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शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

अगस्त ८, पूर्णिका, राखी, दोहा, मुक्तक, लघुकथा, नवगीत, तमाशा, शे'र, गैंग्रीन, सॉनेट, मीरा, संसद

सलिल सृजन अगस्त ८ 
पूर्णिका
बहुत सोया जाग
बिछौना दे त्याग
.
साँच को क्या आँच?
डटा रह मत भाग
.
दूध पी, ले काट
पालना मत नाग
.
संतुलन ही साध्य
नहीं भोग, न त्याग
.
झूम मस्ती में
गा कबीरा-फाग
.
करे सब कुछ राख
मत लगा रे! आग
.
बोल, खोले पोल
कौन कोयल-काग
.
बहे सलिल निर्मल
रुक मलिन ज्यों दाग
८.७.२०२५
०००
सॉनेट
संसद
यह संसद है लोकतंत्र की,
सत्य देखना यहाँ मना है,
झलक नहीं है जन-गण मन की,
अहंकार का शीश तना है।
यह संसद है प्रजातंत्र की,
सत्य बोलना यहाँ मना है,
जय जुमलों के महामंत्र की,
दलबंदी कोहरा घना है।
यह संसद है भ्रष्ट तंत्र की,
सुनना-कहना सत्य मना है,
जगह नहीं जन की बातों को,
सत्ता पाना लक्ष्य बना है।
तंत्र न यह जन-गण-मन सुनता।
यंत्र स्वार्थ के सपने बुनता।।
८-८-२०२३
•••
सॉनेट
मीरा
दुख में सुख मीरा की प्रीत
मिले फूल को पत्थर मीत
सिसक रहे चुप होकर गीत
समय न बदले काहे रीत
मीरा कभी न हुई अतीत
लगे हार भी उसको जीत
दुनियादारी कहे अनीत
वह गुंजाती हरि के गीत
मीरा किंचित हुई न भीत
जन्म-जन्म से हरि की क्रीत
मिलन हेतु नित रहे अधीत
आत्म हुई परमात्म प्रणीत
मीरा को है वही सुनीत
जग कहता है जिसे कुरीत
८-८-२०२२
•••
चिकित्सा सलिला
*
नुस्खे गैंग्रीन
गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) Osteomyelitis, कटे-पके घाव का इलाज
मधुमेह रोगी (डाईबेटिक पेशेंट) की चोट जल्दी ठीक ही नही हो तो धीरे धीरे गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) में बदल जाती है अंत में वह अंग काटना पड़ता है। गैंग्रीन माने अंग का सड़ जाना, जहाँ पे नए कोशिका विकसित नही होते। न तो मांस में और न ही हड्डी में और सब पुराने कोशिका मरते चले जाते हैं। Osteomyelitis में भी कोशिका कभी पुनर्जीवित नही होती, जिस हिस्से में हो वहाँ बहुत बड़ा घाव हो जाता है और वो ऐसा सड़ता है कि काटने केअलावा और कोई दूसरा उपाय नही रहता।
एक औषधि है जो गैंग्रीन को भी ठीक करती है और Osteomyelitis (अस्थिमज्जा का प्रदाह) को भी ठीक करती है।इसे आप अपने घर में तैयार कर सकते हैं। औषधि है देशी गाय का मूत्र (आठ परत सूती कपड़े में छानकर) , हल्दी और गेंदे का फूल। पीले या नारंगी गेंदे के फुल की पंखुरियाँ निकालकर उसमें हल्दी मिला दें फिर गाय मूत्र में डालकर उसकी चटनी बना लें। यह चटनी घाव पर दिन में दो बार लगा कर उसके ऊपर रुई रखकर पट्टी बाँधिए। चटनी लगाने के पहले घाव को छाने हुए जो मूत्र से ही धो लें। डेटोल आदि का प्रयोग मत करिए।
यह बहुत प्रभावशाली है। इस औषधि को हमेशा ताजा बनाकर लगाना है। किसी भी प्रकार का ज़ख्म जो किसी भी औषधि से ठीक नही हो रहा है तो यह औषधि आजमाइए। गीला सोराइसिस जिसमेँ खून भी निकलता है, पस भी निकलता है उसको यह औषधि पूर्णरूप से ठीक कर देती है। दुर्घटनाजनित घाव पर इसे अलगते ही रक्त स्राव रुक जाता है। ऑपरेशन के घाव के लिए भी यह उत्तम औषधि है। गीले एक्जीमा में यह औषधि बहुत काम करती है, जले हुए जखम में भी लाभप्रद है।
*
हाथ, पैर और तलुओं की जलन
हाथ-पैर, तलुओं और शरीर में जलन की शिकायत हो तो ५ कच्चे बेल के फलों के गूदे को २५० मिली लीटर नारियल तेल में एक सप्ताह तक डुबाये रखने के बाद में छानकर जलन देने वाले शारीरिक हिस्सों पर मालिश करनी चाहिए, अतिशीघ्र जलन की शिकायत दूर हो जाएगी।
*
दस्त - डायरिया
नींबू का रस निकालने के बाद छिलके छाँव में रखकर सुखा लें। कच्चे हरे केले का छिल्का उतारकर बारीक-बारीक टुकड़े करें और इसे भी छाँव में सुखा लें। केले में स्टार्च और नीबू के छिल्कों मे सबसे ज्यादा मात्रा में पेक्टिन होता है। दोनों अच्छी तरह सूख जाएँ तो समान मात्रा लेकर बारीक पीस लें या मिक्सर में एक साथ ग्राइंड कर लें। यह चूर्ण दस्त और डायरिया का अचूक इलाज है। दो-दो घंटे के अंतराल से १ चम्मच चूर्ण खाइये। शीघ्र आराम मिलता है।
***
शब्द सलिला : तमाशा
*
हिंदी तमाशा - संस्कृत, पुल्लिंग, संज्ञा, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य; मनोरंजक दृश्य, वह खेल जिससे मनोरंजन होता है, अद्भुत व्यापार या कार्य; अनोखी बात, खेलकूद, हँसी आदि की कोई घटना, ।
मराठी तमाशा -
महाराष्ट्र की एक लोककला, लोक नाट्य, निर्लज्जता भरा काम या व्यवहार या उलटी-पुलटी हरकत, खेल का प्रदर्शन, वह दृश्य जिसके देखने से मनोरंजन हो, मन को प्रसन्न करने वाला दृश्य।
तमाश: تماشا. फ़ारसी, पुल्लिंग , तमाशा अरबी पुलिंग
सैर, तफ़रीह, दीदार, लुत्फ़, वाज़ीगरों या मदारियों का खेल, नाटक, अजूबापन, हँसी-मज़ाक, भाँड़ों या बहुरूपियों की नक़ल या स्वाँग।
तमाशाई - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला।
तमाशाकुनां - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = सैर से दिल बहलाता हुआ।
तमाशाखानम - अरबी, तुर्की, स्त्रीलिंग, = हँसने-हँसानेवाली महिला।
तमाशागर - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा करनेवाला, कौतुकी।
तमाशागाह - अरबी, फ़ारसी, स्त्रीलिंग = वहजगह जहाँ तमाशा होता है, लीलागृह, कौतुकागार, क्रीड़ास्थल।
तमाशाबीं - अरबी, फ़ारसी, विशेषण = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी।
तमाश गीर / बीन हिंदी पुल्लिंग = तमाशा देखनेवाला, कौतुकदर्शी, अय्याश।
तमाशबीनी हिंदी पुल्लिंग = अय्याशी।
English Tamasha - noun, spectacle, pageant, show, entertainment, exhibition, amusement.
*
काव्य पंक्तियाँ / अशआर
*
दोहे - संजीव वर्मा 'सलिल'
कौन तमाशा कर रहा, देख रहा है कौन
पूछ आईने से लिया, उत्तर पाया मौन
*
आप तमाशागर करे, यहाँ तमाशा रोज
किसे तमाशाई कहें, करिये आकर खोज
*
मंदिर-मस्जिद हो गए, हाय! तमाशागाह
हैरत में भगवान है, मुश्किल में अल्लाह
*
आप तमाशागर हैं, आप तमाशागीर
करें तमाशा; बाप की, संसद है जागीर
***
तमाशा देख रहे थे जो डूबने का मिरे
मिरी तलाश में निकले हैं कश्तियाँ ले कर - अज्ञात
*
चाहता है इस जहां में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का - वली मोहम्मद वली
*
इश्क़ और अक़्ल में हुई है शर्त
जीत और हार का तमाशा है - सिराज औरंगाबादी
*
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है 'हसरत' की तबीअत भी - हसरत मोहानी
*
कभी उनका नहीं आना ख़बर के ज़ैल में था
मगर अब उनका आना ही तमाशा हो गया है -अरशद कमाल
*
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है -बशीर बद्र
*
जो कुछ निगाह में है हक़ीक़त में वो नहीं
जो तेरे सामने है तमाशा कुछ और है - आफ़ताब हुसैन
*
ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे - ज़करिय़ा शाज़
*
ज़िंदगी टूट के बिखरी है सर-ए-राह अभी
हादिसा कहिए इसे या कि तमाशा कहिए - दाऊद मोहसिन
*
हमारे इश्क़ में रुस्वा हुए तुम
मगर हम तो तमाशा हो गए हैं - अतहर नफ़ीस
*
तब्अ तेरी अजब तमाशा है
गाह तोला है गाह माशा है - शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
*
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी - अल्लामा इक़बाल
*
ये मेरे गिर्द तमाशा है आँख खुलने तक
मैं ख़्वाब में तो हूँ लेकिन ख़याल भी है मुझे - मुनीर नियाज़ी
*
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते - ज़ेहरा निगाह
*
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
उठा कर बारहा पर्दा गिराना पड़ गया है - मुस्तफ़ा शहाब
*
ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
दिल अपनी ही हालत का तमाशाई है देखो - ज़ेहरा निगाह
*
रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
८-८-२०२०
***
नवगीत:
अब भी बहनें
बाँध रही हैं राखी
लायीं मिठाई भी
*
उन्हें पता है उनकी रक्षा
भाई नहीं कर पायेगा
अगर करे तो बेबस खुद भी
अपनी जान गँवायेगा
विधवा भौजी-माँ कलपेगी
बच्चे होंगे बिलख अनाथ-
अख़बारों में छप अपराधी
सहज जमानत पायेगा
मानवतावादी-वकील मिल
मुक्त करा घर भर लेंगे
दूरदर्शनी चैनल पर
अपराधी आ मुस्कायेगा
बहनें कहाँ भूलती
हैं भाई का स्नेह
कलाई भी
अब भी बहनें
बाँध रही हैं राखी
लायीं मिठाई भी
*
दुनिया का बाज़ार बड़ा है
पुरा संस्कृति का यह देश
विश्व गुरु को रोज पढ़ाते
आतंकी घुस पाठ विशेष
छप्पन इंची चौड़ी छाती
अच्छे दिन ले आयी है
सैनिक अनशन पर बैठे
पर शर्म न आयी अब तक लेश
सैद्धांतिक सहमति पर
अफसर कुंडलि मारे बैठे हैं
नेता जी खुश विजय-पर्व पर
सैनिक नोचें अपने केश
बहनें दुबली हुई
फ़िक्र से, भूखा
सैनिक भाई भी
अब भी बहनें
बाँध रही हैं राखी
लायीं मिठाई भी
*
व्यथा न सुनता कोई
नौ-नौ आँसू रुला रही है प्याज
भरी तिजोरी तेजडियों की
चंदा दे, लूटें कर राज
केर-बेर का संग, बना
सरकार दोष दें पिछलों को
वादों को जुमला कह भूले
जनगण-मन पर गिरती गाज
प्रोफाइल है हाई, शादियाँ
पाँच करें बेटी मारें
मस्ती मौज मजा पाने को
बेच रहे हैं धनपति लाज
बने माफिया खुद
जनप्रतिनिधि,
संसद लख शर्माई भी
अब भी बहनें
बाँध रही हैं राखी
लायीं मिठाई भी
*
लघु कथा
काल्पनिक सुख
*
'दीदी! चलो बाँधो राखी' भाई की आवाज़ सुनते ही उछल पडी वह। बचपन से ही दोनों राखी के दिन खूब मस्ती करते, लड़ते का कोई न कोई कारण खोज लेते और फिर रूठने-मनाने का दौर।
'तू इतनी देर से आ रहा है? शर्म नहीं आती, जानता है मैं राखी बाँधे बिना कुछ खाती-पीती नहीं। फिर भी जल्दी नहीं आ सकता।'
"क्यों आऊँ जल्दी? किसने कहा है तुझे न खाने को? मोटी हो रही है तो डाइटिंग कर रही है, मुझ पर अहसान क्यों थोपती है?"
'मैं और मोटी? मुझे मिस स्लिम का खिताब मिला और तू मोटी कहता है.... रुक जरा बताती हूँ.'... वह मारने दौड़ती और भाई यह जा, वह जा, दोनों की धाम-चौकड़ी से परेशान होने का अभिनय करती माँ डांटती भी और मुस्कुराती भी।
उसे थकता-रुकता-हारता देख भाई खुद ही पकड़ में आ जाता और कान पकड़ते हुई माफ़ी माँगने लगता। वह भी शाहाना अंदाज़ में कहती- 'जाओ माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे?'
'अरे! हम भूले ही कहाँ हैं जो याद रखें और माफी किस बात की दे दी?' पति ने उसे जगाकर बाँहों में भरते हुए शरारत से कहा 'बताओ तो ताकि फिर से करूँ वह गलती'...
"हटो भी तुम्हें कुछ और सूझता ही नहीं'' कहती, पति को ठेलती उठ पड़ी वह। कैसे कहती कि अनजाने ही छीन गया है उसका काल्पनिक सुख।
***
मुक्तक
मधु रहे गोपाल बरसा वेणु वादन कर युगों से
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से
कहाँ नटनागर मिलेगा,पूछते रणछोड़ से क्यों?
बढ़ चलें सब भूल तो ही पा सकें नन्हें पगों से
*
रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
८-८-२०१७
***
सलिल एक सागर
कल्पना भट्ट
*
सागर की तरह गहरे हो
यथार्थ ज्ञान के सागर
भरी हुई है विद्या की गगरी
सौम्य छवि सरल स्वाभाव
कितने सरल
फिर भी कितने गहरे
एक सागर की तरह
समाये हुए हो
अनगिनित लोगों की प्रीत
कितने गुणी हो
स्वाभिमानी हो
मिटटी से जुड़े हुए
आसमान की तरह
उड़ते परिंदों को देखते
८.८.२०१६
***
दोहा सलिलाः
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
बंध न = मुक्त रह, बंधन = मुक्त न रह
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
8-8-2014
*
गीत:
कब होंगे आजाद
*
कब होंगे आजाद?
कहो हम कब होंगे आजाद?....
*
गए विदेशी पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन.
भाषण देतीं सरकारें पर दे न सकीं हैं राशन..
मंत्री से संतरी तक कुटिल कुतंत्री बनकर गिद्ध-
नोच-खा रहे भारत माँ को ले चटखारे स्वाद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
*
नेता-अफसर दुर्योधन हैं, जज-वकील धृतराष्ट्र.
धमकी देता सकल राष्ट्र को खुले आम महाराष्ट्र..
आँख दिखाते सभी पड़ोसी, देख हमारी फूट-
अपने ही हाथों अपना घर करते हम बर्बाद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
*
खाप और फतवे हैं अपने मेल-जोल में रोड़ा.
भष्टाचारी चौराहे पर खाए न जब तक कोड़ा.
तब तक वीर शहीदों के हम बन न सकेंगे वारिस-
श्रम की पूजा हो समाज में, ध्वस्त न हो मर्याद.
कब होंगे आजाद?कहो हमकब होंगे आजाद?....
*
पनघट फिर आबाद हो सकें, चौपालें जीवंत.
अमराई में कोयल कूके, काग न हो श्रीमंत.
बौरा-गौरा साथ कर सकें नवभारत निर्माण-
जन न्यायालय पहुँच गाँव में विनत सुनें फ़रियाद-
कब होंगे आजाद?कहो हम कब होंगे आजाद?....
*
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान.
समझ बढ़े तो सीखें रुचिकर, धर्म प्रीति विज्ञान.
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग 'सलिल' हो पायेगा तब धरती पर आबाद.
कब होंगे आजाद?कहो हम कब होंगे आजाद?....
८-९-२०१०
***

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

अगस्त ७, सॉनेट, लघुकथा, चित्रगुप्त, मैं, तुम, ज्योतिष जन्म लग्न, पूर्णिका

सलिल सृजन अगस्त ७
*
पूर्णिका
.
कहिए कम, पढ़िए अधिक
सत् के प्रति रखिए ललक
,.
मंज़िल पाने के लिए
हँसकर श्रम करिए अथक
.
सिर पर चढ़कर बोलती
सुरा पिएँ यदि आप तक
.
सँकुचे-मुरझाए कली
भ्रमर तके घर एकटक
.
अगर शत्रु से सामना
भाई से मत हों पृथक
.
करें फैसले सोचकर
सही न होते यक-ब-यक
.
अपनापन संजीवनी
‌हरता मन का चैन शक
७.८.२०२५
०००
ज्योतिष
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***
सॉनेट
असली-नकली
असली-नकली चित-पट जैसे,
रहते साथ, न साथ निभाते,
दृश्य दिखाते कैसे-कैसे,
कभी नाचते, कभी नचाते।
जब मिलते लड़ते टें-टें कर,
यह उसको है धता बताता,
पक्ष-विपक्ष सदृश चें-चें कर
वह इसको है जीभ चिढ़ाता।
नूरा कुश्ती करते रहते,
ताल ठोंकते, ताली मारें,
नीर-क्षीर सम कभी न मिलते,
यह चिंघाड़े, वह फुंँफकारे।
खोटी मुद्रा कब्जा करती।
खरी न टिक पाती है डरती।।
७-८-२०२३
•••
कृतिचर्चा :
'रेत हुआ दिन' गीत के बिन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : रेत हुआ दिन, नवगीत संग्रह, जयप्रकाश श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण अगस्त २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ संख्या १२४, आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड, मूल्य १५०/-, युगधारा प्रकाशन लखनऊ, गीतकार संपर्क : ७८६९१ ९३९२७, ९७१३५ ४४६४२।]
*
मनुष्य का गीत से प्रथम परिचय माँ की लोरी के मध्यम से होता है। गर्भ में लोरता (करवट बदलता) गुनगुनाहट की प्रतीति से हर्षित होता है। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह प्रवेश की विद्या माँ सुभद्रा के गर्भ में ही सीखी थी। इस पौराणिक आख्यान की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करता है। श्वास-प्रश्वास की लय के साथ माँ के कंठ से नि:सृत गीत को शिशु जन्म पूर्व ही पहचान लेता है और जन्मोपरांत सुन कर रोते-रोते चुप हो जाता है। वाचिक लय बद्ध गीतिकाव्य लिपिबद्ध होने पर वार्णिक-मात्रिक छंद के रूप में पहचाना जाकर 'गीत' कहलाता है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, रस, छंद, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, शैली आदि हैं। गीत के किसी तत्व में 'नवता' होने पर उसे 'नवगीत' कहा जाना चाहिए जैसे यौवन में प्रवेश करते युवा को 'नवयुवक' कहा जाता है। 'नवता' रूढ़ नहीं हो सकती, वह सतत परिवर्तित होती चेतना है। हिंदी में नवगीत को आंदोलन की तरह अधिरोपित करने का प्रयास साम्यवाद के प्रति प्रतिबध्द गीतकारों ने लगभग आठ दशक पूर्व किया। तब जिसने जैसी परिभाषा प्रस्तुत की उसे रूढ़ मानकर आज भी नवगीत रचे जा रहे हैं। अंतर मात्र यह है कि आरंभ में जो विषय और विचार नए थे, वे अब घिसते-घिसते जराजीर्ण होकर नवता का उपहास करते प्रतीत होते हैं। सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं और टटकेपन के नाम पर नवगीत को नकारात्मक ऊर्जा का भंडार बना दिया गया है। भारतीय लोक मनीषा उत्सव धर्मी है। वह अभावों में भी हँसना जानती है, लोकदेवता शिव विष पीकर भी अमर हो जाते हैं। ऋतु परिवर्तन, कृषि जन्य बीज बोने, रोपे लगाने, फसल देखने-काटने आदि ही नहीं भोर और साँझ होने पर भी गीत गायन लोक जीवन का अंग है। सरस गीतों को गाकर जिजीविषाजयी होते लोक को तथाकथित नवगीतीय शोकमुद्रा रास नहीं आई। फलत:, नवगीत लोक से कटकर नवगीतकारों के खेमे तक सीमित रहकर दम तोड़ने लगा।
नवगीत को इस विवशता से मुक्ति देकर नवजीवन देने के लिए सतत सृजनरत कलमों में एक कलम है जयप्रकाश श्रीवास्तव की। संयोगवश उनका नाम ही प्रकाश का जयघोष करता है और यह भी कि नवगीत को 'श्री' वास्तव में तभी मिल सकती है जब वह प्रकाश की जय बोले, जीवन में रस घोले, जिसे गुनगुनाकर कोई आमजन किसी नदी-निर्झर के किनारे डोले। रचनात्मक परिवर्तन एकाएक और पूरी तरह एक बार में नहीं होता, वह क्रमिक रूप से सामने आता है। पहली दो गीत कृतियों मन का साकेत और परिंदे संवेदना के में जयप्रकाश के गीत विविध रसों में स्नान करते प्रति होते हैं जबकि तीसरा संग्रह 'शब्द वर्तमान' के गीत विसंगति-विडंबना प्रधान हैं। जय प्रकाश का 'शिक्षक' जानता है उजाला और अँधेरा सहोदर होते हैं किंतु पर्व 'अँधेरे का नहीं, उजाले का मनाया जाता है और यह भी कि अँधेरा स्वयमेव हो जाता है, उजाला करना होता है। वे अपने चौथी गीत कृति 'रेत हुआ दिन' में गीतों के माध्यम से उजाला करने की ओर कदम बढ़ाते हैं।
आँगनों की धूप
छत की मुँडेरों पर
बैठ दिन को भेज रही है।
यहाँ किसी एक आँगन की नहीं, आँगनों की जा रही है, धूप दिन को भज रही है, दिन कर्मठता का आह्वान करता है। गीतकार धूप के माध्यम से कर्मयोग का संकेत करता है।
सुबह की ठिठुरन
रजाई में दुबकी
रात भरती उसाँसें
लेती है झपकी
सिहरते से रूप
काजल कोर बहती
आँख सपने तज रही है।
यह अन्तरा विश्राम करती रात और सुबह की ठिठुरन से उबरकर आँख को सपने तजकर सच से साक्षात करने की प्रेरणा दे रहा है। अगले अन्तरे में कर्म-संदेश और उभरता है आलस अंगड़ाई लेकर हँसते हुए फटकने-बुहारने का काम करने को उद्यत होता है।
अलस अँगड़ाई
उठा घूँघट खड़ी है
झटकती सी सिर
हँसी होंठों जड़ी है
फटकती है सूप
झाड़ू से बुहारे
भोर उजली सज रही है।
अंतिम अंतरे में सुआ बटलोई चढ़ाकर चित्रकोटी पढ़ रहा है, कूप जग गए हैं, पनघट टेर रहा है और पायल छनक रही है। स्पष्ट: समूचा गीत, नकारात्मकता पर सकारात्मकता का विजय नाद गुँजा रहा है। यह नवता ही नवगीत को नवजीवन देने में समर्थ होगी। अभिव्यक्ति ही जन-गण के मन को श्रम सीकर बहाने की प्रेरणा देगा।
जयप्रकाश विसंगतियों का महिममण्डन नहीं करते, वे व्यवस्था के सामने सवाल उठाते हैं -
क्यों हैं चिड़िया गुमसुम बैठी?
क्यों आँगन खामोश हुआ है?
गीत की १४ पंक्तियाँ 'क्यों' के माध्यम से, बिना कहे पाठक के मन में बदलाव की चिंगारी सुलगाने के लिए ईंधन का काम करती हैं। घिसे-पिटे नवगीतों का वैषम्य-विलाप यहाँ नहीं है।
नवगीतों के कलेवर को और अधिक स्पष्ट और प्रेरक हुए जयप्रकाश आशावादिता, हर्ष और हुलास को नवगीत का कलेवर बनाते हुए 'आओ तो' शीर्षक गीत में श्रृंगार सुरभि से नवगीत का सत्कार करते हैं-
कुछ सपनों ने
जन्म लिया है
तुम आओ तो आँखें खोलें।
नींद सुलाकर
गई अभी है
चंदा ने गाई है लोरी
रात झुलाती रही पालना
दूध-भात की लिए कटोरी
फूलों ने है
गंध बिखेरी
तुम हँस दो तो दर्पन बोलें।
किरन डोर से बँधे उजाले लेकर आती भोर, धूप उगाता सूरज, मंदिर में बजती घंटियाँ, पंछियों के कलरव, सुवासित समीर में अमृत घोलते भजन-आरती आदि को प्रतिबद्ध विचारधारा के बंदी मठाधीशों ने बहिष्कृत कर रखा था। 'काल है संक्रांति का' से नवगीतों की जमीन में लोक छंदों और लोक गीतों को रोपने के जिस कार्य का श्री गणेश किया गया था, उसे जयप्रकाश जी ने आगे बढ़ाया है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर की नवगीत कार्यशालाओं के अभिन्न अंग के रूप में जयप्रकाश जी नवगीत के जमीनी जुड़ाव को भाषिक टटकापन तक सीमित न रखकर लोक जीवन से संश्लिष्ट रखने के पक्षधर रहे हैं।
जीतने की ज़िद और जीने की जिजीविषा को नवगीत में लाता है नवगीत 'एक जंगल'-
एक जंगल
खड़ा है चुपचाप
पीकर आग का दरिया
है अभी जीवित
सदी मुझमें
हरापन बोलता है
जड़ों से लेकर
शिराओं में
लहू बन डोलता है
चहकती है
सुन नई पदचाप
आँगन गंध गौरैया।
'फटेहाल / सी रहा ज़िंदगी / बैठ मेड़ पर रमुआ' कोशिश करते रहने का संदेश देता नवगीत है।
नवगीत में 'जगती आस / पत्ते नयापन बुनते', 'डालियों पर / फुदकते संलाप', 'अंकुरित फिर से / हुआ है बीज' शब्दावली मरुथल में ताजी सावनी बयार के झोंके की तरह जान में जान फूँकने में समर्थ है।
नवगीत में प्रेम को वर्ज्य मानने की जड़ता पर शब्द प्रहार करते जयप्रकाश 'चलो प्रेम की ऊँगली थामें / कुछ दूरी तक साथ चलें', 'आओ, स्नेह भरे बालों से / मन के सब कल्मष धोलें', 'माटी सोंधी अपनेपन की / बोयें खुशियों की फसलें' पर ही न रुककर नवगीत को सकारात्मक सोद्देश्यता देते हुए 'घुट-घुटकर जीने से अच्छा / पल दो पल गालें। हँस लें' का जय घोष करते हैं।
विसंगति और त्रासदी में भी जीवट और जिजीविषा को मरने न देना इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है।
वह लड़की
कचरे के ढेर में
खोजे टुकड़े सपनों के।
काँधे पर लादे
सूरज की गठरी
परे हटा जागे
अंधियारी कथरी
बढ़ती कुछ
पाने के फेर में
काम आए जो अपनों के।
नवगीतों में संदेशपरकता, बोधात्मकता तथा संप्रेषणीयता का सम्यक तालमेल जयप्रकाश कर सके हैं। 'हमने साथ / भीड़-भाड़ से/ हरकर चलना सीख लिया', 'मत डराओ / खौलती खामोशियों से / हमने कोलाहल पिया है', 'आओ मिल-बैठकर / सुलझाएँ गुत्थियाँ / धो डालें मन के सब मैल' आदि दृष्टव्य हैं।
नवगीतों में पारिवारिक सहजता और स्नेहपरकता घोलकर उसे सहजग्राह्य बनाने में विनोद निगम का सानी नहीं है। जयप्रकाश भी पीछे नहीं है- 'तुम आँगन में / स्वेटर बुनती / मैं पढ़ता अखबार / वहीं धूप अठखेली करती', 'फिर यादों के / नीम झरोखे में आ बैठा / दादी का सपना', तुम नहीं आए / तुम्हारी याद आई / आँख से आँसू झरे'।
'रेत हुआ दिन' नवगीतकार जयप्रकाश श्रीवास्तव के नए तेवरों से समृद्ध ऐसा नवगीत संकलन है जो नई कलमों को नैराश्य के दंडकारण्य से निकाल कर उल्लास के सतपुड़ा-वनों में, हरसिंगारी पौधरोपण की प्रेरणा देकर नवगीत को 'स्यापा गीत' बनने से बचाकर, सोहर, चैती या राई के निकट ले जाएगा। इन नवगीतों में आह्वान गीत की छुअन, मिलन गीत का हुलास, बोध गीत की संदेशपरकता, जागरण गीत की सोद्देश्यता का परस इन्हें हर दिन छाप रहे नवगीतों की भीड़ से अलग खड़ा करता है। स्वाभाविक है कि लकीर के फकीर मठाधीशों को यह स्वर सहज स्वीकार न हो किन्तु बहुसंख्यक पाठक और नवगीतकार इनमें डूब-उतरा कर फिर-फिर रसास्वादन करने के साथ-साथ अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
७-८-२०२१
***
भावांजलि
*
शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक
धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक
*
सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल
मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल
*
हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास
सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास
*
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास
सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास
*
राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार
ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार
*
वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय
लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय
*
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम
भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम
*
शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार
नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार
*
कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य
सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य
*
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण
दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण
*
महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व
फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य
*
चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न
निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न
*
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि
परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि
७-८-२०१९
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लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
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लघुकथा
निज स्वामित्व
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व?
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लघुकथा
शर संधान
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
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लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।
प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
७-८-२०१६
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जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद।
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
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चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
७-८-२०१४
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दोहा सलिला:
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए...
*
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन..
*
'तुम' से 'मैं' की गैरियत, है जी का जंजाल.
'सलिल' इसी में खैरियत, 'हम' बन हों खुशहाल..
*
'मैं' ने 'मैं' को कब दिया, याद नहीं उपहार?
'मैं' गुमसुम 'तुम' हो गयी, रूठीं 'सलिल' बहार..
*
'मैं' 'तुम' 'यह' 'वह' प्यार से, भू पर लाते स्वर्ग.
'सलिल' करें तकरार तो, दूर रहे अपवर्ग..
*
'मैं' की आँखों में बसा, 'तू' बनकर मधुमास.
जिस-तिस की क्यों फ़िक्र हो, आया सावन मास..
*
'तू' 'मैं' के दो चक्र पर, गृह-वाहन गतिशील.
'हम' ईधन गति-दिशा दे, बाधा सके न लील..
*
'तू' 'तू' है, 'मैं' 'मैं' रहा, हो न सके जब एक.
तू-तू मैं-मैं न्योत कर, विपदा लाईं अनेक..
*
'मैं' 'तुम' हँस हमदम हुए, ह्रदय हर्ष से चूर.
गाल गुलाबी हो गये, नत नयनों में नूर..
*
'मैं' में 'मैं' का मिलन ही, 'मैं'-तम करे समाप्त.
'हम'-रवि की प्रेमिल किरण, हो घर भर में व्याप्त..
७-८-२०१२
***

बुधवार, 6 अगस्त 2025

अगस्त ६, नवगीत, बाल गीत,

सलिल सृजन अगस्त ६
*
नवगीत :
*
संसद की दीवार पर
दलबन्दी की धूल
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*
राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]
६.८.२०१५
***
नवगीत:
आओ! तम से लड़ें
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
६.८.२०१४
***
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
६.८.२०११
***