कुल पेज दृश्य

रविवार, 28 अगस्त 2022

संगीता भारद्वाज, यादों के पलाश

पुरोवाक्

'यादों के पलाश' : खिलखिलाएँ घोलकर बताश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*

'याद बिन किए, याद आते हैं।   
यादें बनते पलाश भाते हैं।।  
श्वास में आस है बंबुलिया सी-
नेह-नर्मदा नित नहाते हैं।।  

                                   'यादों के पलाश' जिसकी  ज़िन्दगी में हों, उसके सदा सुखी होने में किंचित मात्र भी संदेह नहीं हो सकता। उसकी स्वास 'संगीता' और आस पुनीता  होती है। भवसागर के कुरुक्षेत्र में, कर्म की गीता उसे पढ़नी नहीं पड़ती। स्वप्रेरणा से ही उसे फल की फ़िक्र छोड़कर, कर्म करने का अभ्यास होता जाता है। संसार के सफर में 'मुसाफि'र की तरह, राहों और पड़ावों से बिना मोह किए, 'जस की तस धर दीनी चदरिया' का संतोष पा सके 'पथिक' को, चिर 'तरुण' बनाए रखकर, उसकी स्मृतियों को बताशे की तरह मिठास युक्त 'मधुर' बना देता है। उसकी सहजता, सरलता, सुलभता और सरसता उसके स्नेही जनों को संतोष का पाथेय देकर 'यादों के पलाश' से प्राप्त कुसुंबी रंग में रंगकर 'हर दिन होली, रात दिवाली' की सुखद मनस्थिति में रखती है। आत्म को जय कर 'जयंत' हुआ उसका 'मैं' परमात्म को पाकर भी आत्मजों में जीवित रहा आता है। 'यादों के पलाश' में पृष्ठ-पृष्ठ पर, पंक्ति-पंक्ति में, शब्द-शब्द में उस अक्षर की अनुभूति होती है। तरुणात्मजा संगीता पिता को (सप्रयास) याद नहीं करती, उसकी श्वास, आस, हास और प्यास में तरुणाई के बोल स्वयमेव रास करते प्रतीत होते हैं। 'यादों के पलाश' देखकर अंजुरी में भरने का मोह होना स्वाभाविक है। जिसके स्नेह की स्मृतियाँ संजीवित रखकर सलिलता प्रदान करती हैं, उसे अधरों से अधिक मन की आसंदी सुहाती है-  
 
'याद जिसकी भुलाना मुश्किल है,
याद उसका न आना मुश्किल है। 
याद के पाश है पलाशों से -
याद का रंग; जाना मुश्किल है।। 

                                   'जबलपुर के जवाहर', 'तमसा के दिनकरो नमन' कहते हुए यादों की प्रथम रश्मि बनकर 'आस्था के शतदल' ही नहीं खिलाते, 'ज्वालगीत' भी बन जाते हैं। 'मुक्ताबंध' बने 'जीवन के रंग' 'सुधियों के राजहंस' की तरह कर्म-तरंगों पर 'घर-आँगन के रंग' बनकर नीर-क्षीर विवेक की थाती स्वजनों को सौंपने में नहीं हिचकते। 'उनकी कलम' स्नेह सलिला में डूबती-उतराती' पल-पल 'कृपालु' का स्मरण कर धन्य होती है। राष्ट्रभक्ति के पथ पर बढ़ते कदम 'जन्मों के मीत की तरह' 'ह्रदय के दर्पण में यादों के रूप' बनकर अठखेलियाँ करते हैं। जीवन का हर 'नया मोड़' एक 'नया व्याकरण' सिखाता है। उषा की रतनार 'चितवन' का 'प्रथम स्पर्श' ;ज़िंदगी के खूबसूरत पन्ने' लिखते हुए बार-बार याद दिलाता है कि हर 'साँझ नई भोर ले आती है'। 'मन की सरिता' में तैरते 'सपन के फूल' 'धरती की उमंग' को 'प्रकृति के रूप' में चित्रित करती है और 'स्नेह का बदलता स्वरूप' 'अर्पण-समर्पण' के नए अध्याय रच देता है। 'नयन कलश के अर्ध्य' 'ख़ामोशी' से 'इंतजार' करते हैं, 'सारा जग मौन' होकर कह उठता हैं 'कोई तो साज उठाओ' 'धूप ये चाँदनी बन जाएगी'। अनंत हो गए' 'रूप का आकर्षण' कह उठता है भले ही 'यादें कंवल हो गईं' हैं किंतु 'तुम्हारे जीवन का राग हूँ मैं'। 'स्वयंसिद्धा नारी स्वयं शक्ति स्वरूपा' है; यह सनातन 'जीवन सत्य' जानते हुए भी 'मन की अभिलाषा' तन की मुँडेर पर बैठी गौरैया की तरह 'आशा और विश्वास' की 'भावभूमि' में 'सद्यस्नाता चाँदनी' के 'सवाल' सुन 'प्यासी बरसात' में कह उठती है 'आज मैं 'आकाश हो गई'। 'ज़िंदगी और मैं'  'तेरा नाम' लेते-लेते 'कोरा भ्रम' पाल बैठे हैं कि 'शायद तुम पास नहीं हो' पर 'तुम बसंत से आते हो', 'मन का कोना', 'बावरा बादल' बनकर; 'उदासी चाँद की' 'प्यासी रेत पर' उड़ेलकर; 'ख़ामोशी और दर्द' के 'अहसास' जगाते हो और हम संकल्प लेते हैं कि 'अवनि को आकाश बनाएँगे'। 

                                   'माँ' के रूप में 'तेरी याद ज्यों किरण की तरह' गले लगा लेती है। तुम्हारा हर गीत 'खामोश कथन' बनकर 'यात्राओं की तलाश' करता है। किताब के पन्ने 'पीले हो गए है' पर उन पर छपे गीत अब भी 'जीवन सच होता सपना' का उद्घोष करते हैं। 'तुम! जीवन के गीत मेरे'  'दर्द का कथन', 'अश्रु के भाव' तुम्हें समर्पित हैं। आशीषित करो कि नव पीढ़ी 'युवा शक्ति - एक आह्वान' कर सके, तुम्हारे गीतों में अंतर्निहित दिव्यता से अपना जीवन आलोकित कर सके। 'उनकी कलम' 'विरासत का परचम लिए', 'कभी धानी-बासंती चूनर ओढ़ती, कभी सपनों को तमाम रात जागकर अपनी आँखों में समेटती, कभी दरीचों से झाँकती, कभी माँ नर्मदा की लय और तरलता में कुछ तलाशती, कभी जिद्दी बच्चे सी मचल जाती, कभी पाषाण में प्राण का संचार करती। संगीता के भावोद्गारों को पढ़कर प्रतीति होती है कि कलम से आशीषित हो पाना भाग नहीं सौभाग्य का विषय है। 'यादों के पलाश' जितने सुर्खरू होते हैं, खोए को पाने की तलब उतनी ज्यादा होती है और तब यादें कँवल हो जाती हैं -

'एक प्राचीन जर्जर इमारत थी मैं 
उनकी केवल छुअन से नवल हो गई।।

                                  अनुभूत को अभिव्यक्त करने की कला ही कविता करना है। काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी लय-खण्ड द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छांदस विधानों में ढाली गई हो। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शाब्दिक रमणीयता (शब्दलंकार आदि) मान्य हैं। 'अर्थ' की 'रमणीयता' बहुआयामी है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य के तीन प्रकार ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र कहे गए हैं। ध्वनि में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह जिसमें व्यंजना गौण हो। चित्र या अलंकार में बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। काव्य के दो अन्य भेद  महाकाव्य और खंड काव्य हैं। काव्य को दृश्य और श्रव्य में भी वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य के दो प्रकार गद्य और पद्य हैं। गद्य काव्य के दो भेद कथा और आख्यायिका हैं। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। 'यादों के पलाश' केवल काव्य संग्रह नहीं है, इसमें संगीता के चित्रों के साथ उसके जीवन साथी जयंत जी के बनाए सुंदर रेखाचित्र तथा सुंदर हस्तलिपि 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। इस तरह यह श्रव्य-दृश्य काव्य का रमणीय सम्मिश्रण हो गया है। संगणक के वर्तमान दौर में हस्तलिपि में पुस्तक प्रकाशन का ऐसा प्रयोग हिंदीभूषण अभियंता देवकीनंदन 'शांत' लखनऊ ने अपने ग़ज़ल संग्रह 'तलाश' में भी किया है। रचनाओं और रेखाचित्रों के मणिकांचनी संयोग की यह परंपरा आगे बढ़ती रहनी चाहिए। कलम और कागज़ से नाता तोड़कर चलभाषा और लैपटॉप की गुलाम होती नई पीढ़ी को लिखने के प्रति आकर्षित कर सकते हैं ऐसे प्रयास।   

                                  संगीता किताबी नहीं स्वाभाविक प्राकृतिक-कवयित्री है। वह अनुभूतियों को मात्राओं-वर्णों का बंदी न बनाकर उन्हें भावाकाश में मुक्त उड़ान भरने देती है और फिर शब्द बद्धकर लेती है। इसलिए 'यादों के पलाश' के गीत किसी उद्यान में माली द्वारा काँट-छाँट कर उगाई गई पौधाकृतियों की तरह दिखावटी न होकर वन प्रांतर में पुरवैया और पछुआ के साथ झूलते-झूमते विटप कुंजों की तरह महकते-चहकते हैं। स्वाभाविक है कि ये गीत उसे 'जन्मों के मीत से लगे'। वह कहती है - 'तुममें खुद को पा जाऊँ मैं / तुम ही तुम में छा जाऊँ मैं प्रीत की सच्ची रीत यही है....'। 'हृदय के दरपन में यादों का रूप' 'नया मोड़' आते ही बिटिया की भोली 'चितवन' में नवशा देखती है-

वह कदम-दर-कदम आगे बढ़ रही है 
नए-नए अपनी कला के कसीदे गढ़ रही है 

                                  जीवन के संबंधों का नया व्याकरण पढ़ती-गढ़ती कवयित्री समुन्दर की रेत के समीकरण हल करते-करते मन मोहते प्रात: अलंकरण तथा खिलखिलाते मुक्तकों के आचरण की जयकार गुँजाती है। 'काँटों के बियाबान' में 'फूलों के गाँव का प्रथम स्पर्श' पाकर 'साँझ' नई भोर ले आती है और 'ज़िंदगी के कुछ खूबसूरत पन्ने', 'मन की सरिता' में प्रवाहित होते 'सपन के फूल' 'धरती के उमंग के साक्षी बन जाते हैं। राजधानी निवासी कवयित्री की रग-रग में संस्कारधानी और नेह नर्मदा रची-बसी है। उसे प्रकृति के सौंदर्य का रसपान कर स्वर्गिक आनंद की प्रतीति होती है-

एक मीठी सी सुगंध छाई है अंग-अंग 
वसुंधरा के तरंग, है नभ के संग-संग 
इस भीगे मौसम में छिपी कहीं आग है 
इन पास ब्वॉयंडों में जीवन का राग है 
मधु भीने रस के फुहार यूँ चल रहे 
सुरभित से पुष्पों में नव स्वप्न पल रहे 

                                  स्नेह का बदलता स्वरूप देखकर साँसों और आसों का, अरमान और मुस्कान का पलाश हो जाना स्वाभाविक है-

उलझी सी अलकों में खुलती सी लड़ियाँ 
सुलझी सी पलकों में खिलती सी कलियाँ 
आधरों में छिपे-छिपे आप ज्यों हँसे 
मारक मुस्कान ही पलाश हो गई 

                                  'सारा जग मौन' रहकर 'इन्तिज़ार' करने के बाद मनमीत का संग-साथ पाकर 'स्व' को बिसर कर 'सर्व' की प्राप्ति की प्रतीति कर सके, जीवन की सार्थकता इसी में है। तभी यह अनंत की अनुभूति होती है और मन संत हो जाता है- 

गुलाबी कपोल हो उठे लाल
टेसू खिलते ज्यों मधुवन में 
जग की खुशियाँ सिमट गईं जब 
प्रिय के मधु अंकित चुंबन में 
लहराया खुशियों का सागर 
सृष्टि-सृजन जब एक हो गए 
तृप्त हुई तृष्णा की गागर 
मन देह प्राण अनंत हो गए 

                                  'अर्पण-समर्पण' के पल 'नयन कलश के अर्ध्य' लिए प्रणयाभूतिक सघनता के पलों में धूप को चाँदनी बनते देखती है- 

लटों से उलझ गई जो धूप कहीं
छनते-छनते धूप ये चाँदनी बन जाएगी 

                                  'रूप का आकर्षण', प्रतिबिंबित हो तुम', 'मन की अभिलाषा', 'प्यासी बरसात', 'जीवन सत्य', 'आशा और विश्वास', 'सद्यस्नाता चाँदनी', भाव भूमि', तुम बसंत से आते हो, बावरा बादल, शायद तुम पास नहीं हो आदिरचनाओं में कवयित्री की कलम श्रृंगार सलिला में डूबती-उतराती विविध भाव भंगिमाओं को शब्दित करती है। श्रृंगार गीतों को काल-बाह्य मानवले कवियों और समीक्षकों को यह कृति आइना दिखाकर घोषणा करती है कि श्रृंगार मानव जीवन का उत्स है जो कभी काल-बाह्य नहीं हो सकता। कृति में श्रृंगार के दोनों पक्ष मिलन-और विरह का सम्यक-सरस समावेश है। 

 जब वो दूर जाते हैं अकसर 
उन्हें रागिनी में ढलते देखा है 
उदासी का अँधेरा है फिर भी 
हर नज़र में खवाब पलते देखा है 

                                  गीतों, कविताओं और मुक्तिकाओं (हिंदी ग़ज़लों) के साथ कथ्यानुरूप नयनाभिराम रेखाचित्र भाव-प्रवाह में सहायक हैं। संगीता चंद पारंपरिक छंदों की कैद में अपने कथ्य को विस्तारित होने से नहीं रोकती,  कथ्य के अनुरूप छंद को अपनाती है। वह पदभार की समानता को अनिवार्य न मानकर कथ्यानुरूप शब्द-चयन को वरीयता देती है। यह शैली कहीं-कहीं मात्रा या वर्ण भार की असमानता को सहजता के साथ ग्रहण करती है किन्तु उससे लय भंग नहीं होती। संगीता तत्सम-तद्भव, देशज-अदेशज (अन्य भाषाओँ के) शब्दों के चयन के प्रति दुराग्रही नहीं है। उसके लिए भाव की अभिव्यक्ति प्रधान है। शब्द किस जमीन से, किस भाषा से, किस देश से, किस काल से आया है यह महत्वहीन है। भाषिक शुद्धता के प्रति दुराग्रही, संकीर्ण दृष्टि संपन्न अंधभक्त नाम-भौं सिकोड़ेंगे, कवयित्री इसकी चिंता नहीं करती। यह स्वस्थ्य सुपुष्ट सृजन परंपरा उसे अपने पितामह और पिता श्री से विरासत में पाई है। 'मन का कोना' का 'छायादार दरख्त', 'चटाई', सुगंधित पुष्प बेल, तुलसी का बिरवा, सूर्य को अर्ध्य आदि उस सनातन जीवन पद्धति को पुष्ट करते हैं जिससे हम मुँह मोड़कर पछता रहे हैं किंतु नई पीढ़ी को उससे जोड़ भी नहीं पा रहे हैं। जड़ों से जुड़ने की ऐसी सारस्वत समिधाओं के लिए संगीता साधुवाद की पात्र है। 

                                  ख़ामोशी और दर्द, प्यासी रेत, दर्द का कथन, कोरा भरम आदि रचनाएँ इस कृति को गंगो-जमुनी धूप-छाँव से समृद्ध करती हैं। 'युवा शक्ति एक आह्वान' जैसी सन्देशवाही रचनाएँ, माँ और दादी को समर्पित की गई पारिवारिक नातों को जीती रचनाएँ अनेकता में एकता की प्रतीति कराती हैं। ये यादों के पलाश स्मृतियों की सुगंध से सराबोर हैं। इन्हें समर्पित करता हूँ अपनी कुछ पंक्तियाँ-     

नवगीत : पलाश 
.
खिल-खिलकर
गुल झरे
पलाशों के...
.
ऊषा के
रंग में
नहाए से,
संध्या को
अंग से
लगाए से। 
खिलखिलकर
हँस पड़े
अलावों से...
.
लजा रहे
गाल हुए
रतनारे,
बुला रहे
नैन लिये
कजरारे। 
लुक-छिपकर
मिल रहे
भुलावों से...
.
नयनों में 
अश्रु लिए 
मौन रहें,
पीर सहें 
धीर धरें 
पर न बहें। 
गले मिलें 
बचपनी 
लगावों से....

                                  'यादों के पलाश' की रचनाएँ गूँगे के गुड़ की तरह बार-बार याद गुनगुनाई जाएँगी, मौके-बेमौके फिर-फिर याद आएँगी केवल कवयित्री को नहीं; पाठकों को भी। रचनाओं की मर्मस्पर्शिता, निश्छलता। मोहकता और मौलिकता पाठकों को उस परिवेश से जोड़ सके जिसे स्मरण कर इन्हें रचा गया है। 
***
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल- salil.sanjiv@gmail.com 

 
 

कुंडलिया, दोहा कर,भज गोविन्दम् , हरि फ़ैज़ाबादी,षटपदी प्रेम

मुक्तिका
*
तुम अबोले बोलते हो
फिज़ा में रस घोलते हो

बाँह में आते न लेते
पर निकट ही डोलते हो

कर नहीं है बोलने पर
लब न क्यों तुम खोलते हो

पंख हों या शब्द सच ही
कीमती हैं, तोलते हो

जानते जादू नहीं तो
स्नेह कैसे ढोलते हो 
२८-८-२२ 
***
कुंडलिया कार्यशाला
तारकेश्वरी 'सुधि'
बिगड़े जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
१. 
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचना कर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।।
*
२.
शब्द खड़े चुपचाप, भाव-रस शीश झुकाए 
बिम्ब मिथक; गति-यति न, कथ्य से क्यों मिल पाए?
स्नेह छोड़ संबंध, न सम रख नाहक झगड़े 
लगा रह आरोप, लादेन ज्यों अगड़े-पिछड़े  
***
२८-८-२०१९
***
दोहा सलिला
कर माहात्म्य
*
कर ने कर की नाक में, दम कर छोड़ा साथ
कर ने कर के शीश पर, तुरत रख दिया हाथ
*
कर ने कर से माँग की, पूरी कर दो माँग
कर ने उठकर झट भरी, कर की सूनी माँग
*
कर न आय पर दिया है, कर देकर हो मुक्त
कर न आय दे पर करे, कर कर से संयुक्त
*
कर ने कर के कर गहे, कहा न कर वह बात
कर ने कर बात सुन, करी अनसुनी- घात
*
कर कइयों के साथ जा, कर ले आया साथ
कर आकर सब कुछ हुई, कर हो गया अनाथ
*
दरवाजे पर थाप कर, जमा लिए निज पाँव
कर ने कर समझ नहीं, हार गया हर दाँव
*
कार छीन कर ने किया, कर को जब बेकार
बेबस कर बस से गया, करि हार स्वीकार
***
पुरोवाक-
जीवनमूल्यों से समृद्ध 'हरि - दोहावली '
*
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। सार यह कि दोहा मुक्तक छंद है।
घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं। मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है ।
पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय या द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय या त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय या चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय या षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है।
छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है। जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है। दोहा (विषम चरण १३ मात्रा, सम चरण ११ मात्रा) प्रमुख अर्ध सम मात्रिक छंद है। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं ।
दोहा छंदों का राजा है। मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया। दोहा छंद लिखना बहुत सरल और बहुत कठिन है। केवल दो पंक्तियाँ लिखना दूर से आसान प्रतीत होता है किन्तु जैसे-जैसे निकटता बढ़ती है दोहे की बारीकियाँ समझ में आती हैं, मन दोहे में रमता जाता है। धीरे-धीरे दोहा आपका मित्र बन जाता है और तब दोहा लिखना नहीं पड़ता वह आपके जिव्हाग्र पर या मस्तिष्क में आपके साथ आँख मिचौली खेलता प्रतीत होता है। दोहा आपको आजमाता भी है. 'सजगता हटी, दुर्घटना घटी' यह उक्ति दोहा-सृजन के सन्दर्भ में सौ टंच खरी है।
दोहा का कथ्य सामान्यता में विशेषता लिये होता है। दोहे की एक अर्धाली (चरण) पर विद्वज्जन घंटों व्याख्यान या प्रवचन करते हैं। दोहा गागर में सागर, बिंदु में सिन्धु या कंकर में शंकर की तरह कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी बात कहता है। 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' तथा प्रभुता से लघुता भली' में दोहा के लक्षण वर्णित है।
दोहा के कथ्य के ३ गुण १. लाक्षणिकता, २. संक्षिप्तता तथा ३. बेधकता या मार्मिकता हैं।
१. लाक्षणिकता: दोहा विस्तार में नहीं जाता इंगित से संकेत कर अपनी बात कहता है। 'नैनन ही सौं बात' अर्थात बिना कुछ बोले आँखों के संकेत से बोलने का लक्षण ही दोहे की लाक्षणिकता है। जो कहना है उसके लक्षण का संकेत ही पर्याप्त होता है।
२. संक्षिप्तता: दोहा में गीत या गजल की तरह अनेक पंक्तियों का भंडार नहीं होता किन्तु वह व्रहदाकारिक रचनाओं का सार दो पंक्तियों में ही अभिव्यक्त कर पाता है। अतीत में जब पत्र लिखे जाते थे तो समयाभाव तथा अभिव्यक्ति में संकोच के कारण प्रायः ग्राम्य वधुएँ कुछ वाक्य लिखकर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी विरह-व्यथा का संकेत कर देती थीं. दोहा संक्षिप्तता की इसी परंपरा का वाहक है।
३. बेधकता या मार्मिकता: दोहा बात को इस तरह कहता है कि वह दिल को छू जाए। मर्म की बात कहना दोहा का वैशिष्ट्य है।
दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर पधार रहे श्री हरि प्रकाश श्रीवास्तव 'हरि' फ़ैज़ाबादी रचित प्रस्तुत दोहा संकलन तरलता, सरलता, सहजता तथा बोधगम्यता के चार स्तंभों पर आधृत है। पारंपरिक आस्था-विश्वास की विरासत पर अभिव्यक्ति का प्रासाद निर्मित करते दोहाकार सम-सामयिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के प्रति भी सजग रह सके हैं।
देखो तुम इतिहास में, चाहे धर्म अनेक।
चारों युग हर काल में, सत्य मिलेगा एक।।
*
लन्दन पेरिस टोकियो, दिल्ली या बगदाद।
खतरा है सबके लिए, आतंकी उन्माद।।
राम-श्याम की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त अवध-ब्रज अंचल की भाषा हरि जी के मन-प्राण में समायी है। वे संस्कृतनिष्ठ, हिंदी, देशज, उर्दू तथा आंग्ल शब्द पूर्ण सहजता के साथ प्रयोग में लाते हैं। ज्योतिर्मय, जगजननी, बुद्धि विनायक, कृपानिधान, वृद्धाश्रम, चमत्कार, नश्वर, वृक्ष, व्योम, आकर्षण, पाषाण, ख्याति, जीवन, लज्जा, अनायास, बचपना, बुढ़ापा, सुवन, धनुही, दिनी, बेहद, रूहानी, अंदाज़, आवाज़, रफ्तार, ख़िलाफ़, ज़बान, लब, तक़दीर, पिज़्ज़ा, बर्जर, पेस्ट्री, हॉट, डॉग, पैटीज़, सी सी टी व्ही, कैमरा आदि शब्द पंक्ति-पंक्ति में गलबहियाँ डाले हुए, भाषिक समन्वय की साक्ष्य दे रहे हैं।
शब्द-युग्म का सटीक प्रयोग इस संग्रह का वैशिष्ट्य है। ये शब्द युग्म ८ प्रकार के हैं। प्रथम जिनमें एक ही शब्द की पुनरावृत्ति अपने मूल अर्थ में है, जैसे युगों-युगों, कण-कण, वक़्त-वक़्त, राधे-राधे आदि। द्वितीय जिनमें दो भिन्नार्थी शब्द संयुक्त होकर अपने-अपने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं यथा अजर-अमर, सुख-दुःख, सीता-राम, माँ-बाप, मन्दिर-मस्ज़िद, दिल-दिमाग, भूत-प्रेत, तीर-कमान, प्रसिद्धि-सम्मान, धन-प्रसिद्धि, ऐश-आराम, सुख-सुविधा आदि। तृतीय जिनमें दो शब्द संयुक्त होकर भिन्नार्थ की प्रतीति कराते हैं उदाहरण राम-रसायन, पवन पुत्र, खून-पसीने, सुबहो-शाम, आदि। चतुर्थ सवाल-जवाब, रीति -रिवाज़, हरा-भरा आदि जिनमें दोनों शब्द मूलार्थ में संयुक्त मात्र होते हैं। पंचम जिनमें दो समानार्थी शब्द संयुक्त हैं जैसे शादी-ब्याह आदि। षष्ठम जिनमें प्रयुक्त दो शब्दों में से एक निरर्थक है यथा देर-सवेर में सवेर। सप्तम एक शब्द का दो बार प्रयोग कर तीसरे अर्थ का आशय जैसे जन-जन का अर्थ हर एक जन होना, रोम-रोम का अर्थ समस्त रोम होना, हम-तुम आशय समस्त सामान्य जान होना आदि। अष्टम जिनमें तीन शब्दों का युग्म प्रयुक्त है देखें ब्रम्हा-विष्णु-महेश, राम चरित मानस, कर्म-वचन-मन, पिज़्ज़ा-बर्जर-पेस्ट्री, लन्दन-पेरिस-टोकियो आदि। शब्द-युग्मों का प्रयोग दोहों की रोचकता में वृद्धि करता है।
समासों का यथावसर उपयोग दोहों की पठनीयता और अर्थवत्ता में वृद्धि करता है। कायस्थ, चित्रगुप्त, बुद्धि विनायक, जगजननी, कृपानिधान, दीनानाथ, अवधनरेश, द्वारिकाधीश, पवनपुत्र, राजनीति, रामभक्त जैसे सामासिक शब्दों का सम्यक प्रयोग दोहों को अर्थवत्ता देता है।
हरी जी मुहावरोंऔर लोकोक्तियों का प्रयोग करने से भी नहीं चूके हैं। उदाहरण-
राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल।
पलकें झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।।
कल दिन तेरे साथ था, आज हमारी रात।
किसी ने है यही, वक़्त-वक़्त की बात।।
नीति के दोहे रचकर वृन्द, रहीम, कबीर आदि कालजयी हैं, इनसे प्रेरित हरि जी ने भी अपने नीति के दोहे संग्रह में सम्मिलित किये हैं। दोहों में निहित कुछ विशेषताएं इंगित करना पर्याप्त होगा-
प्रेम वफ़ा इज्जत दगा, जो भी देंगे आप।
लौटेगा बनकर वही, वर या फिर अभिशाप।। -जीवन मूल्य
कण-कण में श्री राम हैं, रोम-रोम में राम।
घट-घट उनका वास है, मन-मन में है धाम।। -प्रभु महिमा, अनुप्रास अलंकार, पुनरावृत्ति अलंकार
चित्रगुप्त भवन को, शत-शत बार प्रणाम।
उनसे ही जग में हुआ, कायस्थों का नाम।। -ईश स्मरण, पुनरावृत्ति अलंकार
इच्छा फिर से हो रही, होने की नादान।
काश मिले बचपन हमें, फिर वो मस्त जहान।। -मनोकामना
जितना बढ़ता जा रहा, जनसंख्या का रोग।
तनहा होते जा रहे, उतने ही अब लोग।। - सामयिक सत्य, विरोधाभास अलंकार
भाता है दिल को तभी, आल्हा सोहर फाग।
घर में जब चूल्हा जले, बुझे पेट की आग ।। - सनातन सत्य, मुहावरा
कहाँ लिखा है चीखिये, करिये शोर फ़िज़ूल।
गूँगों की करता नहीं, क्या वो दुआ क़ुबूल।। - पाखंड विरोध
पैरों की जूती रही, बहुत सहा अपमान।
पर औरत अब चाहती, अब आदर-सम्मान।। -स्त्री विमर्श, मुहावरा
सारत:, हरि जी के इन दोहों में शब्द-चमत्कार पर जीवन सत्यों को, शिल्प पर अर्थ को, श्रृंगारिकता पर सरलता को वरीयता दी गयी है। किताबी विद्वानों को भले ही इनमें आकर्षणक आभाव प्रतीत हो किन्तु जीवन मूल्यों को अपरोहरी माननेवालों के मन को ये दोहे भायेंगे। पूर्व में एक ग़ज़ल संग्रह रच चुके हरि जी से भविष्य में अन्य विधाओं में भी कृतियाँ प्राप्त हों। शुभकामनायें।
२८-८-२०१६
***
भज गोविन्दम्
(मूल संस्कृत, हिन्दी काव्यानुवाद, अर्थ व अंग्रेजी अनुवाद सहित)
भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥
गोविंद भजो, गोविंद भजो, गोविंद भजो रे मूरख मन।
अंतिम पल में रक्षा न करेगा, केवल यह व्याकरण रटन॥१॥
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र! गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as memorizing the rules of grammar cannot save one at the time of death. ॥1॥
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्, कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्, वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
धन-अर्जन की तृष्णा तज, सद्बुद्धि रखो वासना तजो।
सत्कर्म उपार्जित धन-प्रयोग दे, सदा चित्त को आनंदन॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥
O deluded minded ! Give up your lust to amass wealth. Give up such desires from your mind and take up the path of righteousness. Keep your mind happy with the money which comes as the result of your hard work. ॥2॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्, दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्, मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
नाभि-वक्ष सौंदर्य देखकर, मत मतवाला हो नारी का।
अस्थि, मांस, मज्जा, मेदा है, अशुचि मोह का कर भंजन॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥
Do not get attracted on seeing the parts of woman's anatomy under the influence of delusion, as these are made up of skin, flesh and similar substances. Deliberate on this again and again in your mind॥3॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
कमल-पाँखुरी पर क्रीड़ारत, सलिल-बिंदुवत चंचल मति-यश।
रोग, अहं, अभिमानग्रस्त है, सकल विश्व यह समझ अकिंचन॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥
Life is as ephemeral as water drops on a lotus leaf . Be aware that the whole world is troubled by disease, ego and grief. ॥4॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
धन-अर्जन-संचय की जब तक, शक्ति तभी तक आश्रित चिपके।
कोई न चाहे बातें करना, निर्बल-जर्जर जब होगा तन॥५॥
जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥
As long as a man is fit and capable to earn money, everyone in the family show affection towards him. But after wards, when the body becomes weak no one enquires about him even during the talks. ॥5॥
यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
इस नश्वर शरीर में जब तक, प्राण तभी तक लोग पूछते।
प्राण शरीर छोड़ता, डरती अर्धांगिनी तक लख विकृत तन॥६॥
जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥
Till one is alive, family members enquire kindly about his welfare. But when the vital air (Prana) departs from the body, even the wife fears from the corpse.॥6॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बालक-मन आसक्त खेल में, तरुण-युवा मन हो रमणी में।
चिंतासक्त वृद्ध-मन होता, हो न ब्रम्ह में लीन कभी मन.॥७॥
बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥
In childhood we are attached to sports, in youth, we are attached to woman . Old age goes in worrying over every thing . But there is no one who wants to be engrossed in Govind, the parabrahman at any stage. ॥7॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत आयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
कौन तुम्हारा पत्नि-पुत्र है?, यह दुनिया सचमुच विचित्र है।
तुम किसके हो?, आये कहाँ से?, अब तो कर लो यह सच-चिंतन.॥8॥
कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥
Who is your wife ? Who is your son? Indeed, strange is this world. O dear, think again and again who are you and from where have you come. ॥8॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं, निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संगति से अनासक्ति हो, अनासक्ति से माया छूटे।
मुक्ति तत्व का अनुभव हो तब, जन्म-मरण का छूटे बंधन॥९॥
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥
Association with saints brings non-attachment, non-attachment leads to right knowledge, right knowledge leads us to permanent awareness,to which liberation follows. ॥9॥
वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
काम कहाँ जब यौवन बीते?, कहाँ जलाशय जब जल रीते?।
धन बिन कहाँ स्वजन औ' परिजन?, तत्व-ज्ञान सच, भ्रम जग-जीवन॥१०॥
आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥
As lust without youth, lake without water, the relatives without wealth are meaningless, similarly this world ceases to exist, when the Truth is revealed? ॥10॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा, ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन-अनुचर-यौवन पर मत कर, गर्व काल पल में हर लेता।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥११॥
धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥
Do not boast of wealth, friends (power), and youth, these can be taken away in a flash by Time . Knowing this whole world to be under the illusion of Maya, you try to attain the Absolute. ॥11॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि, न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
आते-जाते दिवस-रात, संध्या-प्रभात, ऋतु शिशिर-वसंती।
मिथ्या माया तज दे पल में, जान ब्रम्ह को कर अनुगायन॥१२॥
दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥
Day and night, dusk and dawn, winter and spring come and go. In this sport of Time entire life goes away, but the storm of desire never departs or diminishes. ॥12॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः, कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२अ॥
बारह पद के पुष्पहार से, उपदेशा व्याकरणाचार्य को ।
आदि शंकराचार्य देव ने, पढ़-सुन-गुन ले कुछ तू भी मन॥१२अ॥
बारह गीतों का ये पुष्पहार उपदेश के रूप में, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२अ॥
This bouquet of twelve verses was imparted to a grammarian by the all-knowing, god-like Sri Shankara. ॥12A॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका, भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥
चिंता क्यों भार्या की, धन की?, क्या न तुम्हारा ईश नियामक?
भवसागर से पार उतर जा, कर सुसंग नौका-नौकायन ॥१३॥
तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥
Oh deluded man ! Why do you worry about your wealth and wife? Is there no one to take care of them? Only the company of saints can act as a boat in three worlds to take you out from this ocean of rebirths. ॥13॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥
जटा बढ़ाकर, शीश मुंडाकर, बाल नुचा, गेरुआ पहनकर ।
सत्य देख क्यों देख न पाते?, विविध वेश धर पाते भोजन ॥१४॥
बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥
Matted and untidy hair, shaven heads, orange or variously colored cloths are all a way to earn livelihood . O deluded man why don't you understand it even after seeing.॥14॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥
बदन गल गया, बाल पक गये, मुँह के दाँत गिर गये सारे।
ले लाठी करता पग-चालन, आशा फिर भी नहीं तजे मन॥१५॥
क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥
Even an old man of weak limbs, hairless head, toothless mouth, who walks with a stick, cannot leave his desires. ॥15॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥
सूर्य ढले तब अग्नि जला, सह ठंडी घुटने-ठुड्डी पर रख ठुड्डी।
भिक्षा माँगे, तरु नीचे रह, आशा-फंदा ताजे न दामन॥१६॥
सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥
One who warms his body by fire after sunset, curls his body to his knees to avoid cold; eats the begged food and sleeps beneath the tree, he is also bound by desires, even in these difficult situations . ॥16॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥
गंगासागर गमन करे या, दान करे करके व्रत-पालन।
ज्ञान बिना भव-पार न जाता, सौ-सौ जन्म कहें सब सज्जन॥१७॥
किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥
According to all religions, without knowledge one cannot get liberated in hundred births though he might visit Gangasagar or observe fasts or do charity. ॥17॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥
छाल हिरन की पहन, शयनकर देवालय में तरु के नीचे।
ताजे लालसा-भोग विलासी, सुख न कौन सा पता तब मन?॥१८॥
देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥
Reside in a temple or below a tree, sleep on mother earth as your bed, stay alone, leave all the belongings and comforts, such renunciation can give all the pleasures to anybody. ॥18॥
योगरतो वाभोगरतोवा, सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥
भोग करे या योगलीं हो?, रहे भीड़ में या एकाकी?।
सुखी-प्रसन्न वही वास्तव में, लीन ब्रम्ह में हो जिसका मन॥१९॥
कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥
One may like meditative practice or worldly pleasures , may be attached or detached. But only the one fixing his mind on God lovingly enjoys bliss, enjoys bliss, enjoys bliss. ॥19॥
भगवद्गीता किञ्चिदधीता, गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥
किंचित भी भवद्गीता पढ़, एक बूँद भी गंगाजल पी।
पूजे पल भर भी मुरारि को, यदि- हो दूर सदा यम-बंधन॥२०॥
जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥
Those who study Gita, even a little, drink just a drop of water from the holy Ganga, worship Lord Krishna with love even once, Yama, the God of death has no control over them. ॥20॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥
जन्म-मरण, माँ-गर्भ-शयन, हो बार-बार संसार यही है।
करो कृपा हे देव मुरारि!, उद्धारो कर भव-भय-भंजन॥२१॥
बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥
Born again, die again, stay again in the mother's womb, it is indeed difficult to cross this world. O Murari ! please help me through your mercy. ॥21॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः, पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥
जो गुण-दोष-परे पथ का हो, पथिक मात्र गुदड़ी धारणकर।
बच्चे सा उन्मत्त सुयोगी, दैव-चेतना-लीन रहे मन॥२२॥
रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥
One who wears cloths ragged due to chariots, move on the path free from virtue and sin,keeps his mind controlled through constant practice, enjoys like a carefree exuberant child. ॥22॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥
कौन तुम? हूँ कौन मैं?, आया कहाँ से?, कौन माँ-पितु?।
स्वप्नसम निस्सार जग-तज, तत्व-जिज्ञासा करो मन॥२३॥
तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझकर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥
Who are you ? Who am I ? From where I have come ? Who is my mother, who is my father ? Ponder over these and after understanding,this world to be meaningless like a dream,relinquish it. ॥23॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः, व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥
तुममें, मुझमें, सकल जगत में, व्याप्त विष्णु ही व्यापक सच है।
क्रुद्ध अकारण हो न, एक सा हर हालत में रखना निज मन॥२४॥
तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥
Lord Vishnu resides in me, in you and in everything else, so your anger is meaningless . If you wish to attain the eternal status of Vishnu, practice equanimity all the time, in all the things. ॥24॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
शत्रु-मित्र या संबंधी-सुत, से लड़ना-मिलना न सार्थक।
सब में खुद को देख तजो, अज्ञानजनित वैभिन्न्य भाव मन॥२५॥
शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से द्वेष और प्रेम मत करो, सबमें अपने आपको ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥
Try not to win the love of your friends, brothers, relatives and son(s) or to fight with your enemies. See yourself in everyone and give up ignorance of duality everywhere.॥25॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
काम, क्रोध, मद, लोभ त्यागकर, मैं 'वह' हूँ अनुभव कर साधक।
जिन्हें न आत्मज्ञान, वे मूरख, पीड़ित हों बन यम-बंदीजन ॥२६॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वे बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥
Give up desires, anger, greed and delusion. Ponder over your real nature . Those devoid of the knowledge of self come in this world, a hidden hell, endlessly. ॥26॥
गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥
गीता-विष्णुसहस्त्रनाम का गान, ध्यानकर श्री हरि का मन।
सदा रहो सत्संग-लीन मन, दीनों को के दान सदा धन॥२७॥
भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥
Sing thousand glories of Lord Vishnu, constantly remembering his form in your heart. Enjoy the company of noble people and do charity for the poor and the needy. ॥27॥
सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुंचति पापाचरणं ॥२८॥
क्षणिक भोगकर कायिक सुख, रोगी हो जाते सभी बाद में।
मृत्यु अंत में पाते लेकिन, नहीं त्यागते पाप-आचरण॥२८॥
सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥
People use this body for pleasure which gets diseased in the end. Though in this world everything ends in death, man does not give up the sinful conduct. ॥28॥
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥
हर विपत्ति का मूल संपदा, सुख न तनिक भी धन से मिलता।
सुत भी बैरी बने धनिक का, सच स्वीकारी तज दो धन, मन॥२९॥
धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥
Keep on thinking that money is cause of all troubles, it cannot give even a bit of happiness. A rich man fears even his own son . This is the law of riches everywhere. ॥29॥
प्राणायामं प्रत्याहारं, नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं, कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥
क्रिया-नियंत्रण, इन्द्रिय संयम, सत्यासत्य-विवेचन नित कर ।
नित्य-अनित्य विचारण, जप-तप, का अभ्यास सजग रह कर मन॥३०॥
प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥
Do pranayam, the regulation of life forces, take proper food, constantly distinguish the permanent from the fleeting, Chant the holy names of God with love and meditate,with attention, with utmost attention. ॥30॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं, द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥
गुरु-पदपद्म-भक्त! इन्द्रिय-मन, नियमन कर भव से छूटो रे।
निज उरवासी देव के करो, दर्शन, तरो मुक्त हो रे मन॥३१॥
गुरु के चरणकमलों का ही आश्रय माननेवाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥
Be dependent only on the lotus feet of your Guru and get salvation from this world. Through disciplined senses and mind, you can see the indwelling Lord of your heart !॥31॥
मूढः कश्चन वैयाकरणो, डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै, बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥
मुग्ध व्याकरण के नियमों पर, संगत में व्याकरणाचार्य की।
शिष्य कई शंकराचार्य के, ईश-बोध हित हुए सुप्रेरित ॥३२॥
इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥
Thus through a deluded grammarian lost in memorizing rules of the grammar, the all knowing Sri Shankara motivated his disciples for enlightenment. ॥32॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥
गोविन्द भजो, गोविन्द भजो, गोविन्द भजो रे मूरख मन।
भव से पार उतरने का है, ईश नाम जप ही साधन॥३३॥
गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥
O deluded minded friend, chant Govinda, worship Govinda, love Govinda as there is no other way to cross the life's ocean except lovingly remembering the holy names of God. ॥33॥
२८-८-२०१३
***
एक षटपदी:
प्रेम
*
तन न मिले ,मन से मिले, थे शीरीं-फरहाद.
लैला-मजनूं को रखा, सदा समय ने याद..
दूर सोहनी से रहा, मन में बस महिवाल.
ढोल-मारू प्रेम की, अब भी बने मिसाल..
मिल न मिलन के फर्क से, प्रेम रहे अनजान.
आत्म-प्रेम खुशबू सदृश, 'सलिल' रहे रस-खान..
२८-८-२०१२
*

शनिवार, 27 अगस्त 2022

सॉनेट,बधाई गीत,लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता,व्यंग्य लेख, यमक दोहा

सॉनेट

बाँहों में सारा आकाश
बाँध सकूँ देखा है ख्वाब
हो साकार कभी यह काश
बिन काँटों के मिले गुलाब

कोशिश किस्मत सके तराश
हर चेहरा हो बिना नकाब
खुद को खुद ही सकूँ तलाश
तौल सकूँ पर बनूँ उकाब

हम उनकी चाहत हों काश
जिनको पा हम हुए नवाब
अपने ही सपने की लाश
ढोल हम ईसा हुए जनाब

अब हो उनका सत्यानाश
जो करते हैं देश खराब
*
बधाई गीत *
जसुदा ने जायो लला ब्रज में
चलो देख आएँ
*
जसुदा हैं गोरी, नंद बाबा हैं गोरे
गोदी में कान्हा, ज्यों कमलन में भौंरें
चलो देख आएँ
*
अँगना में पलना है, पलना में लल्ला
गलियन में गूँज रहो भारी हो-हल्ला
चलो देख आएँ
*
आई बरसाने से राधा गुजरिया
लाई है मोरपंख, सँगै मुरलिया
चलो देख आएँ
*
गा रहीं सोहर, गोपियाँ नाचें
भाग लला का शिवजी बाँचें
चलो देख आएँ
*
२७-८-२०२१ / ९४२५१८३२४४
*
***
लघुकथा , राष्ट्र और राष्ट्रीयता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की स्वतंत्रता के ७५ वर्ष पूर्ण हो गए हैं। साहित्य की विविध विधाओं में स्वतंत्रता के अभिनन्दन हेतु सारस्वत अनुष्ठान किये जा रहे हैं। लघुकथाप्रेमी होने के नाते विचार आया कि राष्ट्रीयभावधारा परक ७५ -७५ लघुकथाओं के संकलन पीडीएफ बनाकर अंतरजाल पर साझा किया जाए । इस विचार को साझा किये कई माह हो गए। संध्या गोयल 'सुगम्या' जी ने संपादन सहयोग की अभिलाषा प्रगट की, उनका स्वागत है। सतत प्रयास के बाद भी पर्याप्त संख्या और गुणवत्तापूर्ण लघुकथाएँ न मिलना विस्मय ही नहीं दुःख का विषय भी है।
क्या लघुकथा या लघुकथाकार राष्ट्र के गौरव, विकास या स्वतंत्रता से विमुख हैं? यदि ऐसा है तो यह शर्म की स्थिति है, यदि नहीं तो मौन क्यों? राष्ट्र और राष्ट्रीयता से मुँह मोड़नेवाली विधा का औचित्य और उपादेयता सदैव संदिग्ध होता है। क्या लघुकथाकार का राष्ट्रीयता से बैर है? यदि नहीं तो राष्ट्र और राष्ट्रीयता से संबंधित कथानक को लेकर लघुकथा क्यों नहीं लिखी जा रहीं?
क्या लघुकथाकारों की दृष्टि कौए की तरह उच्छिष्ट (विसंगति, टकराव, बिखराव) पर ही केंद्रित है? क्या लघुकथाकार शूकर की तरह पंक में लोटकर संतुष्ट है? यदि नहीं तो जीवन के उदात्त भावों, आदर्शों, राष्ट्रीय गौरव आदि की अभिव्यक्ति करनेवाली लघुकथाएँ क्यों नहीं लिखी जा रहीं?
राष्ट्र क्या है?
राष्ट्र सांस्कृतिक अवधारणा, राष्ट्रीयता मानसिक अवधारणा। वर्तमान में राष्ट्र का प्रयोग राज्य के अर्थ में किया जाता है। राष्ट्रीयता से राज्य का ज्ञान नहीं होता । राष्ट्र का आधार राष्ट्रीयता है परंतु राष्ट्रीयता का आधार राष्ट्र नहीं है।
राष्ट्र ऐसा जनसमूह है जो एक भौगोलिक सीमा में, एक निश्चित स्थान पर रहता है, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधारहता है और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना अर्थात राष्ट्र के सदस्यों (नागरिकों) में उपलब्ध सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।
भारत के लम्बे इतिहास में, आधुनिक काल में, भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में राष्ट्रीयता की भावना का विशेष रूप से विकास हुआ। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है।
भारत की राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं। माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान 'पृथ्वी पर स्वर्ग' के रूप में किया गया है।अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।यतोहि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोग भूमयः॥गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।स्वर्गापस्वर्गास्पदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि बताया है। भागवतपुराण में तो भारतभूमि को सम्पूर्ण विश्व में 'सबसे पवित्र भूमि' कहा है। इस पवित्र भारतभूमि पर तो देवता भी जन्म धारण करने की अभिलाषा रखते हैं, ताकि सत्कर्म करके वैकुण्ठधाम प्राप्त कर सकें।कदा वयं हि लप्स्यामो जन्म भारत-भूतले।कदा पुण्येन महता प्राप्यस्यामः परमं पदम्।
महाभारत के भीष्मपर्व में भारतवर्ष की महिमा का गान इस प्रकार किया गया है;अत्र ते कीर्तिष्यामि वर्ष भारत भारतम्प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोवैवस्वतस्य।अन्येषां च महाराजक्षत्रियारणां बलीयसाम्।सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारताम्॥
गरुड पुराण में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की अभिलाषा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है-स्वाधीन वृत्तः साफल्यं न पराधीनवृत्तिता।ये पराधीनकर्माणो जीवन्तोऽपि ते मृताः॥
रामायण में रावणवध के पश्चात राम, लक्ष्मण से कहते हैं-अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
(अर्थ : हे लक्ष्मण! यद्यपि यह लंका स्वर्णमयी है, तथापि मुझे इसमें रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी देखें)
राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और बहुमुखी होती है। पराधीनता के पूर्व भारत में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो संसार में कहीं कहीं और नहीं थी। वह पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज जो कि देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग है, विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रहा है। हिन्दू पन्थ किसी विशिष्ट पूजा-पद्धति का नाम नहीं है। उसमें अनेक दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित है, वह अनेक सामाजिक और धार्मिक विभागों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना तथा विशाल आकार के कारण यहाँ पर आधुनिक राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना में विलंब तथा कठिनाई से हुआ।
सर जॉन स्ट्रेची के अनुसार "भारतवर्ष के विषय में सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बात यह है कि भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं।"
सर जॉन शिले का कहना है कि "यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है, उस मूल पर आधारित है जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं, वरन एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ़्रीका।"
भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन परिस्थितियों में हुआ जो राष्ट्रवाद के मार्ग में सहायता प्रदान करने के स्थान पर बाधाएँ पैदा करती है। भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है और समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना भी उदय होती रही है। वी॰ए॰ स्मिथ के शब्दों में "भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है।" ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नये विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला है इन विचारों तथा व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय विचारों को जन्म दिया।
राष्ट्रीयता
राष्ट्रीयता का अर्थ किसी व्यक्ति और किसी संप्रभु राज्य (देश) के बीच के क़ानूनी संबंध है। राष्ट्रीयता उस राज्य को उस व्यक्ति के ऊपर कुछ अधिकार देती है और बदले में उस व्यक्ति को राज्य सुरक्षा व अन्य सुविधाएँ लेने का अधिकार देता है। इन लिये व दिये जाने वाले अधिकारों की परिभाषा अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है। आम तौर पर परम्परा व अंतरराष्ट्रीय समझौते हर राज्य को यह तय करने का अधिकार देते हैं कि कौन व्यक्ति उस राज्य की राष्ट्रीयता रखता है और कौन नहीं। साधारणतया राष्ट्रीयता निर्धारित करने के नियम राष्ट्रीयता क़ानून में लिखे जाते हैं। राष्ट्रीयता एक निश्चित, भू-भाग में रहने वाले, जातीयता के बंधन में बंधे, एकता की भावना से युक्त, समान संस्कृति, धर्म, भाषा, साहित्य, कला, परम्परा, रीति-रिवाज, आचार-विचार, अतीत के प्रति गौरव-अगौरव और सुख-दु:ख की समान अनुभूति वाले विशाल जनसमुदाय में पायी जाने वाली एक ऐसी अनुभूति है जो विषयीगत होने के साथ-साथ स्वत: प्रेरित भी है। यह आध्यात्मिकता से युक्त एक मनोवैज्ञानिक निर्मित है जो उस जनसमुदाय को ऊँच-नीच और आर्थिक भेदभाव से ऊपर उठाकर एकता के सूत्र में बाँधती है। प्रामाणिक हिन्दी कोश के अनुसार ‘राष्ट्रीयता, किसी राष्ट्र के विशेष गुण, अपने देश या राष्ट्र के प्रति उत्कट प्रेम है।’
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार - ‘राष्ट्रीयता मस्तिष्क की स्थिति विशेष है, जिसमें मनुष्य को सर्वोत्तम निष्ठा राष्ट्र के प्रति होती है।” ‘राष्ट्रीयता मनुष्यों के समूह का एक गुण अथवा विभिन्न गुणों का एक संश्लिष्ट रूप है, जो उसे एक राष्ट्र के रूप में संगठित करता है। इस प्रकार संगठित व्यक्तियों में यह गुण विभिन्न मात्राओं में परिलक्षित होता है’।श्री अरविन्द के अनुसार - “राष्ट्र में भागवत एकता के साक्षात्कार की भावनापूर्ण आकांक्षा की राष्ट्रीयता है। यह एक ऐसी एकता है जिसमें सभी अवयवभूत व्यक्ति, चाहे उनके कार्य राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक तत्त्वों के कारण कितने ही विभिन्न और आपतत: असमान प्रतीत होते हों, वस्तुत: तथा आधारभूत रूप से एक और समान है।”
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी - ‘राष्ट्रीयता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का एक अंश है और उस राष्ट्र की सेवा के लिए उसे धन-धान्य से समृद्ध बनाने के लिए उसके प्रत्येक नागरिक को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सब प्रकार के त्याग और कष्ट को स्वीकार करना चाहिए।’
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार- ‘उत्तर को आर्यो का देश और दक्षिण को द्रविड़ का देश समझने का भाव यहाँ कभी नहीं पनपा, क्योंकि आर्य और द्रविड़ नाम से दो जातियों का विभेद हुआ ही नहीं था। समुद्र से उत्तर और हिमालय से दक्षिण वाला भाग हमेशा एक देश रहा है।’
बाबू गुलाबराय के मतानुसार - ‘एक सम्मिलित राजनीतिक ध्येय में बँधे हुए किसी विशिष्ट भौगोलिक इकाई के जन समुदाय के पारस्परिक सहयोग और उन्नति की अभिलाषा से प्रेरित उस भू-भाग के लिए प्रेम और गर्व की भावना को राष्ट्रीयता कहते हैं।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ‘राष्ट्रीयता विषयीगत होने के कारण एक ऐसी मनोवैज्ञानिक स्थिति है जो अधिकार कर्तव्य अनुभूति और विचार की दृष्टि से जीवन की एक पद्धति बन जाती है यह जन के भीतर के भेदभाव को दबाकर एकता की भावना के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। राष्ट्र की यह एकता इतिहास के दीर्घकालीन उतार-चढ़ाव के भीतर पिरोई हुई मिलती है।’
गिलक्राइस्ट के शब्दों में - ‘राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक भावना अथवा सिद्धान्त है जिसकी उत्पत्ति उन लोगों में होती है जो साधारणतया एक जाति के होते हैं जो एक भू-खण्ड पर रहते हैं, जिनकी एक भाषा, एक धर्म, एक सा इतिहास, एक-सी परम्पराएँ एवं सामान्य हित होते हैं तथा जिनके एक से राजनीतिक समुदाय राजनीतिक एकता के एक से आदर्श होते हैं।”
हैराल्ड लास्की ने ‘राष्ट्रीयता को मूलत: भावनात्मक माना है उनके अनुसार जिसके द्वारा उन सभी में विशिष्ट एकता सम्पन्न हो जाती है, जो अपने को अन्य मानवों से उस समानता का परिणाय होती हैं, जिसकी प्राप्ति संसृष्ट प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई है।”
गैंटल ने राष्ट्रीयता के बारे में कहा हैं - ‘राष्ट्रीयता मुख्य रूप से वह मनोवैज्ञानिक भावना है जो उन लोगों में ही उत्पन्न होती है जिनके सामान्य गौरव विपत्तियाँ हो। जिनको सामान्य परम्परा हो तथा पैतृक सम्पत्तियाँ एक ही हो।’ इनके अनुसार जिनमें एक-सी प्रवृत्तियाँ हो व उनके प्रति गौरव की भावना हो।
वी जोजफ का कहना है कि “राष्ट्रीयता का अर्थ उस एक सार्वलौकिक उन्नत भावना के प्रति भक्ति तथा स्थिरता है जो भूतकाल के गौरव व निराशा की अपेक्षा स्वतंत्रता, समानता की भावना से युक्त व्यापक भविष्य की ओर उन्मुख होती है।” राष्ट्रीय एक आध्यात्मिक भावना है यह मन की वह स्थिति है जिसमें राष्ट्र के प्रति व्यक्ति की परमनिष्ठा का पता लगता है। सामान्य भाषा, व्यवहार, धर्म आदि के संयोग से राष्ट्रीयता की भावना विकसित होती है। बर्गस के अनुसार “राष्ट्रीयता किसी राज्य में रहने वाली सम्पूर्ण जनसंख्या का एक विशेष अल्पसंख्यक समुदाय है जोकि सामाजिक एवं नस्ल के आधार पर संगठित है।”
राष्ट्रीयतापरक लघुकथा
राष्ट्रीय भावधारा की लघुकथा राष्ट्र के प्रति प्रेम, गौरव, त्याग, बलिदान, निरमन और विकास को केंद्र में रखकर लिखी जा सकती है। ऐसी लघुकथा सामान्यत: सामाजिक विसंगति को केंद्र में रखकर लिखी जाती लघुकथा से भिन्न होगी। वह बनी बनाई लीक को तोड़कर लिखी जाएगी। ऐसी लघुकथा पाठक के मन में राष्ट्र के प्रति गौरव, संतोष और त्याग की भावना उत्पन्न करेगी। समर्थ लघुकथाकारों के लिए स्वर्णिम अवसर है अपने लेखन को प्रकाश में लाने का, अपनी राह खुद बनाने का, अपनी भिन्न पहचान स्थापित करने का।
इस संकलन हेतु लघुकथाएँ भेजने की अंतिम तिथि १५ सितंबर है। तत्पश्चात मैं और संध्या जी मिलकर ७५ लघुकथाएँ लिखकर संकलन प्रकाशित कर लेंगे।
***
कवि-मन की बात
*
कैसा राष्ट्रवाद यह जिसमें अपराधी संरक्षित?
रहें न बाकी कहीं विपक्षी, सत्ता हेतु बुभुक्षित.
*
गूँगे अफसर, अंधे नेता, लोकतंत्र बेहोश.
बिना मौत मरती है जनता, गरजो धरकर जोश.
*
परंपरा धृतराष्ट्र की, खट्टर कर निर्वाह.
चीर-हरण जनतंत्र का, करवाते कह 'वाह'
*
राज कौरवी हुआ नपुंसक, अँधा हुआ प्रशासन.
न्यायी विदुर उपेक्षित उनकी, बात न माने शासन.
*
अंधभक्ति ने देशभक्ति का, आज किया है खून.
नाकारा सरकार-प्रशासन, शेर बिना नाखून.
*
भारतमाता के दामन पर, लगा रहे हैं कीच.
देश डायर बाबा-चेले, हद दर्जे के नीच.
*
राज-धर्म ही नहीं जानते, राज कर रहे कैसे लोग?
सत्य-न्याय की नीलामी कर, देशभक्ति का करते ढोंग.
*
लोग न भूलो, याद रखो यह, फिर आयेंगे द्ववार पर.
इन्हें न चुनना, मार भागना, लोकतंत्र से प्यार कर.
*
अंधभक्त घर जाकर सोचे, क्या पाया है क्या खोया?
आड़ धर्म की, दुराचार का, बीज आप ही क्यों बोया??
***
छंद चर्चा-
बूझो यह कौन सा छंद है और इसका विधान क्या है? छंद का नाम बताएं, इस छंद में अपनी रचना प्रस्तुत करें.
*
श्री गणेश ऋद्धि-सिद्धि दाता,
घर आओ सुनाथ.
शीश झुका, माथ हूँ नवाता,
मत छोडो अनाथ.
देव घिरा देश संकटों से,
रिपुओं का विनाश-
नाथ! करो प्रजा हर्ष पाए,
शुभ का हो प्रकाश.
***
व्यंग्य लेख
दही हांडी और सर्वोच्च न्यायालय
*
दही-हांडी बाँधता-फोड़ता और देखकर आनंदित होते आम आदमी के में भंग करने का महान कार्य कर खुद को जनहित के प्रति संवेदनशील दिखनेवाला निर्णय सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज जाने की तरह शांतिप्रिय सनातनधर्मियों के अनुष्ठान में अयाचित और अनावश्यक हस्तक्षेप करने के कदमों की कड़ी है। हांड़ी की ऊँचाई उन्हें तोड़ने के प्रयासों को रोमांचक बनाती है। ऊँचाई को प्रतिबंधित करने के निर्णय का आधार, दुर्घटनाओं को बताया गया है कइँती यह कैसे सुनिश्चित किया गया कि निर्धारित ऊँचाई से दुर्घटना नहीं होगी? इस निर्णय की पृष्ठभूमि किसी प्राण-घातक दुर्घटना और जान-जीवन की रक्षा कहा जा रहा है। यदि न्यायलय इतना संवेदनशील है तो मुहर्रम में जलाते अलावों पर चलने, मुंह में छेदना, उन पर कूदने और अपने आप पर घातक शास्त्रों से वार करने की परंपरा हानिहीन कैसे कही जा सकती है? क्या बकरीद पर लाखों बकरों का कत्ल अधिक जघन्य नहीं है? न्यायालय यह जानता नहीं या इसे प्रतिबन्धयोग्य मानता नहीं या सनातन धर्मियों को सॉफ्ट टारगेट मानकर उनके धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप करना अपना जान सिद्ध अधिकार समझता है? सिख जुलूसों में भी शस्त्र तथा युद्ध-कला प्रदर्शनों की परंपरा है जिससे किसी की हताहत होने को सम्भावना नकारी नहीं जा सकती।
वस्तुत: दही-हांड़ी का आयोजन हो या न हो? हो तो कहाँ हो?, ऊँचाई कितनी हो?, कितने लोग भाग लें?, किस प्रकार मटकी फोड़ें? आदि प्रश्न न्यायालय नहीं प्रशासन हेतु विचार के बिंदु हैं। भारत के न्यायालय बीसों साल से लंबित लाखों वाद प्रकरणों, न्यायाधीशों की कमी, कर्मचारियों में व्यापक भ्रष्टाचार, वकीलों की मनमानी आदि समस्याओं के बोझ तले कराह रहे हैं। दम तोडती न्याय व्यवस्था को लेकर सर्वोच्च न्यायाधिपति सार्वजनिक रूप से आँसू बहा चुके हैं। लंबित लाखों मुकदमों में फैसले की जल्दी नहीं है किन्तु सनातन धर्मियों के धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े मामले में असाधारणशीघ्रता और जन भावनाओं के निरादर का औचित्य समझ से परे है। न्यायलय को आम आदमी की जान की इतनी ही चिता है तो दीपा कर्माकर द्वारा प्रदर्शित जिम्नास्ट खेल में निहित सर्वाधिक जान का खतरा अनदेखा कैसे किया जा सकता है? खतरे के कारण ही उसमें सर्वाधिक अंक हैं। क्या न्यायालय उसे भी रोक देगा? क्या पर्वतारोहण और अन्य रोमांचक खेल (एडवेंचर गेम्स) भी बन्द किये जाएँ? यथार्थ में यह निर्णय उतना ही गलत है जितना गंभीर अपराधों के बाद भी फिल्म अभिनेताओं को बरी किया जाना। जनता ने न उस फैसले का सम्मान किया, न इसका करेगी।
इस सन्दर्भ में विचारणीय है कि-
१. विधि निर्माण का दायित्व संसद का है। न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) अत्यंत ग़ंभीऱ और अपरिहार्य स्थितियों में ही अपेक्षित है। सामान्य प्रकरणों और स्थितियों में इस तरह के निर्णय संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप है।
२. कार्यपालिका का कार्य विधि का पालन करना और कराना है। किसी विधि का हर समय, हर स्थिति में शत-प्रतिशत पालन नहीं किया जा सकता। स्थानीय अधिकारियों को व्यावहारिकता और जन-भावनाओं का ध्यान भी रखना होता है। अत:, अन्य आयोजनों की तरह इस संबंध में भी निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय प्रशासन के हाथों में देना समुचित विकल्प होता।
३. न्यायालय की भूमिका सबसे अंत में विधि का पालन न होने पर दोषियों को दण्ड देने मात्र तक सीमित है, जिसमें वह विविध कारणों से असमर्थ हो रहा है। असहनीय अनिर्णीत वाद प्रकरणों का बोझ, न्यायाधीशों की अत्यधिक कमी, वकीलों का अनुत्तरदायित्व और दुराचरण, कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण दम तोड़ती न्याय व्यवस्था खुद में सुधार लाने के स्थान पर अनावश्यक प्रकरणों में नाक घुसेड़ कर अपनी हेठी करा रही है।
मटकी फोड़ने के मामलों में स्वतंत्रता के बाद से अब तक हुई मौतों के आंकड़ों का मिलान, बाढ़ में डूब कर मरनेवालों, दंगों में मरनेवालों, समय पर चिकित्सा न मिलने से मरनेवालों, सरकारी और निजी अस्पतालों में चिकित्सकों के न होने से मरनेवालों के आँकड़ों के साथ किया जाए तो स्थिति स्पष्ट होगी यह अंतर कुछ सौ और कई लाखों का है।
यह कानून को धर्म की दृष्टि से देखने का नहीं, धर्म में कानून के अनुचित और अवांछित हस्तक्षेप का मामला है। धार्मिक यात्राएँ / अनुष्ठान ( शिवरात्रि, राम जन्म, जन्माष्टमी, दशहरा, हरछट, गुरु पूर्णिमा, मुहर्रम, क्रिसमस आदि) जन भावनाओं से जुड़े मामले हैं जिसमें दीर्घकालिक परंपराएँ और लाखों लोगों की भूमिका होती है। प्रशासन को उन्हें नियंत्रित इस प्रकार करना होता है कि भावनाएँ न भड़कें, जान-असन्तोष न हो, मानवाधिकार का उल्लंघन न हो। हर जगह प्रशासनिक बल सीमित होता है। यदि न्यायालय घटनास्थल की पृष्भूमि से परिचित हुए बिना कक्ष में बैठकर सबको एक डंडे से हाँकने की कोशिश करेगा तो जनगण के पास कानून की और अधिकारियों के सामने कानून भंग की अनदेखी करने के अलावा कोई चारा शेष न रहेगा। यह स्थिति विधि और शांति पूर्ण व्यवस्था की संकल्पना और क्रियान्वयन दोनों दृष्टियों से घातक होगी।
इस निर्णय का एक पक्ष और भी है। निर्धारित ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में मौत न होगी क्या न्यायालय इससे संतुष्ट है? यदि मौत होगी तो कौन जवाबदेह होगा? मौत का कारण सिर्फ ऊँचाई कैसे हो सकती है। अपेक्षाकृत कम ऊँचाई की मटकी फोड़ने के प्रयास में दुर्घटना और अधिक ऊँचाई की मटकी बिना दुर्घटना फोड़ने के से स्पष्ट है की दुर्घटना का कारण ऊँचाई नहीं फोडनेवालों की दक्षता, कुशलता और निपुणता में कमी होती है। मटकी फोड़ने संबंधी दुर्घटनाएँ न हों, कम से कम हों, कम गंभीर हों तथा दुर्घटना होने पर न्यूनतम हानि हो इसके लिए भिन्न आदेशों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता है -
१. मटकी स्थापना हेतु इच्छुक समिति निकट रहवासी नागरिकों की लिखित सहमति सहित आवेदन देकर स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति ले और उसकी लिखित सूचना थाना, अस्पताल, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग व नगर निगम को देना अनिवार्य हो।
२. मटकी की ऊँचाई समीपस्थ भवनों की ऊँचाई, विद्युत् तारों की ऊँचाई, होर्डिंग्स की स्थिति, अस्पताल जैसे संवेदनशील और शांत स्थलों से दूरी आदि देखकर प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की समिति तय करे।
३. तय की गयी ऊँचाई के परिप्रेक्ष्य में अग्नि, विद्युत्, वर्षा, तूफ़ान, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा गिरने की संभावना का पूर्वाकलन कर अग्निशमन यन्त्र, विद्युत् कर्मचारी, श्रमिक, चिकित्साकर्मी आदि की सम्यक और समुचित व्यवस्था हो अथवा व्यवस्थाओं के अनुसार ऊँचाई निर्धारित हो।
४. इन व्यवस्थों को करने में समितियों का भी सहयोग लिया जाए। उन्हें मटकी स्थापना-व्यवस्था पर आ रहे खर्च की आंशिक पूर्ति हेतु भी नियम बनाया जा सकता है। ऐसे नियम हर धर्म, हर सम्प्रदाय, हर पर्व, हर आयोजन के लिये सामान्यत: सामान होने चाहिए ताकि किसी को भेदभाव की शिकायत न हो।
५. ऐसे आयोजनों का बीमा काबरा सामियितों का दायित्व हो ताकि मानवीय नियंत्रण के बाहर दुर्घटना होने पर हताहतों की क्षतिपूर्ति की जा सके।
प्रकरण में उक्त या अन्य तरह के निर्देश देकर न्यायालय अपनी गरिमा, नागरिकों की प्राणरक्षा तथा सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक व्यावहारिकताओं के प्रति संवेदनशील हो सकता था किन्तु वह विफल रहा। यह वास्तव में चिता और चिंतन का विषय है।
समाचार है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवहेलना कर सार्वजनिक रूप से मुम्बई में ४४ फुट ऊँची मटकी बाँधी और फोड़ी गयी। ऐसा अन्य अनेक जगहों पर हुआ होगा और हर वर्ष होगा। पुलिस को नेताओं का संरक्षण करने से फुरसत नहीं है। वह ग़ंभीऱ आपराधिक प्रकरणों की जाँच तो कर नहीं पाती फिर ऐसे प्रकरणों में कोई कार्यवाही कर सके यह संभव नहीं दिखता। इससे आम जान को प्रताड़ना और रिश्वत का शिकार होना होगा। अपवाद स्वरूप कोई मामला न्यायालय में पहुँच भी जाए तो फैसला होने तक किशोर अपराधी वृद्ध हो चुका होगा। अपराधी फिल्म अभिनेता, नेता पुत्र या महिला हुई तब तो उसका छूटना तय है। इस तरह के अनावश्यक और विवादस्पद निर्णय देकर अपनी अवमानना कराने का शौक़ीन न्यायालय आम आदमी में निर्णयों की अवहेलना करने की आदत डाल रहा है जो घातक सिद्ध होगी। बेहतर हो न्यायालय यह निर्णय वापिस ले ले।
२७-८-२०१७
***
कृति चर्चा:
'थोड़ा लिखा समझना ज्यादा' : सामयिक विसंगतियों का दस्तावेज
*
[कृति विवरण: थोड़ा लिखा समझना ज्यादा, नवगीत संग्रह, जय चक्रवर्ती, २०१५, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द, बहुरंगी, जैकेट सहित, पृष्ठ ११९, ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ, संपर्क: एम १/१४९ जवाहर विहार रायबरेली २२९०१० चलभाष ९८३९६६५६९१, ईमेल: jai.chakrawarti@gmail.com ]
*
'बचपन में अक्सर दिन भर के कामों से निवृत्त होकर शाम को पिता जी मुझे अपने पास बिठाते और कबीर, तुलसी, मीरा के भजन तथा उस समय की फिल्मों के चर्चित धार्मिक गीत सुनाते.… गीतों में घुले पिता जी के स्वर आज उनके निधन के पच्चीस वर्षों बाद भी मेरे कान में ज्यों के त्यों गूँजते हैं.' १५ नवंबर १९५८ को जन्मे यांत्रिकी अभियंत्रण तथा हिंदी साहित्य से सुशिक्षित जय चक्रवर्ती पितृ ऋण चुकाने का सारस्वत अनुष्ठान इन नवगीतों के माध्यम से कर रहे हैं. दोहा संग्रह 'संदर्भों की आग' के माध्यम से समकालिक रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके जय की यह दूसरी कृति उन्हें साहित्य क्षेत्र में चक्रवर्तित्व की प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में एक और कदम है. निस्संदेह अभी ऐसे कई कदम उन्हें उठाने हैं.
नवगीत समय के सफे पर धड़कते अक्षरों-शब्दों में जन-गण के हृदयों की धड़कनों को संवेदित कर पाठकों-श्रोताओं के मर्म को स्पर्श ही नहीं करता अपितु उनमें अन्तर्निहित सुप्त संवेदनाओं को जाग्रत-जीवंत कर चैतन्यता की प्रतीति भी कराता है. इन नवगीतों में पाठक-श्रोता अपनी अकही वेदना की अभिव्यक्ति पाकर चकित कम, अभिभूत अधिक होता है. नवगीत आम आदमी की अनुभूति को शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त करता है. इसलिए नवगीत को न तो क्लिष्ट-आभिजात्य संस्कार संपन्न भाषा की आवश्यकता होती है, न ही वह आम जन की समझ से परे परदेशी भाषा के व्याल जाल को खुद पर हावी होने देता है. नवगीत के लिये भाषा, भाव की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है. भाव की प्रतीति करने के लिये नवगीत देशज-विदेशज, तत्सम,-तद्भव, नये-पुराने, प्रचलित-अल्प प्रचलित शब्दों को बिना किसी भेद-भाव के अंगीकार करता है. विद्वान लक्षण-व्यंजना के चक्रव्यूह रचते रहे किन्तु नवगीत जमीन से जुड़े कवि की कलम से निकलकर सीधे जन-मन में पैठ गया. गीत के निधन की घोषणा करनेवाले महामहिमों का निधन हो गया किन्तु गीत-नवगीत समय और परिवेश के अनुरूप चोला बदलकर जी गया. नवगीत के उद्भव-काल के समय की भंगिमा को अंतिम मानकर उसके दुहराव के प्रति अति आग्रही कठघरों की बाड़ तोड़कर नवगीत को जमीन से आकाश के मध्य विचरण करने में सहायक कलमों में से एक जय की भी है. ' पेशे से अभियंता अपना काम करे, क्या खाला का घर समझकर नवगीत में घुस आता है?' ऐसी धारणाओं की निस्सारता जय चक्रवर्ती के इन नवगीतों से प्रगट होती है.
अपनी अम्मा-पिताजी को समर्पित इन ५१ नवगीतों को अवधी-कन्नौजी अंचल की माटी की सौंधी महक से सुवासित कर जय ने जमीनी जड़ें होने का प्रमाण दिया है. जय जनानुभूतियों के नवगीतकार हैं.
'तुम्हारी दृष्टि को छूकर / फिरे दिन / फिर गुलाबों के
तुम्हारा स्पर्श पाकर / तन हवाओं का / हुआ चंदन
लगे फिर देखने सपने / कुँवारी / खुशबुओं के मन
फ़िज़ाओं में / छिड़े चर्चे / सवालों के-जवाबों के '
यौगिक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कवि हिंदी-उर्दू शब्दों के गंगो-जमुनी प्रवाह से अपनी बात कहता है.जीवन के मूल श्रृंगार रस से आप्लावित इस नवगीत में जय की भाषा का सौंदर्य किसी अंकुर और कली के निर्मल लगाव और आकांक्षा की कथा को सर्वग्राही बनाता है.
'लिखे खत तितलियों को / फूल ने / अपनी कहानी के
खनक कर पढ़ गये / कुछ छंद / कंगन रातरानी के
तुम्हारी आहटों से / पर खुले / मासूम ख्वाबों के'
जय के नवगीत माता-पिता को सुमिरकर माँ जैसा होना, पिता तथा खुद से हारे मगर पिता आदि नवगीतों में वात्सल्य रस की नेह-नर्मदा प्रवाहित करते हैं. इनमें कहीं भी लिजलिजी भावुकता या अतिरेकी महत्ता थोपने का प्रयास नहीं है. ये गीत बिम्बों और प्रतीकों का ऐसा ताना-बाना बुनते हैं जिसमें आत्मज की क्षणिक स्मृतियों की तात्विक अभिव्यक्ति सनातनता की प्रतीति कर पाती है:
'माँ होना ही / हो सकता है / माँ जैसा होना' में जय माँ की प्रशंसा में बिना कुछ कहे भी उसे सर्वोपरि कह देते हैं. यह बिना कहे कह दें की कला सहज साध्य नहीं होती.
धरती , नदिया, / धूप, चाँदनी, खुशबू, / शीतलता
धैर्य, क्षमा, करुणा, / ममता, / शुचि-स्नेहिल वत्सलता
किसके हिस्से है / उपमा का / यह अनुपम दोना
माँ को विशेषणों से न नवाज़कर उससे प्राप्त विरासत का उल्लेख करते हुए जय महाभागवत छंद में रचित इस नवगीत के अंत में और किसे आता है / सपनों में / सपने बोना' कहकर बिना कहे ही जय माँ को सृष्टि में अद्वितीय कह देते हैं.
पिता को समर्पित नव गीत में जय 'दुनिया भर से जीते / खुद से- / हारे मगर पिता', 'घर की खातिर / बेघर भटके / सारी उमर पिता', 'किसे दिखाते / चिंदी-चिंदी / अपना जिगर पिता' आदि अभिव्यक्तियों में सिर्फ अंतर्विरोध के शब्द चित्र उपस्थित नहीं करते अपितु पिता से अपेक्षित भूमिका और उस भूमिका के निर्वहन में झेली गयी त्रासदियों के इंगित बिना विस्तार में गये, पाठक को समझने के लिये छोड़ देते हैं. 'चिंदी-चिंदी' शब्द का प्रयोग सामान्यत: कपड़े के साथ किया जाता है, 'जिगर' के साथ 'टुकड़े-टुकड़े' शब्द अधिक उपयुक्त होता।
सजावट, बनावट और दिखावट की त्रित्रासदियों से आहत इस युग की विडम्बनाओं और विसंगतियों से हम सबको प्राय: दिन दो-चार होना होता है. जय गीत के माध्यम से उन्हें चुनौती हैं:
मौत से मत डराओ मुझे / गीत हूँ मैं / मरूँगा नहीं
जन्म जब से हुआ / सृष्टि का
मैं सृजन में हूँ, विध्वंस में / वास मेरा है हर
सांस में / मैं पला दर्द के वंश में
आँखें दिखाओ मुझे / गीत हूँ मैं / डरूँगा नहीं
समय से सवाल करनेवाला गीतकार अपने आप को भी नहीं बख़्शता. वह गीतकार बिरादरी से भी सवाल करता है की जो वे लिख रहे हैं वह वास्तव में देखा है अथवा नहीं? स्पष्ट है की गीतकार कोरी लफ़्फ़ाज़ी को रचनाओं में नहीं चाहता।
आपने जितना लिखा, / दिखा? / सच-सच बताना
शब्द ही तो थे / गये ले आपको / जो व्योम की ऊँचाईयों पर
और धरती से / मिला आशीष चिर सम्मान का / अक्षय-अनश्वर
आपको जितना मिला / उतना दिया? / सच-सच बताना
विशव के पुरातनतम और श्रेष्ठतम संस्कृति का वाहक देश सिर्फ सबसे बड़ा बाजार बनकर इससे अधिक दुखद और क्या हो सकता है? सकल देश के सामाजिक वातावरण को उपभोक्तावाद की गिरफ्त में देखकर जय भी विक्षुब्ध हैं:
लगीं सजने कोक, पेप्सी / ब्रेड, बर्गर और पिज्जा की दुकानें
पसरे हुए हैं / स्वप्न मायावी प्रकृति के / छात्र ताने
आधुनिकता का बिछा है / जाल मेरे गाँव में
लोकतंत्र में लोक की सतत उपेक्षा और प्रतिनिधियों का मनमाना आचरण चिंतनीय है. जब माली और बाड़ ही फसल काटने-खाने लगें तो रक्षा कौन करे?
किसकी कौन सुने / लंका में / सब बावन गज के
राजा जी की / मसनद है / परजा छाती पर
रजधानी का / भाग बाँचते / चारण और किन्नर
ध्वज का विक्रय-पत्र / लिए है / रखवाले ध्वज के
पोर-पोर से बिंधी / हुयी हैं / दहशत की पर्तें
स्वीकृतियों का ताज / सम्हाले / साँपों की शर्तें
अँधियारों की / मुट्ठी में हैं / वंशज सूरज के
शासकों का 'मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में' वाला रवैया गीतकार को उद्वेलित करता है.
वृन्दावन / आग में दहे / कान्हा जी रास में मगन
चाँद ने / चुरा लीं रोटियाँ / पानी खुद पी गयी नदी
ध्वंस-बीज / लिये कोख में / झूमती है बदचलन नदी
वृन्दावन / भूख से मरे / कान्हा जी जीमते रतन
'कान्हा जी जयंती रातें जीमते रतन' में तथ्य-दोष है. रतन को जीमा (खाया) नहीं जा सकता, रत्न को सजाया या जोड़ा-छिपाया जाता है.
संविधान प्रदत्त मताधिकार के बेमानी होते जाने ने भी कवि को चिंतित किया है. वह नागनाथ-साँपनाथ उम्मीदवारी को प्रश्न के कटघरे में खड़ा करता है:
कहो रामफल / इस चुनाव में / किसे वोट दोगे?
इस टोपी को / उस कुर्ते को / इस-उड़ झंडे को
दिल्ली दुखिया / झेल रही है / हर हथकंडे को
सड़सठ बरसों तक / देखा है / कब तक कब तक देखोगे?
खंड-खंड होती / आशाएँ / धुआँ - धुआँ सपने
जलते पेट / ठिठुरते चूल्हे / खासम-खास बने
गणित लगाना / आज़ादी के / क्या-क्या सुख भोगे?
चलो रैली में, खतरा बहुत नज़दीक है, लोकतंत्र है यहाँ, राजाजी हैं धन्य, ज़ख्म जो परसाल थे, लोकतंत्र के कान्हा, सब के सब नंगे, वाह मालिक ,फिर आयी सरकार नयी आदि नवगीत तंत्र कार्यपद्धति पर कटाक्ष करते हैं.
डॉ. भारतेंदु मिश्र इन नवगीतों में नए तुकांत, नई संवेदना की पड़ताल, नए कथ्य और नयी संवेदना ठीक ही रेखांकित करते हैं. डॉ. ओमप्रकाश सिंह मुहावरों, नए , नए बिम्बों को सराहते हैं. स्वयं कवि 'ज़िंदगी की जद्दोजहद में रोजाना सुबह से शाम तक जो भोगा उसे कागज़ पर उतारते समय इन गीतों के अर्थ ज़ेहन में पहले आने और शब्द बाद में देने' ईमानदार अभिव्यक्ति कर अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत करता है. यही कारण है कि जय चक्रवर्ती के ये नवगीत किसी व्याख्या के मोहताज़ नहीं हैं. जय अपने प्रथम नवगीत संग्रह के माध्यम से सफे पर निशान छोड़ने के कामयाब सफर पर गीत-दर-गीत आगे कदम बढ़ाते हुए उम्मीद जगाते हैं.
२७-८-२०१५

***

दोहा सलिला: यमक का रंग दोहे के संग

मनुज नगर में दीन

*

मत लब पर मुस्कान रख, जब मतलब हो यार.

हित-अनहित देखे बिना, कर ले सच्चा प्यार..

*

अमरस, बतरस, काव्यरस, नित करते जो पान.

पान मान का ग्रहणकर, अधर बनें श्री-वान..

*

आ राधा ने कृष्ण को, आराधा दिन-रैन.

अ-धर अधर पर बाँसुरी, कृष्ण हुए बेचैन..

*

जल सा घर कोई नहीं, कहें पुलककर मीन.

जलसा-घर को खोजते, मनुज नगर में दीन..

*

खुश बू से होते नहीं, खुशबू सबकी चाह.

मिले काव्य पर वाह- कर, श्रोता की परवाह..

*

छतरी पानी से बचा, भीगें वसन न आज.

छत री मत चू आ रही, प्रिया बचा ले लाज..

*

हम दम लेते किस तरह?, हमदम जब बेचैन.

उन्हें मनायें किस तरह, आये हम बे-चैन..

२७-८-२०११

*