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शनिवार, 5 जुलाई 2025

जुलाई ५, अचल छंद, गुरु, षट्पदी, दोहा मुक्तक, चोका गीत, अमरनाथ, घनाक्षरी, आक्षेप अलंकार, हाइकु,

सलिल सृजन जुलाई ५
पूर्णिका
.
दैव की रजा
मजा ही मजा
.
वही है मिला
जिसे था तजा
.
रुके जब घड़ी
कहो क्या बजा?
.
काम बिन राम
क्या कभी भजा?
.
साँच की थाम
हाथ में ध्वजा
५.७.२०२५
०0०
सॉनेट
आना-जाना हो सुखदा प्रिय!
मोह न कर, मत नीर बहाना
पीर छिपा मन में, मुस्काना
ठौर-ठिकाना हो मुदिता प्रिय!
नहीं पनपने दे दुविधा प्रिय!
क्या छूटेगा?, क्या है पाना?
मस्ती में जी भरकर गाना
सहज मिले जो, वह सुविधा प्रिय!

पल भर भी मत धीरज खोना
और नहीं होना उदास मन
झूम सुनाना सॉनेट लिखकर।
हँस फसलें ख्वाबों की बोना
भर अँजुरी कर सलिल आचमन
जाग-जगा मन हो जा दिनकर।
५.७.२०२५
०0०
गुरुवंदन
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरुवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, अन्य नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वही गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
*
ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
*
गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
*
गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
*
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा, रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
५-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण ३
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मध-ुरस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
***
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
५-७-२०१९
***
हाइकु सलिला:
*
रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
***
रचना - प्रति रचना:
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए.
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए.
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,,
सिया-उमा-भोले जी के संग आ विराजिए.
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा किनारे 'सलिल' सँग पंजीरी फांकिये.
५-७-२०१८
***
दोहा मुक्तक सलिला:
अमरनाथ
*
अमरनाथ! रहिए सदय, करिए दैव निहाल।
करूँ विनय संकट हरें, प्रभु! तव ह्रदय विशाल।।
अमरनाथ की कृपा से, विजय-तिलक वर भाल।
करतल में करताल ले, भजन करे हर हाल।।
*
अमर नाथ; सेवक नहीं, पल में हो निर्जीव।
प्रभु संप्राणित करें तो, शव भी हो संजीव।।
भोले पल में तुष्ट हो, बनते करुणासींव।
रुष्ट हुए तो खैरियत, मन न सकता जीव।।
*
अमर नाथ जिसके न वह, रहे कभी भयभीत।
शब्द-सुमन अर्पित करे, अक्षर-अक्षर प्रीत।।
भाव-सलिल साथी बने, नव रस का हो मीत।
समर सत्य-हित कर सदा, निश्चय मिलना जीत।।
*
अमरनाथ-जयकार कर, शंका का हो अंत।
कंकर शंकर-दास हो, कोशिश कर-कर कंत।।
आनंदित हैं भू-गगन, नर्तित दिशा-दिगंत।
शून्य-सांत हैं जो वही, हैं सर्वस्व अनंत।।
*
अमर नाथ बसते वहीं, जहाँ 'सलिल' की धार।
यह पद-प्रक्षालन करे, वे रखते सिर-धार।।
गरल-अमिय सम भाव से, ईश करें स्वीकार।
निराकार हैं जो वही, हैं कण-कण साकार।।
*
अमरनाथ ही आस हो, शकुंतला सी श्वास।
प्रगति-योजना हर सके, जीवन का संत्रास।।
मन-दीपक जलता रहे, ले अधरों पर हास।
स्वेद खिले साफल्य का, सुमन बिखेर सुवास।।
*
अमरनाथ जो ठान लें, तत्क्षण करते काम।
राम मिल सकें जप 'मरा', सीधी हो विधि वाम।।
सुर-नर-असुरों से पूजें, करते काम तमाम।
दुराचार के नाश हित करते काम तमाम। ।
**
५.७.२०१८
***
एक षट्पदी:
*
ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव को जप, पी ब्रांडी-व्हिस्की-शैम्पेन,
रम पी राम-राम जप प्यारे, भाँग छान ले भोले मैन।
चिलम धतूरा चंचल चित ले, चिन्मय से साक्षात् करे-
चकित-भ्रमित या थकित अगर तू, खुद में डूब न हो बेचैन।
सुर-नर-असुर सुरा पीने हित, तज मतभेद एक होते
पी स्कोच चढ़ा ठर्रा सँग दीन-धनी दूरी खोते।।
५-७-२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल छंद से
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
***
एक दोहा
रमा रमा में मन रहा, किसको याद रमेश।
छोड़ विष्णु पुज रहीं हैं, लछमी सहित गणेश।।
५-७-२०१६
***
दोहा संग्रह की दोहा समीक्षा
(कृति विवरण: होते ही अंतर्मुखी, दोहा संग्रह, दोहाकार : स्वामी श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', पृष्ठ ११२, सजिल्द, बहुरंगी आकर्षक आवरण, १५० रु., आकार डिमाई, विद्या भगत प्रकाशन, रानी बाग, दिल्ली ३४.)
विश्व वांग्मय में नहीं, दोहा जैसा छंद.
छंदराज यह सूर्य सम, हरता तिमिर अमंद..
जन-जीवन पर्याय यह, जन-मानस का मित्र.
अंकित करता शब्दशः आँखों देखे चित्र..
होते ही अंतर्मुखी, दोहा रचिए आप.
बहिर्मुखी हो देखिये, शांति गयी मन-व्याप..
स्वामी श्यामानंद ने, रौशन शारद-कोष.
यह कृति देकर किया है, फिर दोहा- जयघोष..
सारस्वत वरदान सम, दोहा अद्भुत छंद.
समय सारथी सनातन, पथ दर्शक निर्द्वंद..
गीति-गगन में सोहता, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद सुर किन्तु यह, है सुर-राज सुरेश..
सत्-चित-आनंद मन बसे, सत्-शिव-सुन्दर देह.
शेष अशेष विशेष है, दोहा निस्संदेह..
दो पद शशि-रवि, रात-दिन, इडा-पिंगला जान.
बना स्वार्थ परमार्थ को, बन जा मन मतिमान..
स्वामी श्यामानंद को है सरस्वती सिद्ध.
हर दोहा-शर कर रहा, अंतर्मन को बिद्ध..
होते ही अंतर्मुखी, रौशन हुआ जहान.
दीखता हर इन्सान में बसा हुआ भगवान्..
हिंदी उर्दू संस्कृत पिंगल में निष्णात.
शब्द-ब्रम्ह आराधना, हुई साध्य दिन-रात..
दोहा-लेखन साधना, करें ध्यान में डूब.
हर दोहा दिल को छुए, करे प्रभावित खूब..
पढिये-गुनिये-समझिये, कवि के दोहे चंद.
हर दोहे की है अलग, दीप्ति-उजास अखंड..
''दोहा कहना कठिन है, दुष्कर है कवि-कर्म.
कितनों को आया समझ, दोहे का जो मर्म..''--पृष्ठ १७
''दोहा कहने की कला, मत समझो आसान.
धोखा खाते हैं यहाँ, बड़े-बड़े विद्वान्..'' -''--पृष्ठ १७
सरल-शुद्ध शब्दावली, सरस उक्ति-माधुर्य.
भाव, बिम्ब, लय, कथ्य का, दोहों में प्राचुर्य..
''दोहे में मात्रा गिरे, है भारी अपराध.
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध..''--पृष्ठ १७
प्रेम-प्यार को मानते, हैं जीवन का सार.
स्वामी जी दे-पा रहे, प्यार बिना तकरार..
''प्यार हमारा धर्म है, प्यार दीन-ईमान.
हमने समझा प्यार को, ईश्वर का वरदान..''--पृष्ठ २२
''उपमा सच्चे प्रेम की, किससे दें श्रीमान?
प्रेम स्वयं उपमेय है, प्रेम स्वयं उपमान..''--पृष्ठ २१
दिखता रूप अरूप में, है अरूप खुद रूप.
द्वैताद्वैत भरम मिटा, भिक्ष्क लगता भूप..
''रूप कभी है छाँव तो, रूप कभी है धूप.
जिससे प्रगत रूप है, उसका रूप अनूप''--पृष्ठ २४
स्वामी जी की संपदा, सत्य-शांति-संतोष.
देशप्रेम, सत् आचरण, संयम सुख का घोष..
देख विसंगति-विषमता, कवि करता संकेत.
सोचें-समझें-सुधारें, खुद को खुद अभिप्रेत..
''लोकतंत्र में भी हुआ, कैसा यह उपहास?
इंग्लिश को कुर्सी मिली, हिंदी को वनवास..''--पृष्ठ २७
''राजनीति के क्षेत्र में सबके अपने स्वार्थ.
अपने-अपने कृष्ण हैं, अपने-अपने पार्थ..''--पृष्ठ ३८
''ले आया किस मोड़ पर सुन्दरता का रोग.
देह प्रदर्शन देखते आंखें फाड़े लोग..''--पृष्ठ ४३
''कैसे इनको मिल गया, जनसेवक का नाम?
खून चूसना ही अगर, ठहरा इनका काम..''--पृष्ठ ५३
शायर सिंह सपूत ही, चलें तोड़कर लीक.
स्वामी जी काव्य पढ़, उक्ति लगे यह ठीक..
''रोती रहती है सदा, रात-रात भर रात,
दिन से होती ही नहीं, मुलाकात की बात..''--पृष्ठ ६२
कवि कहता है- ''व्यर्थ है, सिर्फ किताबी ज्ञान.
करना अपने ढंग से, सच का सदा बखान..'
''भौंचक्के से रह गए द्वैत और अद्वैत.
दोनों पर भारी पड़ा, केवल एक लठैत..''--पृष्ठ ६४
''मँहगा पड़ता है सदा, माटी का अपमान.
माटी ने माटी किया, कितनों का अभिमान..''--पृष्ठ ८३
'गंता औ' गन्तव्य का, जब मिट जाता द्वैत.
बने आत्म परमात्म तब, शेष रहे अद्वैत..
''चलते-चलते ही मिला, मुझको यह मन्तव्य.
गंता भी हूँ मैं स्वयम, और स्वयं गन्तव्य..''--पृष्ठ ११०
दोहे श्यामानंद के, 'सलिल' स्नेह की धार.
जो पड़ता वह डूबता, डूबा लगता पार..
अलंकार, रस, बिम्ब, लय, भाव भरे भरपूर.
दोहों को पढ़ सीखिए, दोहा छंद जरूर..
दोहा-दर्पण दिखाता, 'सलिल'-स्नेह ही सत्य.
होते ही अंतर्मुखी, मिटता बाह्य असत्य..
रचिए दोहे और भी, रसिक देखते राह.
'सलिल' न बूडन से डरे, बूडे हो भव-पार..
*
***
मुक्तिका:
*
नित नयी आशा मुखर हो साल भर
अब न नेता जी बजायें गाल भर
मिले हिंदी को प्रमुखता शोध श्री
तोड़कर अंग्रेजियत का जाल भर
सनेही है राम का जो लाल वह
चाहता धरती रहे खुशहाल भर
करेगा उद्यान में तब पुष्प राज
जब सुनीता हो हमारी चाल भर
हों खरे आचार अपने यदि सदा
ज्योति को तम में मिलेगा काल भर
हसरतों पर कस लगामें रे मनुज!
मत भुलाना बाढ़ और भूचाल भर
मिटेगी गड़बड़ सभी कानून यदि
खींच ले बिन पेशियों के खाल भर
सुरक्षित कन्या हमेशा ही रहे
संयमित जीवन जियें यदि लाल भर
तंत्र सुधरेगा 'सलिल' केवल तभी
सम रहें सबके हमेशा हाल भर
५-७-२०१५
***
आइये, सोचें-विचारें
*
जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
५-७-२०१०
***

मदन महल : एक अध्ययन

शोध 
-: गोंड़ दुर्ग मदन महल : एक अध्ययन :- 
संजीव वर्मा 'सलिल', अभियंता
मयंक वर्मा, वास्तुविद
* प्रस्तावना
मदन महल पहुँच पथ, निर्माण काल, निर्माणकर्ता आदि।
भारत के हृदयप्रदेश मध्य प्रदेश के मध्य में सनातन सलिला नर्मदा के समीप बसे पुरातन नगर संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर-नागपुर मार्ग पर से लगभग ४.५ किलोमीटर दूर, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के सामने, तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ तक्नोलोजी की और जा रहे पथ पर मदन महल दुर्ग के ध्वंसावशेष हैं। इसके पूर्व प्रकृति का चमत्कार 'कौआडोल चट्टान' (संतुलित शिला,बैलेंस्ड रॉक) के रूप में है। यहाँ ग्रेनाइट पत्थर की विशाल श्याम शिला पर दूसरी श्याम शिला सूक्ष्म आधार पर स्थित है। देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि एक कौआ भी आकर बैठे तो चट्टान पलट जाएगी पर १९९३ में आया भयानक भूकंप भी इसका बाल-बाँका न कर सका।
मदन महल दुर्ग सन १११६ ईसवी में गोंड़ नरेश मदन शाह द्वारा बनवाया गया।१ गोंड़ साम्राज्य की राजधानी गढ़ा जो स्वयं विशाल दुर्ग था, के निकट मदन महल दुर्ग निर्माण का कारण, राज-काज से श्रांत-क्लांत राजा के मनोरंजन हेतु सुरक्षित स्थान सुलभ करने के साथ-साथ आपदा की स्थिति में छिपने अथवा अन्य सुरक्षित किलों की ओर जा सकने की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराना रह होगा। गढ़ा का गोंड़ साम्राज्य प्राकृतिक संपत्ति से समृद्ध था।
* गोंड़
भारत भूमि का 'गोंडवाना लैंड्स' नामकरण दर्शाता है कि गोंड़ भारत के मूल निवासी हैं। गोंड़ प्राकृतिक संपदा से संपन्न, सुसंस्कृत, पराक्रमी, धर्मभीरु वनवासी प्रजाति हैं जिनसे अन्य आदिवासी प्रजातियों, कुलों, कुनबों, वंशों आदि का उद्भव हुआ। गोंड़ संस्कृति प्रकृति को 'माता' मानकर उसका संवर्धन कर पोषित होती थी। गोंड़ अपनी आवश्यकता से अधिक न जोड़ते थे, न प्रकृति को क्षति पहुँचाते थे। प्रकृति माँ, प्राकृतिक उपादान पेड़-पौधे, नदी-तालाब, पशु-पक्षी आदि कुल देव। अकारण हत्या नहीं, अत्यधिक संचय नहीं, वैवाहिक संबंध पारस्परिक सहमति व सामाजिक स्वीकृति के आधार पर, आहार प्राकृतिक, तैलीय पदार्थों का उपयोग न्यून, भून कर खाने को वरीयता, वनस्पतियों के औषधीय प्रयोग के जानकार। गोंड़ लोगों ने १३ वीं और १९ वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना में शासन किया था। गोंडवाना वर्तमान में मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और ओडिशा के पश्चिमी भाग के अंतर्गत आता है। भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत,सिवान, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम - में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड़ जैसे समूह गोंडों की जातीय भाषा गोंड़ी बोलते हैं जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है। आस्ट्रोलायड नस्ल की जनजातियों की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बँटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद' कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। विवाह के लिये लड़के द्वारा लड़की को भगाए जाने की प्रथा है। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा सम्पन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।
युवकों की मनोरंजन संस्था - गोटुल का गोंड़ों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के मारिया गोंड़ों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाच-गान करते हैं।
गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा समाप्तप्राय है। गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है, खेती के लिये परिवारों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके। धीरे-धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। गोंड़ों की कुछ उपजातियां रघुवल, डडवे और तुल्या गोंड आदि सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, अन्य खेत मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।
गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ १५ वीं तथा १७ वीं शताब्दी राजगौंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। अब यह मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं।
किला/दुर्ग :
राजपरिवार के निवास तथा सुरक्षा के लिए महल बनाए जाते थे। महल के समीप बड़ी संख्या में दास-दासी, सैनिक, सवारी हेतु प्रयुक्त पशु, दूध हेतु गाय-भैंस, मनोरंजन हेतु पशु-पक्षी तथा उनके लिए आवश्यक आहार, अस्त्र-शस्त्रादि के भंडारण, पाकशाला आदि की सुरक्षा था प्राकृतिक आपदा या शत्रु आक्रमण से बचाव के लिए किले, दुर्ग, गढ़ आदि का निर्माण किया जाता था।
* किला 'कोट' (अरबी किला) चौड़ी-मजबूत दीवालों से घिरा स्थान होता था। इसमें प्रजा भी रह सकती थी। 'गढ़' (पुर-ऋग्वेद) छोटे किले होते थे। 'दुर्ग' सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य, अजेय होता था। दुर्ग की तरह अजेय देवी 'दुर्गा' शक्ति के रूप में पूज्य हैं। दुर्ग कई प्रकार के होते थे जिनमें से प्रमुख हैं -
अ. धन्व दुर्ग - धन्व दुर्ग थल दुर्ग होते हैं जिनके चतुर्दिक खाली ढलवां जमीन, बंजर मैदान या मरुस्थली रेतीली भूमि होती थी जिसे पार कर किले की ओर आता शत्रु देखा जाकर उस पर वार किया जा सके।
आ. जल दुर्ग - इनका निर्माण समुद्र, झील या नदी में पाने के बीच टापू या द्वीप पर किया जाता है। इन पर आक्रमण करना बहुत कठिन होता है। लंका समुद्र के बीच होने के कारण ही दुर्ग की तरह सुरक्षित थी। ये किले समतल होते हैं। टापू के किनारे-किनारे प्राचीर, बुर्ज तथा दीप-स्तंभ व द्वार बनाकर शत्रु का प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाता है। मुरुद जंजीरा का दुर्ग जल दुर्ग है।
इ. गिरि दुर्ग - किसी पहाड़ के शिखर को समतल कर उस पर बनाए गए दुर्ग को गिरि दुर्ग कहा जाता है। ग्वालियर, चित्तौड़, रणथंभौर के दुर्ग श्रेष्ठ गिरि दुर्ग हैं। पहाड़ी पर होने के कारण इनमें प्रवेश के मार्ग सीमित होते हैं। तलहटी से किये गए शत्रु के वार नहीं पहुँच पाते जबकि किले से किए गए प्रहार घातक होते हैं।
ई. गिरि पार्श्व दुर्ग - इनका निर्माण पहाड़ के ढाल पर किया जाता है। जहाँ पहाड़ के दूसरी और से आक्रमण की संभावना न हो वहाँ इस तरह के दुर्ग बनाये जाते हैं।
उ. गुहा दुर्ग - गुहा दुर्ग का निर्माण ऐसी तलहटी में किया जाता है जिसके चारों ओर ऊँचे पर्वत शिखर हों जिन पर निगरानी चौकियाँ बनाई जा सकें।
ऊ. वन दुर्ग - इन दुर्गों का निर्माण सघन वन में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के मध्य किया जाता है ताकि दूर से उनका होना ज्ञात न हो। कंकवारी दुर्ग अलवरइसी तरह का दुर्ग है।
ऊ. नर दुर्ग - नर दुर्ग का निर्माण युद्ध में व्यूह की तरह किया जाता है। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु का वध करने के लिए बनाया गया चक्रव्यूह नर दुर्ग ही था।
* मदनमहल
मदनमहल का दुर्ग एक पहाड़ी के ऊपर होने के कारण सामान्यत: गिरि दुर्ग कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह पहाड़ी लगभग ५०० मीटर ऊँची है। इस पर चढ़ पाना दुष्कर नहीं है। मदनमहल के चतुर्दिक तालाब हैं। आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जब यह दूर बनाया गया तब ये तालाब बहुत गहरे और बड़े रहे होंगे। इस पहाड़ी के चारों ओर घना वन रहा होगा जिसमें हजारों गगनचुंबी वृक्ष रहे होंगे।
* मदन महल स्थल चयन:
किसी दुर्ग के निर्माण का महत्वपूर्ण पक्ष स्थल-चयन है। मदन महल के निर्माण का निर्णय लिए जाने पर इसके चारों ओर की भूमि की प्रकृति पर विचार करना होगा। मदन महल का दुर्ग वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरि दुर्ग का मिला-जुला रूप है।
१. प्राकृतिक सुरक्षा-निगरानी- इसके समीप ही गढ़ा का विशाल दुर्ग (जिसके स्थान पर गढ़ा और जबलपुर बसा है) होने के कारण उस ओर (उत्तर व पूर्व) से आक्रमण की संभावना नहीं थी। उस ओर से पहुँच मार्ग रखा जाना सर्वथा निरापद है। शेष दो ओर (दक्षिण पूर्व से दक्षिण ) गहरा पहाड़ी ढाल होने से वहाँ से आक्रमण एकाएक नहीं हो सकता था। किले के अंदर और बाहर व्यवस्थाएँ की गई थीं। दक्षिण पूर्व में संग्राम सागर का विशाल सरोवर है।
२. मजबूत जमीनी आधार- मदन महल के निर्माण के लिए जिए भूखंड का चयन किया गया था वह कड़ी कंकरीली मुरम, नरम चट्टान तथा कड़ी चट्टान का क्षेत्र है। कारण बारहों महीने यहाँ बेरोक-टोक आया-जाया जा सकता था। मजबूत आधार भूमि होने के कारण नींव को गहरा या बड़ा रखने की जरूरत नहीं थी। दीवारों की मोटाई भी सामान्य रखी गई थी। इस कारण किले का निर्माणअपेक्षाकृत अल्पव्ययी रहा होगा। किले की बाह्य प्राचीर के अंदर सैन्य बल के रहवास, पाकशाला, अस्तबल (अश्वशाला), जल स्रोत, शस्त्रागार, बारादरी, सेवकों के आवास आदि का नर्माण किया गया होगा जिनके ध्वंसावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस किले के अंदर राजा-रानी के प्रवास हेतु दो ग्रेनाइट-चट्टानों पर लघु महल बनाया गया था जिसे भ्रमवश निगरानी चौकी कहा जाता है।
यहाँ यह समझना होगा कि राजा-रानी का स्थाई निवास गढ़ा किले था। मदन महल का निर्माण राजा-रानी के अल्प प्रवास हेतु था। इसलिए यह अन्य महलों की तरल विशालकाय नहीं है। इस महल का एक अन्य उपयोग यह था कि यहाँ राजकोष को छिपाने की गुप्त व्यवस्था की गई थी कि कभी पराजित होने पर मुख्य गढ़ा दुर्ग हाथ से निकल जाए तो भी कोष सुरक्षित रहे। लोकोक्ति है - 'मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच। जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट।' ऐसे आपातकाल में राजा-रानी आदि की सुरक्षित निकासी हेतु मदन महल में सुरंग भी बनाई गयी थी जो कालान्तर में बंद कर दी गई है।
३. ऊँचाई - किले तथा राजनिवास का निर्माण इस तरह किया गया है कि किला समीपस्थ क्षेत्र से ऊँचा रहे। किले की प्राचीरों की ऊँचाई के बराबर ऊँची श्याम शिलाओं के ऊपर राजसी दंपत्ति के लिए एक कक्ष बनाया गया था जो आज तक बचा है। इस तक पहुँचने के लिए जीना (सीढ़ियाँ) बहुत सुविधाजनक नहीं हैं ताकि कोई वेग के साथ एकाएक राजसी दंपत्ति के विश्राम कक्ष में प्रवेश न कर सके। सीढ़ियाँ ऊँची तथा घुमावदार हैं।
४. निर्माण सामग्री की सुलभता - यह स्थल चयन निर्माण सामग्री की सुलभता की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। यहाँ मिट्टी, मुरम, पत्थर, लकड़ी, बेल फल, श्रमिक तथा कारीगर आदि पर्याप्त मात्रा में तथा सस्ती दरों में सुलभ रहे होंगे।
५. पहुँच एवं निकासी मार्ग -मदन महल किले का सर्वज्ञात निकासी मार्ग पूर्व दिशा में है जबकि महल का निकासी द्वार उत्तर दिशा में है। वास्तु की दृष्टि से ऐसा किया जाना सर्वथा उचित और शास्त्र सम्मत था।
६. अदृश्यता - इस किले और महल का निर्माण सघन-ऊँचे वृक्षों के मध्य इस तरह किया गया था कि द्वार के सम्मुख आ जाने तक यह निश्चित न हो सके कि किला इतने सन्निकट है और दूर से इसे देखकर इस पर प्रहार न जा सके।
७. पेय जल की उपलब्धता - दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक, सेवक, पशु और जान सामान्य भी रहते और आते-जाते थे। इसलिए शुद्ध पेय जल पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक था। इस किले के चारों ओर अनेक सरोवर, बावली, झरने आदि थे जिनमें से कुछ अब भी द्रष्टव्य हैं।
८. परिवेश - महल तथा किले के चतुर्दिक रमणीय सघन वन, सुन्दर जलाशय, मनोरम दृश्य, विविध प्रकार के पशु-पक्षी आदि थे। यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त की नयनाभिराम छवियाँ देखी जा सकती थीं।
९. छिपने-छिपाने के स्थल (गुफाएँ) - इस दुर्ग की एक असामान्य विशेषता इसके अंदर और बाहर अनेक गुफाएँ, दरारें आदि थीं जिनमें छिपकर किले के अंदर आने और बिना किसी कोज्ञात हुए बाहर जाने की व्यवस्था का लाभ राजा और उनकी फ़ौज उठा सकती थी किन्तु आक्रामक नहीं क्योंकि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती थी।
* मदन महल निर्माण की आवश्यकताएँ :
सन्निकट विशाल और मजबूत गढ़ा का किला होने के बाद भी इस किले को बनाने का कारण राज्य विस्तार, सुरक्षा, प्रतिष्ठा, बसाहट, भण्डारण, रोजगार, शिल्प कौशल का विकास, सैन्य प्रशिक्षण था।इस किले ने हर उद्देश्य को पूर्ण भी किया।
* मदन महल का रूपांकन :
किले का आकार और विस्तार - महत्वपूर्ण व्यक्तियों, सैन्य दल, शस्त्रागार, पाकशाला, पशु, सैन्य अभ्यास, मनरंजन आदि के संपादन हेतु किले में पर्याप्त स्थान सुलभ था। राज महल अपेक्षाकृत छोटा रखा गया कि उससे अन्य गतिविधियाँ प्रभावित न हो सके।
विभिन्न भवनों की स्थिति - किले के अंदर महल, पशुशाला, अश्वशाला, शस्त्रागार, सैनिकों व सेवकों आदि के आवास आदि कई इमारतें थीं जिनके अवशेष ही अब शेष हैं। इन के आकार अपेक्षाकृत छोटे होने का कारण यह है कि समीप ही गढ़ा किले में वृहदाकारी ीअमरतें रही होंगीं जिन्हें मुगलों, अंग्रेजों और जन सामान्य ने बेरहमी से नष्ट कर दिया।
जल स्रोत - किले के अंदर कूप और बाहर अनेक सरोवर, निर्झर और बावड़ियाँ शुद्ध पेय जल सुलभ कराती थीं।
राज निवास - राज निवास (महल) बहुत छोटा होने का कारण यह है कि यह सर्वकालिक राज निवास नहीं था। यह अल्पकालिक प्रवास हेतु था। गोंडों की जीवन शैली अत्यंत सादगीपूर्ण था जबकि राजपूतों, मराठों और मुगलों की जीवन शैली अत्यंत शानशौकतपूर्ण और विलसितामय होती थी। इनसे तुलना करने पर गोंड़ों के महल या किले प्रभावित नहीं करते किंतु वास्तव में गोंड राजाओं ने जन-धन का अपव्यय निजी विलासिता के लिए न कर, आदर्श प्रस्तुत किया था। राज निवास में प्रवेश के लिए बनाई गयीं सीढ़ियाँ ऊँची, हैं ताकि उन पर सहजता से बिना आहट न चढ़ा जा सके। दरवाजे कम ऊँचाई बनाए गए हैं ताकि प्रवेश करते समय सिर झुकाकर घुसना पड़े। अवांछित आगंतुक या शत्रु के प्रवेश करने पर वह वार सके इसके पहले ही उसकी गर्दन काट दी जा सके। गोंड़ भूमिपुत्र थे, जमीन पर सोते थे। मुख्य कक्ष में जमीन पर लेते, बैठें या खड़े हों दीवार में छेद इस तरह बनाये गए हैं कि उनसे सुदूर बाह्य क्षेत्र पर नज़र रखी जा सके। यही नहीं जो छेद हैं वे दीवार की मोटाई में लंबवत नहीं, लहभग ३० अंश तिरछे हैं। इस कारण कक्ष के अंदर से निशाना साधकर बाहर शर-प्रहार किया जा सकता है किन्तु बाहर से अंदर निशाना नहीं साधा जा सकता। राजा की सुरक्षा हेतु अन्य भी अनेक व्यवस्थाएँ की गई थीं।
सैन्य दल - मदन महल में गोंडों की सेना का मुख्यालय नहीं था इसलिए यहाँ उतनी ही सेना रखी जाती थी जो राजा या अन्य महत्वपूर्ण अतिथियों तथा किले की सुरक्षा के लिए अनिवार्य थी। इस सैन्य दल का सतत जागरूक रहना और चुस्त-दुरुस्त रहना आवश्यक था। इसलिए सैनिकों के लिए बनाए गए आवास सुविधा पूर्ण तो थे, विलासिता पूर्ण नहीं।
पाक शाला - गोंडों का भोजन बहुत सादा था। वे माँसाहारी थे किन्तु पशु-पक्षियों को शौक के लिए नहीं मारते थे, केवल भोजन हेतु शिकार करते थे। ज्वार-बाजरा, कोड़ों-कुटकी, मक्का, अरहर, मूँग आदि उनके प्रिय खाद्यान्न थे। वे लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग करते थे। पाक शाला सामान्य कक्ष के तरह थी।
पशुशाला - पशुशाला में गाय और घोड़े मुख्य पशु थे जो इस किले में रखे जाते थे। बड़ी गजशाला और अश्वशाला वर्तमान जीवन बीमा संभागीय कार्यालय की भूमि पर था जिसे ध्वस्त कर इस कार्यालय की इमारत बनाई गयी।
* मदन महल का शिल्प और वास्तु :
ईकाइयों का निर्धारण, परिमाप तथा आकार, दिशावेध, लंबाई-चौड़ाई-ऊँचाई, द्वार-वातायन, कक्ष, प्रकाश तथा वायु संचरण, दीवालें और प्राचीरें, स्तंभ, छत, मेहराब, गुंबद, आले, मुँडेर, प्रतीक चिन्ह आदि में स्थानीयता सामग्री शिल्प और कला की प्रमुखता स्पष्ट है। यह भ्रम है कि गोंड़ी इमारतों पर मुग़ल स्थापत्य की छाप है। वास्तव में गोंड़ी सभ्यता और संस्कृति प्राचीनतम है। गोंड़ों के मकान झोपड़ीनुमा छोटे-छोटे, पत्थर (बोल्डर) और कच्ची ईंटों को को गारे से जोड़कर निर्मित होते थे। दीवारों में मलगे, कैंची, , दरवाजे खूँटियाँ आदि लकड़ी की होती थीं। छत बनाने के लिए बाँस, जूट, तेंदूपत्ते आदि का पयोग किया जाता था। चूने के गारे और अपक्की ईटों या आयताकार पत्थरों का उपयोग समृद्ध जनों के आवास हेतु किया जाता था। इसीलिये इस निर्माण सामग्री से बनी इमारत को भले ही वह छोटी हो 'महल' कहा जाना सर्वथा उचित है। सादगी गोंड़ जीवनशैली का अंग और वैशिष्ट्य थे, विपन्नता नहीं।
* मदन महल भावी विकास :
मदन महल क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विक्सित किये जाने की आवश्यकता और संभावना दोनों हैं। यहाँ के पर्यावरण और परिवेश को देखते हुए यहाँ लाखों की संख्या में बाँस, साल, सागौन, तेन्दु, पलाश, सीताफल, बीजा, महुआ, सेमल आदि के वृक्ष लगाए जाने चाहिए। यहाँ की पहाड़ियों में सर्पगन्धा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा, वच, आर्टीमीशिया,लेमनग्रास, अकरकरा, सहजन जैसी आयुर्वेदिक औषधिजनक पौधों की रोपणी बनाई जानी चाहिए। इससे इन पहाड़ियों का क्षय होना बंद होगा। यहाँ के बैसाल्ट पत्थरों को तोड़ने पर तुरंत रोक लगाई जाए। यह शिलायें जबलपुर क्षेत्र को भूकंपरोधी बनाने में सहायक हैं। वन और औषधीय पौधों के विकास से भूमिगत जलस्तर ऊपर उठेगा। इन वनों में गिरनेवाला वर्षाजल कुओं। बवालियों, झरनों, नदियों में पहुँचेगा तो औषधीय गुणों से युक्त होगा जिसका पान करने से जन सामान्य को लाभ होगा। यह बड़ी मात्रा में सर्प रहते हैं जी गर्मी और बरसात में निकलते हैं। सर्प संग्रहालय बनाकर सर्प विष का उत्पादन किया जा सकता है। यहाँ तेंदुओं तथा मृगों का भी आवास रहा है। अनेक तरह के पक्षी यहाँ अभी भी रहते हैं। वन विकसित होने पर पक्षी अभयारण्य भी विक्सित किया जा सकता है। इन इमारतों को मूल रूप में पुनर्निर्मित कर उनमें गोंड़ सभ्यता और संस्कृति का संग्रहालय भी बनाया जा सकता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में जो भी विकास योजनाएं हैं वे इस परिवेश और विरासत के अनुकूल नहीं हैं। इस क्षेत्र में नई इमारतें बनाना प्रतिबंधित कर, नगरीकरण से बचाकर प्रकृति के अनुकूल विकास कार्य किए जाने चाहिए।
५-७-२०२२

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

जुलाई २, दोहा, ग्रंथि छंद, समान छंद, चित्रगुप्त, कायस्थ, पोयम, फ्रेंड, सूरज, गीत, मुक्तिका

छंद चर्चा:
दोहा गोष्ठी:
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सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल कर लें विश्राम।।
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
२-७-२०१८
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।
***
मुक्तिका
*
उन्नीस मात्रिक महापौराणिक जातीय ग्रंथि छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
*
खौलती खामोशियों कुछ तो कहो
होश खोते होश सी चुप क्यों रहो?
*
स्वप्न देखो तो करो साकार भी
राह की बढ़ा नहीं चुप हो सहो
*
हौसलों के सौं नहीं मन मारना
हौसले सौ-सौ जियो, मत खो-ढहो
*
बैठ आधी रात संसद जागती
चैन की लो नींद, कल कहना अहो!
*
आ गया जी एस टी, अब देश में
साथ दो या दोष दो, चुप तो न हो
***
चिंतन और चर्चा-
चित्रगुप्त और कायस्थ
*
चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है। चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है। काया बनती और नष्ट होती है। काया बनानेवाला, उसका उपयोग करनेवाला और उसे नष्ट करनेवाला कोई अन्य होता है। काया नश्वर होती है। काया का आकार (शेप) होता है जिसे मापा, नापा या तौला जा सकता है। काया का चित्र गुप्त नहीं प्रगट या दृश्य होता है। चित्रगुप्त का आकार तथा परिमाप नहीं है। स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकता, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता।आकार के बनने और मिटने की तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं। चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं। ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं। चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं।
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"चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं। 'आत्मा सो परमात्मा' अत: चित्रगुप्त ही परमात्मा हैं। इसलिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक समर्थ शासक-प्रशासक थे। जब-जिस रूप में किसी दैवीय शक्ति की पूजा, उपासना, व्रत, कथा आदि हुई वह परोक्षत: चित्रगुप्त जी की ही हुई क्योंकि उनमें चित्रगुप्त जी की ही शक्ति अन्तर्निहित थी। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय शिक्षा संस्थानों को नष्ट करने और विद्वानों की हत्या के फलस्वरूप यह अद्वैत चिन्तन नष्ट होने लगा और अवतारवाद की संकल्पना हुई। इससे तात्कालिक रूप से भक्ति के आवरण में पीड़ित जन को सान्तवना मिली किन्तु पुष्ट वैचारिक आधार विस्मृत हुआ।अन्य मतावलंबियों का अनुकरण कर निराकार चित्रगुप्त की भी साकार कल्पना कर मूर्तियाँ और मंदिर बांये गए। वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियाँ और मंदिर मुग़ल काल और उसके बाद के हैं जबकि कायस्थों का उल्लेख वैदिक काल से है।
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"कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और अदृश्य जीव-जंतु भी कायस्थ है। व्यावहारिक दृष्टि से इस अवधारणा को स्वीकारकर जीनेवाला ही 'कायस्थ' है। तदनुसार कायस्थवाद मानवतावाद और वैशिवाकता से बहुत आगे सृष्टिवाद है। 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वेनीडम', 'ग्लोबलाइजेशन', वैश्वीकरण आदि अवधारणायें कायस्थवाद का अंशमात्र है। अपने उदात्त रूप में 'कायस्थ' विश्व मानव है।
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देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्य पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। मूलत: प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय (मनुष्य के वश में न होने के कारण) देवता माना गया। इनके अमूर्त होने के कारण इनकी शक्तियों के स्वामी की कल्पना कर वरुण आदि देवों और देवों के राजा की कल्पना हुई। अमूर्त को मूर्त रूप देने के साथ मनुष्य आकृति और मनुष्य के गुणावगुण उनमें आरोपित कर अनेक कल्पित कथाएँ प्रचलित हुईं।प्रवचनकर्ताओं की इं कल्पित कथाओं ने यजमानों को संतोष और कथा वाचक को उदार पोषण का साधन तो दिया किन्तु धर्म की वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को नष्ट भी किया।
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आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी 'ओशो' हो अंतर यह है कि मैं जानता हूँ कि मैं 'ओशो' हूँ, तुम नहीं जानते। हर व्यक्ति अपने वास्वतिक दिव्य रूप को जानकार 'ओशो' हो सकता है।
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रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं, न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
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देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।यह भी सत्य है की देवता और दानव, सुर और असुर कहीं सहोदर और कहीं सहोदर न होने पर भी बंधु-बांधव हैं। सर्व सामान्य के लिए शुभकारक हुए तो देव, अशुभकारक हुए तो दानव। शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म हैं। कर्म है तो उसका फल और फलदाता भी होगा ही। सकल प्राकृतिक शक्तियों, उनके स्वामियों और स्वामियों के विरोधियों के साथ-साथ जनसामान्य और प्राणिमात्र के कर्मों के फल का निर्धारण वही कर सकता है जिसने उन्हें उत्पन्न किया हो। इसलिए चित्रगुप्त ही कर्मफल दाता या पाप-पुण्य नियामक है।
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फल देनेवाले या सर्वोच्च निर्णायक को निष्पक्ष भी होना होगा। वह अपने आराधकों के दुर्गुण क्षमा करे और अन्यों के सद्गुणों को भुला दे, यह न तो उचित है, न संभव। इसलिए उसे सकल पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, कथा-वार्ता, यज्ञ-हवन आदि मानवीय उपासनापद्धतियों से ऊपर और अलग रखना ही उचित है। ये सब मनुष्य के करती हैं जिन्हें मनुष्येतर जीव नहीं कर सकते। मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के कर्म के प्रति निष्पक्ष रहकर फल निर्धारण तभी संभव है जब निर्णायक इन सबसे दूर हो। चित्र गुप्त को इसीलिए कर्म काण्ड से नहीं जोड़ा गया। कालांतर में अन्यों की नकल कर और अपने वास्विक रूप को भूलकर भले ही कायस्थ इस ओर प्रवृत्त हुए।
२-७-२०१७
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एक रचना
*
येन-केन जीते चुनाव हम
बनी हमारी अब सरकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है
हमें नहीं साहित्य चाहिए,
नहीं असहमति है स्वीकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
२-७-२०१६
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नवगीत:
*
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
चैन तुम बिन?
नहीं गवारा है.
दर्द जो भी मिले
मुझे सहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
रात-दिन बिन
रुके पुकारा है
याद की चादरें
रुचा तहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
मुस्कुरा दो कि
कल हमारा है
आसुँओं का न
पहनना गहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
हर कहीं तुझे
ही निहारा है
ढाई आखर ही
तुझसे है कहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
दिल ने दिल को
सतत गुहारा है
बूँद बन 'सलिल'
संग ही बहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
***
मुक्तिका:
*
हाथ माटी में सनाया मैंने
ये दिया तब ही बनाया मैंने
खुद से खुद को न मिलाया मैंने
या खुदा तुझको भुलाया मैंने
बिदा बहनों को कर दिया लेकिन
किया उनको ना पराया मैंने
वक़्त ने लाखों दिये ज़ख्म मगर
नहीं बेकस को सताया मैंने
छू सकूँ आसमां को इस खातिर
मन को फौलाद बनाया मैंने
***
कविता-प्रतिकविता
* रामराज फ़ौज़दार 'फौजी'
जाने नहिं पीर न अधीरता को मान करे
अइसी बे-पीर से लगन लगि अपनी
अपने ही चाव में, मगन मन निशि-दिनि
तनिक न सुध करे दूसरे की कामिनी
कठिन मिताई के सताये गये 'फौजी' भाई
समय न जाने, गाँठे रोब बड़े मानिनी
जीत बने न बने मरत कहैं भी कहा
जाने कौन जन्मों की भाँज रही दुश्मनी
*
संजीव
राम राज सा, न फौजदार वन भेज सके
काम-काज छोड़ के नचाये नाच भामिनि
कामिनी न कोई आँखों में समा सके कभी
इसीलिये घूम-घूम घेरे गजगामिनी
माननी हो कामिनी तो फ़ौजी कर जोड़े रहें
रूठ जाए 'मावस हो, पूनम की यामिनी
जामिनि न कोई मिले कैद सात जनमों की
दे के, धमका रही है बेलन से नामनी
(जामनी = जमानत लेनेवाला, नामनी = नामवाला, कीर्तिवान)
२-७-२०१५
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छंद सलिला:
​सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापि
२-७-२०१३
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दोस्त / FRIEND
दोस्त
POEM : FRIEND
You came into my life as an unwelcome face,
Not ever knowing our friendship, I would one day embrace.
As I wonder through my thoughts and memories of you,
It brings many big smiles and laughter so true.
I love the special bond that we beautifully share,
I love the way you show you really care,
Our friendship means the absolute world to me,
I only hope this is something I can make you see.
Thankyou for opening your mind and your souls,
I wiee do all I can to help heal your hearts little holes.
Remember, your secrects are forever safe within me,
I will keep them under the tightest lock and key.
Thankyou for trusting me right from the start.
You truely have got a wonderful heart.
I am now so happy I felt that embrace.
For now I see the beauty of my best friend's face...
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SMILE ALWAYS
Inside the strength is the laughter.
Inside the strength is the game.
Inside the strength is the freedom.
The one who knows his strength knows the paradise.
All which appears over your strengths is not necessarily Impossible,
but all which is possible for the human cannot be over your strengths.
Know how to smile :
What a strength of reassurance,
Strength of sweetness, peace,
Strength of brilliance !
May the wings of the butterfly kiss the sun
and find your shoulder to light on...
to bring you luck
happiness and cheers
smile always
२-७-२०१२
***
-: मुक्तिका :-
सूरज - १
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..
धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..
पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..
अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..
भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..
नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.
करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..
*
सूरज - २
चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..
तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..
सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?
समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..
न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने,
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..
लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..
'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३
शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..
भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..
किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..
युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..
प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..
चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..
न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
२-७-२०११
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गीत:
प्रेम कविता...
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
२-७-२०१०

*