कविता :
संजीव
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आओ
सागर की गहराई
सागर की गहराई
पर्वत की ऊँचाई
आकाश का विस्तार
अणु की सूक्ष्मता
बर्फ की ठंडक
अग्नि की गर्मी
पवन का वेग
अपनी बाँहों में समेटो।
अतीत की नींव पर
वर्त्तमान की दीवारें और
भविष्य की छत बनाओ,
परिंदों की तरह चहचहाओ।
अकेलेपन की खिड़की को
भोर की धूप की तरह खटखटाओ।
मेरे-तेरे का भेद भुलाकर
सुरभि की तरह महमहाओ।
स्व को सर्व में विलीन कर
मुट्ठी खोलकर खिलखिलाओ
पाने-गँवाने की चिंता से मुक्त
समय-सलिला में नहाओ
कवि हो जाओ।
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Sanjiv verma 'Salil'
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1 टिप्पणी:
- kuldeepsingpinku@gmail.com
मेरे-तेरे का भेद भुलाकर
सुरभि की तरह महमहाओ।
स्व को सर्व में विलीन कर
मुट्ठी खोलकर खिलखिलाओ
मर्मस्पर्शी रचना।
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