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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

मन्त्र विज्ञान: संतोष भाऊवाला

मन्त्र विज्ञान



संतोष भाऊवाला
*
शब्दों की ध्वनि का अलग-अलग अंगों पर एवं वातावरण पर असर होता है। कई शब्दों का उच्चारण कुदरती रूप से होता है। आलस्य के समय कुदरती आ... आ... होता है। रोग की पीड़ा के समय ॐ.... ॐ.... का उच्चारण कुदरती ऊँह.... ऊँह.... के रूप में होता है। यदि कुछ अक्षरों का महत्त्व समझकर उच्चारण किया जाय तो बहुत सारे रोगों से छुट...कारा मिल सकता है। वैज्ञानिक भी भारतीय मंत्र विज्ञान की महिमा जानकर दंग रह गये हैं।


'अ' उच्चारण से जननेन्द्रिय पर अच्छा असर पड़ता है।

  'आ' उच्चारण से जीवनशक्ति आदि पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। दमा और खाँसी के रोग में आराम मिलता है, आलस्य दूर होता है।

  'इ' उच्चारण से कफ, आँतों का विष और मल दूर होता है। कब्ज, पेड़ू के दर्द, सिरदर्द और हृदयरोग में भी बड़ा लाभ होता है। उदासीनता और क्रोध मिटाने में भी यह अक्षर बड़ा फायदा करता है।

'ओ' उच्चारण से ऊर्जाशक्ति का विकास होता है।

'म' उच्चारण से मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। शायद इसीलिए भारत के ऋषियों ने जन्मदात्री के लिए 'माता' शब्द पसंद किया होगा।

'ॐ' का उच्चारण करने से ऊर्जा प्राप्त होती है और मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। मस्तिष्क, पेट और सूक्ष्म इन्द्रियों पर सात्त्विक असर होता है।

ह्रीं 'ह्रीं' उच्चारण करने से पाचन-तंत्र, गले और हृदय पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

ह्रं 'ह्रं' उच्चारण करने से पेट, जिगर, तिल्ली, आँतों और गर्भाशय पर अच्छा असर पड़ता है।
 
***

गीत शब्द तेरे, शब्द मेरे ... ललित वालिया 'आतिश'


मेरी पसंद: गीत 


 

शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
 
ललित वालिया  'आतिश'
 *
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
परिस्तानी बगुले से,
लेखनी पे नाच-नाच;
पांख-पांख नभ कुलांच ...
मेरी दहलीज़, कभी ...
तेरी खुली खिडकियों पे 
ठहर-ठहर जाते हैं 
लहर-लहर जाते हैं ...
शहर कहीं  जागता है, शहर कहीं  सोता है
और कहीं हिचकियों का जुगल बंद होता है ||
 
'भैरवी' से स्वर उचार ...
बगुले से शब्द-पंख 
पन्नों पे थिरकते से
सिमट सिमट जाते हैं
कल्पनाओं से मेरी...
लिपट लिपट जाते हैं |
गो'धूली बेला  में ...
शब्द सिमट जाते हैं ...
सिंदूरी थाल कहीं झील-झील  डुबकते  हैं ..
और कहीं मोम-दीप बूँद-बूँद सुबकते हैं ||
 
होठों के बीच दबा 
लेखनी की नोक तले 
मीठा सा अहसास 
शब्द यही तेरा है | 
अंगुली के पोरों पे
आन जो बिरजा है,
बगुले सा 'मधुमास' ...
आभास तेरा है | 
मीत कहो, प्रीत कहो, शब्द प्राण छलते हैं
लौ  कहीं  मचलती है, दीप कहीं जलते हैं ||
 
~

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

दोहा सलिला: संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
*
१. ठेस:
ठेस लगी दिल को बहुत, देखा- करें विवाद.
संसद में भेजा जिन्हें, करने शुभ संवाद..

२. उम्मीद:
आशा पर ही टँगा है, आसमान- सच मान.
निर्बल को करता सबल, प्रभु का यह वरदान..

३. सौन्दर्य:
दिल में बस बेबस करें, मृगनयनी के नैन.
चन्द्रमुखी की छवि विमल, छीने मन का चैन..

४. आश्चर्य:
हाय! ठगा सा रह गया, विस्मय भी है खूब.
विषमय देखा अमिय को, आश्चर्य में डूब..

५. हास्य:
ब्यूटीपार्लर से मिला, उनको रूप-निखार.
कोयल पर चूना गिरा, मरु में छायी बहार..

६. वक्रोक्ति:
 कौन? कामिनी- तो नहीं, करतीं क्यों कुछ काम?
वामा? तो अनुकूल हो, हरदम रहतीं वाम..

७. सीख:
मत पूछो है देश का, क्या तुम पर उपकार?
आगे बढ़ कर्तव्य निज, कर लो अंगीकार..

***************

गीत: रचें नयन में आ राँगोली -राकेश खंडेलवाल

कसौटी पर कंचन:
गीत:  

रचें नयन में आ राँगोली

राकेश खंडेलवाल 
*
दीवाली के जले दियों की किरन किरन में तुम प्रतिबिम्बित
रंग तुम्हारी अँगड़ाई से पाकर के सजती है होली

तुम तो तुम हो तुलनाओं के लिये नहीं है कुछ भी संभव
कचनारों में चैरी फूलों में, चम्पा में आभा तुमसे
घटा साँवरी,पल सिन्दूरी, खिली धूप का उजियारापन
अपना भाग्य सराहा करते पाकर के छायायें तुमसे
 
उगे दिवस की वाणी हो या हो थक कर बैठी पगडंडी
जब भी बोली शब्द कोई तो नाम तुम्हारा ही बस बोली
 
फ़िसली हुई पान के पत्तों की नोकों से जल की बूँदें
करती हैं जिस पल प्रतिमा के चरणों का जाकर प्रक्षालन
उस पल मन की साधें सहसा घुल जाया करतीं रोली में
और भावनायें हो जातीं कल्पित तुमको कर के चन्दन
 
अविश्वास का पल हो चाहे या दृढ़ गहरी हुई आस्था
अर्पित तुमको भरी आँजुरी, करे अपेक्षा रीती झोली

आवश्क यह नहीं सदा ही खिलें डालियों पर गुलमोहर
आवश्यक यह नहीं हवा के झोंके सदा गंध ही लाये
यह भी निश्चित नहीं साधना पा जाये हर बार अभीप्सित
यह भी तय कब रहा अधर पर गीत प्रीत के ही आ पाय
 
लेकिन इतना तय है प्रियतम, जब भी रजनी थपके पलकें
तब तब स्वप्न तुम्हारे ही बस रचें नयन में आ राँगोली
 
*****

ग़ज़ल: मन्सूर उस्मानी

ग़ज़ल
"मन्सूर" उस्मानी
*
ग़म उठाओगे मुस्कुराओगे
लेकिन अंदर से टूट जाओगे।

जब ये दुनिया तुम्हें सतायेगी,
सारी तहज़ीब भूल जाओगे।

अब तो आँखें भी बुझ गई अपनी,
और कितना हमें रूलाओगे।

रोशनी के फरेब में आकर,
और कितने दिये बुझाओगे।

और कुछ दिन का यह झमेला है,
फिर हमें भी यहां न पाओगे।

याद आयेंगे हम बहुत "मन्सूर",
जब कोई गीत गुनगुनाओगे।।

*****    

बुधवार, 26 सितंबर 2012

दोहे: शशि पाधा

दोहे:
शशि पाधा 
*

कब बोलें कब चुप रहें, कैसे कह दें बात?

उहापोह के बीच में, व्यर्थ गँवाई रात..

रिश्ते तो पनपे नहीं, सींचा बारम्बार.

बीजों के इस हाट में, खोटा हर व्यापार..

चाहे जिनसे मेल मन, वे ही हैं अनमेल.

कैसे खेलें रोज हम, रिश्तों का शुभ खेल?

माँगे से मिलता नहीं, जग में सबको मान.

खरी बात तो यह रही, मिला नहीं अपमान..

गुठली मीठी आम का, उपजा पेड़ बबूल.

बदल गई थी पोटली , कितनी भारी भूल..

घुटी-घुटी सी सांस है, सहमी सी है आँख.

बीहड़ बीजी क्यारियां, खिलती कैसे पाँख?

परबस कोई क्यों रहे?, हो न महल का राज.

टूटा छप्पर घर हुआ, सर पर श्रम का ताज..

पाँव तले धरती नहीं, छोड़ा जब से देस.

माटी सोंधी है नहीं, रुचा नहीं परदेस..

सुख बाँटे चुप दुःख सहे, जीवन की यह रीत.

दुर्गम पथ भी सहज हो, हाथ गहे मनमीत..
____________
शशिपाधा@जीमेल।कॉम 

धरोहर : ६. स्व.धर्मवीर भारती

धरोहर :

इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला तथा महीयसी महादेवी वर्मा के पश्चात् अब आनंद लें  स्व. धर्मवीर भारती जी की रचनाओं का।

६. स्व.धर्मवीर भारती
चित्र-चित्र स्मृति:

Dharmveer bhartee.jpg



भगवतीचरण वर्मा, महीप सिंग के साथ, फणीश्वर नाथ रेणु के साथ

किंशुक पुष्पा भारती
*
रचना संसार:



राधाकृष्ण की वह अद्भुत सांसारिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक और दैवी शक्ति मानी गई हैं जो  संसार को मोहित करने वाले कृष्ण को  प्रतिक्षण मोहित  करती हैं, नियंत्रित करती हैसर्वशक्तिमान कृष्ण राधा रूपी शक्ति के बिना अधूरे हैं! इसलिए वह सभी की सर्वोच्च देवी हैं! दोनों के मध्य  जो सम्बन्ध है, वह निश्छल एवं प्रगाढ़ आध्यात्मिक (आत्मा है आधार जिसका) प्रेम सम्बन्ध  है, जो समूचे भारत  में पूजा जाता है!   इसी  अद्भुत सघन   सम्बन्ध का उल्लेख   ही कनुप्रिया  में है!  ऐसा अलौकिक अनूठा विशुद्ध  प्रेम सम्बन्ध इहलोक के सभी क्षितिजों और मानवीय समझ से से परे होता है!
राधा और कृष्ण के नितांत लौकिक दिखनेवाले अलौकिक प्रेम की इस सुन्दर व्याख्या को अपने में संजोने कारण ‘कनुप्रिया’ हमें बहुत पसंद है ! 

'कनुप्रिया'

तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पाई

बार-बार मुझ से मेरे मन ने
आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है-
यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो !’

बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने
व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है-
कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’

बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने
कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है-
यह कान्ह आखिर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई
तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु !

अक्सर जब तुम ने
माला गूँथने के लिए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे लिए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल दिये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हुए कहा है :
कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !’

अक्सर जब तुम ने
दावाग्नि में सुलगती डालियों,
टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और
घुटते हुए धुएँ के बीच
निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई
मुझे
साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से
भरे-भरे स्वर में कहा है:
कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है
सहोदर है।

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है
और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ
और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है
तो मैंने डूब कर कहा है:

कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!

पर जब तुम ने दुष्टता से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हूँ
मेरा कोई नहीं है !’

पर दूसरे ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और बिजली तड़पने लगी है
और घनी वर्षा होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है
तुम्हें सहारा दे-दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आई हूँ
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ
कि मैं कितनी छोटी हूँ
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
कि तुम एक छोटे-से शिशु हो
असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दुबके हुए

और जब मैंने सखियों को बताया कि
गाँव की सीमा पर
छितवन की छाँह में खड़े हो कर
ममता से मैंने अपने वक्ष में
उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर
अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिए
तो मेरे उस सहज उद्गार पर
सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं
यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु
तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है,
कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है
तो मुझे अकस्मात् लगा है
कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूटी पड़ रही है
तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ
तुम्हारा संबल,
तुम्हारी योगमाया,
इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ
विराट्,
सीमाहीन,
अदम्य,
दुर्दान्त;

किन्तु दूसरे ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हुई गोधूलि वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया
तो मैं हतप्रभ रह गयी
मुझे लगा इस निखिल पारावार में
शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी
फैली हुई मैं
अकस्मात् सिमट आयी हूँ
सीमा में बँध गयी हूँ
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?

पर जब मुझे चेत हुआ
तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू-
समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर
अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती
चली जाऊँगी...

इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे
और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!

पर तुम इतने निठुर हो
और इतने आतुर कि
तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की
समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ
और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं
कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि
मैं अब कहाँ हूँ
और तुम मेरे कौन हो
और इस निराधार भूमि पर
चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है।
सखा-बन्धु-आराध्य
शिशु-दिव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं
सखी-साधिका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उम़ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति
मुझे धारण कर लिया-
विलीन कर लिया-
फिर भी अकूल बने रहे

मेरे साँवले समुद्र
तुम आखिर हो मेरे कौन
मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?
***


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प्रथम प्रणय


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प्रार्थना की एक अनोखी घड़ी


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कुछ दर्द मुझे तो सहने दे

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संपाति

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अंतहीन

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गुनाहों का देवता से-

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राजीवकृष्ण सक्सेना

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मूल्यांकन :