सलिल सृजन मई ३१
विश्व शुक (तोता, पैरट) दिवस
*बाल मुक्तिका:
हरियल तोता
*
सबका प्यारा हरियल तोता.
चुग्गा चुगता खुशियाँ बोता..
आसमान में उड़ते तोते
देख कैद पिंजरे में रोता..
टें-टें कर सिर पटक-पटककर
अमन-चैन, सुध-बुध भी खोता..
नासमझी कर पलट कटोरी
पानी की- प्यासा ही सोता..
सुबह-सुबह जग राम-राम कह
सबको सुख देकर खुश होता..
भीगे चने मिर्च ताज़ा फल
रुच-रुच खाता ज्यों हो न्योता..
गर्मी लगती पंख भिगाता
फिर फैला पर सुखा-निचोता..
हीरामन को दिखती मैना.
नैन लड़ाता, दिल भी खोता..
***
श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन
अमन-चैन, सुध-बुध भी खोता..
नासमझी कर पलट कटोरी
पानी की- प्यासा ही सोता..
सुबह-सुबह जग राम-राम कह
सबको सुख देकर खुश होता..
भीगे चने मिर्च ताज़ा फल
रुच-रुच खाता ज्यों हो न्योता..
गर्मी लगती पंख भिगाता
फिर फैला पर सुखा-निचोता..
हीरामन को दिखती मैना.
नैन लड़ाता, दिल भी खोता..
***
श्री-श्री चिंतन: दोहा गुंजन
*
प्लास्टिक का उपयोग तज, करें जूट-उपयोग।
दोना-पत्तल में लगे, अबसे प्रभु को भोग।।
*
रेशम-रखे बाँधकर, रखें प्लास्टिक दूर।
माला पहना सूत की, स्नेह लुटा भरपूर।।
*
हम प्रकृति को पूज लें जीव-जंतु-तरु मित्र।
इनके बिन हो भयावह, मित्र प्रकृति का चित्र।।
*
प्लास्टिक से मत जलाएँ पैरा, खरपतवार।
माटी-कीचड में मिला, कर भू का सिंगार।।
*
प्रकृति की पूजा करें, प्लास्टिक तजकर बंधु।
प्रकृति मित्र-सुत हों सभी, बनिए करुणासिंधु।।
*
अतिसक्रियता से मिले, मन को सिर्फ तनाव।
अनजाने गलती करे, मानव यही स्वाभाव।।
*
जीवन लीला मात्र है, ब्रम्हज्ञान कर प्राप्त।
खुद में सारे देवता, देख सको हो आप्त।।
*
धारा अनगिन ज्ञान की, साक्षी भाव निदान।
निज आनंद स्वरुप का, तभे हो सके ज्ञान।।
*
कथा-कहानी बूझकर, ज्ञान लीजिए सत्य।
ज्यों का त्यों मत मानिए, भटका देगा कृत्य।।
*
मछली नैन न मूँदती, इंद्र नैन ही नैन।
गोबर क्या?, गोरक्ष क्या?, बूझो-पाओ चैन।।
*
जहाँ रुचे करिए वहीं, सता कीजिए ध्यान।
सम सुविधा ही उचित है, साथ न हो अभिमान
३१.५.२०१८
***
कला, शब्द मीमांसा
**
' कला ' शब्द की मीमांसा करते हुए किसी ने कहा कि- " कं, सुखं लाति आहलादति इति कला।" कला शब्द भारतीय वाङ्गमय में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जिसे देख सुन कर सुख मिले वह क्रिया कला है। भारतीय काल गणना के एक इकाई के लिये भी कला शब्द प्रयुक्त होता है। ( कला काष्ठा निमेष आदि ) चन्द्रमा के प्रतिपदा से पूर्णिमा तक अमावस्या सहित वार्ध्यक को भी कला कहा जाता है जिसकी सोलह कलाएं मानी जाती हैं। सूर्य के भी बारह कलाएं हैं, इसी लिये यह द्वादशात्मा है। कोणात्मक दूरी के एक लघु इकाई को भी कला कहा जाता है। कला शब्द नारी के रज के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। मूल धन पर मिलने वाले व्याज को भी कला कहते हैं।
किन्तु इन विशेष अर्थों से अधिक कला शब्द का गुणवाचक अर्थ में प्रयोग अधिक सामान्य मिलता है। भारतीय वाङ्गमय में चौसठ कलाओं का वर्णन मिलता है। मनुष्य अपनी चातुरी से जिन भौतिक साधनों में सौंदर्य बढ़ा कर निखार लाता है वह " कला" है। कला के इन चौंसठ रूपों में जैसे - भोजन बनाने की कला को ' शाक पूप कला' या पाक कला, चावल के घोल या फूल से चौक बनाने की कला को ' तंडुल कुसुमावली विकार,' आदि कहते हैं। इन सभी चौसठ कलाओं का नाम गणना करना अभीष्ट नहीं है। इन चौसठ कलाओं में पाँच की गणना ललित कलाओं में होती है जो हैं- शिल्प कला, चित्र कला, संगीत/नृत्य कला , नाट्य कला, और काव्य कला। ताज महल शिल्प कला का उदाहरण है तो मोना लिसा की पेंटिंग दूसरी और है। लता के गीत एक और विस्मिल्ला खान की शहनाई दूसरी ओर। नाट्य कला में अमिताभ का अभिनय कौशल सभी आह्लादित करते हैं। इन्हें देख सुन बरबस ही वाह कहना पड़ता है। किन्तु काव्य कला इन सब में सूक्ष्म है, इसी लिये तो यह ब्रह्मानन्द सहोदर है।
चरण पूर्ति:
मुझे नहीं स्वीकार -प्रथम चरण
*
मुझे नहीं स्वीकार है, मीत! प्रीत का मोल.
लाख अकिंचन तन मगर, मन मेरा अनमोल.
*
मुझे नहीं स्वीकार है, जुमलों का व्यापार.
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे मिले सरकार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -द्वितीय चरण
*
प्रीत पराई पालना, मुझे नहीं स्वीकार.
लगन लगे उस एक से, जो न दिखे साकार.
*
ध्यान गैर का क्यों करूँ?, मुझे नहीं स्वीकार.
अपने मन में डूब लूँ, हो तेरा दीदार.
*
मुझे नहीं स्वीकार -तृतीय चरण
*
माँ सी मौसी हो नहीं, रखिए इसका ध्यान.
मुझे नहीं स्वीकार है, हिंदी का अपमान.
*
बहू-सुता सी हो सदा, सुत सा कब दामाद?
मुझे नहीं स्वीकार पर, अंतर है आबाद.
*
मुझे नहीं स्वीकार -चतुर्थ चरण
*
अन्य करे तो सर झुका, मानूँ मैं आभार.
अपने मुँह निज प्रशंसा, मुझे नहीं स्वीकार.
*
नहीं सिया-सत सी रही, आज सियासत यार!.
स्वर्ण मृगों को पूजना, मुझे नहीं स्वीकार.
३१.५.२०१८
***
नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
२४-२-२०१६
***
पहेली
जेब काट ले प्राण निकाल
बचो, आप को आप सम्हाल.
प्रिय बनकर जब लूटे डाकू
क्या बोलोगे उसको काकू?
उत्तर
घातक अधिक न उससे चाकू
जान बचा छोड़ो तम्बाकू
***
दोहा सलिला:
दोहा का रंग सिर के संग
*
पहले सोच-विचार लें, फिर करिए कुछ काम
व्यर्थ न सिर धुनना पड़े, अप्रिय न हो परिणाम
*
सिर धुनकर पछता रहे, दस सिर किया काज
बन्धु सखा कुल मिट गया, नष्ट हो गया राज
*
सिर न उठा पाए कभी, दुश्मन रखिये ध्यान
सरकश का सर झुककर रखे सदा बलवान
*
नतशिर होकर नमन कर, प्रभु हों तभी प्रसन्न
जो पौरुष करता नहीं, रहता सदा विपन्न
*
मातृभूमि हित सिर कटा, होते अमर शहीद
बलिदानी को पूजिए, हर दीवाली-ईद
*
विपद पड़े सिर जोड़कर, करिए 'सलिल' विचार
चाह राह की हो प्रबल, मिल जाता उपचार
*
तर्पण कर सिर झुकाकर, कर प्रियजन को याद
हैं कृतज्ञ करिए प्रगट, भाव- रहें फिर शाद
*
दुर्दिन में सिर मूड़ते, करें नहीं संकोच
साया छोड़े साथ- लें अपने भी उत्कोच
*
अरि ज्यों सीमा में घुसे, सिर काटें तत्काल
दया-रहम जब-जब किया, हुआ हाल बेहाल
*
सिर न खपायें तो नहीं, हल हो कठिन सवाल
सिर न खुजाएँ तो 'सलिल', मन में रहे मलाल
*
अगर न सिर पर हों खड़े, होता कहीं न काम
सरकारी दफ्तर अगर, पड़े चुकाना दाम
*
सिर पर चढ़ते आ रहे, नेता-अफसर खूब
पांच साल गायब रहे, जाए जमानत डूब
*
भूल चूक हो जाए तो, सिर मत धुनिये आप
सोच-विचार सुधार लें, सुख जाए मन व्याप
*
होनी थी सो हो गयी, सिर न पीटिए व्यर्थ
गया मनुज कब लौटता?, नहीं शोक का अर्थ
*
सब जग की चिंता नहीं, सिर पर धरिये लाद
सिर बेचारा हो विवश, करे नित्य फरियाद
*
सिर मत फोड़ें धैर्य तज, सर जोड़ें मिल-बैठ
सही तरीके से तभी, हो जीवन में पैठ
*
सिर पर बाँधे हैं कफन, अपने वीर जवान
ऐसा काम न कीजिए, घटे देश का मान
***
कृति चर्चा:
शेष कुशल है : सामायिक जनभावनाओं से सराबोर काव्य संग्रह
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: शेष कुशल है, कविता संग्रह, सुरेश 'तन्मय', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ८४, ६० रु., भेल हिंदी साहित्य परिषद् एल ३३/३ साकेत नगर, भेल, भोपाल , कवि संपर्क: २२६ माँ नर्मदे नगर, बिलहरी,जबलपुर ४८२०२०, चलभाष ९८९३२६६०१४, sureshnimadi@gmail.com ]
*
पिछले डेढ़ दशक से मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नहीं लिखने-छपने और साहित्यिक गोष्ठियों से अनुपस्थित रहने के बावजूद पुस्तकों की अबाध प्राप्ति सुख-दुःख की मिश्रित प्रतीति कराती है.
सुख दो कारणों से प्रथम अल्पज्ञ रचनाकार होने के बाद भी मित्रों के स्नेह-सम्मान का पात्र हूँ, द्वितीय यह कि शासन-प्रशासन द्वारा हिंदी की सुनियोजित उपेक्षा के बाद भी हिंदी देश के आम पाठक और रचनाकार भी भाषा बनी हुई है और उसमें लगातार अधिकाधिक साहित्य प्रकाशित हो रहा है.
दुःख के भी दो कारण हैं. प्रथम जो छप रहा है उसमें से अधिकांश को रचनाकार ने सँवारे-तराशे-निखारे बिना प्रस्तुत करना उचित समझा, रचनाओं की अंतर्वस्तु में कथ्य, शिल्प आदि अनगढ़ता कम फूहड़ता अधिक प्राप्य है. अधिकतम पुस्तकें पद्य की हैं जिनमें भाषा के व्याकरण और पिंगल की न केवल अवहेलनाहै अपितु अशुद्ध को यथावत रखने की जिद भी है. दुसरे मौलिकता के निकष पर भी कम ही रचनाएँ मिलती हैं. किसी लोकप्रिय कवि की रचना के विषय पर लिखने की प्रवृत्ति सामान्य है. इससे दुहराव तो होता ही है, मूल रचना की तुलना में नयापन या बेहतरी भी नहीं प्राप्त होती. प्रतिवर्ष शताधिक पुस्तकें पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा जगाने, अथवा याद रखकर कहीं उद्धृत करने के लिये उपयुक्त रचनांश कम ही मिलता है.
पुस्तक की आलोचना, विवेचना अथवा समीक्षा को सहन करने, उससे कुछ ग्रहण करने और बदलाव करने के स्थान पर उसमें केवल और केवल प्रशंसा पाने और न मिलने पर समीक्षक के प्रति दुर्भाव रखने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. किसी अचाही किताब को पढ़ना, फिर उस पर कुछ लिखना, उससे कुछ लाभ न होने के बाद भी सम्बन्ध बिगाड़ना कौन चाहेगा? इस कारण पुस्तक-चर्चा अप्रिय कर्म हो गया है और उसे करते समय सजगता आवश्यक हो गयी है. इस परिस्थिति में आलोचना शास्त्र के नये सिद्धांत विकसित होना, नयी पद्धतियों का अन्वेषण कैसे हो? वैचारिक प्रतिबद्धतायें, विधागत संकीर्णता अथवा उद्दंडता, शब्दरूपों और भाषारूपों में क्षेत्रीय विविधताएं भी कठिनाई उपस्थित करती हैं. पारिस्थितिक दुरूहताओं के संकेतन के बाद अब चर्चा हो काव्य संग्रह 'शेष कुशल है' की.
'शेष कुशल है' की अछान्दस कवितायें जमीन से जुड़े आम आदमी की संवेदनाओं की अन्तरंग झलकी प्रस्तुत करती हैं. सुरेश तन्मय निमाड़ी गीत संग्रह 'प्यासों पनघट', हिंदी काव्य संग्रह 'आरोह-अवरोह' तथा बाल काव्य संग्रह 'अक्षर दीप जलाये' के बाद अपनी चतुर्थ कृति 'शेष कुशल है' में उन्नीस लयात्मक-अछांदस काव्य-सुमनों की अंजुली माँ शारदा के चरणों में समर्पित कर रहे हैं. तन्मय जी वर्तमान पारिस्थितिक जटिलताओं, अभावों और विषमताओं से परिचित हैं किन्तु उन्हें अपनी रचनाओं पर हावी नहीं होने देते. आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जानकार (आयुर्वेद रत्न ) होने के कारण तन्मय जी जानते हैं कि त्रितत्वों का संतुलन बनाये बिना व्याधि दूर नहीं होती. कविता में कथ्य, कहन और शिल्प के तीन तत्वों को बखूबी साधने में कवि सफल हुआ है.
कविताओं के विषय दैनंदिन जीवन और पारिवारिक-सामाजिक परिवेश से जुड़े हैं. अत:, पाठक को अपनत्व की अनुभूति होती है. कहन सहज-सरल प्रसाद गुण युक्त है. तन्मय जी वैयक्तिकता और सामाजिकता को एक-दूसरे का पूरक मानते हैं. संग्रह की महत्वपूर्ण रचना 'गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी' (२५ पृष्ठ) घर के हर सदस्य से लेकर पड़ोस, गाँव के हर व्यक्ति के हाल-चाल, घटनाओं और संवादों के बहाने पारिस्थितिक वैषम्य और विसंगतियों का उद्घाटन मात्र नहीं करती अपितु मन को झिन्झोड़कर सोचने के लिए विवश कर देती है. बड़े भाई द्वारा छोटे को पढ़ाने-बढ़ाने के लिये स्वहितों का त्याग, छोटे द्वारा शहर में उन्नति के बाद भी गाँव से और चाहना, बड़े का अभावों से गहराते जाना, बड़ों और भाभी का अशक्त होना, छोटे से की गयी अपेक्षाओं का बहन होने की व्यथा-कथा पढ़ता पाठक करुणा विगलित होकर पात्रों से जुड़ जाता है. 'हम सब यहाँ / मजे में ही हैं' और 'तेरी मेहनत सफल हुई / कि अपना एक मकान हो गया / राजधानी भोपाल में' से आरम्भ पत्र क्रमश: 'छोटे! घर के हाल / बड़े बदहाल हो गए', 'तेरी भाभी को गठिया ने / घेर लिया है', 'भाई तू बेटा भी तू ही', 'सहते-सहते दरद / हो गयी है आदत / अब तो जीने की', 'इस राखी पर भाई मेरे / तू आ जाना / बहनों से हमसे मिल / थोडा सुख दे जाना', 'थोड़ी मदद मुझे कर देना / तेरी भाभी का इलाज भी करवाना है... ना कर पाया कुछ तो / फिर जीवन भर / मुझको पछताना है'', 'तूने पूछे हाल गाँव के / क्या बतलाऊँ? / पहले जैसा प्रेम भाव / अब नहीं रहा है', 'पञ्च और सरपंच / स्वयं को जिला कलेक्टर / लगे समझने', 'किस्मत में किसान की / बिन पानी के बादल / रहते छाये', 'एक नयी आफत सुन छोटे / टी वी और केबल टी वी ने / गाँवों में भी पैर पसारे', 'गाँवों के सब / खेत-जमीनें / शहरी सेठ / खरीद रहे हैं', ब्याज, शराब, को ओपरेटिव सोसायटी के घपले, निर्जला हैण्ड पंप, बिजली का उजाला, ग्रामीण युवकों का मेहनत से बचना, चमक-दमक, फ्रिज-टी वी आदि का आकर्षण, शादी-विवाह की समस्या के साथ बचपन की यादों का मार्मिक वर्णन और अंत में 'याद बनाये रखना भाई / कि तेरा भी एक भाई है'. यह एक कविता ही पाने आप में समूचे संग्रह की तरह है. कवि इसे बोझिलता से बचाए रखकर अर्थवत्ता दे सका है.
डॉ. साधना बलवटे ने तन्मय जी की रचनाओं में समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की पहचान ठीक ही की है. ये कवितायें सरलता और तरलता का संगम हैं. एक बानगी देखें:
समय मिले तो / आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं.
ना हम पंडित / ना हैं ज्ञानी
ना भौतिक / ना रस विज्ञानी
हम नदिया के / बहते पानी
भरो अंजुरी और /आचमन कर लो
हम बहुत तरल हैं
कन्या भ्रूण के साहसी स्वर, बहू-बल, मित्र, चैरेवती, मेरे पिता, माँ, बेटियाँ आदि रचनाएं रिश्तों की पड़ताल करने के साथ उनकी जड़ों की पहचान, युवा आकाक्षाओं की उड़ान और वृद्ध पगों की थकान का सहृदयता से शब्दांकन कर सकी हैं. वृक्ष संदेश पर्यावरणीय चेतना की संदेशवाही रचना है. नुक्कड़ गीत टोल-मोलकर बोल जमूरे, जाग जमूरे आदि नुक्कड़ गीत हैं जो जन जागरण में बहुत उपयोगी होंगे.
सुरेश तन्मय का यह काव्य संग्रह तन्मयतापूर्वक पढ़े जाने की मांग करता है. तन्मय जी आयुर्वेद के कम और सामाजिक रोगों के चिकित्सक अधिक प्रतीत होते हैं. कहीं भी कटु हुए बिना विद्रूपताओं को इंगित करना और बिना उपदेशात्मक मुद्रा के समाधान का इंगित कर पाना उन्हें औरों से अलग करता है. ये कवितायें कवी के आगामी संकलनों के प्रति नयी आशा जगाती है. आचार्य भगवत दुबे ठीक है कहते हैं कि 'ये (कवितायें) कहीं न कहीं हमारे मन की बातों का ही प्रतिबिम्ब हैं.
***
कृति चर्चा:
संवेदनाओं के स्वर : कहानीकार की कवितायेँ
चर्चाकार: आचार्य संजीव
[कृति विवरण: संवेदनाओं के स्वर, काव्य संग्रह, मनोज शुक्ल 'मनोज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य १५० रु., प्रज्ञा प्रकाशन २४ जग्दिश्पुरम, लखनऊ मार्ग, त्रिपुला चौराहा रायबरेली]
*
मनोज शुक्ल 'मनोज' मूलतः कहानीकार हैं. कहानी पर उनकी पकड़ कविता की तुलना में बेहतर है. इस काव्य संकलन में विविध विधाओं, विषयों तथा छन्दों की त्रिवेणी प्रवाहित की गयी है. आरम्भ में हिंदी वांग्मय के कालजयी हस्ताक्षर स्व. हरिशंकर परसाई का शुभाशीष कृति की गौरव वृद्धि करते हुए मनोज जी व्यापक संवेदनशीलता को इंगित करता है. संवेदनशीलता समाज की विसंगतियों और विषमताओं से जुड़ने का आधार देती है.
मनोज सरल व्यक्तित्व के धनी हैं. कहानीकार पिता स्व. रामनाथ शुक्ल से विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों को उन्होंने सतत पल्लवित किया है. विवेच्य कृति में डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी, सनातन कुमार बाजपेयी 'सनातन' ने वरिष्ठ तथा विजय तिवारी 'किसलय' ने सम कालिक कनिष्ठ रचनाधर्मियों का प्रतिनिधित्व करते हुए संकलन की विशेषताओं का वर्णन किया है. बाजपेयी जी के अनुसार भाषा की सहजता, भावों की प्रबलता, आडम्बरविहीनता मनोज जी के कवि का वैशिष्ट्य है. चतुर्वेदी जी ने साधारण की असाधारणता के प्रति कवि के स्नेह, दीर्घ जीवनानुभवों तथा विषय वैविध्य को इंगित करते हुए ठीक ही कहा है कि 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए स्वयं संभाव्य है' तथा ' कवि न होऊँ अति चतुर कहूं, मति अनुरूप राम-गुन गाऊँ' में राम के स्थान पर 'भाव' कर दिया जाए तो आज की (कवि की भी) आकुल-व्याकुलता सहज स्पष्ट हो जाती है. फिर जो उच्छ्वास प्रगट होता है वह स्थापित काव्य-प्रतिमानों में भले ही न ढल पाता हो पर मानव मन की विविधवर्णी अभिव्यक्ति उसमें अधिक सहज और आदम भाव से प्रगट होती है.'
निस्संदेह वीणावादिनी वन्दना से आरम्भ संकलन की ७२ कवितायें परंपरा निर्वहन के साथ-साथ बदलते समय के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकी हैं. इस कृति के पूर्व कहानी संग्रह क्रांति समर्पण व एक पाँव की जिंदगी तथा काव्य संकलन याद तुम्हें मैं आऊँगा प्रस्तुत कर चुके मनोज जी छान्दस-अछान्दस कविताओं का बहुरंगी-बहुसुरभि संपन्न गुलदस्ता संवेदनाओं के स्वर में लाये हैं. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती ये काव्य रचनाएं पाठक को सामायिक सत्य की प्रतीति करने के साथ-साथ कवि के अंतर्मन से जुड़ने का अवसर भी उपलब्ध कराती हैं. जाय, होंय, रोय, ना, हुये, राखिये, भई, आंय, बिताँय जैसे देशज क्रिया रूप आधुनिक हिंदी में अशुद्धि माने जाने के बाद भी कवि के जुड़ाव को इंगित करते हैं. संत साहित्य में यह भाषा रूप सहज स्वीकार्य है चूँकि तब वर्तमान हिंदी या उसके मानक शब्द रूप थे ही नहीं. बैंक अधिकारी रहे मनोज इस तथ्य से सुपरिचित होने पर भी काव्याभिव्यक्ति के लिये अपने जमीनी जुड़ाव को वरीयता देते हैं.
मनोज जी को दोहा छंद का प्रिय है. वे दोहा में अपने मनोभाव सहजता से स्पष्ट कर पाते हैं. कुछ दोहे देखें:
ऊँचाई की चाह में, हुए घरों से दूर
मन का पंछी अब कहे, खट्टे हैं अंगूर
.
पाप-पुन्य उनके लिए, जो करते बस पाप
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप
.
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद
.
दोहों में चन्द्रमा के दाग की तरह मात्राधिक्य (हो गए डंडीमार, बनो ना उसके दास, चतुर गिद्ध और बाज, मायावती भी आज १२ मात्राएँ), वचन दोष (होता इनमें उलझकर, तन-मन ही बीमार) आदि खीर में कंकर की तरह खलते हैं.
अछांदस रचनाओं में मनोज जी अधिक कुशलता से अपने मनोभावों को व्यक्त कर सके हैं. कलयुगी रावण, आतंकवादी, पुरुषोत्तम, माँ की ममता त्रिकोण सास बहू बेटे का, पत्नी परमेश्वर, मेरे आँगन की तुलसी आदि रचनाएँ पठनीय हैं. गांधी संग्रहालय से एक साक्षात्कार शीर्षक रचना अनेक विचारणीय प्रश्न उठाती है. मनोज का संवेदनशील कवि इन रचनाओं में सहज हो सका है.
संझा बिरिया जब-जब होवे, तुलसी तेरे घर-आँगन में, फागुन के स्वर गूँज उठे, ओ दीप तुझे जलना होगा, प्रलय तांडव कर दिया आदि रचनाएँ इस संग्रह के पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
***
कृति चर्चा:
समवेत स्वर: कविताओं का गजर
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: समवेत स्वर, सामूहिक कविता संग्रह, संपादक विजय नेमा 'अनुज', आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ७० + २६ , २०० रु., वर्तिका प्रकाशन जबलपुर]
*
साहित्य सर्व हित की कामना से रचा जाता है. समय के साथ सामाजिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में साहित्य का कथ्य, शिल्प, भाषा और भंगिमा में सतत परिवर्तन स्वाभाविक है. जबलपुर की साहित्यिक संस्था वर्तिका ने १०२७ से १९८५ के मध्य जन्में ७० कवियों की एक-एक कविता, चित्र, जन्म तिथि तथा पते का संग्रह समवेत शीर्षक से सक्रिय साहित्य सेवी विजय नेमा 'अनुज' के संपादन में प्रकाशित किया है. इसमें नगर के कई रचनाकार सम्मिलित हैं कई रह गये हैं. यदि शेष को भी जोड़ा जा सकता तो यह नगर के समकालिक साहित्यकारों का प्रतिनिधि संकलन हो सकता था.
भूमिका में डॉ. हरिशंकर दुबे के आकलन के अनुसार "काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से नहीं भाव और बोध की दृष्टि से यह पाठकीय प्यार की अभिलाषा वाले स्वर हैं. नयी पीढ़ी में एक व्याकुल अधीरता है, शीघ्र से शीघ्र पा लेने की. ३० वर्ष से ८७ वर्ष के आयु वर्ग और एक से ६ दशकों तक काव्य कर्म में जुटी कलमों में नयी पीढ़ी का किसे माना जाए? अधिकांश सहभागियों की स्वतंत्र कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं अथवा कई पत्र-पत्रिकाओं में कई बार रचनायें छप चुकी हैं तथापि रचनाओं को काव्य के छंद, वस्तु विन्यास और प्रभांविती की दृष्टि से उपयुक्त न पाया जाए तो संकलन के उद्देश्य पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है. २० पृष्ठों में भूमिका, सन्देश आदि का विस्तार होने पर भी सम्मिलित रचनाओं और रचनाकारों के चयन के आधार, उनकी गुणवत्ता, उनमें अन्तर्निहित शिल्प, कथ्य, शैली, रस, छंद आदि की चर्चा तो दूर उल्लेख तक न होना चकित करता है.
वर्तिका द्वारा पूर्व में भी सामूहिक काव्य संकलन प्रकाशित किये जा चुके हैं. वर्ष २००८ में प्रकाशित अभिव्यक्ति (२२० पृष्ठ, २०० रु.) में ग़ज़ल खंड में ४० तथा गीत खंड में २५ कुल ६५ कवियों को २-२ पृष्ठों में सुरुचिपूर्वक प्रकाशित किया जा चुका है. अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य नगर के बाहर बसे कुछ श्रेष्ठ कवि-सदस्यों को जोड़ना था. इस संग्रह की गुणवत्ता और रचनाओं की पर्याप्त चर्चा भी हुई थी.
वर्तमान संग्रह की सभी रचनाओं को पढ़ने पर प्रतीत होता है कि ये रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाएँ नहीं हैं. विषय तथा विधा का बंधन न होने से संग्रह में संपादन की दृष्टि से स्वतंत्रता ली गयी है. असम्मिलित रचनाकारों की कुछ श्रेष्ठ पंक्तियाँ दी जा सकतीं तो संग्रह की गुणवत्ता में वृद्धि होती. सूची में प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध', श्री किशोरीलाल नेमा, प्रो. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', डॉ. कृष्ण कान्त चतुर्वेदी, डॉ. राजकुमार 'सुमित्र', आचार्य भगवत दुबे, प्रो. राजेंद्र तिवारी, श्रीमती लक्ष्मी शर्मा, श्री इंद्रबहादुर श्रीवास्तव 'इंद्र', मेराज जबलपुरी, सुरेश तन्मय, सुशिल श्रीवास्तव, मनोहर चौबे 'आकाश', विजय तिवारी 'किसलय', गजेन्द्र कर्ण, विवेकरंजन श्रीवास्तव, अशोक श्रीवास्तव 'सिफर', गीता 'गीत', डॉ. पूनम शर्म तथा सोहन परोहा 'सलिल' जैसे हस्ताक्षर होना संग्रह के प्रति आश्वस्त करता है.
ऐसे सद्प्रयास बार-बार होने चाहिए तथा कविता के अतिरिक्त अन्य विधाओं पर भी संग्रह होने चाहिए.
३१-५-२०१५
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नवगीत:
*
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
कौए मन्दिर में बैठे हैं
गीध सिंहासन पा ऐंठे हैं
मन्त्र पढ़ रहे गर्दभगण मिल
करतल ध्वनि करते जेठे हैं.
पुस्तक लिख-छपते उलूक नित
चीलें पीर भईं
मुस्कानें विष बुझी
निगाहें पैनी तीर हुईं
*
चूहे खलिहानों के रक्षक
हैं सियार शेरों के भक्षक
दूध पिलाकर पाल रहे हैं
अगिन नेवले वासुकि तक्षक
आश्वासन हैं खंबे
वादों की शहतीर नईं
*
न्याय तौलते हैं परजीवी
रट्टू तोते हुए मनीषी
कामशास्त्र पढ़ रहीं साध्वियाँ
सुन प्रवचन वैताल पचीसी
धुल धूसरित संयम
भोगों की प्राचीर मुईं
२७-५-२०१५
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नवगीत:
*
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
जिंदगी नवगीत बनकर
सर उठाने जब लगी
भाव रंगित कथ्य की
मुद्रा लुभाने तब लगी
गुनगुनाकर छंद ने लय
कहा: 'बन जा संत रे!'
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
*
बिम्ब ने प्रतिबिम्ब को
हँसकर लगाया जब गले
अलंकारों ने कहा:
रस सँग ललित सपने पले
खिलखिलाकर लहर ने उठ
कहा: 'जग में तंत रे!'
*
बन्दगी इंसान की
भगवान ने जब-जब करी
स्वेद-सलिला में नहाकर
सृष्टि खुद तब-तब तरी
झिलमिलाकर रौशनी ने
अंधेरों को कस कहा:
भास्कर है कंत रे!
श्वास मुखड़े
संग गूथें
आस के कुछ अंतरे
२५-५-२०१५
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लेख:
कुंडली मिलान में गण-विचार
*
वैवाहिक संबंध की चर्चा होने पर लड़का-लड़की की कुंडली मिलान की परंपरा भारत में है. कुंडली में वर्ण का १, वश्य के २, तारा के ३, योनि के ४, गृह मैटरर के ५, गण के ६, भकूट के ७ तथा नाड़ी के ८ कुल ३६ गुण होते हैं.जितने अधिक गुण मिलें विवाह उतना अधिक सुखद माना जाता है. इसके अतिरिक्त मंगल दोष का भी विचार किया जाता है.
कुंडली मिलान में 'गण' के ६ अंक होते हैं. गण से आशय मन:स्थिति या मिजाज (टेम्परामेन्ट) के तालमेल से हैं. गण अनुकूल हो तो दोनों में उत्तम सामंजस्य और समन्वय उत्तम होने तथा गण न मिले तो शेष सब अनुकूल होने पर भी अकारण वैचारिक टकराव और मानसिक क्लेश होने की आशंका की जाती है. दैनंदिन जीवन में छोटी-छोटी बातों में हर समय एक-दूसरे की सहमति लेना या एक-दूसरे से सहमत होना संभव नहीं होता, दूसरे को सहजता से न ले सके और टकराव हो तो पूरे परिवार की मानसिक शांति नष्ट होती है। गण भावी पति-पत्नी के वैचारिक साम्य और सहिष्णुता को इंगित करते हैं।
ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ कल्पद्रुम के अनुसार निम्न २ स्थितियों में गण दोष को महत्त्वहीन कहा गया है:
१. 'रक्षो गणः पुमान स्याचेत्कान्या भवन्ति मानवी । केपिछान्ति तदोद्वाहम व्यस्तम कोपोह नेछति ।।'
अर्थात जब जातक का कृतिका, रोहिणी, स्वाति, मघा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा नक्षत्रों में जन्म हुआ हो।
२. 'कृतिका रोहिणी स्वामी मघा चोत्त्राफल्गुनी । पूर्वाषाढेत्तराषाढे न क्वचिद गुण दोषः ।।'
अर्थात जब वर-कन्या के राशि स्वामियों अथवा नवांश के स्वामियों में मैत्री हो।
गण को ३ वर्गों 1-देवगण, 2-नर गण, 3-राक्षस गण में बाँटा गया है। गण मिलान ३ स्थितियाँ हो सकती हैं:
1. वर-कन्या दोनों समान गण के हों तो सामंजस्य व समन्वय उत्तम होता है.
2. वर-कन्या देव-नर हों तो सामंजस्य संतोषप्रद होता है ।
३. वर-कन्या देव-राक्षस हो तो सामंजस्य न्यून होने के कारण पारस्परिक टकराव होता है ।
शारंगीय के अनुसार; वर राक्षस गण का और कन्या मनुष्य गण की हो तो विवाह उचित होगा। इसके विपरीत वर मनुष्य गण का एवं कन्या राक्षस गण की हो तो विवाह उचित नहीं अर्थात सामंजस्य नहीं होगा।
सर्व विदित है कि देव सद्गुणी किन्तु विलासी, नर या मानव परिश्रमी तथा संयमी एवं असुर या राक्षस दुर्गुणी, क्रोधी तथा अपनी इच्छा अन्यों पर थोपनेवाले होते हैं।
भारत में सामान्यतः पुरुषप्रधान परिवार हैं अर्थात पत्नी सामान्यतः पति की अनुगामिनी होती है। युवा अपनी पसंद से विवाह करें या अभिभावक तय करें दोनों स्थितियों में वर-वधु के जीवन के सभी पहलू एक दूसरे को विदित नहीं हो पाते। गण मिलान अज्ञात पहलुओं का संकेत कर सकता है। गण को कब-कितना महत्त्व देना है यह उक्त दोनों तथ्यों तथा वर-वधु के स्वभाव, गुणों, शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में विचारकर तय करना चाहिए।
३१-५-२०१४
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मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
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अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
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३१-५-२०१०
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