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रविवार, 24 अगस्त 2025

अगस्त २४, संजा, व्यंग्य लेख, मुहावरा, कौआ स्नान, शिक्षक, चित्र अलंकार, मंदिर,

 सलिल सृजन अगस्त २४

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गीत
जन्म दिवस हर सुबह मनाएँ, आँख मूँद लें रजनी में हम
सपने हों साकार यत्न कर, निराकार हों तो न करें गम
मनोरमा हो रश्मि विभा की, पाखी शोभित नीलाम्बर में
विजय-स्मृति हो पद्म गुच्छ सी, ज्योति अमर हो निविड़ तिमिर में
हो संदीप प्रदीप पथिक मैं, संग देवकीनंदन पाऊँ
हर हिंदुस्तानी मनोज हो, सदा भारती की जय गाऊँ
अंजु लता सम नीलोफ़र हँस, साथ चले जय हिंद गुँजाए
त्यागी राज करे पूनम सह, शरतचंद्र अमृत बरसाए
सूरज दीप्त दिनेश दिवाकर, ओमप्रकाश बिखेरे भू पर
ता ता धिन्ना नाचे मिन्नी, परी तनूजा उपमा मिलकर
योगी दुर्गा-राधा की जय, कहे मुरारि राजमणि पाए
जनसेवक राजेंद्र बन सके, करुणा हरदम हृदय बसाए
नमन अन्नपूर्णा सरस्वती, वेदप्रकाश महेश बिखेरे
सरला मनी हंस देवांशी, हों संजीव लगाएँ फेरे
सृजन कुंज पुष्पित मुकुलित हो, कथ्य भाव रस लय आनंदी
स्नेह सलिल सिंचन कर, मधुकर, छंद गुँजाए परमानंदी
२४-८-२०२२
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निमाड़ी पर्व : संजा (छाबड़ी)
गीतात्मक लोक पर्व संजा बाई (छाबड़ी)
निमाड़ की किशोरी बालिकाओ द्वारा भाद्र माह की पूर्णिमा से अश्विन माह की सर्वपितृ अमावस्या तक मनाया जाता है । इन 16 दिनों तक चलने वाले गीतात्मक मांडना पर्व को गीतों के माध्यम मनाया जाता है मांडना बनाए में 16 दिन पूनम का पाटला और चाँद ,तारे ,सूरज , पाँच कुँआरा, बंदनवार डोकरा डोकरी ,निसरणी, छाबड़ी, रुनझुन की गाड़ी, कोट किल्ला ,वान्या की हाटडी,मोर,बिजौरा, पंखा, कौवा,कुआ,बावड़ी,आदि बनाये जाते है। गीत गाये जाते है और आरती प्रसाद बांटा जाता है... संजा कौंन ?उनका सामाजिक आत्मिक और आद्यात्मिक स्वरूप क्या है संजा के गीतों में कहा जाता है-
"संजा सहेलड़ि बाज़ार में खेले
बजार में रमे
वा कोणा जी नी बेटी
वा खाय खाजा रोटी
पठानी चाल चाले
रजवाड़ी बोली बोले
संजा एडो संजा का माथा बेड़ो "........
गीत का भाव है कि संजा निडर,साहसी, राजसी वैभव को जीने वाली हमारी सखी है जो कोना जी की बेटी है खाजा खाती है पठानी चाल से चलती है परन्तु वो जल के प्रतीक जीवन में स्वभिमानी पनिहारिन की तरह कर्मशील है।
दोस्तों निमाड़ की किशोरीय अंतरिक्षीय कल्पना पटल पर प्रारम्भ में चाँद और सूरज का प्रादुर्भाव होता है रात और दिन की तरह ,सुख और दुःख की तरह, संघर्ष की तपिश और सफलता की चांदनी की तरह वो जीवन के कर्मशीलता की साधना में सोलह संस्कारों से अभिसिंचित सोलह दिवसीय लोक महोत्सव में रूपांतरित हो जीवन को गीतात्मक से परिलक्षित और परिभाषित कर फिर जीवन की अनन्तता में विसर्जित हो जाता है।
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श्रद्धांजलि
सुषमा गईं, डूबा अरुण भी, शोक का है यह समय।
गौरव बढ़ाया देश का, देगा गवाही खुद समय।।
जन से सदा रिश्ते निगाहे, थे प्रभावी दक्ष भी-
वाक्पटुता-विद्वता अद्भुत रही कहता समय।।
*
धूमिल न होंगी याद, छवियाँ, कार्यपटुता भी कभी।
दल से उठे ऊपर, कमाया जन-समर्थन नाम भी।।
दृढ़ता-प्रखरता-अभयता का त्रिवेणी दोनों रहे-
इतिहास लेगा नाम दोनों ने किए सत्कार्य भी।।
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छंद सलिला
नवाविष्कृत मात्रिक दंडक
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विधान-
प्रति पद ५६ मात्रा।
यति- १४-१४-१४-१४।
पदांत-भगण।
*
अवस्था का बहाना मत करें, जब जो बने करिए, समय के साथ भी चलिए, तभी होगा सफल जीवन।
गिरें, उठकर बढ़ें मंजिल मिले तब ही तनिक रुकिए, न चुकिए और मत भगिए, तभी फागुन बने सावन।
न सँकुचें लें मदद-दें भी, न कोई गैर है जग में, सभी अपने न सच तजिए, कहें सच मन न हो उन्मन-
विरागी हों या अनुरागी, करें श्रम नित्य तज आलस, न केवल मात्र जप करिए, स्वेद-सलिला करे पावन।।
*
टीप-छंद लक्षणानुसार नाम सुझाएँ।
संजीव
२४-८-२०१९
***
व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पाए विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाडी और कोच चुने जाने चाहिए। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे। फर्जीवाड़ा की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है। यदि आपको मेरी बात पर शंका हो तो आप ही बताएं की इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-गो नहीं सैंकड़ों अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?
कोई खिलाडी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है। ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाडी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बारह-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।
रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेज इसलिए जाता है की वे नियम-कायदे जानकार खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएं कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और बाकि सब को गुलाम समझती है। खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबीयों पर रौब गांठ सके।
रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाडियों को नीच दिखती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?
रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री को भी दिखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिए उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे।
अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो हो बाते हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोइ कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ।
असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार दें है तो पाने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाडियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए। बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिए विवश भी हो गयीं।
होना यह चाइये की अच्छा प्रदर्शन कर्नेवले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भुकमद, धनराशि और फ़्लैट देने नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाडी चार सैलून तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी। हमारे खिलाडियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेता को जब तक खेओं से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम ही है।
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हिंदी दिवस पर विशेष
मुहावरा कौआ स्नान
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कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
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पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
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पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
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नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
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निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
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घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
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जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
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पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी देखो आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
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रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
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गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
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उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
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दोहा सलिला:
शिक्षक पारसमणि सदृश...
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शिक्षक पारसमणि सदृश, करे लौह को स्वर्ण.
दूर करे अज्ञानता, उगा बीज से पर्ण..
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सत-शिव-सुंदर साध्य है, साधन शिक्षा-ज्ञान.
सत-चित-आनंद दे हमें, शिक्षक गुण-रस-खान..
*
शिक्षक शिक्षा दे सदा, सकता शिष्य निखार.
कंकर को शंकर बना, जीवन सके सँवार..
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शिक्षक वह जो सिखा दे, भाषा गुण विज्ञान.
नेह निनादित नर्मदा, बहे बना गुणवान..
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प्रतिभा को पहचानकर, जो दिखलाता राह.
शिक्षक उसको जानिए, जिसमें धैर्य अथाह..
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जान-समझ जो विषय को, रखे पूर्ण अधिकार.
उस शिक्षक का प्राप्य है, शत शिष्यों का प्यार..
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शिक्षक हो संदीपनी, शिष्य सुदामा-श्याम.
बना सकें जो धरा को, तीरथ वसुधा धाम..
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विश्वामित्र-वशिष्ठ हों, शिक्षक ज्ञान-निधान.
राम-लखन से शिष्य हों, तब ही महिमावान..
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द्रोण न हों शिक्षक कभी, ले शिक्षा का दाम.
एकलव्य से शिष्य से, माँग अँगूठा वाम..
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शिक्षक दुर्वासा न हो, पल-पल दे अभिशाप.
असफल हो यदि शिष्य तो, गुरु को लगता पाप..
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राधाकृष्णन को कभी, भुला न सकते छात्र.
जानकार थे विश्व में, वे दर्शन के मात्र..
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महीयसी शिक्षक मिलीं, शिष्याओं का भाग्य.
करें जन्म भर याद वे, जिन्हें मिला सौभाग्य..
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शिक्षक मिले रवीन्द्र सम, शिष्य शिवानी नाम.
मणि-कांचन संयोग को, करिए विनत प्रणाम..
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ओशो सा शिक्षक मिले, बने सरल-हर गूढ़.
विद्वानों को मात दे, शिष्य रहा हो मूढ़..
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हो कलाम शिक्षक- 'सलिल', झट बन जा तू छात्र.
गत-आगत का सेतु सा, ज्ञान मिले बन पात्र..
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ज्यों गुलाब के पुष्प में, रूप गंध गुलकंद.
त्यों शिक्षक में समाहित, ज्ञान-भाव-आनंद..
२४-८-२०१६
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मंदिर अलंकार
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार
हिंदी
जन-मन
में बसी जन
प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे
जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर सुहाता कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
२४-८-२०१५
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नवगीत:
मस्तक की रेखाएँ …
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मस्तक की रेखाएँ
कहें कौन बाँचेगा?
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आँखें करतीं सवाल
शत-शत करतीं बवाल।
समाधान बच्चों से
रूठे, इतना मलाल।
शंका को आस्था की
लाठी से दें हकाल।
उत्तर न सूझे तो
बहाने बनायें टाल।
सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा …
*
अधरों पर मुस्काहट
समाधान की आहट।
माथे बिंदिया सूरज
तम हरे लिये चाहत।
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत?
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत।
जाल लिये आलस
कोशिश पंछी फाँसेगा…
२४.८.२०१४
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शनिवार, 23 अगस्त 2025

सिंहली साहित्य में रामकथा

 
भारत और श्री लंका रामकथा का संदर्भ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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            सिंहली साहित्य के प्रारंभिक लेखन में रामायण के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण मिलते हैं। १४ वीं शताब्दी के बाद सिंहली साहित्य में रामायण के सकारात्मक संदर्भ मिलने लगे। कालांतर में सिंहली साहित्य और श्रीलंकाई तमिलों में रावण को श्री राम के आराध्य जगत्पिता शिव के एक अनन्य भक्त के रूप में स्वीकारा गया है। किंवदंतियों के अनुसार भगवान शिव के निर्देश पर ऋषि अगस्त्य ने तिरु कोणेश्वरम मंदिर में रावण व उसकी  माता केकसी से शिव पूजा कराई थी। रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र और रावण पर शिव-कृपा की अनेक लोक कथाएँ आज तक न केवल प्रचलित अपितु लोक में स्वीकार्य भी हैं। शिव की अर्धांगिनी पार्वती या उमा के रावण से अप्रसन्न होने के बाद भी रावण पर शिव-कृपा बनी रही।  यह स्वाभाविक है कि किसी देश में उसके शासक के अंत का कारण बनी शक्तियों (राम और वानर आदि) और उनके द्वारा सत्ता पर आसीन किए गए व्यक्ति (विभीषण) के प्रति लोगों में आक्रोश और रोष हो। समय व्यतीत होने और सत्तासीन नए नृप के जन हितैषी कार्यों के प्रभाव में उसके समर्थक बढ़ाते हैं और उसे लोक मान्यता और प्रसिद्धि मिलती है।

मत-मतांतर

            १९२१ में इंडोनेशिया के एक शोधकर्ता के अनुसार लंका सुमात्रा द्वीप के नजदीक था, इसलिए इसका आज का श्रीलंका होना संभव नहीं है। १९०४ में अयप्प्पा शास्त्री राशि वडेकर के अनुसार रामायण काल की लंका अक्षांस रेखा पर स्थित थी जो जलमग्न हो गई। उनके अनुसार मालद्वीप होना चाहिए।

            प्रसिद्ध इतिहासकार हीरालाल शुक्ल के अनुसार रामायण में वर्णित लंका की भौगोलिक स्थितियों के वर्णन अनुसार इसकी स्थिति गोदावरी डेल्टा में होना चाहिए जहाँ यह नदी विभिन्न भागों में बँटकर समुद्र से मिल जाती है। आंध्र प्रदेश का दौलेश्वरम ऐसी ही जगह है और वहाँ ‘हीरालाल लंका’ नाम का द्वीप भी है। इसलिए उनके अनुसार इसे ही रामायण काल की लंका होना चाहिए। हीरालाल के अनुसार श्रीलंका, सिंहल द्वीप या रावण की लंका से भिन्न द्वीप है। एतिहासिक उल्लेखों के अनुसार सिंहल द्वीप को बंग देश के राजकुमार विजय ने जीता था, जबकि रामायण की लंका में रावण ने इसे कुबेर से जीता। हीरालाल के अनुसार पुराणों में सीलोन और लंका का अलग-अलग उल्लेख होने के कारण यह संभव नहीं है कि लंका और आज का श्रीलंका एक ही हो। वाल्मीकि रामायण वर्णित भौगोलिक स्थितियों के अनुसार लंका त्रिकूट यानि डेल्टा में स्थित था। रामेश्वरम के दक्षिण में यह गोदावरी की डेल्टा ही है। इसलिए लंका यहीं होनी चाहिए। हीरालाल और पुराणों पर शोध करने वाले अन्य इतिहासविदों के अनुसार ‘श्रीलंका’ के ही ‘लंका’ होने के विषय में यह धारणा तुलसीदास की रामचरित मानस से आई। पुरातत्व वेता हँसमुख धीर सांकलिया जबलपुर, मध्य प्रदेश के निकट इंद्राना को लंका बताते रहे थे किंतु अंतिम दिनों में उन्होंने स्वयं इस धारणा का खंडन कर दिया था।
 
सिंहल में रावण 

            सिंहली बौद्ध चेतना में मान्यता है कि रावण प्रागैतिहासिक काल में, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में राजकुमार विजया के आगमन और द्वीप पर बौद्ध धर्म के आगमन से पहले था। वह सिंहली बौद्ध राजा नहीं था। प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामायण के अनुसार रावण लंका पर शासन करनेवाला एक राक्षस-राजा था। अन्य ग्रंथ उसे हिंदू देवता शिव का एक समर्पित अनुयायी बताते हैं। रावण बलाया जैसे आधुनिक अंधराष्ट्रवादी समूहों ने रावण और उसके इर्द-गिर्द की पौराणिक कथाओं का उपयोग एक अति-राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए किया। इसका उद्देश्य २०२२ में सत्ता के नाटकीय पतन तक श्रीलंका के सिंहली बौद्ध ताकतवर पक्ष को सहारा देना रहा। लेखक मिरांडो ओबेयेसेकेरे ने हाल में सिंहली-भाषा में प्रकाशित लोकप्रिय पुस्तकों की एक श्रृंखला में रावण को सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी विमर्श में एक केंद्रीय व्यक्ति के रूप में स्थापित किया है।

            रावण में इस पुनरुत्थानशील रुचि के साथ-साथ, रामायण की विभिन्न कथाओं से जुड़े स्थानों, विशेष रूप से श्रीलंका के मध्य उच्चभूमि क्षेत्रों: नुवारा एलिया, हॉर्टन प्लेन्स, एला आदि में रावण-केंद्रित पर्यटन का उदय हुआ है। भारतीय मुख्य भूमि के दक्षिणी सिरे और श्रीलंका के उत्तरी सिरे के बीच मार्ग बनाने वाली द्वीप श्रृंखला को राम सेतु माना जाता है, वह पुल जिसे राम ने युद्ध में रावण को हराने के बाद सीता को बचाने के लिए लंका पहुँचने के लिए बनाया था। हकगाला उद्यान में सीता को उनके अपहरण के बाद रखा गया था, और जहाँ राम द्वारा भेजे गए हनुमान ने पहली बार उनसे मुलाकात की थी। वेलिमाडा के निकट स्थित दिवुरुपोला मंदिर में सीता ने रावण द्वारा हरण किए जाने के बाद अपनी पवित्रता सिद्ध की थी। तत्पश्चात राम ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। एक सिद्धांत यह भी है कि नुवारा एलिया की धरती काली है क्योंकि उसमें रावण द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों के अवशेष हैं।

                श्रीलंका को वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण में वर्णित पौराणिक 'लंकापुर' के कब और कैसे माना जाने लगा? इस प्रश्न पर विमर्श, मतभेद और विवाद निरंतर होता रहा है।  मध्यकाल के अंत से लेकर आज तक सिंहली और तमिल साहित्य में राम विरोधी लंकेश रावण के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों चित्रणों की पड़ताल होती रही है। वर्तमान श्रीलंका में रामायण के ऐतिहासिकीकरण, राजनीतिकरण के समानांतर रावण को सिंहली-बौद्ध सांस्कृतिक नायक के रूप में स्थापित करने और विभीषण को सिंहली बौद्ध देवताओं में 'संरक्षक देवता' के रूप में सम्मिलित कर लिया गया है। इस क्षेत्र में रामायण महाकाव्य की कथा प्राचीन ज्ञान के विश्वकोश के रूप में प्रसिद्ध है। रामायण के माध्यम से दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई लोग अपने अतीत को समझते और व्यक्त करते हैं। हिंदू पुनरावृत्तिवादियों के अलावा जैन, सिख, मुगल, थाई एवं लाओ बौद्ध, विभिन्न आदिवासी समूहों  सभी के पास रामायण में वर्णित कहानी के अपने संस्करण हैं जो अक्सर 'मानक' (यानी वाल्मीकि के) की पुनरावृत्ति से महत्वपूर्ण विचलन के साथ, और अक्सर न्याय, वीरता और धार्मिक समुदाय के अपने आदर्शों को दर्शाते हैं। 

                आज तक, इस प्रश्न पर विचार करने वाले विद्वानों ने श्रीलंका में रामायण की अनुपस्थिति पर ध्यान केंद्रित कर द्वीप के पाली इतिहास से इस महाकाव्य को बाहर रखे जाने के पीछे कई तर्क प्रस्तुत किए हैं। विहारों की वास्तुकला और अनुष्ठान जीवन में, साथ ही श्रीलंका के कुछ सबसे महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों की स्थापना से जुड़े मिथकों में रामायण के श्रीलंका में साहित्यकारों के बीच विशेष रूप से सिंहली बौद्ध लोककथाओं, साहित्य और मंदिर आदि में रामायण, जानकी हरण की एक बड़ी छाप दिखाई नहीं देती है। यह बदलाव समझा जा सकता है। चौदहवीं शताब्दी में श्रीलंका में दक्षिण भारतीय प्रभाव में वृद्धि हुई।  द्वीप की समग्र जनसांख्यिकी के स्तर पर, जहाँ चौदहवीं शताब्दी के बाद से श्रीलंका के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम ने दक्षिणी उपमहाद्वीप से बड़ी संख्या में प्रवासियों को अपने में समाहित किया । सिंहली बौद्ध वास्तुकला, मंदिर और कृषि अनुष्ठानों के साथ ही सिंहली भाषा में दक्षिण भारतीय संस्कृति के पहलुओं के समावेश को अपनाया गया है। दक्षिण एशिया के इस विशेष खंड में योगदान का उद्देश्य श्रीलंका में रामायण के साहित्यिक और सामाजिक इतिहास को बेहतर ढंग से समझने की दिशा में प्रारंभिक प्रयास करना है। योगदानकर्ता सबसे बुनियादी ऐतिहासिक प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करते हैं। श्रीलंका का संबंध रावण के पौराणिक निवास लंकापुर (एक ऐसी समानता जो महाकाव्य के प्रारंभिक संस्कृत संस्करणों में कहीं नहीं मिलती) से कब और कैसे जुड़ा?, मध्ययुगीन सिंहल, बौद्ध और हिन्दू मंदिरों में विभीषण की संरक्षक के रूप में प्रमुखताऔर प्रासंगिकता, सिंहल इतिहास, काव्य और कृतियों में द्वीप के प्राचीन शासक के रूप में रावण का महत्व विचारणीय हैं।

            'मानक रामायण' को अपनाकर या फिर कथा को विशिष्ट स्थानीय शैली में पुनर्परिभाषित कर, विभिन्न संदर्भों में, यह महाकाव्य ऐतिहासिक रूप से श्रीलंका के तमिल शैव और सिंहली बौद्ध, दोनों ही धार्मिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति करता रहा है। यह कथा आम जन को को उन तरीकों की ओर निर्देशित करते हैं जिनसे रामायण के ये विभिन्न प्रक्षेप पथ भारतीय उपमहाद्वीप और उसके बाहर द्वीप के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है।

            जस्टिन हेनरी का शोधपत्र 'श्रीलंका में रामायण के प्रसारण में अन्वेषण' श्रीलंका में रामायण की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर विविध दृष्टिकोणों का सारांश और उत्तर मध्यकालीन सिंहल साहित्य में महाकाव्य के नाटकीय पात्रों (राम, रावण और विभीषण) की व्याख्या करता है। वह बौद्ध ऐतिहासिक साहित्य और लोककथाओं में महाकाव्य के प्रसार का एक मार्ग तमिल हिंदू साम्राज्य जाफना के माध्यम से खोजते हैं। उनके अनुसार श्रीलंकाई तमिलों ने खुले तौर पर इस द्वीप की पहचान रामायण की लंका के साथ स्वीकार की हालाँकि उन्होंने अपने चोल पूर्वजों के नकारात्मक और राक्षसी अर्थों को उलट दिया। उत्तरी श्रीलंका के तमिल हिंदू राजा स्वयं 'सेतु के संरक्षक' बन गए। हेनरी ने निष्कर्ष निकाला कि इन लंकाई तमिल ग्रंथों) ने कंद्यान काल की सिंहली कविता में रावण की सिंहली बौद्ध साहित्यिक छवियों को आकार देने में प्रत्यक्ष भूमिका निभाई।

            श्री पद्मा ने 'बॉर्डर्स क्रॉस्ड: विभीषण इन द रामायण एंड बियॉन्ड' में लिखा कि जहाँ रामायण ने दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्सों में विभिन्न स्थानों पर अपनी अनूठी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ प्राप्त कीं, वहीं पूर्व-आधुनिक श्रीलंकाई साहित्य ने महाकाव्य से प्राप्त चुनिंदा घटनाओं के चित्रण और कुछ रामायण पात्रों (विशेषत: विभीषण) का स्वदेशीकरण किया। तेरहवीं शताब्दी के राजनीतिक और जनसांख्यिकीय परिवर्तनों ने महाकाव्य के दक्षिण भारतीय मूल के देवताओं को बौद्ध परिवेश में ला दिया। पंद्रहवीं शताब्दी के राम के पंथ को विष्णु के पंथ के साथ मिला दिया गया। विभीषण जिन्हें उनके मृत भाई रावण से लंका का राज्य विरासत में मिला और जिनकी रावण की मृत्यु में भूमिका विवादास्पद है को सिंहल शासकों द्वारा एक संरक्षक देवता के रूप में पूजा जाकर उनसे द्वीप और बौद्ध धर्म को सुरक्षा प्रदान करने की अपेक्षा की गई। विभीषण पंथ की उत्पत्ति और रावण पंथ के समकालीन उद्भव के बाद बौद्ध देवताओं के पंथ में उनका परिवर्तन हाल के सिंहल बौद्ध राष्ट्रवाद का एक हिस्सा है।

            'लंका की नैतिक सीमाओं का मानचित्रण: रावण राजवंशीय में सामाजिक-राजनीतिक अंतर का निरूपण ' लेख में जोनाथन यंग और फिलिप फ्रेडरिक ने सोलहवीं शताब्दी के एक ग्रंथ 'श्रीलंकाद्वीपये कदैम' (रावण  राजवंशीय) का अध्ययन कर सिंहल पाठ्य परंपरा में रावण-आख्यान को पुण्य स्थलाकृति के विमर्श में समाहित किया है। तदनुसार ग्रंथ का परिदृश्य, गमपोला और कोट्टे राज्यों के सत्ता में आने की पृष्ठभूमि में दंबदेनिया साम्राज्य के नैतिक पतन की कहानी के बाद राजत्व पर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दियों के मध्य  द्वीप के दक्षिण-पश्चिम में अंतर-क्षेत्रीय परिसंचरण के बदलते स्वरूपों के कारण आई सामाजिक गतिशीलता से उत्पन्न स्थानीय राजनीतिक चिंताओं को व्यक्त करता है। यह  'दूसरों' को एक अविभेदित खतरे के रूप में नहीं, बल्कि एक स्थानिक नैतिक व्यवस्था से निकटता और दूरी के संदर्भ में प्रस्तुत करता है। यह परिदृश्य स्वत्व के वांछनीय रूपों को ऐसे साधनों के रूप में प्रस्तुत करता है जिनके द्वारा दक्षिण भारत से संबंधित उभरते सामाजिक समूहों (ब्राह्मण, व्यापारी, घुमंतू सैनिक आदि) एक उभरते हुए लंकाई राज्य समाज में समाहित किए गए। इसका उद्देश्य दक्षिण एशियाई लोगों को पूर्व ऐतिहासिक परिवेशों में जातीय और धार्मिक पहचान की कठोर धारणाओं की प्रयोज्यता के साथ ऐसी पहचानों के प्रबंधन में राजाओं और राज्यों की कथित भूमिका पर चल रही कठिन बहसों पर पुनर्विचार कर पूरे द्वीप में बिखरे हुए स्थानीयकृत रामायणकालीन पौराणिक स्थलों और लोककथा परंपराओं का आकलन करना है। तमिल हिंदू मौखिक और पाठ्य परंपराओं में, मुन्नेश्वरम और कोनेश्वरम के प्रमुख मंदिरों (द्वीप के पूर्वी तट पर विभिन्न अन्य भक्ति स्थलों के साथ) की स्थापना राम और रावण दोनों से जुड़ी हुई है। रावण को श्री पद और एडम्स पीकके क्षेत्र में केंद्रीय उच्चभूमि से जोड़ने वाली अलग परंपराके समानांतर रावण का महल हंबनटोटा के पास सुदूर दक्षिण में भी बताया जाता है। मेरा मत है कि रावण के एक से अधिक महल विविध स्थानों पर हो सकते हैं। 

            श्रीलंका में रामायण संस्कृति के पूर्व-आधुनिक पहलुओं और इक्कीसवीं सदी में  'रावण पुनरुत्थान' में सिंहल बौद्धों ने रावण को एक दूर का पूर्वज और द्वीप की राजशाही का संस्थापक स्वीकार किया है। छठी शताब्दी ईस्वी में द्वीप पर राजनीतिक और धार्मिक जीवन का एक पाली बौद्ध वृत्तांत सम्मत यह धारणा महावंश के आधिपत्य वाले आर्य वंश के आख्यान के सम्मुख एक चुनौती है। दिलीप विथाराना का शोधपत्र, 'रावण का श्रीलंका: सिंहल राष्ट्र को पुनर्परिभाषित करना?' आर्य वंश के सिद्धांत को छोड़कर, यक्क-रावण वंश के साथ सिंहल राष्ट्र को फिर से परिभाषित करता है। राम-रावण संघर्ष की व्याख्या अक्सर आर्य-द्रविड़ या उत्तर- दक्षिण संघर्ष के रूप में की जाती रही है। इसीलिए 'मानक रामायण' को पूरे दक्षिण एशिया में समान उत्साह के साथ स्वीकार नहीं किया गया। बीसवीं सदी के आरंभ में दक्षिण भारतीय द्रविड़ आंदोलन के कुछ लोगों ने रामायण को पूरी तरह से नकार दिया जबकि अन्य ने रावण को एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति, एक सदाचारी शासक और शिव के अनन्य भक्त का दर्जा देने का प्रयास किया।  'श्रीलंका में रावण' शोधपत्र में पथमनेसन संमुगेश्वरन, कृष्णथा फेड्रिक्स और जस्टिन डब्ल्यू. हेनरी इक्कीसवीं सदी में सिंहल-बौद्धों द्वारा सांस्कृतिक नायक के रूप में रावण के उदय को इंगित करता है। तदनुसार रावण ने बौद्ध मंदिरों में अनुष्ठानिक संदर्भों में अर्ध-दिव्य दर्जा प्राप्त किया है। इक्कीसवीं सदी के तमिल राष्ट्रवादी लेखन से उत्पन्न 'सिंहल रावण' सिंहल-तमिल वंश के एक संभावित साझा प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण है।

            श्रीलंका में रामायण की विरासत पर विचार करते हुए जॉन होल्ट मध्यकालीन श्रीलंका में विष्णु और उनके राम अवतार के 'बौद्ध रूप' का प्रतिनिधित्व करते  'उपुलवन पंथ' की पड़ताल करता है। सुशांत गुणतिलके और मालिनी डायस 'सिंहल रावण' पर प्रतिक्रिया देते हुए ,श्रीलंका सरकार द्वारा 'रामायण ट्रेल' पुरातात्विक साक्ष्यों के चिंताजनक गलत प्रस्तुतीकरण और मिथ्याकरण के प्रति चिंतित हैं। श्रीलंका में उभर रहा "रावण पंथ" रामायण को एक राष्ट्रव्यापी कथा के रूप में अपनाने और उसे श्रीलंका के बौद्धिक और राजनीतिक अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास कर रहा है। भारत के साथ अपनी ऐतिहासिक और पौराणिक संबंधों से खुद को अलग कर श्री लंका में राष्ट्रवाद को मजबूत करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है। 

            वर्तमान संदर्भ में जब श्री राम मंदिर के नव निर्माण के माध्यम से श्री राम को भारत की राष्ट्रीय एकता के पर्याय के रूप में जन-मानस द्वारा स्वीकार किया जा रहा है, तब श्री लंका में राम कथा के प्रतिनायक रावण को लंकाई एकता के प्रतीक के रूप में स्वीकार जाना महत्वपूर्ण है। जाने-अनजाने राम-रावण कथा और रामायण भारत और श्री लंका को एक सूत्र में इस प्रकार बाँध सकती है कि इन दोनों देशों के बीच में दरार डालने की कोशिश कर रहे देश और शक्तियों को पराभूत करने के लिए रामायण का संदर्भ अति उपयोगी और आवश्यक है। 
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लंका में रामायण कालीन स्थल


लंका में रामायण कालीन स्थल 
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रामायण काल में वर्तमान श्रीलंका को लंका कहा जाता था। यह द्वीप रावण के राज्य की राजधानी थी। रामायण में, लंका को एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ स्वर्ण का प्राचुर्य था। लंका एक शक्तिशाली राजा रावण द्वारा शासित था। सिंहली में केवल "रामकथा" पर कोई महत्वपूर्ण स्वतंत्र कृति मेरी जानकारी में नहीं है तथापि श्रीलंकाई संस्कृति पर रामायण और भगवान राम का गहरा प्रभाव है। श्री लंका के पर्वतीय क्षेत्र में कोहंवा देवता लोक पूज्य रहे हैं। इसे साहित्य, धर्म और स्थानीय किंवदंतियों में देखा जा सकता है। सिंहली साहित्य में कुछ प्राचीन संदर्भ राम के विरुद्ध होते हुए भी १४ वीं शताब्दी के बाद सकारात्मक संदर्भ देखे जा सकते हैं। रावण को राम के आराध्य शिव के भक्त के रूप में चित्रित किया जाना एक ऐसा ही संदर्भ है। रामायण काल में रावण की राजधानी वर्तमान 'सिंहल' (सीलोन) या लंका द्वीप में मानी जाती है।

भारत और लंका के बीच के समुद्र पर पुल बनाकर श्रीरामचंद्र अपनी सेना को लंका ले गए थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भारत के दक्षिणतम भाग में स्थित महेन्द्र नामक पर्वत से कूदकर श्रीराम के परम भक्त हनुमान समुद्र पार लंका पहुंचे थे। रामचंद्रजी की सेना ने लंका में पहुँचकर समुद्र तट के निकट सुवेल पर्वत पर पहला शिविर बनाया था। लंका और भारत के बीच के उथले समुद्र में जो जलमग्न पर्वत श्रेणी है, उसके एक भाग को वाल्मीकि रामायण तथा तुलसीकृत रामचरित मानस में मैनाक कहा गया है। लंका 'त्रिकूट' नामक पर्वत पर स्थित थी। यह नगरी अपने ऐश्वर्य और वैभव की पराकाष्ठा के कारण स्वर्ण-मयी कही जाती थी। वाल्मीकि ने अरण्यकाण्ड ५५,७-९ और सुन्दरकाण्ड २, ४८-५० में सुंदरलंका का मनोरम वर्णन किया है-

'प्रदोष्काले हनुमानंस्तूर्णमुत्पत्य वीर्यवान्,
प्रविवेश पुरीं रम्यां प्रविभक्तां महापथाम्,
प्रासादमालां वितता स्तभैः काचनसनिभैः,
शातकुभनिभैर्जालैर्गधर्वनगरोपमाम्,
सप्तभौमाष्टभौमैश्च स ददर्श महापुरीम्;
स्थलैः स्फटिकसंकीर्णः कार्तस्वरांविभूषितैः,
तैस्ते शुशभिरेतानि भवान्यत्र रक्षसाम्।'

वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड ३ में इस रम्यनगरी का मनोहर वर्णन इस प्रकार है-
'शारदाम्बुधरप्रख्यैभंवनैरुपशोभिताम्,
सागरोपम निर्घोषां सागरानिलसेविताम्।
सुपुष्टबलसंपुष्टां यथैव विटपावतीम्
चारुतोरणनिर्यूहां पांडूरद्वारतोणाम्।
भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव,
तां सविद्यद्घनाकीर्णा ज्योतिर्गणनिषेदिताम्।
चंडमारुतनिर्हृआदां यथा चाप्यमरावतीम्
शातकुंभेन महता प्राकारेणभिसंवृताम्
किंकणीजालघोषाभि: पताकाभिरंलंकृताम्,
आसाद्य सहसा हृष्ट: प्राकारमभिपेदिवान्।
वैदूर्यकृतसोपानै:, स्फटिक मुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितै:
तप्तहाटक निर्यूहै: राजतामलपांडूरै:,
वैदूर्यकृतसोपानै: स्फटिकान्तरपांसुभि:,
चारुसंजवनोपेतै: खमिवोत्पतितै: शुभै:,
क्रौंचबर्हिणसंघुष्टैरजिहंसनिषेवितै:,
तूर्याभरणनिर्घोर्वै: सर्वत: परिनादिताम्।
वस्वोकसारप्रतिमां समीक्ष्य नगरी तत:,
खमिवोत्पतितां लंकां जहर्ष हनुमान् कपि:।
'सुन्दरकाण्ड३, २-१२

हनुमान ने सीता जीसे अशोक वाटिका में भेंट करने के उपरान्त लंका का एक भाग जलाकर भस्म कर दिया था। सुन्दरकाण्ड ५४, ८-९ और सुन्दरकाण्ड १४ में लंका के अनेक कृत्रिम वनों एवं तड़ागों का वर्णन है। श्री राम ने रावण के वधोपरान्त लंका का राज्य विभीषण को दे दिया था। बौद्धकालीन लंका का इतिहास 'महावंश' तथा 'दीपवंश' नामक पाली ग्रंथो में प्राप्त होता है। अशोक के पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा ने सर्वप्रथम लंका में बौद्ध मत का प्रचार किया था।

आधुनिक श्रीलंका का ही प्राचीन बौद्धकालीन नाम सिंहल था। पाली में लिखे प्राचीन बौद्ध ग्रंथ महावंश में उल्लिखित जनश्रुतियों के अनुसार लंका के प्रथम भारतीय नरेश की उत्पत्ति सिंह से होने के कारण इस देश को सिंहल कहा जाता था। सिंहल के बौद्धकालीन इतिहास का विस्तार से वर्णन महवंश में है। इस ग्रंथ में वर्णित है कि मौर्य सम्राट् अशोक के पुत्र महेंद्र और संघमित्रा ने सिंहद्वीप पहुँचकर वहाँ प्रथम बार बौद्ध मत का प्रचार किया था। गुप्तकाल में समुद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा सिंहल द्वीप तक मानी जाती थी। हरिषेण रचित समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में सैंहलकों का गुप्त सम्राट् के लिए भेंट उपहार आदि लेकर उपस्थित होने का वर्णन आया है-- 'देवपुत्रषाहीषाहनुषाहि-शकमुरुंडै:सैंहलकादिभिश्च'.

बौद्धगया से प्राप्त एक अभिलेख से यह भी सूचित होता है कि समुद्रगुप्त के शासनकाल में सिंहल नरेश मेघवर्णन द्वारा इस पुण्यस्थान पर एक विहार बनवाया था।

मध्यकाल की अनेक लोक कथाओं में सिंहल का उल्लेख है। हिंदी के महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी रचित पद्मावत में सिंहल की राजकुमारी पद्मावती की प्रसिद्ध कहानी वर्णित है। लोककथाओं में सिंहल देश को धन-धान्यपूर्ण रत्न-प्रसविनी भूमि माना गया है। यहाँ की सुंदरी राजकुमारी से विवाह करने के लिए भारत के अनेक नरेश इच्छुक रहते थे। सिलोन सिंहल का ही अंग्रेजी रूपांतर है। लंका के अतिरिक्त सिंहल के पार समुद्र, ताम्रद्वीप, ताम्रपर्णी तथा धर्मद्वीप आदि नाम भी बौद्ध साहित्य में प्राप्त होते हैं। कौटिल्य-अर्थशास्त्र (अध्याय-११) में पारसमुद्र को लंका कहा गया है। वाल्मीकि रामायण ६,३,२१ में 'पारेसमुद्रस्य' कहकर लंका की स्थिति का वर्णन है। पेरिप्लस में इससे पालीसिमंदु (Palaesimundu) कहा गया है।

महाभारत (II.३२.१२)[१२], (II.4४८.३०)[१३], (III.४८.१९)[१४] सिंहली जनजाति को संदर्भित करता है।

सिंहली साम्राज्य या सिंहली साम्राज्य एक या सभी क्रमिक सिंहली साम्राज्यों को संदर्भित करता है जो आज श्रीलंका में मौजूद हैं।

द्रविडाः सिंहलाश चैव राजा काश्मीरकस तदा,
कुन्तिभॊजॊ महातेजाः सुह्मश च सुमहाबलः (II.३१.१२)

समुद्रसारं वैडूर्यं मुक्ताः शङ्खांस तदैव च,
शतशश च कुदांस तत्र सिन्हलाः समुपाहरन (II.४८.३०)

सागरानूपगांश चैव ये च पत्तनवासिनः,
सिंहलान बर्बरान मलेच्छान ये च जाङ्गलवासिनः (III.४८.१९)

रामायण कालीन स्थान-

श्रीलंका ५० से अधिक रामायण कालीन राम-रावण संघर्ष से जुड़ी विश्व-धरोहरों का गौरवशाली संरक्षक है। इनमें प्रमुख हैं-

थिरु कोनेश्वरम् मंदिर- सुंदर और शांत समुद्र तटों के लिए प्रसिद्ध त्रिंकोमाली शहर में स्थित इस मन्दिर का निर्माण रावण के भक्ति-भाव से प्रसन्न भगवान शिव के निर्देश पर पर ऋषि अगस्त ने कराया था। रावण यहाँ अपनी माता, राक्षस राजा सुमाली की पुत्री, ऋषि विश्रवा की दूसरी पत्नी केकसी के साथ शिव-पूजा किया करता था। कुंभकर्ण, विभीषण और सूर्पणखा केकसी की अन्य ३ संतानें थीं।

भारत और श्रीलंका के बीच लगभग ३० मील लंबा एक उथला चट्टानी इलाका राम-सेतु (एडम्स ब्रिज ) जिसे नल-नील के मार्गदर्शन में वानरों ने रातों-रात बनाया था, युद्ध क्षेत्र, वानर देवता हनुमान द्वारा लाए गए विदेशी जड़ी-बूटियों के बाग, युद्ध का अंतिम क्षेत्र जहाँ श्री राम ने दस सिर वाले राक्षस राजा रावण का वध किया, मुन्नेश्वरम और मनावरी मंदिर (जहाँ भगवान राम ने रावण-वध के दोष से मुक्ति के लिए शिवलिंग स्थापित कर रावण के आराध्य शिव जी का पूजन किया था), रैगला के जंगलों में रावण की तपस्थली रावण गुफा (जहाँ बाद में रावण का शव रखा गया था), दिवुरुम्पोला (जहाँ सीता जी ने पवित्रता सिद्ध करने हेतु अग्नि परीक्षा दी थी), य़ाहंगला (जहाँ रावण के पार्थिव शरीर को रखा गया था, ताकि स्थानीय प्रजा उन्हें श्रद्धांजलि दे सकें), हनुमान जी के पैरों के निशान आदि प्रमुख हैं।

श्रीलंका में ५० से ज़्यादा ऐसे स्थल हैं जिनका रामायण में उल्लेख मिलता है।सीता की कैद से लेकर उन युद्धस्थलों तक जहाँ दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, हनुमान द्वारा गिराए गए विदेशी जड़ी-बूटियों के बाग़ों से लेकर उस अंतिम युद्धस्थल तक जहाँ भगवान राम ने दस सिरों वाले राक्षसराज रावण का वध किया था।

उस स्थान पर ली गई शपथ जहाँ सीता देवी ने "अग्नि परीक्षा" दी थी, आज भी ग्राम कचहरियों या ग्राम सभाओं में मान्य मानी जाती है।
प्राचीन युद्धक्षेत्र की मिट्टी का रंग आज भी लाल है, और यह अभी भी हल्के रंग की मिट्टी से घिरी हुई है। रावण के एक हवाई अड्डे, जिसे हनुमान ने सीता की तलाश में आते समय जला दिया था, आज भी झुलसी हुई मिट्टी जैसा दिखता है।

भूरी मिट्टी से घिरा गहरे रंग का एक टुकड़ा

रामायण में वर्णित घटनाएँ कई वर्षों पहले घटित हुईं थीं, फिर भी इसके भौगोलिक निशान उत्तर से दक्षिण भारत तक और विशेष रूप से श्रीलंका तक मौजूद हैं। श्री राम और बुद्ध दोनों भारत और श्रीलंका को एक सूत्र में पिरोते हैं।आश्चर्य है कि इन स्थानों के नाम आज भी अपरिवर्तित हैं। रावण ने एक स्वर्ण मृग को प्रलोभन के रूप में प्रयोग करके सीता से तब मुलाकात की, जब मारीच द्वारा स्वर्ग मृग का वेश धारण कर श्री राम तथा लक्ष्मण को छलपूर्वक दूर ले जाने के बाद वह अपने आश्रम में अकेली थीं । एक वृद्ध ऋषि के वेश में, उसने सीता का अपहरण किया और उन्हें अपने पुष्पक विमान, लंका में वेरागंटोटा (विमान उतरने का स्थान/हवाई अड्डा") लाया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, रावण भारत से सीता देवी को पुष्पक विमान में लाया था। इसे सिंहल में "दंडु मोनारा यंत्रनाया" (विशाल मयूर यंत्र) कहा गया है। यह वर्तमान जंगल ही वह स्थान हैं जहाँ कभी लंकापुर शहर हुआ करता था। शहर में रानी मंदोदरी के लिए एक सुंदर महल था जो झरनों, नदियों और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जीवों से घिरा हुआ था। सीता को लंकापुर में रानी मंदोदरी के महल में रखा गया था। जिस स्थान पर सीता को बंदी बनाया गया था उसे सिंहल में सीता कोटुवा (सीता का किला) कहा जाता है। सिंहली भाषा में विमान को "धंडू मोनारा" / "उड़ता हुआ मोर" कहा जाता है, इसीलिए इसका नाम गुरुलुपोथा अर्थात "पक्षियों के अंग"हुआ। इसे 'गवगला' भी कहा जाता है।

रथ यात्रा मार्ग में सीता अश्रु तालाब स्थित है और ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण सीता देवी के आँसुओं से हुआ था। तब से यह कभी नहीं सूखा। भीषण अकाल-काल में जब आस-पास की नदियाँ सूख जाती थीं, यहाँ पानी रहता था। पर्यटक प्रसिद्ध सीता पुष्प (सारका अशोका) भी देख सकते हैं। इन फूलों की ख़ासियत पंखुड़ियों, पुंकेसर और स्त्रीकेसर की संरचना है, जो धनुष धारण किए हुए एक मानव आकृति के समान हैं और कहा जाता है कि ये भगवान राम का प्रतीक हैं। ये फूल पूरे श्रीलंका में केवल इसी क्षेत्र में प्राप्त होते हैं।

नुवारा एलिया (अशोक वाटिका) में सीता अम्मन मंदिर

केथीश्वरम् मंदिर- श्री लंका के उत्तर-पश्चिम भाग में मन्नार द्वीप पर स्थित यह भगवान शिव को समर्पित एक रावण मंदिर है। इसकी स्थापना रावण के पितामह मय दानव ने की थी। यह तीसरा स्थान है जहाँ श्री राम ने ब्रह्म-हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए शिव लिंग स्थापित कर शिव पूजन किया था। हर पूर्णिमा को यहाँ हनुमान जी की विशेष पूजा की जाती है।

एला- एला श्रीलंका के उवा प्रांत का एक कस्बा है। यहाँ सिगिरिया (ऊँची चट्टान पर स्थित रावण का महल), १०८० फुट ऊँचा रावण फाल्स (प्राकृतिक झरना जहाँ से रावण सीता को लंका ले गया था), अशोक वाटिका (सीता एलिया जहाँ सीता जी को बंदी बनाकर रखा गया था),



मनावरी मंदिरम्- लगभग ७००० वर्ष पूर्व भगवान राम द्वारा रावण-वध के पश्चात स्थापित-पूजित पहला शिव लिंग यहाँ है। इसे रामलिंग शिवम् भी कहा जाता है। श्री राम के नाम पर यह एकमात्र स्थान है।

केलानिया मंदिरम्- रोशनी के शहर नुवारा एलिया में केन्द्रीय पर्वत मालाओं के बीच स्थित इस स्थल पर रावण के अंत के बाद विभीषण का राज्याभिषेक किया गया था। यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए भी पवित्र स्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने श्री लंका में यहीं चरण रखे थे। सिंहली बौद्ध भी विभीषण को अपनी भूमि के रक्षक और देव रूप में पूजते हैं।

नुवारा एलिया में सीता अम्मन मंदिर स्थित है। नुवारा एलिया से ५ किलोमीटर दूर अशोक वाटिका है। यहाँ अशोक वृक्षों के मध्य माता सीता को बंदी कर रखा गया था। सीता जी जिस जल-धार में स्नान करती थीं उसके निकट छोटे-बड़े पैरों के निशान हैं जिन्हे हनुमान जी के पग-चिह्न कहा जाता है। जिसके किनारे एक जलधारा बहती है। लोक मान्यता है कि सीता देवी इसी जलधारा में स्नान करती थीं। इस नदी के किनारे चट्टानों पर भगवान हनुमान जैसे पैरों के निशान पाए जाते हैं, जिनमें से कुछ छोटे और कुछ बड़े आकार के हैं, जो भगवान हनुमान की किसी भी आकार में रूपांतरित होने की शक्ति का संकेत देते हैं।

पर्वत श्रृंखला के ऊपर बंजर भूमि वह मार्ग है जिससे राजा रावण सीता देवी को अपनी राजधानी लंकापुर से अशोक वाटिका ले गया था। पर्वत श्रृंखला के ऊपर रथ पथ अभी भी दिखाई देता है। आज तक इस मार्ग पर घास के अलावा कोई वनस्पति नहीं उगती है। लगभग एक शताब्दी पहले धारा में तीन छवियाँ खोजी गई थीं, जिनमें से एक सीता की थी। ऐसा माना जाता है कि सदियों से इस स्थान पर देवताओं की पूजा की जाती रही है। अब इस धारा के किनारे भगवान राम, सीतादेवी, लक्ष्मण और हनुमान के मंदिर हैं।

पुसल्लावा में फ्रोटॉफ्ट एस्टेट के ऊपर पर्वत श्रृंखला के बगल में पहाड़ की चोटी वह स्थान है जहाँ हनुमान ने पहली बार मुख्य भूमि लंका पर अपना पैर रखा था। पावला मलाई के रूप में जाना जाने वाला यह पर्वत इस पर्वत श्रृंखला से दिखाई देता है।

समुद्र पार करते समय, लंका जाते समय नाग कन्या सुरसा देवी ने हनुमान की परीक्षा ली थी। इस स्थान को अब ''नागदीपा'' कहा जाता है । जब हनुमान ने मेघनाद (रावण के पुत्र) पर मोहित होने का निर्णय लिया, तो दंड स्वरूप उनकी पूंछ में आग लगा दी गई। बदले में हनुमान ने शहर के घरों में आग लगा दी। उस्संगोडा ऐसा ही एक जला हुआ क्षेत्र है।

भारत वापस आते समय हनुमान ने मणि कट्टुथर में विश्राम किया था। पास में ही कोंडागाला (तमिल में कोंडाकलाई अर्थ बालों का बिखरना) नामक गाँव में सीता ने यहाँ से गुजरते समय अपने बाल अस्त-व्यस्त कर लिए थे। श्रीलंका के कई अन्य शहरों और गाँवों की तरह कोंडाकलाई (कोंडागाला) का नाम भी रामायण से लिया गया है। इस गाँव में सीता गोली (गूली) भी हैं जो रावण द्वारा सीता को जलपान हेतु दिए गए चावल के गोले हैं; जिसे सीता ने अस्वीकार कर, फेंक दिया था। वे रावण द्वारा दिया गया कोई पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहती थीं। स्थानीय लोग इन चावल के गोलों को सीता गोली कहते हैं और वे इन्हें अपने बच्चों को पेट की बीमारियों और सिरदर्द के इलाज के लिए देते हैं। किसान भी समृद्धि के लिए इन्हें अपने कैश बॉक्स या अनाज के बर्तनों में रखते हैं।

कोटमाले क्षेत्र में रावणगोड़ा (रावण का निवास) सुरंगों और गुफाओं का परिसर है जहाँ हनुमान द्वारा सीता के दर्शन करने, आधी लंका जलाने और चले जाने के बाद, रावण ने सीता को कुछ समय के लिए अशोक वाटिका हटाकर छुपाया था।

इस्त्रिपुरा (महिलाओं का क्षेत्र) रास्तों का एक और अद्भुत जाल है जो राजा रावण की नगरी के सभी प्रमुख क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। यह उस महिला-दल को संदर्भित करता है जिन्हें रावण ने सीता की देखभाल के लिए उपलब्ध कराया था।

कोंडा कट्टू गाला इस क्षेत्र में स्थित कई घुसपैठ करनेवाली सुरंगों और गुफाओं को दर्शाता है। यह रास्तों के एक महान अद्भुत जाल का हिस्सा प्रतीत होता है, जो राजा रावण की नगरी के सभी प्रमुख क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। सीता देवी ने इसी जलधारा में स्नान किया था और एक चट्टान पर बैठकर अपने केश सुखाए थे और बालों में क्लिप लगाई थीं, इसलिए इस चट्टान को कोंडा कट्टू गाला के नाम से जाना जाता है। यह वेलिमाडा क्षेत्र में स्थित है। इन सुरंगों को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ये मानव निर्मित हैं, प्राकृतिक नहीं।

कालूतारा स्थित बौद्ध तीर्थस्थल कभी राजा रावण का महल और एक सुरंग हुआ करता था। इसके अतिरिक्त सुरंगों के मुहाने वेलिमाडा, बंदरवेला में रावण गुफा, हलागला में सेनापिटिया, रम्बोडा, लाबूकेले, वारियापोला/माताले और सीताकोटुवा/हसलाका में स्थित हैं, साथ ही कई अन्य सुरंगें भी हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि रावण के पास एक सुरंग थी जो दक्षिण अमेरिका तक जाती थी, जहाँ उसने अपना अधिकांश सोना और खजाना जमा किया था। उसने अपने भाई अहिरावण से मिलने के लिए भी यही रास्ता चुना था, जो पाताल लोक (ब्राज़ील) में रहता था ।

गायत्री पीडम में राजा रावण के पुत्र मेघनाद ने भगवान शिव की तपस्या और पूजा से उन्हें प्रसन्न किया और बदले में युद्ध से पहले भगवान शिव ने उन्हें अलौकिक शक्तियाँ प्रदान की थीं। नीलावारी देश के उत्तर में जाफना प्रायद्वीप में भगवान राम ने लंका पहुँचने पर अपनी सेना के लिए पानी पानेने हेतु भूमि पर बाण मारा था। दोंद्रा, सीनिगामा और हिक्काडुवा लंका के दक्षिण में स्थित वे स्थान हैं जहाँ सुग्रीव (वानरों के राजा) ने दक्षिणी दिशा से राजा रावण की सेना के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की थी। युद्ध के दौरान, मेघनाद ने विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए सीता देवी की एक हमशक्ल का सिर काट दिया था। अविस्सावेल्ला क्षेत्र में यह स्थान सीतावाका है।

लग्गाला (सिंहल शब्द "एलक्के गला" अर्थ है लक्ष्य चट्टान) भगवान राम की सेना पर नज़र रखने के लिए एक प्रहरी के रूप में कार्य करता था। दुनुविला झील के पीछे के कार्टेल को लग्गाला कहा जाता है। इसी चट्टान से भगवान राम की सेना की पहली झलक देखी गई थी और राजा रावण को इसकी सूचना दी गई थी। यह पहाड़ी भौगोलिक रूप से राजा रावण की नगरी के उत्तरी क्षेत्र का सबसे ऊँचा भाग है और साफ़ दिन में उत्तर पूर्व की ओर, यानी थिरु कोणेश्वरन और उत्तर पश्चिम की ओर, यानी तलाई मन्नार, आज भी देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि राजा रावण ने इसी चट्टान पर ध्यान किया था और यहीं से थिरु कोणेश्वरन में भगवान शिव की प्रार्थना की थी। उष्ण कटिबंधीय श्रीलंकाई वनस्पतियों के बीच अचानक विदेशी अल्पाइन हिमालयी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जो हनुमान द्वारा संजीवनी नामक जीवन-पुनर्स्थापना जड़ी-बूटियों से भरा एक पर्वत ले जाने की वीरतापूर्ण यात्रा की विरासत है।

वासगामुवा में एक स्थान युधगानवा (सिंहल में अर्थ युद्ध का मैदान) में प्रमुख युद्ध हुए थे। इंद्रजीत (मेघनाद) के ब्रह्मास्त्र से आहत होने पर, राम, लक्ष्मण दोनों युद्ध के मैदान में बेहोश हो गए थे। उन्हें ठीक करने के लिए, अनुभवी वानर जाम्बवान ने हनुमान को हिमालय में ऋषभ और किलासा चोटियों के बीच जड़ी-बूटियों की पहाड़ी, संजीवनी पर्वत पर जाने और आवश्यक औषधीय जड़ी-बूटियाँ लाने का निर्देश दिया। हनुमान जड़ी-बूटियों को पहचान नहीं सके तो वहाँ उगने वाली सभी जड़ी-बूटियों के साथ पूरी चोटी को उखाड़कर लंका ले आए। पहाड़ी के कुछ हिस्से श्रीलंका में पाँच स्थानों गाले में रुमासाला, हिरिपिटिया में दोलुकंडा, हबराना अनुराधापुर रोड पर तथा हबराना के पास रीतिगाला पर गिरे।

भगवान इंद्र ने भगवान कार्तिकेय सुब्रमण्यम को राजा रावण के ब्रह्मास्त्र से भगवान राम की रक्षा के लिए युद्ध में जाने का अनुरोध किया था। यह कटारगामा में हुआ था , जो अब श्रीलंकाई लोगों के बीच पूजा के लिए एक बहुत लोकप्रिय स्थल है।

दुनुविला झील वह स्थान है जहाँ से भगवान राम ने लगल से युद्ध का नेतृत्व कर रहे राजा रावण पर ब्रह्मास्त्र चलाया था। यहीं पर भगवान राम के ब्रह्मास्त्र से राजा रावण का वध हुआ था। झील की चोटी समतल है और माना जाता है कि इस पर ब्रह्मास्त्र की शक्ति का प्रभाव पड़ा था। " धुनु " का अर्थ है " बाण " और " विला " का अर्थ है " झील ", इसलिए इसका नाम इसी लीला से पड़ा है।

रावण की मृत्यु के बाद, उनके पार्थिव शरीर को महियांगनया-वासगामुवा मार्ग पर स्थित याहंगला (शैल शिला) में रखा गया था ताकि उनके देशवासी अपने प्रिय दिवंगत राजा को अंतिम श्रद्धांजलि दे सकें। भौगोलिक दृष्टि से यह शिला अपनी तीनों दिशाओं से मीलों दूर से दिखाई देती है।

युद्ध के बाद सीता राम से मिलीं और दिवुरुम्पोला (शपथ स्थल) में उन्होंने अग्नि परीक्षा देकर राम के सामने अपनी निर्दोषता और पवित्रता सिद्ध की।

वन्थारामुलई वह स्थान है जहाँ युद्ध की उथल-पुथल के बाद भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान ने विश्राम किया था। अमरंथकाली वह स्थान है जहाँ उन्होंने युद्ध के बाद पहला भोजन किया था।

राम ने ' ब्रह्म हत्या दोष ' (ब्राह्मण रावण का वध) से मुक्ति पाने के लिए मुन्नेश्वरम (मुन्नु + ईश्वरन अर्थात शिव) से ५ किलोमीटर दूर, देदुरु ओया के तट के पास, मनावरी में पहला शिवलिंग स्थापित किया था।

अपने भाई की मृत्यु के बाद, विभीषण को केलानिया में लक्ष्मण द्वारा लंका के राजा के रूप में राज्याभिषेक किया गया था । यह रामायण से जुड़ा कोलंबो का सबसे निकटतम स्थल है। विभीषण श्रीलंका के चार संरक्षक देवताओं में से एकहैं। विभीषण के मंदिर पूरे श्रीलंका हैं। राजा विभीषण की एक पेंटिंग श्रीलंका की नई संसद को भी सुशोभित करती है। रावण के लिए समर्पित कोई मंदिर नहीं हैं, लेकिन विभीषण के लिए कई मौजूद हैं; यह साबित करता है कि वैदिक धर्म और न्याय के प्रति उनके रुख ने लोगों को उन्हें श्रीलंका में एक भगवान के रूप में पूजने के लिए प्रेरित किया। चिरंजीवी विभीषण इस चतुर्युग के ७ अमरों में से १ हैं। लोक मान्यता है कि विभीषण का शासन इस सृष्टि के अंत तक, लंका जलमग्न होने तक होगा । केलानी नदी का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी है।

उपरोक्त के अलावा, श्रीलंका में कई रामायण स्थल हैं जैसे: हॉर्टन मैदानों में थोटुपोलकांडा (पहाड़ी बंदरगाह), महियांगना में
वेरागंटोटा ( "विमान उतरने का स्थान), दक्षिणी तट पर उस्संगोडा ( लिफ्ट का क्षेत्र), मटाले और कुरुनागला में वारियापोला ( विमान बंदरगाह)।

अगस्त २३, वरमाल, नवगीत, चित्र अलंकार, जनकछंदी गीत, सॉनेट, बाल गीत, यगणादित्य घनाक्षरी, बघेली मुक्तिका

सलिल सृजन अगस्त २३
विश्व अंतरिक्ष दिवस
*
पूर्णिका
सियासत में सिया सत ही नहीं है अदावत क्यों अदा वत सी नहीं है? . स्वार्थ-सत्ता साध्य-साधन है गए बगावत भी बगावत सी नहीं है . अब सुदामा-कृष्ण मिलते ही नहीं सखा वत बिन सखावत भी नहीं है . नंगई का नाम फैशन हो गया नज़ाकत औ' नफासत खो गई है . मेघ आच्छादित किए रवि को 'सलिल' रश्मियाँ रवि की नवागत नहीं हैं २३.८.२०२५ ०००
सॉनेट
सुधियाँ
सुधियाँ सखी-सहेली प्यारी,
भुज भर भेंट विहँस दुलराया,
गोद खिलाया कुछ थीं न्यारी,
गिरी उठा चलना सिखलाया।
खेल-कूद लड़-मिल बढ़ आगे,
हुई किशोरी तरुण युवा झट,
सतरंगे सपने अनुरागे,
गोदी भरी रँगा जीवन-पट।
फिर बसंत की हुई बिदाई,
शीत-ग्रीष्म एकाकीपन दे,
कहते दुनिया नहीं पराई,
निरख उसे हँस तोड़ो फंदे।
छोड़ नीड़ उड़ना है पाखी।
सुमिर ईश-गुण, गुरु की साखी।।
२३-८-२०२३
•••
दोहा सलिला
मिली तरुण की तरुणता, संगीता के साथ
याद हरी हो गई झट, झुका आप ही माथ
*
संस्कार ही अस्मिता, सीख रखें हम याद
गूँगे के गुड़ सा सरस, स्नेह सलिल का स्वाद
*
अनुकृति हो सद्गुणों की, तभी मिले सम्मान
पथिक सदृश हों मधुर हम, जीवन हो रसखान
*
कान कजलियाँ खोंसकर, दें मन से आशीष
पूज्य-चरण पर हो विनत, सदा हमारा शीश
*
लोक मनाता कजलियाँ, गाकर कजरी गीत
कजरारे बंकिम नयन, कहें बनो मन मीत
*
मन मंदिर में बस गए, जो जन वे हैं धन्य
बसा सके जो किसी को, सचमुच वहीअनन्य
*
अपने अपनापन बिसर, बनते हों जब गैर
कान कजलिया खोँसिए, मिटा दिलों से बैर
२३-८-२०२१
***
बघेली मुक्तिका
*
बढ़िगा बहुतै पाप
रुपिया मैया-बाप
सलगे नेता चोर
जन-जन के संताप
भागिस सूरज-धूप
काय न लागिस खाप
साधू कीन्हिस ढोंग
हाय अकारथ जाप
सबकै खुलि गै पोल
जोरू के पग चाप
जउने पंडा-देव
तउने टीका-छाप
लड़िकन केर पढ़ाई
लीन्हिस खेती ताप
डूब गइस घर-गाँव
आसमान से नाप
२३-८-२०२०
***
नवान्वेषित दण्डक छंद
यगणादित्य घनाक्षरी
*
विधान- बारह यगण
संकेत-यगण = १२२, आदित्य = १२।
*
कन्हैया! कन्हैया! पुकारें हमेशा, तुम्हें राधिका जी! गुहारें हमेशा, सभी गीत गाएँ तुम्हारे हमेशा।
नहीं कर्म भूलें, नहीं मर्म भूलें, लड़ें राक्षसों से नहीं धर्म भूलें, तुम्हीं को मनाएँ-बुलाएँ हमेशा।।
कहा था तुम्हीं ने 'उठो पार्थ प्यारे!, लड़ो कौरवों से नहीं हारना रे!, झुका या डरो ना बुराई से जूझो।
करो कर्म सारे, न सोचो मिले क्या?, मिला क्या?, गुमा क्या?, रहा क्या? हमेशा।।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
२३-८-२०१९
दोहा
*
हो प्रशांत मन सिंधु सा, गिरि सा दृढ़ संकल्प.
स्वप्न सदा शुभ देखना, जिसका नहीं विकल्प.
२३-८-२०१७
***
- स्मृति के वातायन से
हिन्दयुग्म
बाल गीत
पारुल
रुन-झुन करती आयी पारुल।
सब बच्चों को भायी पारुल।
बादल गरजे, तनिक न सहमी।
बरखा लख मुस्कायी पारुल।
चम-चम बिजली दूर गिरी तो,
उछल-कूद हर्षायी पारुल।
गिरी-उठी, पानी में भीगी।
सखियों सहित नहायी पारुल।
मैया ने जब डाँट दिया तो-
मचल-रूठ-गुस्सायी पारुल।
छप-छप खेले, ता-ता थैया।
मेंढक के संग धायी पारुल।
'सलिल' धार से भर-भर अंजुरी।
भिगा-भीग मस्तायी पारुल।
मंगलवार ७-७-२००९
अभिनव प्रयोग
जनकछंदी (त्रिपदिक) गीत
*
मेघ न बरसे राम रे!
जन-मन तरसे साँवरे!
कब आएँ घन श्याम रे!!
*
प्राण न ले ले घाम अब
झुलस रहा है चाम अब
जान बचाओ राम अब
.
मेघ हो गए बाँवरे
आए नगरी-गाँव रे!
कहीं न पाई ठाँव रे!!
*
गिरा दिया थक जल-कलश
स्वागत करते जन हरष
भीगे-डूबे भू-फ़रश
.
कहती उगती भोर रे
चल खेतों की ओर रे
संसद-मचे न शोर रे
*
काटे वन, हो भूस्खलन
मत कर प्रकृति का दमन
ले सुधार मानव चलन
.
सुने नहीं इंसान रे
भोगे दण्ड-विधान रे
कलपे कह 'भगवान रे!'
*
तोड़े मर्यादा मनुज
करे आचरण ज्यों दनुज
इससे अच्छे हैं वनज
.
लोभ-मोह के पाश रे
करते सत्यानाश रे
क्रुद्ध पवन-आकाश रे
*
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय
दोषी मानव का अनय
अकड़ नहीं, अपना विनय
.
अपने करम सुधार रे
लगा पौध-पतवार रे
कर धरती से प्यार रे
***
पुस्तक सलिला
"खेतों ने खत लिखा" गीतिकाव्य के नाम
*�
[पुस्तक विवरण- खेतों ने खत लिखा, गीत-नवगीत, कल्पना रामानी, वर्ष २०१६ ISBN ९७८-८१-७४०८-८६९-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली ११००३०, लेखिका संपर्क ६०१/५ हेक्स ब्लॉक, सेक्टर १०, खारघर, नवी मुम्बई ४१०२१०, चलभाष ७४९८८४२०७२, ईमेल kalpanasramani@gmail.com]
*
गीत-नवगीत के मध्य भारत-पकिस्तान की तरह सरहद खींचने पर उतारू और एक को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के दुष्प्रयास में जुटे समीक्षक समूह की अनदेखी कर मौन भाव से सतत सृजन साधना में निमग्न रहकर अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर देने में विश्वास रखनेवाली कल्पना रामानी का यह दूसरा गीत-नवगीत संग्रह आद्योपांत प्रकृति और पर्यावरण की व्यथा-कथा कहता है। आवरण पर अंकित धरती के तिमिर को चीरता-उजास बिखेरता आशा-सूर्य और झूमती हुई बालें आश्वस्त करती हैं कि नवगीत प्रकृति और प्रकृतिपुत्र के बीच संवाद स्थापितकर निराश में आशा का संचार कर सकने में समर्थ है। अपने नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' में सूर्य की विविध भाव-भंगिमाओं पर ८ तथा नए साल पर ६ रचनाएँ देने के बाद इस संकलन में सूर्य तथा नव वर्ष पर केंद्रित ३-३ रचनाएँ पाकर सुख हुआ। एक ही समय में समान अनुभूतियों से गुजरते दो रचनाकारों की भावसृष्टि में साम्य होते हुए भी अनुभति और अभिव्यक्ति में विविधता स्वाभाविक है। कल्पना जी ने 'शत-शत वंदन सूर्य तुम्हारा', 'सूरज संक्रांति क्रांति से' तथा 'भक्ति-भाव का सूर्य उगा' रचकर तिमिरांतक के प्रति आभार व्यक्त किया है। 'नव वर्ष आया', 'शुभारंभ है नए साल का' तथा 'नए साल की सुबह' में परिवर्तन की मांगल्यवाहकता तथा भविष्य के प्रति नवाशा का संकेत है।
सूरज की संक्रांति क्रांति से / जन-जन नीरज वदन हुआ
*
एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर
नींद से बोला- 'उठो / नव वर्ष आया
कल्पना जी ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह से अपने लेखन के प्रति आशा जगाई है।जंगल, हरियाली, बाग़-बगीचे, गुलमोहर, रातरानी, बेल, हरसिंगार, चंपा, बाँस, गुलकनेर, बसन्त, पंछी, कौआ, कोयल, सावन, फागुन, बरखा, मेघ, प्रात, दिन, सन्ध्या, धूप, शीत आदि के माध्यम से गीत-गीत में प्रकृति से साक्षात कराती यह कृति अधिक परिपक्व रचनाएँ समाहित किये है। मौसम के बदलते रंग जन-जीवन को प्रभावित करते हैं-
धड़क उठेंगी फिर से साँसें / ज्यों मौसम बदलेगा चोला
*
देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है
आधी उधड़ी ओढ़ रजाई / खींच-खींचकर नाप रही है
जर्जर गात, कुहासा कथरी / वेध रहा बनकर हथगोला
*
'बेबस कमली' की व्यथा-कथा कल्पना जी की रचना सामर्थ्य की बानगी है। एक दिन बिना नहाये काम पर जाने का दंड उससे काम छुड़ाकर दिया जाता है-
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत / ध्वस्त हुए कमली के ख्वाब
काम गया क्या दे पायेगी / बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत / मुआ मरद है क्रूर / कसाई
*
हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू के कटघरों से मुक्त कल्पना जी कथ्य की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करती हैं।इन नवगीतों में जलावतन, वृंत, जर्जर, सन्निकट, वृद्धाश्रम, वसन, कन्दरा, आम्र, पीतवर्णी, स्पंदित, उद्घोष, मृदु, श्वेताभ जैसे तत्सम शब्द आखर, बतरस, बतियाते, चौरा, बिसरा, हुरियारों, पैंजन, ठेस, मारग, चौबारे, पुरवाई, अगवानी, सुमरन, जोगन आदि तद्भव शब्दों के साथ गलबहियाँ डाले हैं तो खत, ज़िंदा, हलक, नज़ारा, आशियां, कारवां, खौफ, रहगुजर, क़ातिल, फ़क़ीर, इनायत, रसूल, खुशबू आदि उर्दू शब्द कोर्ट, डी जे, पास, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ आँख मिचौली खेल रहे हैं।
कल्पना जी परंपरा का अनुसरण करने के साथ-साथ नव भाषिक प्रयोग कर पाठकों-श्रोताओं का अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाती हैं। सरसों की धड़कन, ओस चाटकर सोई बगिया, लातों से अब होगी खिदमत, मुआ मरद है क्रूर कसाई, ख़ौफ़ ही बेख़ौफ़ होकर अब विचरता जंगलों में, अंजुरी अनन्त की, देव! छोड़ दो अब तो होना / पल में माशा पल में तोला, उनके घर का नमक न खाना, लहरें आँख दिखाएँ तो भी / आँख मिला उन पर पग धरना, 'पल में माशा, पल में तोला' जैसे मुहावरे, 'घड़ा देखकर प्यासा कौआ / चला चोंच में पत्थर लेकर' जैसी बाल कथाएँ, गुणा-भाग, कर्म-कलम, छान-छप्पर, लेख-जोखा, बिगड़ते-बनते, जोड़-तोड़, रूखी-सूखी, हल-बैल-बक्खर, काया-कल्प, उमड़-घुमड़, गिल्ली-डंडा, सुख-दुःख, सूखे-भीगे, चाक-चौबंद, झील-ताल, तिल-गुड़, शिकवे-गिले, दान-पुण्य आदि शब्द युग्म तथा दिनकर दीदे फाड़ रहा, सून सकोरा, सूखी खुरचन, जूते चित्र बनाते आये, जोग न ले अमराई, घने पेड़ का छायाघर, सूरज ने अरजी लौटाई, अमराई को अमिय पिलाओ, घिरे अचानक श्याम घन घने, खोल गाँठें गुत्थियों की, तिल-तिल बढ़ता दिन बंजारा, खेतों ने खत लिखा, पालकी बसन्त की, दिन बसन्ती ख्वाब पाले, रात आई रातरानी ख्वाब पाले, गीत कोकिला गाती रहना, बेला महके कहाँ उगाऊँ हरसिंगार, गुलकनेर यादों में छाया, हमें बुलाते बाग़-बगीचे, धान की फसल पुकारे, कभी न होना धूमिल चंदा जैसे सरस प्रयोग मन में चाशनी सी घोल देते हैं।
'खेतों ने खत लिखा सूर्य को', 'नज़रें नूर बदन नूरानी', 'सर्प सारे सर उठा, अर्ध्य अर्पित अर्चना का', 'कन्दरा से कोकिला का मौन बोला', आदि में अनुप्रास की मोहक छटा यत्र-तत्र दर्शनीय है। 'देखो उस टपरी में अम्मा / तन को तन से ताप रही है' में पुनरावृत्ति अलंकार, 'चाट गया जल जलता तापक', 'रात आई रातरानी' आदि में यमक अलंकार, 'कर्म कलम', 'दिन भट्टी' आदि में रूपक अलंकार हैं।
'एक मन्त्र दें वृक्षारोपण' कहते समय यह तथ्य अनदेखा हुआ है कि वृक्ष नहीं, पौधा रोपा जाता है। 'साथ चमकता पथ जब चलता' में तथ्य दोष है क्योंकि पथ नहीं पथिक चलता है। 'उगी पुनः नयी प्रभात' के स्थान पर 'उगा पुनः नया प्रभात' होना था। 'माँ होती हैं जाँ बच्चों की' के सन्दर्भ में स्मरणीय है कि किसी शब्द के अंत में 'न' आने पर एक मात्रा कम करने के लिए उसे पूर्व के दीर्घाक्षर में समाहित कर दीर्घाक्षर पर बिंदी लगाई जाती है। 'जान' के स्थान पर 'जां' होगा 'जाँ' नहीं।
हिंदी के आदि कवि अमीर खुसरो को प्रिय किंतु आजकल अल्प प्रचलित 'मुकरी' विधा की रचनाओं का नवगीत में होना असामान्य है। बेहतर होता कि समतुकांती मुकरियों का प्रयोग अंतरे के रूप में करते हुए कुछ नवगीत रचे जाते। ऐसा प्रयोग रोचक और विचारणीय होता।
नवगीत को लेकर कल्पना जी की संवेदनशीलता कुछ पंक्तियों में व्यक्त हुई है- 'दिनचर्या के गुणा-भाग से / रधिया ने नवगीत रचा', 'रच लो जीवन-गीत, कर्म की / कलम गहो हलधर', 'भाव, भाषा, छंद, रस-लय / साथ सब ये गीत माँगें', 'गीत सलोने बिखरे चारों ओर', 'गर्दिशों के भूलकर शिकवे-गिले / फिर उमंगों के / चलो नवगीत गायें'। नवगीत को सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं, त्रासदियों और टकरावों से उपजे दर्द, पीड़ा और हताश का पर्याय मानने-बतानेवाले साम्यवादी चिन्तन से जुड़े समीक्षकों को नवगीत के सम्बन्ध में कल्पना जी की सोच से असहमति और उनके नवगीतों को स्वीकारने में संकोच हो सकता है किन्तु इन्हीं तत्वों से सराबोर नयी कविता को जनगण द्वारा ठुकराया जाना और इन्हीं प्रगतिवादियों द्वारा गीत के मरण की घोषणा के बाद भी गीत की लोकप्रियता बढ़ती जाना सिद्ध करता है नवगीत के कथ्य और कहन के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे उद्भव कालीं दमघोंटू और सामाजिक बिखरावजनित मान्यताओं से मुक्त कर उत्सवधर्मी नवाशा से संयुक्त किया जाना समय की माँग है। इस संग्रह के गीत-नवगीत यह करने में समर्थ हैं।
'बाँस की कुर्सी', 'पालकी बसन्त की', दिन बसन्ती ख्वाबवाले', 'मन जोगी मत बन', 'कलम गहो हलधर' आदि गीत इस संग्रह की उपलब्धि हैं। सारत:, कल्पना जी के ये गीत अपनी मधुरता, सरसता, सामयिकता, सरलता और पर्यावरणीय चेतना के लिए पसंद किये जाएंगे। इन गीतों में स्थान-स्थान पर सटीक बिम्ब और प्रतीक अन्तर्निहित हैं। 'सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए / दबती रहीं ये सीढ़ियाँ', 'एक अंकुर प्रात फूटा / हर अँगन में प्रीत बनकर', घने पेड़ के छाया घर में / आये आज शरण में इसकी / ज़ख़्मी जूते भर दुपहर में', दाहक रहे दिन भाटी बन / भून रहे बेख़ता प्राण-मन', 'बनी रहें इनायतें रसूल दानवन्त की / जमीं पे आई व्योम वेध पालकी बसन्त की', 'क्रूर मौसम के किले को तोड़कर फिर / लौट आये दिन बसन्ती ख्वाबवाले' जैसी अभिव्यक्तियाँ पाठक के साथ रह जाती हैं। कल्पना जी के मधुर गीत-नवगीत फिर-फिर पढ़ने की इच्छा शेष रह जाना और अतृप्ति की अनुभूति होना ही इस संग्रह की सफलता है।
***
पुस्तक सलिला
"रिश्ते बने रहें" पाठक से नवगीत के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*�
[पुस्तक विवरण- रिश्ते बने रहें, गीत-नवगीत, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', वर्ष २०१६ ISBN ९७८-९३-८०७५३-३१-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, गुंजन प्रकाशन सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद २४४००१ गीतकार संपर्क- ए एल ४९ सचिन स्वीट्स क्व पीछे, दीनदयाल नगर प्रथम, कांठ रोड मुरादाबाद २४४००१ चलभाष ९४१२८०५९८१ ईमेल vyom70 @gmail.com]
*
समय के साथ सतत होते परिवर्तनों को सामयिक विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं मात्र तक सीमित न रख, उत्सवधर्मिता और सहकारिता तक विस्तारित कर ईमानदार संवेदनशीलता सहित गति-यतिमय लयात्मत्कता से सुसज्ज कर नवगीत का रूप देनेवाले समर्थ नव हस्ताक्षरों में श्री योगेंद्र वर्मा 'व्योम' भी हैं। उनके लिए नवगीत रचना घर-आँगन की मिट्टी में उगनेवाले रिश्तों की मिठास को पल्लवित-पोषित करने की तरह है। व्योम जी कागज़ पर नवगीत नहीं लिखते, वे देश-काल को महसूसते हुए मन में उठ रहे विचारों साथ यात्राएँ कर अनुभूतियों को शब्दावरण पहना देते हैं और नवगीत हो जाता है।
कुछ यात्राएँ /बाहर हैं /कुछ मन के भीतर हैं
यात्राएँ तो / सब अनंत हैं / बस पड़ाव ही हैं
राह सुगम हो / पथरीली हो / बस तनाव ही हैं
किन्तु नयी आशाओंवाले / ताज़े अवसर हैं
गत सात दशकों से विसंगति और वैषम्यप्रधान विधा मानने की संकीर्ण सोच से हटकर व्योम जी के गीत मन के द्वार पर स्वप्न सजाते हैं, नई बहू के गृहप्रवेश पर बन्दनवार लगाते हैं, आँगन में सूख रही तुलसी की चिंता करते हैं, बच्चे को भविष्य के बारे में बताते हैं, तन के भीतर मन का गाँव बसाते हैं, पुरखों को याद कर ताज़गी अनुभव करते हैं, यही नहीं मोबाइल के युग में खत भी लिखते हैं।
मोबाइल से / बातें तो काफ़ी / हो जाती हैं
लेकिन शब्दों की / खुशबुएँ / कहाँ मिल पाती हैं?
थके-थके से / खट्टे-मीठे / बीते सत्र लिखूँ
कई दिनों से / सोच रहा हूँ , तुमको पत्र लिखूँ
निराशा और हताशा पर नवाशा को वरीयता देते ये नवगीत घुप्प अँधेरे में आशा- किरण जगाते हैं।
इस बच्चे को देखो / यह ही / नवयुग लाएगा
संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद
मौलिकता गुम हुई / कहीं, अब / हावी हैं अनुवाद
घुप्प अँधेरे में / आशा की / किरण जगाएगा
व्योम जी का कवि ज़िंदगी की धूप-छाँव, सुख-दुःख समभाव से देखता है। वे गली में पानी भरने से परेशान नहीं होते, उसका भी आनंद लेते हैं। उन्हें फिसलना-गिरना भी मन भाता है यूँ कहें कि उन्हें जीना आता है।
गली-मुहल्लों की / सड़कों पर / भरा हुआ पानी
चोक नालियों के / संग मिलकर / करता शैतानी
ऐसे में तो / वाहन भी / इतराकर चलते हैं...
... कभी फिसलना / कभी सँभलना / और कभी गिरना
पर कुछ को / अच्छा लगता है / बन जाना हिरना
उतार-चढ़ाव के बावज़ूद जीवन के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि नवगीतों का वैशिष्ट्य है।व्योम जी का कवि अंधानुकरण में नहीं परिवर्तन हेतु प्रयासों में विश्वास करता है।
संबंधों सपनों / की सब /परिभाषाएँ बदलीं
तकनीकी युग में / सबकी / अभिलाषाएँ बदलीं
संस्कृति की मीनार / यहाँ पर / अनगिन बार ढही
विवेच्य संकलन के नवगीत विसंगतियों, त्रासदियों और विडंबनाओं की मिट्टी, खाद, पानी से परिवर्तन की उपज उगाते हैं। ये नवगीत काल्पनिक या अतिरेकी अभाव, दर्द, टकराव, शोषण, व्यथा, अश्रु और कराह के लिजलिजेपन से दूर रहकर शांत, सौम्य, मृदुभाषी हैं। वे हलाहल-पान कर अमृत लुटाने की विरासत के राजदूत हैं। उनके नवगीत गगनविहारी नहीं, धरती पर चलते-पलते, बोलते-मुस्काते हैं।
गीतों को / सशरीर बोलते-मुस्काते / देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
साधक है वह / सिर्फ न कवि है / एक तपस्वी जैसी छवि है
शांत स्वभाव, / सौम्य मृदुभाषी / मुख पर प्रतिबिंबित ज्यों रवि है
सदा सादगी / संग ताज़गी को / गाते देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
राजनैतिक स्वार्थ और वैयक्तिक अहं जनित सामाजिक टकरावों के होते हुए भी ये नवगीत स्नेह-सरसिज उगाने का दुस्साहस कर आर्तनादवादियों को चुनौती देते हैं।
इन विषमता के पलों में / स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगायें / हों सुगंधित सब दिशाएँ
भूमिका में श्री माहेश्वर तिवारी ठीक लिखते हैं कि इन नवगीतों की भाषा अपनी वस्तु-चेतना के अनुरूप सहज, सरल और बोधगम्य है। ये नवगीत बतियाहट से भरे हैं। मेरी दृष्टि में व्योम जी रचित ये नवगीत 'मुनिया ने / पीहर में / आना-जाना छोड़ दिया', ' दहशत है अजब सी / आज अपने गाँव में', 'अपठनीय हस्ताक्षर जैसे / कॉलोनी / के लोग', 'जीवन में हम / ग़ज़लों जैसा / होना भूल गए', 'उलझी / वर्ग पहेली जैसा / जीवन का हर पल', 'जीन्स-टॉप में / नई बहू ने / सबको चकित किया', 'संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद', 'गौरैया / अब नहीं दीखती / छतों-मुँडेरों पर', 'सुना आपने? / राजाजी दौरे पर आयेंगे / सुनहरे स्वप्न दिखायेंगे' जैसी विसंगतियों में जीने के बाद भी आम आदमी की आशा-विश्वास के साक्षी बने रह सके हैं। ये गीत नेता, पत्रकार, अधिकारी, मठाधीश या साहित्यकार नहीं माँ और पिता बने रह सके हैं। 'माँ का होना / मतलब दुनिया / भर का होना है' तथा 'याद पिता की / जगा रही है / सपनों में विश्वास'। नवगीत भली भाँति जानते, मानते और बताते हैं 'माँ को खोना / मतलब दुनिया / भर को खोना है' तथा 'जब तक पिता रहे / तब तक ही / घर में रही मिठास'।
अपनी थाती और विरासत के प्रति बढ़ते अविश्वास, सामाजिक टकराव राजनैतिक संकीर्णताओं के वर्तमान संक्रमण काल में व्योम जी के नवगीत सूर्य तरह प्रकाश और चंद्रमा की तरह उजास बिखरते रहें। उनके नवगीतों की आगामी मंजूषा से निकलने वाले नवगीत रत्नों की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
२३-८-२०१६
***
चित्र अलंकार :
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा। वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं। मेरा प्रयास ध्वज अलंकार :
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
***
नवगीत:
*
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
कलम नहीं
पेडों की रहती
कभी पेड़ के साथ.
झाड़ न लेकिन
झुके-झुकाता
रोकर अपना माथ.
आजीवन फल-
फूल लुटाता
कभी न रोके हाथ
गम न करे
न कभी भटकता
थामे प्याला-साकी
मानव! क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
तिनके चुन-चुन
नीड बनाते
लाकर चुग्गा-दाना।
जिन्हें खिलाते
वे उड़ जाते
पंछी तजें न गाना।
आह न भरते
नहीं जानते
दुःख कर अश्रु बहाना
दोष नहीं
विधना को देते,
जियें ज़िंदगी बाकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
*
जैसा बोये
वैसा काटे
नादां मनुज अकेला
सुख दे, दुःख ले
जिया न जीवन
कह सम्बन्ध झमेला.
सीखा, नहीं सिखाया
पाया, नहीं
लुटाना जाना।
जोड़ा, काम न आया
आखिर छोड़ी
ताका-ताकी
मानव !क्यों हो जाते
जीवन संध्या में
एकाकी?
***
याद आ रही है फ़िल्मी गीतों की कुछ पंक्तियाँ जिनका केंद्रीय विषय है आँख या आँख के पर्यायवाची शब्द नैन, नज़र,निगाह आदि. अन्य पाठक इसमें योगदान करें, गैर फ़िल्मी पंक्तियाँ भी दे सकते हैं. रचनाकार का नाम या अन्य जानकारियों का भी स्वागत है.
*
आँख:
भूल सकता है भला कौन ये प्यारी आँखें
रंज में डूबी हुई नींद से भारी आँखें
.
मेरी हर साँस ने, हर आस ने चाहा है तुम्हें
जब से देखा है तुम्हें तब से सराहा है तुम्हें
बस है गयी हैं मेरी आँखों में तुम्हारी आँखें
.
तुम जो नज़रों को उठाओ तो सितारे झुक जाएँ
तुम जो पलकों को झुकाओ तो ज़माने झुक जाएँ
क्यों न बन जाएँ इन आँखों की पुजारी आँखें
.
जागती रात को सपनों का खज़ाना मिल जाए
तुम जो मिल जाओ तो जीने का बहन मिल जाए
अपनी किस्मत पे करें नाज़ हमारी आँखें
***
आँखों-आँखों में बात होने दो
मुझको अपनी बाँहों में सोने दो
*
जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें
राख के ढेर में शोला है, न चिंगारी है
*
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें
*
नैन:
सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन
मधुर तुम्हारे मिलन बिन दिन तरसेसे नहीं रैन
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वो अम्बुआ का झूलना, वो पीपल छाँव
घूंघट में जब चाँद था, मेंहदी लगी थी पाँव
आज उजड़ कर रह गया, वो सपनों का गाँव
.
संग तुम्हारे दो घडी, बीत गए दो पल
जल भर कर मेरे नैन में, आज हुए ओझल
सुख लेकर दुःख दे गयीं दो अँखियाँ चंचल
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हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए
तेरे नैनों की भूल-भुलैयाँ में बॉबी खो जाए
*
नज़र :
जाने कहाँ गए वो दिन कहते थे तेरी याद में
नज़रों को हम बिछायेंगे
चाहे कहीं भी तुम रही, चाहेंगे तुमको उम्र भर
तुमको न भूल पाएंगे
२३-८-२०१५
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विमर्श- अनावश्यक कुप्रथा: वरमाल या जयमाल???
*
आजकल विवाह के पूर्व वर-वधु बड़ा हार पहनाते हैं। क्यों? इस समय वर के मिटे हुल्लड़ कर उसे उठा लेते हैं ताकि वधु माला न पहना सके। प्रत्युत्तर में वधु पक्ष भी यही प्रक्रिया दोहराता है।
दुष्परिणाम:
वहाँ उपस्थित सज्जन विवाह के समर्थक होते हैं और विवाह की साक्षी देने पधारते हैं तो वे बाधा क्यों उपस्थित करते हैं? इस कुप्रथा के दुपरिणाम देखने में आये हैं, वर या वधु आपाधापी में गिरकर घायल हुए तो रंग में भंग हो गया और चिकित्सा की व्यवस्था करनी पडी। सारा कार्यक्रम गड़बड़ा गया. इस प्रसंग में वधु को उठाते समय उसकी साज-सज्जा और वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. कोई असामाजिक या दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति हो तो उसे छेड़-छाड़ का अवसर मिलता है. यह प्रक्रिया धार्मिक, सामाजिक या विधिक (कानूनी) किसी भी दृष्टि से अनिवार्य नहीं है.
औचित्य:
यदि जयमाल के तत्काल बाद वर-वधु में से किसी एक का निधन हो जाए या या किसी विवाद के कारण विवाह न हो सके तो क्या स्थिति होगी? सप्तपदी, सिंदूर दान या वचनों का आदान-प्रदान न हुआ तो क्या केवल माला को अदला-बदली को विवाह माना जाएगा?हिन्दू विवाह अधिनियम ऐसा नहीं मानता।ऐसी स्थिति में वधु को वर की पत्नी के अधिकार और कर्तव्य (चल-अचल संपत्ति पर अधिकार, अनुकम्पा नियुक्ति या पेंशन, वर का दूसरा विवाह हो तो उसकी संतान के पालन-पोषण का अधिकार) नहीं मिलते।सामाजिक रूप से भी उसे अविवाहित माना जाता है, विवाहित नहीं। धार्मिक दृष्टि से भी वरमाल को विवाह की पूर्ति अन्यथा बाद की प्रक्रियाओं का महत्त्व ही नहीं रहता।
कारण:
धर्म, समाज तथा विधि तीनों दृष्टियों से अनावश्यक इस प्रक्रिया का प्रचलन क्यों, कब और कैसे हुआ?
सर्वाधिक लोकप्रिय राम-सीता जयमाल प्रसंग का उल्लेख राम-सीता के जीवनकाल में रचित वाल्मीकि रामायण में नहीं है. रामचरित मानस में तुलसीदास प्रसंग का मनोहारी चित्रण किया है। तभी श्री राम के ३ भाइयों के विवाह सीता जी की ३ बहनों के साथ संपन्न हुए किन्तु उनकी जयमाल का वर्णन नही है।
श्री कृष्ण के काल में द्रौपदी स्वयंवर में ब्राम्हण वेषधारी अर्जुन ने मत्स्य वेध किया। जिसके बाद द्रौपदी ने उन्हें जयमाल पहनायी किन्तु वह ५ पांडवों की पत्नी हुईं अर्थात जयमाल न पहननेवाले अर्जुन के ४ भाई भी द्रौपदी के पति हुए। स्पष्ट है कि जयमाल और विवाह का कोई सम्बन्ध नहीं है। रुक्मिणी का श्रीकृष्ण ने और सुभद्रा का अर्जुन के पूर्व अपहरण कर लिया था। जायमाला कैसी होती?
ऐतिहासिक प्रसंगों में पृथ्वीराज चौहा और संयोगिता का प्रसंग उल्लेखनीय है। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद रिश्तेदार होते हुए भी एक दूसरे के शत्रु थे। जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारपाल का वेश बनाकर खड़े हो गये। संयोगिता जयमाल लेकर आयी तो आमंत्रित राजाओं को छोड़कर पृथ्वीराज के गले में माल पहना दी और पृथ्वीराज चौहान संयोगिता को लेकर भाग गये। इस प्रसंग से बढ़ी शत्रुता ने जयचंद के हाथों गजनी के मो. गोरी को भारत आक्रमण के लिए प्रेरित कराया, पृथ्वीराज चौहान पराजितकर बंदी बनाये गये, देश गुलाम हुआ।
स्पष्ट है कि जब विवाहेच्छुक राजाओं में से कोई एक अन्य को हराकर अथवा निर्धारित शर्त पूरी कर वधु को जीतता था तभी जयमाल होता था अन्यथा नहीं।
मनमानी व्याख्या:
तुलसी ने राम को मर्यादपुषोत्तम मुग़लों द्वारा उत्साह जगाने के लिए कई प्रसंगों की रचना की। प्रवचन कारों ने प्रमाणिकता का विचार किये बिना उनकी चमत्कारपूर्ण सरस व्याख्याएँ चढ़ोत्री बढ़े। वरमाल तब भी विवाह का अनिवार्य अंग नहीं थी। तब भी केवल वधु ही वर को माला पहनाती थी, वर द्वारा वधु को माला नहीं पहनायी जाती थी। यह प्रचलन रामलीलाओं से प्रारम्भ हुआ। वहां भी सीता की वरमाला को स्वीकारने के लिये उनसे लम्बे राम अपना मस्तक शालीनता के साथ नीचे करते हैं। कोई उन्हें ऊपर नहीं उठाता, न ही वे सर ऊँचा रखकर सीता को उचकाने के लिए विवश करते हैं।
कुप्रथा बंद हो:
जयमाला वधु द्वारा वर डाली जाने के कारण वरमाला कही जाने लगी। रामलीलाओं में जान-मन-रंजन के लिये और सीता को जगजननी बताने के लिये उनके गले में राम द्वारा माला पहनवा दी गयी किन्तु यह धार्मिक रीति न थी, न है। आज के प्रसंग में विचार करें तो विवाह अत्यधिक अपव्ययी और दिखावे के आयोजन हो गए हैं। दोनों पक्ष वर्षों की बचत खर्च कर अथवा क़र्ज़ लेकर यह तड़क-भड़क करते हैं। हार भी कई सौ से कई हजार रुपयों के आते हैं। मंच, उजाला, ध्वनिविस्तारक सैकड़ों कुसियों और शामियाना तथा सैकड़ों चित्र खींचना, वीडियो बनाना आदि पर बड़ी राशि खर्चकर एक माला पहनाई जाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है?
इस कुप्रथा का दूसरा पहलू यह है की लाघग सभी स्थानीयजन तुरंत बाद भोजन कर चले जाते हैं जिससे वे न तो विवाह सम्बन्ध के साक्षी बन पते हैं, न वर-वधु को आशीष दे हैं, न व्धु को मिला स्त्रीधन पाते हैं। उन्हें के २ कारण विवाह का साक्षी बनना तथा विवाह पश्चात नव दम्पति को आशीष देना ही होते हैं। जयमाला के तुरंत बाद चलेजाने पर ये उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाते। अतः, विवेकशीलता की मांग है की जयमाला की कुप्रथा का त्याग किया जाए। नारी समानता के पक्षधर वर द्वारा वधु को जीतने के चिन्ह रूप में जयमाला को कैसे स्वीकार सकते हैं? इसी कारण विवाह पश्चात वार वधु से समानता का व्यवहार न कर उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं अनुगामिनी और आज्ञानुवर्ती मानता है। यह प्रथा नारी समानता और नारी सम्मान के विपरीत और अपव्यय है। इसे तत्काल बंद किया जाना उचित होगा।
२३-८-२०१४
***
सामयिक व्यंग्य कविता:
दवा और दाम
*
देव! कभी बीमार न करना...
*
यह दुनिया है विकट पहेली.
बाधाओं की साँस सहेली.
रहती है गंभीर अधिकतर-
कभी-कभी करती अठखेली.
मुश्किल बहुत ज़िंदगी लेकिन-
सहज हुआ जीते जी मरना...
*
मर्ज़ दिए तो दवा बनाई.
माना भेजे डॉक्टर भाई.
यह भी तो मानो हे मौला!
रूपया आज हो गया पाई.
थैले में रुपये ले जाएँ-
दवा पड़े जेबों में भरना...
*
तगड़ी फीस कहाँ से लाऊँ?
कैसे मँहगे टेस्ट कराऊँ??
ओपरेशन फी जान निकले-
ब्रांडेड दवा नहीं खा पाऊँ.
रोग न हो परिवार में कोई-
सबको पड़े रोग से डरना...
२२-८-२०१२
*