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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

दिसंबर २०, दोहा कहे मुहावरा, यमकीय दोहा, नवगीत, संस्कार, सॉनेट, कृष्ण,

सलिल सृजन दिसंबर २०
*
सॉनेट
नमन
साँवरे कन्हाई को नमन।
शरारत सुहाई को नमन।
बाबा-मताई को नमन।।
बावरी लुनाई को नमन।।
बाँसुरी बजाई को नमन।
प्रीत उर जगाई को नमन।
कर्म की बड़ाई को नमन।।
भक्त से मिताई को नमन।।
जमुना लहराई को नमन।
रास मिल रचाई को नमन।
शक्ति टकराई को नमन।।
भक्ति मुस्कुराई को नमन।।
भयंकर लड़ाई को नमन।
क्रांति, शांति आई को नमन।।
संजीव
२०-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
जबलपुर, ६•४०
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सॉनेट
बासंती कृष्ण
पीतांबरी बसंत खिलखिल।
ब्रज-रज, गोवर्धन पर छाया।
गोप-गोपियों के मन भाया।।
छटा श्यामली से गल-भुज मिल।।
अमलतास कचनार फूलते।
फाग कहें जमुना की लहरें।
रास रचा पग तनिक न ठहरें।।
नथ-लट-बेंदे झूम झूलते।।
चंचल लहर लहर लहराई।
चपला भँवर भँवर मुस्काई।
श्यामा-श्याम छटा मन भाई।।
जन-मन मोहे बंसी की धुन।
अपने सपने नए रहे बुन।
सँग बसंत आ छाया फागुन।।
संजीव
२०-१२-२०२२
९४२५१८३२४४, ७•२७,
जबलपुर
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सोलह संस्कार
सोलह संस्कारों के नाम और संक्षिप्त परिचय :-
१. गर्भाधानम्
२. पुंसवनम्
३. सीमन्तोन्नयनम्
४. जातकर्मसंस्कारः
५. नामकरणम्
६. निष्क्रमणसंस्कारः
७. अन्नप्राशनसंस्कारः
८. चूडाकर्मसंस्कारः
९. कर्णवेधसंस्कारः
१०. उपनयनसंस्कारः
११. वेदारम्भसंस्कारः
१२. समावर्त्तनसंस्कारः
१३. विवाहसंस्कारः
१४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः
१५. संन्यासाश्रमसंस्कारः
१६. अन्त्येष्टिकर्मविधिः
★ १. गर्भाधानम् - गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो " गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा , तद् गर्भाधानम् ।" गर्भ का धारण , अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है । उसी को गर्भाधान संस्कार कहते है ।
● २. पुंसवनम् - पुंसवन उसको कहते हैं जो ऋतुदान देकर गर्भस्थिती से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है ।
अर्थात् गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में जो संस्कार किया जाता है । उसे पुंसवन संस्कार कहते है ।
■ ३. सीमन्तोन्नयनम् - जिससे गर्भिणी स्त्री का मन संतुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे और प्रतिदिन बढ़ता जावे । उसे सीमन्तोन्नयन कहते हैं ।
◆ गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो उसी दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें और पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें ।
★ ४. जातकर्मसंस्कारः - संतान के जन्म के तुरंत बाद जो संस्कार किया जाता है । उसे जातकर्म संस्कार कहते हैं ।
★ ५. नामकरणम् - जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे । ( सार्थक नाम रखना )
नामकरण का काल - जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके १० दिन छोड़ ग्यारहवें , वा एक सौ एकवें अथवा
दूसरे वर्ष के आरंभ में जिस दिन जन्म हुआ हो , नाम धरे ।
◆ ६. निष्क्रमणसंस्कारः - निष्क्रमणसंस्कार उसको कहते हैं कि जो बालक को घर से जहाँ का वायुस्थान शुद्ध हो वहाँ भ्रमण कराना होता है । उसका समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें ।
निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं - एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया , और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो । उस तिथि में यह संस्कार करे ।
★ ७. अन्नप्राशनसंस्कारः - अन्नप्राशन संस्कार तभी करे जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे ।
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे । जिसको तेजस्वी बालक करना हो , वह घृतयुक्त भात ( चावल ) अथवा दही , शहद और घृत तीनों भात के साथ मिलाके विधि अनुसार संस्कार करें ।
★ ८. चूडाकर्मसंस्कारः ( मुण्डन संस्कार ) - चूडाकर्म को केशछेदन संस्कार भी कहते है । ( सिर को केश व बाल रहित करना )
यह चूडाकर्म अथवा मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना ।उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो , उस दिन यह संस्कार करे ।
★ ९. कर्णवेधसंस्कारः - बालक के कर्ण वा नासिका का छेदन करना कर्णवेधसंस्कार है ।
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है ।
■ १०. उपनयनसंस्कारः ( यज्ञोपवीत , जनेऊ ) -
जिस दिन जन्म हुआ हो अथवा जिस दिन गर्भ रहा हो । उससे आठवें वर्ष में ब्राह्मण के ,जन्म वा गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय के और जन्म वा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य के बालक का यज्ञोपवीत करें तथा ब्राह्मण के १६ सोलह , क्षत्रिय के २२ बाईस और वैश्य का बालक का २४ चौबीसवें वर्ष से पूर्व - पूर्व यज्ञोपवीत होना चाहिये । यदि पूर्वोक्त काल में यज्ञोपवीत व जनेऊ न हो वे पतित माने जावें ।
● जिसको शीघ्र विद्या , बल और व्यवहार करने की इच्छा हो और बालक भी पढ़ने समर्थ हो तो ब्राह्मण के लड़के का जन्म वा गर्भ से पांचवें , क्षत्रिय के लड़के का जन्म वा गर्भ से छठे और वैश्य के लड़के का जन्म वा गर्भ से आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत करें ।
★ ११. वेदारम्भसंस्कारः - वेदारम्भ उसको कहते हैं जो गायत्री मन्त्र से लेके साङ्गोपाङ्ग ( अङ्ग - शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , छन्द , ज्योतिष । उपाङ्ग - पूर्वमीमांसा , वैशेषिक , न्याय , योग , सांख्य और वेदांत । उपवेद - आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद अर्थात् शिल्पशास्त्र । ब्राह्मण - ऐतरेय , शतपथ , साम और गोपथ । वेद - ऋक् , यजुः , साम और अथर्व इन सबको क्रम से पढ़े । ) चारों वेदों के अध्ययन करने के लिये नियम धारण करना ।
समय - जो दिन उपनयनसंस्कार का है , वही वेदारम्भ का है । यदि उस दिवस में न हो सके , अथवा करने की इच्छा न हो तो दूसरे दिन करे । यदि दूसरा दिन भी अनुकूल न हो तो एक वर्ष के भीतर किसी दिन करे ।
★ १२. समावर्त्तनसंस्कारः - समावर्त्तनसंस्कार उसको कहते हैं जिसमें ब्रह्मचर्यव्रत साङ्गोपाङ्ग वेदविद्या , उत्तमशिक्षा और पदार्थविज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विवाह विधानपूर्वक गृहाश्रम को ग्रहण करने के लिए घर की ओर आना ।
तीन प्रकार के स्नातक होते है ।
१. विद्यास्नातक - जो केवल विद्या को समाप्त तथा ब्रह्मचर्य व्रत को न समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यास्नातक है ।
२. व्रतस्नातक - जो ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त तथा विद्या को न समाप्त करके स्नान करता है वह व्रतस्नातक है ।
३. विद्याव्रतस्नातक - जो विद्या और ब्रह्मचर्य व्रत दोनों को समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यव्रतस्नातक कहाता है ।
इस कारण ४८ अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य समाप्त करके ब्रह्मचारी विद्या व्रत स्नान करे ।
★ १३. विवाहसंस्कारः - विवाह उसको कहते हैं कि जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत से विद्या बल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण , कर्म , स्वभावों और अपने - अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिये स्त्री और पुरुष का जो संबंध होता है ।
* उत्तरायण शुक्लपक्ष अच्छे दिन अर्थात् जिस दिन प्रसन्नता हो उस दिन विवाह करना चाहिये ।
* कितने आचार्यों का मत है कि सब काल में विवाह करना चाहिए ।
* जिस अग्नि का स्थापन विवाह में होता है , उस को आवसथ्य नाम है ।
* प्रसन्नता के दिन स्त्री का पाणिग्रहण , जो कि स्त्री सर्वथा शुभ गुणादि से उत्तम हो , करना चाहिए ।
■ विवाह - जब दो प्राणी प्रेमपूर्वक आकर्षित होकर अपने आत्मा , हृदय और शरीर को एक - दूसरे को अर्पित कर देते हैं , तब हम सांसारिक भाषा में उसे विवाह कहते है ।
★ १४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः - वानप्रस्थसंस्कार उसको कहते हैं , जो विवाह से सन्तानोत्पत्ति करके पूर्ण ब्रह्मचर्य से पुत्र का भी विवाह करे , और पुत्र का भी एक संतान हो जाए । अर्थात् जब पुत्र का भी पुत्र हो जाए तब पुरुष वानप्रस्थाश्रम अर्थात् वन में जाकर वानप्रस्थाश्रम के कर्तव्य का निर्वहन करें।
★ १५.संन्यासाश्रमसंस्कारः - संन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड़के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरे ।
★ १६ . अन्त्येष्टिकर्म - अन्त्येष्टि कर्म उसको कहते हैं कि जो शरीर के अंत का संस्कार है , जिसके आगे शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार नहीं हैं । इसी को नरमेध , पुरुषमेध , नरयाग , पुरुषयाग भी कहते हैं ।
* भस्मान्त ँ् शरीरम् । ( यजुर्वेद ४०.१५ )
इस शरीर का संस्कार ( भस्मान्तम् ) अर्थात् भस्म करने पर्यंत है ।
***
नवगीत
अपना अपना सच
*
सबका अपना अपना सच है
*
निज सच को
मत थोप अन्य पर,
सत्य और का
झूठ न मानो।
क्या-क्यों कहता?
यह भी जानो।
आत्म मुग्ध हो
पोथे लिखकर
बने मसीहा निज मुख खुद ही
अन्य न माने।
नहीं मुखापेक्षी अब कच है
सबका अपना अपना सच है
*
शहर-गाँव
दोनों परेशां,
तंत्र हावी है,
उपेक्षित है लोक।
अधर पर मुस्कान झूठी
छिपा मन में शोक।
दो दुहाई तुम
विधान की
मनमानी कर
गीत न जाने।
लिखी भुखमरी, तुम्हें अपच है
सबका अपना अपना सच है
***
मुक्तिका
*
सिक्के के दो पहलू हैं, भारत- पाकिस्तान
इसमें उसकी जान है, इसमें उसकी जान
नूरा कुश्ती कर रहे, गर हो सकें करीब
द्वैत तजें; अद्वैत वर, बन जाएँ बलवान
दिल-दिमाग हों दूर यदि, बिगड़े बनते काम
एक साथ मिलकर बनें, सच मानो रस-खान
बँटा जर्मनी एक हो, बना रहा इतिहास
भा पा बा ने एक हों, जनगण ले यदि ठान
गोरों ने बाँटा हमें, मिलकर लूटा खूब
जग बदलें इतिहास हम, क्यों सच से नादान
इस बिन वह निर्जीव हो, उस बिन यह निर्जीव
पति-पत्नी परिवार हो, अपना हिंदुस्तान
***
प्रगटो फिर से भारत भू पर हे माधव।
दुराचार का कंस न दंडित हे माधव।।
दल मिल दलदल मजा रहे हैं है माधव।
लोकतंत्र को मिटा रहे हैं हे माधव।।
खुद निज घर में आग लगाते हे माधव।।
रोजगार नित घटते जाते हे माधव।
जनप्रतिनिधि अय्याश चीर हरते झूमें।
न्यायालय से राहत पाते हे माधव।।
श्री राधे हर कन्या भय से काँप रही
खलनायक अधिकार जताते हे माधव।
काले कोसों का सफेद दिल करो सखे!
चंद टकों हित बिक जाते हैं हे माधव।
नहीं लोक की चिंता किंचित शेष बची।
नहीं देश से प्रेम बचा है हे माधव।।
सबको सत्ता स्वार्थ साध्य हो गया प्रभो!
बजा बाँसुरी इन्हें सुधारो हे माधव।।
वृक्ष काटते जो उनके अब शीश कटें।
मधुवन सारा हिंद बना दो हे माधव।।
निर्मल सलिल मलिन होने से रोको हरि!
जनमत को संजीव बना दो रे माधव।।
भोर उगे सूरज तम कर उजियाला दे।
कीचड़ में भी कमल खिला दो हे माधव।।
२०-१२-२०२०
***
नवगीत
भीड़ में
*
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
२०-१२-२०१५
***
यमकीय दोहा:
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
ठाकुर को सिर झुकाकर, ठाकुर करें प्रणाम
ठकुराइन मुस्का रहीं, आज पड़ा फिर काम
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न
२०-१२-२०१४
***
दोहा सलिला:
दोहा कहे मुहावरा...
*
दोहा कहे मुहावरा, सुन-गुन समझो मीत.
कम कहिये समझें अधिक, जन-जीवन की रीत.१.
*
दोहा संग मुहावरा, दे अभिनव आनंद.
'गूंगे का गुड़' जानिए, पढ़िये-गुनिये छंद.२.
*
हैं वाक्यांश मुहावरे, जिनका अमित प्रभाव.
'सिर धुनते' हैं नासमझ, समझ न पाते भाव.३.
*
'पत्थर पड़ना अकल पर', आज हुआ चरितार्थ.
प्रतिनिधि जन को छल रहे, भुला रहे फलितार्थ.४.
*
'अंधे की लाठी' सलिल, हैं मजदूर-किसान.
जिनके श्रम से हो सका भारत देश महान.५.
*
कवि-कविता ही बन सके, 'अंधियारे में ज्योत'
आपद बेला में सकें, साहस-हिम्मत न्योत.६.
*
राजनीति में 'अकल का, चकराना' है आम.
दक्षिण के सुर में 'सलिल', बोल रहा है वाम.७.
*
'अलग-अलग खिचडी पका', हारे दिग्गज वीर.
बतलाता इतिहास सच, समझ सकें मतिधीर.८.
*
जो संसद में बैठकर, 'उगल रहा अंगार'
वह बीबी से कह रहा, माफ़ करो सरकार.९.
*
लोकपाल के नाम पर, 'अगर-मगर कर मौन'.
सारे नेता हो गए, आगे आए कौन?१०?
*
'अंग-अंग ढीला हुआ', तनिक न फिर भी चैन.
प्रिय-दर्शन पाये बिना आकुल-व्याकुल नैन.११.
*
'अपना उल्लू कर रहे, सीधा' नेता आज.
दें आश्वासन झूठ नित, तनिक न आती लाज.12.
*
'पानी-पानी हो गये', साहस बल मति धीर.
जब संयम के पल हुए, पानी की प्राचीर.13.
*
चीन्ह-चीन्ह कर दे रहे, नित अपनों को लाभ.
धृतराष्ट्री नेता हुए, इसीलिये निर-आभ.14.
*
पंथ वाद दल भूलकर, साध रहे निज स्वार्थ.
संसद में बगुला भगत, तज जनहित-परमार्थ.15.
*
छुरा पीठ में भौंकना, नेता जी का शौक.
लोकतंत्र का श्वान क्यों, काट न लेता भौंक?16.
*
राजनीति में संत भी, बदल रहे हैं रंग.
मैली नाले सँग हुई, जैसे पावन गंग.17.
*
दरिया दिल हैं बात के, लेकिन दिल के तंग.
पशोपेश उनको कहें, हम अनंग या नंग?18.
*
मिला हाथ से हाथ वे, चला रहे सरकार.
भुला-भुना आदर्श को, पाल रहे सहकार.19.
*
लिये हाथ में हाथ हैं, खरहा शेर सियार.
मिलते गले चुनाव में, कल झगड़ेंगे यार.20.
*
गाल बजाते फिर रहे, गली-गली सरकार.
गाल फुलाये जो उन्हें, करें नमन सौ बार.21.
*
राम नाप जपते रहे,गैरों का खा माल.
राम नाम सत राम बिन, करते राम कमाल.22.
*
'राम भरोसे' हो रहे, पूज्य निरक्षर संत.
'मुँह में राम बगल लिये, छुरियाँ' मिले महंत.२३.
*
'नाच न जानें' कह रहे, 'आंगन टेढ़ा' लोग.
'सच से आँखें मूंदकर', 'सलिल' न मिटता रोग.२४.
*
'दिन दूना'और 'रात को, चौगुन' कर व्यापार.
कंगाली दिखला रहे, स्याने साहूकार.२५.
*
'साढ़े साती लग गये', चल शिंगनापुर धाम.
'पैरों का चक्कर' मिटे, दुःख हो दूर तमाम.२६.
*
'तार-तार कर' रहे हैं, लोकतंत्र का चीर.
लोभतंत्र ने रच दिया, शोकतंत्र दे पीर.२७.
*
'बात बनाना' ही रहा, नेताओं का काम.
'बात करें बेबात' ही, संसद सत्र तमाम.२८.
*
'गोल-मोल बातें करें', 'करते टालमटोल'.
असफलता को सफलता, कहकर 'पीटें ढोल'.२९.
*
'नौ दिन' चलकर भी नहीं, 'चले अढ़ाई कोस'.
किया परिश्रम स्वल्प पर, रहे 'भाग्य को कोस'.३०.
२०-१२-२०१३

***

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

कृष्ण कांत चतुर्वेदी,

आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जयंती पर 
दोहे 
*
'कृष्ण कांत' जिसके कहो, रहे न वह क्यों शांत।
आपाधापी जगत की, करे न उसको भ्रांत।।

'क्रिस्न-विलास' रुचे उसे, राधा जू का संग। 
'चंद्रा जी' का हाथ गह, लीला करे अभंग।। 

'पिबत भागवतम्' सलिल नित, गीता का गह मर्म।
'आगत का स्वागत करे', 'बृज गंधा' युग-धर्म।। 

हो तन्मय  'अनुवाक्' में, 'राधा भाव' विचार।
'वेदान्त तत्व' मूर्तित किए, मूल अर्थ अनुसार।। 

'जिज्ञासा' कर 'ब्रह्म' की,  सबको दिया जनाय। 
सिखा 'बुद्ध दर्शन' दिया, 'आवेदांत' पढ़ाय।। 

कर 'अनुशीलन परंपरा, भारतीय' रस घोल। 
'क्षण के साथ चला' सदा', जो वह है अनमोल।। 

 पद अनेक गर्वित हुए, नभ चुंबी कद देख। 
आसंदियाँ सराहतीं भाग्य, सरल छवि लेख।। 

ध्वनि विस्तारक यंत्र चुप, अपना भाग्य सराह।
पाया वाक्-प्रसाद जब, मति-गति-अर्थ अपार।। 

श्रोता बड़भागी रहे, सुन वक्ता तल्लीन। 
शब्द-ब्रह्म आराधते, सत्-शिव-सुंदर लीन।। 

रेवा जल व्याकुल हुआ, देख महाप्रस्थान।
जन्म-जन्म आ गोद में, पाना यश-सम्मान।। 

संस्कारधानी हुई धन्य, सुयश सुन नित्य। 
भूल नहीं सकती तुम्हें, पाई कीर्ति अनित्य।। 

'सलिल' सराहे भाग्य निज, पाया शुभ आशीष। 
अग्रज-पग-रज पा हुआ, धन्य सदय थी ईश।। 

भाभी श्री में है हमें, मूर्ति आपकी प्राप्त। 
सके सतत वात्सल्य मिल, वाचा शीतल आप्त।। 
१९.१२.२०२४, १६.१५ 
***   

जन्म- १९ दिसंबर १९३७, जबलपुर मध्य प्रदेश।
आत्मज- स्व. नाथूराम चौबे - स्व. रेवा बाई चौबे (दीक्षा पश्चात: निम्बार्क  शरण - राधा दासी)।
जीवन साथी- डॉ. चंद्रा चतुर्वेदी।
संप्रति- पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी मध्य प्रदेश, पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत-पाली-प्राकृत विभाग रानी दुर्गावती विश्व विद्यालय जबलपुर।
प्रकाशित कृति - अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, द्वैत वेदान्त तत्व समीक्षा, भारतीय परंपरा एवं अनुशीलन, आवेदान्त दर्शन की पीठिका, मध्य प्रदेश में बुद्ध दर्शन, क्रस्न-विलास, राधाभाव सूत्र, अनुवाक्, आगत का स्वागत तथा क्षण के साथ चलाचल।

आचार्य कृष्णकान्त चतुर्वेदी
संस्कारधनी जबलपुर में १९ दिसंबर १९३७ को जन्मे, भारतीय मनीषा के श्रेष्ठ प्रतिनिधि, विद्वता के पर्याय, सरलता के सागर, वाग्विदग्धता के शिखर आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की निम्न पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं-
जितने कष्ट-कंटकों में है जिसका जीवन सुमन खिला
गौरव गंध उसे उतना ही यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला।।
कालिदास अकादमी उज्जैन के निदेशक, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में संस्कृत, पाली, प्रकृत विभाग के अध्यक्ष व् आचार्य पदों की गौरव वृद्धि कर चुके, भारत सरकार द्वारा शास्त्र-चूड़ामणि मनोनीत किये जा चुके, अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के सर्वाध्यक्ष निर्वाचित किये जा चुके, महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्राच्य विद्या के विशिष्ट विद्वान के रूप में सम्मानित, राजशेखर अकादमी के निदेशक आदि पदों की शोभा वृद्धि कर चुके आचार्य जी के मार्गदर्शन में ४० छात्रों को पीएच. डी. तथा २ छात्रों ने डी.लिट्. करने का सौभाग्य मिला है। राधा भाव सूत्र, आगत का स्वागत, अनुवाक, अथातो ब्रम्ह जिज्ञासा, वेदांत तत्व समीक्षा, बृज गंधा, पिबत भागवतम आदि अबहुमूल्य कृतियों की रचनाकर आचार्य जी ने भारती के वांग्मय कोष की वृद्धि की है। जगद्गुरु रामानंदाचार्य सम्मान, पद्मश्री श्रीधर वाकणकर सम्मान, अखिल भारतीय कला सम्मान, ज्योतिष रत्न सम्मान, विद्वत मार्तण्ड, विद्वत रत्न, सम्मान, स्वामी अखंडानंद सम्मान, युगतुलसी रामकिंकर सम्मान, ललित कला सम्मान अदि से सम्मानित किये जा चुके आचार्य श्री संस्कारधानी ही नहीं देश के गौरव पुत्र हैं। आप अफ्रीका, केन्या, आदि देशों में भारतीय वांग्मय व् संस्कृति की पताका फहरा चुके हैं। आपकी उपस्थिति व आशीष हमारा सौभाग्य है।
   

दिसंबर १९, मुक्तक, चित्रगुप्त, कैथी, कायस्थ, सॉनेट, सरस्वती, नवगीत

सलिल सृजन दिसंबर १९ 
*
मुक्तक 
भाषा
जो जनगण-मन की आशा है
जो भावों की परिभाषा है
जिसमें रस-सलिला बहती है
शब्द सिंधु अपनी भाषा है।
*
हर अनुभूति ग्रहण करती है
ज्यों की त्यों झट-पट कहती है
कहा हुआ शब्दों में लिखती
सुन-पढ़ मति समझा करती है।
*
भाषा माँ जैसे भाती है
धीरे-धीरे ही आती है
कभी बोलती मीठी बोली
कभी दर्द में भी गाती है।
१९.१२.२०२३
*
विरासत
कायस्थों की लिपि 'कैथी'
*
            कैथी एक ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था। खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं।

            कैथी एक पुरानी लिपि है जिसका प्रयोग १६ वीं सदी में होता था। मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था। १८८० के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के खगड़िया जिले तथा अन्यत्र न्यायालयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था।

            गुप्त वंश के उत्थान के दौरान अस्तित्व में आयी कैथी भाषा वर्ष १८८० तक जनमानस की भाषा बन चुकी थी । न्यायालयों में, बही खाते में तथा यत्र-तत्र इसी का प्रयोग किया जाता था। "कल्चर एंड पावर ऑफ़ बनारस" पुस्तक मेंवर्णित है कि किस तरह से कैथी भाषा के साथ अन्याय किया गया। इस किताब के पृष्ठ संख्या १९० पर ब्रज भाषा के अवसान की व्याख्या के दौरान कैथी भाषा के अवसान का भी जिक्र है। तब ब्रज भाषा और हिंदी देवनागरी की भाषा को लेकर एक विवाद हुआ था। हिंदी भाषा के एक दिग्गज विद्वान श्री श्रीधर पाठक, श्री राधा चरण गोस्वामी आदि हिंदी भाषा को काव्य रचना की भाषा बनाये जाने पर जोर दे रहे थे। १९१० के पहले हिंदी साहित्य सम्मेलन में ब्रज भाषा को कोई स्थान नहीं दिया गया जबकि ब्रज भाषा उस वक्त के कवियों की आधिकारिक भाषा बन गई थी। सोने पे सुहागा तो तब हुआ जब एक साल के बाद हिंदी साहित्य के दूसरे सम्मेलन में श्री बद्री नाथ भट्ट जी ने ब्रज भाषा के लिए अपशब्द का प्रयोग किया। १९१४ में पांचवें हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के आश्रित प्रख्यात कवि ने ब्रज भाषा का साथ देने वालों को राष्ट्र भाषा हिंदी का दुश्मन करार दे दिया। यहीं से ब्रज भाषा के साथ-साथ अन्य लिपियों का भी समापन होने लगा।

            बात शुरू हुई थी कैथी पर, तो वापस आते हैं कि कैथी कैसे समाप्त हुई? एक लाल सलामी बंगाली शिक्षाविद ने देखा कि बिहार में जो किताबें आती हैं वो बनारस से छप कर आती हैं। यही एक बात थी जो बिहार के कायस्थों को उत्तर प्रदेश के कायस्थों से जोड़ती थी। देखें (शिक्षा आयोग की रिपोर्ट १८८४ पैराग्राफ ३३४)। उन्होंने शिक्षा आयोग को पत्र लिखकर ये बात बताई कि कैथी बिहारी हिन्दुओं की धार्मिक पहचान बनती जा रही है, जो कि हिंदी भाषा के लिए खतरनाक हो सकती है , इसलिए आनन् फानन में हिंदी साहित्य सम्मेलन की नौवीं बैठक बुलाई गयी और काफी विवेचना के बाद निम्न प्रस्ताव पारित किया-

            "सभा के अनुसार नागरी से अति उत्कृष्ट कोई भाषा नहीं है, और नागरी शब्द ही भारत के लिए उपयुक्त है। इसी कारण से सभा कैथी भाषा के उन्नयन के लिए कोई उत्साह और सहयोग ना करने का निर्णय लेती है।"

            इसे नागरी प्रचारिणी सभा (एन.पी.एस.) की वार्षिक रिपोर्ट १९२३ के पैराग्राफ १३ और १४ से देखा जा सकता है। इस प्रकार कैथी को दरकिनार कर उर्दू कोर्ट की भाषा बना दी गई। उस वक्त की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजो ने एक सर्वे में पाया कि धनी वर्ग के ज्यादातर लोग हिंदी या उर्दू का इस्तेमाल करते है तो उन्होंने उर्दू को ही आधिकारिक भाषा बना दिया। लार्ड मैकाले ने बाद में अंग्रेजी को अनिवार्य कर कायस्थों की प्रचलित भाषा कैथी का अंत कर दिया। इस समूचे प्रकरण में कायस्थ समाज की भूमिका शोचनीय रही जिसने 'कैथी' को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया और सबसे पहले उर्दू व अंग्रेजी को अपनाकर प्रशासनिक दखल बनाने में अपना तात्कालिक हित देखा और कैथी भाषा को परिवारों से भी बाहर कर दिया।
***
जानकारी
दुर्घटना-मुआवजा
*
            अगर किसी व्यक्ति की accidental death होती है और वह व्यक्ति पिछले तीन साल से लगातार इनकम टैक्स रिटर्न फ़ाइल कर रहा था तो उसकी पिछले तीन साल की एवरेज सालाना इनकम की दस गुना राशि उस व्यक्ति के परिवार को देने के लिए सरकार बाध्य है। आपको आश्चर्य हो रहा होगा यह सुनकर लेकिन यही सरकारी नियम है। उदहारण के तौर पर अगर किसी की सालाना आय क्रमशः पहले दूसरे और तीसरे साल चार लाख पांच लाख और छः लाख है तो उसकी औसत आय पांच लाख का दस गुना मतलब पचास लाख रूपए उस व्यक्ति के परिवार को सरकार से मिलने का हक़ है। ज़्यादातर जानकारी के अभाव में लोग यह क्लेम सरकार से नहीं लेते हैं। जानेवाले की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता है किंतु पैसा पास में हो तो भविष्य सुचारु रूप से चल सकता है ।

            लगातार तीन साल तक रिटर्न दाखिल नहीं किया है तो ऐसे केस में सरकार एक डेढ़ लाख देकर किनारा कर लेती है। लगातार तीन साल तक लगातार रिटर्न फ़ाइल किया गया है तो केस ज़्यादा मजबूत होता है और यह माना जाता है कि मरनेवाला व्यक्ति अपने परिवार का रेगुलर अर्नर था और अगर वह जिन्दा रहता तो अपने परिवार के लिए अगले दस सालो में वर्तमान आय का दस गुना तो कमाता ही जिससे वह अपने परिवार का अच्छी तरह से पालन-पोषण कर पाता। सर्विस वाले रेगुलर अर्नर रिटर्न फ़ाइल नहीं करते जिसकी वजह से न तो कंपनी द्वारा काटा हुआ पैसा सरकार से वापस लेते हैं और न ही इस प्रकार से मिलने वाले लाभ का हिस्सा बन पाते हैं। आप अपने वकील से पूरी जानकारी लें और रिटर्न जरूर फ़ाइल करें ।
***
पुरुष विमर्श -
            तपस्यारत ऋषि को अल्पसंख्यक वस्त्रों, सौन्दर्य, भाव-भंगिमा से मुग्ध कर तप-च्युत करनेवाली अप्सरा नहीं, ऋषि लांछित होता है। इसी विरासत को ग्रहण कर नग्न प्राय आधुनिकाएँ पुरुषों को यौन अपराधों का दोषी ठहराकर अश्लील साहित्य परोसना और अमर्यादित आचरण करना स्त्री विमर्श मान रही हैं।

            आधुनिक युवतियाँ विवाह पश्चात ससुराल पक्ष के रिश्तों को निभाने, पारिवारिक सदस्यों को अपनाने से भी परहेज करती हैं जबकि अपने मायके पक्ष के रिश्तों को निभाने की अपेक्षा पति से करती हैं।

            इतना ही नहीं संकट में पड़ने पर ससुराल की संपत्ति पर अपना हक तत्काल जताती हैं जबकि ससुराल के प्रति कर्तव्य नहीं निभातीं। पुलिस और न्यायालय ही नहीं समाज भी प्रथम दृष्ट्या पुरुष को ही दोषी मानकर दंडित करता है।

            इसका दुष्परिणाम यह है कि हिन्दू युवक विवाह करने से डरने लगे हैं और सुशिक्षित आधुनिकाएँ 'लिव इन' और 'लव जिहाद' की रह पर जाकर अपना जीवन नष्ट कर रही हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं कारणों से हिन्दू आबादी घट रही है। यह भी विचारणीय है कि मुस्लिम युवतियाँ अपने पारंपरिक जीवन मूल्यों का खुशी से निर्वहन कर सुरक्षित हैं। क्या हिंदी समाज और परिवारों को मुसलमान समाज को दोषी ठहरने के स्थान पर अपनी जीवन शैली में सुधार कर बेटियों को ससुराल पक्ष के प्रति जिम्मेदार नहीं बनाना चाहिए।

आपकी सोच क्या है?
***
सॉनेट
सरस्वती
सरस वती माँ स रसवती
रहें हमेशा ही रस-लीन।
रस-निधि दें, मैं याचक हीन।।
सदय रहें माँ सरस्वती।।
मैया! गाऊँ निश-दिन गान।
कह न सकूँ महिमा तेरी।
करो कृपा अब बिन देरी।।
हो मेरा जीवन रसखान।।
स्वीकारो दंडौत प्रणाम
बन जाएँ सब बिगड़े काम
हो जाए मम नाम अनाम।।
भव-बंधन काटो मैया!
'सलिल' गहे कर की छैंया
शरण मिले पकड़ूँ पैंया।।
१९-१२-२०२२
जबलपुर, १०•३२
९४२५१८३२४४
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सॉनेट
शारदा
*
शारदा माता नमन शत, चित्र गुप्त दिखाइए।
सात स्वर सोपान पर पग सात हमको दे चला।
नाद अनहद सुनाकर, भव सिंधु पार कराइए।।
बिंदु-रेखा-रंग से खेलें हमें लगता भला।।
अजर अक्षर कलम-मसि दे, पटल पर लिखवाइए।
शब्द-सलिला में सकें अवगाह, हों मतिमान हम।
भाव-रस-लय में विलय हों, सत्सृजन करवाइए।।
प्रकृति के अनुकूल जीवन जी सकें, हर सकें तम।।
अस्मिता हो आस मैया, सुष्मिता हो श्वास हर।
हों सकें हम विश्व मानव, राह वह दिखलाइए।
जीव हर संजीव, दे सुख, हों सुखी कम कष्ट कर।।
क्रोध-माया-मोह से माँ! मुक्त कर मुस्काइए।।
साधना हो सफल, आशा पूर्ण, हो संतोष दे।
शांति पाकर शांत हों, आशीष अक्षय कोष दे।।
१९-१२-२०२१
***
सॉनेट
अभियान
*
सृजन सुख पा-दे सकें, सार्थक तभी अभियान है।
मैं व तुम हम हो सके, सार्थक तभी अभियान है।
हाथ खाली थे-रहेंगे, व्यर्थ ही अभिमान है।।
ज्यों की त्यों चादर रखें, सत्कर्म कर अभियान है।।
अरुण सम उजियार कर, हम तम हरें अभियान है।
सत्य-शिव-सुंदर रचें, मन-प्राण से अभियान है।
रहें हम जिज्ञासु हरदम, जग कहे मतिमान है।।
सत्-चित्-आनंद पाएँ, कर सृजन अभियान है।।
प्रीत सागर गीत गागर, तृप्ति दे अभियान है।
छंद नित नव रच सके, मन तृप्त हो अभियान है।
जगत्जननी-जगत्पितु की कृपा ही वरदान है।।
भारती की आरती ही, 'सलिल' गौरव गान है।।
रहे सरला बुद्धि, तरला मति सुखद अभियान है।
संत हो बसंत सा मन, नव सृजन अभियान है।।
१९-१२-२०२१
***
सामयिक दोहे
तीर अगिन तूणीर में, चुना मरो अब झेल।
जो न साथ होगी तुरत, जेल न पाए बेल।।
तंत्र नाथ है लोक का, मालिक सत्ताधीश।
हुआ न होगा फिर कभी, कोई जुमलाधीश।।
छप्पन इंची वक्ष का, झेले वार तमाम।
जन पदच्युत कर दे बता, करना आता काम।।
रोजी छीनी भाव भी, बढ़ा रही है खूब।
देशभक्ति खेती मिटा, सेठ भक्ति में डूब।।
मूरत होगी राम की, सिया न होंगी साथ।
रेप करेंगे विधायक, भगवा थाने हाथ।।
अहंकार की होड़ है, तोड़ सके तो तोड़।
आग लगाता देश में, सत्ता का गठजोड़।।
'सलिल' सियासत है नहीं, तुझको किंचित साध्य।
जन-मन का दुख-दर्द कह, भारत माँ आराध्य।।
१९-१२-२०१९
***
चुटकी गीत
*
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
बरस इस बरस मेघ आ!
नमन करे संसार।
न मन अगर तो नम न हो,
तज मिथ्या आचार।।
एक राह पर चलाचल
कदम न होना भ्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
*
कह - मत कह आ रात तू ,
खुद आ जाती रात।
बिना निकाले निकलती
सपनों की बारात।।
क्रांति-क्रांति चिल्ला रहे,
खुद भय से आक्रांत।
इच्छा है यदि शांति की
कर ले इच्छा शांत।
छंद: दोहा
१९-१२-२०१८
***
चित्रगुप्त-रहस्य
*
चित्रगुप्त पर ब्रम्ह हैं, ॐ अनाहद नाद
योगी पल-पल ध्यानकर, कर पाते संवाद
निराकार पर ब्रम्ह का, बिन आकार न चित्र
चित्र गुप्त कहते इन्हें, सकल जीव के मित्र
नाद तरंगें संघनित, मिलें आप से आप
सूक्ष्म कणों का रूप ले, सकें शून्य में व्याप
कण जब गहते भार तो, नाम मिले बोसॉन
प्रभु! पदार्थ निर्माण कर, डालें उसमें जान
काया रच निज अंश से, करते प्रभु संप्राण
कहलाते कायस्थ- कर, अंध तिमिर से त्राण
परम आत्म ही आत्म है, कण-कण में जो व्याप्त
परम सत्य सब जानते, वेद वचन यह आप्त
कंकर कंकर में बसे, शंकर कहता लोक
चित्रगुप्त फल कर्म के, दें बिन हर्ष, न शोक
मन मंदिर में रहें प्रभु!, सत्य देव! वे एक
सृष्टि रचें पालें मिटा, सकें अनेकानेक
अगणित हैं ब्रम्हांड, है हर का ब्रम्हा भिन्न
विष्णु पाल शिव नाश कर, होते सदा अभिन्न
चित्रगुप्त के रूप हैं, तीनों- करें न भेद
भिन्न उन्हें जो देखता, तिमिर न सकता भेद
पुत्र पिता का पिता है, सत्य लोक की बात
इसी अर्थ में देव का, रूप हुआ विख्यात
मुख से उपजे विप्र का, आशय उपजा ज्ञान
कहकर देते अन्य को, सदा मनुज विद्वान
भुजा बचाये देह को, जो क्षत्रिय का काम
क्षत्रिय उपजे भुजा से, कहते ग्रन्थ तमाम
उदर पालने के लिये, करे लोक व्यापार
वैश्य उदर से जन्मते, का यह सच्चा सार
पैर वहाँ करते रहे, सकल देह का भार
सेवक उपजे पैर से, कहे सहज संसार
दीन-हीन होता नहीं, तन का कोई भाग
हर हिस्से से कीजिये, 'सलिल' नेह-अनुराग
सकल सृष्टि कायस्थ है, परम सत्य लें जान
चित्रगुप्त का अंश तज, तत्क्षण हो बेजान
आत्म मिले परमात्म से, तभी मिल सके मुक्ति
भोग कर्म-फल मुक्त हों, कैसे खोजें युक्ति?
सत्कर्मों की संहिता, धर्म- अधर्म अकर्म
सदाचार में मुक्ति है, यही धर्म का मर्म
नारायण ही सत्य हैं, माया सृष्टि असत्य
तज असत्य भज सत्य को, धर्म कहे कर कृत्य
किसी रूप में भी भजे, हैं अरूप भगवान्
चित्र गुप्त है सभी का, भ्रमित न हों मतिमान
*
षट्पदी
श्वास-आस में ग्रह-उपग्रह सा पल-पल पलता नाता हो.
समय, समय से पूर्व, समय पर सच कहकर चेताता हो.
कर्म भाग्य का भाग्य बताये, भाग्य कर्म के साथ रहे-
संगीता के संग आज, कल-कल की बात बताता हो.
जन्मदिवस पर केक न काटें, कभी बुझायें ज्योति नहीं
दीप जला दीवाली कर लें, तिमिर भाग छिप जाता हो
१९-१२-२०१७
***
नव गीत
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
देश एक है हम अनेक
खोया है जाग्रत विवेक
परदेशी के संग लडे
हाथ हमारे रहे जुड़े
कानून कई थे तोड़े
हौसले रहे कब थोड़े?
पाकर माने आज़ादी
भारत माँ थी मुस्कादी
चाह था
शेष न फूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
जब अपना शासन आया
अनुशासन हमें न भाया
जनप्रतिनिधि चाहें सुविधा
जनहित-निजहित में दुविधा
शोषक बन बैठे अफसर
धनपति शोषक हैं अकसर
जन करता है नादानी
कानून तोड़ मनमानी
तुम मानो
हमको छूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
धनतंत्र हुआ है हावी
दलतंत्र करे बरबादी
दमतोड़ रहा जनतंत्र
फल-फूल रहा मनतंत्र
सर्वार्थ रहे क्यों टाल
निज स्वार्थ रहे हैं पाल
टकराकर
खुद से टूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
घात लगाये पडोसी हैं
हम खुद को कहते दोषी हैं
ठप करते संसद खुद हम
खुद को खुद ही देते गम
भूखे मजदूर-किसान
भूले हैं भजन-अजान
निज माथा
खुद ही कूट रहे
मालिक को
रक्षक लूट रहे
*
कुदरत सचमुच नाराज
ला रही प्रलय गिर गाज
तूफ़ान बवंडर नाश
बिछ रहीं सहस्त्रों लाश
कह रहा समय सम्हलो भी
मिल संग सुपंथ चलो भी
सच्चे हों
शेष न झूठ रहे
१९-१२-२०१५
***
नव गीत:
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
करो नमस्ते
या मुँह फेरो
सुख में भूलो
दुःख में टेरो
अपने सुर में गाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
एक दूसरे
को मारो या
गले लगाओ
हँस मुस्काओ
दर्पण छवि दिखलाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
.
चाह न मिटना
तो खुद सुधरो
या कोसो जिस-
तिस को ससुरों
अपना राग सुनाएगा ही
नए साल को
आना है तो आएगा ही
१९-१२-२०१४
***

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

सवैया

सवैया

            वर्णिक वृत्तों में २२ से २६ अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। सामान्य जाति-वृत्तों से बड़ा और वर्णिक दण्डकों से छोटा छन्द सवैया है। कवित्त - घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं। सवैया  चार चरणों का समपाद वर्ण छंद है।  इन में  वर्ण की मात्रा के साथ एक निश्चित माप दण्डों का पालन भी आवश्यक होता है ,यानि लघु और गुरु भी अपने निर्धारित स्थानों पर ही होते हैं। इन में प्रायः गणों की आवृत्ति होती है। आरंभ या अंत में एक दो वर्ण बढ़ाकर नए सवैया बना लिए जाते हैं।

        संस्कृत में ये समस्त भेद वृत्तात्मक हैं किंतु हिन्दी सवैया मुक्तक वर्णक के रूप में है। अपने खोज-निबन्ध 'द कण्ट्रीब्यूशन ऑफ़ हिन्दी पोयट्स टु प्राज़ोडी' के चौथे प्रकरण में जानकीनाथ सिंह का मत है कि कवियों ने सवैया को वर्णिक सम-वृत्त रूप में लिया है। उसमें लय के साथ गुरु मात्रा का जो लघु उच्चारण किया जाता है, वह हिन्दी की सामान्य प्रवृत्ति है। हिन्दी में मात्रिक छन्दों के व्यापक प्रयोग के बीच प्रयुक्त इस वर्णिक छन्द पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ा है।  कवित्त की तरह सवैया भी एक विशेष लय पर चलता है। भगणात्मक, जगणात्मक तथा सगणात्मक सवैये की लय क्षिप्र और यगण, तगण तथा रगणात्मक सवैये की लय मन्द गतिज होती है। सवैया में वस्तु स्थिति तथा भावस्थिति के चित्र बहुत सफलतापूर्वक अंकित होते हैं। यह छन्द मुक्तक प्रकृति के बहुत अनुकूल है। यह छन्द श्रृंगार रस तथा भक्ति भावना की अभिव्यक्ति के लिए बहुत उत्कृष्ट रूप में प्रयुक्त हुआ है। 

            भक्तिकाल में कवित्त और सवैया दोनों छन्दों की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। तुलसी जैसे प्रमुख कवि ने अपनी 'कवितावली' में इन्हीं दो छन्दों को प्रधानता दी है। रीतिकाल की मुक्तक शैली में कवित्त और सवैया का महत्त्वपूर्ण योग है। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार रस के विभिन्न अंगों, विभाव, अनुभाव, आलम्बन, उद्दीपन, संचारी, नायक-नायिका भेद आदि के लिए इनका चित्रात्मक तथा भावात्मक प्रयोग किया है। रसखान, घनानन्द, आलम जैसे प्रेमी-भक्त कवियों ने भक्ति-भावना के उद्वेग तथा आवेग की सफल अभिव्यक्ति सवैया में की है। वीर रस सवैया की प्रकृति के बहुत अनुकूल नहीं है तथापि भूषण ने वीर रस के लिए इस छन्द का प्रयोग किया है। आधुनिक कवियों में हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर, अनंत राम मिश्र 'अनंत' आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है।

संकर (मिश्रित) सवैया-

            सर्वप्रथम तुलसी ने 'कवितावली' में संकर (मिश्रित) सवैया का प्रयोग किया है। संकर सवैया में दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त होते हैं। केशवदास ने भी इस दिशा में प्रयोग किये हैं। मत्तगयन्द-सुन्दरी ये दोनों सवैया कई प्रकार के एक साथ प्रयुक्त हुए हैं। तुलसी ने इसका सबसे अधिक प्रयोग किया है। केशव तथा रसखान ने उनका अनुसरण किया है। 
प्रथम पद मत्तगयन्द का (७ भगण + २ गुरु) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुरको तजि डारौ"।
तीसरा पद सुन्दरी (८ सगण + गुरु) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"। 

तुलसी ने एक पद मदिरा  ७ भगण + गुरु) का रखकर शेष दुर्मिल (८ सगण) के पद रखे हैं। केशव ने भी इसका अनुसरण किया है। 
मदिरा का पद - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"।
दुर्मिल का पद - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"। 

इनके अतिरिक्त मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी के विभिन्न संकर सवैया तुलसी की 'कवितावली' में तथा केशव की 'रसिकप्रिया' में मिलते हैं। कवियों ने ऐसे प्रयोग भाव-चित्रणों में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने की दृष्टि से किया है। 
प्रकार-
मदिरा (मालिनी /उमा/ दिव्या) सवैया- २११ २११ २११ २, ११ २११ २११ २११ २, यति १०-१२। 
मत्तगयन्द सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २२, यति १२-११।
सुमुखि (मानिनी, मल्लिका) सवैया- १२१ १२१ १२१ १२, १ १२१ १२१ १२१ १२, यति ११-१२। 
दुर्मिल (चन्द्रकला) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२, यति १२-१२।  
किरीट सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २११, यति १२-१२। 
गंगोदक  (गंगाधर /लक्ष्मी/खंजन) सवैया- २१२ २१२ २१२ २१२, २१२ २१२ २१२ २१२, यति १२-१२।                                                  
वाम (मंजरी / मकरंद /माधवी) सवैया- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२२, यति १२-१२। 
अरसात सवैया- २११ २११ २११ २११, २११ २११ २११ २१२, यति १२-१२। 
सुन्दरी (मल्ली/ सुखदानी)सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२,११२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१३।
अरविन्द सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ १, यति १२-१३। 
मानिनी सवैया- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२, यति ११-१२। *
प्रफुल्लित दास बसन्त कि फ़ौज सिलीमुख भीर देखावति है- तुलसी 
महाभुजंगप्रयात सवैया-  १२२  १२२  १२२  १२२, १२२  १२२  १२२  १२२, यति  १२-१२।
सुखी (किशोर ( सुख / कुन्दलता /कुन्तलता) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ ११, यति १२-१४। 
***
ब्लॉग: मन की वीणा- कुसुम कोठारी 
मुक्तहरा सवैया- १२१ १२१ १२१ १२, ११२१ १२१ १२१ १२१, यति ११-१३। * 
वागीश्वरी सवैया- १२२ १२२ १२२ १२२, १२२ १२२ १२२ १२, यति १२-११।
चकोर सवैया- २११ २११ २१२ २११, २११ २११ २११ २१, यति १२-११। 
सुख (महामंजीर) सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-१४। 
विज्ञ सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ २२, यति १२-११। 
विदुषी सवैया- २१२ २१२ २१२ २, १२ २१२ २१२ २१२ २, यति १०-१२। 
साँची सवैया- २२१ २२१ २२१ ११२, २२१ २२१ २२१ १२, यति १२-११। 
कोविंद  सवैया- २११ २२२ २११ २२, २११ २२२ ११२ २२, यति ११-११। 
प्रज्ञा सवैया- २२२ २१२ २१२ २११, २१२ २१२ २११ २२, यति १२-११। 
सुधी सवैया- १२१ १२१ १२१ ११२, १२१ १२१ १२२ १२, यति १२-११। 
राधेगोपाल सवैया- २२१ १२१ १२१ १२, १ १२१ १२१ १२१ १२२, यति ११-१३। 
अर्णव (सर्वगामी, अग्र) सवैया- २२१ २१२ २१२ २१२, २१२ २१२ २२१ २२, यति १२-११। 
सपना सवैया- २२२ १२२ १२२ १२२, १२२ १२२ १२२ २२२, यति १२-१२। 
कुमकुम सवैया- ११२ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-११। 
तेजल सवैया- ११ ११२ ११२ ११२ १, १२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१२। 
विज्ञात बेरी सवैया- २२१ १२२ २११ २११, २११ २११ २२१ २२, यति १२-११। 
शान्ता सवैया- २२ ११२ ११२ ११२ ११, २ ११२ ११२ ११२ २२, यति १३-१२। 
पूजा सवैया- २१ ११२ ११२ ११२ १, १२ ११२ ११२ ११२ १२, यति १२-१३। 
महेश सवैया- २२ ११२ ११२ ११२ ११, २ ११२ ११२ ११२ २, यति १३-११। 
एकता सवैया- २२१ ११२ ११२ ११२, ११२ ११२ ११२ ११२ २, यति १२-१३। 
जय सवैया- २ २१२ २१२ २१२ २, १२ २१२ २१२ २१२ २, यति ११-१२। 
सुवासिता सवैया- २१२ ११२ १२२ १२१ १, २१२ १२२ ११ २११, यति १३-११। 
विज्ञात सवैया- २१२ २२१ २२१ २२२, २१२ २११ २२१ २२, यति १२-११। 
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सुभाष ‌सिंघई
लवंगलता- १२१ १२१ १२१ १२१, १२१ १२१ १२१ १२१ १, यति १२-१३। 
मंदारमाला- २२१ २२१ २२१ २२१, २२१ २२१ २२, यति १२-१०। 
आभार- २२१ २२१ २२१ २२१, २२१ २२१ २२१ २२१, यति- १२-१२।      

रसखान
सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै॥
नारद से सुक व्यास रटै पचि हारे तऊ पुनि पार न पावै।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावै॥
            रसखान कहते हैं कि जिस कृष्ण के गुणों का शेषनाग, गणेश, शिव, सूर्य, इंद्र निरंतर स्मरण करते हैं। वेद जिसके स्वरूप का निश्चित ज्ञान प्राप्त न करके उसे अनादि, अनंत, अखंड अछेद्य आदि विशेषणों से युक्त करते हैं। नारद, शुकदेव और व्यास जैसे प्रकांड पंडित भी अपनी पूरी कोशिश करके जिसके स्वरूप का पता न लगा सके और हार मानकर बैठ गए, उन्हीं कृष्ण को अहीर की लड़कियाँ छाछिया-भर छाछ के लिए नाच नचाती हैं।
देव 
राधिका कान्ह को ध्यान धरैं तब कान्ह ह्वै राधिका के गुन गावै।
त्यों अँसुवा बरसै बरसाने को पाती लिखै लिखि राधिकै ध्यावै।
राधे ह्वै जाइ तेही छिन देव सु प्रेम की पाती लै छाती लगावै।
आपु ते आपुही मैं उरझै सुरझै बिरझै समुझै समुझावै॥
            राधा कृष्ण के ध्यान में इतनी तल्लीन हो जाती है कि वह भूल जाती है कि वह राधा है। वह स्वयं को कृष्ण समझ बैठती है और तब वह अपने ही गुणों का बखान करने लगती है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। वह बरसाने को पत्र लिखती है और लिखकर राधिका के बारे में सोचने लगती है। फिर वह क्षण भर में राधा बन जाती है। उसे ध्यान आ जाता है कि मैं कृष्ण नहीं हूँ। वह प्रेम की पाती को अपने सीने से लगा लेती है। प्रेमभाव से विभोर होकर वह अपनापन भी भूल जाती है। वह कभी तो स्वयं को कृष्ण समझ लेती है और कुछ समय बाद वह फिर संभल जाती है और स्वयं को राधा ही समझती है। इस प्रकार वह अपने आप ही उलझन में पड़ जाती है। कभी वह उलझन को दूर करती है, कभी उलझती है और फिर स्वयं को समझाती है।
भोर तैं साँझ लौं कानन ओर
घनानंद
भोर तैं साँझ लौं कानन ओर निहारति बाबरी नैकु न हारति।
साँझ तैं भोर लौं तारिन ताकिबौ तारनि सों इकतार न टारति॥
जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनंद आँसुनि औसर गारति।
मोहन सोंहन जोहन की लगियै रहै आँखिन कें उर आरति॥
        विरहिणी नायिका बावली होकर प्रातःकाल से सायंकाल तक जंगल की ओर ही देखती रहती है और तनिक भी नहीं थकती है। संध्या से प्रातःकाल तक वह अपनी आँखों को एकटक तारागणों को देखना नहीं छोड़ती है अर्थात् तारों को एकटक निहारती हुई ही वह संपूर्ण रात्रि को व्यतीत कर देती है। कवि कहता है कि यदि कहीं प्रिय दिखाई पड़ जाता है तो निरंतर अश्रु-प्रवाह के कारण उसके दर्शन-लाभ के सुअवसर को भी वह खो देती है। इस प्रकार उस विरहिणी नायिका की आँखों के हृदय में प्रियतम को सदैव देखने की लालसा बनी ही रहती है।
नरोत्तम दास 
सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा॥
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकिसों बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

पद्माकर
आयी हौं खेलन फाग इहाँ वृषभानपुरी तें सखी संग लीने।
त्यों ‘पद्माकर’ गावतीं गीत रिझावतीं हाव बताइ नवीने।
कंचन की पिचकी कर में लिये केसरि के रंग सों अंग भीने।
छोटी-सी छाती छुटी अलकैं अति बैस की छोटी बड़ी परबीने॥
        नायिका कहती है कि मैं अपने पिता राजा वृषभानु की नगरी अर्थात बरसाना से अपनी सखियों को साथ लेकर यहाँ गोकुल में फाग खेलने आई हूँ। कवि पद्माकर वर्णन करते हुए कहते हैं कि राधा और उसकी सखियाँ मधुर गीत गाती हैं और अनेक नई-नई चेष्टाएँ, हाव-भाव आदि करती हुई लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं, उन्हें रिझाती हैं। उनके हाथों में सोने की पिचकारी है ओर केसर के रंग के समान उसका कांतियुक्त भीगा बदन सुगंध से सुवासित है। उसका वक्ष अभी छोटा ही है अर्थात उसके स्तनों का विकास पूरी तरह नहीं हुआ है। बाल बिखरे हुए हैं, आयु में भी वह अभी छोटी है परंतु बड़ी चतुर है, अर्थात बात-व्यवहार में काफ़ी समझदार एवं चतुर है।
मुबारक
बंसी बजावत आनि कढ़ो वा गली में छली कछु जादू सो डारे।
नेकु चितै तिरछी करि भौंह चलो गयो मोहन मूठी सो मारे।
वाही घरीक डरी वह सेज पै नेकु न आवत प्रान सँभारे।
जी है तौ जीहै न जीहै सखी न तो पीहै सबै बिष नंद के द्वारे॥

तुलसीदास
दूलह श्री रघुनाथ बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
बातें सबैं सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाहीं॥  - कवितावली 
            महल में राम दूल्हा और जानकी दुलहिन के वेष में हैं। सब स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगीं और युवक ब्राह्मण मिलकर वेदध्वनि करने लगे। जानकी अपने हाथ के कंकण के नग में राम की परछाहीं को देखने लगीं। इससे उन्हें सब सुध भूल गई, उन्होंने अपने हाथ को स्थिर रखा और पलकों को नहीं गिराया।
गुरु गोविंद सिंह
गइ आइ दसो दिसि ते गुपिया, सबही रस कान्ह के साथ पगी।
पिख कै मुख कान्ह को चंदकला, सु चकोरन-सी मन में उमगी॥
हरि को पुनि सुद्ध सुआनन पेखि, किधौं तिन की ठग डीठ लगी।
भगवान प्रसन्न भयो पिख कै, कवि 'स्याम' मनो मृग देख मृगी॥

रसलीन
फाग समय रसलीन बिचारि लला पिचकी तिय आवत लीनें।
आइ जबै दिढ़ ह्वै निकसी तब औचक चोट उरोजन कीनें।
लागत धाप दोऊ कुच में सतराइ चितै उन बाल नवीनें।
झटका दै तोर चटाक दै माल छटाक दै लाल के गाल में दीनें॥

गंग
हंस तौ चाहत मानसरोवर, मानसरोवर है रंग राता।
नीर की बुंद पपीहरा चाहत, चंद चकोर कै नेह का नाता।
प्रीतम प्रीति लगाइ चलै कबि गंग कहै जग जीवनदाता।
मेरे तौ चित्त में मित्त बसै, अरु मित्त के चित्त की जान बिधाता॥
संदर्भ- ↑ अप्रकाशित निबंध से, ↑ रसखान, ↑ कवितावली २, ↑ जानकीनाथ सिंह : द कण्ट्रीब्यूशन ऑफ़ हिन्दी पोयट्स टु प्राज़ोडी, अप्रकाशित
धीरेंद्र, वर्मा “भाग- १ पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), ७४०।