कुल पेज दृश्य

शनिवार, 14 दिसंबर 2024

मदनाग छंद, आंकिक उपमान, नवगीत, मुक्तिका, दोहा, काल है संक्रांति का, राजेन्द्र वर्मा

छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, जोड़िये।
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: । दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - कला: ।, श्रृंगार: ।, संस्कार: ।,
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
सत्ताईस - नक्षत्र: अश्विन, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती।
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
***
दोहा सलिला
सुधा-पान कर इंदु जा, बैठा शिव के शीश
नागनाथ के सिर चढ़ा, देखें चकित गिरीश
*
कर न सकें सरकार क्यों, असरकार कुछ काम?
गलत नीतियाँ बनाकर, कहें विधाता वाम
*
श्री वास्तव में पा सके, जो है वही रमेश
हाथ जोड़ वंदन करे, सुर नर सिद्ध सुरेश
*
वृक्षारोपण हो नहीं, सकता यह लें मान
पौधारोपण हो-बढ़े, तब हो वृक्ष वितान
*
भाषा वाहक भाव की, कहे सत्य अनुभूत
संवेदन हर शब्द में, अन्तर्निहित प्रभूत
*
शर्मा रहे सुधेन्दु क्यों, करें स्नेह संवाद
सीधी-सच्ची बात से, मिटते सभी विवाद
*
दोहा हिंदी बघेली, दोनों से कर प्रीत
भाईचारे की 'सलिल', बना रहा है रीत
४-६-२०२०
***
मुक्तिका
*
बाँचते सपने कथाएँ
विगत को कैसे भुलाएँ?
*
कहे आगत चूकना मत
जो मिले अवसर भुनाएँ
*
बात मुँह देखी करें सब
क्या सही सच कब बताएँ?
*
हमसफर-हमकदम हैं तो
श्वास-श्वासों में घुलाएँ
*
चाह निजता की विषैली
पाल दूरी मत बढ़ाएँ
*
आप बेगम क्यों न बे-गम
ख़ुशी को हमदम बनाएँ
*
धूप-छाँवी ज़िंदगी है
स्नेह-सलिला नित नहाएँ
***
[मानव जातीय छन्द]
२४-४-२०१६
सी २५६ आवास-विकास हरदोई
***
समीक्षा
यह ‘काल है संक्रांति का’
- राजेंद्र वर्मा
गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में निरंतर सृजनरत और हिंदी भाषा के व्याकरण तथा पिंगल के अधिकारी विद्वान आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने खड़ी हिंदी के समांतर बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, हरियाणवी, सिरायकी तथा अंग्रेजी में भी लेखन किया है। अपनी बुआश्री महीयसी महादेवी जी तथा माताजी कवयित्री शांति देवी को साहित्य व भाषा-प्रेम की प्रेरणा माननेवाले ‘सलिल’ जी आभासी दुनिया में भी वे अपनी सतत और गंभीर उपस्थिति से हिंदी के साहित्यिक पाठकों को लाभान्वित करते रहे हैं। गीत, नवगीत, ग़ज़ल और कविता के लेखन में छंद की प्रासंगिकता और उसके व्याकरण पर भी उन्होंने अपेक्षित प्रकाश डाला है। रस-छंद- अलंकारों पर उनका विशद ज्ञान लेखों के माध्यम से हिंदी संसार को लाभान्वित करता रहा है। वस्तु की दृष्टि से शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी लेखनी से अछूता रहा हो- भले ही वह गीत हो, कविता हो अथवा लेख! नवीन विषयों पर पकड़ के साथ-साथ उनकी रचनाओं में विशद जीवनानुभव बोलता-बतियाता है और पाठकों-श्रोताओं में संजीवनी भरता है।
‘काल है संक्रांति का’ संजीव जी का नवीनतम गीत-संग्रह है जिसमें ६५ गीत-नवगीत हैं। जनवरी २०१४ से मार्च २०१६ के मध्य रचे गये ये गीत शिल्प और विषय, दोनों में बेजोड़ हैं। संग्रह में लोकगीत, सोहर, हरगीतिका, आल्हा, दोहा, दोहा-सोरठा मिश्रित, सार आदि नए-पुराने छंदों में सुगठित ये गीति-रचनाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति में सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ख़बर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष-संकल्प को जगर-मगर करती चलती हैं। नवगीत की शक्ति को पहचानकर शिल्प और वास्तु में अधिकाधिक सामंजस्य बिठाकर यथार्थवादी भूमि पर रचनाकार ने आस-पास घटित हो रहे अघट को कभी सपाट, तो कभी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से उद्घाटित किया है। विसंगतियों के विश्लेषण और वर्णित समस्या का समाधान प्रस्तुत करते अधिकांश गीत टटकी भाव-भंगिमा दर्शाते हैं। बिम्ब-प्रतीक, भाषा और टेक्नीक के स्तरों पर नवता का संचार करते हैं। इनमें ऐंद्रिक भाव भी हैं, पर रचनाकार तटस्थ भाव से चराचर जगत को सत्यम्-शिवम्- सुन्दरम् के वैचारिक पुष्पों से सजाता है।
शीर्षक गीत, ‘काल है संक्रांति का’ में मानवीय मूल्यों और प्राची के परिवेश से च्युत हो रहे समाज को सही दिशा देने के उद्देश्य से नवगीतकार, सूरज के माध्यम से उद्बोधन देता है। यह सूरज आसमान में निकलने वाला सूरज ही नहीं, वह शिक्षा, साहित्य, विज्ञान आदि क्षेत्रों के पुरोधा भी हो सकते हैं जिन पर दिग्दर्शन का उत्तरदायित्व है—
काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज!
दक्षिणायन की हवाएँ / कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी / काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती / फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश / से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रांति को / तुम मत रुको सूरज!
.......
प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग
कौन, किसको सम्हाले / पी रखी मद की भंग
शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग
मनुज-करनी देखकर है / ख़ुद नियति भी दंग
तिमिर को लड़, जीतना / तुम मत चुको सूरज! (पृ.१६)
एक अन्य गीत, ‘संक्रांति काल है’ में रचनाकार व्यंग्य को हथियार बनाता है। सत्ता व्यवस्था में बैठे लोगों से अब किसी भले काम की आशा ही नहीं रही, अतः गीतकार वक्रोक्ति का सहारा लेता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखे रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर / राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो / जगो, उठो!
अथवा,
सूरज को ढाँके बादल / सीमा पर सैनिक घायल
नाग-साँप फिर साथ हुए / गुँजा रहे बंसी-मादल
झट छिपा माल दो / जगो, उठो!
गीतकार सत्ताधीशों की ही खबर नहीं लेता, वह हममें-आपमें बैठे चिन्तक-सर्जक पर भी व्यंग्य करता है; क्योंकि आज सत्ता और सर्जना में दुरभिसंधि की उपस्थिति किसी से छिपी नहीं हैं--
नवता भरकर गीतों में / जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि, तू भी / जी ले आज अतीतों में
मत खींच खाल दो / जगो, उठो! (पृ.२०)
शिक्षा जीवन की रीढ़ है। इसके बिना आदमी पंगु है, दुर्बल है और आसानी से ठगा जाता है। गीतकार ने सूरज (जो प्रकाश देने का कार्य करता है) को पढने का आह्वान किया है, क्योंकि जब तक ज्ञान का प्रकाश नहीं फैलता है, तब तक किसी भी प्रकार के विकास या उन्नयन की बात निरर्थक है। सन्देश रचने और अभिव्यक्त करने में रचनाकार का प्रयोग अद्भुत है—
सूरज बबुआ! / चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी / सुनकर मस्ती ख़ूब करी।
बहिन उषा को गिरा दिया / तो पिता गगन से डाँट पड़ी।
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लायी बस्ता-फूल।
......
चिड़िया साथ फुदकती जाती / कोयल से शिशु गीत सुनो।
‘इकनी एक’ सिखाता तोता / ’अ’ अनार का याद रखो।
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लडुआ
खा, पर सबक़ न भूल। (पृ.३५)
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। नव वर्ष का आगमन हर्षोल्लास लाता है और मानव को मानवता के पक्ष में कुछ संकल्प लेने का अवसर भी, पर हममें से अधिकांश की अन्यमनस्कता इस अवसर का लाभ नहीं उठा पाती। ‘सलिल’ जी दार्शनिक भाव से रचना प्रस्तुत करते हैं जो पाठक पर अन्दर-ही- अन्दर आंदोलित करती चलती है—
नये साल को/आना है तो आएगा ही।
करो नमस्ते या मुँह फेरो।
सुख में भूलो, दुख में टेरो।
अपने सुर में गायेगा ही/नये साल...।
एक-दूसरे को ही मारो।
या फिर, गले लगा मुस्काओ।
दर्पण छवि दिखलायेगा ही/नये साल...।
चाह, न मिटना, तो ख़ुद सुधरो।
या कोसो जिस-तिस को ससुरो!
अपना राग सुनायेगा ही/नये साल...। (पृ.४७)
विषयवस्तु में विविधता और उसकी प्रस्तुति में नवीनता तो है ही, उनके शिल्प में, विशेषतः छंदों को लेकर रचनाकार ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं, जो रेखांकित किये जाने योग्य हैं। कुछ उद्धरण देखिए—
सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिये होय!
कौन किसी का प्यारा होय!
स्वार्थ सभी का न्यारा होय!
जनता का रखवाला होय!
नेता तभी दुलारा होय!
झूठी लड़ै लड़ाई होय!
भीतर करें मिताई होय!
.....
हिंदी मैया निरभै होय!
भारत माता की जै होय! (पृ.४९)
उपर्युक्त रचना पंजाब में लोहड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ़ दुल्ला भट्टी को याद कर गाये जानेवाले लोकगीत की तर्ज़ पर है। इसी प्रकार निम्नलिखित रचना बुन्देली लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागों (पद भार१६/१२) पर आधारित है। दोनों ही गीतों की वस्तु में युगबोध उमगता हुआ दिखता है—
मिलती काय नें ऊँचीवारी / कुर्सी हमको गुइयाँ!
हमखों बिसरत नहीं बिसारे / अपनी मन्नत प्यारी
जुलुस, विसाल भीर जयकारा / सुविधा संसद न्यारी
मिल जाती, मन की कै लेते / रिश्वत ले-दे भइया!
......
कौनउ सगो हमारो नैयाँ / का काऊ से काने?
अपने दस पीढ़ी खें लाने / हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका / ठेंगे पे राम-रमैया! (पृ.५१)
इसी छंद में एक गीत है, ‘जब लौं आग’, जिसमें कवि ने लोक की भाषा में सुन्दर उद्बोधन दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें—
जब लौं आग न बरिहै, तब लौं / ना मिटिहै अन्धेरा!
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें / बन सूरज पगफेरा।
......
गोड़-तोड़ हम फ़सल उगा रए / लूट रए व्यापारी।
जन के धन से तनखा पा खें / रौंद रए अधिकारी।
जागो, बनो मसाल / नई तो / घेरे तुमै / अँधेरा! (पृ.६४)
गीत ‘सच की अरथी’ (पृ.55) दोहा छंद में है, तो अगले गीत, ‘दर्पण का दिल’ का मुखड़ा दोहे छंद में है और उसके अंतरे सोरठे में हैं, तथापि गीत के ठाठ में कोई कमी नहीं आयी है। कुछ अंश देखिए—
दर्पण का दिल देखता, कहिए, जब में कौन?
आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता।
करता नहीं ख़याल, नयन कौन-सा फड़कता!
सबकी नज़र उतारता, लेकर राई-नौन! (पृ.५७)
छंद-प्रयोग की दृष्टि से पृष्ठ ५९, ६१ और ६२ पर छोटे-छोटे अंतरों के गीत ‘हरगीतिका’ में होने के कारण पाठक का ध्यान खींचते हैं। एक रचनांश का आनंद लीजिए—
करना सदा, वह जो सही।
........
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
रहना सदा, वह जो सही। (पृ.६२)
सत्ता में बैठे छद्म समाजवादी और घोटालेबाजों की कमी नहीं है। गीतकार ने ऐसे लोगों पर प्रहार करने में कसर नहीं छोड़ी है—
बग्घी बैठा / बन सामंती समाजवादी।
हिन्दू-मुस्लिम की लड़वाये
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाये
आँसू, सिसकी, चीखें, नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर / उढ़ा रहा है समाजवादी! (पृ.७६)
देश में तमाम तरक्क़ी के बावजूद दिहाड़ी मज़दूरों की हालत ज्यों-की- त्यों है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसके संगठितहोने की चर्चा भी नहीं होती, परिणाम यह कि मजदूर को जब शाम को दिहाड़ी मिलती है, वह खाने-पीने के सामान और जीवन के राग को संभालने-सहेजने के उपक्रमों को को जुटाने बाज़ार दौड़ता है। ‘सलिल’ जी ने इस क्षण को बखूबी पकड़ा है और उसे नवगीत में सफलतापूर्वक ढाल दिया है—
मिली दिहाड़ी / चल बाज़ार।
चावल-दाल किलो-भर ले ले / दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर-भर / धनिया- मिर्चा ताज़ी
तेल पाव-भर फल्ली का / सिन्दूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का / बेटी की न सहूँ नाराजी
ख़ाली ज़ेब, पसीना चूता / अब मत रुक रे! / मन बेज़ार! (पृ.८१)
आर्थिक विकास, सामाजिक विसंगतियों का जन्मदाता है। समस्या यह भी है कि हमारे अपनों ने अपने चरित्र में भी संकीर्णता भर ली है। ऐसे हम चाहते भी कुछ नहीं कर पाते और उच्छवास ले-ले रह जाते हैं। ऐसी ही व्यथा का चित्रांकन एक गीत, ‘राम बचाये’ में द्रष्टव्य है। इसके दो बंद देखें—
अपनी-अपनी मर्यादा कर तार-तार / होते प्रसन्न हम,
राम बचाये!
वृद्धाश्रम-बालाश्रम और अनाथालय / कुछ तो कहते हैं!
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?
राम-रहीम बीनते कूड़ा / रजिया-रधिया झाडू थामे
सड़क किनारे, बैठे लोटे बतलाते / कितने विपन्न हम,
राम बचाये!
अमराई पर चौपालों ने / फेंका क्यों तेज़ाब, पूछिए!
पनघट ने खलिहानों को क्यों / नाहक़ भेजा जेल बूझिए।
सास-बहू, भौजाई-ननदी / क्यों माँ-बेटी सखी न होती?
बेटी-बेटे में अंतर कर / मन से रहते सदा खिन्न हम,
राम बचाये! (पृ.९४)
इसी क्रम में एक गीत, ख़ुशियों की मछली’ उल्लेखनीय है जिसमें समाज और सत्ता का गँठजोड़ आम आदमी को जीने नहीं दे रहा है। गीत की बुनावट में युगीन यथार्थ के साथ दार्शनिकता का पुट भी है—
ख़ुशियों की मछली को / चिंता का बगुला/खा जाता है।
श्वासों की नदिया में / आसों की लहरें
कूद रही हिरनी-सी / पल भर ना ठहरें
आँख मूँद मगन / उपवासी साधक / ठग जाता है।
....
श्वेत वसन नेता है / लेकिन मन काला
अंधे न्यायालय ने / सच झुठला डाला
निरपराध फँस जाता / अपराधी शातिर बच जाता है।। (पृ.९८)
गीत, ‘लोकतंत्र’ का पंछी’ में भी आम आदमी की व्यथा का यथार्थ चित्रांकन है। सत्ता-व्यवस्था के दो प्रमुख अंग- विधायिका और न्यायपालिका अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते जा रहे हैं और जनमत की भूमिका भी संदिग्ध होती जा रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था ही ध्वस्त होती जा रही है—
लोकतंत्र का पंछी बेबस!
नेता पहले डालें दाना / फिर लेते पर नोच
अफ़सर रिश्वत-गोली मारें / करें न किंचित सोच
व्यापारी दे नाश रहा डँस!
.......
राजनीति नफ़रत की मारी / लिए नींव में पोच
जनमत बहरा-गूंगा खो दी / निज निर्णय की लोच
एकलव्य का कहीं न वारिस! (पृ.१००)
प्रकृति के उपादानों को लेकर मानवीय कार्य-व्यापार की रचना विश्वव्यापक होती है, विशेषतः जब उसमें चित्रण-भर न हो, बल्कि उसमें मार्मिकता, और संवेदनापूरित जीवन्तता हो। ‘खों-खों करते’ ऐसा ही गीत है जिसमें शीत ऋतु में एक परिवार की दिनचर्या का जीवन्त चित्र है—
खों-खों करते बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा / चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे / बदरी दादी, ‘रुको’ पुकारे
पछुआ अम्मा बड़-बड़ करती / डाँट लगाती तगड़ी!
धरती बहिना राह हेरती / दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम / रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत / न आये घर में / खोल न खिड़की अगड़ी!
सूर बनाता सबको कोहरा / ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक़ ही / फ़सल लायगी राहत को ही
हँसकर खेलें / चुन्ना-मुन्ना / मिल चीटी-ढप- लँगड़ी! (पृ.१०३)
इन विषमताओं और विसंगतियों के बाबजूद गीतकार अपना कवि-धर्म नहीं भूलता। नकारात्मकता को विस्मृत कर वह आशा की फ़सल बोने और नये इतिहास लिखने का पक्षधर है—
आज नया इतिहास लिखें हम।
अब तक जो बीता, सो बीता
अब न आस-घट होगा रीता
अब न साध्य हो स्वार्थ सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता
भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब
हया, लाज, परिहास लिखें हम।
आज नया इतिहास लिखें हम।।
रहें न हमको कलश साध्य अब
कर न सकेगी नियति बाध्य अब
स्नेह-स्वेद- श्रम हों अराध्य अब
कोशिश होगी महज माध्य अब
श्रम-पूँजी का भक्ष्य न हो अब
शोषक हित खग्रास लिखें हम।। (पृ.१२२)
रचनाकार को अपने लक्ष्य में अपेक्षित सफलता मिली है, पर उसने शिल्प में थोड़ी छूट ली है, यथा तुकांत के मामले में, अकारांत शब्दों का तुक इकारांत या उकारांत शब्दों से (उलट स्थिति भी)। इसी प्रकार, उसने अनुस्वार वाले शब्दों को भी तुक के रूप में प्रयुक्त कर लिया है, जैसे- गुइयाँ / भइया (पृ.५१), प्रसन्न / खिन्न (पृ.९४) सिगड़ी / तगड़ी / लंगड़ी (पृ.१०३)। एकाध स्थलों पर भाषा की त्रुटि भी दिखायी पड़ी है, जैसे- पृष्ठ १२७ पर एक गीत में‘दम’ शब्द को स्त्रीलिंग मानकर ‘अपनी’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। तथापि, इन छोटी-मोटी बातों से संग्रह का मूल्य कम नहीं हो जाता।
गीतकार ने गीतों की भाषा में अपेक्षित लय सुनिश्चित करने के लिए हिंदी-उर्दू के बोलचाल शब्दों को प्राथमिकता दी है; कहीं-कहीं भावानुसार तत्सम शब्दावली का चयन किया है। अधिकांश गीतों में लोक का पुट दिखलायी देता है जिससे पाठक को अपनापन महसूस होता है। आज हम गद्य की औपचारिक शब्दावली से गीतों की सर्जना करने में अधिक लगे हैं, जिसका परिणाम यह हो रहा है कि उनमें मार्मिकता और अपेक्षित संवेदना का स्तर नहीं आ पाता है। भोथरी संवेदनावाली कविता से हमें रोमावलि नहीं हो सकती, जबकि आज उसकी आवश्यकता है। ‘सलिल’ जी ने इसकी भरपाई की पुरज़ोर कोशिश की है जिसका हिंदी नवगीत संसार द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए।
वर्तमान संग्रह निःसंदेह नवगीत के प्रसार में अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है और आने वाले समय में उसका स्थान इतिहास में अवश्य लिया जाएगा, यह मेरा विश्वास है।... लोक की शक्ति को सोद्देश्य नवगीतों में ढालने हेतु ‘सलिल’ जी साधुवाद के पात्र है।
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
*
[कृति विवरण- पुस्तक का नाम- काल है संक्रांति का (नवगीत-संग्रह); नवगीतकार- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर- ४८२००१ संस्करण- प्रथम, २०१६; पृष्ठ संख्या- १२८, मूल्य- पुस्तकालय संस्करण: तीन सौ रुपये; जनसंस्करण: दो सौ रुपये।]
४-६-२०१६
***

नवगीत:
*
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
बब्बा गंज,
कढ़ाई दादी,
बेलन नाना,
झरिया नानी
मँहगाई का रोना रोते
नेह-प्रेम की फसलें बोते
बिना सियासत ताल-मेल कर
मन का संयम तनिक न खोते
आये एक पर
मुश्किल, सब मिल
सिर पर लेते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
आटा-दाल,
मिठाई-रोटी,
पुड़ी-कचौरी ,
ताज़ी मोटी.
जिस मन भाये, जी भर खाये.
बिना मिलावट, पचा न पाये.
फास्ट फुडों की मारामारी
कोल्ड ड्रिंक करता बटमारी.
लस्सी-पनहा
पान-पन्हैया
बिसरा देते
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
*
खस के परदे,
कूलर निगले,
भीषण ताप,
गैस भी उगले.
सरकारें कर बढ़ा-बढ़ाकर
अपनी ही जनता को लूटें.
अफसर-नेता निज सुविधा पर
बेदर्दी से जन-धन फूंकें.
अच्छे दिन है
अच्छे-अच्छे
हारे-रोते.
थाली की
गोदी में बैठ
कटोरी खेले.
चम्मच के
नखरे अनगिन
दोनों ने झेले.
***
मुक्तक:
*
इंसानी फितरत समान है, रहो देश या बसों विदेश
ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ मलिनता मिले न लेश
जैसा देश वेश हो वैसा पुरखे सच ही कहते थे-
स्वीकारें सच किन्तु क्षुब्ध हो नोचें कभी न अपने केश
४-६-२०१५
***
छंद सलिला:
मदनाग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति पद - मात्रा २५ मात्रा, यति १७ - ८
लक्षण छंद:
कलाएँ सत्रह-आठ दिखाये, नटवर अपनी
उगल विष नाग कालिया कोसे, किस्मत अपनी
छंद मदनाग निराशाएं कर दूर, मगन हो
मुदित मन मथुरावासी हर्षित, मोद मगन हों
उदाहरण:
१. देश की जयकार करते रहें, विहँस हम सभी
आत्म का उद्धार करते रहें, विहँस हम सभी
बुरे का प्रतिकार करते रहें, विहँस हम सभी
भले का सहकार करते रहें, विहँस हम सभी
२. काम कुछ अच्छा करना होगा, संकल्प करें
नाम कुछ अच्छा वरना होगा, सुविकल्प करें
दाम हर चीज का होता नहीं, ये सच कह दें
जान निज देश पर निसार 'सलिल' हर कल्प करें
३.जीत वही पाता जो फिसलकर, उठ भी सकता
मंज़िल मिले उसे जो सम्हलकर, शुभ कर सकता
होता घना अँधेरा धरा पर, जब-जब बेहद
एक नन्हा दीप खुद जलकर सब, तम हर सकता
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मदनाग, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
सुनो प्रणेता!
बनो विजेता।
कहो कहानी,
नित्य सुहानी।
तजो बहाना,
वचन निभाना।
सजन सजा ना!
साज बजा ना!
लगा डिठौना,
नाचे छौना
चाँद चाँदनी,
पूत पावनी।
है अखंड जग,
आठ दिशा मग
पग-पग चलना,
मंज़िल वरना।
४-६-२०१४

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

दिसंबर १३, मुक्तिका, सॉनेट, कामना, व्यंग्य लेख, माया, खाट, हाइकु, कपास, गीत, दोहा, भवानी प्रसाद तिवारी

सलिल सृजन दिसंबर १३
*
पूज्य पापाजी (भवानी प्रसाद तिवारी जी)के जन्म दिवस पर उन्हीं की काव्य पंक्तियों पर आधृत रचना उन्हें सादर समर्पित- तेरा तुझकोअर्पित क्या लागे मेरा?
तेरा तुझको अर्पण
एक लघु कण

'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
विनायक का पूत
रहता मुक्त ही
बँधता नहीं है।
सियासत-साहित्य की
गंगो-जमुन से
लोकहित की सुरसती का
किया संगम।
'प्राण धारा' ने
हमेशा 'प्राण पूजा'
'कथा-वार्ता' से किया
'उत्सर्ग' चंदन।
लोकसेवा, लोकहित
पल-पल समर्पित
लोक-नेता विरुद
जन ने किया वंदन।
निनादित जल
नर्मदा का, बहा तो
रुकता नहीं है।
'एक लघु कण है
कि जो साधो उसे
सधता नहीं है।'
०००
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'
प्राण-मन में था
नर्मदा निनाद निर्मल
गूँजता अपार।
छायावादी शिल्प
यथार्थवादी गल्प
आत्मबोध नव विहान।
दार्शनिकता साध्य
सत्य-शिव आराध्य
मनोभाव निदान।
सहज-सरल स्वभाव
आम जन से निभाव
अडिग ज्यों चट्टान।
शिक्षा का सूर्य
तरुणाई का तूर्य
देश भक्ति धुआँधार।
'तमसा का पूर
अगम और अकूल
कोलाहल आर-पार।'

'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
परिस्थिति विपरीत में भी
सत्य निष्ठा और आस्था
कभी भी किंचित न खोई।
जागतिक संवेदनाएँ
काव्य-रचना में सुबिंबित
कथ्य-शैली है अनूठी।
उभरता सौंदर्य गति का
भावनाएँ करुण मिश्रित
नहीं उपमा चुनी जूठी।
प्रिय रहे सिद्धांत अपने
फिक्र सत्ता की नहीं की
सोच ठी मौलिक अनूठी।
समर्पण की फसल बोई
भाग ले सत्याग्रहों में
जेल की सलाख गोई।
'हृदय को समझा न कोई
हृदय के क्षण-क्षण उमड़ते
प्रलय को समझा न कोई।'
०००
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'
देश-हित सह कष्ट हँसकर
नित किए संघर्ष डटकर
धैर्य का घट नहीं रीता।
सात बरसों महापौरी
सहजता से-सरलता से
निभाई, पद-मद न व्यापा।
बने सांसद, मिली डी.लिट.,
पद्मश्री से हो अलंकृत
कभी खोया नहीं आपा।
दीन को थे बंधु जैसे
साथियों के पथ-प्रदर्शक
सर्वप्रिय थे जगत-पापा।
हार-जीतों में रहे सम
जन समर्थन मिला अनुपम
रही साथी हृदय गीता।
'नयन का पानी न रीता
ज्वाल सा जलता हुआ सखि!
एक आतप और बीता।'

'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
कथा कीर्ति की छा क्षितिज तक गई
पताका दिगंतित फहरा गई।
चमत्कार लक्षित हुआ उक्ति का नव
कथन में, कहन में रहा आम जन-रव।
नहीं रोक पाया कहीं पग कभी भव
निखरता रहा घोर विपदा में वैभव।
सनातन पुरातन रहा प्रिय हमेशा
नहीं रूढ़, चिंतन प्रगत और अभिनव।
निबंधित-प्रबंधित रुकी थक घड़ी
नियति मौन दुलरा, बुला ले गई।
'चला बाँध धुन, एक धुन सुन पड़ी
पिकी फिर अमर गीत दुहरा गई।'
१३.१२.२०२४
०००
हाइकु कपास पर
कहे कपास
सह लो धूप-छाँव
न हो उदास।
खेत में उगी
पवन संग झूमी
माटी ने पाला।
जड़ें जमाईं
स्नेह सलिल पिया
सिर उठाया।
नीलाभ नभ
ओढ़ लिया आँचल
खिलखिलाई।
अठखेलियाँ
रवि रश्मियों संग
रोके न रुके।
चंद्र किरण
भरकर बाँहों में
नृत्य करती।
करे विद्रोह
न गंध, न भ्रमर
सिर उठाए।
सीखे सबक
विनत हुआ शीश
करे न सोग।
जैसी की तैसी
रखी श्वेत चादर
माँगे बिदाई।
धूप में नहीं
बाल हुए सफेद
करी तपस्या।
अकथनीय
अपनी व्यथा कथा
किससे कहे?
माली ने लूटी
जिंदगी की कमाई
बोली लगाई।
जिसने लिया
जी भरके धुना
छीने बिनौले।
ताना औ' बाना
बना बुने आदम
ढाँके बदन।
रंग दे कान्हा
अपने ही रंग में
बंधन छूटे।
हाय विधाता!
द्रोपदी पुकारती
चीर न घटे।
१३.१२.२४
०००
मुक्तिका
कर नियंत्रित कामनाएँ
हों निमंत्रित भावनाएँ
रब रखे महफूज सबको
मिटाकर सब यातनाएँ
कोशिशें अच्छी न हारें
खूब जूझें जीत जाएँ
स्नेह सुख सम्मान सम पा
खिलखिलाएँ सुत-सुताएँ
रहे निर्झर सा सलिल-मन
नेह नर्मद नित नहाएंँ
भोर अँगना में चिरैया
उतर फुदकें चहचहाएँ
साँस आखिर तक रहे दम
पसीना जमकर बहाएँ
१३.१२.२०२३
•••
सॉनेट
कामना
*
कामना हो साथ हर दम
काम ना छोड़े अधूरा
हाथ जो ले करे पूरा
कामनाएँ हों न कम
का मनाया?; का मिला है?
अनमना है; उन्मना है
क्यों इतै नाहक मुरझना?
का मना! तू कब खिला है?
काम ना- ना काम मोहे
काम ना हो तो परेशां
काम ना या काम चाहे?
भला कामी या अकामी?
बनो नामी या अनामी?
बूझता जो वही सामी
१३-१२-२२
जबलपुर, ७•०४
●●●
***
द्विपदियाँ
फ़िक्र वतन की नहीं तनिक, जुमलेबाजी का शौक
नेता को सत्ता प्यारी, जनहित से उन्हें न काम
*
कुर्सी पाकर रंग बदल, दें गिरगिट को भी मात
काम तमाम तमाम काम का, करते सुबहो-शाम
१३-१२-२०२०
***
मुक्तक
*
कुंज में पाखी कलरव करते हैं
गीत-गगन में नित उड़ान नव भरते हैं
स्नेह सलिल में अवगाहन कर हाथ मिला-
भाव-नर्मदा नहा तारते तरते हैं
*
मनोरमा है हिंदी भावी जगवाणी
सुशोभिता मम उर में शारद कल्याणी
लिपि-उच्चार अभिन्न, अनहद अक्षर है
शब्द ब्रह्म है, रस-गंगा संप्राणी है
*
जैन वही जो अमन-चैन जी-जीने दे
पिए आप संतोष सलिल नित, पीने दे
परिग्रह से हो मुक्त निरंतर बाँट सके-
तपकर सुमन सु-मन जग को रसभीने दे
*
उजाले देख नयना मूँदकर परमात्म दिख जाए नमन कर
तिमिर से प्रगट हो रवि-छवि निरख मन झूमकर गाए नमन कर
मुदित ऊषा, पुलक धरती, हुलस नभ हो रहा हर्षित चमन लख
'सलिल' छवि ले बसा उर में करे भव पार मिट जाए अमन कर
१२-१२-२०२०, ६.४५
***
व्यंग्य लेख::
माया महाठगिनी हम जानी
*
तथाकथित लोकतंत्र का राजनैतिक महापर्व संपन्न हुआ। सत्य नारायण कथा में जिस तरह सत्यनारायण को छोड़कर सब कुछ मिलता है, उसी तरह लोकतंत्र में लोक को छोड़कर सब कुछ प्राप्य है। यहाँ पल-पल 'लोक' का मान-मर्दन करने में निष्णात 'तंत्र की तूती बोलती है। कहा जाता है कि यह 'लोक का, लोक के द्वारा, लोक के लिए' है लेकिन लोक का प्रतिनिधि 'लोक' नहीं 'दल' का बंधुआ मजदूर होता है। लोकतंत्र के मूल 'लोक मत' को गरीब की लुगाई, गाँव की भौजाई मुहावरे की तरह जब-तब अपहृत और रेपित करना हर दल अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। ये दल राजनैतिक ही नहीं धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक भी हो सकते हैं। जो दल जितना अधिक दलदल मचने में माहिर होता है, उसे खबरिया जगत में उतनी ही अधिक जगह मिलती है।
हाँ, तो खबरिया जगत के अनुसार 'लोक' ने 'सेवक' चुन लिए हैं। 'लोक' ने न तो 'रिक्त स्थान की विज्ञप्ति प्रसारित की, न चीन्ह-चीन्ह कर विज्ञापन दिए, न करोड़ों रूपए आवेदन पत्रों के साथ बटोरे, न परीक्षा के प्रश्न-पत्र लीक कर वारे-न्यारे किए, न साक्षात्कार में चयन के नाम पर कोमलांगियों के साथ शयन कक्ष को गुलजार किया, न किसी का चयन किया, न किसी को ख़ारिज किया और 'सेवक' चुन लिए। अब ये तथाकथित लोकसेवक-देशसेवक 'लोक' और 'देश' की छाती पर दाल दलते हुए, ऐश-आराम, सत्तारोहण, कमीशन, घपलों, घोटालों की पंचवर्षीय पटकथाएँ लिखेंगे। उनको राह दिखाएँगे खरबूजे को देखकर खरबूजे की तरह रंग बदलने में माहिर प्रशासनिक सेवा के धुरंधर, उनकी रक्षा करेंगा देश का 'सर्वाधिक सुसंगठित खाकी वर्दीधारी गुंडातंत्र (बकौल सर्वोच्च न्यायालय), उनका गुणगान करेगा तवायफ की तरह चंद टकों और सुविधाओं के बदले अस्मत का सौदा करनेवाला खबरॉय संसार और इस सबके बाद भी कोई जेपी या अन्ना सामने आ गया तो उसके आंदोलन को गैर कानूनी बताने में न चूकनेवाला काले कोटधारी बाहुबलियों का समूह।
'लोकतंत्र' को 'लोभतंत्र' में परिवर्तित करने की चिरकालिक प्रक्रिया में चारों स्तंभों में घनघोर स्पर्धा होती रहती है। इस स्पर्धा के प्रति समर्पण और निष्ठां इतनी है की यदि इसे ओलंपिक में सम्मिलित कर लिया जाए तो स्वर्णपदक तो क्या तीनों पदकों में एक भी हमारे सिवा किसी अन्य को मिल ही नहीं सकता। दुनिया के बड़े से बड़े देश के बजट से कहीं अधिक राशि तो हमारे देश में इस अघोषित व्यवसाय में लगी हुई है। लोकतंत्र के चार खंबे ही नहीं हमारे देश के सर्वस्व तीजी साधु-संत भी इस व्यवसाय को भगवदपूजन से अह्दिक महत्व देते हैं। तभी तो घंटो से पंक्तिबद्ध खड़े भक्त खड़े ही रह जाते हैं और पुजारी की अंटी गरम करनेवाले चाट मंगनी और पैट ब्याह से भाई अधिक तेजी से दर्शन कर बाहर पहुँच जाते हैं।
लोकतंत्र में असीम संभावनाएं होती है। इसे 'कोकतंत्र' में भी सहजता से बदला जाता रहा है। टिकिट लेने, काम करने, परीक्षा उत्तीर्ण करने, शोधोपाधि पाने, नियुक्ति पाने, चुनावी टिकिट लेने, मंत्री पद पाने, न्याय पाने या कर्ज लेने में कैसी भी अनियमितता या बाधा हो, बिस्तर गरम करते ही दूर हो जाती है। और तो और नवग्रहों की बाधा, देवताओं का कोप और किस्मत की मार भी पंडित, मुल्ला या पादरी के शयनागार को आबाद कर दूर की जा सकती है। जिस तरह आप के बदले कोई और जाप कर दे तो आपके संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही आप किसी और को भी इस गंगा में डुबकी लगाने भेज सकते हैं। देव लोक में तो एक ही इंद्र है पर इस नर लोक में जितने भी 'काम' करनेवाले हैं वे सब 'काम' करने के बदले 'काम' होने के पहले 'काम की आराधना कर भवसागर पार उतरने का कोी मौका नहीं गँवाते।धर्म हो या दर्शन दोनों में कामिनी के बिना काम नहीं बनता।
हमारी विरासत है कि पहले 'काम' को भस्म कर दो फिर विवाह कर 'काम' के उपासक बन जाओ या 'पहले काम' को साध लो फिर संत कहलाओं। कोई-कोई पुरुषोत्तम आश्रम और मजारों की छाया में माया से ममता करने का पुरुषार्थ करते हुए भी 'रमता जोगी, बहता पानी' की तरह संग रहते हुए भी निस्संग और दागित होते हुए भी बेदाग़ रहा आता है। एक कलिकाल समानता का युग है। यहाँ नर से नारी किसी भी प्रकार पीछे रहना नहीं चाहती। सर्वोच्च न्यायालय और कुछ करे न करे, ७० साल में राम मंदिर पर निर्णय न दे सके किन्तु 'लिव इन' और 'विवाहेतर संबंधों' पर फ़ौरन से पेश्तर फैसलाकुन होने में अतिदक्ष है।
'लोक' भी 'तंत्र' बिना रह नहीं सकता। 'काम' को कामख्या से जोड़े या काम सूत्र से, 'तंत्र' को व्यवस्था से जोड़े या 'मंत्र' से, कमल उठाए या पंजा दिखाए, कही एक को रोकने के लिए, कही दूसरे को साधने के लिए 'माया' की शरण लेना ही होती है, लाख निर्मोही बनने का दवा करो, सत्ता की चौखट पर 'ममता' के दामन की आवश्यकता पड़ ही जाती है। 'लोभ' के रास्ते 'लोक' को 'तंत्र' के राह पर धकेलना हो या 'तंत्र' के द्वारा 'लोक' को रौंदना हो ममता और माया न तो साथ छोड़ती हैं, न कोई उनसे पीछा छुड़ाना चाहता है। अति संभ्रांत, संपन्न और भद्र लोक जानता है कि उसका बस अपनों को अपने तक रोकने पर न चले तो वह औरों के अपनों को अपने तक पहुँचने की राह बनाने से क्यों चूके? हवन करते हाथ जले तो खुद को दोषी न मानकर सूर हो या कबीर कहते रहे हैं 'माया महाठगिनी हम जानी।'
१३-१२-२०१८
***
द्विपदी
भय की नाम-पट्टिका पर, लिख दें साहस का नाम.
कोशिश कभी न हारेगी, बाधा को दें पैगाम.
१३-१२-२०१७
***
मुक्तिका
*
मैं समय हूँ, सत्य बोलूँगा.
जो छिपा है राज खोलूँगा.
*
अनतुले अब तक रहे हैं जो
बिना हिचके उन्हें तोलूँगा.
*
कालिया है नाग काला धन
नाच फन पर नहीं डोलूँगा.
*
रूपए नकली हैं गरल उसको
मिटा, अमृत आज घोलूँगा
*
कमीशनखोरी न बच पाए
मिटाकर मैं हाथ धो लूँगा
*
क्यों अकेली रहे सच्चाई?
सत्य के मैं साथ हो लूँगा
*
ध्वजा भारत की उठाये मैं
हिन्द की जय 'सलिल' बोलूँगा
***
गीत
खाट खड़ी है
*
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा
है बिन पेंदी के लोटों का.
*
नकली नोट छपे थे जितने
पल भर में बेकार हो गए.
आम आदमी को डँसने से
पहले विषधर क्षार हो गए.
ऐसी हवा चली है यारो!
उतर गया है मुँह खोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
नाग कालिया काले धन का
बिन मारे बेमौत मर गया.
जला, बहा, फेंका घबराकर
जन-धन खाता कहीं भर गया.
करचोरो! हर दिन होना है
वार धर-पकड़ के सोटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
बिना परिश्रम जोड़ लिया धन
रिश्वत और कमीशन खाकर
सेठों के हित साधे मिलकर
निज चुनाव हित चंदे पाकर
अब हर राज उजागर होगा
नेता-अफसर की ओटों का
बड़े-बड़ों की खाट खड़ी है
मोल बढ़ गया है छोटों का.
*
१३-१२-२०१६
***
नवगीत:
*
लेटा हूँ
मखमल गादी पर
लेकिन
नींद नहीं आती है
.
इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तनवाली बाई
देह सांवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन
खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है
मुझ जैसे
लक्ष्मी पुत्र को
बना भिखारी वह जाती है
.
उस करवट ने साफ़-सफाई
करनेवाली छवि दिखलाई
आहा! उलझी लट नागिन सी
नर्तित कटि ने नींद उड़ाई
कर ने झाड़ू जरा उठाई
धक-धक धड़कन
बढ़ जाती है
मुझ अफसर को
भुला अफसरी
अपना दास बना जाती है
.
चित सोया क्यों नींद उड़ाई?
ओ पाकीज़ा! तू क्यों आई?
राधे-राधे रास रचाने
प्रवचन में लीला करवाई
करदे अर्पित
सब कुछ
गुरु को
जो
वह शिष्या
मन भाती है
.
हुआ परेशां नींद गँवाई
जहँ बैठूँ तहँ थी मुस्काई
मलिन भिखारिन, युवा, किशोरी
कवयित्री, नेत्री तरुणाई
संसद में
चलभाष देखकर
आत्मा तृप्त न हो पाती है
मुझ नेता को
भुला सियासत
गले लगाना सिखलाती है
१३-१२-२०१४
***
गीत
क्षितिज-फलक पर...
*
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रजनी की कालिमा परखकर,
ऊषा की लालिमा निरख कर,
तारों शशि रवि से बातें कर-
कहदो हासिल तुम्हें हुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
राजहंस, वक, सारस, तोते
क्या कह जाते?, कब चुप होते?
नहीं जोड़ते, विहँस छोड़ते-
लड़ने खोजें कभी खुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
मेघ जल-कलश खाली करता,
भरे किस तरह फ़िक्र न करता.
धरती कब धरती कुछ बोलो-
माँ खाती खुद मालपुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
रमता जोगी, बहता पानी.
पवन विचरता कर मनमानी.
लगन अगन बन बाधाओं का
दहन करे अनछुआ-छुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
*
चित्र गुप्त ढाई आखर का,
आदि-अंत बिन अजरामर का.
तन पिंजरे से मुक्ति चाहता
रुके 'सलिल' मन-प्राण सुआ क्या?
क्षितिज-फलक पर
लिखा हुआ क्या?...
१३-१२-२०१२
***

गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

दिसंबर १२, दोहा गीत, गंगा स्तोत्र, दोहा ग़ज़ल, कपास, मुक्तक

सलिल सृजन दिसंबर १२
*
दोहा ग़ज़ल कपास पर
बगुला भगत न कर रहा, व्रत पूजा उपवास।
ओढ़े चादर श्वेत नित, करता मौज कपास।।
धूप-छाँव सहकर रहे, मतदाता सम मौन।
जननायक रवि दूर रह, करता है उपहास।।
काली माटी प्रसवती, विहँस श्वेत संतान।
गोरेपन की क्रीम क्यों, लगे पुत्र को खास?
किए व्यर्थ क्या धूप में, इसने बाल सफेद।
ऊँघ रहा क्यों खेत में, वास न चिड़िया पास।।
कहे न कुछ तो मत समझ, मुँह में नहीं जुबान।
अपना मालिक आप है, नहीं किसी का दास।।
१२-१२-२०२४
०००
श्री गंगा स्तोत्र...
रचना : आदि जगद्गुरु शंकराचार्य...
दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे देवी ! सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप शुद्ध तरंगो से युक्त हो... महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो... हे माँ ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलो पर आश्रित है...
O Goddess Ganga! You are the divine river from heaven, you are the saviour of all the three worlds, youare pure and restless, you adorn Lord Shiva’s head. O Mother! may my mind always rest at your lotus feet...]
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[ हे माँ भागीरथी ! आप सुख प्रदान करने वाली हो... आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गई है... मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हू... हे कृपामयी माता ! आप कृपया मेरी रक्षा करें...
O Mother Bhagirathi! You give happiness to everyone. The significance of your holy waters is sung in the Vedas. I am ignorant and am not capable to comprehend your importance. O Devi! you are full of mercy. Please protect me...]
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[ हे देवी ! आपका जल श्री हरी के चरणामृत के समान है... आपकी तरंगे बर्फ, चन्द्रमा और मोतिओं के समान धवल हैं... कृपया मेरे सभी पापो को नष्ट कीजिये और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिये...
O Devi! Your waters are as sacred as “Charanamriti” of Sri Hari. Your waves are white like snow, moon and pearls. Please wash away all my sins and help me cross this ocean of Samsara...]
तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे माता ! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पता है... हे माँ गंगे ! यमराज भी आपके भक्तो का कुछ नहीं बिगाड़ सकते...
O Mother! those who partake of your pure waters, definitely attain the highest state. O Mother Ganga! Yama, the Lord of death cannot harm your devotees...]
पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे जाह्नवी गंगे ! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है... आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो... आप पतितो का उद्धार करने वाली हो... तीनो लोको में आप धन्य हो...
O Jahnavi! your waters flowing through the Himalayas make you even more beautiful. You are Bhishma’s mother and sage Jahnu’s daughter. You are saviour of the people fallen from their path, and so you are revered in all three worlds...]
कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[ हे माँ ! आप अपने भक्तो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो... आपको प्रणाम करने वालो को शोक नहीं करना पड़ता... हे गंगे ! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है...
O Mother! You fulfill all the desires of the ones devoted to you. Those who bow down to you do not have to grieve. O Ganga! You are restless to merge with the ocean, just like a young lady anxious to meet her beloved...]
तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे माँ ! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता... हे जाह्नवी ! आपकी महिमा अपार है... आप अपने भक्तो के समस्त कलुशो को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो...
O Mother! those who bathe in your waters do not have to take birth again. O Jahnavi! You are held in the highest esteem. You destroy your devotee’s sins and save them from hell...]
पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे जाह्नवी ! आप करुणा से परिपूर्ण हो... आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तो को विशुद्ध कर देती हो... आपके चरण देवराज इन्द्र के मुकुट के मणियो से सुशोभित हैं... शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता (प्रसन्नता) प्रदान करती हो...
O Jahnavi! You are full of compassion. You purify your devotees with your holy waters. Your feet are adorned with the gems of Indra’s crown. Those who seek refuge in you are blessed with happiness...]
रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो... आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा (पृथ्वी) का हार हो... हे देवी ! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है...
O Bhagavati! Take away my diseases, sorrows, difficulties, sins and wrong attitudes. You are the essence of the three worlds and you are like a necklace around the Earth. O Devi! You alone are my refuge in this Samsara...]
अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे गंगे ! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं... हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत... हे परमानन्द स्वरूपिणी... आपके तट पर निवास करने वाले वैकुण्ठ में निवास करने वालो की तरह ही सम्मानित हैं...
O Ganga! those who seek happiness worship you. You are the source of happiness for Alkapuri and source of eternal bliss. Those who reside on your banks are as privileged as those living in Vaikunta...]
वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
[ हे देवी ! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना... अथवा तो आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना...
O Devi ! It is better to live in your waters as turtle or fish, or live on your banks as poor “candal” rather than to live away from you as a wealthy king...]
भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे ब्रह्माण्ड की स्वामिनी ! आप हमें विशुद्ध करें... जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है... वह निश्चित ही सफल होता है...
O Godess of Universe! You purify us. O daughter of muni Jahnu! one who recites this Ganga Stotram everyday, definitely achieves success...]
यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[ जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है... उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं... यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है...
Those who have devotion for Mother Ganga, always get happiness and they attain liberation. This beautiful and lyrical Gangastuti is a source of Supreme bliss...]
गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे...
This Ganga Stotram, written by Sri Adi Shankaracharya,devotee of Lord Shiva, purifies us and fulfills all our desires...]
भगवती गंगा देवये नमः ...|
***
सामयिक दोहा गीत
अहंकार की हार
*
समय कह रहा: 'आँक ले
तू अपनी औकात।
मत औरों की फ़िक्र कर,
भुला न बोली बात।।
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जनता ने प्रतिनिधि चुने,
दूर करें जन-कष्ट।
मुक्त कराओ किसी से,
नहीं घोषणा शिष्ट।।
बड़बोले का सिर झुका,
सही नियति का न्याय।
रोजी छन गरीब की,
हो न सेठ-पर्याय।।
शाह समझ मत कर कभी,
जन-हित पर आघात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
लौटी आकर लक्ष्मी
देख बंद है द्वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
जोड़-तोड़कर मत बना,
जहाँ-तहाँ सरकार।
छुटभैये गुंडइ करें,
बिना बात हुंकार।।
सेठ-हितों की नीतियाँ,
अफसर हुए दबंग।
श्रमिक-कृषक क्रंदन करें,
आम आदमी तंग।
दाम बढ़ा पेट्रोल के,
खुद लिख ली निज मात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
किया गैर पर; पलटकर
खुद ही झेला वार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
*
लघु उद्योगों का हुआ,
दिन-दिन बंटाढार।
भूमि किसानों की छिनी,
युवा फिरें बेकार।
दलित कहा हनुमंत को,
कैसे खुश हों राम?
गरज प्रवक्ता कर रहे,
खुद ही जनमत वाम।
दोष अन्य के गिनाकर,
अपने मिटें न तात।
समय कह रहा आँक ले
तू अपनी औकात।।
औरों खातिर बोए थे,
खुद को चुभते खार,
जीत नम्रता की हुई,
अहंकार की हार...
१२.१२.२०१८
(३ राज्यों में भाजपा की हार पर)
***
मुक्तक:
गीत रचें नवगीत रचें अनुगीत रचें या अगीत रचें
कोशिश यह हो कि रचें जो भी न कुरीत रचें, सद्ऱीत रचें
कुछ बात कहें अपने ढंग से, रस लय नव बिम्ब प्रतीक रहे
नफरत-विद्वेष न याद रहे, बंधुत्व स्नेह संग प्रीत रचें
१२.१२.२०१४
...
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
संजीव 'सलिल'
*
*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
१२.१२.२०१३
***

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

दिसंबर ११, राम,शिव, दोहा, लघुकथा, दृष्टान्त अलंकार, नवगीत, सॉनेट, संतोष

सलिल सृजन दिसंबर ११
*
दोहा सलिला
*
राम लोक मंगल करें, सिया लोक कल्याण।
सिया-राम मिल फूँकते, जनगण-मन में प्राण।।
*
श्रद्धा शिवा ह्रदय बसें, शिव विश्वास अनंत।
मिले शिवा-शिव आस हर, करते पूर्ण दिगंत।।
*
निज अंत: सुख हेतु ही, करें राम गुणगान।
शिव शंका का अंत कर, दें चाहा वरदान।।
*
ताप त्रयी से मुक्ति दें, शिव जग-जनक विराट।
धरें हलाहल कंठ में, जिसकी कहीं न काट।।
*
सत्य बसा उर या नहीं, प्रभु पल में लें देख।
करें कृपा हर भक्त पर, कहीं न सीमा रेख।।
*
हनुमत बल के धाम हैं, तनिक नहीं अभिमान।
निगुण-सगुण श्री राम हैं, सकल गुणों की खान।।
*
ऊष्म-शीत संगम परम, शिव जी जग-आराध्य।
शिवा मातु शक्ति अगम, सुगम सभी को साध्य।।
*
है सरोज शत गुण लिए, कौशल अनुपम प्राप्त।
देव-देवियों को सदा, प्रिय है शदल आप्त।।
*
नमन करें कैलाश को, जहाँ शिवा-शिव साथ।
बस श्रद्धा विश्वास उर, वंदन लें- नत माथ।।
*
नारी महिमावान है, सकल गुणों की खान।
नदी सदृश जाती जहाँ, दे पाती वरदान।।
*
वंदनीय नारी वही, जो माने मर्याद।
दंडनीय केवल तभी, जब तोड़े मर्याद।।
*
अवगुण आठ न हों अगर, तब ही नारी इष्ट।
अवगुण का बाहुल्य ही, करता रहा अनिष्ट।।
*
मानस में है समाहित, सत्चिंतन का सार।
मानव मूल्यों के बिना, है साहित्य असार।।
११.१२.२०२२
***
सॉनेट
संतोष
*
है संतोष कृपा शारद की बरस रही हम सबके ऊपर।
हो संतोष अगर कुछ सार्थक गह-कह पाएँ।।
जड़ें जमीं में जमा, उड़ें, आएँ नभ छूकर।
सत-शिव-सुंदर भाव तनिक तो हम तह पाएँ।।
मानव हैं माया-मद-मोह, न ममता छूटे।
इन्सां हैं ईश्वर के निकट तनिक हो पाएँ।
जोड़ें परोपकार की पूँजी, काल न लूटे।।
दीनबंधु बन नर में ही नारायण पाएँ।।
काया-माया-छाया नश्वर मगर सत्य भी।
राग और वैराग्य समन्वय शुभ कर गाएँ।
ईश्वर की करुणा, मनुष्य के हृदय बसेगी।
जब तब ही हम ज्यों की त्यों चादर धर पाएँ।।
सरला विमला मति दे शारद!, सफल साधना।
तभी जीव संजीव हो सके, साज साध ना।।
११-१२-२०२१
***
शिवमय दोहे
*
डिम-डिम डमरू-नाद है, शिव-तात्विक उद्घोष.
अशुभ भूल, शुभ ध्वनि सुनें, नाद अनाहद कोष.
.
डमरू के दो शंकु हैं, सत्-तम का संयोग.
डोर-छोर श्वासास है, नाद वियोगित योग.
.
डमरू अधर टँगा रहे, नभ-भू मध्य विचार.
निराधार-आधार हैं, शिव जी परम उदार.
.
डमरू नाग त्रिशूल शशि, बाघ-चर्म रुद्राक्ष.
वृषभ गंग गणपति उमा कार्तिक भस्म शिवाक्ष.
.
तेरह तत्व त्रयोदशी, कभी न भूलें भक्त.
कर प्रदोष व्रत, दोष से मुक्त, रहें अनुरक्त.
.
शिव विराग-अनुराग हैं, क्रोधी परम प्रशांत.
कांता कांति अजर शिवा, नमन अमर शिव कांत.
.
गौरी-काली एक हैं, गौरा-काला एक.
जो बतलाए सत्य यह्, वही राह है नेक.
११-१२-२०१९
***
कुण्डलिया
कार्य शाला
*
तन की मनहर बाँसुरी, मन का मधुरिम राग।
नैनों से मुखरित हुआ, प्रियतम का अनुराग।। -मिथिलेश बड़गैयाँ
प्रियतम का अनुराग, सलिल सम प्रवहित होता।
श्वास-श्वास में प्रवह, सतत नव आशा बोता।।
जान रहे मिथिलेश, चाह सिय-रघुवर-मन की।
तज सिंहासन राह, गहेंगे हँसकर वन की।। - संजीव
११.१२.२०१८
***
दोहा दुनिया
*
आलम आलमगीर की, मर्जी का मोहताज
मेरे-तेरे बीच में, उसका क्या है काज?
*
नयन मूँद देखूं उसे, जो छीने सुख-चैन
गुम हो जाता क्यों कहो, ज्यों ही खोलूँ नैन
*
पल-पल बीते बरस सा, अपने लगते गैर
खुद को भूला माँगता, मन तेरी ही खैर
*
साया भी अपना नहीं, दे न तिमिर में साथ
अपना जीते जी नहीं, 'सलिल' छोड़ता हाथ
*
रहे हाथ में हाथ तो, उन्नत होता माथ
खुद से आँखे चुराता, मन तू अगर न साथ
११-१२-२०१६
***
गीत
समय के संतूर पर
सरगम सुहानी
बज रही.
आँख उठ-मिल-झुक अजाने
आँख से मिल
लज रही.
*
सुधि समंदर में समाई लहर सी
शांत हो, उत्ताल-घूर्मित गव्हर सी
गिरि शिखर चढ़ सर्पिणी फुंकारती-
शांत स्नेहिल सुधा पहले प्रहर सी
मगन मन मंदाकिनी
कैलाश प्रवहित
सज रही.
मुदित नभ निरखे, न कह
पाए कि कैसी
धज रही?
*
विधि-प्रकृति के अनाहद चिर रास सी
हरि-रमा के पुरातन परिहास सी
दिग्दिन्तित रवि-उषा की लालिमा
शिव-शिवा के सनातन विश्वास सी
लरजती रतनार प्रकृति
चुप कहो क्या
भज रही.
साध कोई अजानी
जिसको न श्वासा
तज रही.
*
पवन छेड़े, सिहर कलियाँ संकुचित
मेघ सीचें नेह, बेलें पल्ल्वित
उमड़ नदियाँ लड़ रहीं निज कूल से-
दमक दामिनी गरजकर होती ज्वलित
द्रोह टेरे पर न निष्ठा-
राधिका तज
ब्रज रही.
मोह-मर्यादा दुकूलों
बीच फहरित
ध्वज रही.
***
अलंकार सलिला ४०
दृष्टान्त अलंकार
अलंकार दृष्टान्त को जानें, लें आनंद
*
अलंकार दृष्टान्त को, जानें-लें आनंद|
भाव बिम्ब-प्रतिबिम्ब का, पा सार्थक हो छंद||
जब पहले एक बात कहकर फिर उससे मिलती-जुलती दूसरी बात, पहली बात पहली बात के उदाहरण के रूप में कही जाये अथवा दो वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तब वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है|
जहाँ उपमेय और उपमान दोनों ही सामान्य या दोनों ही विशेष वाक्य होते हैं और उनमें बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टांत अलंकार होता है|
दृष्टान्त में दो वाक्य होते हैं, एक उपमेय वाक्य, दूसरा उपमान वाक्यदोनों का धर्म एक नहीं होता पर एक समान होता है|
उदाहरण:
१. सिव औरंगहि जिति सकै, और न राजा-राव|
हत्थी-मत्थ पर सिंह बिनु, आन न घालै घाव||
यहाँ पहले एक बात कही गयी है कि शिवाजी ही औरंगजेब को जीत सकते हैं अन्य राजा - राव नहीं| फिर उदाहरण के रूप में पहली बात से मिलती-जुलती दूसरी बात कही गयी है कि सिंह के अतिरिक्त और कोई हाथी के माथे पर घाव नहीं कर सकता|
२. सुख-दुःख के मधुर मिलन से, यह जीवन हो परिपूरन|
फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि में ओझल हो घन||
३. पगीं प्रेम नन्द लाल के, हमें न भावत भोग|
मधुप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग||
४. निरखि रूप नन्दलाल को, दृगनि रुचे नहीं आन|
तज पीयूख कोऊ करत, कटु औषधि को पान||
५. भरतहिं होय न राजमद, विधि-हरि-हर पद पाइ|
कबहुँ कि काँजी-सीकरनि, छीर-सिन्धु बिलगाइ||
६. कन-कन जोरे मन जुरै, खाबत निबरै रोग|
बूँद-बूँद तें घट भरे, टपकत रीतो होय||
७. जपत एक हरि नाम के, पातक कोटि बिलाहिं|
लघु चिंगारी एक तें, घास-ढेर जरि जाहिं||
८. सठ सुधरहिं सत संगति पाई|
पारस परसि कु-धातु सुहाई||
९. धनी गेह में श्री जाती है, कभी न जाती निर्धन-घर में|
सागर में गंगा मिलती है, कभी न मिलती सूखे सर में||
१०. स्नेह - 'सलिल' में स्नान कर, मिटता द्वेष - कलेश|
सत्संगति में कब रही, किंचित दुविधा शेष||
११. तिमिर मिटा / भास्कर मुस्कुराया / बिन उजाला / चाँद सँग चाँदनी / को करार न आया| - ताँका
टिप्पणी:
१. दृष्टान्त में अर्थान्तरन्यास की तरह सामान्य बात का विशेष बात द्वारा या विशेष बात का सामान्य बात द्वारा समर्थन नहीं होता| इसमें एक बात सामान्य और दूसरी बात विशेष न होकर दोनों बातें विशेष होती हैं|
२. दृष्टान्त में प्रतिवस्तूपमा की भाँति दोनों बातों का धर्म एक नहीं होता अपितु मिलता-जुलता होने पर भी भिन्न-भिन्न होता है|
११-१२-२०१५
***
नवगीत
ठेंगे पर कानून
*
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
जनगण - मन ने जिन्हें चुना
उनको न करें स्वीकार
कैसी सहनशीलता इनकी?
जनता दे दुत्कार
न्यायालय पर अविश्वास कर
बढ़ा रहे तकरार
चाह यही है सजा रहे
कैसे भी हो दरबार
जिसने चुना, न चिंता उसकी
जो भूखा दो जून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
सरहद पर ही नहीं
सडक पर भी फैला आतंक
ले चरखे की आड़
सँपोले मार रहे हैं डंक
जूते उठवाते औरों से
फिर भी हैं निश्शंक
भरें तिजोरी निज,जमाई की
करें देश को रंक
स्वार्थों की भट्टी में पल - पल
रहे लोक को भून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
परदेशी से करें प्रार्थना
आ, बदलो सरकार
नेताजी को बिना मौत ही
दें कागज़ पर मार
संविधान को मान द्रौपदी
चाहें चीर उतार
दु:शासन - दुर्योधन की फिर
हो अंधी सरकार
मृग मरीचिका में जीते
जैसे इन बिन सब सून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
११-१२-२०१५
***
लघुकथा -
समरसता
*
भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५
***
नवगीत:
जिजीविषा अंकुर की
पत्थर का भी दिल
दहला देती है
*
धरती धरती धीरज
बनी अहल्या गुमसुम
बंजर-पड़ती लोग कहें
ताने दे-देकर
सिसकी सुनता समय
मौन देता है अवसर
हरियाती है कोख
धरा हो जाती सक्षम
तब तक जलती धूप
झेलकर घाव आप
सहला लेती है
*
जग करता उपहास
मारती ताने दुनिया
पल्लव ध्यान न देते
कोशिश शाखा बढ़ती
द्वैत भुला अद्वैत राह पर
चिड़िया चढ़ती
रचती अपनी सृष्टि आप
बन अद्भुत गुनिया
हार न माने कभी
ज़िंदगी खुद को खुद
बहला लेती है
*
छाती फाड़ पत्थरों की
बहता है पानी
विद्रोहों का बीज
उठाता शीश, न झुकता
तंत्र शिला सा निठुर
लगे जब निष्ठुर चुकता
याद दिलाना तभी
जरूरी उसको नानी
जन-पीड़ा बन रोष
दिशाओं को भी तब
दहला देती है
११-१२-२०१४
***
लघुकथा:
जंगल में जनतंत्र
*
जंगल में चुनाव होनेवाले थे।
मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'
' मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी खुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
राष्ट्रवादी मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '
११-१२-२०१३

***

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

भवानी प्रसाद तिवारी

संस्कारधानी के जननायक भवानी प्रसाद तिवारी

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
        स्वतन्त्रता संग्राम सत्याग्रही भवानी प्रसाद तिवारी (१३ फरवरी, १९१२ सागर - १३ दिसंबर १९७७ जबलपुर) प्रभावशाली वक्ता, विख्यात साहित्यकार, सजग शिक्षाविद एवं जनप्रिय राजनेता थे। आपके पिता श्री विनायक राव साहित्यभूषण जी थे। आपका जन्म भले ही सागर में हुआ परन्तु आपकी कर्मभूमि जबलपुर नगर रहा। मात्र १८ वर्ष की उम्र में वर्ष १९३० से आप राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय होकर पहली बार जेल गए। नमक सत्याग्रह १९३०, सविनय अवज्ञा आंदोलन १९३२, व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन १९४० तथा भारत छोड़ो आंदोलन १९४२ में सक्रिय भागीदारी कार आपने अपने जीवन के साढ़े तीन वर्ष जेल में ही व्यतीत किए। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान भवानीप्रसाद तिवारी जी ने जबलपुर नगर में होने वाले जुलूसों, सभाओं का नेतृत्व करने के साथ तिलक भूमि तलैया में सिग्नल कोर के विरुद्ध विद्रोह की अगुवाई की। त्रिपुरी अधिवेशन १९३९ में सक्रियतापूर्वक भाग लेने के लिए आपने हितकारिणी स्कूल से शिक्षक पद की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।आप तिलक भूमि तलैया में हुए तीन दिवसीय अनशन में भी शामिल रहे।

        सम्मोहक व्यक्तित्व के धनी तिवारी जी १९३६ से १९४७ तक जबलपुर नगर कांग्रेस के लगातार ११ वर्षो तक अध्यक्ष रहे। तिवारी जी ने स्वतन्त्रता सेनानी होते हुए भी साहित्यकार, पत्रकार, सम्पादक तथा शिक्षाविद के रूप में कीर्तिमान स्थापित किए। तिवारी जी जबलपुर एवं सागर विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी के सदस्य रहे। संस्कारधानी जबलपुर नगर के प्रथम महापौर निर्वाचित होने के साथ आपने ७ बार (१९५२ से १९५३ तथा १९५५ से १९५८ तथा १९६१) महापौर होने का अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया जो अब तक अभंग है। आप १९६४ से लगातार २ बार राज्यसभा सांसद निर्वाचित हुए। ये उपलब्धियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि इसी दौर में जबलपुर में कॉंग्रेस दल में माखन लाल चतुर्वेदी, ब्योहार राजेन्द्र सिंह, सुभद्रा कुमारी चौहान, सेठ गोविंद दास, द्वारिका प्रसाद मिश्र, कुंजी लाल दुबे जैसे  प्रखर और लोकप्रिय नेता सक्रिय थे और आपने सशक्त और साधन संपन्न कॉंग्रेस द्वारा आदर्शों की पूर्ति न होते देखकर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) जैसे साधनहीन दल में रहकर ये सफलताएँ पाईं। 

        सांसद के रूप में भवानी प्रसाद तिवारी जी ने अपने क्षेत्र की समस्याओं को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उठाया, सुझाव दिए, रेलवे बोर्ड तथा रेल मंत्री के मध्य सम्यक सामंजस्य की आवश्यकता प्रतिपादित की तथा नीतिगत त्रुटियों और अकारण विलंब को इंगित किया। उनके द्वारा की गई एक चर्चा रेलवे बजट १ जून १९७१ के पृष्ठ १६१ से १६८ पर पढ़ी जा सकती है। इसमें तिवारी जी ने जबलपुर-गोंदिया नैरो गेज को ब्रॉड गेज में बदलने की आवश्यकता तथा उसके लाभ पर प्रकाश डालते हुए इसे तत्काल कियान्वित करने पर बल दिया था। सरकारों की अदूरदृष्टि के कारण अब ब्रॉड गेज हो जाने पर भी इस पर यातायात अत्यल्प है।  

        भवानी प्रसाद तिवारी जी को यशस्वी  पत्रकार के रूप में प्रहरी समाचार पत्र के प्रकाशन तथा साहित्यकार के रूप में गीतांजलि के अनुगायन ने देशव्यापी प्रसिद्धि दिलाई। छायावादी काव्यशिल्प और भाव-भंगिमा पर सामाजिक संवेदना और राष्ट्रीय प्रवृत्ति को आपने वरीयता दी। प्रहरी पत्रिका ने हिंदी भाषा और साहित्य की महती सेवा की। मत-मतांतरों की चिंता किए बिना तिवारी जी ने केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव, सुभद्रा कुमारी चौहान, लक्ष्मण सिंह चौहान, नर्मदा प्रसाद खरे, हरिशंकर परसाई, रामेश्वर प्रसाद गुरु आदि की रचनाओं को प्रहरी में प्रमुखता से प्रकाशित करने में कभी कोताही नहीं की।    

            १९३८ में भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने पर भी उसे छोड़कर स्वतंत्रता सत्याग्रह में कूद पड़नेवाले कारावास में सुविख्यात समाजवादी  नेता (बाद में १९५२ व १९६२ में प्रसोपा तथा १९७७ में होशंगाबाद से जनता दल के सांसद) हरि विष्णु कामथ (१३ जुलाई १९०७ - १९८२) की प्रेरणा से आपने गीतांजलि का श्रेष्ठ अनुगायन किया। गीतांजलि के अंग्रेजी काव्यानुवाद से प्रेरित तिवारी जी द्वारा किये गए अनुगायन में मूल गीतांजलि के अनुरूप अनुक्रम भावगत समानता को देखते हुए स्वयं गुरुदेव ने इसे गीतांजलि का अनुवाद मात्र न मानकर सर्वथा मौलिक कृति निरूपित करते हुए तिवारी जी को आशीषित किया। कुछ पंक्तियों का आनंद लीजिए- 

‘दिखते हैं प्रभु कहीं,
यहाँ नहीं यहाँ नहीं,
फिर कहाँ? अरे वहाँ,
जहाँ कि वह किसान दीन,
वसनहीन तन मलीन,
जोतता कड़ी जमीन,
प्रभु वहीं कि जहाँ पर
वह मजूर करता है
चोटों से पत्थर को चूर’

        काव्य संग्रहों- 'प्राण पूजा' और ‘प्राण धारा’,  शोक गीत संग्रह 'तुम कहाँ चले गए’, संस्मरणात्मक निबंध संग्रह ‘जब यादें उभर आतीं हैं’,  जीवनी ‘गांधी जी की कहानी’, कथात्मक एवं समीक्षा संग्रह 'कथा वार्ता' तथा  ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित स्तंभों के संग्रहों ‘हाथों के मुख से’, ‘संजय के पत्र’ और ‘हमारी तुमसे और तुम्हारी हमसे’आदि के माध्यम से तिवारी जी अपनी असाधारण कारयित्री प्रतिभा के हस्ताक्षर समय-ग्रंथ पर किए। सागर विश्वविद्यालय द्वारा आपको डी. लिट. (मानद) उपाधि से विभूषित कर धन्य हुआ। महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा आपको १९७२ में 'पद्म श्री' अलंकरण से अलंकृत किया गया। 

        स्त्री-शिक्षा के समर्थक तिवारी जी ने अपनी पुत्रियों को उच्च शिक्षा प्राप्ति का हर अवसर उपलब्ध कराया। समाजवादी सिद्धांतों का पालन करते हुए आपने अपने पुत्र सतीश का अन्तर्जातीय विवाह सुप्रसिद्ध साहित्यकार-समीक्षक-संपादक रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी की प्रतिभाशाली छोटी बेटी अनामिका से कराया। आपने महाकौशल शिक्षा प्रसार समिति का गठनकर  बिदाम बाई कन्या शाला तथा चंचल बाई महिला माहा विद्यालय की स्थापना की। वे सच्चे जननायक थे। वे महापौर रहे या सांसद, वे आम जन के लिए हमेशा उपलब्ध रह सकें इसलिए उन्होंने अपने आवास के चारों ओर दीवाल न बनवाकर पौधों तथा लताओं की बागड़ लगवाई थी। महापौर के नाते मिली कार का उपयोग वे केवल सरकारी कार्य के लिए करते तथा निजी कार्य हेतु साइकिल से जाते थे। जनता से संवाद स्थापित करने में वे निष्णात थे। १९५७ में दलबंदी के कारण वे महापौर का चुनाव हार गए। इससे आमजन इतना रुष्ट हुए कि विजयी प्रत्याशी के जुलूस को ही रोक लिया। किसी तरह बात न बनी तो पुलिस अधिकारी ने आपको समस्या से अवगत कराया। आपने व्यक्तिगत जय-पराजय की चिंता किए बिना तत्काल विवाद स्थल पर पहुँचकर भीड़ को शांत करा दिया। 

        राजनीति में बढ़ते परिवारवाद जनित समस्या का पूर्वानुमान करते हुए आपने अपनी सुशिक्षित तथा योग्य संतानों (पुत्र सतीश तथा ५ पुत्रियों गीता, चित्रा दुबे, आभा दुबे, प्रतिभा शर्मा, मंगला शर्मा) में से किसी को राजनीति में प्रवेश नहीं करने दिया। कालक्रम में चित्रा चिकित्सक, आभा शिक्षिका तथा पुत्रवधू डॉ. अनामिका तिवारी (मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ के प्रथम तथा भारत की प्रख्यात पादप विज्ञानी, पूर्व प्राध्यापक ज. ला. नेहरू कृषि विश्व विद्यालय जबलपुर) ने आपकी गौरवपूर्ण विरासत को सम्हाला तथा प्रकाशित करने का भागीरथ प्रयास किया है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे अनामिका जी द्वारा भवानीप्रसाद तिवारी जी की स्मृति में स्थापित प्रथम साहित्य श्री सम्मान प्राप्त हुआ है। प्रस्तुत है तिवारी जी की एक रचना आभा जी के सौजन्य से -

आम पर मंजरी
भवानी प्रसाद तिवारी
*




घने आम पर मंजरी आ गई .....
शिशिर का ठिठुरता हुआ कारवां
गया लाद कर शीत पाला कहाँ
गगन पर उगा एक सूरज नया
धरा पर उठा फूल सारा जहां
अभागिन वसनहीनता खुश कि लो
नई धूप आ गात सहला गई ........
नए पात आए पुरातन झड़े
लता बेल द्रुम में नए रस भरे
चहक का महक का समा बँध गया
नए रंग ....धानी गुलाबी हरे
प्रकृति के खिलौने कि जो रंग गई
मनुज के कि दुख दर्द बहला गई ........
पवन चूम कलियाँ चटकने लगीं
किशोरी अलिनियाँ हटकने लगीं
रसानंद ,मकरंद ,मधुगंध में
रंगीली तितलियाँ भटकने लगीं
मलय-वात का एक झोंका चला
सुनहली फसल और लहरा गई ........

'सादा जीवन उच्च विचार' को पल पल जीनेवाले भवानी प्रसाद तिवारी जी अपनी मिसाल आप थे। जबलपुर नगर निगम प्रांगण में आपकी मानवकार प्रतिमा स्थापित की जाए तथा डाक-तार विभाग द्वारा डाक टिकिट निकाला जाए तो राजनेताओं को जनोन्मुखी राजनीति करने तथा आम लोगों को आदर्शपरक जीवन जीने की तथा स्त्री अधिकारों के पक्षधरों को ठोस कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी। 
***

दिसंबर १०, कपास, सोरठे, पूर्णिका, सॉनेट, मुक्तक, लघुकथा, दोहा, बुंदेली, नारी

सलिल सृजन दिसंबर १०
*
एक दोहा
आँख दिखाई; भीत हो, गया डॉक्टर भाग।
चाह रहाअनुराग पर, पाई जलती आग।।
***
कपासी सोरठे
करते रहें प्रयास, हिम्मत मत हारें कभी।
कहता धवल कपास, जोश होश संतोष रख।।
रखता तन-मन श्वेत, काली माटी में उपज।
परहित ही अभिप्रेत, है कपास को धन्य वह।।
देख सके तो देख, बीज बीज बीजक सदृश।
करे कर्म का लेख, निरासक्त रह संत सम।।
खली-बिनौले पा पले, गौ माता दे दूध।
कुटिया को ईंधन मिले, शाखाओं से खूब।।
कहता विहँस कपास, होना कभी उदास मत।
रख अधरों पर हास, सुख-दुख को सम जान सह।।
१०.१२.२०२४
०००
पूर्णिका
स्नेहमय उद्गार शत शत।
हृदय से आभार शत शत।।

भाव सलिला नर्मदा सी
नित प्रवाहित धार शत शत।।

पूर्ण होता नहीं मानव
पूर्णिका उद्गार शत शत।।

तम गरल लो कण्ठ में धर।
पूर्णिमा गलहार शत शत।।

शीश पर शशि सुशोभित है।
भुज भुजंग सिँगार शत शत।।

मोह-माया मुग्ध मन में
मधुर मूक सितार शत शत।।

कहे माटी नभ समुद भी।
दे 'सलिल' पर वार शत शत।।
१०.१२.२०२४
०००
सॉनेट
बुद्धू
लौट के बुद्धू घर को आए
जेब भरी थी, अब है खाली
फिर भी मस्त बजाते ताली
मन में मन भर सुधियाँ लाए
रमता जोगी बहता पानी
जैसे जहँ-तहँ अटके-भटके
जग-जीवन के देखे लटके
बनते चतुर करी नादानी
पर्वत पोखर झरने मंदिर
माटी घाटी नदियाँ सुंदर
मिटते पंछी रोते तरुवर
बलशाली विकास का दानव
कर विनाश दिखलाता लाघव
खुद को खुद ही ठगते मानव
११-१२-२०२२
७॰४७,जबलपुर
•••
मुक्तक सलिला:
नारी अबला हो या सबला, बला न उसको मानो रे
दो-दो मात्रा नर से भारी, नर से बेहतर जानो रे
जड़ हो बीज धरा निज रस से, सिंचन कर जीवन देती-
प्रगटे नारी से, नारी में हो विलीन तर-तारो रे
*
उषा दुपहरी संध्या रजनी जहाँ देखिए नारी है
शारद रमा शक्ति नारी ही नर नाहर पर भारी है
श्वास-आस मति-गति कविता की नारी ही चिंगारी हैं-
नर होता होता है लेकिन नारी तो अग्यारी है
*
नेकी-बदी रूप नारी के, धूप-छाँव भी नारी है
गति-यति पगडंडी मंज़िल में नारी की छवि न्यारी है
कृपा, क्षमा, ममता, करुणा, माया, काया या चैन बिना
जननी, बहिना, सखी, भार्या, भौजी, बिटिया प्यारी है
१०-१२-२०१९
***
तीन काल खंड तीन लघुकथाएँ :
१. जंगल में जनतंत्र
जंगल में चुनाव होनेवाले थे।
मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'
' मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी खुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धाँसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिएरखिए' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '
१९९४
***
२. समरसता
*
भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७-१२-२०१५
***
३. मी टू
वे लगातार कई दिनों से कवी की रचनाओं की प्रशंसा कर रही थीं। आरंभ में अनदेखी करने करने के बाद कवि ने शालीनतावश उत्तर देना आवश्यक समझा। अब उन्होंने कवि से कविता लिखना सिखाने का आग्रह किया। कवि जब भी भाषा के व्याकरण या पिंगल की बात करता वे अपने नए चित्र के साथ अपनी उपेक्षा और शोषण की व्यथा-कथा बताने लगतीं।
एक दिन उन्होंने कविता सीखने स्वयं आने की इच्छा व्यक्त की। कवि ने कोई उत्तर नहीं दिया। इससे नाराज होकर उन्होंने कवि पर स्त्री की अवमानना करने का आरोप जड़ दिया। कवि फिर भी मौन रहा।
ब्रम्हास्त्र का प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने निर्वसन चित्र भेजते हुए कवि को अपने निवास पर या कवि के चाहे स्थान पर रात गुजारने का आमंत्रण देते हुए कुछ गज़लें देने की माँग कर दी, जिन्हें वे मंचों पर पढ़ सकें।
कवि ने उन्हें प्रतिबंधित कर दिया। अब वे किसी अन्य द्वारा दी गयीं ३-४ गज़लें पढ़ते हुए मंचों पर धूम मचाए हुए हैं। कवि स्तब्ध जब एक साक्षात्कार में उन्होंने 'मी टू' का शिकार होने की बात कही। कवि समय की माँग पर लिख रहा है स्त्री-विमर्श की रचनाएँ पर उसका जमीर चीख-चीख कर कह रहा है 'मी टू'।
११.१२.२०१८
***
दोहा सलिला
उदय भानु का जब हुआ, तभी ही हुआ प्रभात.
नेह नर्मदा सलिल में, क्रीड़ित हँस नवजात.
.
बुद्धि पुनीता विनीता, शिविर की जय-जय बोल.
सत्-सुंदर की कामना, मन में रहे टटोल.
.
शिव को गुप्तेश्वर कहो, या नन्दीश्वर आप.
भव-मुक्तेश्वर भी वही, क्षमा ने करते पाप.
.
चित्र गुप्त शिव का रहा, कंकर-कंकर व्याप.
शिवा प्राण बन बस रहें, हरने बाधा-ताप.
.
शिव को पल-पल नमन कर, तभी मिटेगा गर्व.
मति हो जब मिथलेश सी, स्वजन लगेंगे सर्व.
.
शिवता जिसमें गुरु वही, शेष करें पाखंड.
शिवा नहीं करतीं क्षमा, देतीं निश्चय दंड.
.
शिव भज आँखें मून्द कर, गणपति का करें ध्यान.
ममता देंगी भवानी, कार्तिकेय दें मान.
१०-१२-२०१७
...
मुक्तक
शब्दों का जादू हिंदी में अमित सृजन कर देखो ना
छन्दों की महिमा अनंत है इसको भी तुम लेखो ना
पढ़ो सीख लिख आत्मानंदित होकर सबको सुख बाँटो
मानव जीवन कि सार्थकता यही 'सलिल' अवरेखो ना
***
दोहा दुनिया
*
आलम आलमगीर की, मर्जी का मोहताज
मेरे-तेरे बीच में, उसका क्या है काज?
*
नयन मूँद देखूं उसे, जो छीने सुख-चैन
गुम हो जाता क्यों कहो, ज्यों ही खोलूँ नैन
*
पल-पल बीते बरस सा, अपने लगते गैर
खुद को भूला माँगता, मन तेरी ही खैर
*
साया भी अपना नहीं, दे न तिमिर में साथ
अपना जीते जी नहीं, 'सलिल' छोड़ता हाथ
*
रहे हाथ में हाथ तो, उन्नत होता माथ
खुद से आँखे चुराता, मन तू अगर न साथ
१०-१२-२०१६
***
सुधियों का दर्पण
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर
नवलेखन अभियान
लघुकथा प्रकोष्ठ
लघुकथा के तत्व और लेखन प्रक्रिया विषयक अन्तरंग संगोष्ठी ११-१२-२०१६ रविवार को अपरान्ह 3 बजे से ५.३० बजे तक भंवरताल उद्यान में आयोजित है. सहभागी होकर सफल बनायें. १. कालाधन तथा २. सद्भाव शीर्षकों पर लघुकथा पर लघुकथाओं का वाचन भी होगा.
***
सामयिक गीत
ठेंगे पर कानून
*
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
जनगण - मन ने जिन्हें चुना
उनको न करें स्वीकार
कैसी सहनशीलता इनकी?
जनता दे दुत्कार
न्यायालय पर अविश्वास कर
बढ़ा रहे तकरार
चाह यही है सजा रहे
कैसे भी हो दरबार
जिसने चुना, न चिंता उसकी
जो भूखा दो जून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
सरहद पर ही नहीं
सड़क पर भी फैला आतंक
ले चरखे की आड़
सँपोले मार रहे हैं डंक
जूते उठवाते औरों से
फिर भी हैं निश्शंक
भरें तिजोरी निज,जमाई की
करें देश को रंक
स्वार्थों की भट्टी में पल - पल
रहे लोक को भून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
*
परदेशी से करें प्रार्थना
आ, बदलो सरकार
नेताजी को बिना मौत ही
दें कागज़ पर मार
संविधान को मान द्रौपदी
चाहें चीर उतार
दु:शासन - दुर्योधन की फिर
हो अंधी सरकार
मृग मरीचिका में जीते
जैसे इन बिन सब सून
मलिका - राजकुँवर कहते हैं
ठेंगे पर कानून
संसद ठप कर लोकतंत्र का
हाय! कर रहे खून
***
सामयिक गीत
चालीस चोर
*
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जनता माँगे
दो हिसाब
क्यों की तुमने मनमानी?
घपले पकड़े गए
आ रही याद
तुम्हें अब नानी
सजा दे रहा जनगण
नाहक क्यों करते तकरार?
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जननायक से
रार कर रहे
गैरों के पड़ पैर
अपनों से
चप्पल उठवाते
कैसे होगी खैर?
असंसदीय आचरण
बनाते संसद को बाज़ार
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
जनता समझे
कर नौटंकी
फैलाते पाखंड
देना होगा
फिर जवाब
हो कितने भी उद्दंड
सम्हल जाओ चुक जाए न धीरज
जन गण हो बेज़ार
चालीस चोर - अलीबाबा
क्योें करते बंटाढार?
*
***
बुंदेली गीत
जनता भई पराई
*
सत्ता पा घोटाले करते
तनकऊ लाज न आई
जाँच भई खिसियाए लल्ला
जनता भई पराई
*
अपनी टेंट नें देखे कानी
औरन को दे दोस
छिपा-छिपाकर ऐब जतन से
बरसों पाले पोस
सौ चूहे खा बिल्ली हज को
चली, रिसा पछताई?
जाँच भई खिसियाए लल्ला
जनता भई पराई
*
रातों - रात करोड़पति
व्ही आई पी भए जमाई
आम आदमी जैसा जीवन
जीने -गैल भुलाई
न्यायालय की गरिमा
संसद में घुस आज भुलाई
जाँच भई खिसियाये लल्ला
जनता भई पराई
*
सहनशीलता की दुहाई दें
जो छीनें आज़ादी
अब लौं भरा न मन
जिन्ने की मनमानी बरबादी
लगा तमाचा जनता ने
दूजी सरकार बनाई
जाँच भई खिसियाए लल्ला
जनता भई पराई
१०-१२-२०१५
***
मुक्तक सलिला:
नारी अबला हो या सबला, बला न उसको मानो रे
दो-दो मात्रा नर से भारी, नर से बेहतर जानो रे
जड़ हो बीज धरा निज रस से, सिंचन कर जीवन देती-
प्रगटे नारी से, नारी में हो विलीन तर-तारो रे
*
उषा दुपहरी संध्या रजनी जहाँ देखिए नारी है
शारद रमा शक्ति नारी ही नर नाहर पर भारी है
श्वास-आस मति-गति कविता की नारी ही चिंगारी हैं-
नर होता होता है लेकिन नारी तो अग्यारी है
*
नेकी-बदी रूप नारी के, धूप-छाँव भी नारी है
गति-यति पगडंडी मंज़िल में नारी की छवि न्यारी है
कृपा, क्षमा, ममता, करुणा, माया, काया या चैन बिना
जननी, बहिना, सखी, भार्या, भौजी, बिटिया प्यारी है
१०.१२.२०१३
***