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शनिवार, 19 अप्रैल 2014

chhand salila: kamini mohan / madan avtar chhand -sanjiv

छंद सलिला:
कामिनीमोहन (मदनअवतार) छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा तथा चार पंचकल, यति५-१५.

लक्षण छंद:
कामिनी, मोहिनी मानिनी भामनी 
फागुनी, रसमयी सुरमयी सावनी
पाँच पंद्रह रखें यति मिले गति 'सलिल'
चार पँचकल कहें मत रुको हो शिथिल

उदाहरण:
१. राम को नित्य भज भूल मत बावरे
   कर्मकर धर्म वर हों सदय सांवरे    
   कौन है जो नहीं चाहता हो अमर
   पानकर हलाहल शिव सदृश हो निडर

२. देश पर जान दे सिपाही हो अमर
    देश की जान लें सेठ -नेता अगर
    देश का खून लें चूस अफसर- समर 
    देश का नागरिक प्राण-प्राण से करे 
    देश से सच 'सलिल' कवि कहे बिन डरे 
    देश के मान हित जान दे जन तरे

३. खेल है ज़िंदगी खेलना है हमें
    मेल है ज़िंदगी झेलना है हमें
    रो नहीं हँस सदा धूप में, छाँव में
    मंज़िलें लें शरण, आ 'सलिल' पाँव में
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

chitra par kavita: sanjiv

​चित्र पर कविता
संजीव
*


भगा साथियों को दिया, किन्तु न भागा आप
मधुर-मधुर मुस्कान से, हर मैया का ताप
कान खिंचा मुस्का रहा, ब्रिज का माखनचोर
मैया भूली डाँटना, होकर भाव विभोर
*
अग्निहोत्र नभ ने किया, साक्षी देते मेघ
मिलीं लालिमा-कालिमा, गले भूलकर भेद
आया आम चुनाव क्या?, केर-बेर का संग
नित नव गठबंधन करे, खिले नये गुल-रंग
*
फेरे सात लगा लिये, कदम-कदम रख साथ
कर आये मतदान भी, लिए हाथ में हाथ
करते हैं संकल्प यह, जब भी हों मतभेद
साथ बैठ सुलझाएँगे, 'सलिल' न हो मनभेद
*



मुस्कुराती रहो, खिलखिलाती रहो,
पंछियों की तरह गीत गाती रहो
जो तुम्हें भा रहा, है दुआ यह मेरी-
तुम भी उसको सदा खूब भाती रहो
*
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

hansgati chhand: sanjiv

छंद सलिला: हंसगति छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति महादैशिक , प्रति चरण मात्रा २० मात्रा, यति ११-९, चरणांत गुरु लघु लघु (भगण) होता है.


लक्षण छंद:
रचें हंसगति छंद, बीस मात्रा रख
गुरु लघु लघु चरणान्त, हर चरण में लख 
यति ग्यारह-नौ रहे, मधुर हो गायन
रच मुक्तक कवि करे, सतत पारायण

उदाहरण:
१. प्रजा तंत्र का अनुष्ठान है पावन
   जनमत संग्रह महायज्ञ मनभावन
   करी समर्पित मत-समिधा हमने मिल
   लोकतंत्र शतदल सकता तब ही खिल 

२. मिले सफलता तभी करो जब कोशिश
    मिटे विफलता तभी करो जब कोशिश
    रमा रहे मन सदा राम में बेशक
    लगा रहे तन सदा काम में बेशक

३. अन्य समय का देख उबलता सूरज
    पले पंक में अमल महकता नीरज
    काम अहर्निश करिए तजकर आलस
    मिले सफलता कर न गर्व प्रभु को भज
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसगति, हंसी)

chitr par kavita -sanjiv

चित्र पर कविता:
संजीव
*

श्वास तुला है आस दण्डिका, दोनों पल्लों पर हैं श्याम
जड़ में वही समाये हैं जो खुद चैतन्य परम अभिराम
कंकर कंकर में शंकर वे, वे ही कण-कण में भगवान-
नयन मूँद, कर जोड़ कर 'सलिल', आत्मलीन हो नम्र प्रणाम
*

व्यथा--कथा यह है विचित्र हरि!, नहीं कथा सुन-समझ सके
इसीलिए तो नेता-अफसर सेठ-आमजन भटक रहे
स्वयं संतगण भी माया से मुक्त नहीं, कलिकाल-प्रभाव-
प्रभु से नहीं कहें तो कहिये व्यथा ह्रदय की कहाँ कहें?
*

सूर्य छेडता उषा को हुई लाल बेहाल
क्रोधित भैया मेघ ने दंड दिया तत्काल
वसुधा माँ ने बताया पलटा चिर अनुराग-
गगन पिता ने छुड़ाया आ न जाए भूचाल
*


सेतु दूरियों को मिटा, जोड़ किनारे मौन
जोड़-जोड़ दिल टूटते, कहिए जोड़े कौन?
*


वन काटे, पर्वत मिटा, भोग रहे अभिशाप
उफ़न-सूख नदिया कहे, बंद करो यह पाप
रूठे प्रभु केदार तो मनुज हुआ बेज़ार-
सुधर न पाया तो असह्य, होगा भू का ताप
*

मोहन हो गोपाल भी, हे जसुदा के लाल!
तुम्हीं वेणुधर श्याम हो, बाल तुम्हीं जगपाल
कमलनयन श्यामलवदन, माखनचोर मुरार-
गिरिधर हो रणछोड़ भी, कृष्ण कान्ह इन्द्रारि।
*

हममें प्रभु का वास है, भूल रहे क्यों काट?
याद रखो हो रही है, खड़ी तुम्हारी खाट
वृक्ष बिना दे ओषजन, कौन तुम्हें बिन दाम?
मिटा वंश, है शाप यह, वंशज आये न काम
मुझ जैसे तुम अकेले, पा न सकोगे चैन
छाँह न बाकी रहेगी, रोओगे दिन-रैन
*

kshanikayen: poornima barman

चित्र-चित्र क्षणिका :
पूर्णिमा बर्मन

पूर्णिमा जी समकालिक हस्ताक्षरों में महत्वपूर्ण स्थान की अधिकारिणी हैं अपने रचना कर्म और हिंदी प्रसार दोनों के लिए. उनके पृष्ठ से साभार प्रस्तुत हैं कुछ क्षणिकाएँ>
फ़ोटो: इस अकेली शाम का
मतलब न पूछो
सर्द मौसम
और फैला दूर तक
एकांत सागर
एक पुल
थामे हुए हमको हमेशा -पूर्णिमा वर्मन

इस अकेली शाम का
मतलब न पूछो
सर्द मौसम
और फैला दूर तक
एकांत सागर
एक पुल
थामे हुए हमको हमेशा 

-
फ़ोटो: बदला मौसम गर्म हवाएँ
फागुन बीता जाए
दोपहरी की 
सुस्ती हल्की
बार बार दुलराए -पूर्णिमा वर्मन
बदला मौसम गर्म हवाएँ
फागुन बीता जाए
दोपहरी की
सुस्ती हल्की
बार बार दुलराए 
*
फ़ोटो: फिर वही वेवक्त बारिश
रात गहरी
नम फुहारें
भीगती सड़कें
हवा के सर्द झोंके
रुकें...
रुक रुक के पुकारें - पूर्णिमा वर्मन
फिर वही वेवक्त बारिश
रात गहरी
नम फुहारें
भीगती सड़कें
हवा के सर्द झोंके
रुकें...
रुक रुक के पुकारें - 
*
फ़ोटो: खिड़कियों के पार 
उजला फागुनी मौसम
गर्म दोपहरी 
नींद का झोंका 
गुनगुना की-बोर्ड, 
फिर से
काम की चोरी -पूर्णिमा वर्मन
खिड़कियों के पार
उजला फागुनी मौसम
गर्म दोपहरी
नींद का झोंका
गुनगुना की-बोर्ड,
फिर से
काम की चोरी 
*
फ़ोटो: दौड़ना हर रोज 
नंगे पाँव सागर के किनारे
आसमानों से गुजरना
पानियों पर नजर रखना
एक पूरा जनम जैसे
रोज जीना -पूर्णिमा वर्मन
दौड़ना हर रोज
नंगे पाँव सागर के किनारे
आसमानों से गुजरना
पानियों पर नजर रखना
एक पूरा जनम जैसे
रोज जीना 

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

geet: jevan ke dhaee aakhar ko -sanjiv

​गीत:
माननीय राकेश खण्डेलवाल जी को समर्पित

जीवन के ढाई आखर को
संजीव
*
बीती उमर नहीं पढ़ पाये, जीवन के ढाई आखर को
गृह स्वामी की करी उपेक्षा, सेंत रहे जर्जर बाखर को...
*
रूप-रंग, रस-गंध चाहकर, खुदको समझे बहुत सयाना
समझ न पाये माया-ममता, मोहे मन को करे दिवाना
कंकर-पत्थर जोड़ बनायी मस्जिद,  जिसे टेर हम हारे-
मन मंदिर में रहा विराजा, मिला न लेकिन हमें ठिकाना
निराकार को लाख दिये आकार न छवि उसकी गढ़ पाये-
नयन मुँदे मुस्काते  पाया कण-कण में उस नटनागर को...
*
श्लोक-ऋचाएँ, मंत्र-प्रार्थना, प्रेयर सबद अजान न सुनता
भजन-कीर्तन,गीत-ग़ज़ल रच, मन अनगिनती सपने बुनता
पूजा-अनुष्ठान, मठ-महलों में रहना कब उसको भाया-
मेवे छोड़ पंजीरी फाके, देख पुजारी निज सर धुनता
खाये जूठे बेर, चुराये माखन, रागी किन्तु विरागी
एक बूँद पा तृप्त हुआ पर है अतृप्त पीकर सागर को...
*
अर्थ खोज-संचित कर हमने, बस अनर्थ ही सदा किया है
अमृत की कर चाह गरल का, घूँट पिलाया सतत पिया है
लूट तिजोरी दान टेक का कर खुद को पुण्यात्मा माना-
विस्मित वह पाखंड देखकर मनुज हुआ पाषाण-हिया है
कैकट्स उपजाये आँगन में, अब तुलसी पूजन हो कैसे?
देश
​ ​
निकाला दिया हमीं ने चौपालों
​ ​
पनघट गागर को
​...
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

sansmaran: difficult to understand india -dr. ram prakash saxena


डॉ. रामप्रकाश सक्सेना वर्धा हिंदी शब्दकोश के संपादक नियुक्त हुए ‘महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति ने वर्धा हिंदी शब्दकोश’ का प्रधान संपादक डॉ. रामप्रकाश सक्सेना को नियुक्त किया है. देश में वर्तमान भाषाविदों और कोशविज्ञानियों बद्रीनाथ कपूर, अरविंद कुमार, विमलेशकांति वर्मा, महावीर सरन जैन के अलावा कई कोशकार और भाषाविद मौजूद हैं, बद्रीनाथ कपूर ने कई कोश बनाए हैं, अरविंद कुमार का ‘अरविंद सहज समांतर कोश’ बहुत लोकप्रिय हुआ। विमलेशकांति वर्मा ने तीन कोश तैयार किए- ‘बल्गारियन हिंदी शब्दकोश’, ‘लरनर हिंदी-इंग्लिश डिक्शनरी’ और ‘लरनर हिंदी-इंग्लिश थीमेटिक विज्युअल डिक्शनरी’। महावीर सरन जैन देश के प्रतिष्ठित भाषाविद हैं। डॉ. सक्सेना पूर्व में हो चुके कार्यों की तुलना में अधिक उपयोगी शब्दकोश बना सकेंगे यही आशा है. शब्द विज्ञान में रूचि रखनेवाले सज्जन डॉ. सक्सेना से संपर्क कर उन्हें सहयोग दें तो कार्य अधिक व्यापक और बहुआयामी हो सकेगा।
हार्दिक बढ़ाई और शुभ कामनाएँ।
डॉ. रामप्रकाश सक्सेना जी का संपर्क - https://www.facebook.com/drramprakash.saxena
वर्धा हिंदी कोश - http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3159&pageno=1

प्रस्तुत है एक मार्मिक संस्मरण जो भारत की गंगो-जमुनी सभ्यता की विरासत को सामने लाकर पंथ और राजनीति का विष घोल रही आबोहवा को शुद्ध करने  का ज़ज़्बा पैदा करता है. 
संस्मरण:                                                                                                                                    Ram Prakash Saxena
डिफि़कल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया

      डॉ. रामप्रकाश सक्सेना
मैं अमेरिका में अठारह वर्ष की आयु से ही हायर एज्युकेशन के लिए आ गया था। आया तो था भारत वापस लौटने के लिए, पर क्या किया जाय? यहीं नौकरी भी मिल गर्इ और मैं यहीं का होकर रह गया। शादी भी ऐसी लड़की से हो गर्इ, जो हिंदुस्तानी तो थी, पर यहीं पली-बढ़ी। मेरी माँ का स्वर्गवास तो मेरे बचपन में ही हो गया था जब मैं केवल दस वर्ष का था। मेरे पिता ने मेरी ख़ातिर दूसरा विवाह नहीं किया, जब कि उस ज़माने में हिंदुस्तान में तो यह आम बात थी। मेरा पालन-पोषण मेरी एक विधवा बुआ ने किया। मेरे पिता व मेरी बुआ ने मेरी परवरिश इतने लाड़-प्यार से की कि कभी मुझे माँ की कमी महसूस नहीं हुर्इ।
जब बुआ का देहांत हो गया और पिता भी रिटायर हो गए, तो उन्हें काफ़ी हार-मनुहार से अमेरिका ले आया। मैं लाया तो इस शर्त पर था कि यदि उनका मन नहीं  लगा तो वे भारत वापस चले जाएँगे। पर शुरू में प्रतिवर्ष, फिर धीरे-धीरे एक-दो वर्ष बाद और फिर लगभग नहीं के बराबर ही भारत जाना हो गया। सच्चार्इ तो यह थी कि वे अपने पौत्र व पौत्री में इतने रम गए कि उन्हें भारत आने की ज़रूरत नहीं महसूस हुर्इ। बच्चे भी इतने ख़ुश थे कि वे किसी भी शर्त पर अपने बाबा को अपनी आँखों  से ओझल होने देना नहीं चाहते थे।
चूँकि हम पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते थे, इसलिए पिताजी की ज़रूरत हमें हमेशा हीं रहती थी। पिताजी ने बच्चों को न केवल पढ़ाया, बलिक उनको भारतीय संस्कार इतने अधिक दे दिए कि हमारे बच्चे संस्कारों  में मुझसे भी अधिक भारतीय हो गए।
पिता जी को बुढ़ापे ने घेर लिया। अब उनके पौत्र-पौत्री भी बड़े हो गए थे। उनको भी लगने लगा कि अब वह कुछ महीनों के ही मेहमान हैं । कर्इ बार हम अपनी माँ के बारे में उनसे पूछा करते थे। माँ के बारे में बताते-बताते वे भावुक हो जाते और इसीलिए उनकी बात कभी पूरी नहीं हो पाती। मैं भी इस कारण आगे बताने की जि़द न करता, क्योंकि इससे उन्हें दुख पहुँचता  था।
एक दिन शाम को मेरे आफि़स से आने के बाद उन्होंने मुझे कुछ घटनाएँ बताईं । उन्होंने बताया कि मेरे पैदा होने के बाद मेरी माँ को टी. बी. तथा बाद में पीलिया हो गया था। डाक्टर ने यह सलाह दी थी कि बच्चे को माँ का दूध न पिलाया जाए। उन परिसिथतियों में मेरा जीवित रहना ही र्इश्वर का एक करिश्मा ही हो सक्ता था। मेरे पिता के अभिन्न मित्र, जो कि मुसिलम थे, को भी उन्हीं दिनों एक पुत्र रत्न की प्रापित हुर्इ थी। मेरी हालत देख कर मुसलमान मित्र की पत्नी ने मेरे माँ-बाप को बताया कि वह उनके बच्चे को दूध पिला दिया करेंगी।
माँ ने इस ऑफर  को यह कह कर ठुकरा दिया, ''तुम गाय का मांस खाती हो।
मेरी हालत ख़राब होती गर्इ और मैं  मरणासन्न हो गया। फिर भी, माँ अपने संस्कारों के कारण नहीं पिघलीं। अंत में मुसिलम चाची को ही पिघलना पड़ा। उन्होंने माँ से कहा, 'मैं 'क़ुरान-ए-पाक की क़सम खाती हूँ कि मैं गाय का मांस नहीं खाऊँगी। अब तो मुझे दूध पिलाने दो।'
मेरे पिताजी के समझाने पर मेरी माँ मान गर्इं और मैं बच गया।
पिताजी बताया करते थे, ''जब भी मैं गाँव जाता, तब तुम्हारी चाची तुम्हारे बारे में हमेशा पूछा करतीं। तुम्हारी एक फ़ोटो भी उनके पास है। मैं मज़ाक में कहता- भाभी वह तुम्हारा ही बेटा है। वे बड़े गर्व से उत्तर देतीं -आखि़र मैंने उसे अपना दूध पिलाया है।'' इतना कहते-कहते पिता जी इतने भावुक हो गए कि कुछ देर तक कुछ न बोल सके । कुछ देर बाद उन्होंने मुझ से कहा, 'मेरी इच्छा हैं कि तुम एक बार उनसे अवश्य मिल लेना। कुछ हो सके तो कर देना। वैसे वे बहुत खुददार हैं। फिर भी शायद मान जाएँ।  मेरे दोस्त रहमत मियाँ के पास ज़मीन तो बहुत अधिक नहीं थी, पर अपनी मेहनत से इतना कमा लेते थे कि गुज़र-बसर मज़े से हो जाता था।  बुढ़ापे के कारण वे तो मेहनत कर नहीं पाते और लड़का सातवीं कक्षा के आगे पढ़ नहीं पाया और किसानी मन लगाकर करता नहीं है। इसलिए घर की माली हालत ख़राब है।  मैं ने कर्इ बार मदद करने की कोशिश की, पर न तो मेरा दोस्त तैयार हुआ  और ना ही भाभी। ज्यादातर हिंदुस्तानी गरीब तो हैं, पर खुददार इतने कि भूखों मर जाएँगे , पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएँगे।
कहते कहते पिताजी का गला फिर अवरुद्ध हो गया और कुछ बोल न सके। मैंने भी बात को आगे न बढ़ाते हुए उनसे वादा किया कि मैं एक बार उनसे ज़रूर मिल लूँगा। 
पिताजी ने कहा, ''इच्छा तो मेरी यही थी कि मैं भी एक बार गाँव जाऊँ और वही मरूँ।" 
मैंने कहा, ''पिताजी, आप कैसी बात करते हैं ? मैं आपको खुद गाँव लेकर चलूँगा चाची से मिलाने।"
 ''झूठा ढाढ़स बँधाने से क्या फ़ायदा। पिताजी ने अश्रु पोछते हुए रुँधे गले से कहा, ''अगर गाँव जाओगे तो मेरी  अस्थियों को भी गंगा में  बहा देना।
इस घटना के बाद पिताजी एक सप्ताह बाद ही परलोक सिधार गए। मैं उनकी अस्थियों  को लेकर भारत आया। चाहता तो मैं यह था कि मेरी पत्नी व बच्चे भी मेरे पिता के पुश्तैनी गाँव चलें, परंतु वे भारत आने के इच्छुक न थे।
मैं भारत आया, पिता की अस्थियों  को गंगा में विसर्जित किया और सीधे गाँव जाने की योजना बनार्इ। उन्हीं दिनों भारत में हिंदू-मुस्लिम  दंगे शुरू हो गए । दिल्ली से मेरी बहिन का फ़ोन आया कि इस समय माहौल ठीक नहीं है इसलिए स्थिति  सामान्य होने तक मैं गाँव न जाऊँ।
मेरा कहना था, माहौल ठीक होने में  न जाने कितने दिन लगें। इतने दिनों तक मैं भारत रुक नहीं सकता था। अत: मैं ने अपनी बहिन को बताया, 'अगर अभी न जा पाया, तो शायद कभी न जा पाऊँ।  पिताजी की अंतिम इच्छा पूरी किए बिना मैं भारत छोड़ना नहीं चाहता था।'
आखि़र एक दिन अपने गाँव पहुँच  गया। गाँव में रहमत चाचा के घर का पता लगाया। पता चला कि वे पिछले ही वर्ष गुज़र गए। उनके पु़त्र मसरूर मियाँ को अपना परिचय दिया। उन की बातों से मुझे ऐसा लगा कि वे मेरे परिचय से कुछ अपरिचित या अल्पपरिचित हैं। अंदर से आवाज़ आर्इ - 'कौन आया है  ? मसरूर मियाँ ने कहा, ''कोर्इ अपने आपको महेश कुमार का बेटा बता रहा है और आपसे मिलने की ख़्वाइश कर रहा है।"
अंदर से आवाज़ आर्इ, 'अंदर बुला लो।'
मुझे महसूस हो रहा था कि मसरूर मियाँ अपने पारिवारिक वातावरण के कारण मुझे अंदर ले जाना नहीं चाह रहे थे। फिर भी बूढ़ी माँ की इज्ज़त  रखने के लिए अंदर ले गए।
घर के आँगन को पार करते हुए जैसे ही मैं ने एक कमरे में प्रवेश किया, सामने बान की अधटूटी खाट पर एक वृद्धा को पाया ऐसा लगा कि यदि उसके शरीर पर कपड़े न होते, तो पूरा नर कंकाल ही दीखता।  बाल पूरे सफे़द थे और उलझे हुए भी, शायद कर्इ दिनों से कंघी न की हो।  दंत विहीन पोपला मुँह।  माथे पर ज़हीफ़ी की झुर्रियाँ तो थीं हीं, लगता था कि ग़रीबी ने कुछ झुर्रियों का  इज़ाफ़ा कर दिेया हो।  क्षण भर तो मैं ठगा सा रह गया, क्योंकि चाची की जो इमेज मैं ने अपने पिता के वर्णन के आधार पर बनार्इ थी, वह उस से बिल्कुल विपरीत थी।  पिता जी कहा करते थे कि तुम्हारी चाची इतनी सुंदर हैं कि हम लोग उन्हें मेम भाभी कहकर पुकारते थे।
मसरूर ने अपनी माँ से कहा,' अम्मी, यह रहे आपके मेहमान।'
यह वाक्य न तो मुझे ही अच्छा लगा और न ही शायद चाची को।
मैं ने चाची के चरण स्पर्श किए और मैं श्रद्धावश उनके चरणों में ही बैठ गया। उन्होंने सिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी - या अल्लाह, तू जुग-जुग जिए। ख़ूब तरक़्की करे।  ख़ुदा खूब बरकत दे। अब चाची ने मेरी ओर इशारा करते हुए अपने पुत्र से कहा, 'यह तुम्हारा चचेरा भार्इ है।  बैठ, कुछ देर इनसे बात कर।'
मसरूर ने अपने दाहिने हाथ को माथे से लगाते हुए कहा,' आदाब।'
मैं ने भी उसी प्रकार आदाब कर उत्तर आदाब से दे दिया।
मसरूर बोला,' अम्मी, आप इनसे बात कीजिए।  मुझे खेत पर जाना है।  आज शायद कोर्इ मज़दूर भी नहीं आया है।  मेरा जाना ज़रूरी है।  मैं जल्दी आने की कोशिश करूँगा।'
चाची ने कहा, ठीक है, जल्दी आना, अंदर बहू से कह दे कि इनको चाय नाश्ता करा दे।
मसरूर ने कुछ व्यंग्यात्मक शैली में कहा,' क्या यह हमारे घर की चाय पी लेंगे?'
मैं ने कहा,' क्यों नहीं।'
चाची बोलीं, 'क्यों नहीं पिएगा।  इन के वालिद तो उस वक़्त भी हमारे घर का खाना खा लिया करते थे, जब हिंदू लोग मुसलमानों के घर पानी भी नहीं पीते थे।'
यह सुनकर मसरूर दूसरे कमरे में चला गया।  थोड़ी देर बाद कमरे से निकला तो बोला, अम्मी, तुम्हारी बहू से कह दिया है, वह चाय पिला देगी। अब मैं चलता हूँ।  कोशिश करूँगा, कि जल्दी आ जाऊँ।  इतना कहकर उसने एक कोने से लाठी उठार्इ और बाहर चला गया। 
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मसरूर को मेरा आना अच्छा नहीं लगा।  मैं तो उसके हमउम्र था।  कुछ देर तो बात कर ही सकता था।  खैर, मुझे तो चाची से मिलना था। 
चाची ने अब मेरी माँ के बारे मे बताना शुरू किया और घंटों बतियाती रहीं।
मैं ने चाची से पूछा, 'क्या यह सही है कि आपने मेरे कारण ही गाय का मांस खाना छोड़ दिया था। 
उत्तर मिला, 'हाँ। 
मैंने कहा - 'इतनी बड़ी  क़़ुर्बानी!
चाची बोली, ''बेटा, किसी की जान बचाने के लिए कोर्इ क़़ुर्बानी  बड़ी नहीं होती। तेरी माँ बहुत धार्मिक थीं। उनके आगे मुझको ही झुकना पड़ा। 
मैं ने कहा, ''अब तो पिताजी भी परलोक सिधार गए। मेरे लिए तो अब आप ही बुजुर्ग हैं । मैं आपके लिए अमेरिका से डिब्बाबंद गाय का गोश्त लाया हूँ। आप ने मेरी जान बचार्इ है।
चाची ने जवाब दिया, ''तुम्हें दूध पिलाने से पहले मैंने गाय का तो क्या, सभी गोश्त खाने छोड़ दिए थे। फिर अब तो आदत बन गर्इ है। अब मैं  कोर्इ गोश्त नहीं खाती । 
यह सुनकर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। चाची का आँचल उन आँसुओं से गीला हो रहा था।
मैं ने कहा, ''चाची, आप ने वर्षों मेरे कारण गाय का मांस नहीं खाया। अब मेरे कहने पर खा लीजिए।
चाची ने कहा, 'बेटा, मैं ने तुम्हारी माँ को वचन दिया था कि मैं गाय का मांस नहीं खाऊँगी। अब तो पैर क़ब्र में लटके हैं । आखि़री वक़्त वचन क्या तोड़ना।' 
थोड़ी देर ख़ामोशी रही । मेरे असमंजस्य को देखकर चाची ने बड़ी आत्मीयता से मेरी ओर देखा और कहने लगीं ,''तू छोटा दिल मत कर । बड़ी मोहब्बत से लाया है । रख दे। मसरूर और उसकी बहू खा लेंगे।''
फिर मैंने बातों-बातों में उन्हें एक पैकेट देना चाहा, जिसमें दस हज़ार रुपए थे। उनकी आर्थिक हालत कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं थी। शुक्राने में मेरे लिए तो यह रक़म बह़ुत छोटी थी।
चाची ने यह रक़म  लेने से इन्कार कर दिया और रुआँसे होकर कहा, ''दूध की क़ीमत देना चाहता हैं ? क्या कोर्इ माँ अपने बेटे से दूध का मोल लेती हैं !
मैं निरुत्तर था।  थोड़ी देर खामोशी रही।  ख़ामोशी को मैं ने ही तोड़ा, 'पिताजी आपके बारे में हमेशा बताते रहते थे कि आपने उनके ऊपर इतना बड़ा अहसान किया।'
चाची बोलीं। अहसान-वहसान काहे का? बेटा, तुम शहराती हो, तुम शायद समझ नहीं पाओगे कि हम मज़हब से अलग ज़रूर हैं, पर हम तो तेरी माँ को सगी देवरानी ही मानते थे। ... और उस ने भी मेरे ऊपर एक बहुत बड़ा अहसान किया था। 
'वह क्या? चाची', मैंने पूछा। 
'क्या तुम्हारे वालिद ने तुम्हें कुछ नहीं बताया?'  चाची ने कहा।
'नहीं, चाची। पिताजी ने तो मुझे सिफऱ् इतना ही बताया था कि आपने मुझे अपना दूध पिलाकर जीवनदान दिया था'
उन का उत्तर था, 'बेटा, तुम्हारे पिता भले आदमी थे।  भले आदमी जब किसी पर अहसान करते हैं, तो उसका ढिंढोरा नहीं पीटते।  खैर...।'
'चाची, आप ही बता दीजिए ऐसी कौन सी बात थी।'
चाची कुछ गंभीर हुर्इं और फिर कहा, 'मेरे बच्चे नहीं होते थे।  तेरी माँ पुन्ना गिरि की देवी के यहाँ मेरे लिए मन्नत माँगने गर्इं  थीं। खुदा की रहमत हुर्इ और एक साल के अंदर मसरूर पैदा हो गया। मैं तो मुसलमान ठहरी। मैं तो पुन्ना गिरि जा नहीं सकती थी।  मेरे कहने पर तुम्हारी माँ देवी को चढ़ावा चढ़ाने दुबारा गर्इं थीं।  मेरे लाख कहने पर भी उन्होंने मुझसे किराया नहीं लिया था।  तुम्हारी माँ का जवाब था- मन्नत तो मैं ने माँगी थी। अगर आप से किराया लिया तो पाप लगेगा।  बेटा, ऐसे इंसानी रिश्ते खून के रिश्तों से भी बड़े होते हैं और मज़हब से ऊपर। (हँसकर)  तू शहराती ठहरा। पता नहीं, क्या तू भी इन रिश्तों को समझ पाएगा!' 
शाम होने वाली थी।  मुझे आखि़री बस पकड़नी थी।  इसलिए मैं ने चाची से जाने की इज़ाज़त माँगी, तो चाची बोलीं, 'बेटा, मुझे याद है कि बचपन में तुझे सेवइयाँ बहुत अच्छी लगती थीं । मैं ने अपने हाथ से बनार्इं हैं।  थोड़ी ले जा।' 
थोड़ी देर में एक पोटली मेरे हाथ में थी । जाते-जाते मैं ने चाची के पैर छुए । उन्हों ने सिर पर हाथ फेरते हुए फिर दुआओं की झड़ी लगा दी । मसरूर अब तक आ गया था। चाची के कहने पर वह मुझे बस स्टैंड तक छोड़ने आया । चाहते हुए भी मैं इतनी हिम्मत न जुटा पाया कि वह रक़म मैं मसरूर को ही दे दूँ। चाची की खुददारी को चोट पहुँचाने की मैं सोच भी नहीं सकता था ।
कुछ दिनों भारत में रहने के बाद मैं अमेरिका के लिए रवाना हो गया।  सैन फ्रांसिस्को एअरपोर्ट पर उतरते ही मेरी पत्नी मुझे लेने आ गर्इ।  उन्होंने आते ही मुझे अपनी बाहों में भर लिया और बोली इंडिया में हिंदू मुसिलम राइटस चल रहे हैं।  मैं तो घबड़ा ही रही थी।  तुम्हारा गाँव तो मुसलमानी है।
मैं चुप रहा।  पत्नी ने कहा, अच्छा, तुम अपने गाँव गए थे।  क्या हुआ?
मैं ने पूरा वृतांत अपने पत्नी को सुनाया।  अंत में उनका कमेंट था- ओह, डिफिकल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया।
मैं ने कहा, 'ओह, तुम्हारे लिए क्या, मैं तो इंडिया में पैदा हुआ।  मेरे लिए ही इट इज़ डिफिकल्ट टु अंडस्टैंड इंडिया। '
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Award to alok shrivastav

आलोक श्रीवास्तव की वास्तव में श्री वृद्धि 
आलोक और आलोकित 

ग़ज़लकार और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव Aalok Shrivastav को वॉशिंगटन में 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मान' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान हिंदी ग़ज़ल में उनकी प्रतिबद्धता के लिए दिया गया। आलोक को यह सम्मान, अमेरिका में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' की ओर से दिया गया है। अमेरिका में बसे भारतीयों और हिंदी के कई जाने-माने साहित्यकारों की मौजूदगी में आलोक को यह सम्मान भारतीय दूतावास के काउंसलर शिव रतन के हाथों दिया गया। सम्मान के रूप में उन्हें सम्मान-पत्र के साथ प्रतीक चिह्न दिया गया। साल 2007 में प्रकाशित आलोक के पहले गजल संग्रह 'आमीन' से उन्हें विशेष पहचान मिली। हाल के बरसों में उन्हें रूस का प्रतिष्ठित 'अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान', मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार, और 'परम्परा ऋतुराज सम्मान' भी मिल चुका है।

पेशे से टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिय हैं। उनकी गजलों-नज्मों को जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अजीज़, शुभा मुद्गल से लेकर महानायक अमिताभ बच्चन तक ने अपना स्वर दिया है। ग़ज़लकार और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव Aalok Shrivastav को वॉशिंगटन में 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मान' से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह सम्मान हिंदी ग़ज़ल में उनकी प्रतिबद्धता के लिए दिया गया। आलोक को यह सम्मान, अमेरिका में हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' की ओर से दिया गया है। अमेरिका में बसे भारतीयों और हिंदी के कई जाने-माने साहित्यकारों की मौजूदगी में आलोक को यह सम्मान भारतीय दूतावास के काउंसलर शिव रतन के हाथों दिया गया। सम्मान के रूप में उन्हें सम्मान-पत्र के साथ प्रतीक चिह्न दिया गया। साल 2007 में प्रकाशित आलोक के पहले गजल संग्रह 'आमीन' से उन्हें विशेष पहचान मिली। हाल के बरसों में उन्हें रूस का प्रतिष्ठित 'अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान', मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार, और 'परम्परा ऋतुराज सम्मान' भी मिल चुका है।
पेशे से टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिय हैं। उनकी गजलों-नज्मों को जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अजीज़, शुभा मुद्गल से लेकर महानायक अमिताभ बच्चन तक ने अपना स्वर दिया है।

chitra par kavita: sanjiv

चित्र पर कविता:
संजीव

रिश्तों पे जमीं बर्फ रास आ रही है खूब
गर्मी दिलों की आदमी से जा रही है ऊब
रस्मी बराए-नाम हुई राम-राम अब-
काम-काम सांस जपे जा रही है अब
कुदरत भी परेशान कि जीना मुहाल है
आदमी की आदमीयत पर सवाल है

chhand salila: shiv stavan -sanjiv

छंद सलिला;
शिव स्तवन
संजीव
*
(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)

।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।

                         ***           

रविवार, 13 अप्रैल 2014

yahya khan & manek shaw -rehan faizal

कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?

सैम मानेक शॉउनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया. उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर". सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.

उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह ने बीबीसी को बताया, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था." जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती. लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया. सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा. तब सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं. हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया. आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा."
डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.

'कोई पीछे नहीं हटेगा'

सैम मानेक शॉ, इंदिरा गांधीसाल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया. 1948 में जब वीपी मेनन कश्मीर का भारत में विलय कराने के लिए महाराजा हरि सिंह से बात करने श्रीनगर गए तो सैम मानेकशॉ भी उनके साथ थे. 1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई. पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते. ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा."
उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं. सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."

शरारती सैम

सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर सैम अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे.
सैम मानेक शॉउनकी बेटी माया दारूवाला ने बीबीसी को बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."

रक्षा सचिव से भिड़ंत

शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी. रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे. उन्होंने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो. वह कर्नल उठने लगा. तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया. रक्षा सचिव की तरफ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे. यह अफ़सर कर्नल है. यू देयर नहीं." उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी.

कपड़ों के शौकीन

सैम मानेक शॉमानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे. दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"

सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की. सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."

इदी अमीन के साथ भोज

एक बार युगांडा के सेनाध्यक्ष इदी अमीन भारत के दौरे पर आए. उस समय तक वह वहां के राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनकी यात्रा के आखिरी दिन अशोक होटल में सैम मानेकशॉ ने उनके सम्मान में भोज दिया, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें भारतीय सेना की वर्दी बहुत पसंद आई है और वो अपने साथ अपने नाप की 12 वर्दियां युगांडा ले जाना चाहेंगे.
सैम मानेक शॉसैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.

सैम के ख़र्राटे

सैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.
जब वह विदा लेने लगे तो सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?" रूसी अफ़सर परेशान हो गए. सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है. इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं. यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई. रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!"

सैम मानेकशॉ1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी. इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां." इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.

इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."

टिक्का ख़ां से मुलाकात


(लाहौर में फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ का स्वागत करते जनरल टिक्का ख़़ां)
सैम मानेक शॉपाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए. उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे. पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था. जनरल एसके सिन्हा बताते है कि टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे. उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस."

इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं." सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.

ललित नारायण मिश्रा के दोस्त

बहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी. सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."

दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.

मानेकशॉ और यहया ख़ां


                                                                            मानेक शॉ अपनी पत्नी और बेटी के साथ.
सैम मानेक शॉसैम की बेटी माया दारूवाला कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं. सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की. उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ     भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था.

साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे. यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए. यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया. बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."
*****

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

santosh shrivastav honoured


 
* संतोष श्रीवास्तव को प्रियंवदा साहित्य सम्मान

संतोष श्रीवास्तव को प्रियंवदा साहित्य सम्मान 

मूलचंद स्मृति संस्थान की अध्यक्ष डॉ.मिथिलेश मिश्र ने ख्यात कथा-लेखिका संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastava को प्रियंवदा साहित्य सम्मान से सम्मानित किया  है। यह पुरस्कार 20 नवंबर 2013 को लखनऊ में दिया जाना था लेकिन संतोष जी की अनुपस्थिति के कारण मुम्बई में उन्हें यह पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, शॉल तथा मानधन दिया गया। इसी तरह कानपुर की भूतपूर्व सैनिकों एवं युद्ध विधवाओं के कल्याणार्थ स्थापित बिगुल संस्था ने  भी साहित्य के क्षेत्र में संतोष श्रीवास्तव के विशिष्ट योगदान के लिए प्रमुख अतिथि कमोडोर के.आई.रवि (वी.एस.एम. भारतीय वायुसेना)के करकमलों द्वारा प्रशस्तिपत्र तथा मानधन देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर संतोष श्रीवास्तव ने सैनिक जीवन पर लिखी अपनी कहानी "उस पार प्रिये तुम हो" का पाठ किया।

मूलचंद स्मृति संस्थान की अध्यक्ष डॉ.मिथिलेश मिश्र ने ख्यात कथा-लेखिका संतोष श्रीवास्तव Santosh Srivastava को प्रियंवदा साहित्य सम्मान से सम्मानित किया है। यह पुरस्कार 20 नवंबर 2013 को लखनऊ में दिया जाना था लेकिन संतोष जी की अनुपस्थिति के कारण मुम्बई में उन्हें यह पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार के अंतर्गत स्मृति चिन्ह, शॉल तथा मानधन दिया गया। इसी तरह कानपुर की भूतपूर्व सैनिकों एवं युद्ध विधवाओं के कल्याणार्थ स्थापित बिगुल संस्था ने भी साहित्य के क्षेत्र में संतोष श्रीवास्तव के विशिष्ट योगदान के लिए प्रमुख अतिथि कमोडोर के.आई.रवि (वी.एस.एम. भारतीय वायुसेना)के करकमलों द्वारा प्रशस्तिपत्र तथा मानधन देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर संतोष श्रीवास्तव ने सैनिक जीवन पर लिखी अपनी कहानी "उस पार प्रिये तुम हो" का पाठ किया।
* कवि स्वप्निल श्रीवास्तव को वर्ष 2010 के अंतराष्ट्रीय पुश्किन पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा।

CHITR PAR KAVITA: SANJIV

चित्र पर कविता:
संजीव
*

बैल!
तुम सभ्य तो हुए नहीं,
मनुज बनना तुम्हें नहीं भाया।
एक बात पूछूँ?, उत्तर दोगे??
लड़ना कहाँ से सीखा?
भागना कहाँ से आया??
***
(स्व. अज्ञेय जी से क्षमा प्रार्थना सहित)

रविवार, 30 मार्च 2014

kruti charcha: kumar gaurav ajitendu ke haiku -sanjiv

पुरोवाक:
सम्भावनाओं की आहट : कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष  इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।

द्विपदिक (द्विपदी,  दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है. एकाधिक  भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, सैंर्यु आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।

हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।

कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का  विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और आनर में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये  द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन,  प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को  महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।

शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७ -५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनकी आकार में अंतर है।

छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर  रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५  वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिन्दीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बंधी-कसी प्रस्तुति हैं।

अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने २२ तथा १९, उनके शिष्य किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने 

अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम  चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है।ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमक, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / मांगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।

अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं,  भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा  सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
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कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु 
() दुर्गम पथ
   अनजान पथिक
   मन शंकित
() प्रकृति माता
    स्नेहमयी आँचल
   करे पालन
() साँस व्यथित
   धड़कनें क्रंदित
   हताश मन
() पंख हैं छोटे
   विराट आसमान
   पंछी बेबस
() मुक्त उड़ान
   बादलों का नगर
   दिल का ख्वाब
() स्वतंत्र छाया
   शक्तिशाली मुखौटा
   गंदा मजाक
() भागमभाग
   अंधी प्रतिस्पर्धाएँ
   टूटते ख्वाब
() विषैली हवा
    मोबाइल टावर
    गौरैया लुप्त
() अंधा सम्राट
   लिप्सा, महत्वाकांक्षा
   महाभारत
(१०) जीवन वृक्ष
    आजादी जड़, तना
    चेतना पत्ते
(११) जा रही ठंढ
    नाचता पतझड़
    आता बसंत
(१२) आपसी प्यार
    समर्पण, विश्वास
    घर की नींव
(१३) तृप्त हृदय
    खिलखिलाती साँसें
    जीवन सुख
(१४) हृदय विश्व
    मन अपना देश
    चुनना तुम्हें
(१५) रात झरोखा
    चंद्र खड़ा निहारे
    तारों के दीप
(१६) मैना के किस्से
    डाल-डाल की बातें
    तोते से पूछो
(१७) काँटों का शह्र
    गुलाबों के महल
    कैसा रहस्य
(१८) तुष्टिकरण
    छद्मनिरपेक्षता
    सर्वनाशक
(१९) घाती घर में
    बेटों रहो सतर्क
    राष्ट्र का प्रश्न
(२०) फैली दिव्यता
    हटे तम के तंबू
   हुआ सवेरा
(२१) जिम्मेदारियाँ
    अपनी आकांक्षाएँ
    कशमकश
(२२) नहीं अभाव
    वितरण का खोट
    जन्मा आक्रोश
(२३) सीधा सादा
    "तेज" हो गया ज्यादा
    आम आदमी
(२४) खोखलापन
    भ्रामक आवरण
    सर्वसुलभ
(२५) खुद में खोट
    राजनेता को दोष
    पुराना ट्रेंड
(२६) पन्ने पुराने
    यादों के खंडहर
    पड़े अकेले
(२७) साँसों की भाषा
    धड़कनों की बातें
    पिया ही बूझे
(२८) मन की पीर
    उफनते जज्बात
    गीत के बोल
(२९) काँटों से तीक्ष्ण
    जलाते पल-पल
    अधूरे ख्वाब
(३०) तन्हाई दर्द
    तन्हाई ही ढाढस
    तन्हा जिंदगी
(३१) वक्त मदारी
    जीवन बंदरिया
    सत्य तो यही
(३२) पथिक अंधा
    अनजान सड़क
   बुरा है अंत
(३३) मन-पखेरू
    व्यग्रता बने पंख
    उड़ा जा रहा
(३४) दर्द के तूफाँ
    निराशा का भँवर
    माँझी कहाँ हो
(३५) पानी ही पानी
    तिनका तक नहीं
    डूब जाऊँगा
(३६) मीत मिलेगा
    कब फूल खिलेगा
    पूछे पुरवा
(३७) जीवन-अर्थ
    साँस-साँस का प्रश्न
    क्या दूँ जवाब?
(३८) हारा हृदय
    दिवास्वप्न व्यसन
    चुभते पल
(३९) तम के जाले
    अनिश्चिय की धूल
    ढँकी चेतना
(४०) धुंध छँटेगी
    मौसम बदलेगा
    भरोसा रखो
(४१) हवा है मीत
    नाचता संग-संग
    बूढ़ा पीपल
(४२) निकला चाँद
    विरहन देखती
    मिला सहारा
(४३) एक शिखर
    दूसरा तलहटी
    मिलन कैसा
(४४) हंसों का जोड़ा
    प्रेम का साक्षी चाँद
    झील बिछौना
(४५) हो गयी रात
    बल्ब जले तारों के
    मस्ती में चाँद
(४६) खुद को कोसे
    निहारे आसमान
    ताड़ अकेला
(४७) नभ दे वर
    हरियाली दुलारे
    वन्य जीवन
(४८) आस के मोती
    धड़कनों की डोर
    जीवनमाला
(४९) तारों की टोली
    चंद्रमा का अँगना
    निशा का गाँव
(५० ) चेतना-वृक्ष
    भावनाओं की डालें
    काव्य ही फल
(५१)
बुलाते कर्म
रोके अकर्मण्यता
मन की स्थिति

(५२)
विषैली गैसें
नाभिकीय कचरे
रोती प्रकृति

(५३)
नभ की पीड़ा
पवन की उदासी
दिल जलाती

(५४)
मेघों को दिया
समंदरों में बाँटा
बचे ही आँसू

(५५)
जीवन युद्ध
जिजीविषा ही शस्त्र
धर्म कवच

(५६)
झुग्गी में कार
याचक बने राजा
आया चुनाव

(५७)
नंगे से नृत्य
सट्टेबाजी, फरेब
कैसा ये खेल

(५८)
दिल ने लिखी
नयनों ने सुनाई
वो पाती तुम्हें

(५९)
मेघा भी रोये
मयूरों ने मनाया
माने मेघ

(६०)
धरती फटी
बादल रहे रूठे
दुखी किसान

(६१)
भोर रिझाती
शाम दिल चुराती
मेघों के देश

(६२)
तोड़े बंधन
पा लिया आसमान
जन्म सफल

(६३)
त्यागो संशय
छानो गहराईयाँ
मोती मिलेंगे

(६४)
कँटीली झाड़
दकियानूसी रीति
हटाने योग्य

(६५)
सुअवसर
दुष्टों का नाश करो
युद्ध टालो

(६६)
अति उदार
अप्रत्यक्ष अधर्मी
साक्षी अतीत

(६७)
शाम दीवानी
सजी हैं महफिलें
हम अकेले

(६८)
रात अंधेरी
निशाचरों की बेला
भोर हो जल्दी

(६९)
बिम्ब ही मोती
अलंकार नगीने
हाइकुमाला

(७०)
कोयल मौन
उपवन उदास
कैसा बसंत

(७१)
थोथी अहिंसा
रीढ़हीन सिद्धांत
आत्मघातक

(७२)
आत्महीनता
मजनुइया इश्क
कुंठाजनक

(७३)
स्नेह का लेप
उत्तम उपचार
भरता घाव

(७४)
कच्चे जज्बात
फकत मौजमस्ती
प्यार का नाम

(७५)
वासना जन्मी
प्यार ने कहा विदा
होंगे कुकर्म

(७६)
श्वेत वो मूर्ति
कोयला है पड़ोसी
दाग का डर

(७७)
उठा लो शस्त्र
धर्मयुद्ध प्रारंभ
है निर्णायक

(७८)
कौओं की एका
चींटी की उदारता
सीख मानव

(७९)
एक ही धातु
कोई गढ़े बर्तन
कोई कटार

(८०)
मायावीलोक
आहट से समझो
नैनों को पढ़ो

(८१)
मृत्यु का लोक
जीवन को ढूँढता
तन नादान

(८२)
देखा मंजर
विस्फोट, आग, धुँआ
उबला रक्त

(८३)
चूड़ी-कंगना
बिंदिया, वो सिन्दूर
बने "लो क्लास"

(८४)
उड़े-उड़े से
चेहरा ज्यों छिपाते
वफा के रंग

(८५)
आस रखो
आरोप लगाओ
वो आश्रित है

(८६)
दुर्भाग्यशाली
अंग-अंग गुलाम
कठपुतली

(८७)
खिली वादियाँ
महकता चमन
वफा तुम्हारी

(८८)
नभ तो भ्रम
धरती ही प्रणम्य
आश्रयदाता

(८९)
जड़ों से प्यार
नभ करे सलाम
धरतीपुत्र

(९०)
प्रचंड तेज
हम हैं सनातनी
गर्व है हमें

(९१)
बूँदों का चित्र
सूरज भरे रंग
इन्द्रधनुष

(९२)
मेघों का नीर
धरा की अमानत
कहता नभ

(९३)
रंग उड़ातीं
ज्यों पुष्पों को चिढ़ाती
ये तितलियाँ

(९४)
भौंरों से खेला
गाल गोरी के चूमे
पुष्प वो सूखा

(९५)
चुभते ख्वाब
सागर को तरसे
ताल की मीन

(९६)
धुँए से लोग
साथ कष्टदायक
दम घुटता

(९७)
कुत्ते दहाड़े
नाचा खुद मदारी
वक्त का खेल

(९८)
विज्ञानी शत्रु
यांत्रिक शर-शूल
बिंधा ओजोन

(९९)
प्राप्त को खोना
अप्राप्य की लालसा
मानववृत्ति

(१००)
भ्रम के धब्बे
गगन की कालिख
भोर ने धोयी

हाइकु

(१०१)
कहीं तेजाबी
कहीं सुहानी वर्षा
आँसू उसके

(१०२)
वो टूटा पत्ता
हवा जिधर फेंके
मजबूर है

(१०३)
दीये बुझाता
होगा तम का ग्रास
सर्वप्रथम

(१०४)
काँटे न व्यर्थ
रक्षक हैं पौधे के
पुष्प बताते

(१०५)
बया का नीड़
हवाएं दुलारती
झूला झुलातीं

(१०६)
वो गजराज
तुम एक श्रृंगाल
लड़ोगे कैसे

(१०७)
लगा ठहाके
हवा-रथ पे बैठे
आये बादल

(१०८)
ठंढ की डिब्बी
सुगंधों की थैलियाँ
हवा ने खोली

(१०९)
जेठ न माना
आषाढ़ हारा लौटा
सावन आया

(११०)
दीप बेबस
डाले न कोई तेल
तम प्रसन्न

(१११)
ढंग सुधारो
अपने को सँवारो
शीशे न तोड़ो

(११२)
ठंढी है रात
मेघ-रजाई ओढ़े
सोया है चाँद

(११३)
परिपक्व सी
भौंरों को तरसतीं
कच्ची कलियाँ

(११४)
भौंरों की प्यास
कलियों का यौवन
लगेगी आग

(११५)
दिखा चमन
तितलियाँ बौरायीं
पी ली ज्यों भंग

(११६)
चींटियाँ आतीं
मक्खियाँ मँडरातीं
गुड़ है कहीं

(११७)
बाग ही ढूँढें
मरुथल से भागें
मेघों की बूँदें

(११८)
बन्धों में बँधी
दायरों में सिमटी
जनचेतना

(११९)
नक्सलवाद
आतंक की तपिश
राष्ट्रीय शर्म

(१२०)
उच्छृंखलता
आजादी की उड़ान
भिन्न हैं दोनों

(१२१)
दुष्ट पड़ोसी
जानता कमजोरी
हावी है तभी

(१२२)
रोना न कभी
हँसेंगे सब शत्रु
प्रसन्न रहो

(१२३)
बूँदों के मोती
मखमली हवाएं
वर्षा है रानी

(१२४)
कोहरा ओढ़े
सिहरन लुटाती
आयी है ठंढ

(१२५)
माली का ख्वाब
भौंरों का भोग मात्र
नन्हीं वो कली

(१२६)
हाय! दुर्भाग्य
पँखुड़ियाँ लड़तीं
फूल बेहाल

(१२७)
लगी नजर
बिखरा उपवन
सजे गमले

(१२८)
चैन की छाँव
साझा होते तजुर्बे
साँझ की बेला

(१२९)
जाने क्या बोले
बावरा सा घूमता
मन पपीहा

(१३०)
लम्बी सी रातें
बारहमासी धुंध
पीर का देश

(१३१)
हवा भुलाती
पानी याद दिलाता
धूल को सत्य

(१३२)
कीच को देखा
भरमाया नादान
नीर को त्यागा

(१३३)
कसमें भूले
प्रेम-डाल से उड़े
वफा के पंछी

(१३४)
छीनी खुशियाँ
बर्बाद कर गया
हमराज था

(१३५)
डर का साथ
नादानियों का दाग
छूट न पाया

(१३६)
ईंटों की भठ्ठी
मकान बनवाती
साँसों को खाती

(१३७)
यश लुटाते
बदनामियाँ लाते
पूत या मूत

(१३८)
साँझ को ओढ़े
सितारे बिखराती
आ रही रात

(१३९)
हर्ष मनाओ
घना हुआ अंधेरा
होगी सुबह

(१४०)
हो पड़ताल
मामला है गंभीर
काँपी क्यों मैना

(१४१)
फूटी कोपलें
बंजरता परास्त
जीती लगन

(१४२)
खूं की रवानी
जीवन की कहानी
बोल पिया के

(१४३)
नुचती लाश
बदनाम क्यों गिद्ध
दोषी इंसान

(१४४)
कौओं से बचा
इंसानों ने उजाड़ा
मैना का नीड़

(१४५)
यही संसार
रीतियाँ बदलतीं
स्वीकार करो

(१४६)
बर्फ न व्यर्थ
पानी भी अनिवार्य
भाप जरूरी

(१४७)
नमी, शुष्कता
सूक्ष्मता, विशालता
जग अचंभा

(१४८)
लगा मुखौटा
रंगीन कपड़ों में
आई कालिख

(१४९)
आँधी से डरे
लगे खूब चिल्लाने
सारे ही पेड़

(१५०)
हवा ने डाँटा
लहरों ने भी मारा
रो पड़ा देश

(१५१)
हाथ न आते
झट से उड़ जाते
वक्त के पंछी

(१५२)
ग़ज़लें लिखूँ
यादों में पनाह दूँ
लायक न तू

(१५३)
तुमने तोड़ी
हमने कहाँ छोड़ी
रिश्तों की डोर

(१५४)
है मरुस्थल
न दिखा उसे बाग
और रोएगा

(१५५)
काव्य चुराते
व्यर्थ प्रशंसा पाते
फेसबुकिये

(१५६)
हड़बड़ाते
ज्यों दफ्तर को जाते
भोर में पंछी

(१५७)
ताल-तलैया
पंछियों को बुलाते
हाल सुनाते

(१५८)
बाग दुल्हन
धार पुष्पाभूषण
इठला रही

(१५९)
बड़ा ही जिद्दी
चंचल, शरारती
मन बालक

(१६०)
वृक्षों का धन
पतझड़ ले जाता
बसंत लाता

(१६१)
नभ हर्षाया
मेघ-मल्हार गाया
नाचे विटप

(१६२)
तम है तो क्या
होना ही है उजाला
कहते तारे

(१६३)
नन्हें सितारे
झंडाबरदार हैं
उजियारों के

(१६४)
निशा नगर
चंद्रमा महाराजा
सितारे प्रजा

(१६५)
फूलों ने लाँघी
चमन की मर्यादा
कुचले गये

(१६६)
मन की हूक
हृदय की कसक
काव्य के शब्द

(१६७)
धरा की पीर
गगन ने दिखायी
रो पड़े मेघ

(१६८)
मानवी भूलें
क्रुद्ध हुआ सागर
आई सुनामी

(१६९)
दिल में धँसे
अपराधों के बोध
टीस मारते

(१७०)
काटो न पंख
पंछियों का जीवन
नभ की सैर

(१७१)
दिल सराय
आतीं तेरी यादें
रुकने यहाँ

(१७२)
आये भुजंग
डसे जाएंगे सारे
लापरवाह

(१७३)
ढूँढते कहाँ
बेईमानों से सीखो
ईमानदारी

(१७४)
होश ले जाती
तेरे गालों से आती
गंध गुलाबी

(१७५)
चहके पत्ते
लगा झूमने पेड़
बोले जो पंछी

(१७६)
गाँव बेचारे
शहरों के नौकर
धोते जूठन

(१७७)
भटकी कली
काँटों से घुली-मिली
चुभने लगी

(१७८)
झील उद्यान
भ्रमण को निकले
हंस कुँवर

(१७९)
जामुनी किला
पहरे को मुस्तैद
तोतों की सेना

(१८०)
पड़ी आँखों में
दुनियादारी धूल
निकले आँसू

(१८१)
मिला जो पानी
लहलहाता गया
ख्वाबों का खेत

(१८२)
पानी की बूँद
दो सीपी का पालना
बने वो मोती

(१८३)
कलियाँ गुँथीं
बिगड़ गई माला
आई न काम

(१८४)
कल्पनालोक
इच्छाओं का महल
नन्हें निवासी

(१८५)
हुई सुबह
जागे जूही, गुलाब
ली अँगड़ाई

(१८६)
गेंदा, चमेली
ठंढ से ठिठुरते
धूप चाहते

(१८७)
धूप ने छुआ
ताजा हुआ मौसम
भागी उबन

(१८८)
उदास पुष्प
धूप का दुलार पा
हँसने लगे

(१८९)
रास्ते में छोड़ा
तेरी यादों का बक्सा
बढ़ी रफ्तार

(१९०)
भौंरों के यान
बागों पे मँडराते
शोर मचाते

(१९१)
भरे नभ में
स्थान को तरसता
जीवनतारा

(१९२)
जीवन-भूसा
गुम हो गई जहाँ
चैन की सुई

(१९३)
जीवन दौड़
बन पसीना चैन
बहा जा रहा

(१९४)
जीवनपाखी
पंख न उग रहे
चिंतित बड़ी

(१९५)
बीज उदास
मिल न रही भूमि
अंकुरे कहाँ

(१९६)
सूखा गुलाब
अतीत के पन्नों में
तेरी यादों का

(१९७)
ऊँचे पर्वत
ओढ़ हिम कंबल
धूप सेंकते

(१९८)
हर दाम का
बाजार में जमीर
जैसा चाहो लो

(१९९)
स्वप्न पराया
नयनों में बसाया
छिनना ही था

(२००)
फूल हैं खिले
गूँथ लो जल्दी माला
सूख न जाएं


(२०१)
साँसें गगन
टिमटिमाते जहाँ
आस के तारे

(२०२)
ऊँचे वो चढ़ा
दिखेगा ही उसको
निचला छोटा

(२०३)
तस्वीर तेरी
यादों का दलदल
लगे डुबोने

(२०४)
तेरी छुअन
छुपा रखी है मैंने
धड़कनों में

(२०५)
यादे-बेवफा
बेपतवार कश्ती
चढ़ो न कोई

(२०६)
नया जमाना
पीछे भागती शमा
परवानों के

(२०७)
नन्हें व्यापारी
डालोंपर लगाते
मधु की फैक्ट्री

(२०८)
भू का टुकड़ा
फूलों से कहलाता
चमन न्यारा

(२०९)
कर्म औजार
स्वप्नों के राजमिस्त्री
गढ़ें यथार्थ

(२१०)
यूँ तो न भाता
मर्यादा हो तोड़नी
पर्दा सुहाता

(२११)
पुष्प जीवन
देवों को हो अर्पित
तभी सार्थक

(२१२)
मधु से आई
माटी की ही सुगंध
ये हैं संस्कार

(२१३)
सड़ रहा है
भोगवादिताओं में
रिश्तों का शव

(२१४)
शैया पे आते
चुग लेती है होश
थकान-पाखी

(२१५)
चिंतित हो क्यों
रोक न पाते काँटे
फूलों की गंध

(२१६)
नैन-भ्रमर
चूसते मकरंद
रूप-पुष्प का

(२१७)
नयन-ताल
कभी नहीं बुझाते
प्यास पंछी की

(२१८)
था गृहयुद्ध
दीवारें उठा बची
प्रेम की जान

(२१९)
नन्हीं कलियाँ
धूल में सन खोतीं
निज सुगंध

(२२०)
फूलों का रूप
रहा उनका शत्रु
तुड़वा डाले

(२२१)
फूलों के हिये
भ्रमरों का गुंजन
प्रीत जगाता

(२२२)
सुध-बुध खो
लहरों की ताल पे
नाचतीं मीनें

(२२३)
प्रेम-अगन
फूँक डाले पल में
दहेज-झाड़

(२२४)
प्यार-पतंग
वफा-डोर से बंधी
छूती आसमां

(२२५)
प्यार को खाती
बेवफाई की घुन
करे खोखला

(२२६)
जो भी है गिरा
अश्कों के तालाब में
डूबा निश्चित

(२२७)
हीनभावना
दानवी भयंकर
खाती विश्वास

(२२८)
तारों से भरा
नभ का कोषागार
दिखाती रात

(२२९)

चाँदी के सिक्के
रात रोज लुटाती
खिलखिलाती

(२३०)
फूल पूछते
खुशबुओं का पता
क्या विडंबना

(२३१)
गिद्धों ने माँगी
चूहों की स्वतंत्रता
खुद के लिए

(२३२)
चील चतुर
सबको भरमाते
ढँको न मांस

(२३३)
चोरों की चाल
कहते नया दौर
खोलो किवाड़

(२३४)
फैली अंधता
भेड़ियों को समझा
भेड़ों ने मीत

(२३५)
तय अंजाम
बहला ले गयी है
मुर्गे को बिल्ली

(२३६)
सारे जग को
थमा देती है भोर
कार्यों की सूची

(२३७)
भ्रम है भीड़
होता इंसान तन्हा
हर जगह

(२३८)
भौंरों से डरी
पत्तियों में जा छिपी
कली नवेली

(२३९)
भौंरों को न दो
मधुमक्खी को मिले
फूलों का रस

(२४०)
फैला तू कीच
कमल खिलाऊँगा
मैं वहीं-वहीं

(२४१)
ख्वाबों में डूबी
हकीकत की कश्ती
उसे निकालो

(२४२)
लाज ने तोड़ी
कब हुस्न से दोस्ती
पता न चला

(२४३)
घिसा न करो
अतीत के चिराग
जिन्न आते हैं

(२४४)
साँसों में लेता
यदि धुँआ न होता
तेरा वजूद

(२४५)
तू टूटा शीशा
देखना भी तुझको
अपशकुन

(२४६)
दीये न जला
तम को लाया जब
साथ शौक से

(२४७)
भटके पुष्प
मान बैठे मंजिल
भ्रमरों को ही

(२४८)
सुनो शिखरों
खड़े हो तुम सभी
जमींपर ही

(२४९)
कहाँ को चली
चींटियों की बारात
बिना दूल्हे के

(२५०)
फूलों के ताने
सुन-सुन के काँटे
हो जाते बागी

(२५१)
टूट न सका
हवाओं के झिंझोड़े
वृक्ष का तप

(२५२)
पुष्प संयंत्र
हवाएं वितरक
सुगंध माल

(२५३)
दाग पे प्रश्न
कालिख ने उठाये
उत्तर क्यों दूँ

(२५४)
वफा-प्रहरी
करते हिफाजत
प्यार-किले की

(२५५)
वफा ही जड़
कटते सूख जाता
प्यार का पेड़

(२५६)
प्रेम-जहाज
हुआ तूफान पार
वफा थी माँझी

(२५७)
जग का हाल
तितलियों से जान
मुस्काये फूल

(२५८)
तितलीरानी
बना रहा बगीचा
आना जरूर

(२५९)
मौन ने थामा
जुबानी चक्रवात
टली तबाही

(२६०)
है मुक्ताकाश
भर लो दामन में
ऊँचाईयों को

(२६१)
नैनों ने खींचा
हृदय को दिखाया
जग का चित्र

(२६२)
गूंगे नयन
बनते हैं सहारा
अंधी जुबां का

(२६३)
क्रोध कुरेदे
जुबां से लगे घाव
करे नासूर

(२६४)
गिरा जमीं पे
खा रहा है ठोकरें
टूटा शिखर

(२६५)
यादें तुम्हारी
खींचती बार-बार
आज से दूर

(२६६)
हवा सी बही
तेरी वो मोहब्बत
हाथ न आई

(२६७)
एक नमक
कहीं बने जिन्दगी
कहीं पे मौत

(२६८)
जीत की हवा
पल में हटा देती
वादों का धुँआ

(२६९)
डरे हैं पशु
जंगल में आये थे
कुछ इंसान

(२७०)
शंकित मैना
इंसानों ने डाला है
खाने को दाना

(२७१)
रोती चिड़िया
छूना था आसमान
मिला पिंजरा

(२७२)
हाट में सजी
पिंजरों की बंधक
ऊँची उड़ानें

(२७३)
यादों का मेला
घूमने गया मन
गुम हो गया

(२७४)
लोहा हो तुम
रक्षक हो सोने के
कुंठा न पालो

(२७५)
पेड़ सुनाते
किस्से बड़े निराले
सुने तो कोई

(२७६)
पूर्णमासी ने
पेड़ोंपर चढ़ाया
चाँदी का पानी

(२७७)
अरसे बाद
बरसे सुख-मेघ
ओढूँ क्यों छाता

(२७८)
दिखी चिरैया
आसपास ही होगी
जीवन-नदी

(२७९)
आओ करीब
क्यों बैठी दूर-दूर
मेरी खुशियों

(२८०)
थमा तूफान
निकल पड़ी मैना
चुगने दाना

(२८१)
दाग न बनो
पोंछ दिए जाओगे
सभी स्थानों से

(२८२)
सुख बरसा
पल में धुल गई
दुखों की धूल

(२८३)
फिजां चुनावी
खिलाती जीभर के
वादों के फूल

(२८४)
पकड़े गये
करते कई लोग
मौसमी इश्क

(२८५)
न आतीं कभी
खुद्दार बुराईयाँ
बिना बुलाये

(२८६)
स्वप्न कोमल
कहाँ रखूँ इनको
टूटें न कभी

(२८७)
आस की बूँद
जतन से है पाई
रखूँ छिपा के

(२८८)
"अबला" शब्द
सच ढँकनेवाला
पर्दा न बने

(२८९)
था समझौता
टूटा तो मिल गया
नाम लूट का

(२९०)
स्वप्न थे ऊँचे
इज्जत लगी बोझ
उतार फेंकी

(२९१)
देखते उसे
अतीत के कोने में
जा गिरा मन

(२९२)
तेरा असर
टकराये तट से
जैसे लहर

(२९३)
चुन-चुनके
दिल से मिटा दिए
तेरे निशान

(२९४)
लगे जो प्यास
मांगो न कहीं पानी
खोद लो कुँआ

(२९५)
मचल रहीं
साँसों की ये लहरें
चाँद छूने को

(२९६)
सह-सहके
पाषाण होने लगा
जैसे हृदय

(२९७)
लगता जैसे
रच-बस सा गया
शोर में मौन

(२९८)
यादें पुरानी
मन-डिब्बे में सडीं
जहर बनीं

(२९९)
मन ने मेरे
तस्वीरें वो तुम्हारी
फाड़ी कबके

(३००)
त्याग संशय
खोट नहीं तुझमें
शीशा ही झूठा

(३०१)
असहनीय
हृदय को चीरता
मौन का शोर

(३०२)
रख न पाती
शरीरों की दूरियाँ
दिलों को दूर

(३०३)
फिजां ने जोड़ी
पंछियों ने तोड़ दी
ख्यालों की डोर

(३०४)
नैनों का क्या है
सभी को बिठा लेते
पलकों तले

(३०५)
भाव हों सच्चे
पत्र हों या ई-मेल
लगते अच्छे

(३०६)
टिकने न दे
चंचलता की काई
प्रेम को कभी

(३०७)
छू नहीं पाया
वफा की गहराई
प्यार तुम्हारा

(३०८)
लगे लड़ने
सुगंध और रंग
फूल हैरान

(३०९)
तीक्ष्ण तमन्ना
काट देगी निश्चित
सिर हदों का

(३१०)
अश्कों के मोती
बेवफा की झोली में
भूले न डालो

(३११)
आँखों के लिए
बेवफा की झलक
एक चुभन

(३१२)
गर्मी में जली
रोयी स्वेद के आँसू
मानव देह

(३१३)
तेरे नैनों में
बसा हुआ है मेरा
जीवन-गाँव

(३१४)
दुखी हृदय
करने जाता स्नान
अश्रुताल में

(३१५)
डूब अश्कों में
सड़ जाते हैं सारे
ख्वाबों के बीज

(३१६)
मन-सागर
मचले बार-बार
छूने को चाँद

(३१७)
यादों के दीये
अतीत के घरों में
सजे हुए हैं

(३१८)
तेरी ही बातें
करता है अतीत
तन्हाईयों में

(३१९)
बीज अभागा
मिली न जिसे भूमि
प्यार हमारा

(३२०)
क्यों हो उदास
पाते नहीं चकोर
चाँद का साथ

(३२१)
जा नहीं पाता
समंदर बेचारा
चाँद के गाँव

(३२२)
हंसों के लिए
झील में हर रात
आता है चाँद

(३२३)
घटे जंगल
बढ़ता चला गया
जंगलीपन

(३२४)
हँसी तुम्हारी
दिल में बना देती
खुशी के किले

(३२५)
रात जलाती
नींद की मुंडेर पे
ख्वाबों के दीये

(३२६)
यादों के फूल
आसपास उड़ता
मन-भ्रमर

(३२७)
हाल बताते
तेरे नैन-दर्पण
मेरी प्रीत का

(३२८)
प्यार ये मेरा
तेरे नैनों में रोज
देखे खुद को

(३२९)
मन की गाय
यादों के खूँटे बंधी
करे जुगाली

(३३०)
मन-बालक
मचाये दिनभर
उछल-कूद

(३३१)
मन-पथिक
घूम आता है रोज
सारी दुनिया

(३३२)
मन-चादर
टँकते हरदिन
यादों के मोती

(३३३)
मन लिखता
दिल की डायरी में
अनुभूतियाँ

(३३४)
नैन छापते
दिल की पांडुलिपि
भाव-स्याही से

(३३५)
धूप के तीर
चीर देते हैं सदा
धुंध का सीना

(३३६)
नन्हीं कलियाँ
सीखतीं रंग-ढंग
संगी पुष्पों से

(३३७)
कहे तुम्हारे
शब्द वो अनकहे
सुने हैं मैंने

(३३८)
नींद लिखती
ख्वाबों की पटकथा
बैठ रात को

(३३९)
दीन मनुष्य
साँसभर हवा भी
पेड़ों से माँगे

(३४०)
शुद्धताओं को
अशुद्धि में बदलें
इंसानी साँसें

(३४१)
कैसा समय
रंगरेजों से पड़ा
फूलों को काम

(३४२)
बाग के पेड़
चुकाते हैं किराया
फल देकर

(३४३)
आम के पेड़
लगाते गर्मियों में
मीठा सा इत्र

(३४४)
देख अंधेरा
चौकन्ना हो गया है
वातावरण

(३४५)
रूप से तेरे
श्रृंगार करते हैं
नित्य श्रृंगार

(३४६)
चिड़िया लाई
कोई खुशखबरी
गा उठा पेड़

(३४७)
फँसा लेते हैं
आजकल के पंछी
सैयाद को ही

(३४८)
पूछे तोते से
नन्हीं गिलहरियाँ
मैं कैसे उड़ूँ

(३४९)
बड़ा चिढ़ातीं
एक-दूजे को रोज
मैना व मीन

(३५०)
उगे ज्यों पंख
कहने लगी पाखी
पेड़ को कैद

(३५१)
सैन्य बलों सा
शहर में तैनात
घना कोहरा

(३५२)
कैद हैं मानों
कोहरे के किले में
तपती साँसें

(३५३)
देते चुनौती
कोहरे की सत्ता को
बागी अलाव

(३५४)
सेहत-धन
चुराने की ताक में
चोर कोहरा

(३५५)
घरों में लोग
कोहरे ने बुलाया
बंद जो आज

(३५६)
आई बिटिया
ससुराल के नये
ढंगों में ढँकी

(३५७)
बेटी को देख
बिटिया को आता है
मायका याद

(३५८)
ले जाती बेटी
यादों की गठरियाँ
ससुराल में

(३५९)
ऐसे भी सोचो
दो घरों की लाडली
होगी बिटिया

(३६०)
ऐसी दो सीख
ससुराल में बेटी
बने दुलारी

(३६१)
सुनो रे माली
गुँथना भी सिखाओ
फूलों को कभी

(३६२)
बना सकता
ढलने का गुण ही
सर्वस्वीकार्य

(३६३)
ये लव-मेल्स
हैं उत्तराधिकारी
प्रेम-पत्रों के

(३६४)
प्रेम-परिन्दे
फेसबुक-पेड़ पे
पाते आराम

(३६५)
अंकुरा रहे
फेसबुक के खेत
प्रेम के बीज

(३६६)
वाहन बन
दौड़ रहा है शोर
सड़कोंपर

(३६७)
बढ़ी आबादी
एक-दूसरेपर
बैठे हैं लोग

(३६८)
सिमट रहा
सुकून का दायरा
बढ़ी बेचैनी

(३६९)
शोर-शिकारी
मार देते पल में
चैन-मैना को

(३७०)
रोक लेता है
कारखाने का धुँआ
साँसों का रास्ता

(३७१)
दानव धुँआ
करता अट्टाहास
सहमी साँसें

(३७२)
एक पहलू
बेतहाशा गति का
भटकाव भी

(३७३)
लापरवाही
सड़कों पे खोदती
मौत के कुएँ

(३७४)
माँगों को ले के
हड़ताल पे गयी
विधि-व्यवस्था

(३७५)
तेरी मिठास
रहे गुण ही तेरा
बने न बंध

(३७६)
ढूँढता फिरे
शहरों में आकर
पानी खुदको

(३७७)
बिक रही है
पानी का रूप ले के
इंसानी प्यास

(३७८)
पानी की कमी
टैंकर जमाखोर
काटते चाँदी

(३७९)
प्यास के मारे
हलकान शहर
पीता जहर

(३८०)
केरोसिन सा
बेच रहे हैं पानी
महानगर

(३८१)
गाँवों का चैन
छीनकर शहर
खुश हैं बड़े

(३८२)
गाँव-शहर
होते रहे पूरक
एक-दूजे के

(३८३)
गाँव अग्रज
शहर छोटे भाई
बेटे देश के

(३८४)
गाँवों को देते
शहरी वातायन
ताजी हवाएं

(३८५)
आते शहर
गाँवों में अक्सर ही
छुट्टी मनाने

(३८६)
बात-बेबात
भूखा रख सताती
दुष्ट गरीबी

(३८७)
खाती न कभी
बच्चों पे भी तरस
ये निर्धनता

(३८८)
जला देती है
निर्धनता की भठ्ठी
सारी इच्छाएं

(३८९)
गुणों को ढाँपे
गरीबी की चादर
दे गुमनामी

(३९०)
जहाँ गरीबी
मौसम कष्टमय
सारे वहाँ के

(३९१)
हीरा ही है वो
उपेक्षा मत करो
तराशो उसे

(३९२)
सोचो तो जरा
जो न होती दीवार
होता संग्राम

(३९३)
डूब नशे में
नाली में गिरी आस
रो रही साँसें

(३९४)
गिरी तन से
पत्तियों की चादर
ठिठुरा पेड़

(३९५)
भटकी पुनः
बुरी संगत पा के
एक उम्मीद

(३९६)
सूखा जो पेड़
जड़ों की थी साजिश
पत्तों का दोष

(३९७)
तू है पतंग
उड़ नहीं सकती
इच्छानुसार

(३९८)
कटी पतंग
रोती नसीबपर
लुटने गिरी

(३९९)
कर चित्कार
वहशी चंगुल में
मरी पतंग

(४००)
मस्ती में चूर
परिन्दों को चिढ़ाती
उड़ी पतंग

हाइकुकार - कुमार गौरव अजीतेन्दु

(४०१)
होतीं न जुदा
साँस व धड़कन
पक्की सखियाँ

(४०२)
दिल किले का
दिमाग द्वारपाल
करे सुरक्षा

(४०३)
संवेदनाएं
साँसें हैं हृदय की
रोको न इन्हें

(४०४)
दिल गवैया
धड़कनें हैं गीत
जीवन श्रोता

(४०५)
दिल गिटार
छेड़ता रहता है
जीवन धुन

(४०६)
देह-ईंजन
दिल मजदूर सा
झोंके ईंधन

(४०७)
खोलता नहीं
झूठे प्यार के लिए
दिल किवाड़

(४०८)
माँगते सदा
नयन भाव सारे
दिल से ही तो

(४०९)
जमा होते हैं
अनुभवों के मोती
दिल-कोष में

(४१०)
दिल-कलश
रहे जहाँ संचित
जीवनरस

(४११)
समूह में भी
"मैं" का ही एहसास
ले रहा साँसें

(४१२)
कायम यहाँ
अस्तित्व अमीरी का
गरीबी से ही

(४१३)
रोते मन को
तन्हाईयों की हँसी
लगती प्यारी

(४१४)
मुस्कुराहट
किसी भी चेहरे का
सच्चा श्रृंगार

(४१५)
वक्त उगाता
नयी-नयी डालियाँ
मन-वृक्ष पे

(४१६)
नयी पीढ़ियाँ
पुरानी गलतियाँ
कब तलक

(४१७)
झील हंसों की
जमा रहे हैं कब्जा
बगुले कई

(४१८)
रुष्ट पुष्पों ने
किया है समझौता
शोलों के साथ

(४१९)
दीप वो कैसा
कालिख देता ज्यादा
बुझा दो उसे

(४२०)
बिना विरोध
चल देती है धूल
हवा के साथ

(४२१)
मिलने लगा
जरूरतपूर्ति को
दोस्ती का नाम

(४२२)
चलता खेल
आदान-प्रदान का
मित्रता कहाँ

(४२३)
गौरैया जैसी
दिखती कभी-कभी
सच्ची मित्रता

(४२४)
मित्र हों ऐसे
सर्दियों में अलाव
लगते जैसे

(४२५)
तपे मन को
मित्र करे शीतल
बारिश बन

(४२६)
भीड़ वो तीर
बेध सकता है जो
कोई भी लक्ष्य

(४२७)
भीड़ नकाब
पहन बदमाश
करते जुर्म

(४२८)
आई है भीड़
राजदूत बनके
जनाक्रोश का

(४२९)
भीड़ की आज्ञा
सुन परिवर्तन
दौड़ के आते

(४३०)
डरती सत्ता
असीम अधिकार
भीड़ के पास

(४३१)
खुशी से सजी
सहमति से गुँथी
हो वरमाला

(४३२)
मन जो तेरे
अतीत का टुकड़ा
फाँस या फूल

(४३३)
तभी विवाह
मिले जब दुल्हन
दिल के साथ

(४३४)
दिल से दूर
तन न बसा पाता
नया संसार

(४३५)
चेत जवानी
जने नहीं अतीत
भविष्यहंता

(४३६)
डरता मन
दिखते जब मेघ
तेरे नैनों में

(४३७)
जानता हूँ मैं
मैंने दे दी दस्तक
तेरे दिल पे

(४३८)
बंद नैनों से
खोल दिया किवाड़
तूने दिल का

(४३९)
सच है न ये
तुम रोज बुलाती
ख्वाबों में मुझे

(४४०)
छुपा लेती हो
पलकों तले तुम
तस्वीर मेरी

(४४१)
हमदोनों को
ला रही हैं करीब
खुद दूरियाँ

(४४२)
लाती हो तुम
मु्स्कान-मिठाईयाँ
सदा ही ताजी

(४४३)
धड़कनों से
दिल तुम्हारा मुझे
पुकारता है

(४४४)
साँसें तुम्हारी
ढूँढती है खुशबू
मेरी ही सदा

(४४५)
तुम देखती
बंद कर पलकें
दिल से मुझे

(४४६)
घास न कहो
बरसात में जमी
काई है वह

(४४७)
साँस व धुआँ
मानो दो तलवारें
म्यान फेफड़ा

(४४८)
हुआ ज्यों धुआँ
साँस-मधुमक्खियाँ
भागीं तुरंत

(४४९)
फूल चाहते
तितली सा जीवन
कैसे संभव

(४५०)
दीखा काजल
फरेबी के नैनों में
डरावना सा

(४५१)
महाजटिल
अनबूझ पहेली
कुछ चरित्र

(४५२)
कौओं से छिना
एकाधिकार अब
कर्कशता का

(४५३)
कागजपर
शब्दों का रूप ले के
आया बारूद

(४५४)
बारूदी फिजां
गिरे न चिनगारी
शब्दों की यहाँ

(४५५)
ओ दिलवालों
ये महफिल भरी
दिलजलों से

(४५६)
आता बसंत
दूत चिड़ी पेड़ को
देती खबर

(४५७)
हो रहा फिर
चिड़िया सम्मेलन
बरगद पे

(४५८)
जन्मा है चिड़ा
चिड़ी रानी के यहाँ
आये संबंधी

(४५९)
खुश है चिड़ी
जाना है डेटपर
चिड़े के साथ

(४६०)
पेड़ प्यार से
थकी बैठी चिड़ी पे
झलता पंखा

(४६१)
हुई सुबह
जाग घास चेहरा
धोती ओस से

(४६२)
सर्पमणि सी
चमकती घास पे
ओस भोर में

(४६३)
ओस पीकर
दिनभर खटती
धूप में घास

(४६४)
देती है ओस
भू पे आने के लिए
घास को कर

(४६५)
घास छिपाती
लूटे ओस के मोती
भोर होते ही

(४६६)
आँधी तोड़ती
बच्चापार्टी के लिए
पेड़ों से आम

(४६७)
खट्टी अमिया
परिपक्व होने पे
देगी मिठास

(४६८)
आम सा फल
गुणों के बलपर
बनता खास

(४६९)
पेश करते
ये आम के मंजर
खास नजारा

(४७०)
तने बैठे हैं
फल-दरबार में
सम्राट आम

(४७१)
रंग से नहीं
रंगों से बनता है
सुंदर चित्र

(४७२)
बन चुके हैं
दिल में जमे आँसू
खौलता लावा

(४७३)
लाते संदेश
हृदयनगर का
दूत नयन

(४७४)
है सुरक्षित
दिल-संगणक में
सारा अतीत

(४७५)
समययोगी
फेरता रहता है
मौसममाला

(४७६)
ओढ़ कोहरा
अलसाये से लेटे
बागों में फूल

(४७७)
हुई सुबह
ले रहीं अँगड़ाई
जागी कलियाँ

(४७८)
देख कुहासा
रूठ के बैठ गये
सारे ही फूल

(४७९)
हार के लौटीं
कुहासे की टोलियाँ
माने न फूल

(४८०)
खिली ज्यों धूप
गायब हुआ गुस्सा
प्यारे फूलों का

(४८१)
गाँव लौटते
दौड़ करें स्वागत
बीते वो दिन

(४८२)
सहेजे हुए
मेरे बचपन को
मेरा ये गाँव

(४८३)
बाग के पेड़
देखते ही आज भी
लगाते गले

(४८४)
गाती चिड़िया
ताजा कराती यादें
बीते दिनों की

(४८५)
जवां है धूम
गलियों में मची जो
बचपन में

(४८६)
जालिम राहें
दिख रहीं आमादा
भटकाने पे

(४८७)
सौ कोटि साँसें
साथ-साथ जो चलें
बनेंगी आँधी

(४८८)
मन के हाथ
छोड़ना न चाहते
ख्वाबों की डोर

(४८९)
भारी पड़ते
रक्त-संबंधोंपर
धन-संबंध

(४९०)
दिखा जो हंस
मची है खलबली
कौआटोली में

(४९१)
चली बारात
लाने दूर देश से
नयी आशाएं

(४९२)
वधू के द्वार
हुआ खूब स्वागत
नवयुग का

(४९३)
अभिनंदन
वरमाला ने किया
नये रिश्ते का

(४९४)
बाँध दी गयीं
दो भिन्न श्रृंखलाएं
सप्तबंधों में

(४९५)
माँग के विदा
वंश-लता के संग
लौटी बारात

(४९६)
पानी क्या पड़ा
पल में धुल गया
नकली रंग

(४९७)
छद्म सफेदी
हो गई दागदार
लाल होठों से

(४९८)
पहना फिर
आदर्शों का मुखौटा
षडयंत्रों ने

(४९९)
देसी चोले में
विदेशी षडयंत्र
घुसे निर्भीक

(५००)
श्वेत वेश ले
अंधेरे के पुजारी
करते छल

हाइकुकार - कुमार गौरव अजीतेन्दु
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