सी घटा छू पवन है मगन
चाल अनुगामिनी दामिनी की हुई.
नैन ने पालकी में सजाये सपन
देह री! देहरी कोशिशों की मुई..
*
 
एक संध्या निराशा में डूबी मगर, 
थाम कर कर निशा ने लगाया गले.
भेद पल में गले, भेद सारे खुले, 
थक अँधेरे गए, रुक गए मनचले..
मौन दिनकर ने दिन कर दिया रश्मियाँ , 
कोशिशों की कशिश बढ़ चली मनचली-
द्वार संकल्प के खुल गए खुद-ब-खुद, 
पग चले अल्पना-कल्पना की गली..    

मंगलवार, 7 मई 2013

अपनी अपनी बात










grandson of mortyre udham singh A mason

शहीद का वारिस

navgeet ka bhavishya madhukar ashthana


नवगीत चर्चा:
नवगीत परिसंवाद-२०१२ में पढ़ा गया शोध-पत्र
उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
-मधुकर अष्ठाना

साहित्य समाज से आगे चलकर परिवर्तन का मार्ग बनाता है पूरे समाज को चिन्तन की नयी दिशा देता है, साहित्य उपदेशक या प्रवाचक नहीं है किन्तु ऐसा वातावरण बनाता है जिसमें प्रतिरोध एवं प्रतिकार के अंकुर जन्म ले सकें एवं अव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश ऊर्ध्वगामी हो, किन्तु इस तथ्य के विपरीत वही साहित्य मात्र कुछ लोगों के मनोरंजन के लिये लिखा जाता है तो वह ऊर्ध्वगामी होकर समाज की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करता है और एक परिधि में बन्दी रहकर नकारात्मकता को प्रोत्साहन देता है, अभिजातवर्गीय मनोरंजन वादी किरकिरे साहित्य की मानव विरोधी प्रवृत्ति के विरुद्ध सम्पूर्ण विश्व में बदलाव आया जिसका प्रभाव कहीं जल्द और कहीं देर से आया, भारत में इस बदलाव की लहर देर से आई और गीतों में तो और भी विलम्ब से यह परिणामित हुई, इस बदलाव के प्रथम चरण में छायावादोत्तर गीतों में मामूली नयापन दिखाई पड़ा जिसमें प्रतिरोध और प्रतिकार का स्वर अलक्षित रहा।

वास्तव में गीतों में पविर्तन दूसरे चरण में आया जब लघुमानव के शोषण उत्पीड़न की व्यथा कथा के गीत मुखरित होने लगे, इस क्रम में नूतन कथ्य के अनुकूल भाषा की तलाश प्रारम्भ हुई। गीत ने भाषायी परिवर्तन और नयेपन के लिये नगरीय भाषा के साथ देशज शब्दों की युगलबन्दी को प्रोत्साहित किया, इस गीत में मुहावरों-लोकोक्तियों के योग से नये प्रतीकों और बिम्बों को गति मिली। दोहों की संक्षिप्तता, गजलों की व्यंजना और नयी कविता के विचारों ने इस गीत को नया तेवर और धार दी। जहाँ तक प्रतिरोध प्रतिकार का प्रश्न है यह पूँजी लोक गीतों के रूप में भारत जैसे ग्राम-देश में अकूत विद्यमान है जो पूर्णरूपेण भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं परम्परा की देन है।

इस नये परिवर्तित रूप को अधिकांश रचनाकारों ने नवगीत के रूप में स्वीकार किया जिसमें साधाराण जनता के सुख-दुख, राग-विराग, शोषण-उत्पीड़न, जीवन-संघर्ष, जिजीविषा, त्रासदी, विसंगति, विषमता, विघटन, विद्रूपता, विद्वेष, मानवीय सम्बन्धों में बिखराव, मानवता का क्षरण और संस्कृति का पतन आदि का यथार्थ और वास्तविक चित्रण होने लगा जिसकी आत्मा में सम्वेदना रही एवं थोड़े बहुत परिवर्तन के उपरान्त भी यही क्रम गतिशील है। यदि नवगीतकार श्रीनिर्मल शुक्ल के शब्दों में कहें तो नवगीत खौलती सम्वेदनाओं को वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते हुए परिवेश में भुनती जिन्दगी का स्वर संधान है, वह पछुवा के अंधड़ में तिनके की तरह उड़ते स्वास्तिक की कराह है।" मैं भी जानता हूँ कि नवगीत भावनाओं के खेत में उपजी सम्वेदनाओं की वह फसल है जिसमें पीड़ा की खाद पड़ती है और आँसुओं की सिंचाई होती है। समसामयिक सन्दर्भों की गहन सम्वेदना और अपने परिवेश को अभिव्यक्ति देता यह नवगीत साठ वर्ष से भी अधिक समय को मुखरित कर चुका है और अब भी समाज में जागरण लाने तथा अव्यवस्था के विरुद्ध पूरी क्षमता के साथ आक्रामक है।

नवगीत किसी वाद का प्रवर्तक नहीं है बल्कि मुक्त मानसिकता के साथ मानवता का पोषक है और मानवीय दृष्टिकोण से अपने समय की जाँच परख कर प्रस्तुत करता है। इस शब्द सम्वेदना के यज्ञ में सैंकड़ों रचनाकारों ने अपने विशिष्ट चिन्तन के साथ योगदान दिया है और भविष्य में भी यह क्रम कहीं रुकने वाला नहीं प्रतीत होता है। रागात्मक अन्तश्चेतना से उपजी सम्वेदना का यह छान्दसिक स्वरूप अनवरत रचनाकारों की कृतियों तक ही नहीं सीमित रह गया बल्कि आम आदमी की जबान पर भी चढ़ रहा है। इसके विकास और विस्तार के लिये हमें अपने दृष्टिकोण को असीमित रखते हुए उन सभी गेय एवं नवतायुत काव्य रूपों को नवगीत की परिधि में लाने का प्रयास करना चाहिये जिनमें प्रगतिशीलता व्याप्त है और उनकी कहन एवं कथ्य में भी समानता है एवं भाषा-शिल्प में भी लगभग एकरूपता दिखाई पड़ती है। नवगीत में उन तत्वों के संतुलन और सामंजस्य की बारीकियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यदि इसे अन्तर्देशीय रूप देना है तो सहज भाषा छान्दसिकता क्षेत्रीय बोलियों का दाल में नमक के बराबर ही उपयोग आवश्यक है अन्यथा विपरीत दशा में ऐसे नवगीत विशेष क्षेत्र में ही सिमट कर रह जायेंगे।

आज ऐसे गीतकार जो परम्परा के साथ, अपनी अभिजात गीत शैली के द्वारा गहराई से जुड़े थे, उनमें भी नवगीत का प्रबल प्रभाव देखा जा रहा है और नवगीत का कथ्य अपनी परम्परागत शैली में ही लिखने लगे हैं ऐसे भी गीतकार हैं जिन्होंने देर से ही सही नवगीत की अव्यवस्था को समझा और अपनी भाषा शिल्प में परिवर्तन ले आए। इनके अतिरिक्त अनेक युवा रचनाकार भी नवगीत की ओर बढ़े हैं और अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया है। नवगीत के क्षेत्र में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की भूमिका पूर्व से आज तक सशक्त रूप से स्थापित होती रही है। इस क्रम में उत्तर प्रदेश में नवगीत के भविष्य को आपके समक्ष प्रस्तुत करना ही मेरा ध्येय है।

उत्तर प्रदेश में प्रारम्भ से ही नवगीत को उर्वर भूमि मिली, इस प्रदेश में पुराने हों अथवा नये नवगीतकार संख्या में सर्वथा अधिक रहे हैं और यह स्थिति वर्तमान में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी के समय से लेकर आज तक उत्तरप्रदेश हिन्दी का हृदय बना हुआ है। विधा कोई भी हो यह प्रदेश अग्रणी रहा है। नवगीत के प्रारम्भिक काल में यहीं पर स्मृति शेष डॉ. शम्भुनाथ सिंह, चन्ददेव सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, उमाशंकर तिवारी, बालकृष्ण मिश्र, नीलम श्रीवास्तव, माधव मधुकर, देवेन्द्र बंगाली, उमाकान्त मालवीय, दिनेश सिंह, कैलाश गौतम, प्रतीक मिश्र आदि जैसे रचनाकारों ने नवगीत को विविध रूप और विविध प्रयोगों के माध्यम से नया आयाम दिया।

वर्तमान में सर्वश्री वृजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, शचीन्द्र भटनागर, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, रामदेव लाल, माहेश्वर तिवारी, श्याम नारायण श्रीवास्तव, रविन्द्र गौतम, देवेन्द्र शर्मा, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, श्याम निर्मल, ब्रजनाथ, राम सनेही लाल शर्मा, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अवध बिहारी श्रीवास्तव, श्रीकृष्ण तिवारी, सुरेन्द्र वाजपेयी, गुलाब सिंह, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, भारतेन्दु मिश्र, सूर्य देव पाठक ‘प्रयाग’, गणेश गम्भीर, ओम धीरज, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान, ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, जय चक्रवर्ती, सुधांशु उपाध्याय, यश मालवीय आदि के अतिरिक्त भी अनेक नवगीतकार हैं जो हैं जो उत्तर प्रदेश के ही कितु वर्तमान में प्रदेश से बाहर बस गये हैं जिनमें बुद्धिनाथ मिश्र, अश्वघोष, विष्णुविराह, मयंक श्रीवास्तव, राधेश्याम बन्धु, पूर्णिमा वर्मन, महेन्द्र नेह आदि महत्वपूर्ण हैं।

इनके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक नवगीतकार हैं जो हैं तो उत्तर प्रदेश के निवासी किन्तु अन्य प्रान्तों में निवास कर रहे हैं और नये रचनाकार जिनकी कम से कम एक कृति प्रकाशित हो गयी है अथवा प्रकाशन की प्रतीक्षा में है, उनकी भी संख्या उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है। ऐसे रचनाकारों में सर्व श्री योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ अवनीश सिंह चौहान, आनन्द गौरव, संजय शुक्ल, शैलेन्द्र शर्मा, रामनारायण, रमाकान्त, राजेन्द्र बहादुर ‘राजन’, रामबाबू रस्तोगी, विनोद श्रीवास्तव, सत्येन्द्र तिवारी, विनय मिश्र जयशंकर शुक्ल, जयकृष्ण शर्मा तुषार, राजेन्द्र वर्मा, देवेन्द्र ‘सफल’ अभय मिहिर, अनिल मिश्र, राजेन्द्र शुक्ला ‘राज’, कैलाश निगम, मृदुल शर्मा, अनन्त प्रकाश तिवारी, निर्मलेन्दु शुक्ल, अमृत खरे आदि महत्वपूर्ण हैं। यदि खोज की जाये तो यह संख्या लगभग दूनी हो सकती है। नवगीतात्मक रुझान वाले रचनाकारों की संख्या तो इसके दूने से कम नहीं होगी। तीसरी पीढ़ी के अपेक्षाकृत कुछ रचनाकारों से मैं परिचित कराना चाहूँगाः-

डॉ. अवनीश कुमार सिंह चौहान

अंग्रेजी विषय में पी.एच.डी. डॉ. अवनीश मुरादाबाद में तीर्थंकर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हैं वे नये पुराने सुप्रसिद्ध नवगीत पत्रिका के सम्पादन के साथ ही वेब पत्रिका पूर्वाभास व गीतपहल के समन्वयक एवं सम्पादक हैं। देश की पचासों पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दर्जनों सहयोगी संकलनों में उनके गीत हैं। देश की अनेक संस्थाओं ने तो उन्हें सम्मानित किया ही है, विदेश में भी उनके कार्य एवं सृजन पर अनेक सम्मान एवं पुरस्कार मिल चुके हैं। गीत के सम्बन्द्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‘‘आम गीत किसी देश-विदेश की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा बल्कि समसामयिक स्थितियों परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने कायान्तरण के बाद नवगीत के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि की बात बड़ी बेबाकी से कर रहा है जिसमें समाहित है वस्तुपरता, लयात्मकता, समष्टिपरकता एवं अभिनव प्रयोग, इसलिये वर्तमान में नवगीत प्रासंगिक एवं प्रभावी विधा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है। सामाजिक विसंगतियों विद्रूपताओं को देख-सुन कर जब कभी मेरा मन अकुलाने लगता है अथवा कभी प्रेममय, शांतिमय या आनंदमय स्थिति में अपने को पाता हूँ तो मन गाने लगता है और मैं उन शब्दों को कलम बद्ध कर लेता हूँ।’’ उदाहरणार्थ डॉ. चौहान का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘बिना नाव के माझी देखे
मैंने नदी किनारे
इनके-उनके ताने सुनना, दिन भर देह जलाना
तीस रुपैया मिले मजूरी नौ की आग बुझाना
अलग-अलग है रामकहानी
टूटे हुए शिकारे

बढ़ती जाती रोज उधारी ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने नये तगादे आना
घात सिखाई है तंगी में
किसको कौन उबारे
भरा जलाशय जो दिखता है केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया करना दम मुख को खोले-खोले
अपने स्वप्न भयावह कितने
उनके सुखद सुनहरे‘‘

श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’

हिन्दी विषय से एम.फिल., साहित्य रत्न श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’ वर्तमान में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर एस. के. डी. एकेडमी इन्टर कालेज लखनऊ में कार्यरत हैं। छन्दों की पृष्ठभूमि से निकले श्री राज की नवगीत कृति ‘मुट्ठी की रेत’ प्रकाशनाधीन है। वे निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इन्टरनेट पत्रिका अनुभूति में भी इनके गीत आये हैं। इसके अतिरिक्त, आलेख, संस्मरण, भेंटवार्ता तथा समीक्षा आदि भी प्रकाशित होते रहे हैं। पत्रकारिता एवं रंग कर्म में भी उन्होंने प्रयास किया है, लगभग एक दर्जन संकलनों में सहभागी के रूप में संकलित हैं। लखनऊ नगर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े श्रीराज ‘सर्वजन हिताय’ साहित्यिक समिति के संयोजक हैं जिसकी मासिक गोष्ठियाँ अविच्छिन्न रूप से हो रही हैं। गीत को श्री राज साहित्य सर्वोत्तम विधा मानते हैं जबकि वे छन्दों में भी बेहद कुशल हैं। उनका यह भी कहना है कि गीत के संशोधित, परिवर्धित रूप में अपनी विगत पीड़ाओं को समष्टिगत रूप देना ही वास्तविक नवगीतकार का मुख्य रचनाधर्म है और ऐसी स्थिति में यथार्थता के साथ परिवेश का चित्रण सहज ही होता है। सृजन में रचनाकार का निष्पक्ष एवं ईमानदार कथ्य ही उसे समाज से जोड़ता है उदाहरणार्थ उनका एक नवगीत मैं यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ:-

‘‘मुश्किल में मुस्कान हमारी क्या बोलूँ
संकट में पहचान हमारी
क्या बोलूँ
नालन्दा में लंदन पेरिस, कुटियों में
हम, बाजारी लाश खोजते दुखियों में
आसमान छू लिया मगर गिर गये बहुत
ग्रहण लगा बैठे धरती की खुशियों में
कैसी रही उड़ान हमारी
क्या बोलूँ
हमने थामा शास्त्र,शस्त्र को छोड़ दिया
प्यासा आया पास, तो गला रेत दिया
ऐसा तंत्र रचा विचार की मौत हुई
अपनी पीढ़ी को हमने बस पेट दिया
छवि है लहूलुहान हमारी
क्या बोलूँ’’

श्री संजय शुक्ल

स्नातक अध्यापक प्राकृतिक विज्ञान के पद पर शिक्षा विभाग, दिल्ली में कार्यरत हैं। अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। नवगीत के अतिरिक्त गजल और समीक्षक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके गीत-नवगीत प्रसारित होते हैं। अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। छन्दोबद्ध सृजन के प्रबल पक्षधर श्री शुक्ल मानते हैं कि ‘‘अपने भोगे यर्थार्थ से उपजी लौकिक-अलौकिक कल्पनाओं की कवि द्वारा की गयी कलात्मक, लयात्मक स्वर-ताल से सुसज्जित गीत रचना श्रोता और पाठक को मुग्ध करती है। नवगीत में अपने समय को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया है जो एक चुनौती है इसलिये दूर-दूर तक इसमें खुरदुरापन पसरा हुआ है। वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और लिजलिजे विज्ञापन के युग में कोमल, सरल, सरस, बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से अपने परिवेश को व्यक्त करना अब सम्भव नहीं रहा। कवियों ने नये सन्दर्भों, नये विमर्शों को पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों से जोड़ कर अपने सृजन को समृद्ध तो किया ही है साथ अर्थवत्ता को व्यापकता प्रदान की है। कवि अपनी समृष्टि और ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा से स्वान्तः सुखाय और लोक मंगल के लिये भाव प्रवण मार्मिक गीतों के साथ-साथ सत्ता की अराजकता पर व्यंग्य गीत लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे।’’

उदाहरणार्थ श्री संजय शुक्ल का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-

‘‘ठीक बरस भर बाद सुखनवाँ घर को लौट रहा
सम्भावित प्रश्नों के उत्तर
मन में सोच रहा
पूछेगी अम्मा बचुआ क्यों इतने सूख रहे
पीते प्यास रहे अपनी क्या खाते भूख रहे
कह दूंगा अम्मा शहरों की उल्टी रीति रही
वही सजीले दिखते जिनके
तन में लोच रहा
बहुत तजुर्बा है आंखें सब सच-सच पढ़ लेंगी
गरजें बापू का मन बातें क्या-क्या गढ़ लेंगी
कह दूंगा फिर भी बिदेश में मरे न मजदूरी
नहीं अधिक खटने में
मुझको भी संकोच रहा
बहिना की अंखियाँ गौने का प्रश्न उठायेंगी
भौजी दद्दा की दारू का दंश छिपायेंगी
दिल घबराया तो मनने कुछ सुखद कल्पना की
झुकी हुई दादा की मूँछें
मुन्ना नोंच रहा

चाहेंगे मनुहार प्रश्न कुछ भोले, कुछ कमसिन
हमला बाजारों से लाया बेंदी-हेयरपिन
सिल्की जोड़ों के जैसा फिर प्यार व्यार होगा
रंगमहल सा देख रेल का
जनरल कोच रहा’’

उपर्युक्त उद्धरणों और नवगीतकारों का चिन्तन, भाषा, शिल्प और कथ्य की कहन स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि ये होनहार दिखे एक दिन वटवृक्ष बनेंगे और नवगीत को आगामी सदी तक ले जायेंगे। नवोदित नवगीतकारों के सृजन में, उनकी चुनौतियों, उनके परिवेश, राष्टप्रिय एवं वैश्विक परिदृश्य तथा आम आदमी का जीवन-संघर्ष, उसकी जिजीविषा आदि के साथ विसंगतियों तथा विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति नूतन प्रतीक-बिम्बों के साथ एक ताजगी का अनुभव कराती है जिसमें वर्तमान पीढ़ी का आक्रोश, प्रतिकार तथा प्रतिरोध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। नये नवगीतकारों का दृष्टि कोण जहाँ पुराने नवगीतकारों से भिन्न है वहीं उनकी सोच का दायरा भी विस्तृत है और प्रायः अधिकांश अपनी जमीन तथा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर रहे हैं। उनके सृजन में कहीं भी छायाप्रति दिखने की गुंजाइश नहीं है। नवगीत के लिये निश्चित रूप से यह शुभलक्षण हैं जो विद्वान नवगीत के भविष्य के प्रति निराशा व्यक्त करते हैं उनसे सहमत होना सम्भव नहीं है। जब तक नवता तथा गेयता के प्रति समाज में अभिरुचि एवं आकर्षण रहेगा, लोकगीत रहेंगे, संगीत विद्यमान रहेगा, तब तक नवगीत की उपस्थिति चेतना को झकझोरती रहेगी और नये-नये नवगीतकार नवगीत को नया रूप-सौन्दर्य और समसामयिक यथार्थबोध अलंकृत कर आगे बढ़ाते रहेंगे।