कुल पेज दृश्य

रविवार, 8 सितंबर 2024

सितंबर ८, सॉनेट, चाँद, गीत-नवगीत, हाइकु, मुक्तिका,

सलिल सृजन सितंबर ८
*
सॉनेट
चले चाँद की ओर १
जय जय सोमनाथ की कहकर,
चले चांँद की ओर साथ मिल,
इसरो जा रॉकेट से बँधकर,
फुर्र उड़ें, चंदा है मंजिल।
चंद्रमुखी पथ हेर रही है,
आते हैं हम मत घबराना,
जाने कब से टेर रही है,
बने चाँद ही नया ठिकाना।
मत रोको टोको जी हमको,
चलना है काँधे पर बैठो,
ट्रैफिक पुलिस ने हमसे दमड़ी,
मिल पाएगी एकउ तुमको।
मोदी जी-राहुल जी आओ,
ये दिल मांँगे मोर दिलाओ।।
८-९-२०२३
•••
चले चाँद की ओर २
आएँ सॉनेटवीरों! आप, चलें आप भी साथ
इस दल का हो या उस दल का; नेता का ले नाम
मनमानी करते हैं हम सब चलें उठाकर माथ
डरते नहीं पुलिस से लाठी का न यहाँ कुछ काम
घरवाली थी चंद्रमुखी अब सूर्यमुखी विकराल
सात सात जन्मों को बाँधे इसीलिए हम भाग
चले चाँद की ओर बजाए घर पर बैठी गाल
फुर्र हो रहे हम वह चाहे जितनी उगले आग
चीन्ह न पाए इसीलिए तो हम ढाँकें हैं मुखड़ा
चलें मून शिव-शक्ति वहीं पर छान रहे हैं भाँग
दुर्घटना है ताने सुनना, किसे सुनाएँ दुखड़ा
छह के कंधे पर छह बैठें, नहीं अड़ाएँ टाँग
सॉनेट सलिला के सब साथी व्यंजन लाएँ खूब
खाकर अमिधा और लक्षणा में गपियाएँ डूब
८-९-२०२३
***
सॉनेट
थोथा चना
*
थोथा चना; बाजे घना
मनमानी मन की बातें
ठूँठ सरीखा रहता तना
अपनों से करता घातें
बने मिया मिट्ठू यह रोज
औरों में नित देखे दोष
करा रहा गिद्धों को भोज
दोनों हाथ लुटाए कोष
साइकिल पंजा हाथी फूल
संसद में करते हैं मौज
जनता फाँक रही है धूल
बोझ बनी नेता की फ़ौज
यह भौंका; वह गुर्राया
यह खीझा, वह टर्राया
८-९-२०२२
*
हिन्दी के बारे में विद्वानों के विचार
सी.टी.मेटकॉफ़ ने १८०६ ई.में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-
'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है,कलकत्ता से लेकर लाहौर तक,कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है,जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने १८०७ ई.में लिखा-
'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए,वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने १८१६ ई. में लिखा-
'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
एच.टी. केलब्रुक ने लिखा-
'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं,जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है,जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
८-९-२०२२
***
लेख :
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
*
भाषा का जन्म
प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से भाषा का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों के अर्थ नहीं समझता पर वह अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छह जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' को जन्म देती है। वाचिक व् लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। इन्हे पहचान और गईं कर वर्णिक-मात्रिक छंद बनाये जाते हैं।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि का बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पड़ंत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मंटा रह है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी , हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रूचि और सकारात्मक ऊर्जा का प्राधान्य है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत हे इन्हीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गयी है। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं। क्लिष्ट भाषा नवगीत के है। नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक है संक्रांति का में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सरथा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना नई कविता क्यों सिरजनी
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार थांती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजती नाचता
नवगीत के संग लोक का मन
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
८-९-२०२०
***
हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
***
मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
८-९-२०१९
***
दोहा 
गोविन्द गुस्सा कब हुआ, कोई सके न जान
जौहर करे न जौहरी, क्या उपमा-उपमान
*
मुक्तिका:
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
८-९-२०१५
*

शनिवार, 7 सितंबर 2024

सितंबर ७, सॉनेट, माहिया, इसरो, देवता, मुक्तक, दोहे, राम-श्याम

सलिल सृजन सितंबर ७
*
सॉनेट
मैं-तू; तू-तू मैं-मैं करते
एक-नेक जब मिलकर हों हम
मिले ख़ुशी हों दूर सभी गम
जग के सब सुख मिलकर वरते
मेरा-तेरा कर दुःख पाते
गैर न कोई कहीं सृष्टि में
दिखे गैर तो खोट दृष्टि में
सबकी खातिर मर; जी जाते
सारे मानव सदा एक हों
साथी नैतिकता-विवेक हों
सदा इरादे सभी नेक हों
नीर-क्षीर जैसे मिल पाएँ
भुज भेंटें; हँस गले लगाएँ
सु-मन सुमन जैसे खिल पाएँ
७-९-२०२२
***
माहिया
*
सेविन जी न घबराना
फिर करना कोशिश
चंदा पे उतर जाना।
*
है गर्व बहुत सबको
आँखों का तारा
इसरो है बहुत प्यारा।
*
मंजिल न मिली तो क्या
सही दिशा में पग
रख पा ही लेंगे कल।
***
जीवन सलिला
*
जीवन जीते हैं सभी,
किंतु नहीं जिंदा
जिंदा है वही जीवन
जो करे न पर निंदा।
*
जीवन तो बहाना है
असली नकली परहित
कर हमको जाना है।
*
जीवन है चलना
गिर रुक उठकर बढ़ना
बिन चुक पर्वत चढ़ना।
*
जीवन जी वन में तू
महसूस तभी होगा
क्या मिला न शहरों में?
*
जीवन सलिला बहती
प्रयासों को दे पानी
कुछ साथ नहीं तहती।
*
जीवन में सहारा हो
जब तक न किसी का तू
तब तक न जिया जीवन।
*
***
आज की प्रात
इसरो परिवार के लगन, श्रम, साहस, समर्पण और योग्यता को नमन
*
शोभित है आलोक से, कुछ मायूस विहान।
कित भरमाया है कहो, अपना प्रिय प्रग्यान।।
*
हाथी निकले जहाँ से, वहीं अटकती पूँछ।
सत्य हुई लोकोक्ति पर, तनिक न नीची मूँछ।।
*
फिर कोशिश कर सफलता, पाएँगे हम मीत।
गिर-उठ जाला बनाकर, मकड़ी के रण जीत।।
*
विक्रम कभी न हारता, लिखता है तकदीर।
हर बाधा को जय करे, तकनीकी तदबीर।।
*
भारत जाकर चाँद पर, रचे नया इतिहास।
यह कोशिश जारी रखें, ले अधरों पर हास।।
*
सबका यह संकल्प है, तनिक न लेंगे चैन।
ध्वजा तिरंगी चंद्र पर, जो चक लखें न नैन।।
*
बाधा-संकट से न डर, बाकी है अरमान।
आस न तज पूरा करें, सब मिलकर अभियान।।
***
बाल कविता
*
इसरोवाले कक्का जी
*
इसरोवाले कक्का जी
हम हैं हक्का-बक्का जी
*
चंदा मामा दूर के,
अब लगते हैं हमें समीप
आसमान के सागर में
गो-आ सकते ऐसा द्वीप
गोआ जैसा सागर भी
क्या हमको मिल पाएगा?
छप्-छपाक्-छप् लहरों संग
क्या पप्पू कर गाएगा?
आर्बिटर का कक्षा क्या
मेरी कक्षा जैसी है?
मेरी मैडम कड़क बहुत
क्या मैडम भी वैसी है?
बैल-रेल गाड़ी जैसा
लैंडर कौन चलाएगा?
चंदा मामा से मिलने
कोई बच्चा जाएगा?
कक्का मुझको भिजवा दो
जिद न करूँगा मैं बिल्कुल
रोवर से ना झाँकूँगा
नहीं करूँगा मैं हिलडुल
इतने ऊपर जाऊँगा
ज्यों धोना का छक्का जी
बहिना को भी सँग भेजो
इसरोवाले कक्का जी
७-९-२०१९
*
विमर्श: २
देवता कौन हैं?
देवता, 'दिव्' धातु से बना शब्द है, अर्थ 'प्रकाशमान होना', भावार्थ परालौकिक शक्ति जो अमर, परा-प्राकृतिक है और पूजनीय है। देवता या देव इस तरह के पुरुष और देवी इस तरह की स्त्रियों को कहा गया है। देवता परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक या सगुण रूप माने गए हैं।
बृहदारण्य उपनिषद के एक आख्यान में प्रश्न है कि कितने देव हैं? उत्तर- वास्तव में देव केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ कोटि (प्रकार); और पूछने ३ (विधि-हरि-हर या ब्रम्हा-विष्णु-महेश) फिर डेढ़ और फिर केवल एक (निराकार जिसका चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है)। वेद मंत्रों के विभिन्न देवता (उपास्य, इष्ट) हैं। प्रत्येक मंत्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है।
देवताओं का वर्गीकरण- चार मुख्य प्रकार
१. स्थान क्रम से वर्णित देवता- द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करनेवाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अंतरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहनेवाले देवता।
२. परिवार क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में आदित्य, वसु, रुद्र आदि हैं।
३. वर्ग क्रम से वर्णित देवता- इन देवताओं में इन्द्रावरुण, मित्रावरुण आदि देवता हैं।
४. समूह क्रम से वर्णित देवता -- इन देवताओं में सर्व देवा (स्थान, वस्तु, राष्ट्र, विश्व आदि) गण्य हैं।
ऋग्वेद में स्तुतियों से देवता पहचाने जाते हैं। ये देवता अग्नि, वायु, इंद्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि हैं। बहु देवता न माननेवाले सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मावाचक करते हैं। बहुदेवतावादी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है। पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा लौकिकीकरण हुआ, फ़िर इनकी मूर्तियाँ, संप्रदाय, अलग-अलग पूजा-पाठ बनाये गए।
धर्मशास्त्र में "तिस्त्रो देवता" (तीन देवता) ब्रह्मा, विष्णु और शिव का का कार्य सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार माना जाता है। काल-क्रम से देवों की संख्या बढ़ती गई। निरुक्तकार यास्क के अनुसार,"देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से है"। महाभारत (शांति पर्व) तथा शतपथ ब्राह्मण में आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं।
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम।।
शुद्ध बहु ईश्वरवादी धर्मों में देवताओं को पूरी तरह स्वतंत्र माना जाता है। प्रमुख वैदिक देवता गणेश (प्रथम पूज्य), सरस्वती, श्री देवी (लक्ष्मी), विष्णु, शक्ति (दुर्गा, पार्वती, काली), शंकर, कृष्ण, इंद्र, सूर्य, हनुमान, ब्रह्मा, राम, वायु, वरुण, अग्नि, शनि , कार्तिकेय, शेषनाग, कुबेर, धन्वंतरि, विश्वकर्मा आदि हैं।
देवता का एक वर्गीकरण जन्मा तथा अजन्मा होना भी है। त्रिदेव, त्रिदेवियाँ आदि अजन्मा हैं जबकि राम, कृष्ण, बुद्ध आदि जन्मा देवता हैं इसी लिए उन्हें अवतार कहा गया है।
देवता मानव तथा अमानव भी है। राम, कृष्ण, सीता, राधा आदि मानव, जबकि हनुमान, नृसिंह आदि अर्ध मानव हैं जबकि मत्स्यावतार, कच्छपावतार आदि अमानव हैं।
प्राकृतिक शक्तियों और तत्वों को भी देवता कहा गया हैं क्योंकि उनके बिना जीवन संभव न होता। पवन देव (हवा), वैश्वानर (अग्नि), वरुण देव (जल), आकाश, पृथ्वी, वास्तु आदि ऐसे ही देवता हैं।
सार यह कि सनातन धर्म (जिसका कभी आरंभ या अंत नहीं होता) 'कंकर-कंकर में शंकर' कहकर सृष्टि के निर्माण में छोटे से छोटे तत्व की भूमिका स्वीकारते हुए उसके प्रति आभार मानता है और उसे देवता कहता है।इस अर्थ में मैं, आप, हम सब देवता हैं। इसीलिए आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और यह भी कि तुम सब भी ओशो हो बशर्ते तुम यह सत्य जान और मान पाओ।
अंत में प्रश्न यह कि हम खुद से पूछें कि हम देवता हैं तो क्या हमारा आचरण तदनुसार है? यदि हाँ तो धरती पर ही स्वर्ग है, यदि नहीं तो फिर नर्क और तब हम सब एक-दूसरे को स्वर्गवासी बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर रहे। हमारा ऐसा दुराचरण ही पर्यावरणीय समस्याओं और पारस्परिक टकराव का मूल कारण है।
आइए, प्रयास करें देवता बनने का।
७-९-२०१८
***
दोहा सलिला
*
पुंगी फल पर विराजे, श्री गणेश विघ्नेश
यही विनय है 'सलिल' की, काटो सकल कलेश
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
मन मंदिर में विराजो, हे लड्डू गोपाल
जिव्हा पर तव नाम हो, कर में हो करताल
*
जहाँ दृष्टि जाती वहीं, दीखते हैं श्रीनाथ
चाह रहे श्री मात्र को, जो वे अधम अनाथ
*
माया है संसार यह, देवी हरें विकार
नेकी रतन बटोर तब, पर का हो उद्धार
*
रजत ताम्र या काष्ठ का, कोई नहीं है मोल
ह्रदय-सिंहासन बैठिए, प्रभुजी रहें अडोल
*
शिला गण्डकी नदी की, शालिगराम अमोल
शंख दक्षिणावर्त संग, पूजें नवरस घोल
*
बैठ जिलहरी शिव हँसें, नाग देखता मौन
माला ले रुद्राक्ष की, फेरे पल-पल कौन?
*
जाम सांवली विराजित, लेटे श्री हनुमान
भूत-प्रेत बाधा हरें, सबकी दयानिधान
*
सीपी में मोती बनें, हैं लक्ष्मी के वास
नित्य पूजिए- पाइए, शांति-सौख्य अहसास
७.९.२०१५
***
मुक्तक
*
मॉर्निंग नून ईवनिंग नाइट
खुद से करते है हम फाइट
रॉंग लग रहा है जो हमको
उसे जमाना कहता राइट
*
आते अच्छे दिन सुना
गुड डे कह हम मस्त
गुंडे मिलकर छेड़ते
गुड्डे-गुड्डी त्रस्त
७-९-२०१४

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

मानस में मुनि

 मानस में मुनि 

1. वशिष्ठ  

2. विश्वामित्र  

3. गौतम  

4. अगस्त्य  

5. शतानंद  

6. कश्यप  

7. नारद  

8. अत्रि  

9. श्रृंगी  

10. परशुराम  

11. भृगु  

12. भरद्वाज  

13. ऋचीक  

14. कण्व  

15. विश्रवा  

16. पुलस्त्य  

17. मनु  

18. दुर्वासा  

19. बृहस्पति  

20. सारस्वत  

21. कर्दम  

22. शरभंग  

23. सुतीक्ष्ण  

24. सपर्याग  

25. धौम्य  

26. काकभुशुण्डि  

27. वामदेव  

28. याज्ञवल्क्य  

29. लोपामुद्रा  

30. गर्ग  

31. शाण्डिल्य  

32. व्यास  

33. वामदेव

34. असित

35. देवल

36. जैमिनि

37. कात्यायन

38. मार्कंडेय

39. पिप्पलाद

40. संदीपनि

41. उपमन्यु

एतश, उष्ना, शम्बरन, बबरू,

वर्षागीर, बेशी-अग्नि,

मेघातिथी, काण्व, काक्षीवन, क्षत्री ,

पौरुकुस्त, जमदग्नि।


वैवस्वत मनु, रेज्रास्व, नुहुष ,

प्रगाध, माधुछंदस,

सुरदास, भयमान कण्वघोर,

गाधिन दीर्घतामस-


दैवदासी लोपामुद्रा, गार्समद

शाक्य,कत्सी,आंगीरस ,

रेमशा, औचाथ्य, कौशिक, शौनक,

शुनसेप, अग्निचाक्षुष।


शावर्णिक, शान्धामार्का, शुक्राचार्य

उपनयन, दयालु,

भांड, विभांडक, मृकुंडू, मार्कंड

कर्ण, कभंडी, कृपालु ।


च्यवन, जालुक, भूत, सुमंतक,

गर्ग, पुलह, मातंग,

अकृत, कृतिका, तारक, दुर्वासा,

स्थूल,रैवत, उत्तंग ।


विस्फोट, चार्वाक्य, अनघ, आदिक

सनातन, शुकदेव,

जाबाली, जनक, जान्हू, जैमिनी,

यजुर्वेद व्यासदेव ।


आसुरिक, अंतरीक्ष, अमरिष,

लिप्त, जानुक, अगस्तय,

सुतीक्ष्ण,कोकिल, दरद, कुमुद,

कंडु, अंगिरा पुलस्त्य ।


सुदेव, देवल, सुमति, नारद

कण्व, मंदर, स्वस्तिक,

मेरु, सावर्णिक, खणा, विरूपाक्ष,

रिभु, सनाका, आस्तिक।


दत्तात्रेय, वात्सायन, कीर्तिरथ,

कालिंजन, यदुशील

शंख, अनुष्टक, गाधि, अष्टावक्र,

बालखिल्य, पंचशील ।


विश्रवा, तांदिल, घर्ट, अंतरिक्ष

अत्रि, मुदिल, नामुची

दर्शलोपा, स्वर्ण लोपा, तृणबिन्दु

श्रृंगी, मांडूक, प्रसुचि।


कृषंबाक, कृष्णंकुर, कुशध्वज,

कृपाजल, अवधूत,

रोमांच, मंथन, धौम्य, वीरसेन,

गार्ग्य, गगन, मरुत।


सुविज्ञ, सुजान, बरेहा, गोमत,

वामदेव, ज्ञानात्माक,

नृसंगु, अष्टांग, देवांग, रत्नांग

पंगुकल्प, कृष्णात्मक ।


गौतम, वशिष्ठ, अथर्व , कश्यप

वैश्वायन, मधुकर,

कर्दम, घर्घरा, भार्गव, मैत्रेय

उद्दालक, पराशर ।


काशपर्णी, व्योमकेश, धुंदूमार,

विरूपाक्ष, सदानंद

स्वराभंगा, बाजश्रवा, मंदपाल,

कुलदीप, सत्यानंद।


सहदेव, याज्ञवल्क्य, द्वैपायन,

वरतंतु, कात्यायन

ऋष्यशृंग, युल्पायन, भारद्वाज,

दधीचि, पिप्पलायन ।


मरीचि, पर्वतसूतपा, रम्यक,

मेघदक्ष, वैखानश,

विश्वामित्र, वाल्मिक, अजमित्र,

धर्मात्मा, क्रतु, मेधस।


सुधीर, रुचिक, दुर्गायु ,वादान्य,

मनसिज, निरंजन,

पाठा, त्वष्टा, चूली, मदन, अरुण,

सौभिर, अग्निभिमान।


संदीपनि, अर्बदक्ष, कुंभ, भृगु

बढू अग्निक, शमिक,

कौस्तुभ, निशाकार, परशुराम,

सनतकुमार, जम्निक । (प्रेम-पहचान, हलधर नाग, पृष्ठ- )

सितंबर ६, सॉनेट, शिक्षक, नवगीत, सीमा, वाग्देवी, लघुकथा, गुरु, दोहा, कौन हूँ मैं?, यायावर,

सलिल सृजन सितंबर ६ 
*
सॉनेट
छापा
*
इस पर छापा; उस पर छापा
बोल न है किस-किस पर छापा
रंग-बिरंगा रूपया छापा
समाचार मनमाना छापा
साथ न जो दे उस पर छापा
साथ न जो ले उस पर छापा
छोड़े हाथ अगर तो छापा
मोड़े लात अगर तो छापा
मन की बात न मानी? छापा
धन की बात न जानी छापा
कुछ करने की ठानी छापा
मुँह से निकली बानी छापा
सत्ता का स्वभाव है छापा
नेता का प्रभाव है छापा
६-९-२०२२
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए
वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए
अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए
अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए
वाग्देवी कृपा करिए
६-९-२०२२
•••
विमर्श : आय और क्रय सामर्थ्य
पचास वर्ष पूर्व - एक पैसे में पाँच गोलगप्पे,
चालीस साल पूर्व - एक पैसे में दो गोलगप्पे
तीस वर्ष पूर्व - पाँच पैसे में दो गोलगप्पे
बीस वर्ष पूर्व - २५ पैसे में एक गोलगप्पा
दस वर्ष पूर्व - ५० पैसे में एक गोलगप्पा
अब - दो रूपए में एक गोलगप्पा
नौकरी आरंभ करने से अब तक गोलगप्पा का कीमत पचास साल में हजार गुणा बढ़ी।
जमीन २५ पैसे वर्ग फुट से १०००/- वर्ग फुट अर्थात ४००० गुना बढ़ी।
वेतन ४००/- से २००००/- अर्थात ५० गुना बढ़ा।
सोना २००/- से ५२,०००/- अर्थात २६० गुना बढ़ा।
क्रय क्षमता २ तोले से ०.४ तोला अर्थात एक चौथाई से भी कम।
सचाई
वस्तुओं की तुलना में क्रय सामर्थ्य में निरंतर ह्रास। अचल संपदा में बेतहाशा वृद्धि, अमीर और अमीर, गरीब और गरीब
निष्कर्ष
मुद्रा का द्रुत और त्वरित अवमूल्यन,
श्रमिक, किसान और कर्मचारी की क्रय सामर्थ्य चिन्तनीय कम, पूँजीपतियों, प्रशासनिक-न्यायिक अफसरों, नेताओं के आय और सम्पदा में अकूत वृद्धि।
५ % भारतीयों के पास ८०% संपदा।
किसी राजनैतिक दल को जान सामान्य की कोइ चिंता नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई
६-९-२०२०
***
विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
६-९-२०१९
***
मेरा परिचय :
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
६-९-२०१७
***
मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी
शत-शत वंदन
गुरु जी की कविता और गुरु वन्दना
*
व्यंग्य रचना-
बाबू और यमराज
सुरेश उपाध्याय
*
दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान! यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबू ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
कि बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***
गुरु वन्दना
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष पाकर शिष्य गर्वित हो रहे थे। सबसे अंत में खड़ा, सहमा-सँकुचा वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पाता लपककर कमरे से निकल गए। दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा।
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हूँ, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखा तक नहीं। मेज पर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा, सामने उसके शिक्षक थे- 'मुझसे भूल हो गई, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गई उसके मन की पीड़ा।
६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]
*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं।
गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है।
सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं।
'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है । [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]
तुम मुझे दो । शब्द / और मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ
२ १२ २ । २ १ / २ २ /। २ १ २ २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो
२ १ २ २ । २ १ / २ २ । २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
फिर उन्हीं निश् । छल पलों को।/ तुम कहो तो ।/ आज फिर से
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ = २८ मात्रा
गुनगुना लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १७ मात्रा
ओस भीगी । पंखुरी सा ।/ मन सहन / निख । रा है ऐसे
२ १ २ २ । २१२ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २ २ = २८ मात्रा
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
२ १ २ २ । २ १ २ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक = २६ मात्रा
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २१ २
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १९ मात्रा
इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं।
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है', अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है', पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं।
पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य] का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?
२ १ २ १ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
हर घड़ी ऐ।से जियो /जै।/से यही बस । खास है
२ १ २ १।२ १ २ २ ।/ २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है।
'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६ अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६ संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है।
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३) प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं।
'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं।
'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०, १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।
सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है।
'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों समायोजन करा दिया है।
तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक छूने में समर्थ हैं.
इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ, वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे
गंध के कितने झरोखे / खोलता है
*
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता?
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए
रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा
*
'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं।
सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।'
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
६-९-२०१५
***
प्रसंगत विषय पर प्रतिष्ठित कवियों की और से स्वरचित रचनाएं : (भाग २)
रचनाकार--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
प्रसंग है कि एक तरुणी अत्यंत ऊँची बिल्डिंग की छत पर इस तरह से जा बैठी है कि जैसे वह आत्महत्या करने वाली हो | विभिन्न कवियों से इस विषय पर रचना
करने को कहा जाता तो वे इस पर कैसे रचते ....
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'
*
आक्रोशित क्यों आज रूपसी,
प्रिय तेरा अवलंबन?
मन की डोर बँधी है मन से,
सात जन्म का बंधन|
बहकाता जग छले छलावा,
उससे बचकर रहना,
विषधर सी अनुभूति अगर हो,
तन-मन कर ले चन्दन|
ले-ले तेरी जान विधाता इतना क्रूर नहीं है|
बढ़ा कदम मत विचलित हो तू मंजिल दूर नहीं है|
_______________________________
जयशंकर प्रसाद
*
प्रज्ज्वलित ज्यों अनेक, मार्तंड आज भोर,
वक्ष धौंकनी समान, घन घमंड घोर-घोर |
थरथरा रहे अधर, भामिनी बनी हुई,
दग्ध दामिनी ललाट, निज भृकुटि तनी हुई |
विश्व सुन्दरी सुरम्य. कान्ति क्यों मलीन है?
आन-बान-शान हित, सहिष्णुता विलीन है,
है क्षणिक विचार किन्तु. क्रोधयुक्त लालिमा,
आत्मघात लक्ष्य है, कठोर भाव भंगिमा |
प्रचण्ड दग्ध दारिका , पग सँभल-सँभल धरो
झुको नहीं डिगो नहीं, सदैव देश हित मरो |
____________________________
सुमित्रानंदन पन्त
*
तुम हो मर्यादित मधु बन,
प्रियतम के प्राणों का धन,
अगणित स्वप्न भरे पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन!
उतरो ऊपर नील गगन से,
हे चिर रमणी, चिर नूतन!
मन के इस उर्वर आँगन में
जी लो ज्योतिर्मय जीवन!
___________________
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
*
दिए हैं तूने जिसे सब फूल फल.
आज वह नीचे रहा है हाथ मल,
क्रोध में मत हो विवश ऐ कामिनी!
आ उतर आ रूपसी ऋतु भामिनी!
प्राण खोकर क्या मिलेगा यह जहां?
ठाठ जीवन का मिलेगा सब यहाँ.
_____________________
मैथिली शरण गुप्त
*
नारी न निराश करो मन को
कुछ प्रेम करो निज यौवन को
अति सुन्दर दर्पण में दुहिता
अनुभूत करो मन की शुचिता
जीवन जीना भी एक कला
सँभलो कि सुयोग्य न जाय चला
है कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
हो किस नरेश के योग्य नहीं
नीचे उतरो ढक लो तन को
नारी न निराश करो मन को |
_____________________
भीगे भीगे नयन कोर हैं.
बैठी छत पर गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
स्नेह प्रीति की डोरी
आत्मघात करने को उद्यत
मूक हुई है भाषा,
किस निष्ठुर की एक फूँक का
देखूं खेल-तमाशा
मेरा सुन ले गीत रूपसी.
आलोकित कर मन को
उष्ण शुष्कता से आ नीचे
स्नेह मिले उपवन को
________________________
संत कबीरदास
*
दुहिता छज्जे पर चढ़ी, बिखराये है केश.
धमकाये हर एक को, सतगुरु का आदेश..
आत्मघात पर है अड़ी, सिर मँड़राए काल.
दुविधा में माने नहीं, जी का है जंजाल..
उतरेगी ललना तभी, जब हों आँखें चार.
रसगुल्ले को देखकर, ही उतरेगी नार..
___________________________
संत गोस्वामी तुलसीदास
*
दारा दुहिता भई दुखारी, गयी कूदि के बैठि अटारी..
तीव्र क्रोध झलके उर माथा, सबै आज सुमिरौ रघुनाथा..
कातर कन्त निकट चलि गयऊ, कूदनार्थ वह उद्यत भयऊ..
नीचे सास बजावे बाजा, चिंतित दीखै संत समाजा..
देवर सास ससुर बलिहारी. उतरि आव प्रिय विपदा भारी,.
बाजी लगती आज जान की. हनुमत रक्षा करें प्रान की..
अहंकार है अति दुखदायी, रघुपति सुमिरन शान्तिप्रदायी..
_______________________________________
काका हाथरसी
*
गोरी टावर जा चढ़ी, चले नहीं अब जोर|
ऊपर से मत कूदियो, सिग्नल यदि कमजोर||
सिग्नल यदि कमजोर, हुई डीजल की चोरी|
उलझ नहीं नादान, डेढ़ पसली भी तोरी|
कह काका कविराय, हमेशा मस्त मजा ले|
बदल वीक नेटवर्क, पोर्ट सिम अभी करा ले||
____________________________
- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
*
गौरी तू अम्बर चढ़ी, नीचे है पाताल,
नहीं स्वर्ग में जा सके, करती क्यों जंजाल,
करती क्यों जंजाल, उतर कर नीचे आजा
तेरा ये संसार, दुखी क्यों है बतलाजा
माने तेरी बात, सुनेंगे तेरी लोरी
शेष अभी है उम्र, करे क्यों हत्या गौरी ।
_________________________
- समोद सिंह चरौरा
*
आटा आटा कर रही, घर में कल्लो नार !
छज्जे ऊपर आ गयी, गिरने को तैयार !!
गिरने को तैयार, दूर से देखें प्यादे !
कहती बारम्बार, सजन से आटा लादे !!
कह समोद कविराय, कूद मत छत से माता !
दौड़ा दौड़ा जाय, सजनवा लेने आटा !!
**
अंबरीश
आटा जीवन दे कहे, कुण्डलिया शुभ छंद.
गृहिणी तो स्वच्छंद हैं किन्तु कन्त मतिमंद.
किन्तु कन्त मतिमंद, भूल भारी कर जाता.
महिषी हो जब क्रुद्ध, तभी वह आटा लाता .
बचकर रहना मित्र, गाल सूजे दे चाटा.
सदा रहे यह ध्यान, नहीं है घर में आटा.
_____________________________
प्रमोद तिवारी
*
तू है एक बहादुर नारी मरने की क्यों ठानी
समय कहाँ अब बच पाया जो भरे आँख में पानी
है अनमोल मिला जो तुझको जीवन इसे सम्हालो
नये सिरे से फिर जुट जाओ छोड़ो बात पुरानी
**
अम्बरीष
मनभावन है सुन्दर रचना, अपने मन को भाई.
कथ्य सहज संदेशपरक है, देता हृदय बधाई..
मार लिया मैदान आपने, अब है सबकी बारी.
है सौभाग्य हमारा पाया, अनुपम मित्र 'तिवारी'.
_____________________________
राजेंद्र कुमार
*
न राह, न मंजिल,न जाने किधर था किनारा।
किधर पग पसारे सब ओर पाए बेसहारा।।
किस्मत का लेखा समझ,जो बैठ गया।
सपना न पूरा होगा कभी,यूं जो हार गया।।
____________________________
रमेश एस. पाल रवि
*
ऊबकर जिंदगी से कोई डूब जायेगा
फ़िर तराना ज़माना उसका खूब गायेगा
जाना है पगली सबको , एक दिन आयेगा
उस दिन जाना , जिस दिन महबूब बुलायेगा
*
नार निडर नशीली छत पर बैठी
इनको लगा के वो आत्महत्या करेगी
गये उसको बचाने , खुद ही गिर पड़े
नार अबला बेचारी अब क्या करेगी ?
**
अम्बरीष
निडर नशीली बैठी छत पर कहलाती जो नारि.
दहक रही है उसकी काया हुआ वाष्पित वारि.
वारि संहनित हुआ गगन में बरस गए हैं बादल.
जमा हुआ जल बह निकला है धुला क्लेश बन काजल.
आत्मघात को उकसाती है यही कालिमा प्यारे.
स्नेह नदी बहती है नीचे उसमें अभी नहा रे..
*
अबला पर, अबला मत समझें, सबको ले डूबेगी.
हाथों में होंगीं हथकड़ियाँ, भावों से खेलेगी.
दुनिया देखे खेल तमाशा, तिल-तिल कर मरना है
इसीलिये तो बला समझ, हर अबला से डरना है..
_________________________________
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
*
ना लड़का न लड़की तुम, जीना है बेकार !!
कूदना ही बेहतर है, जाओ नर्क सिधार !
**
अंबरीष
जीवन रंगों से भरा, प्रकृति बाँटती प्यार.
स्वर्ग नर्क सारा यहीं. लगा स्वयं में धार
________________________
फणीन्द्र कुमार
*
बिखरे-बिखरे केश, लिए बैठी है नारी,
गहराई को नाप , संकुचित है बेचारी,
मरने की ली ठान, मगर मुश्किल है कितना,
कूदेगी क्या खाक, अगर सोचेगी इतना ||
___________________________
संजीव वर्मा 'सलिल'
नीलाम्बर पर चित्र लिखे से मेघ भटकते
सलिल धार को शांत देखते रहे ठिठकते
एक ब्रम्ह तन-मन में बँट दो हो जाता है
बैठ किनारे देख रहा जो खो जाता है
केश राशि में छिपा न मालुम नर या नारी?
चित्त अशांत-शांत चिंगारी या अग्यारी ?
पहरा देती अट्टालिका खड़ी एकाकी
अम्बरीष हो मुखर सराहे शुभ बेबाकी
**
धारार्यें हों एक, सहज, हमको समझायें,
ज्ञान भक्ति दो मार्ग. मिलें, प्रभु तक पहुँचायें.
एक ब्रह्म बँट तन मन में, है अलख जगाता,
सारे नारी रूप, वही नर. उससे नाता.
_______________________
रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
दुष्यंत कुमार
*
दृश्य सुन्दर सामने आने लगे हैं
छा रहे थे मेघ जो जाने लगे हैं
अब न रहना इमारत में कैद मुझको
मुक्ति के स्वर टेरते भाने लगे हैं
_____________________
गोपाल प्रसाद व्यास
*
प्रकृति को परमेश्वर मानो
मत रार मनुज इससे ठानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
____________________
महादेवी वर्मा
ये नीर भरी जल की बदली
उमड़ी थी कल, पर आज चली
बिन बरसे ताके गगन विवश
है काल सत्य ही महाबली
_____________________
नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
छत पे बैठ भा रही है ज़िन्दगी
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
__________________
शैलेन्द्र
गगन रे झूठ मत बोलो
न अब बरसात आना है
गए हैं मेघ सब वापिस
नहीं उनको बुलाना है
____________________
नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
पछुआ ने तन-मन सिहराया
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
______________________
प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
ये है अपनी नदी सुहावन मेंढक आ टर्राया था
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
_______________________________
विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
*
अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण को शिष्य रूप में आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं। आपका क्या विचार है सोचिए? किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
६-९-२०१४
***
जाकी रही भावना जैसी
शिक्षक दिवस पर मंगल कामनाएँ प्राप्त कर धन्यता अनुभव हुई। सभी के प्रति ह्रदय से आभार।
विशेष आभार नर्मदांचल के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के प्रति जिनके स्नेहादेश को स्वीकार कर नर्मदापुरम (होशंगाबाद) में शिवसंकल्प साहित्य परिषद् के शिक्षक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से चयनित शिक्षकों तथा साहित्यकारों को सम्मानित करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ नवगीतकार अग्रजवत श्री विनोद निगम और अपने गुरु, हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्य कवि, धर्मयुग के उपसंपादक रहे श्री सुरेश उपाध्याय जी तथा भाभी श्रीमती आशा उपाध्याय जी के दर्शन, चरणस्पर्श, स्वादिष्ट भोजन और मर्मस्पर्शी कवितायेँ सुनने का सौभाग्य मिला।
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा। हिंदी भाषा, व्याकरण, साहित्य, पिंगल, वास्तु, विधि, नागरिक अभियांत्रिकी और अन्य विषयों/विधाओं जो कुछ जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ बाँटता रहता हूँ। हिन्दयुग्म/साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, ब्लॉगों, फेसबुक पृष्ठों, वॉट्सऐप समूहों, और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ। इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ। इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है। हिंदी के कई व्याख्याताओं और प्राध्यापकों ने छंद, अलंकार तथा व्याकरण संबंधी लेख मालाओं की छायाप्रतियां निकलकर उनसे विद्यार्थियों को पढ़ाया। युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो। गूगल सर्च पर अपना नाम टंकित करने पर अंग्रेजी में ४ लाख साथ हजार और हिंदी में दो लाख उनहत्तर हजार परिणाम प्राप्त हुए। दिव्यनर्मदा.इन का पाठकांक ४० लाख २८ हजार १२३ है। ७५ पुस्तकों की भूमिकाएँ ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने तथा ५०० से अधिक छंदों की रचना करने के बाद भी स्थानीय आकाशवाणी केंद्र, अखबार और साहित्यिक मठाधीश मुझे साहित्यकार ही नहीं मानते।
मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु… मैं यह जानता हूँ कि मैं एक विद्यार्थी था, हूँ, और रहूँगा , शेष जाकी रही भावना जैसी.....
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
धरती बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
६-९-२०१०
***
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष
सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास
देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल
शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
५-९-२०२२
*