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शनिवार, 31 मई 2025

मई ३१, श्री-श्री, कला, तुम, सिर, दोहा, कुंडली, नवगीत, समीक्षा

सलिल सृजन मई ३१ 
विश्व शुक (तोता, पैरट) दिवस
*
बाल मुक्तिका:
हरियल तोता
*



सबका प्यारा हरियल तोता.
चुग्गा चुगता खुशियाँ बोता..

आसमान में उड़ते तोते
देख कैद पिंजरे में रोता..

टें-टें कर सिर पटक-पटककर
अमन-चैन, सुध-बुध भी खोता..

नासमझी कर पलट कटोरी
पानी की- प्यासा ही सोता..

सुबह-सुबह जग राम-राम कह
सबको सुख देकर खुश होता..

भीगे चने मिर्च ताज़ा फल
रुच-रुच खाता ज्यों हो न्योता..

गर्मी लगती पंख भिगाता
फिर फैला पर सुखा-निचोता..

हीरामन को दिखती मैना.
नैन लड़ाता, दिल भी खोता..
***
श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
प्लास्टिक का उपयोग तज, करें जूट-उपयोग।
दोना-पत्तल में लगे, अबसे प्रभु को भोग।।
*
रेशम-रखे बाँधकर, रखें प्लास्टिक दूर।
माला पहना सूत की, स्नेह लुटा भरपूर।।
*
हम प्रकृति को पूज लें जीव-जंतु-तरु मित्र।
इनके बिन हो भयावह, मित्र प्रकृति का चित्र।।
*
प्लास्टिक से मत जलाएँ पैरा, खरपतवार।
माटी-कीचड में मिला, कर भू का सिंगार।।
*
प्रकृति की पूजा करें, प्लास्टिक तजकर बंधु।
प्रकृति मित्र-सुत हों सभी, बनिए करुणासिंधु।।
*
अतिसक्रियता से मिले, मन को सिर्फ तनाव।
अनजाने गलती करे, मानव यही स्वाभाव।।
*
जीवन लीला मात्र है, ब्रम्हज्ञान कर प्राप्त।
खुद में सारे देवता, देख सको हो आप्त।।
*
धारा अनगिन ज्ञान की, साक्षी भाव निदान।
निज आनंद स्वरुप का, तभे हो सके ज्ञान।।
*
कथा-कहानी बूझकर, ज्ञान लीजिए सत्य।
ज्यों का त्यों मत मानिए, भटका देगा कृत्य।।
*
मछली नैन न मूँदती, इंद्र नैन ही नैन।
गोबर क्या?, गोरक्ष क्या?, बूझो-पाओ चैन।।
*
जहाँ रुचे करिए वहीं, सता कीजिए ध्यान।
सम सुविधा ही उचित है, साथ न हो अभिमान
३१.५.२०१८
***
कला, शब्द मीमांसा
**
' कला ' शब्द की मीमांसा करते हुए किसी ने कहा कि- " कं, सुखं लाति आहलादति इति कला।" कला शब्द भारतीय वाङ्गमय में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जिसे देख सुन कर सुख मिले वह क्रिया कला है। भारतीय काल गणना के एक इकाई के लिये भी कला शब्द प्रयुक्त होता है। ( कला काष्ठा निमेष आदि ) चन्द्रमा के प्रतिपदा से पूर्णिमा तक अमावस्या सहित वार्ध्यक को भी कला कहा जाता है जिसकी सोलह कलाएं मानी जाती हैं। सूर्य के भी बारह कलाएं हैं, इसी लिये यह द्वादशात्मा है। कोणात्मक दूरी के एक लघु इकाई को भी कला कहा जाता है। कला शब्द नारी के रज के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। मूल धन पर मिलने वाले व्याज को भी कला कहते हैं।
किन्तु इन विशेष अर्थों से अधिक कला शब्द का गुणवाचक अर्थ में प्रयोग अधिक सामान्य मिलता है। भारतीय वाङ्गमय में चौसठ कलाओं का वर्णन मिलता है। मनुष्य अपनी चातुरी से जिन भौतिक साधनों में सौंदर्य बढ़ा कर निखार लाता है वह " कला" है। कला के इन चौंसठ रूपों में जैसे - भोजन बनाने की कला को ' शाक पूप कला' या पाक कला, चावल के घोल या फूल से चौक बनाने की कला को ' तंडुल कुसुमावली विकार,' आदि कहते हैं। इन सभी चौसठ कलाओं का नाम गणना करना अभीष्ट नहीं है। इन चौसठ कलाओं में पाँच की गणना ललित कलाओं में होती है जो हैं- शिल्प कला, चित्र कला, संगीत/नृत्य कला , नाट्य कला, और काव्य कला। ताज महल शिल्प कला का उदाहरण है तो मोना लिसा की पेंटिंग दूसरी और है। लता के गीत एक और विस्मिल्ला खान की शहनाई दूसरी ओर। नाट्य कला में अमिताभ का अभिनय कौशल सभी आह्लादित करते हैं। इन्हें देख सुन बरबस ही वाह कहना पड़ता है। किन्तु काव्य कला इन सब में सूक्ष्म है, इसी लिये तो यह ब्रह्मानन्द सहोदर है।
चरण पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
*
मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
*
मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
*
प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
*
ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
*
मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
३१.५.२०१८
***
नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
२४-२-२०१६
***
पहेली
जेब काट ले प्राण निकाल
बचो, आप को आप सम्हाल.
प्रिय बनकर जब लूटे डाकू
क्या बोलोगे उसको काकू?
उत्तर
घातक अधिक न उससे चाकू
जान बचा छोड़ो तम्बाकू
***
दोहा सलिला:
दोहा का रंग सिर के संग
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया काज
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाए कभी, दुश्मन रखिये ध्यान
सरकश का सर झुककर रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न
जो पौरुष करता नहीं, रहता सदा विपन्न
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें फिर शाद
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल
*
अगर न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पांच साल गायब रहे, जाए जमानत डूब
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सर जोड़ें मिल-बैठ
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
*
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान
***
कृति चर्चा:
शेष कुशल है : सामायिक जनभावनाओं से सराबोर काव्य संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: शेष कुशल है, कविता संग्रह, सुरेश 'तन्मय', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ८४, ६० रु., भेल हिंदी साहित्य परिषद् एल ३३/३ साकेत नगर, भेल, भोपाल , कवि संपर्क: २२६ माँ नर्मदे नगर, बिलहरी,जबलपुर ४८२०२०, चलभाष ९८९३२६६०१४, sureshnimadi@gmail.com ]
*
पिछले डेढ़ दशक से मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिखने-छपने और साहित्यिक गोष्ठियों से अनुपस्थित रहने के बावजूद पुस्तकों की अबाध प्राप्ति सुख-दुःख की मिश्रित प्रतीति कराती है.
सुख दो कारणों से प्रथम अल्पज्ञ रचनाकार होने के बाद भी मित्रों के स्नेह-सम्मान का पात्र हूँ, द्वितीय यह कि शासन-प्रशासन द्वारा हिंदी की सुनियोजित उपेक्षा के बाद भी हिंदी देश के आम पाठक और रचनाकार भी भाषा बनी हुई है और उसमें लगातार अधिकाधिक साहित्य प्रकाशित हो रहा है.
दुःख के भी दो कारण हैं. प्रथम जो छप रहा है उसमें से अधिकांश को रचनाकार ने सँवारे-तराशे-निखारे बिना प्रस्तुत करना उचित समझा, रचनाओं की अंतर्वस्तु में कथ्य, शिल्प आदि अनगढ़ता कम फूहड़ता अधिक प्राप्य है. अधिकतम पुस्तकें पद्य की हैं जिनमें भाषा के व्याकरण और पिंगल की न केवल अवहेलनाहै अपितु अशुद्ध को यथावत रखने की जिद भी है. दुसरे मौलिकता के निकष पर भी कम ही रचनाएँ मिलती हैं. किसी लोकप्रिय कवि की रचना के विषय पर लिखने की प्रवृत्ति सामान्य है. इससे दुहराव तो होता ही है, मूल रचना की तुलना में नयापन या बेहतरी भी नहीं प्राप्त होती. प्रतिवर्ष शताधिक पुस्तकें पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जगाने, अथवा याद रखकर कहीं उद्धृत करने के लिये उपयुक्त रचनांश कम ही मिलता है.
पुस्तक की आलोचना, विवेचना अथवा समीक्षा को सहन करने, उससे कुछ ग्रहण करने और बदलाव करने के स्थान पर उसमें केवल और केवल प्रशंसा पाने और न मिलने पर समीक्षक के प्रति दुर्भाव रखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. किसी अचाही किताब को पढ़ना, फिर उस पर कुछ लिखना, उससे कुछ लाभ न होने के बाद भी सम्बन्ध बिगाड़ना कौन चाहेगा? इस कारण पुस्तक-चर्चा अप्रिय कर्म हो गया है और उसे करते समय सजगता आवश्यक हो गयी है. इस परिस्थिति में आलोचना शास्त्र के नये सिद्धांत विकसित होना, नयी पद्धतियों का अन्वेषण कैसे हो? वैचारिक प्रतिबद्धतायें, विधागत संकीर्णता अथवा उद्दंडता, शब्दरूपों और भाषारूपों में क्षेत्रीय विविधताएं भी कठिनाई उपस्थित करती हैं. पारिस्थितिक दुरूहताओं के संकेतन के बाद अब चर्चा हो काव्य संग्रह 'शेष कुशल है' की.
'शेष कुशल है' की अछान्दस कवितायें जमीन से जुड़े आम आदमी की संवेदनाओं की अन्तरंग झलकी प्रस्तुत करती हैं. सुरेश तन्मय निमाड़ी गीत संग्रह 'प्यासों पनघट', हिंदी काव्य संग्रह 'आरोह-अवरोह' तथा बाल काव्य संग्रह 'अक्षर दीप जलाये' के बाद अपनी चतुर्थ कृति 'शेष कुशल है' में उन्नीस लयात्मक-अछांदस काव्य-सुमनों की अंजुली माँ शारदा के चरणों में समर्पित कर रहे हैं. तन्मय जी वर्तमान पारिस्थितिक जटिलताओं, अभावों और विषमताओं से परिचित हैं किन्तु उन्हें अपनी रचनाओं पर हावी नहीं होने देते. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जानकार (आयुर्वेद रत्न ) होने के कारण तन्मय जी जानते हैं कि त्रितत्वों का संतुलन बनाये बिना व्याधि दूर नहीं होती. कविता में कथ्य, कहन और शिल्प के तीन तत्वों को बखूबी साधने में कवि सफल हुआ है.
कविताओं के विषय दैनंदिन जीवन और पारिवारिक-सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं. अत:, पाठक को अपनत्व की अनुभूति होती है. कहन सहज-सरल प्रसाद गुण युक्त है. तन्मय जी वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं. संग्रह की महत्वपूर्ण रचना 'गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी' (२५ पृष्ठ) घर के हर सदस्य से लेकर पड़ोस, गाँव के हर व्यक्ति के हाल-चाल, घटनाओं और संवादों के बहाने पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगतियों का उद्घाटन मात्र नहीं करती अपितु मन को झिन्झोड़कर सोचने के लिए विवश कर देती है. बड़े भाई द्वारा छोटे को पढ़ाने-बढ़ाने के लिये स्वहितों का त्याग, छोटे द्वारा शहर में उन्नति के बाद भी गाँव से और चाहना, बड़े का अभावों से गहराते जाना, बड़ों और भाभी का अशक्त होना, छोटे से की गयी अपेक्षाओं का बहन होने की व्यथा-कथा पढ़ता पाठक करुणा विगलित होकर पात्रों से जुड़ जाता है. 'हम सब यहाँ / मजे में ही हैं' और 'तेरी मेहनत सफल हुई / कि अपना एक मकान हो गया / राजधानी भोपाल में' से आरम्भ पत्र क्रमश: 'छोटे! घर के हाल / बड़े बदहाल हो गए', 'तेरी भाभी को गठिया ने / घेर लिया है', 'भाई तू बेटा भी तू ही', 'सहते-सहते दरद / हो गयी है आदत / अब तो जीने की', 'इस राखी पर भाई मेरे / तू आ जाना / बहनों से हमसे मिल / थोडा सुख दे जाना', 'थोड़ी मदद मुझे कर देना / तेरी भाभी का इलाज भी करवाना है... ना कर पाया कुछ तो / फिर जीवन भर / मुझको पछताना है'', 'तूने पूछे हाल गाँव के / क्या बतलाऊँ? / पहले जैसा प्रेम भाव / अब नहीं रहा है', 'पञ्च और सरपंच / स्वयं को जिला कलेक्टर / लगे समझने', 'किस्मत में किसान की / बिन पानी के बादल / रहते छाये', 'एक नयी आफत सुन छोटे / टी वी और केबल टी वी ने / गाँवों में भी पैर पसारे', 'गाँवों के सब / खेत-जमीनें / शहरी सेठ / खरीद रहे हैं', ब्याज, शराब, को ओपरेटिव सोसायटी के घपले, निर्जला हैण्ड पंप, बिजली का उजाला, ग्रामीण युवकों का मेहनत से बचना, चमक-दमक, फ्रिज-टी वी आदि का आकर्षण, शादी-विवाह की समस्या के साथ बचपन की यादों का मार्मिक वर्णन और अंत में 'याद बनाये रखना भाई / कि तेरा भी एक भाई है'. यह एक कविता ही पाने आप में समूचे संग्रह की तरह है. कवि इसे बोझिलता से बचाए रखकर अर्थवत्ता दे सका है.
डॉ. साधना बलवटे ने तन्मय जी की रचनाओं में समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की पहचान ठीक ही की है. ये कवितायें सरलता और तरलता का संगम हैं. एक बानगी देखें:
समय मिले तो / आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं.
ना हम पंडित / ना हैं ज्ञानी
ना भौतिक / ना रस विज्ञानी
हम नदिया के / बहते पानी
भरो अंजुरी और /आचमन कर लो
हम बहुत तरल हैं
कन्या भ्रूण के साहसी स्वर, बहू-बल, मित्र, चैरेवती, मेरे पिता, माँ, बेटियाँ आदि रचनाएं रिश्तों की पड़ताल करने के साथ उनकी जड़ों की पहचान, युवा आकाक्षाओं की उड़ान और वृद्ध पगों की थकान का सहृदयता से शब्दांकन कर सकी हैं. वृक्ष संदेश पर्यावरणीय चेतना की संदेशवाही रचना है. नुक्कड़ गीत टोल-मोलकर बोल जमूरे, जाग जमूरे आदि नुक्कड़ गीत हैं जो जन जागरण में बहुत उपयोगी होंगे.
सुरेश तन्मय का यह काव्य संग्रह तन्मयतापूर्वक पढ़े जाने की मांग करता है. तन्मय जी आयुर्वेद के कम और सामाजिक रोगों के चिकित्सक अधिक प्रतीत होते हैं. कहीं भी कटु हुए बिना विद्रूपताओं को इंगित करना और बिना उपदेशात्मक मुद्रा के समाधान का इंगित कर पाना उन्हें औरों से अलग करता है. ये कवितायें कवी के आगामी संकलनों के प्रति नयी आशा जगाती है. आचार्य भगवत दुबे ठीक है कहते हैं कि 'ये (कवितायें) कहीं न कहीं हमारे मन की बातों का ही प्रतिबिम्ब हैं.
***
कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
***
कृति चर्चा:
समवेत स्वर: कविताओं का गजर
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समवेत स्वर, सामूहिक कविता संग्रह, संपादक विजय नेमा 'अनुज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ७० + २६ , २०० रु., वर्तिका प्रकाशन जबलपुर]
*
साहित्य सर्व हित की कामना से रचा जाता है. समय के साथ सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का कथ्य, शिल्प, भाषा और भंगिमा में सतत परिवर्तन स्वाभाविक है. जबलपुर की साहित्यिक संस्था वर्तिका ने १०२७ से १९८५ के मध्य जन्में ७० कवियों की एक-एक कविता, चित्र, जन्म तिथि तथा पते का संग्रह समवेत शीर्षक से सक्रिय साहित्य सेवी विजय नेमा 'अनुज' के संपादन में प्रकाशित किया है. इसमें नगर के कई रचनाकार सम्मिलित हैं कई रह गये हैं. यदि शेष को भी जोड़ा जा सकता तो यह नगर के समकालिक साहित्यकारों का प्रतिनिधि संकलन हो सकता था.
भूमिका में डॉ. हरिशंकर दुबे के आकलन के अनुसार "काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से नहीं भाव और बोध की दृष्टि से यह पाठकीय प्यार की अभिलाषा वाले स्वर हैं. नयी पीढ़ी में एक व्याकुल अधीरता है, शीघ्र से शीघ्र पा लेने की. ३० वर्ष से ८७ वर्ष के आयु वर्ग और एक से ६ दशकों तक काव्य कर्म में जुटी कलमों में नयी पीढ़ी का किसे माना जाए? अधिकांश सहभागियों की स्वतंत्र कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं अथवा कई पत्र-पत्रिकाओं में कई बार रचनायें छप चुकी हैं तथापि रचनाओं को काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से उपयुक्त न पाया जाए तो संकलन के उद्देश्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है. २० पृष्ठों में भूमिका, सन्देश आदि का विस्तार होने पर भी सम्मिलित रचनाओं और रचनाकारों के चयन के आधार, उनकी गुणवत्ता, उनमें अन्तर्निहित शिल्प, कथ्य, शैली, रस, छंद आदि की चर्चा तो दूर उल्लेख तक न होना चकित करता है.
वर्तिका द्वारा पूर्व में भी सामूहिक काव्य संकलन प्रकाशित किये जा चुके हैं. वर्ष २००८ में प्रकाशित अभिव्यक्ति (२२० पृष्ठ, २०० रु.) में ग़ज़ल खंड में ४० तथा गीत खंड में २५ कुल ६५ कवियों को २-२ पृष्ठों में सुरुचिपूर्वक प्रकाशित किया जा चुका है. अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य नगर के बाहर बसे कुछ श्रेष्ठ कवि-सदस्यों को जोड़ना था. इस संग्रह की गुणवत्ता और रचनाओं की पर्याप्त चर्चा भी हुई थी.
वर्तमान संग्रह की सभी रचनाओं को पढ़ने पर प्रतीत होता है कि ये रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाएँ नहीं हैं. विषय तथा विधा का बंधन न होने से संग्रह में संपादन की दृष्टि से स्वतंत्रता ली गयी है. असम्मिलित रचनाकारों की कुछ श्रेष्ठ पंक्तियाँ दी जा सकतीं तो संग्रह की गुणवत्ता में वृद्धि होती. सूची में प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', श्री किशोरीलाल नेमा, प्रो. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', डॉ. कृष्ण कान्त चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार 'सुमित्र', आचार्य भगवत दुबे, प्रो. राजेंद्र तिवारी, श्रीमती लक्ष्मी शर्मा, श्री इंद्रबहादुर श्रीवास्तव 'इंद्र', मेराज जबलपुरी, सुरेश तन्मय, सुशिल श्रीवास्तव, मनोहर चौबे 'आकाश', विजय तिवारी 'किसलय', गजेन्द्र कर्ण, विवेकरंजन श्रीवास्तव, अशोक श्रीवास्तव 'सिफर', गीता 'गीत', डॉ. पूनम शर्म तथा सोहन परोहा 'सलिल' जैसे हस्ताक्षर होना संग्रह के प्रति आश्वस्त करता है.
ऐसे सद्प्रयास बार-बार होने चाहिए तथा कविता के अतिरिक्त अन्य विधाओं पर भी संग्रह होने चाहिए.
३१-५-२०१५
***
नवगीत:
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
२७-५-२०१५
***
नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
***
लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
*
वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
३१-५-२०१४
***
मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
*******
३१-५-२०१०

शुक्रवार, 30 मई 2025

मई ३०, दिंडी छंद, राम अधीर, हिंदी, मनहरण, मारीशस, हाइकु, पलाश, तांका, सावन

सलिल सृजन मई ३० 
*
गीत
बावरा मन
*
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
भुला बैठा आत्म को, परमात्म को भी
मुग्ध हैं नित निरख नवता नवल तन की
बावरा मन जाग सुमिरे लय भजन की
*
तंत्र का बन यंत्र मिथ्या मंत्र पढ़ता
नहीं दिखता इसे जोशीमठ बिखरता
काट जंगल, खोद पर्वत यह ठठाता
ताप बढ़ता धरा का इसको न नाता
हुआ दूषित पवन दूभर श्वास लेना
सूखती नदियां इसे लेना न देना
घिरा भक्तों से न चिंता है सुजन की
बताता जुमला न रख लज्जा वचन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
रंग बदले देख गिरगिट भी लजाता
ढंग बेहद अहंकारी, सच न भाता
ध्वज तिरंगा नहीं, भगवा चाहता यह
देशद्रोही विपक्षी को नित रहा कह
करे मनमानी न सहमति-पथ सुहाता
इसे उससे उसे इससे नित लड़ाता
पीर सुनता ही नहीं मन कृषक मन की
जले मणिपुर पर न चिंता है स्वजन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
आम था हो खास, खासुलखास है अब
कह रहा लिखना नया इतिहास है अब
नष्ट कर सद्भावना, विद्वेष बोता
दूरियों को जन्म दे, अपनत्व खोता
कीर्ति अपनी आप गाते नहिं अघाता
निकल जाए समय तो ठेंगा दिखाता
आग सुलगा बात करता है अमन की
है कहानी हर असहमति के दमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
अहंकारी विरासत को ही भुलाता
श्रेय औरों का सदा अपना बताता
लगता है हर जगह निज नाम-पत्थर
तीर्थों में देव-दर्शन पर लगा कर
व्यर्थ जन-धन भव्य संसद बना करता
लोकमत पर तंत्र को देता प्रमुखता
गालियाँ दे, चाह करता है नमन की
मरुथलों पर पट्टिका चिपका चमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
२६-५-२०२३
***
नवगीत
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
***
बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
***
दोहे
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
३०-५-२०१८
***

नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल धरती नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।
***
एक दूर वार्ता
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
३०-५-२०१७
***
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
***
एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]
३०-५-२०१६
***
मुक्तक:
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*
***
दोहा सलिला:
*
अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
***
द्विपदी सलिला :
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
***
हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५
***
चौपाल-चर्चा:
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
३०-५-२०१४
***
तांका: एक परिचय
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
३०-५-२०१३
***
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
***
घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
३०-५-२०११
***
मुक्तिका
.....डरे रहे.
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम हरे-भरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
जल मगन हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
लें समझ मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
***
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
***

गुरुवार, 29 मई 2025

मई २९, सॉनेट, हाइकु, तुम, शिरीष, हिंदी, मुँह, रोला, नवगीत, दोहा, फ़िजी

सलिल सृजन मई २९
*
मुक्तक
खुदी को तराशो खुदा हो सकोगे
जमें जड़ जमीं में न तब को सकोगे
न यायावरी से मिलें मंजिलें तो
करो कोशिशें फिर फसल बो सकोगे
आप व्याप शाप को वरदान कर रहे
गुणहीन को सत्संग से गुणवान कर रहे
नीरस तरस बरस हुआ है सरस आपसे
रसहीन को रसवान औ' रसखान कर रहे
.
बुला! लाई लाई करो कोशिशें मिल।
मताका मताका सके हर हृदय खिल।।
विनाका फिजी का करे भूमि भारत-
लेबूलेम अपना हमेशा रहे दिल।।
(फिजी - हिंदी भाषा संगम)
२९.५.२०२५
०0०
सॉनेट
कब कहाँ कैसे किया क्यों कह कहेगा कौन?
अनजान अब अज्ञानता से चाहता है मुक्ति।
आत्म फिर परमात्म से हो चाहता संयुक्ति।।
प्रश्न पूछे निरंतर उत्तर मिला बस मौन।।
नर्मदा में जो सलिल वह ही समेटे दौन।
यहाँ भी पुजती, वहाँ भी पुज रही है शक्ति।
काम का प्राबल्य क्यों गायब अकामा भक्ति।।
दादियों को छेड़ते पोते, भटकता यौन।।

लक्ष्य चुनकर पंथ पर पग रख बढ़ो पग-पग
गिर उठो सँभलो, नहीं तुम कोशिशें छोड़ो
नापता जो नापने दो बनाए नव माप।
कहो हर अटकाव से, भटकाव से मत ठग
हौसलों को दे चुनौती जो उसे तोड़ो
आप अपने आप जाता आप ही में व्याप।।
२९.५.२०२५
०0०
सॉनेट
संस्कार
*
मनुज सभ्यता नव आचार
हर दिन गढ़ें नया आयाम
चेतनता का द्रुत विस्तार
कर अनुकूल परिस्थिति वाम
निज-पर की तोड़ें दीवार
देख सभी में ईश अनाम
कर पाएं उसका दीदार
जो कारण है, जो परिणाम
संस्कार जीवन आsधार
नाम दिलाए रह बेनाम
दे चरित्र को नवल निखार
बिगड़े हुए बनाए काम
संस्कार बिन विधि हो वाम
सज्जन संस्कार के धाम
२९-५-२०२३
***
हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
***
गीत
तुम
*
तुमको देखा, खुदको भूला
एक स्वप्न सा बरबस झूला
मैं खुद को ही खोकर हँसता
ख्वाब तुम्हारे में जा बसता
तुमने जब दर्पण में देखा
निज नयनों में मुझको लेखा
हृदय धड़कता पड़ा सुनाई
मुझ तक बंसी की ध्वनि आई
दूर दूर रह पास पास थे
कुछ हर्षित थे, कुछ उदास थे
कौन कहे कैसे कब क्या घट
देख रहा था जमुन तीर वट
वेणु नाद था कहीं निनादित
नेह नर्मदा मौन प्रवाहित
छप् छपाक् वर्तुल लहराए
मोर पंख शत शत फहराए
सुरभि आ रही वातायन से
गीत सुन पड़ा था गुंजन से
इंद्रधनुष तितली ले आई
निज छवि तुममें घुलती पाई
लगा खो गए थे क्या मैं तुम?
विस्मित सस्मित देख हुए हम
खुद ने खुद को पाया था गुम
दर्पण में मैं रहा न, धीं तुम।
२९-५-२०२१
***
कार्यशाला
आइये! कविता करें १० :
.
लता यादव
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
हारना हिम्मत न अपनी कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
कितनी आएं आँधी या तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
तू अकेला ही चला चल पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
कृपया मात्रा भार से भी अवगत करायें गणना करने में कठिनाई का अनुभव करती हूँ , धन्यवाद
संजीव:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28 हारना हिम्मत न अपनी, कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 15 = 29 कितनी आएं आँधी या, तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
112 22 22 2, 221 22 21 22 = 14, 16 = 30 तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो । 2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
दूसरी पंक्ति में एक मात्रा अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा तीसरी पंक्ति में २ मात्राएँ अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा आँधी या का उच्चारण 'आंधियां' की तरह होता है.
इसे सुधारने का प्रयास करते हैं:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28
हारना हिम्मत न अपनी, भले ही टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 14 = 28
आँधियाँ तूफान कितने, मार्ग तेरा रोकते हों
२१२ ११२ ११२, २१ २२ २१२ २ = 14, 14 = 28
तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
***
नवगीत:
शिरीष
.
क्षुब्ध टीला
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा, पाता बुरा ही
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध 'शिरीष के फूल' है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.
***
शृंगार गीत
तुम
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
२९-५-२०१६
***
नवगीत:
मातृभाषा में
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
***
दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*
मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष
जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
मुँह की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
२९-५-२०१५
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हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
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विमर्श :
क्या चुनाव में दलीय स्पर्धा से उपजी कड़वाहट और नेताओं में दलीय हित को राष्ट्रीय हित पर वरीयता देने को देखते हुए राष्ट्रीय सरकार भविष्य में अधिक उपयुक्त होगी?
संविधान नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने देता है. दलीय उम्मीदवार को दल से इतनी सहायता मिलती है की आम आदमी उम्मीदवार बनने का सोच भी नहीं सकता।
स्वतंत्रता के बाद गाँधी ने कांग्रेस भंग करने की सलाह दी थी जो कोंग्रेसियों ने नहीं मानी, अटल जी ने प्रधान मंत्री रहते हुए राष्ट्रीय सरकार की बात थी किन्तु उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था और सहयोगी दलों को उनकी बात स्वीकार न हुई. क्यों न इस बिंदु के विविध पहलुओं पर चर्चा हो.
छंद सलिला:
रोला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, चार पद, प्रति चरण दो पद - मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह तेरह, पदांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण), विषम पद सम तुकांत,
लक्षण छंद:
आठ चरण पद चार, ग्यारह-तेरह यति रखें
आदि जगण तज यार, विषम-अंत गुरु-लघु दिखें
गुरु-गुरु से सम अंत, जाँचकर रचिए रोला
अद्भुत रस भण्डार, मजा दे ज्यों हिंडोला
उदाहरण:
१. सब होंगे संपन्न, रात दिन हँसें-हँसायें
कहीं न रहें विपन्न, कीर्ति सुख सब जन पायें
भारत बने महान, श्रमी हों सब नर-नारी
सद्गुण की हों खान, बनायें बिगड़ी सारी
२. जब बनती है मीत, मोहती तभी सफलता
करिये जमकर प्रीत, न लेकिन भुला विफलता
पद-मद से रह दूर, जमाये निज जड़ रखिए
अगर बन गए सूर, विफलता का फल चखिए
३.कोटि-कोटि विद्वान, कहें मानव किंचित डर
तुझे बना लें दास, अगर हों हावी तुझपर
जीव श्रेष्ठ निर्जीव, हेय- सच है यह अंतर
'सलिल' मानवी भूल, न हों घातक कम्प्यूटर
टीप:
रोल के चरणान्त / पदांत में गुरु के स्थान पर दो लघु मात्राएँ ली जा सकती हैं.
सम चरणान्त या पदांत सैम तुकान्ती हों तो लालित्य बढ़ता है.
रचना क्रम विषम पद: ४+४+३ या ३+३+२+३ / सम पद ३+२+४+४ या ३+२+३+३+२
कुछ रोलाकारों ने रोला में २४ मात्री पद और अनियमित गति रखी है.
नविन चतुर्वेदी के अनुसार रोला की बहरें निम्न हैं:
अपना तो है काम छंद की करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३
भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़कर बोले
फाइलुन मफऊलु / फ़ईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३
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(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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दोहा सलिला:
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एक न सबको कर सके, खुश है सच्ची बात
चयनक जाने पात्रता, तब ही चुनता तात
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सिर्फ किताबी योग्यता, का है नहीं महत्व
समझ, लगन में भी 'सलिल', कुछ तो है ही तत्व
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संसद से कैक्टस हटा, रोपी तुलसी आज
बने शरीफ शरीफ अब, कोशिश का हो राज
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सुख कम संयम की अधिक, शासक में हो चाह
नियम मानकर आम सम, चलकर पाये वाह
*
जो अरविन्द वही कमल, हुए न फिर भी एक
अपनी-अपनी राह चल, कार्य करें मिल नेक
२९-५-२०१४
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