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मंगलवार, 5 अगस्त 2025

अगस्त ५, हाइकु, नवगीत, नागफनी, राखी, लघुकथा, इतिहास, सॉनेट, मुक्तक, मुक्तिका

सलिल सृजन अगस्त ५
०५ अगस्त - शिवमंगल सिंह सुमन जयंती,
*
सॉनेट
भू सुता
हम भू सुता धरित्री माता,
इस युग की हम ही हैं सीता,
सास-बहू का स्नेहिल नाता,
हमने मिल हर संकट जीता।
श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे,
चिंता हो भविष्य की क्यों फिर,
हाथ न हमने कभी पसारे,
चाहे मुश्किल मेघ रहे घिर।
भीख न चाहें अनुदानों की,
हमें बेचना वोट न अपना,
चिंता हमें न सम्मानों की,
हम न देखते झूठा सपना।
बहा पसीना फसल उगाएँ।
खिला और को तब हम खाएँ।।
५-८-२०२३
•••
सॉनेट
ई डी, क्रय-विक्रय, निष्कासन
तंत्र लोक पर हावी दिन-दिन
मार पटखनी मिले अगिन-गिन
अंधभक्ति, बुलडोजर, भाषण
लगा रहे दम, निकल जाए दम
जो वे नहीं शत्रु, हैं हमदम
सोचें राज करेंगे हरदम
सुनें न आहें, जनता को गम
हर दिन करते नया तमाशा
फूट डालते खिला बताशा
मिटा रहे हर मूल्य तराशा
सद्भावों की थामे थाती
बनो ध्वंस के मत बाराती
नीर-क्षीर सम हो संगाती
५-८-२०२२
●●●
आज विशेष
करवट ले इतिहास
*
वंदे भारत-भारती
करवट ले इतिहास
हमसे कहता: 'शांत रह,
कदम उठाओ ख़ास
*
दुनिया चाहे अलग हों, रहो मिलाये हाथ
मतभेदों को सहनकर, मन रख पल-पल साथ
देश सभी का है, सभी भारत की संतान
चुभती बात न बोलिये, हँस बनिए रस-खान
न मन करें फिर भी नमन,
अटल रहे विश्वास
देश-धर्म सर्वोच्च है
करा सकें अहसास
*
'श्यामा' ने बलिदान दे, किया देश को एक
सीख न दीनदयाल की, तज दो सौख्य-विवेक
हिमगिरि-सागर को न दो, अवसर पनपे भेद
सत्ता पाकर नम्र हो, न हो बाद में खेद
जो है तुमसे असहमत
करो नहीं उपहास
सर्वाधिक अपनत्व का
करवाओ आभास
*
ना ना, हाँ हाँ हो सके, इतना रखो लगाव
नहीं किसी से तनिक भी, हो पाए टकराव
भले-बुरे हर जगह हैं, ऊँच-नीच जग-सत्य
ताकत से कमजोर हो आहात करो न कृत्य
हो नरेंद्र नर, तभी जब
अमित शक्ति हो पास
भक्ति शक्ति के साथ मिल
बनती मुक्ति-हुलास
(दोहा गीत: यति १३-११, पदांत गुरु-लघु )
***
मुक्तिका
*
बिन सपनों के सोना क्या
बिन आँसू के रोना क्या
*
वह मुस्काई, मुझे लगा
करती जादू-टोना क्या
*
नहीं वफा जिसमें उसकी
खातिर नयन भिगोना क्या
*
दाने चार न चाँवल के
मूषक तके भगोना क्या
*
सेठ जमीनें हड़प रहे
जानें फसलें बोना क्या
*
गिरती हो जब सर पर छत
सोच न घर का खोना क्या
*
जीव न यदि 'संजीव' रहे
फिर होना-अनहोना क्या
५-८-२०१९
***
लघुकथा
पहल
*
''आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! हम सब अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प इस रक्षाबंधन पर लें।''
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते नेताओं, अफ्सरों, पत्रकारों, अधिवक्ताओं और धन्नासेठों में से कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
रक्षा बंधन के दोहे:
*
चित-पट दो पर एक है, दोनों का अस्तित्व.
भाई-बहिन अद्वैत का, लिए द्वैत में तत्व..
.
दो तन पर मन एक हैं, सुख-दुःख भी हैं एक.
यह फिसले तो वह 'सलिल', सार्थक हो बन टेक..
.
यह सलिला है वह सलिल, नेह नर्मदा धार.
इसकी नौका पार हो, पा उसकी पतवार..
.
यह उसकी रक्षा करे, वह इस पर दे जान.
'सलिल' स्नेह' को स्नेह दे, कर निसार निज जान ..
.
बहिना नदिया निर्मला, भाई घट सम साथ .
नेह नर्मदा निनादित, गगन झुकाये माथ.
.
कुण्डलिनी ने बांध दी, राखी दोहा-हाथ.
तिलक लगाकर गीत को, हँसी मुक्तिका साथ..
.
राखी की साखी यही, संबंधों का मूल.
'सलिल' स्नेह-विश्वास है, शंका कर निर्मूल..
.
सावन मन भावन लगे, लाये बरखा मीत.
रक्षा बंधन-कजलियाँ, बाँटें सबको प्रीत..
.
मन से मन का मेल ही, राखी का त्यौहार.
मिले स्नेह को स्नेह का, नित स्नेहिल उपहार..
.
आकांक्षा हर भाई की, मिले बहिन का प्यार.
राखी सजे कलाई पर, खुशियाँ मिलें अपार..
.
राखी देती ज्ञान यह, स्वार्थ साधना भूल.
स्वार्थरहित संबंध ही, है हर सुख का मूल..
.
मेघ भाई धरती बहिन, मना रहे त्यौहार.
वर्षा का इसने दिया, है उसको उपहार..
.
हम शिल्पी साहित्य के, रखें स्नेह-संबंध.
हिंदी-हित का हो नहीं, 'सलिल' भंग अनुबंध..
.
राखी पर मत कीजिये, स्वार्थ-सिद्धि व्यापार.
बाँध- बँधाकर बसायें, 'सलिल' स्नेह संसार..
.
भैया-बहिना सूर्य-शशि, होकर भिन्न अभिन्न.
'सलिल' रहें दोनों सुखी, कभी न हों वे खिन्न..
...
मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
५-८-२०१७
***
कृति विवेचन-
संजीव वर्मा ‘सलिल’ की काव्य रचना और सामाजिक विमर्श
- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा
*
हिंदी जगत् मे साहित्यकार के रूप में संजीव 'सलिल' की पहचान बन चुकी है। यह उनके बहुआयामी स्तरीय लेखन के कारण संभव हो सका है। उन्होंने न केवल कविता, अपितु गद्य लेखन की राह में भी लम्बा रास्ता पार किया है। इधर साहित्यशास्त्र की पेचीदी गलियों में भी वे प्रवेश कर चुके हैं, जिनमें क़दम डालना जोखिम का काम है। यह कार्य आचार्यत्व की श्रेणी का है और 'सलिल' उससे विभूषित हो चुके हैं।
‘काल है संक्रान्ति का’ शीर्षक संकलन में उनकी जिन कविताओं का समावेश है, विषय की दृष्टि से उनका रेंज बहुत व्यापक है। उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है, जैसे एक जागरूक पहरुए के रूप में 'सलिल' ने समाज के पूरे ओर-छोर का मूल्यांकन कर डाला है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सब व्यक्ति की मनोवृत्तियों एवं प्रवृत्तियों के साक्ष्य पर लिखा है और जो कुछ कहा है, वह समाज के विघटनकारी घटकों का साक्षात अवलोकन कर कहा है। वे सब आँखिन देखी बातें हैं। इसीलिए उनकी अभिव्यंजाओं में विश्वास की गमक है। और जब कोई रचनाकार विश्वास के साथ कहता है, तो लोगों को सुनना पड़ता है। यही कारण है कि 'सलिल' की रचनाएँ पाठकों की समझ की गहराई तक पहुँचती है और पाठक उन्हें यों ही नहीं ख़ारिज कर सकता।
'सलिल' संवेदनशील रचनाकार हैं। वे जिस समाज में उठते-बैठते हैं, उसकी समस्त वस्तुस्थितियों से वाक़िफ़ हैं। वहीं से अपनी रचनाओं के लिए सामग्री का संचयन करते हैं। उन्हें शिद्दत से एहसास है कि यहाँ सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पूरे कुँए ही में भाँग पड़ी है। जिससे जो अपेक्षा है, वह उससे ठीक विपरीत चल रहा है। आम आदमी बुनियादी जरूरतों से महरूम हो गया है -
‘रोजी रोटी रहे खोजते / बीत गया
जीवन का घट भरते-भरते/रीत गया।’
-कविता ‘कब आया, कब गया’
‘मत हिचक’ कविता में देश की सियासती हालात की ख़बर लेते हुये नक्लसवादी हिंसक आंदोलन की विकरालता को दर्शाया गया है -
‘काशी, मथुरा, अवध / विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी / तज विद्रोह / हटेंगे क्या?’
‘सच की अरथी’ एवं ‘वेश संत का’ रचनाओं में तथाकथित साधुओं एवं महन्तों की दिखावटी धर्मिकता पर तंज कसा गया है।
'सलिल' की रचनाओं के व्यापक आकलन से यह बात सामने आयी है कि उनकी खोजी और संवेदनशाील दृष्टि की पहुँच से भारतीय समाज और देश का कोई तबका नहीं बचा है और अफसोस कि दुष्यन्त कुमार के ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ’ की तर्ज पर उन्हें भी कमोबेश इसी भयावह परिदृश्य का सामना करना पड़ा। इस विभाषिका को ही 'सलिल' ने कभी सरल और सलीस ढंग से, कभी बिम्ब-प्रतिबिम्ब शैली में और कभी व्यंजना की आड़ी-टेढ़ी प्रणालियों से पाठकों के सामने रखा, किन्तु चाहे जिस रूप में रखा, वह पाठकों तक यथातथ्य सम्प्रेषित हुआ। यह 'सलिल' की कविता की वैशिष्ट्य है, कि जो वे सोचते हैं, वैसा पाठकों को भी सोचने को विवश कर देते हैं।
अँधेरों से दोस्ती नहीं की जाती, किन्तु आज का आदमी उसी से बावस्ता है। उजालों की राह उसे रास नहीं आती। तब 'सलिल' की कठिनाई और बढ़ जाती है। वे हज़रत ख़िज्र की भाँति रास्ता दिखाने का यत्न करते तो हैं, किन्तु कोई उधर देखना नहीं चाहता-
‘मनुज न किंचित् चेतते / श्वान थके हैं भौंक’।
इतना ही नहीं, आदमी अपने हिसाब से सच-झूठ की व्याख्या करता है और अपनी रची दुनिया में जीना चाहता है - ‘मन ही मन मनमाफ़िक / गढ़ लेते हैं सच की मूरत’। ऐसे आत्मभ्रमित लोगों की जमात है सब तरफ।
'सलिल' की सूक्ष्मग्राहिका दृष्टि ने ३६० डिग्री की परिधि से भारतीय समाज के स्याह फलक को परखा है, जहाँ नेता हों या अभिनेता, जहाँ अफसर हो या बाबू, पूंजीपति हों या चिकित्सक, व्यापारी हों या दिहाड़ी -- सबके सब असत्य, बेईमानी, प्रमाद और आडंबर की पाठशाला से निकले विद्यार्थी हैं, जिन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ को सहलाने की विद्या आती है। इन्हें न मानव-मूल्यों की परवाह है और न अभिजात जीवन की चाह। ‘दरक न पाएँ दीवारें’, ‘जिम्मेदार नहीं है नेता’, ‘ग्रंथि श्रेष्ठता की’, ‘दिशा न दर्शन’ आदि रचनाएँ इस बात की प्रमाण हैं।
यह ज़रूर है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमानों पर आज के व्यक्ति और समाज की दशा भारी अवमूल्यन का बोध कराती है, किन्तु 'सलिल' पूरी तरह निराश नहीं हैं। वे आस्था और सम्भावना के कवि हैं। वे लम्बी, अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी देखने के अभ्यासी हैं। वे जानते हैं कि मुचकुन्द की तरफ शताब्दियों से सोये हुये लोगों को जगाने के लिए शंखनाद की आवश्यकता होती है। 'सलिल' की कविता इसी शंखनाद की प्रतिध्वनि है।
‘काल है संक्रान्ति का’ कविता संग्रह ‘जाग उठो, जाग उठो’ के निनाद से प्रमाद में सुप्त लोगों के कर्णकुहरों को मथ देने का सामर्थ्य रखती है। अँधेरा इतना है कि उसे मिटाने के लिए एक सूर्य काफी नहीं है और न सूर्य पर लिखी एक कविता। इसीलिए संजीव 'सलिल' ने अनेक कविताएँ लिखकर बार-बार सूर्य का आह्नान किया है। ‘उठो सूरज’, ‘जगो! सूर्य आता है’, ‘आओ भी सूरज’, ‘उग रहे या ढल रहे’, ‘छुएँ सूरज’ जैसी कविताओं के द्वारा जागरण के मंत्रों से उन्होंने सामाजिक जीवन को निनादित कर दिया है।
सामाजिक सरोकारों को लेकर 'सलिल' सदैव सतर्क रहते हैं। वे व्यवस्था की त्रुटियों, कमियों और कमज़ोरियों को दिखाने में क़तई गुरेज नहीं करतेे। उनकी भूमिका विपक्ष की भूमिका हुआ करती है। अपनी कविता के दायरे में वे ऐसे तिलिस्म की रचना करते हैं, जिससे व्यवस्था के आर-पार जो कुछ हो रहा है, साफ-साफ दिखाई दे। वे कहीं रंग-बदलती राजनीति का तज़किरा उठाते हैं -
‘सत्ता पाते / ही रंग बदले / यकीं न करना किंचित् पगले / काम पड़े पीठ कर देता / रंग बदलता है पल-पल में ’।
राजनीति का रंग बदलना कोई नयी बात नहीं, किंतु कुछ ज़्यादा ही बदलना 'सलिल' को नागवार गुजरता है। यदि साधुओं में कोई असाधु कृत्य करता दिखाई देगा, तो 'सलिल' की कविता उसका पीछा करते दिखाई देगी ‘वेश संत का / मन शैतान’।
‘राम बचाये’ कविता व्यापक संदर्भों में अनेक परिदृश्यों को सामने रखती है। नगर से गाँव तक, सड़क से कूचे तक, समाज के विविध वर्णों, वर्गों और जातियों और जमातों की विसंगतियों को उजागर करती करती उनकी कविता ‘राम बचाये’ पाठकों के हृदय को पूरी तरह मथने में समर्थ है। यह उनके सामर्थ्य की पहचान कराती कविता ही है, जो बहुत बेलाग तरीक़े से, क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसका भेद मिटाकर अपनी अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना की बाढ़ में सबको बहाकर ले जाती है।
................................
समीक्षक संपर्क- डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, ८१० विजय नगर, जबलपुर, चलभाष ९४२५३२५०७२।
***
नवगीत:
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
२६-२-२०१५
***
एक गीति रचना:
*
द्रोण में
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
२१-२-२०१५
***
नवगीत:
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आम आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
१४-२-२०१५
***
हाइकु नवगीत :
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
१३-२-२०१५
***
दिल्ली दंगल एक विश्लेषण:
.
- सत्य: आप व्यस्त, बीजेपी त्रस्त, कोंग्रेस अस्त.
= सबक: सब दिन जात न एक समान, जमीनी काम करो मत हो संत्रस्त.
- सत्य: आम चुनाव के समय किये वायदों को राजनैतिक जुमला कहना.
= सबक: ये पब्लिक है, ये सब जानती है. इसे नासमझ समझने के मुगालते में मत रहना.
- सत्य: गाँधी की दुहाई, दस लखटकिया विदेशी सूट पहनकर सादगी का मजाक.
= सबक: जनप्रतिनिधि की पहचान जन मत का मान, न शान न धाक.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: कार्यकर्ताओं द्वारा अधिकारियों पर दवाब और वसूली.
= सबक: जनता रोज नहीं टकराती, समय पर दे ही देती है सूली.
- सत्य: संसदीय बहसों के स्थान पर अध्यादेशी शासन.
= सबक: बंद न किया तो जनमत कर देगा निष्कासन.
- सत्य: विपक्षियों पर लगातार आघात.
= सबक: विपक्षी शत्रु नहीं होता, सौजन्यता न निबाहें तो जनता देगी मात.
- सत्य: आधाररहित व्यक्तित्व को थोपना, जमीनी कार्यकर्ता की पीठ में छुरा घोंपना.
= सबक: नेता उसे घोषित करें जिसका काम जनता के सामने हो, केवल नाम नहीं. जो अपने साथियों के साथ न रहे उसपर मतदाता क्यों भरोसा करे?
- सत्य: संसद ही नहीं टी.व्ही. पर भी बहस से भागना.
= सबक: अध्यादेशों में तानाशाही की आहात होती है. संसद में बहस न करना और दूरदर्शन पर उमीदवार का बहस से बचना, प्रवक्ताओं की अहंकारी और खुद को अंतिम मानने की प्रवृत्ति होती है बचकाना.
- सत्य: प्रवक्ताओं का दंभपूर्ण आचरण और दबंगपन.
= सबक: दूरदर्शनी बहस नहीं जमीनी संपर्क से जीता जाता है अपनापन.
- सत्य: आर एस एस की बैसाखी नहीं आई काम.
= सबक: जनसेवा का न मोल न दाम, करें निष्काम.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: प्रधानमंत्री द्वारा दलीय हितों को वरीयता देना, विकास के लिए अपने दल की सरकार जरूरी बताना.
= सबक: राज्य में सरकार किसी भी दल की हो, जरूरी है केंद्र का सबसे समानता जताना. अपना खून औरों का खून पानी मानना सही नहीं.
- सत्य: पूरा मंत्रीमंडल, संसद, मुख्यमंत्री तथा प्रधान मंत्री को उताराकर अत्यधिक ताकत झोंकना.
= सबक: नासमझी है बटन टाँकने के लिये वस्त्र में सुई के स्थान पर तलवार भोंकना.
- सत्य: हर प्रवक्ता, नेता तथा प्रधान मंत्री का केजरीवाल पर लगातार आरोप लगाना.
= सबक: खुद को खलनायक, विपक्षी को नायक बनाना या कंकर को शंकर बनाकर खुद बौना हो जाना.
- सत्य: चुनावी नतीजों का आकलन-अनुमान सत्य न होना.
= सबक: प्रत्यक्ष की जमीन पर अतीत के बीज बोना अर्थात आँख देमने के स्थान पर पूर्व में घटे को अधर बनाकर सोचना सही नहीं, जो देखिये कहिए वही.
- सत्य: आप का एकाधिकार-विपक्ष बंटाढार.
= सबक: अब नहीं कोई बहाना, जैसे भी हो परिणाम है दिखाना. केजरीवाल ने ठीक कहा इतने अधिक बहुमत से डरना चाहिए, अपेक्षा पर खरे न उतरे तो इतना ही विरोध झेलना होगा.
१०-२-२०१५
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
९-२-२०१५
***

सोमवार, 4 अगस्त 2025

अगस्त ४, गीत, हक, मुक्तक, हिंदी, हास्य, याद, महका महका

 दोहा सलिला

*
गीत-
आ! दुख को तकिया कर,
यादों को बिस्तर कर,
खुशियों के हो लें हम।
*
जब-जब खाई ठोकर,
तब-तब भूलें रोकर।
उठें-बढ़ें, मंजिल पा-
सपने नव बोलें हम।
*
मौज, मजा, मस्ती ही
ज़िंदगी नहीं होती।
चलो! श्रम, प्रयासों की-
राहें हँस खोलें हम।
*
तू-मैं को बिसराकर,
आजा हम हो जाएँ।
तू-तू-मैं-मैं भूलें-
स्नेह-प्रेम घोलें हम।
*
बीजे शत उगने दें,
अंकुर हर बढ़ने दें।
पल्लव हों कली-पुष्प-
फल पाएँ तौलें हम।
*
गुल सूखे थामे तू,
खत पीला बाँचूं मैं
फिर डूबें यादो में-
नींद मग्न हो लें हम।
२७.२.२०१८
***
मुक्तक
*
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
हिंदी- तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द-हिंदी' जाल पर
*
हिंदी में हिंदी नहीं तो, सब दुखी हो जाएँगे
बधावा या मर्सिया इंग्लिश में रटकर गाएँगे?
आरती या भजन समझेंगे नहीं जब देवता-
कहो कोंवेंट-प्रेमियों वरदान कैसे पाएँगे?
*
किस तरह मोती मिले बिन सीपिका
किस तरह तम से लड़ें बिन दीपिका
हो न शशि त्यागी, गुमेगी चाँदनी
अमावस में दिखे कैसे वीथिका
*
गले मिल, झगड़ा करो स्वीकार है
अधर पर रख अधर सिल, स्वीकार है
छोड़ दें हिंदी किसी भी शर्त पर
है असंभव यही अस्वीकार है
४.८.२०१८
***
नवगीत:
महका-महका
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
***
हास्य सलिला:
संवाद
*
'ए जी! कितना त्याग किया करती हैं हम बतलाओ
तुम मर्दों ने कभी नहीं कुछ किया तनिक शरमाओ
षष्ठी, करवाचौथ कठिन व्रत करते हम चुपचाप
फिर भी मर्द मियाँ मिट्ठू बनते हैं अपने आप'
"लाली की महतारी! नहीं किसी से कम हम मर्द
करें न परवा निज प्राणों की चुप सहते हर दर्द
माँ-बीबी दो पाटों में फँस पिसते रहते मौन
दोनों दावा करें अधिक हक़ उसका, टोंके कौन?
व्रत कर इतने वर माँगे, हैं प्रभु जी भी हैरान
कन्याएँ कम हुईं, न माँगी तुमने क्यों नादान?
कह कम ज्यादा सुनो हमेशा तभी बनेगी बात
जीभ कतरनी बनी रही तो बात बढ़े बिन बात
सास-बहू, भौजाई-ननद, सुत-सुता रहें गर साथ
किसमें दम जो रोक-टोंक दे?, जगत झुकाये माथ"
' कहते तो हो ठीक न लेकिन अगर बनाएँ बात
खाना कैसे पचे बताओ? कट न सकेगी रात
तुम मर्दों के जैसे हम हो सके नहीं बेदर्द
पहले देते दर्द, दवाकर होते हम हमदर्द
दर्द न होता मर्दों को तुम कहते, करें परीक्षा
राज्य करें पर घर आ कैसे? शिक्षा लो दे दीक्षा'
४.८.२०१५ 
***
मुक्तक
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
चन्दन तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द" अंतर्जाल पर
***
दोहा सलिला
मेघदूत संदेश ले, आए भू के द्वार
स्नेह-रश्मि पा सु-मन हँस, उमड़े बन जल-धार
*
पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान-मनुहार
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
४.८.२०१४
***
एक गीत:
हक
*
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न मन मिल पायें तो क्यों बन्धनों को ढोयें हम नाहक.....
*
न मैं नाज़ुक कि अपने पग पे आगे बढ़ नहीं सकता.
न तुम बेबस कि जो खुद ही गगन तक चढ़ नहीं सकता.
भले टेढ़ा जमाना हो, रुका है कब कहो चातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
न दिल कमजोर है इतना कि सच को सह नहीं पाए.
विरह की आग हो कितनी प्रबल यह दह नहीं पाए..
अलग हों रास्ते अपने मगर हों सच के हम वाहक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
जियो तुम सिर उठाकर, कहो- 'गलती को मिटाया है.'
जिऊँ मैं सिर उठाकर कहूँ- 'मस्तक ना झुकाया है.'
उसूलों का करें सौदा कहो क्यों?, राह यह घातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
भटक जाए, न गम होगा, तलाशेगा 'सलिल' मंजिल.
खलिश किंचित न होगी, मिल ही जाएगा कभी साहिल..
बहुत छोटी सी दुनिया है, मिलेंगे फिर कभी औचक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
४.८.२०१० 
*** 

रविवार, 3 अगस्त 2025

अगस्त ३, वर्षा गीत, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, नाग,

सलिल सृजन अगस्त ३
मित्रता दिवस
*
३ अगस्त- मित्रता दिवस, क्लोव्स (लौंग) सिंड्रोम जागरूकता दिवस, राष्ट्रीय तरबूज दिवस, हृदय प्रत्यारोपण दिवस, नाइजर स्वतंत्रता दिवस, मैथिलीशरण गुप्त जयंती, नीलम कुलश्रेष्ठ जन्म १९७१
गीत
*
बादल तो अब भी आते हैं
अमृत जल भी बरसाते हैं
लेकिन बच्चे नहीं भीगते
हम बच्चों को तरसाते हैं
*
नाव बनाना
कौन सिखाए?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आए.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं रीझते
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोई न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड़ विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
घर में बच्चे कैद खीझते
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं भीगते.
*
***
लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***
लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
***
मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
3-8-2016
***
नवगीत:
*
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
कृषक-सूर्य को
खिला कलेवा
उषा भेजती
गगन-खेत पर
रश्मि-बीज
देता बिखेर रवि
सकल भूमि पर
देख-रेखकर
नव उजास
पल्लव विकसे
निखर गया
वसुधा का रूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
हवा बहुरिया
चली मटककर
दिशा ननदिया
खीझे चिढ़कर
बरगद बब्बा
खांस-खँखारें
नीम झींकती
रात जागकर
फटक रही है
आलस-चोकर
उठा गौरैया
ले पर -सूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
लिव इन रिश्ते
पाल रही है
हर सिंगार संग
ढीठ चमेली
ठेंगा दिखा
खाप को खींसें
रही निपोर
जुही अलबेली
चाँद-चाँदनी
झाँक देखते
छवि, रीझा है
नन्ना कूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
***
लघुकथा
शब्द और अर्थ -
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .
हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'
'इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं.' एक स्वर से सबने कहा.
'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा.
'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.
गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- 'गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों की सहमति से करते हों.'
'जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं.' - जनतंत्र ने कहा.
लोकतंत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.
***
नवगीत
*
मक्के की दो रोटियाँ
चटनी -सरसों साग
मांग रही हैं अंतड़ियाँ
लगी पेट में आग
*
हुए नहीं अपने
झूठे हैं सपने
कभी लगे तपने
कभी लगे कँपने
तोड़ रहे हैं बोटियाँ
लेकिन लगी न लॉग
डूब रही हैं झुपड़ियाँ
बादल डँसते नाग
*
बेढब हैं नपने
खास लगे खपने
खाप लगे ग्रसने
जाल लगे फंसने
जाने कितनी कोटियाँ
नेता करिया नाग
लकड़ी सी हैं लड़कियाँ
ताक न लड़के भाग
3-8-2015
***
लेख :
नागको नमन :
*
नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.
पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?
3-8-2014
******

शनिवार, 2 अगस्त 2025

अगस्त २, सॉनेट, सरस्वती, ओंकार श्रीवास्तव, बाल गीत

 सलिल सृजन अगस्त २

*
सॉनेट
हम
हम अनेक पर एक हमारा देश है,
भाषा-भूषा, बोली, धर्म अलग अलग,
करें देश से प्रेम न अंतर लेश है,
सुख-दुख में सब साथ नहीं होते विलग।
कर में कर ले साथ झूमते गा रहे,
सोच एक ही, लक्ष्य एक सा, संग हम,
कदम ताल हम एक साथ कर पा रहे,
कहीं न करते कभी रंग में भंग हम।
हँसते-गाते, मौज मनाते बीतती,
अहा जिंदगी, साथ यार है, प्यार है,
श्वास घटों से खुशियाँ टपक न रीतती,
मन भाती तकरार, मृदुल मनुहार है।
तू-मैं तू तू मैं मैं को दें त्याग अब।
साध्य न हो वैराग्य, लक्ष्य अनुराग अब।।
२-८-२०२३
•••
सॉनेट
समझ
तुम शिक्षित हो, समझदार हम,
सीखो पर्यावरण यांत्रिकी,
जो न मिला उसका हो क्यों गम,
उपादान अनुकूल तांत्रिकी।
मांँ से बड़ा न है अभियंता,
काया बना करें संप्राणित,
करता नमन आप भगवंता,
मातृ-शक्ति से जग संचालित।
कंकर कंकर में है शंकर,
अंग-अंग ब्रह्माण्ड सचेतन,
पत्ता-पत्ता है दिक्-अंबर,
प्रकृति-पुत्र को सृष्टि निकेतन।
माँ तो माँ है, त्रिभुवन वंदित।
सर्व पूज्य यह, चंदन चर्चित।।
२-८-२०२३
•••
सॉनेट
डाकिया
लेकर डाक डाकिया दौड़े,
आतप वृष्टि शीत हर मौसम,
मानें हार निगोड़े घोड़े,
समदृष्टा हँस सहे शोक-गम।
राजमार्ग, पथ या पगडंडी,
इसको सम है शहर-गाँव भी,
छाता, बरसाती या बंडी,
रहे न सिर पर तनिक छाँव भी।
पत्थर, गड्ढे, काँटे भी पथ,
रोक न पाते, टोंक न पाते,
बनी साइकिल इसे कार-रथ,
कर्मवीर का यश कवि गाते।
घर घर संदेशा पहुँचाता।
बिछुड़ों को समीप ले आता।।
२-८-२०२३
•••
सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बनाएँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय कर दे.
स्वाभिमान भर दे.....
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम.
मानवता का त्रास हरें हम.
स्वार्थ सकल तज दे.....
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल'-अन्न भर दे...
***
भाई ओंकार श्रीवास्तव के प्रति
स्मरण गीत
*
वह निश्छल मुस्कान
कहाँ हम पायेंगे?
*
मन निर्मल होता तुममें ही देखा था
हानि-लाभ का किया न तुमने लेखा था
जो शुभ अच्छा दिखा उसी का वन्दन कर
संघर्षित का तिलक किया शुचि चन्दन कर
कब ओंकारित स्वर
हम फिर सुन पायेंगे?
*
श्री वास्तव में तुमने ही तो पाई है
ज्योति शक्ति की जन-मन में सुलगाई है
चित्र गुप्त प्रतिभा का देखा जिस तन में
मिले लक्ष्य ऐसी ही राह सुझाई है
शब्द-नाद जयकार
तुम्हारी गायेंगे
*
रेवा के सुत,रेवा-गोदी में सोए
नेह नर्मदा नहा, नए नाते बोए
मित्र संघ, अभियान, वर्तिका, गुंजन के
हित चिंतक! हम याद तुम्हारी में खोए
तुम सा बंधु-सुमित्र न खोजे पायेंगे
२.८.२०१६
***
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
२.८.२०१४
***