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शनिवार, 14 दिसंबर 2024

दिसंबर १४, व्यंग्य गीत, हाइकु, मुक्तिका, श्री राधे, Poem, सॉनेट, नर्मदा, व्यंग्य मुक्तिका,नाक्षत्रिक छंद

सलिल सृजन दिसंबर १४
*
नवोन्वेषित नाक्षत्रिक छंद
विधान- दो पद, चार चरण, पदभार २७, यति १४-१३, तुकांत गुरु-लघु।

भय की नाम-पट्टिका पर, लिख दें साहस का नाम।
कोशिश कभी न हारेगी, बाधा को दें पैगाम।।
*
नक्षत्र

भारतीय ज्योतिष के अनुसार चंद्र पथ से जुड़े तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। सूर्य मेष से लेकर मीन तक भ्रमण करता है जबकि चंद्रमा अश्विनी से रेवती तक भ्रमण करता है। नक्षत्र सूची अथर्ववेदतैत्तिरीय संहिताशतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं। एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज है उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा रहेगा। ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति से सबको पहचान सकते हैं। पहचान के लिये तारों के मिलने से बने आकार के आधार पर तारकपुंज का नाम रखा गया है। 

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर 'नक्षत्र चक्र' कहलाता है। २७ नक्षत्रों की संख्या, नाम, स्वामी और आकृति इस प्रकार  हैं-

नक्षत्रतारासंख्याआकृति और पहचान
०१. अश्विनीघोड़ा
०२. भरणीत्रिकोण
०३. कृत्तिकाअग्निशिखा
०४. रोहिणीगाड़ी
०५. मृगशिराहरिणमस्तक वा विडालपद
०६. आर्द्राउज्वल
०७. पुनर्वसु५ या ६धनुष या धर
०८. पुष्य१ वा ३माणिक्य वर्ण
०९, अश्लेषाकुत्ते की पूँछ वा कुलावचक्र
१०. मघाहल
११. पूर्वाफाल्गुनीखट्वाकार X उत्तर दक्षिण
१२. उत्तराफाल्गुनीशय्याकारX उत्तर दक्षिण
१३. हस्तहाथ का पंजा
१४. चित्रामुक्तावत् उज्वल
१५. स्वातीकुंकुं वर्ण
१६. विशाखा५ व ६तोरण या माला
१७. अनुराधासूप या जलधारा
१८. ज्येष्ठासर्प या कुंडल
१९. मूल९ या ११शंख या सिंह की पूँछ
२०. पूर्वाषाढ़ासूप या हाथी का दाँत
२१. उत्तरषाढ़ासूप
२२. श्रवणबाण या त्रिशूल
२३. धनिष्ठा प्रवेशमर्दल बाजा
२४. शतभिषा१००मंडलाकार
२५. पूर्वभाद्रपदभारवत् या घंटाकार
२६. उत्तरभाद्रपददो मस्तक
२७. रेवती३२मछली या मृदंग

इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त 'अभिजित्' नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है। इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

२७ नक्षत्र हैं- अश्विन, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती। 

नक्षत्रों की चार श्रेणियाँ अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन और सुलोचन हैं। पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा। पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, रेवती तथा रोहिणी अंध लोचन नक्षत्र है। मंद लोचन नक्षत्र आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, अश्विनी तथा मृगशिरा है। मध्य लोचन नक्षत्र मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, पूर्व भाद्रपद, भरणी एवं आर्द्रा हैं। पूर्वा फाल्गुनी, स्वाति, मूल, भरण, उत्तरा भाद्रपद, कृतिका व  पुनर्वसु सुलोचन नक्षत्र हैं। 

इन २७ नक्षत्रों के ९ गृह स्वामी हैं।  १. केतु- आश्विन मघा  मूल, २. भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा ३. रवि- कार्तिक, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा षाढ़ा ४. चंद्र- रोहिणी, हस्त, श्रवण ५. मंगल- मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा ६. राहु- आर्द्रा, स्वाति, शतभिषा ७. बृहस्पति- पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद ८. 

शनि- पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद ९. बुध- आश्लेषा, ज्येष्ठा रेवती।

***

भाषा और शब्द

        भाषा के शब्द प्रतीक हैं। इस कारण अर्थवान उच्चरित खंडों का अपने वाच्य से प्राकृत सम्बन्ध न होकर याद्दच्छिक सम्बन्ध होता है।यादृच्छिकता का अर्थ है अपनी इच्छा से माना हुआ सम्बन्ध। शब्द द्वारा हमें उस पदार्थ या भाव का बोध होता है जिससे वह सम्बद्ध हो चुका होता है।

        शब्द स्वयं पदार्थ नहीं है। हम किसी वस्तु को उसके जिस नाम से पुकारते हैं उस नाम एवं वस्तु में परस्पर कोई प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध नहीं होता। उनका सम्बन्ध स्वेच्छाकृत मान्य होता है। इसी कारण भाषा का शब्द स्वतः स्फूर्त नहीं होता। हम समाज में रहकर भाषा को सीखते हैं। कोई समाज किसी वस्तु के लिए जिस नाम की स्वीकृति दे देता हैं वही नाम उस समाज में उस वस्तु के लिए प्रयुक्त होने लगता है। यही कारण है कि एक ही वस्तु के अलग-अलग भाषाओं में प्रायःभिन्न वाचक मिलते हैं। 

        यदि शब्द एवं वस्तु का प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध होता तो संसार भर की भाषाओं में एक वस्तु का एक ही वाचक होता किंतु ऐसा नहीं है। एक ही वस्तु को अनेक नामों से पुकारा जाता है। यथा - ' हिन्दी में, जिसे कुत्ता कहते हैं उसको अंग्रेजी में ‘डॉग' (dog) ; चीनी में ‘गोऊ’(gou) ; इटैलियन में ‘कैने’(cane) ; स्पेनिश में ‘पेरो’ (perro) ; जर्मन में ‘हुण्ड’(Hund) ; तथा रूसी में सुबाका(sobaka) कहते हैं।

        भारतीय भाषाओं मे भी एक ही पदार्थ के अनेक वाचक मिल जाते हैं-हिन्दी के गेहूँ को पंजाबी में कणक, गुजराती में धउँ, बंगला एवं असमियों में गम अथवा गाम कहते हैं। हिन्दी की आँख मराठी में डोला, तमिल में कणमणि , कन्नड़ में पापे बोली जाती है। गर्दन को पंजाबी में धौण, मराठी में मानू, असमिया में दिङि, उडि़या में बेक तथा तमिल एवं मलयालम में कलुत्तुँ कहते हैं। हिन्दी में भोजन करते हैं, मराठी गुजराती में जेवण या जमण करते हैं। इसके विपरीत एक ही शब्द विभिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।
***
सॉनेट
चंद्र मणि

गगन अँगूठी रत्न चंद्र मणि जगमग चमके,
अवलोके जो दाँतों में अँगुलियाँ दबाए,
धरती मैया सुता निहारे बलि बलि जाए,
तारक दीप्ति मंद हो कहिए कैसे दमके?
गड़ गड़ मेघा रूठे क्रोधित गरजे-बमके
पवन वेग से दौड़े-भागे खून जलाए,
मिले चंद्र मणि नहीं; इंद्र बरसात कराए,
सूरज कर दीदार न पाए दिन भए तमके।
भोले भण्डारी हँस लेते सजा शीश पर,
नाग कंठ में लटकाकर हर करें सुरक्षा,
अमिय-जहर का साथ अनूठा जग जग हेरे।
जैसा भाव दिखे वैसा ही कवि कहते अक्सर,
दे प्रज्ञान चित्र, विक्रम को भाए कक्षा,
निरख चंद्र मणि रूप सलिल साथी को टेरे।
१४.१२.२०२३
•••
सॉनेट
रश्मि
रश्मि कौंधती प्राची में तब पौ फटती है,
रश्मिरथी नीलाभ गगन को रँगें सुनहरा,
पंछी करते कलरव झूमे पवन मसखरा,
आलस की कुहराई रजाई भी हटती है।
आँखें खुलें मनुजता भू पर पग धरती है,
गिरि चढ़, नापे समुद, गगन में भी वह विचरा,
रश्मि सूर्य शशि की मोहे पग वहाँ भी धरा,
ग्रह-उपग्रह जय करने की कोशिश करती है।
रश्मि ज्ञान की दे विवेक सत-सुंदर-शिव भी,
नश्वर माया की छाया से मुक्त हो सकें,
काया साधन पा साधें जन-गण के हित को।
रहने योग्य रहे यह धरती, मिले विभव भी,
क्रोध घृणा विद्वेष सके हर मानव मन खो,
रश्मि प्रकाशित करें निरंतर जीवन-पथ को।
१४.१२.२०२३
•••
व्यंग्य मुक्तिका
घना कोहरा, घुप्प अँधेरा मुँह मत खोलो।
अंध भक्त हो नेता जी की जय जय बोलो।।
संविधान की गारंटी का मोल नहीं है।
नेता जी की गारंटी सुन मटको-डोलो।।
करो विभाजित नित समाज को, मेल मिटाओ।
सद्भावों के शर्बत में नफ़रत विष घोलो।।
जो बीता सो बीता कह आगे मत बढ़ना।
खोद विवादों के मुर्दे जीवन को तोलो।।
मार कुल्हाड़ी आप पैर पर आप हाथ से।
हँस लेना लेकिन पहले थोड़ा तो रो लो।।
१४.१२.२०२३
•••
सॉनेट
नर्मदा
नर्मदा सलिला सनातन,
करोड़ों वर्षों पुरानी,
हर लहर कहती कहानी।
रहो बनकर पतित पावन।।
शिशु सदृश यह खूब मचले,
बालिका चंचल-चपल है,
किशोरी रूपा नवल है।
युवा दौड़े कूद फिसले।।
सलिल अमृत पिलाती है,
शिवांगी मोहे जगत को।
भीति भव की मिटाती है।।
स्वाभिमानी अब्याहा है,
जगज्जननी सुमाता है।
शीश सुर-नर नवाता है।।
१४-१२-२०२२
जबलपुर,७•४७
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***
Poem:Again and again
Sanjiv
*
Why do I wish to swim
Against the river flow?
I know well
I will have to struggle
More and more.
I know that
Flowing downstream
Is an easy task
As compared to upstream.
I also know that
Well wishers standing
On both the banks
Will clap and laugh.
If I win,
They will say:
Their encouragement
Is responsible for the success.
If unfortunately
I lose,
They will not wait a second
To say that
They tried their best
To stop me
By laughing at me.
In both the cases
I will lose and
They will win.
Even then
I will swim
Against the river flow
Again and again.
***
अभिनव प्रयोग
मुक्तिका
श्री राधे
*
अनहद-अक्षर अजर-अमर हो श्री राधे
आत्मा आकारित आखर हो श्री राधे
इला इडा इसरार इजा हो श्री राधे
ईक्षवाकु ईश्वर ईक्षित हो श्री राधे
उदधि उबार उठा उन्नत हो श्री राधे
ऊब न ऊसर उपजाऊ हो श्री राधे
एक एक मिल एक रंग हो श्री राधे
ऐंचातानी जग में क्यों हो श्री राधे?
और न औसर और लुभाओ श्री राधे
थके खोजकर क्यों ओझल हो श्री राधे
अंत न अंतिम 'सलिल' कंत हो श्री राधे
अ: अ: आहा छवि अब हो श्री राधे
(प्रथमाक्षर स्वर)
१४-१२-२०१९
***
नव गीत :
क्यों करे?
*
चर्चा में
चर्चित होने की चाह बहुत
कुछ करें?
क्यों करे?
*
तुम्हें कठघरे में आरोपों के
बेड़ा हमने।
हमें अगर तुम घेरो तो
भू-धरा लगे फटने।
तुमसे मुक्त कराना भारत
ठान लिया हमने।
'गले लगे' तुम,
'गले पड़े' कह वार किया हमने।
हम हैं
नफरत के सौदागर, डाह बहुत
कम करें?
क्यों करे?
*
हम चुनाव लड़ बने बड़े दल
तुम सत्ता झपटो।
नहीं मिले तो धमकाते हो
सड़कों पर निबटो।
अंग हमारे, छल से छीने
बतलाते अपने।
वादों को जुमला कहते हो
नकली हैं नपने।
माँगो अगर बताओ खुद भी,
जाँच कमेटी गठित
मिल करें?
क्यों करे?
*
चोर-चोर मौसेरे भाई
संगा-मित्ती है।
धूल आँख में झोंक रहे मिल
यारी पक्की है।
नूराकुश्ती कर, भत्ते तो
बढ़वा लेते हो।
भूखा कृषक, अँगूठी सुख की
गढ़वा लेते हो।
नोटा नहीं, तुम्हें प्रतिनिधि
निज करे।
क्यों करे?
संजीव
१४-१२-२०१८
***
जो बूझे सो ज्ञानी
छन्नी से छानने पर जो पदार्थ ऊपर रह जाता है उसे क्या कहते हैं?, जो नीचे गिर जाता है उसे क्या कहते हैं?, जो उपयोगी पदार्थ हो उसे क्या कहते हैं?, जो निरुपयोगी पदार्थ हो उसे क्या कहते हैं?
अनाज या रेत छानने पर नीचे गिरा पदार्थ उपयोगी होता है जबकि मेवा आदि छानने पर ऊपर रह गए बड़े दाने अधिक कीमती होते हैं।
छानन का क्या मतलब है?
क्या जलज और जलद की तरह छानने के लाए गए पदार्थ को छानज, छानने के बाद मिले पदार्थ को छानद और शेष पदार्थ को छानन कहना उचित होगा?
*
नवगीत
संसद-थाना
जा पछताना।
जागा चोर, सिपाही सोया
पाया थोड़ा, ज्यादा खोया
आजादी है
कर मनमाना।
जो कुर्सी पर बैठा-ऐंठा
ताश समझ जनता को फेंटा
मत झूठों को
सच बतलाना।
न्याय तराजू थामे अंधा
काले कोट कर रहे धंधा
हो अन्याय
न तू चिल्लाना।
बदमाशों के साथ प्रशासन
लोकतंत्र है महज दु:शासन
चूहा बन
मनमाना खाना।
पंडा-डंडा, झंडी-झण्डा
शाकाहारी है खा अंडा
प्रभु को दिखा
भोग खुद खाना।
14.12.2016
***
एक दोहा-
चीका, बळी, फेदड़ी, तेली, खिजरा, खाओ खूब
भारत की हर भाषा बोलो, अपनेपन में डूब
***
उत्तर प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स महासंघ की स्मारिका १९८८ में प्रकाशित मेरे हाइकु
१.
ईंट रेट का
मन्दिर मनहर
देव लापता
*
२.
क्या दूँ मीता?
भौतिक सारा जग
क्षणभंगुर
*
गोली या तीर
सी चुभन गंभीर
लिए हाइकु
*
स्वेद-गंग है
पावन सचमुच
गंगा जल से
*
पर पीड़ा से
अगर न पिघला
तो मानव क्या?
*
मैले मन को
उजला तन क्यों
देते हो प्रभु?
*
चाह नहीं है
सुख की दुःख
साथी हैं सच्चे
*
मद-मदिरा
मत मुझे पिला, दे
नम्र भावना
*
इंजीनियर
लगा रहा है चूना
क्यों खुद को ही?
***
नवगीत
*
शब्दों की भी मर्यादा है
*
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा
क्यों उल्लास-ख़ुशी हुडदंगा?
शब्दों का मत दुरूपयोग कर.
शब्द चाहता यह वादा है
शब्दों की भी मर्यादा है
*
शब्द नाद है, शब्द ताल है.
गत-अब-आगत, यही काल है
पल-पल का हँस सदुपयोग कर
उत्तम वह है जो सादा है
शब्दों की भी मर्यादा है
*
सुर, सरगम, धुन, लय, गति-यति है
समझ-साध सदबुद्धि-सुमति है
कर उपयोग न किन्तु भोग कर
बोझ अहं का नयों लादा है?
शब्दों की भी मर्यादा है
१४-१२-२०१६
***
व्यंग्य गीत
*
बंदर मामा
चीन्ह -चीन्ह कर
न्याय करे
*
जो सियार वह भोगे दण्ड
शेर हुआ है अति उद्दण्ड
अपना-तेरा मनमानी
ओह रचे वानर पाखण्ड
जय जय जय
करता समर्थ की
वाह करे
*
जो दुर्बल वह पिटना है
सच न तनिक भी पचना है
पाटों बीच फँसे घुन को
गेहूं के सँग पिसना है
सत्य पिट रहा
सुने न कोई
हाय करे
*
निर्धन का धन राम हुआ
अँधा गिरता खोद कुँआ
दोष छिपा लेता है धन
सच पिंजरे में कैद सुआ
करते आप
गुनाह रहे, भरता कोई
विवश मरे
१२.१२. १५
***
नवगीत:
नवगीतात्मक खंडकाव्य रच
महाकाव्य की ओर चला मैं
.
कैसा मुखड़ा?
लगता दुखड़ा
कवि-नेता ज्यों
असफल उखड़ा
दीर्घ अंतरा क्लिष्ट शब्द रच
अपनी जय खुद कह जाता बच
बहुत हुआ सम्भाव्य मित्रवर!
असम्भाव्य की ओर चला मैं
.
मिथक-बिम्ब दूँ
कई विरलतम
निकल समझने
में जाए दम
कई-कई पृष्ठों की नवता
भारी भरकम संग्रह बनता
लिखूं नहीं परिभाष्य अन्य सा
अपरिभाष्य की ओर चला मैं
.
नवगीतों का
मठाधीश हूँ
अपने मुँह मिट्ठू
कपीश हूँ
वहं अहं का पाल लिया है
दोष थोपना जान लिया है
मानक मान्य न जँचते मुझको
तज अमान्य की ओर चला मैं
***
नवगीत:
निज छवि हेरूँ
तुझको पाऊँ
.
मन मंदिर में कौन छिपा है?
गहन तिमिर में कौन दिपा है?
मौन बैठकर
किसको गाऊँ?
.
हुई अभिन्न कहाँ कब किससे?
गूँज रहे हैं किसके किस्से??
कौन जानता
किसको ध्याऊँ?
.
कौन बसा मन में अनजाने?
बरबस पड़ते नयन चुराने?
उसका भी मन
चैन चुराऊँ?
***
दोहा
हहर हहर कर हर रही, लहर-लहर सुख-चैन
सिहर-कहर चुप प्राण-मन, आप्लावित हैं नैन
१४-१२-२०१४

***       


आंकिक उपमान, छंद शास्त्र

आलेख 

: छंद शास्त्र में आंकिक उपमान और छंद शास्त्र :

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                    हिंदी ने पिंगल अथवा छंद शास्त्र की विरासत अपभ्रंश तथा संस्कृत से ग्रहण की है। इन भाषाओं में छांदिक विधान वर्णन, पौराणिक प्रसंगों तथा मिथकों में अनेक स्थान पर अंकों का सहारा लिया गया है। चंद विधान में वर्ण संख्या अथवा मात्रा संख्या में अंकों के स्थान पर उस अंक से संबंधित देव, दनुज, मनुष्य, घटना, तारे अथवा अन्य शब्द-संकेत उपयोग किए गए हैं। ऐसा करने के तीन कारण हैं। पहला यह कि छंद की वर्ण संख्या, मात्रा संख्या अथवा लय की संतुष्टि हेतु, दूसरा छंदकार द्वारा अपनी विद्वता का प्रदर्शन करना तथा तीसरा अन्य छन्दकारों की बुद्धिमत्ता का परीक्षण कि वे संकेतित शब्द से संबद्ध संख्या का सही अनुमान कर पाते हैं या नहीं?

                    वर्तमान समय में आधुनिक रचनाकारों को आंकिक उपमानों की जानकारी न होने के कारण वे प्राचीन ग्रंथों का अनुशीलन नहीं कर पाते तथा स्वयं रचनाओं में आंकिक उपमानों का प्रयोग भी नहीं कर पाते। प्रस्तुत आलेख में कुछ महत्वपूर्ण संख्याओं से संबंधित शब्दों को सूची बद्ध किया गया है। इस आधार पर रचनाओं का अर्थ करते समय संख्या से अभीष्ट अर्थ तथा शब्द से संख्या का अनुमान किया जा सकता है। विषय को सरलता पूर्वक स्पष्ट करने के लिए उदाहरण आधुनिक हिंदी के प्रचलित छंदों का उपयोग करते हुए लिखे गए हैं। स्थान सीमा को देखते हुए हर संख्या से संबंधित एक उदाहरण ही लिया गया है।
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, सूर्य, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु,अद्वैत।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ।
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व।

मात्र 'एक' वह नहीं दूसरा, इष्ट उसी को मानो। यहाँ एक से आशय 'ब्रह्म' से है।

पंथ सही 'अद्वैत' का। अद्वैत का अर्थ जहाँ 'दो न' हों अर्थात 'एक' हो। एक देव की उपासना ही सही राह है।
दो - देव : अश्विनी-कुमार। युग्म- पक्ष : कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल : प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन, दिन-रात आदि। विद्या : परा-अपरा। इन्द्रियाँ : नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पद/पैर। लिंग : स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद : सामवेद, युग त्रेता, देव : विष्णु, वर्ण : क्षत्रिय, आश्रम : गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म ।
महर्षि : द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन।

'दो' मिल होते 'एक' रास में। 'दो' से आशय राधा-कृष्ण के युग्म से है, 'एक' का अर्थ अर्धनारीश्वर की मुद्रा में एक दूसरे से एकाकार होना है।
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति : ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण : देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि : पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल : वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण : सत्व, रजस, तम। दोष : वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक : स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा : सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप : दैहिक, दैविक, भौतिक। राम : श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु : पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा : कंस, शकुनि, माहुल। व्रत : नित्य, नैमित्तिक, काम्य / मानस, कायिक, वाचिक।
तीसरा- वेद : यजुर्वेद, युग : द्वापर, देव : महेश, वर्ण : वैश्य, आश्रम : वानप्रस्थ, पुरुषार्थ : काम।
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल (बेल पत्र), त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।

मुहावरा- तीन तेरह होना = तितर-बितर होना।

तीन बेर खाती थीं, वे तीन बेर खाती हैं - यमक अलंकार, भूषण।

पुजे तीन में तीन जब, हुए तीन झट शांत। तीन = काल, देव, ताप।
तीन किए से तीन ही, मिटते हो न अशांत।। तीन = व्रत, पाप।
चार - युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, द्वारिका। पीठ : शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद : ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद। आश्रम : ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण : मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण : ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुषार्थ : अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। अवस्था : शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य। विकार/रिपु : काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति।
चौथा - वेद : अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण : शूद्र, आश्रम : सन्यास, पुरुषार्थ : मोक्ष।
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।

चार चार के पास, चार चार से दूर हों। चार = धाम, पीठ, वर्ण, विकार ।
चार चार के दास, चार नाथ हों चार के।। चार = अवस्था, अंत:करण, वेद, युग।
पाँच/पंच - गव्य : गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव : गणेश, शिव, दुर्गा, विष्णु, सूर्य। तत्व् : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत : दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग : तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण।। पंचनद : सतलुज, व्यास, रावी, चनाब और झेलम।, ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ : हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या : अहल्या द्रौपदी, तारा, कुंती, मंदोदरी।, प्राण/वायु : अपान, समान, प्राण, उदान, व्यान।, उप प्राण : देवदत्त, वृकल, कूर्म, नाग, धनंजय।, शर : द्रवण, शोषण, तापन, मोहन और उन्मादन।, ध्वनि : वेदध्वनि, बंदीध्वनि, जयध्वनि, शंख- ध्वनि, निशानध्वनि।, पुष्प बाण : कमल, अशोक, आम्र, नवमल्लिका और नीलोत्पल।, वाद्य : तंत्री, ताल, झाँझ, नगाड़ा,  तुरही।, शब्द : तंत्र, आनद्ध, सुषिर, धन, वीर-गर्जन।, शब्द (व्याकरण) : सूत्र, वार्तिक, भाष्य, कोश, काव्य प्रयोग।, विध : अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, अर्थ, और दंड।, वृक्ष : मंदार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचंदन।, शस्य/अन्न : धान, मूँग, तिल, उड़द, जौ।, शील: अस्तेय (चोरी न करना), अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, नशा वर्जन।, पंचशील (राजनीति) :  सिद्धांत बाँदुंग सम्मेलन १९५४ राज्य की अखंडता और प्रभुता के प्रति सम्मान, परस्पर अनाक्रमण, आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप, परस्पर समानता, शांतिमय सहअस्तित्व।, शूरण (आयुर्वेद) : त्यम्लपर्णी, कांडबेल, मालाकंद, सूरन, सफेद सूरन।, शैरीषक : जड़, छाल, पत्ते, काष्ठ, फल।, शैल : पाँच शिखर वाला पर्वत,  भूत : आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी।, तिथि : नंदा, भद्रा, विजया, ऋक्ता, पूर्ण वराह मिहिर। 

पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र। वृत : एक भुक्त एक समय आहार, अयाचित बिना माँगे जो मिले ग्रहण करना, मितभुक निर्धारित अल्प मात्रा १० ग्रास लेना, चांद्रायण तिथि अनुसार १५ से घटते हुए १ ग्रास लें, प्राजापत्य ३-३ दिन क्रमश: २२, २६, २४ ग्रास अंतिम ३ दिन निराहार।

मुहावरा - तीन पाँच करना = चुगली करना।

पंचवायु हू बषानिये।- सुंदर ग्रं०, भा० २ पृ० ५९८

पंचामृत अर्पित करें, पंचानन को पूज।

छह/षट - दर्शन : वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। षड् शास्त्र/अंग : वेद- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, आयुर्वेद- सिर, दो हाथ, धड़, दो पैर।, अरि/विकार : काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मात्सर्य।, कर्म/कर्तव्य : यजन, याजन, अध्ययन,अध्यापन दान देना, दान लेना ।, चक्र : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि, आज्ञा।, यंत्र/कर्म : शांति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेष, उच्चाटन, मारण।, रस : आयुर्वेद मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कसाय।, राग : मालव, मल्लार, श्री, वसंत, हिंडोल और कर्णाट (नारद संहिता), भैरव, मालकोश, मेघ, दीपक, श्री, हिंडोल (भरत)।, ऋतु : वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर। पर्व : कृषि, ऋतु, कामना, राष्ट्रीय, जयंती, पुण्य तिथि।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र।

छह की छह चर्चा करें, छह छह से हों दूर। छह = दर्शन, वेद, कर्तव्य, विकार।
छह जाग्रत हो तार दें, छह में छह भरपूर।। छह = चक्र, राग, रस।
सात/सप्त - ऋषि : विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी : अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका (उज्जैन) और द्वारिका। पर्वत : मेरु, मंदराचल, कैलाश, हिमालय, निषध, गंढमादन, रमन।, लोक : अतल, वितल, सुताल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।, धातु : रस, रक्‍त, मांस, मेद, अस्थि, मज्‍जा, शुक्र (आयुर्वेद)।, सागर : लवण, क्षीर, सुरा, घृत, इक्षु, दधि एवं स्वादु /मीठा जल (विष्णु पुराण)।, स्वर : सा रे गा मा पा धा नी।, रंग : सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: जम्बूद्वीप, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक, पुष्कर।, नग/रत्न : हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व : गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति (सूर्य के रथ में), ये छह छंद भी हैं। जिव्ह : काली, कराली, मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी (अग्नि)।

सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी विवाह के समय सात फेरे, 'जब तक पूरे न हों फेरे सात, तब तक दुल्हन नहिं दुलहा की'। सात जन्म (जानकारी अप्राप्त)। 

भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला। -राम चरित मानस। 


आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: गज ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ गजी]
गज = १. हाथी, २. गजासुर राक्षस(महिषासुर का पुत्र), ३. एक बंदर जो रामचंद्र की सेना में था, ४. आठ की संख्या, ५. मकान की नींच या पुश्ता, ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक, ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को॰] । गज २ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ गज]
१. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष - गज कई प्रकार का होता है जिससे कपड़ा, जमीन, लकड़ी, दीवार आदि नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभी भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा॰- गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ॰ - क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान - फिसाना॰, भा॰३, पृ॰ २१९ ।
२. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं ।
३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।
४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं ।
५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता ।
६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नौ - दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।

***
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
चतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह - तिथियाँ (प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।)
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। २४ मिनिट = १ घड़ी।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)

सत्ताईस - नक्षत्र: अश्विन, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती।
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
अड़तालीस - १ मुहूर्त = ४८ मिनिट या २ घड़ी।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
२९.१.२०२०
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