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बुधवार, 8 मई 2024

मई ८, चित्रगुप्त, स्मृति-गीत, माँ, बाङ्ग्ला-हिंदी, दोहा, गीत,

सलिल सृजन मई ८
*

 - : अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण २०२३-२४ : -  

        विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर द्वारा प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जा रही हैं। वर्ष २०२३-२४ में अलंकरणों हेतु निम्नानुसार प्रविष्टियाँ (पुस्तक की २ प्रतियाँ, पुस्तक तथा लेखक संबंधी संक्षिप्त विवरण, सहभागिता निधि ३०० रु.) आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति, विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, ४०१, विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पते पर आमंत्रित हैं। प्रविष्टि प्राप्ति हेतु अंतिम तिथि ३० जून २०२४ है।

०१. स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि हिंदी रत्न अलंकरण, ५००१ रु., समग्र गद्य कृति। सौजन्य आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी जी, जबलपुर।
०२. शांतिराज हिन्दी रत्न अलंकरण, ५००१ रु.समग्र पद्य कृति। सौजन्य आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, जबलपुर।
०३. राजधर जैन 'मानस हंस' अलंकरण, ५००१ रु., समीक्षा। सौजन्य डाॅ. अनिल जैन जी, दमोह।
०४. शकुंतला अग्रवाल नवांकुर अलंकरण,५५०१ रु. प्रथम कृति (वर्ष २०२२ से २०२४)। सौजन्य श्री अमरनाथ अग्रवाल जी, लखनऊ।
०५. जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' अलंकरण,५१०० रु., निबंध / संस्मरण / यात्रावृत्त सौजन्य सुश्री अस्मिता शैली जी, जबलपुर।
०६. कमला शर्मा स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., हिंदी गजल। सौजन्य श्री बसंत कुमार शर्मा जी, बिलासपुर।
०७. सिद्धार्थ भट्ट स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., लघुकथा। सौजन्य श्रीमती मीना भट्ट जी, जबलपुर।
०८. डाॅ. शिवकुमार मिश्र स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., छंद। सौजन्य डाॅ. अनिल वाजपेयी जी, जबलपुर।
०९. सुरेन्द्रनाथ सक्सेना स्मृति हिन्दी गौरव अलंकरण, २१०० रु., गीत। सौजन्य श्रीमती मनीषा सहाय जी, जबलपुर।
१०. डॉ. अरविन्द गुरु स्मृति हिंदी गौरव अलंकरण, २१०० रु., कविता। सौजन्य डॉ. मंजरी गुरु जी, रायगढ़।
११. विजय कृष्ण शुक्ल स्मृति अलंकरण, २१०० रु., व्यंग्य लेख। सौजन्य डॉ. संतोष शुक्ला।
१२. शिवप्यारी देवी-बेनीप्रसाद स्मृतिअलंकरण, २१०० रु.। बाल साहित्य, सौजन्य डॉ. मुकुल तिवारी, जबलपुर।
१३. सत्याशा लोक श्री अलंकरण, ११०० रु., बुंदेली साहित्य। सौजन्य डा. साधना वर्मा जी, जबलपुर।
१४. रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा अलंकरण, ११०० रु., राष्ट्रीय देशभक्ति साहित्य। सौजन्य सुश्री आशा वर्मा जी, जबलपुर।
१५. कवि राजीव वर्मा स्मृति कला श्री अलंकरण, ११०० रु., गायन-वादन-चित्रकारी आदि। सौजन्य आर्किटेक्ट मयंक वर्मा, जबलपुर।
१६. सुशील वर्मा स्मृति समाज श्री अलंकरण, ११०० रु., पर्यावरण व समाज सेवा। सौजन्य श्रीमती सरला वर्मा भोपाल।

अलंकरण स्थापना 
        अनुवाद, तकनीकी लेखन, विधि, चिकित्सा, आध्यात्म, हाइकु (जापानी छंद), सोनेट, रुबाई, कृषि, ग्राम विकास, जन जागरण तथा अन्य  विधाओं में अपने पूज्यजन /प्रियजन की स्मृति में अलंकरण स्थापना हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं। अलंकरणदाता अलंकरण निधि के साथ ११००/- (अलंकरण सामग्री हेतु) जोड़कर ९४२५१८३२४४ पर भेज कर सूचित करें।   

टीप : उक्त अनुसार किसी अलंकरण हेतु प्रविष्टि न आने अथवा प्रविष्टि स्तरीय न होने पर वह अलंकरण अन्य विधा में दिया जा सकेगा। अंतिम तिथि के पूर्व तक नए अलंकरण जोड़े जा सकेंगे।

पुस्तक प्रकाशन
        कृति प्रकाशित कराने, भूमिका/समीक्षा लेखन हेतु पांडुलिपि सहित संपर्क करें। संस्था की संरक्षक सदस्यता ग्रहण करने पर एक १२० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का तथा आजीवन सदस्यता ग्रहण करने पर ६० पृष्ठ तक की एक पांडुलिपि का प्रकाशन समन्वय प्रकाशन, जबलपुर द्वारा किया जाएगा।

पुस्तक विमोचन
        कृति विमोचन हेतु कृति की ५ प्रतियाँ, सहयोग राशि २१०० रु. रचनाकार तथा किताब संबंधी जानकारी ३० जुलाई तक आमंत्रित है। विमोचित कृति की संक्षिप्त चर्चा कर, कृतिकार का सम्मान किया जाएगा।

        वार्षिकोत्सव, ईकाई स्थापना दिवस, किसी साहित्यकार की षष्ठि पूर्ति, साहित्यिक कार्यशाला, संगोष्ठी अथवा अन्य सारस्वत अनुष्ठान करने हेतु इच्छुक ईकाइयाँ / सहयोगी सभापति से संपर्क करें। संस्था की नई ईकाई आरंभ करने हेतु प्रस्ताव आमंत्रित हैं।

* सभापति- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' *
* अध्यक्ष- बसंत शर्मा *
* उपाध्यक्ष- जय प्रकाश श्रीवास्तव, मीना भट्ट *
* सचिव - छाया सक्सेना, अनिल बाजपेई, मुकुल तिवारी *
* कोषाध्यक्ष - डॉ. अरुणा पांडे *
* प्रकोष्ठ प्रभारी - अस्मिता शैली, मनीषा सहाय।
जबलपुर, ३०.४.२०२४
***
मुक्तक
जुदाई जान ले लेगी तभी आओगे तुम जाना
लिया जब जान तब ठाना तुम्हारे बिन नहीं जाना
न आओगे, न जाऊँगा, जो आओगे तो रोकोगे
तुम्हें दुख दे नहीं सकता, हुआ तय यह नहीं जाना
८-५-२०२२
***
चित्रगुप्त भजन सलिला:
*
१. शरणागत हम
शरणागत हम चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए
*
अनहद; अक्षय; अजर; अमर हे!
अमित; अभय; अविजित; अविनाशी
निराकार-साकार तुम्ही हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी
पथ-पग; लक्ष्य-विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता-प्रत्याशी
तिमिर मिटाने अरुणागत हम
द्वार तिहारे आए
*
वर्ण; जात; भू; भाषा; सागर
अनिल;अनल; दिश; नभ; नद ; गागर
तांडवरत नटराज ब्रह्म तुम
तुम ही बृज रज के नटनागर
पैगंबर ईसा गुरु तुम ही
तारो अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो; चरणागत हम
झलक निहारें आए
*
आदि-अंत; क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि-कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं
काया में हैं आत्म सभी हम
जन्म-मरण; यश-अपयश चक्रित
छाया-माया; सुख-दुःख सम हो
द्वेष भुला दो; करुणाकर हे!
सुनो पुकारें, आए
*
२. चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो...
*
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
भवसागर तर जाए रे...
*
जा एकांत भुवन में बैठे,
आसन भूमि बिछाए रे.
चिंता छोड़े, त्रिकुटि महल में
गुपचुप सुरति जमाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे जो
निश-दिन धुनि रमाए रे...
*
रवि शशि तारे बिजली चमके,
देव तेज दरसाए रे.
कोटि भानु सम झिलमिल-झिलमिल-
गगन ज्योति दमकाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
मोह-जाल कट जाए रे.
*
धर्म-कर्म का बंध छुडाए,
मर्म समझ में आए रे.
घटे पूर्ण से पूर्ण, शेष रह-
पूर्ण, अपूर्ण भुलाए रे.
चित्रगुप्त का ध्यान धरे तो
चित्रगुप्त हो जाए रे...
*
३. समय महा बलवान...
*
समय महा बलवान
लगाये जड़-चेतन का भोग...
*
देव-दैत्य दोनों को मारा,
बाकी रहा न कोई पसारा.
पल में वह सब मिटा दिया जो-
बरसों में था सृजा-सँवारा.
कौन बताये घटा कहाँ-क्या?
कैसे कब संयोग?...
*
श्वास -आस की रास न छूटे,
मन के धन को कोई न लूटे.
शेष सभी टूटे जुड़ जाएँ
जुड़े न लेकिन दिल यदि टूटे.
फूटे भाग उसी के जिसको-
लगा भोग का रोग...
*
गुप्त चित्त में चित्र तुम्हारा,
कितना किसने उसे सँवारा?
समय बिगाड़े बना बनाया-
बिगड़ा 'सलिल' सुधार-सँवारा.
इसीलिये तो महाकाल के
सम्मुख है नत लोग...
*
४. प्रभु चित्रगुप्त नमस्कार...
*
प्रभु चित्रगुप्त! नमस्कार
बार-बार है...
*
कैसे रची है सृष्टि प्रभु!
कुछ बताइए.
आये कहाँ से?, जाएं कहाँ??
मत छिपाइए.
जो गूढ़ सच न जान सके-
वह दिखाइए.
सृष्टि का सकल रहस्य
प्रभु सुनाइए.
नष्ट कर ही दीजिए-
जो भी विकार है...
*
भाग्य हम सभी का प्रभु!
अब जगाइए.
जयी तम पर उजाले को
विधि! बनाइए.
कंकर को कर शंकर जगत में
हरि! पुजाइए.
अमिय सम विष पी सकें-
'हर' शक्ति लाइए.
चित्र सकल सृष्टि
गुप्त चित्रकार है...
*
बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
***
आव्हान गान:
*
जागो माँ!, जागो माँ!!
*
सघन तिमिर आया घिर
तूफां है हावी फिर.
गौरैया घायल है
नष्ट हुए जंगल झिर.
बेबस है राम आज
रजक मिल उठाये सिर.
जनमत की सीता को
निष्ठा से पागो माँ.
जागो माँ!, जागो माँ!!
*
शकुनि नित दाँव चले
कृष्णा को छाँव छले.
शहरों में आग लगा
हाथ सेंक गाँव जले.
कलप रही सत्यवती
बेच घाट-नाव पले.
पद-मद के दानव को
मार-मार दागो माँ
जागो माँ!, जागो माँ!!
*
करतल-करताल लिये
रख ऊँचा भाल हिये.
जस गाते झूम अधर
मन-आँगन बाल दिये.
घंटा-ध्वनि होने दो
पंचामृत जगत पिये.
प्राणों को खुद भी
ज्यादा प्रिय लागो माँ!
जागो माँ!, जागो माँ!!
***
स्मृति-गीत
माँ के प्रति:
संजीव
*
अक्षरों ने तुम्हें ही किया है नमन
शब्द ममता का करते रहे आचमन
वाक्य वात्सल्य पाकर मुखर हो उठे-
हर अनुच्छेद स्नेहिल हुआ अंजुमन
गीत के बंद में छंद लोरी मृदुल
और मुखड़ा तुम्हारा ही आँचल धवल
हर अलंकार माथे की बिंदी हुआ-
रस भजन-भाव जैसे लिए चिर नवल
ले अधर से हँसी मुक्त मुक्तक हँसा
मौन दोहा हृदय-स्मृति ले बसा
गीत की प्रीत पावन धरोहर हुई-
मुक्तिका ने विमोहा भुजा में गसा
लय विलय हो तुम्हीं सी सभी में दिखी
भोर से रात तक गति रही अनदिखी
यति कहाँ कब रही कौन कैसे कहे-
पीर ने धीर धर लघुकथा नित लिखी
लिपि पिता, पृष्ठ तुम, है समीक्षा बहन
थिर कथानक अनुज, कथ्य तुमको नमन
रुक! सखा चिन्ह कहते- 'न संजीव थक'
स्नेह माँ की विरासत हुलस कर ग्रहण
साधना माँ की पूनम बने रात हर
वन्दना ओम नादित रहे हर प्रहर
प्रार्थना हो कृपा नित्य हनुमान की
अर्चना कृष्ण गुंजित करें वेणु-स्वर
माँ थी पुष्पा चमन, माँ थी आशा-किरण
माँ की सुषमा थी राजीव सी आमरण
माँ के माथे पे बिंदी रही सूर्य सी-
माँ ही जीवन में जीवन का है अवतरण
***
दोहा सलिला
माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
*
वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत
*
गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
*
ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार
*
शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद
*
नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण
***
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
माँ को अर्पित चौपदे:
संजीव 'सलिल'
*
बारिश में आँचल को छतरी, बना बचाती थी मुझको माँ.
जाड़े में दुबका गोदी में, मुझे सुलाती थी गाकर माँ..
गर्मी में आँचल का पंखा, झलती कहती नयी कहानी-
मेरी गलती छिपा पिता से, बिसराती थी मुस्काकर माँ..
*
मंजन स्नान आरती थी माँ, ब्यारी दूध कलेवा थी माँ.
खेल-कूद शाला नटख़टपन, पर्व मिठाई मेवा थी माँ..
व्रत-उपवास दिवाली-होली, चौक अल्पना राँगोली भी-
संकट में घर भर की हिम्मत, दीन-दुखी की सेवा थी माँ..
*
खाने की थाली में पानी, जैसे सबमें रहती थी माँ.
कभी न बारिश की नदिया सी कूल तोड़कर बहती थी माँ..
आने-जाने को हरि इच्छा मान, सहज अपना लेती थी-
सुख-दुःख धूप-छाँव दे-लेकर, हर दिन हँसती रहती थी माँ..
*
गृह मंदिर की अगरु-धूप थी, भजन प्रार्थना कीर्तन थी माँ.
वही द्वार थी, वातायन थी, कमरा परछी आँगन थी माँ..
चौका बासन झाड़ू पोंछा, कैसे बतलाऊँ क्या-क्या थी?-
शारद-रमा-शक्ति थी भू पर, हम सबका जीवन धन थी माँ..
*
कविता दोहा गीत गजल थी, रात्रि-जागरण चैया थी माँ.
हाथों की राखी बहिना थी, सुलह-लड़ाई भैया थी माँ.
रूठे मन की मान-मनौअल, कभी पिता का अनुशासन थी-
'सलिल'-लहर थी, कमल-भँवर थी, चप्पू छैंया नैया थी माँ..
*
आशा आँगन, पुष्पा उपवन, भोर किरण की सुषमा है माँ.
है संजीव आस्था का बल, सच राजीव अनुपमा है माँ..
राज बहादुर का पूनम जब, सत्य सहाय 'सलिल' होता तब-
सतत साधना, विनत वन्दना, पुण्य प्रार्थना-संध्या है माँ..
*
माँ निहारिका माँ निशिता है, तुहिना और अर्पिता है माँ
अंशुमान है, आशुतोष है, है अभिषेक मेघना है माँ..
मन्वंतर अंचित प्रियंक है, माँ मयंक सोनल सीढ़ी है-
ॐ कृष्ण हनुमान शौर्य अर्णव सिद्धार्थ गर्विता है माँ
***
बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
*
८-५-२०१४
मुक्तिका:
अम्मी
संजीव 'सलिल'
*
माहताब की
जुन्हाई में,
झलक तुम्हारी
पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे
आँगन में,
हरदम पडी
दिखाई अम्मी.
कौन बताये
कहाँ गयीं तुम?
अब्बा की
सूनी आँखों में,
जब भी झाँका
पडी दिखाई
तेरी ही
परछाईं अम्मी.
भावज जी भर
गले लगाती,
पर तेरी कुछ
बात और थी.
तुझसे घर
अपना लगता था,
अब बाकीपहुनाई अम्मी.
बसा सासरे
केवल तन है.
मन तो तेरे
साथ रह गया.
इत्मीनान
हमेशा रखना-
बिटिया नहीं
परायी अम्मी.
अब्बा में
तुझको देखा है,
तू ही
बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ,
तू ही दिखती
भाई और
भौजाई अम्मी.
तू दीवाली ,
तू ही ईदी.
तू रमजान
और होली है.
मेरी तो हर
श्वास-आस में
तू ही मिली
समाई अम्मी.
९-६-२०१०
*********
माँ पर दोहे
माँ गौ भाषा मातृभू, प्रकृति का आभार.
श्वास-श्वास मेरी ऋणी, नमन करूँ शत बार..
भूल मार तज जननि को, मनुज कर रहा पाप.
शाप बना जेवन 'सलिल', दोषी है सुत आप..
दो माओं के पूत से, पाया गीता-ज्ञान.
पाँच जननियाँ कह रहीं, सुत पा-दे वरदान..
रग-रग में जो रक्त है, मैया का उपहार.
है कृतघ्न जो भूलता, अपनी माँ का प्यार..
माँ से, का, के लिए है, 'सलिल' समूचा लोक.
मातृ-चरण बिन पायेगा, कैसे तू आलोक?
२४-४-२०१०
***

मंगलवार, 7 मई 2024

मई ७, माहिया गीत, जनगीत : हाँ बेटा, दोहा छंद अनूप, मुक्तक, छंद अवतार

सलिल सृजन मई ७
*
सॉनेट
दृष्टा
जैसा तैसा देख लीन हों,
उसमें उसको जान लीजिए,
चुप रह उसका ध्यान कीजिए
कुछ न बोलिए, मीत! मौन हों।
चाहे सच का बोध हो न हो,
क्या क्यों कैसा कब न बोलिए
पहले अपनी बात तौलिए।
जग देखें जो जग न देखता,
नयन मूँद लें, दिखे उजाला,
कर प्रतीति सच की चुप रहकर।
सोए बहुत जागिए अब तो,
जो जाना कर उसे अजाना,
अनदेखा देखें सुधि तहकर।
७.५.२०२४
•••
माहिया गीत
मौसम के कानों में
*
(माहिया:पंजाब का त्रिपदिक मात्रिक छंद है. पदभार 12-10-12, प्रथम-तृतीय पद सम तुकांत, विषम पद तगण+यगण+2 लघु = 221 122 11, सम पद 22 या 21 से आरंभ, एक गुरु के स्थान पर दो गुरु या दो गुरु के स्थान पर एक लघु का प्रयोग किया जाता है, पदारंभ में 21 मात्रा का शब्द वर्जित।)
*
मौसम के कानों में
कोयलिया बोले,
खेतों-खलिहानों में।
*
आओ! अमराई से
आज मिल लो गले,
भाई और माई से।
*
आमों के दानों में,
गर्मी रस घोले,
बागों-बागानों में---
*
होरी, गारी, फगुआ
गाता है फागुन,
बच्चा, बब्बा, अगुआ।
*
प्राणों में, गानों में,
मस्ती है छाई,
दाना-नादानों में---
*
दोहा सलिला:
मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात।
जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात।।
*
कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।
मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।
*
जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।
आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।
*
मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।
रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।
*
खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?
खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.
*
प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।
जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।
*
लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।
तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।
*
क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।
गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।
*
जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।
देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।
*
भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।
घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।
७.५.२०१८
***
दोहा सलिला:
संजीव, सलमान खान
.
सजा सुनी तो हो गये, तुरत रुँआसे आप
रूह न कापी जब किये, हे दबंग! नित पाप
.
उनका क्या ली नशे में, जिनकी पल में जान
कहे शरीअत आपकी, वे भी ले लें जान
.
नायक ने नाटक किया, मिलकर मिली न जेल
मेल व्यवस्था से हुआ, खेल हो गयी बेल
.
गायक जिसको पूछता, नहीं कोई भी आज
दे बयान यह चाहता, फिर से पा ले काज
.
नायक-गायक को सुला, फुटपाथों पर रोज
कुछ कारें भिजवाइये, दे कुत्तों को भोज
.
जिसने झूठी साक्ष्य दी, उस पर भी हो वाद
दंड वकीलों को मिले, किया झूठ परिवाद
.
टेर रहे काले हिरन, करो हमारा न्याय
जां के बदल जां मिले, बंद करो अन्याय
***
***
जनगीत :
हाँ बेटा
.
चंबल में
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
७-५-२०१५
***


छंद सलिला:
अवतार छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
दुष्ट धरा पर जब बढ़ें / तभी अवतार हो
तेरह दस यति, रगण रख़ / अंत रसधार हो
सत-शिव-सुंदर ज़िंदगी / प्यार ही प्यार हो
सत-चित-आनँद हो जहाँ / दस दिश दुलार हो
उदाहरण:
१. अवतार विष्णु ने लिये / सब पाप नष्ट हो
सज्जन सभी प्रसन्न हों / किंचित न कष्ट हो
अधर्म का विनाश करें / धर्म ही सार है-
ईश्वर की आराधना / सच मान प्यार है
२. धरती की दुर्दशा / सब ओर गंदगी
पर्यावरण सुधारना / ईश की बंदगी
दूर करें प्रदूषण / धरा हो उर्वरा
तरसें लेनें जन्म हरि / स्वर्ग है माँ धरा
३. प्रिय की मुखछवि देखती / मूँदकर नयन मैं
विहँस मिलन पल लेखती / जाग-कर शयन मैं
मुई बेसुधी हुई सुध / मैं नहीं मैं रही-
चक्षु से बही जलधार / मैं छिपाती रही.
६-५-२०१४
***
.
दोहा गाथा : ३.
दोहा छंद अनूप
*
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप।
पंचतत्वमय व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।
"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों में साकारित करती है। संस्कृति वह बल है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं। भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ-अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सके। स्पष्ट विचार समाज में आचार-विचार की एकरूपता याने "एकता" को पुष्ट करते हैं।
भाषा, भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त।
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त।।
उच्चार :
ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार।
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार।।
ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।
सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद।
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद।।
उच्चारण स्थान
वर्ग
कठोर(अघोष) व्यंजन
मृदु(घोष) व्यंजन
अनुनासिक
कंठ- क वर्ग : क्, ख्, ग्, घ्, ङ्
तालू- च वर्ग : च्, छ्, ज्, झ्, ञ्
मूर्धा- ट वर्ग : ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्
दंत- त वर्ग : त्, थ्, द्, ध्, न्
अधर- प वर्ग : प्, फ्, ब्, भ्, म्
विशिष्ट व्यंजन
ष्, श्, स्, ह्, य्, र्, ल्, व्
कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।
विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :
य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।
स्वराश्रित व्यंजन:
तीन स्वराश्रित व्यंजन अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग ) हैं।
संयुक्त वर्ण :
विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।
मात्रा :
उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य छांदस काव्य रचना के शिल्प को सँवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है। अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।
उच्चारण नियम :
उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव।
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव।।
शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त।
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त।।
हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान।
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान।।
१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।
२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।
३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.
४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।
५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।
६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।
७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।
पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५
ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५
कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४
हृदय = १ + १ +२ = ४
अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :
उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।
वर्ग-अंत के वर्ण का, नाक करे उच्चार।
अनुनासिक उसको कहें, गुणिजन सोच-विचार।।
१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-
१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।
क + ङ् + कड़ = कंकड़,
श + ङ् + ख = शंख,
ग + ङ् + गा = गंगा,
ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य
२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.
प + ञ् + च = पञ्च = पंच
वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय
म + ञ् + जु = मंजु
सा + ञ् + झ = सांझ
३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.
घ + ण् + टा = घंटा
क + ण् + ठ = कंठ
ड + ण् + डा = डंडा
४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.
शा + न् + त = शांत
प + न् + थ = पंथ
न + न् + द = नंद
स्क + न् + द = स्कंद
५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.
च + म्+ पा = चंपा
गु + म् + फि + त = गुंफित
ल + म् + बा = लंबा
कु + म् + भ = कुंभ
आज का पाठ कुछ कठिन किंतु अति महत्वपूर्ण है। अगले पाठ में विशिष्ट व्यंजन के उच्चार नियम, पाद, चरण, गति, यति की चर्चा करेंगे।
अनुरोध :
आप अपनी पसंद का एक दोहा चुनें और उसकी मात्राओं की गिनती कर भेजें। अगली गोष्ठी में हम आपके द्वारा भेजे गए दोहों के मात्रा सम्बन्धी पक्ष की चर्चा कर कुछ सीखेंगे।
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय-पान।।
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान।।
७-५-२०१३
***
मुक्तक
बात हो बेबात तो 'क्या बात' कहा जाता है.
को ले गर दिल को तो ज़ज्बात कहा जाता है.
घटती हैं घटनाएँ तो हर पल ही बहुत सी लेकिन-
गहरा हो असर तो हालात कहा जाता है.
दोहा
कौन अकेला जगत में, प्रभु हैं सबके साथ.
काम करो निष्काम रह, उठा-झुकाओ माथ..
७-५-२०१०

भाषा नीति, मानक हिंदी

भाषा नीति, मानक हिंदी
०१. स्वर-व्यंजन निम्न अनुसार होंगें-
(अ) स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार- अं विसर्ग: अ:।
(आ ) व्यंजन - क, ख, ग, घ, ङ (क़, ख़, ग़), च, छ, ज, झ, ञ (ज़, झ़), ट, ठ, ड, ढ, ण (ड़, ढ़), त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, (फ़), य, र, ल, व, श, ष, स, ह।
(इ) संयुक्त वर्ण- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र, ख्र आदि।
(ई)संयुक्त वर्ण
(अ) खड़ी पाईवाले व्यंजन - ख्यात, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, अब्बा, सभ्य, रम्य, अय्याश, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृति, यक्ष्मा, त्र्यंबक।
(आ) अन्य व्यंजन - संयुक्त, पक्का, दफ्तर, वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, ब्रह्मा,प्रकार, धर्म, श्री, श्रृंगार, विद्वान, चिट्ठी, बुद्धि, विद्या, चंचल, अंक, वृद्ध; द्वैत आदि।
(उ) संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय मूल अंश में प्रयुक्त वर्ण, संयुक्ताक्षर तथा हिंदी वर्णमाला में जो वर्ण शामिल नहीं हैं, वे यथावत लिखे जाएँ। पाली, ब्राह्मी, प्रकृत, कैथी, शारदा आदि लिपियों के उद्धरण मूल उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखे जाएँ।
(ऊ) शिरोरेखा (मुड्ढा) का प्रयोग अनिवार्य है।
(ए) विरामचिह्न-
पूर्णविराम - । इसका प्रयोग -
वाक्य के अंत में करें। कृष्णप्रज्ञा उत्तम पत्रिका है।
अल्पविराम , इसका प्रयोग -
(१) तीन या अधिक शब्दों को अलग करने के लिए - गीत, ग़ज़ल, सॉनेट, माहिया आदि काव्य रूप हैं।
(२) एक वाक्य में प्रयुक्त एक प्रकार के पदबंधों, उपवाक्यों को अलग करने के लिए - नर्मदा का शीतल जल, हरीतिमा और सौंदर्य मन मोह लेता है।
(३) वाक्य के बीच में किसी अंश को अलग दिखाने के लिए - पाठ्यक्रम बदल जाने से, पुस्तकें बदलेंगी, परीक्षा फल भी प्रभावित होंगा।
(४) सकारात्मक और नकारात्मक अभिव्यक्ति के बाद - हाँ, चले जाओ। / नहीं, मत जाओ।
(५) बस, सचमुच, अच्छा, वास्तव में, खैर आदि शब्दों से आरंभ होने वाले वाक्यों में इनके बाद - बस, और आगे मत जाओ।
(६) संबोधन के बाद - संपादक जी, रचना चयनित होने की सूचना दें।
अर्धविराम ; इसका प्रयोग
(१) एक वाक्य पर आश्रित दो या अधिक वाक्यों की श्रृंखला में हो। विद्या विनय से आती है; विनय से पात्रता; पात्रता से धन; धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
(२) समुच्चयबोधकों से बने उपवाक्यों को अलग करने के लिए - आपने उसकी निंदा की; इसलिए वह आपका शत्रु बनेगा।
(३) समानाधिकरण उपवाक्यों के बीच में - गाँधी जी ने सत्याग्रह किए; अहिंसा का शस्त्र दिया।
(४) अंकों का विवरण देने में - पेन - १२ ; पेन्सिल ६; रबर ६
उपविराम : आगेआनेवाली सूची के पूर्व, जैसे मनुष्य के ३ शत्रु हैं : १आलस्य, हीनता, पराश्रय।
योजक/निर्देशक चिह्न - योजक चिह्न की आड़ी रेखा छोटी होती है जबकि निर्देशक चिह्न की आड़ी रेखा अपेक्षाकृत लंबी होती है।
योजक चिह्न का प्रयोग -
(१) द्वंद्व समास के बीच में। जैसे - राम और श्याम के स्थान पर राम-श्याम
(२) शब्द की आवृत्ति होने पर। यथा :- मुख्य-मुख्य बिंदुओं पर विचार करें।
(३) विलोम शब्दों के बीच में। जैसे :- रात-दिन।
निर्देशक चिह्न का प्रयोग
(१) उद्धरण के बाद और लेखक के पहले - स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है - तिलक
(२) निम्न व निम्नलिखित के बाद - पानी के समानार्थी निम्न/निम्नलिखित हैं - नीर, जल, सलिल, वारि आदि।
विवरण चिह्न :- यह उपविराम तथा निर्देशक चिन्ह का मिश्रित रूप है। इसका प्रयोग दोनों के विकल्प रूप में किया जाता है।
प्रश्न चिह्न ? इसका प्रयोग प्रश्न पूछने के बाद किया जाता है - तुम्हारा नाम क्या है ? क्या, क्यों, कब, कैसे, कितने, किसने, किससे, किस लिए जैसे प्रश्न सूचक शब्द इस चिह्न के प्रयोग के पूर्व प्रयुक्त होते हैं।
विस्मयसूचक चिह्न ! यह विस्मय, हर्ष, आह्लाद, आदि के अभिव्यक्ति के बाद प्रयुक्त होता है। जैसे :- हे राम! यह कैसे हुआ?
ऊर्ध्व अल्प विराम ' इसका प्रयोग - अंक लोपन हेतु, सन '४७ से सन '५२ तक।
शब्द चिह्न ' ' इसका प्रयोग पुस्तक, व्यक्ति, स्थान आदि के नाम के साथ किया जाता है। 'गीता' में निष्काम कर्म को ही धर्म बताया गया है।
उद्धरण चिह्न " " इसका प्रयोग किसी का कथन ज्यों का त्यों उद्धृत करते समय, नाटकों-कहानियों में संवाद के साथ, किसी सिद्धांत / लोकोक्ति के साथ करें। नेता जी ने कहा - ''तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"
छोटा कोष्ठक () - इसके अंदर वह सामग्री रखी जाती है जो मुख्य वाक्य का अंग होते हुए भी पृथक की जा सकती है। काल के तीन प्रकारों (भूत, वर्तमान, भविष्य) के उदाहरण दो। क्रमांक, अक्षरों तथा अंकों में लिखी संख्या को अक्षरों में लिखने के लिए भी छोटा कोष्ठक प्रयोग करें।
मध्यम कोष्ठक {} - एक से अधिक प्रकार की टिप्पणी हेतु माध्यम कोष्ठक का प्रयोग करें।
बड़ा कोष्ठक [] - दो से अधिक प्रकार की टिप्पणी हेतु बड़े कोष्ठक का प्रयोग करें।
लोप चिह्न ... किसी लेखांश को न लिखना हो तो इस चिह्न का प्रयोग करें। जैसे :- तेरी ........... ।
हंसपद ^ - दो शब्दों के मध्य कुछ लिखना हो तो यह चिन्ह बनाकर पंक्ति के ऊपर लिखें।
सार/ संक्षेप चिह्न . इसका प्रयोग संक्षेपाक्षर के बाद करें। एम.ए., से.मी. आदि।
(ऐ) विसर्ग और उपविराम (कोलन) चिन्ह : समान है। इनके प्रयोग में अन्तर है।
(१) विसर्ग वर्ण से चिपकाकर (भारत:) तथा कोलन कुछ दूरी पर (सरकार के ३ अंग : विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका हैं।) रखें। (२) संख्याओं में अनुपात प्रदर्शित करने के लिए - २ : ४।
(३) नाटक/एकांकी में उद्धरण चिह्न के बिना केवल उपविराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है। राम : सीते! अग्नि देव ने यह प्रमाणित किया है कि तुम निर्दोष, निष्कलंक हो।
(४) सूचनाओं के लिए - स्थान : सभागार , समय अपराह्न ५ बजे
०२. कृष्ण प्रज्ञा की मुख्य भाषा आधुनिक (खड़ी) हिंदी तथा लिपि देवनागरी है। संस्कृत, भारतीय भाषाओँ-बोलिओं, आंचलिक बोलिओं तथा विदेशी भाषा-बोलिओं के उद्धरण यथास्थान दिए जा सकते हैं। अहिन्दी भाषाओँ के उद्धरण देते समय मूल उच्चारण देवनागरी लिपि में तथा हिंदी अर्थ दिया जाना चाहिए।
०३. लेखक उद्धरणों की शुद्धता तथा प्रामाणिकता हेतु जिम्मेदार होंगे। प्रयुक्त उद्धरणों के संदर्भ आरोही (बढ़ते हुए) क्रम में लेख के अंत में देंगे। पृष्ठ डिजाइनर हर पृष्ठ पर मुद्रित सामग्री संबंधी उद्धरणों के संदर्भ उसी पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में देंगे।
०४. रचनाओं में तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य है।
०५. रचनाओं में केवल यूनिकोड या यूनिकोड समर्थित फॉण्ट का उपयोग करें जिसे कोकिला फॉण्ट में परिवर्तित कर मुद्रित किया जायेगा।
०६. कृष्णप्रज्ञा में हिंदी संस्करण में देवनागरी अंकों तथा अंग्रेजी संस्करण में अंग्रेजी अंकों का प्रयोग किया जाए।
०७. हिंदी में पारंपरिक रूप से नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेखक अपनी भाषा-शैली में चाहे तो नुक्ता का प्रयोग यथास्थान कर सकता है।
०८. कारक चिह्न (परसर्ग) -
(अ) हिंदी के कारक : कर्ता - ने, कर्म - को, करण - से; द्वारा, संप्रदान - को; के लिए, अपादान - से (पृथक होना), संबंध - का; के; की; ना, नी ने, रा, री, रे, अधिकरण - में; पर, संबोधन - हे; अहो, अरे, अजी आदि हैं।
(आ) संज्ञा शब्दों में कारक प्रतिपादक से अलग लिखें।
(इ) सर्वनाम शब्दों में करक को प्रतिपादक के साथ मिलाकर लिखें।
(ई) सर्वनाम के साथ दो कारक एक साथ हों तो पहला कारक मिलाकर तथा दूसरा अलग लिखा जाए। सर्वनाम और कारक के बीच निपात हों तो कारक को पृथक लिखें।
०९. संयुक्त क्रिया पद -
सभी अंगीभूत क्रियाएँ अलग-अलग लिखें।
१०. योजक चिह्न (हाइफ़न -) - इसका प्रयोग स्पष्टता के लिए किया जाता है।
(अ) द्वंद्व समास में पदों के बीच में योजक चिह्न हो। उदाहरण :- शिव-पार्वती, लिखना-पढ़ना आदि।
(आ) सा, से, सी के पूर्व योजक चिह्न हो। जैसे :- तुम-सा, उस-सी, कलम से आदि।
(इ) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग केवल वहीं हो जहाँ उसके बिना भ्रम की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे भू-तत्व = पृथ्वी तत्व, भूतत्व = भूत होने का भाव या लक्षण आदि।
(ई) कठिन संधियों से बचने के लिए भी योजक प्रयोग किया जा सकता है। द्वयक्षर के स्थान पर द्वि-अक्षर, त्र्यंबक के स्थान पर त्रि-अंबक। इससे अहिन्दीभाषियों के लिए समझना आसान होगा।
११. अव्यय -
(अ) 'तक', 'साथ' आदि अव्यय हमेशा अलग लिखें। जैसे :-वहाँ तक, उसके साथ।
(आ) जब अव्यय के आगे परसर्ग (कारक) आए तब भी अव्यय अलग ही लिखा जाए। अब से, सदा के लिए, मुझे जाने तो दो, बीघा भर जमीन, बात भी नहीं बनी आदि।
(इ) सब पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि समास होने पर सकल पद एक माना जाता है। यथा :- 'दस रूपए मात्र , मात्र कुछ रुपए आदि।
१२. सम्मानसूचक अव्यय
(अ) सम्मानात्मक अव्यय पृथक लिखें। यथा :- श्री चित्रगुप्त जी, पूज्य स्वामी विवेकानंद आदि।
(आ) श्री संज्ञा का भाग हो तो अलग नहीं लिखें। जैसे :- श्रीगोपाल श्रीवास्तव।
(इ) सभी पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखें। उदाहरण :- प्रतिदिन, प्रतिशत, नित्यप्रति, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित, यथाशक्ति आदि।
१३. अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी)
(अ) अनुस्वार व्यंजन है।
(आ) संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अन्य वर्णीय वर्णों (य से ह तक) से पहले रहेगा। यथा :- यंत्र, रंचमात्र, लंब, वंश, शंका, संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, संक्षेप, संतोष, हंपी, अंश, कंस, सिंह आदि।
(इ) संयुक्त वर्ण में पाँचवे अक्षर ('ङ्', ञ्, ण, न, म) के बाद सवर्णीय वर्ण हो तो अनुस्वार का प्रयोग करें। यथा :- कंगाल, खंगार, गंगा, घंटा, चंचु, छंद, जंजाल, झंझट, टंकर, ठंडा, डंडी, तंदूर, थंब, दंश, धंधा, नंद, पंच, फंदा, बंधु, भंते, मंदिर आदि।
(ई) पाँचवे अक्षर के बाद अन्य वर्ग का वर्ण आए तो पांचवा अक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा। जैसे :- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख, चिन्मय, जन्मेजय, तन्मय आदि।
(उ) पाँचवा वर्ण साथ-साथ आए तो अनुस्वार में नहीं बदलेगा। जैसे :- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि।
(ऊ) अन्य भाषाओँ (उर्दू, अंग्रेजी आदि) से लिए गए शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य (न, म) व्यंजन पूरा लिखें। जैसे :- लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
१४. अनुनासिक (चंद्रबिंदु)
(अ) अनुनासिक स्वर का नासिक्य विकार है। यह, व्यंजन नहीं,स्वरों का ध्वनि गुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में मुँह और नाक से वायु प्रवाह होता है। जैसे :- अँ, आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि।
(आ) अनुस्वार और अनुनासिक के गलत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे :- हंस = पक्षी, हँस - क्रिया, आंगन
(इ) जहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग भ्रम न उत्पन्न करे वहाँ निषेध नहीं है। जैसे :- में, मैं, नहीं, आदि में अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग।
१५. विसर्ग
(अ) तत्सम रूप में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों में विसर्ग का प्रयोग यथास्थान किया जाए। जैसे :- दु:खानुभूति।
(आ) तत्सम शब्दों के अंत में विसर्ग का प्रयोग अवश्य हो। यथा :- अत:. पुन:, स्वत:, प्राय:, मूलत:, अंतत:, क्रमश: आदि।
(इ) विसर्ग के स्थान पर उसके उच्चरित रूप 'ह' का प्रयोग कतई न किया जाए।
(ई) दुस्साहस, निस्स्वार्थ तथा निश्शब्द का नहीं, दु:साहस, नि:स्वार्थ तथा नि:शब्द का प्रयोग करें।
(उ) निस्तेज, निर्वाचन, निश्छल लिखें। नि:तेज, नि:वचन,नि:चल न लिखें।
(ऊ) अंत:करण, अंत:पुर, दु:स्वप्न, नि:संतान, प्रात:काल विसर्ग सहित ही लिखें।
(ए) तद्भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न करें। छः नहीं छह लिखें।
(ऐ) प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि में विसर्ग नहीं है।
(ओ) विसर्ग को वर्ण के साथ चिपकाकर लिखा जाए जबकि उपविराम (कोलन) चिन्ह शब्द से कुछ दूरी पर हो। अत:, जैसे :- आदि।
१६. हल् चिह्न ( ् )
(अ) व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न बताता है कि वह व्यंजन स्वर रहित है। हल् चिह्न लगा शब्द 'हलंत' शब्द है। जैसे :- जगत्।
(आ) संयुक्ताक्षर बनाने में हल् चिह्न का प्रयोग आवश्यक है। यथा :- बुड्ढा, विद्वान आदि।
(इ) तत्सम शब्दों का प्रयोग हलन्त रूपों के साथ हो। प्राक्, वाक्, सत्, भगवन्, साक्षात्, जगत्, तेजस्, विद्युत्, राजन् आदि। महान, विद्वान आदि में हल् चिह्न न लगाएँ।
१७. स्वन परिवर्तन
संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों रखें। 'ब्रह्मा' को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह न लिखें। अर्ध, तत्त्व आदि स्वीकार्य हैं।
१८. 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग
(अ) 'ै' तथा ' ौ' का प्रयोग दो तरह से (अ) मूल स्वरों की तरह - 'है', 'और' आदि में तथा सन्ध्यक्षरों के रूप में 'गवैया', कौवा' आदि में किया जा सकता है। इन्हें 'गवय्या', 'कव्वा' आदि न लिखें।
(आ) अहिन्दी शब्दों 'अय्यर', 'नय्यर', 'रामय्या' को 'ऐयर', 'नैयर', 'रामैया' न लिखें। 'अव्वल', 'कव्वाली' आदि प्रचलित शब्द यथावत प्रयोग किए जा सकते हैं।
(अ) संस्कृत शब्द 'शय्या' को 'शैया' या 'शइया' न लिखें।
१९. पूर्वकालिक कृदंत
(अ) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया से मिलाकर लिखें। जैसे :- आकर, सुलाकर, दिखलाकर आदि।
(आ) कर + कर = 'करके', करा + कर = 'कराके' होगा।
२०. 'वाला' प्रत्यय
(अ) क्रिया रूप में अलग लिखें। जैसे :- करने वाला, बोलने वाला आदि।
(आ) योजक प्रत्यय के रूप में एक साथ लिखें। यथा :- दिलवाला, टोपीवाला, दूधवाला आदि।
(इ) निर्देशक शब्द के रूप में 'वाला' अलग से लिखें। जैसे :- अच्छी वाली बात, कल वाली कहानी, यह वाला गीत आदि।
२१. श्रुतिमूलक 'य', 'व्'
(अ) विकल्प रूप में प्रयोग न किया जाए। जैसे :- 'किए', 'नई', 'हुआ' आदि के स्थान पर 'किये', 'नयी', 'हुवा' आदि का प्रयोग न करें।
(आ) जहाँ 'य' शब्द का मूल तत्व हो वहाँ उसे न बदलें। जैसे :- 'स्थायी', 'अव्ययीभाव', 'दायित्व' आदि को 'स्थाई', 'अव्यईभाव', 'दाइत्व' आदि न लिखें।
२२. अहिन्दी-विदेशी ध्वनियाँ
(अ) अरबी-फ़ारसी (उर्दू) शब्द -
(क) हिंदी का अभिन्न अंग बन चुके अरबी-फ़ारसी शब्द बिना नुक्ते के लिखें। जैसे :- 'कलम', 'किला', 'दाग' लिखें, 'क़लम', 'क़िला', 'दाग़' न लिखें।
(ख) जहाँ शब्द को मूल भाषा के अनुसार लिखना आवश्यक हो वहाँ हिंदी रूप में यथास्थान नुक्ता (बिंदु) लगाएँ। जैसे- 'खाना', 'राज', 'फन' के स्थान पर 'ख़ाना', 'राज़', 'फ़न' आदि लिखें।
(आ) अंग्रेजी शब्द
(क) जिन अंग्रेजी शब्दों में अर्ध विवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध हिंदी रूप के लिए 'ा ' (आ की मात्रा) के ऊपर अर्धचंद्र लगाएँ। जैसे :- हॉल, मॉल, चॉल, डॉल, टॉकीज, मॉम आदि।
(ख) अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मूल उच्चारण के अधिक से अधिक निकट हो।
(इ) अन्य विदेशी भाषाओँ के शब्द
चीनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाओँ के शब्दों को देवनागरी में लिखते समय उनके उच्चारण साम्य पर ध्यान दें। 'बीजिंग' को 'पीकिंग' न लिखें।
२३. दो रूपी शब्द -
कुछ शब्दों के शब्दों के रूप चिरकाल से लोक में प्रचलित तथा साहित्य में उपयोग किये जाते रहे हैं। ऐसे शब्दों के दोनों रूपों का उपयोग किया जा सकता है। जैसे :- गरदन-गर्दन, गरम-गर्म, गरमी-गर्मी, बरफ़-बर्फ़, बिलकुल-बिल्कुल, सरदी-सर्दी, कुरसी-कुर्सी, भरती-भर्ती, फुरसत-फुर्सत, बरदाश्त-बर्दाश्त, बरतन-बर्तन, दुबारा-दोबारा आदि।
२४. आगत शब्दों की वर्तनी -
(अ) निम्न में संयुक्ताक्षर का प्रयोग न हो - नुकसान, इनसान, इनकार, परवाह, बरबाद, मजदूर, सरकार, फरमान, तनखाह, करवट, कुदरत, शिरकत, मरकज़, अकबर, मुजरिम, परवाना, मुगदर, मसखरा, इलजाम, फिलहाल, फुरसत, मनज़र, इनकलाब, आसमान, तकलीफ, मरहम, दरकार, किरदार, शबनम, इजलास, इकबाल, इनतहा, तनहा, तनहाई, असल, असली, असलियत, फसली, गलत, गलती, नकल, नकली, नकलची, वरना, शरबत, दफतर, सरकस, अकसर, रफतार, शरम, शरमाना आदि। अल्प प्रचलित शब्दों के साथ कोष्ठक में उनके हिंदी अर्थ दें। जैसे निस्बत (के लिए), मुख़ालफ़त (विरोध), ज़ाहिर (स्पष्ट), हैरत (आश्चर्य) आदि।
(आ) निम्न में संयुक्ताक्षर का प्रयोग हो - फुर्ती, फुर्तीला, शिकस्त, दुरुस्त, बुजुर्ग, गिरफ्त, गिरफ्तार, रुख्सत, ज़िंदा, क़र्ज़, खर्च, ज़िंदगी, इंतकाम, इंतज़ार, इल्तिजा, अशर्फी, इम्तहान, तिलिस्म, पुख्ता,दरख्त, तर्रार, तश्तरी, लश्कर, जींस, मुंशी, नक्शा, कब्ज़, लफ्ज़, शुक्र,शुक्रिया, खटियर, इत्तेफाक, इश्तहार, बख्शीश, अक्ल, शक्ल, सख्त, सख्ती, गश्त, क़िस्त, किस्म, मुश्क, इश्क, जश्न, कश्मीर, पश्मीना, जिलम, जुर्म, जिस्म, रस्म, रस्मी, हश्र, फिक्र, मुल्क, इल्म, फर्ज, फ़र्ज़ी, इर्द-गिर्द, गोश्त, रास्ता, नाश्ता, शख्स, दर्ज़, दर्ज़ी, सुर्ख, सुर्खी, गुर्दा, जल्द, जल्दी, चश्मा, भिश्ती, उम्र,कुश्ती, चुस्त, चुस्ती, चसकी, फर्क, शर्म, शर्मीली आदि।
(इ) कुछ और मानक शब्द - दुहरा, दुहराना, दुगुना, दूना, दुपहर, दुमंज़िला, दुधारी, दुकान, दुशाला, कुहनी, कुहरा, कुहराम, मुहब्बत, कुहासा, सुहाग, सुहागन, मोहताज, शोहरत, बोहनी, मोहसिन, पहनावा, पहचान, दहलीज, मेहमान, एहसान, एहसास, एहतियात, महँगा, लहँगा, तहज़ीब, गहरा, मुहल्ला, धुआँ, कुआँ, कुँवर, कुँआरा, गेहुँआ आदि।
(ई) आगत शब्दों के बहुवचन तथा लिंग - आगत शब्दों के बहुवचन तथा लिंग हिंदी व्याकरण के अनुसार रखें, उस भाषा के व्याकरण के अनुसार नहीं। जैसे - क़ौम - क़ौमें (अक़्वाम नहीं), किताब - किताबें (किताबात नहीं), किस्म - किस्में (अक्साम नहीं), पिन - पिनें (पिंस नहीं), बोतल - बोतलें (बॉटल - बॉटल्स नहीं) आदि। उद्धरण में वर्जित शब्द यथावत दिए जा सकेंगे।
(उ) विश्व की विविध भाषाओं के हिंदी में प्रचलित शब्दों का प्रयोग हिंदी शब्दों की तरह ही किया जाए।
अंग्रेजी शब्द - बटन, फीस, पिन, पेट्रोल, पुलिस, पेंट, पैंट, पेंसिल, पेन, निब, कैमरा, फोटो, रेडिओ, सिनेमा, साइकिल, रिक्शा, कैलेंडर, फ्रेम, लेंस, नाइट्रोजन, टॉफी, पॉलिश, फुटबाल, हॉकी, मनीऑर्डर, टी. बी., हॉस्पिटल, डॉक्टर, बुक, रेडियो, पेन, पेंसिल, स्टेशन, कार, स्कूल, कंप्यूटर, ट्रेन, सर्कस, ट्रक, टेलीफोन, टिकट, टेबल आदि।
अरबी शब्द - अदा, अजब, अमीर, अजीब, अजायब, अदावत, अक्ल, असर, अहमक, अल्ला, आसार, आखिर, आदमी, आदत, इनाम, इजलास, इज्जत, इमारत, इस्तीफा, इलाज, ईमान, उम्र, एहसान, औरत, औसत, औलाद, कसूर, कदम, कब्र, कसर, कमाल, कर्ज, क़िस्त, किस्मत, किस्सा, किला, कसम, कीमत, कसरत, कुर्सी, किताब, कायदा, कातिल, खबर, खत्म, खत, खिदमत, खराब, खयाल, गरीब, गैर, जिस्म, जलसा, जनाब, जवाब, जहाज, जालिम, जिक्र, तमाम, तकदीर, तारीफ, तकिया, तमाशा, तरफ, तै, तादाद, तरक्की, तजुरबा, दाखिल, दिमाग, दवा, दाबा, दावत, दफ्तर, दगा, दुआ, दफा, दल्लाल, दुकान, दिक, दुनिया, दौलत, दान, दीन, नतीजा, नशा, नाल, नकद, नकल, नहर, फकीर, फायदा, फैसला, बाज, बहस, बाकी, मुहावरा, मदद, मरजी, माल, मिसाल, मजबूर, मालूम, मामूली, मुकदमा, मुल्क, मल्लाह, मौसम, मौका, मौलवी, मुसाफिर, मशहूर, मजमून, मतलब, मानी, मान, राय, लिहाज, लफ्ज, लहजा, लिफाफा, लायक, वारिस, वहम, वकील, शराब, हिम्मत, हैजा, हिसाब, हरामी, हद, हज्जाम, हक, हुक्म, हाजिर, हाल, हाशिया, हाकिम, हमला, हवालात, हौसला आदि।
इटालियन शब्द - कार्टून, गजट, पिआनो, मलेरिआ, लॉटरी, वायलिन, रॉकेट, सॉनेट, स्टूडियो आदि।
चीनी (मैंडेरिन) शब्द - कारतूस, चाय, पटाखा, लीची, साबुन आदि।
जर्मन शब्द - ट्रेन, नात्सी (नाज़ी), सेमिनार।
जापानी शब्द - कतौता, चोका, ताँका, रेंगा, जूडो, सदोका, सायोनारा, हाइकु, हाइगा आदि।
डच शब्द - तुरूप, बम, चिडिया, ड्रिल।
तुर्की शब्द - आगा, आका, उजबक, उर्दू, कातिल, दुकान, बदनाम, कालीन, काबू, कैंची, कुली, कुर्की, चिक, चेचक, चमचा, चुगुल, चकमक, जाजिम, तमगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर, मुगल, लफंगा, लाश, सौगात, सुराग, चाकू, बारूद, कलंगी, चम्मच, कालीन, खंजर, चुगली, चोगा, तमजा, तमाशा, बावर्ची, उर्दू, हवा, हफ़्ता इत्यादि।
पर्शियन शब्द - ताज़ा।
पुर्तगाली शब्द - अगस्त, अचार, अलमारी, आया, आलपिन, आलू, इस्पात, कनस्तर, कमीज, कार्बन, गमला, गोदाम, गोभी, चाबी, तंबाकू, तौलिया, नीलाम, पतलून, पपीता, पादरी, पीपा, पिस्तौल, प्याज, फालतू, फीता, बटन, बस्ता, बाल्टी, मेज, संतरा, साबुन आदि।
फारसी शब्द - कम, कमर, ख़ाक, गम, वापस, खुदा, अफसोस, आबदार, आबरू, आतिशबाजी, अदा, आराम, आमदनी, आवारा, आफत, आवाज, आइना, उम्मीद, कबूतर, कमीना, कुश्ती, कुश्ता, किशमिश, कमरबन्द, किनारा, कूचा, खाल, खुद, खामोश, खरगोश, खुश, खुराक, खूब, गर्द, गज, गुम, गल्ला, गवाह, गिरफ्तार, गरम, गिरह, गुलूबन्द, गुलाब, गुल, गोश्त, चाबुक, चादर, चिराग, चश्मा, चरखा, चूँकि, चेहरा, चाशनी, जंग, जहर, जीन, जोर, जबर, जिन्दगी, जादू, जागीर, जान, जुरमाना, जिगर, जोश, तरकश, तमाशा, तेज, तीर, ताक, तबाह, तनख्वाह, ताजा, दीवार, देहात, दस्तूर, दुकान, दरबार, दंगल, दिलेर, दिल, दवा, नामर्द, नाव, नापसन्द, पलंग, पैदावार, पलक, पुल, पारा, पेशा, पैमाना, बेवा, बहरा, बेहूदा, बीमार, बेरहम, मादा, माशा, मलाई, मुर्दा, मजा, मुफ्त, मोर्चा, मीना, मुर्गा, मरहम, याद, यार, रंग, रोगन, राह, लश्कर, लगाम, लेकिन, वर्ना, वापिस, शादी, शोर, सितारा, सितार, सरासर, सुर्ख, सरदार, सरकार, सूद, सौदागर, हफ्ता, हजार आदि।
फ्रेंच (फ़्रांसिसी) शब्द - अंग्रेज, एडवोकेट, काजू, कारतूस, कूपन, मीनू, मेयर, रेस्तरां, लैंप, वारंट, सूप आदि।
यूनानी शब्द - एकेडमी, एटलस, बाइबिल, टेलिफोन, एटम।
रूसी शब्द - जार, बुजुर्ग, लूना, वोद्का, वोल्गा, स्पुत्निक।
स्पेनिश शब्द - कारक, प्यून, देस्पासीतो (क्रमश:, धीरे-धीरे). सिगरेट, सिगार,
(ऊ) कोई अन्य भाषायी शब्द आवश्यक हो तो उसे शब्द चिन्ह (' ') एकल इन्वर्टेड कोमा में लिखें। जैसे :- यह जटिल 'प्रॉब्लम' है।
(ए) अंग्रेजी शब्दों का लिप्यंतरण करते समय केवल 'ई'तथा 'ऊ' का प्रयोग करें। जैसे :- key की, city सिटी, blue ब्लू , shoe शू आदि।
(ऐ) अन्य भाषाओँ की व्यक्तिवाचक संज्ञाओं (नामों) उच्चारण यथासंभव मूल रखें। जैसे :- जापानी : तोक्यो (tokyo), फ्रांसीसी : दूप्ले (duplex), रूसी : तोलसतोय (टॉलस्टॉय), स्पेनी : दान किहोते (डॉनक्विज़ोट), अन्य : पोल्स्की (पोलिश नहीं), सोल (सियोल नहीं), म्याँमा (म्याँमार/मियांमार नहीं) आदि।
२५. तत्सम शब्द -
पर्वत, दर्पण जैसे तत्सम शब्दों के देशज रूप परबत, दरपन आदि कॉल उद्धरणों या स्थानीय बोली में उपयोग करें।
२६.तद्भव शब्द -
२७. देशज शब्द - देश + ज अर्थात देश में जन्मा, जो शब्द देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित आम बोल-चाल की भाषा से हिंदी में आ गए हैं, वे देशज शब्द कहलाते हैं। इनकी व्युत्पत्ति का पता नही चलता।प्रचलित हेमचन्द्र ने उन शब्दों को 'देशी' कहा है, जिनकी व्युत्पत्ति किसी संस्कृत धातु या व्याकरण के नियमों से नहीं हुई। विदेशी विद्वान जॉन बीम्स ने देशज शब्दों को मुख्यरूप से अनार्यस्त्रोत से सम्बद्ध माना हैं। जैसे :- चिरैया, पन्हैया, डिबिया, टेंटुआ, कटरा, चिड़िया, कटरा, कटोरा, खिरकी, जूता, खिचड़ी, पगड़ी, लोटा, तेंदुआ, कटरा, अण्टा, ठेठ, ठुमरी, खखरा, चसक, फुनगी, डोंगा आदि।
हिंदी में प्रचलित भारतीय भाषाओँ के शब्द -
ओड़िया शब्द - अटका, अपकर्ष, हँसी-ठट्टा आदि।
गुजराती शब्द - गरबा, बा, बापू, हड़ताल आदि।
पंजाबी शब्द - कुड़माई, गिद्धा, जट्ट, खालसा, बेबे, भाँगड़ा, माहिया, वीर, सिक्ख आदि।
बांगला शब्द - आपत्ति, उपन्यास, गल्प, चमचम, रसगुल्ला, आदि।
मराठी शब्द - चालू, बाजू, लागू, वापरना आदि।
७-५-२०२२
***

सोमवार, 6 मई 2024

मई ६, सोनेट, बुद्ध, नवगीत, छंद अवतार, बाल गीत, सवैया, अरविंद

सलिल सृजन मई ६
*
सॉनेट
अरविंद
ग्रहण लगा अरविंद न बोले
नहीं ज्योत्सना नर्तन करती
तारक मंडल संग न डोले
हाय! मंजरी मौन मुरझती
चंद! चंद दिन का है पातक
कह कितना जग धैर्य धराए
अनुमानित से ज्यादा घातक
साथ याद के रहे न साए
शशि हे! कर दिन की अगवानी
एक बार फिर से मुस्काओ
मचले मोहन कर यजमानी
जसुदा की थाली में आओ
मन मयंक निश्शंक काश हो
'सलिल' विपद का नष्ट पाश हो
६.५.२०२३ •••
सॉनेट
बुद्ध पूर्णिमा
*
बुद्ध पूर्णिमा, मन बच्चा बन
उछल-कूदकर, हिल-मिल कर रह
असत पंथ तज, हँस सच्चा बन
गिरे, पीर अपनी गुपचुप सह
ता ता थैया, किशन कन्हैया
लटक शाख पर किंतु न गिरना
खेल कबड्डी, खो खो भैया
भरे कुलाचें मन का हिरना
मिले हाथ से हाथ हमारा
कोई कहीं न रहे अकेला
सबको सबसे मिले सहारा
मस्ती करें बने जग मेला
हो मजबूत नहीं कच्चा बन
साफ सफाई रख, बच्चा बन
६.५.२०२३ •••
नवगीत
बुद्ध पूर्णिमा
बुद्ध पूर्णिमा है
प्रबुद्ध नवगीत हुआ।
जीत तिमिर दे नव प्रकाश
सब करो दुआ।।
अब न विसंगति का रोना है
सपने नए नित्य बोना है
संकट-कंटक से क्यों डरना?
धीरज तनिक नहीं खोना है
विडंबना का तोड़ पिंजरा
नापे गगन सुआ।
बुद्ध पूर्णिमा है
प्रबुद्ध नवगीत हुआ।
जब जब चले, गिरे तब तब हम
झट उठ बढ़े, न अँखियाँ कीं नम
पथ पर पग धर चुभन शूल की
सही-हँसे कोशिश न करी कम
पहले से तैयार, न खोदा
लेकर प्यास कुंआ।
बुद्ध पूर्णिमा है
प्रबुद्ध नवगीत हुआ।
दीपक-नीचे तिमिर न देखो
आत्म-दीप की आभा लेखो
नास्ति त्याग कर अस्ति पंथ वर
अपरा-परा संग अवरेखो
भटक न जाए मोह पाश बँध
अपना मनस मुआ।
बुद्ध पूर्णिमा है
प्रबुद्ध नवगीत हुआ।
६.५.२०२३ •••
नए छंद
सवैया प्रकार १३९
*
सवैया वह छंद' जिसके पाठ में, सवाया लगता समय है।
यहाँ है यति खूब कर निर्वाह तो, लुभाता सजता समय है।
पढ़ें पंचम पंक्ति पहली जो बनी, लगेगा चलता समय है।
चढ़ें या उतरें सतत आगे बढ़ें,
रुकें ना कहता समय है।
६-५-२०१९ ***
एक रचना:
.
जैसा किया है तूने
वैसा ही तू भरेगा
.
कभी किसी को धमकाता है
कुचल किसी को मुस्काता है
दुर्व्यवहार नायिकाओं से
करता, दानव बन जाता है
मार निरीह जानवर हँसता
कभी न किंचित शर्माता है
बख्शा नहीं किसी को
कब तक बोल बचेगा
.
सौ सुनार की भले सुहाये
एक लुहार जयी हो जाए
अगर झूठ पर सच भारी हो
बददिमाग रस्ते पर आये
चक्की पीस जेल में जाकर
ज्ञान-चक्षु शायद खुल जाए
साये से अपने खुद ही
रातों में तू डरेगा
६.५.२०१५ ***
छंद सलिला:
अवतार छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
दुष्ट धरा पर जब बढ़ें / तभी अवतार हो
तेरह दस यति, रगण रख़ / अंत रसधार हो
सत-शिव-सुंदर ज़िंदगी / प्यार ही प्यार हो
सत-चित-आनँद हो जहाँ / दस दिश दुलार हो
उदाहरण:
१. अवतार विष्णु ने लिये / सब पाप नष्ट हो
सज्जन सभी प्रसन्न हों / किंचित न कष्ट हो
अधर्म का विनाश करें / धर्म ही सार है-
ईश्वर की आराधना / सच मान प्यार है
२. धरती की दुर्दशा / सब ओर गंदगी
पर्यावरण सुधारना / ईश की बंदगी
दूर करें प्रदूषण / धरा हो उर्वरा
तरसें लेनें जन्म हरि / स्वर्ग है माँ धरा
३. प्रिय की मुखछवि देखती / मूँदकर नयन मैं
विहँस मिलन पल लेखती / जाग-कर शयन मैं
मुई बेसुधी हुई सुध / मैं नहीं मैं रही-
चक्षु से बही जलधार / मैं छिपाती रही.
६-५-२०१४ ***
गीत:
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
६-५-२०१४ ***
गीत:
संजीव
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
६.५.२०१४ ***
बाल गीत:
शुभ प्रभात
***
शुभ प्रभात, गुड मोर्निंग,
आओ! खेलें खेल।
उछलें-कूदें, नाचें-गायें-
रख आपस में मेल।
*
कलियों से सीखें मुस्काना,
फूलों से नित खिलना।
चिड़ियों से सीखें संग रहना-
आसमान में उड़ना।
चलो! तोड़ दें बैर-भाव की-
मिलकर आज नकेल…
*
हरियाली दे शुद्ध हवा हँस,
बादल देता छैयां।
धूप अँधेरा हरकर थामे-
उजियारे की बैयां।
कोयल कहती मीठा बोलो
छोडो दूर झमेल
६.५.२०१३ ***
गीत :
जब - तब
*
अभिषेक किया जब अक्षर का
तब कविता का दीदार मिला.
शब्दों की आराधना करी-
तब भावों का स्वीकार मिला.
जब छंद बसाया निज उर में
तब कविता के दर्शन पाये.
पर पीड़ा जब अपनी समझी
तब जीवन के स्वर मुस्काये.
जब वहम अहम् का दूर हुआ
तब अनुरागी मन सूर हुआ.
जब रत्ना ने ठोकर मारी
तब तुलसी जग का नूर हुआ.
जब खुद को बिसराया मैंने
तब ही जीवन मधु गान हुआ.
जब विष ले अमृत बाँट दिया
तब मन-मंदिर रसखान हुआ..
जब रसनिधि का सुख भोग किया
तब 'सलिल' अकिंचन दीन हुआ.
जब जस की तस चादर रख दी
तब हाथ जोड़ रसलीन हुआ..
६.५.२०१० ***


रविवार, 5 मई 2024

भारत, संविधान



विमर्श : भारत का संविधान 
*
संविधान निर्माता कौन?
आजकल भारत की हर उपलब्धि का श्रेय सरकार का प्रमुख होने के नाते मोदी जी को दिया जाता है । उसे तरह संविधान सभा का अध्यक्ष होने के नाते संविधान निर्माता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को कहा जाना चाहिए।
माँग 
इस समिति का मुख्य उद्देश्य भारत के संविधान का मसौदा तैयार करना था जो देश को एक प्रभुत्व का दर्जा देता है। १९३४ में एम.एन.रॉय जो एक भारतीय मार्क्सवादी क्रांतिकारी, राजनीतिक सिद्धांतकार और दार्शनिक थे, ने संविधान सभा का विचार दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस विचार को परिष्कृत किया और १९३५ में इसे आधिकारिक माँग बना दिया जिसे अंग्रेजों ने अस्वीकार कर दिया था। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने १५ नवंबर १०३९ को संविधान सभा के गठन के लिए अपनी आवाज उठाई। इसे अंग्रेजों ने अगस्त १९४० में स्वीकार कर लिया।
गठन 
१९४६ में ब्रिटिश राज से भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को सत्ता हस्तांतरित करने के उद्देश्य से कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन के तहत पहली बार संविधान सभा के चुनाव हुए। संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव प्रांतीय सभाओं द्वारा किया जाता था। चुनाव एकल, हस्तांतरणीय-वोट प्रणाली के रूप में थे। संविधान सभा की अंतिम संरचना इस प्रकार है:

* २९२ सदस्यों ने प्रांतों के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य किया।

* ९३ सदस्य रियासतों का प्रतिनिधित्व करते थे।

* ४ सदस्य अजमेर-मेवाड़, दिल्ली, कूर्ग और ब्रिटिश बलूचिस्तान प्रांतों के मुख्य आयुक्त के रूप में मनोनीत थे।

इस प्रकार, सभा की कुल सदस्य संख्या ३८९ थी। इस चुनाव के बाद संविधान की योजना सुचारु रूप से नहीं चल पाई क्योंकि मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया। हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगे शुरू हो गए और मुस्लिम लीग ने भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए अपनी संविधान सभा की माँग की।
पुनर्गठन 
१५ अगस्त १९४७ कोभारत-पाकिस्तान विभाजन तथा भारत की आजादी के बाद ९ दिसंबर १९४६ को संविधान सभा की पहली बैठक १४ अगस्त १९४७ को एक संप्रभु निकाय के रूप में हुई। विभाजन के कारण संविधान सभा के लिए नए चुनाव हुए और सदस्यों की संख्या घटकर २९९ रह गई। डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे। संविधान निर्माण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए संविधान सभा ने कई समितियाँ बनाईं। प्रारूप समिति ने संविधान के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। इस समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराओ अंबेडकर तथा ६ सदस्य एन. माधव राव, टी.टी. कृष्णामाचारी, डॉ. कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी, सैयद मोहम्मद सादुल्लाह, एन. गोपालस्वामी अयंगर तथा अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर थे।
तैयारी 
भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव ने पश्चिमी लोकतंत्रों का दौरा कर विभिन्न संविधानों का अध्ययन किया तथा अन्य देशों द्वारा संविधान-मसौदा बनाने की प्रक्रिया जानी। बी. एन. राव ने संविधान के मूल सिद्धांतों को समझ कर नोट्स बनाकर प्रारूप समिति को भेज जिससे उन्हें एक प्रभावी संविधान का मसौदा तैयार करने में मदद मिली। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने लगभग ६० देशों के संविधान का भी अध्ययन किया।
कारक 
कई सदस्यों ने यूरोपीय-अमेरिकी संवैधानिक ढाँचे को प्राथमिकता दी। अन्य सदस्य भारत की अपनी स्वदेशी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए एक संविधान का मसौदा तैयार करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण खाद्यान्न की भारी कमी और देश की आर्थिक एवं सामाजिक वृद्धि में गिरावट आदि ने समिति को राष्ट्रीय सरकार के नियंत्रण के बारे में सोचने पर मजबूर किया। विभाजन, रक्तपात आदि का कारण प्रांतीय कानून कमजोर होना था। तेलंगाना में कम्युनिस्ट विद्रोह ने एक मजबूत केंद्र सरकार की आवश्यकता बताई बाहरी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा का प्रबंधन कर सके। राजनीतिक व्यवस्था की संरचना यूरोपीय और अमेरिकी मॉडल से प्रभावित थी। सभा द्वारा लिए गए निर्णय आर्थिक विकास, विभाजन के दौरान सांप्रदायिक हिंसा, औद्योगिक उत्पादकता, कृषि की वृद्धि और शरणार्थियों के बड़े पैमाने पर प्रवाह जैसी कई चिंताओं से प्रभावित थे।
विशेषता 
नागरिकों के मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन भी संविधान का हिस्सा बन गया। कुल मिलाकर छह मौलिक अधिकार तय किए गए: समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार। संपत्ति, और संवैधानिक उपचारों का अधिकार। निदेशक सिद्धांतों ने यह सुनिश्चित किया कि देश सामाजिक दबाव से मुक्त होगा। सभा ने समुदायों के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया। उपरोक्त उल्लिखित बातों के अलावा संविधान बनाते समय सभा बहुत सारी गरमागरम चर्चाओं और बहसों से गुज़री थी और प्रत्येक सूक्ष्म विवरण पर ध्यान दिया था।
उलेखनीय 
संविधान का मसौदा तैयार करने में तीन साल लगे, जिसमें १६५ दिनों की अवधि में ग्यारह सत्र आयोजित किए गए तथा तैयार किए गए संविधान को प्रस्तावना, ३९५ अनुच्छेद और ८ अनुसूचियों के साथ २६ जनवरी १९५० को लागू किया गया। संविधान संशोधनाओं के कारण वर्तमान में, संविधान में ४७० अनुच्छेद हैं जिन्हें २५ भागों, १२ अनुसूचियों और ५ परिशिष्टों में बाँटा गया है।

* भारतीय संविधान के हिंदी संस्करण का सुलेखन “वसंत कृष्णन वैद्य” द्वारा किया गया था, जिसे नंद लाल बोस द्वारा सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था। संविधान की अंग्रेजी प्रति को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने हाथों से कैलीग्राफी में इतनी सावधानी पूर्वक लिखा और सजाया था कि एक भी गलती नहीं की थी। संविधान लिखने में ३०३ निब तथा ३५४ बोतल स्याही लगी थी। संविधान की प्रस्तावना पर चित्र सज्जा जबलपुर निवासी ब्योहार राम मनोहर सिन्हा द्वारा की गई थी।

* २४ जनवरी १९५० को भारत के २८४ संसद सदस्यों ने हस्ताक्षर कर संविधान की जिस हस्तलिखित मूल प्रति को अपनाया था, वह नेशनल म्यूजियम नई दिल्ली में सुरक्षित है। ४४८ लेखों और १२ अनुसूचियों युक्त भारत का संविधान, दुनिया के सबसे लंबे संविधानों में से एक है। भारत का संविधान सरकार की संसदीय प्रणाली के साथ देश को राज्यों के एक संघ के रूप में परिभाषित करता है। भारत का संविधान २६ नवम्बर १९४९ को संविधान सभा द्वारा पारित कर २६ जनवरी १९५० से प्रभावी हुआ। इस दिन को भारत में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

* भारतीय संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जैसे भाषण और धर्म की स्वतंत्रता आदि। भारत विविधताओं वाला एक देश है, जिसमें कई भाषाओं, धर्मों और जातीय समूहों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। भारतीय संविधान २२ आधिकारिक भाषाओं को मान्यता देता है।
***

मई ५, छंद जग, नवगीत, विधाता छंद, ओशो चिंतन, लाओत्से, कुमार रवीन्द्र, दोहा दुनिया

 ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.

लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०
दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग।
ताल ताल पर ताल दें, मछली सहित तरंग।।
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।।
५.५.२०१८
कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।
कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।
कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
***
दोहा दुनिया
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
५-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
...
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है
५-५-२०१७
***
दोहा प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
नवगीत:
*
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
जग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज
उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान
२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त
३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ
५-५-२०१४
***
मुखपुस्तकी गपशप- स्त्री विमर्श
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- - पायल शर्मा
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई- आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
*
राज भाटिया- बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता
*
संजीव
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..
कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..
नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवींन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
संजीव
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..
है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०
प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
कवि होता है कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
५-५-२०१०