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शनिवार, 23 दिसंबर 2023

जगती छंद, शर्करी छंद, लेख, हिंदी, नवगीत, कुण्डलिया, दोहा,

 

बारह वार्णिक जगती जातीय छंद
*
विद्याधरी
विधान - म म म म।
*
आजा मैया, दे दे छैंया, कैंया ले ले।
राधा-कान्हा, गोपी ग्वाले, तूने पाले।।
क्यों है रूठी?, झूठा-झूठी, लोरी भूली-
माटी प्यारी, सच्ची न्यारी, बच्चे खेले।।
*
चन्द्रवर्त्म
विधान - र न भ स।
देश को नमन, लोग मिल करें।
द्वेष का शमन, आप-हम करें।।
साथ हो चरण, साथ कर रहे-
देश में अमन, मीत सब करें।।
*
सारंग
विधान - त त त त।
बागी सुता आसमां तात नाराज।
भागा उषा को लिए सूर्य खो लाज।।
माता धरा ने लिया मान दामाद-
गाते पखेरू विदा गीत ले साज।।
*
इन्द्रवंशा
विधान - त त ज र।
बाती जली श्रेय कभी नहीं मिला।
पूजा गया दीप करे नहीं गिला।।
ऊँचा रखें शीश इमारतें सदा-
ढोती रही भार कहे नहीं शिला।।
तामरस
विधान - न ज ज य।
दिलवर है दिलदार पुकारा।
मधुवन में रच रास निहारा।
नटखट वेणु बजाकर छेड़े-
जब-सखि रूठ गई मनुहारा।।
कुसुमविचित्रा
विधान - न य न य।
लख कलियों को मधुकर झूमे।
निलज न माने; जब मन चूमे।।
उपवन जाने यह हरजाई-
तन-मन काला; मति भरमाई।।
मालती / यमुना
विधान - न ज ज र।
कृषक धरे धरना न मानते।
सच कहते डरना न जानते।।
जनमत को सरकार मान ले-
अड़कर रार न व्यर्थ ठानते।।
तरलनयन
विधान - न न न न।
कलरव कर खग प्रमुदित।
नभ पर रवि विहँस उदित।।
सलिल सुमन सु-मन सहित-
सुखद पवन प्रवह हँसित।।
*
तेरह अक्षरी जगती जातीय छंद
माया
विधान - म त य स ग। यति - ४-९।
पौधा रोपा; जो तरु होगा फल देगा।
पानी सींचो; आज न दे तो कल देगा।।
बागों में जो; फूल खिलें तो तितली भी-
नाचें भौरों संग विधाता हँस देगा।।
*
विलासी
विधान - म त म म ग। यति - ५-३-५।
तोड़ेंगे तारे; न हारें; मोड़ेंगे राहें।
पूरी होंगी ही; हमारी; जी चाही चाहें।।
बाधाएँ आएँ, न हारें, जीतेंगे बाजी-
जीतें या हारें; न भागें; जूझेगी बाहें।।
*
कंदुक
विधान - य य य य ग।
कहो बात सच्ची इरादे न भूलो रे।
करो कोशिशें भी; मुरादें न भूलो रे।।
सदा साथ दे जो उसीको पुकारो रे -
नहीं भाग्य को रो; उठो आ सँवारो रे।।
*
राधा
विधान - र त म य ग। यति - ८-५।
वायवी वादे तुम्हारे; झूठ हैं प्यारे।
ख्वाब की खेती समूची; लूट है प्यारे।।
'एकता' नारा लगाया; स्वार्थ साधा है-
साध्य सत्ता हेतु डाली; फूट है प्यारे।।
*
रुचिरा / प्रभावती
विधान - ज भ स ज ग। यति - ४-९।
रुको नहीं; पग पथ पे धरे चलो।
झुको नहीं; गिर-उठ के बढ़े चलो।।
कहे धरा; सुख-दुःख को सही चलो-
बनो नदी; कलकल गा बहे चलो।।
*
कंजअवलि
विधान - भ न ज ज ल।
हों कृषक भटकते पथ पे जब।
हों श्रमिक अटकते मग पे जब।।
तो रचकर कविता कह दे सच-
क्यों डर कवि चुप है?; लड़ जा अब।।
*
पुष्पमाला
विधान - न न र र ग। यति - ९-४।
नवल सुमन ले बना; पुष्पमाला।
प्रभु-पग पर दे चढ़ा, पुष्पमाला।।
स्तुति कर तू भुला; छोड़ निंदा -
कवि रच कविता बना; पुष्पमाला।।
*
१४ मात्रिक शर्करी जातीय छंद
वासंती
विधान - म त न म ग ग। यति - ६-८।
होता भ्रष्टाचार; कर रहे दागी नेता।
पाने सत्ता रोज; बन रहे बागी नेता।।
झूठी बातें बोल; ठग रहे हैं लोगों को -
डाकू जैसा चाल-चलन है ढोंगी नेता ।।
*
असंबाधा
विधान - म त न स ग ग। यति - ५-९।
राधा को देखा; झट किशन चला आया ।
कालिंदी तीरे; झटपट न दिखा आया।।
पेड़ों के पीछे; छिप नटखट गुर्राया-
चीखी थी राधा; डर- नटवर मुस्काया।।
*
मंजरी
विधान - स ज स य ल ग। यति - ५-९।
लिखना नहीं; वह जिसे नहीं जानते।
करना नहीं; वह जिसे नहीं मानते।।
कहना नहीं; मन जिसे नहीं चाहता-
मिलता नहीं, तुम जिसे नहीं ठानते।।
*
मंगली
विधान - स स ज र ल ग। यति - ३-६-५।
चल आ; हम साथ-साथ; बाग़ में चलें।
सपने; नव साथ-साथ; आँख में पलें।।
नपने; सब जान-मान; छंद मंगली-
रच दें; पढ़ सीख-सीख; आप भी लिखें।।
*
अनंद
विधान - ज र ज र ल ग।
जहाँ नहीं विचार हों समान; दूर हों।
करें नहीं विवाद आप; व्यर्थ सूर हों।।
रुचे न बात तो उसे भुला हुजूर दें-
न लें सखा उधार; लें चुका जरूर दें ।।
*
इन्दुवदना
विधान - भ ज स न ग ग।
इन्दुवदना विहँस मीत-मन मोहे।
चैन हर ले; सलज प्रीत कर सोहे।।
झाँक नयना नयन में हिचकिचाते-
प्रीत गगरी उलटती; रस बहाते।।
*
अपराजिता
विधान - न न र स ल ग। यति - ७-७।
निरख-परख बात को कहिए सदा।
दरस-परस मौन हो करिए सदा।।
जनगण-मन वृत्ति हो अपराजिता-
अमन-चमन में रखे रहिए सदा।।

२३.१२.२०२०

***

षट्पदी

*
बाँचे कोई तो कभी, अपना लिखा कवित्त।
खुद को कविवर समझकर, खुश हो जाता चित्त।।
खुश हो जाता चित्त, मित्त तालियाँ बजाते।
सुना-दिखाकर कलाकार, रोटियाँ कमाते।।
रुष्ट 'सलिल' कविराय, थमाकर नोटिस नाचे।
करे कमाई वकील, पिटीशन लिखकर बाँचे।।
***
क्षणिका
मैं बोला- आदाब!
वे समझीं- आ दाब।
खाना हुआ खराब
भागा तुरत जनाब
***
गीत -
*
नए साल में
हर दिन देना
बिना टैक्स
मुस्कान नयी तुम
*
हुई नोट-बंदी तो क्या गम?
बिन नोटों के नैन लड़ा लें.
क्या जानें राहुल-मोदीजी
हम बातों से क्या सुख पालें?
माया, ममता, उमा न जानें
द्वैत मिटाया जाता कैसे?
गहें हाथ में हाथ, साथ रह
हम कुटिया में महल बसा लें.
हर दिन मुझको
पडीं दिखाई
नव सद्गुण की
खान नयी तुम
*
यह मुस्कान न काली होती
यह मुस्कान न जाली होती
अधरों की यह शान सनातन
कठिनाई में खुशियाँ बोती
बेच-खरीद न सकता कोई
नहीं जमाखोरी हो सकती
है निर्धन का धन, जाड़े में
ज्यों चैया की प्याली होती
ऋचा-मन्त्र सी
निर्मल पावन
बम्बुलिया की
तान नयी तुम
*
काम न बैंकों की कतार से
कोई न नाता है उधार से
कम से कम में काम चलाना
जग सीखे तुम समझदार से
खर्च किया कम, बचत करी जो
निर्बल का बल बने समय पर
सुने न कोई कान लगाकर
दूरी रखना तुम दिवार से
कभी न करतीं
बहिष्कार जो
गृह-संसद की
शान नयी तुम
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
.
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
***
हाइकु सलिला:
.
मन मोहतीं
धूप-छाँव दोनों ही
सच सोहतीं
.
गाँव न गोरी
अब है सियासत
धनी न धोरी
.
तितली उड़ी
पकड़ने की चाह
फुर्र हो गयी
.
ओस कणिका
मुदित मुकुलित
पुष्प कलिका
.
कुछ तो करें
महज आलोचना
पथ न वरें
***
दोहा सलिला:
.
प्रेम चंद संग चाँदनी, सहज योग हो मीत
पानी शर्बत या दवा, पियो विहँस शुभ रीत
.
रख खातों में ब्लैक धन, लाख मचाओ शोर
जनगण सच पहचानता, नेता-अफसर चोर
.
नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष
.
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार
.
रहें राम-शंकर जहाँ, वहाँ कुशल भी साथ
माता का आशीष पा, हँसो उठकर माथ
***
षट्पदी :
.
है समाज परिवार में, मान हो रहे अंध
जुट समाजवादी गये, प्रबल स्वार्थ की गंध
प्रबल स्वार्थ की गंध, समूचा कुनबा नेता
घपलों-घोटालों में माहिर, छद्म प्रणेता
कथनी-करनी से हुआ शर्मसार जन-राज है
फ़िक्र न इनको देश की, संग न कोई समाज है
*
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
***
नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***
आलेख
हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
रचनाकार परिचय:-
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त
कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के
पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८
आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य,
२०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश
गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय
सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री / संभागीय
परियोजना यंत्री पदों पर कुशलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं.
रचनाकार परिचय: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को हिंदी तथा साहित्य के प्रति लगाव पारिवारिक विरासत में प्राप्त हुआ है. अपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम. आई., एम. ए. (अर्थ शास्त्र, दर्शन शास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डिप्लोमा कप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा किया है. आपकी प्रकाशित कृतियाँ अ. कलम का देव (भक्ति गीत संग्रह), लोकतंत्र का मकबरा तथा मेरे (अछांदस कविताएँ) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (तकनीकी लोकोपयोगी) हैं. आपने ९ पत्रिकाओं तथा १६
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
इस मानसिकता की आधार भूमि पर जब साहित्य रचना की ओर मुड़ता है तो हिन्दी भाषा, व्याकरण और पिंगल का अधकचरा ज्ञान और हिन्दी को हेय मानने की प्रवृत्ति उसे उर्दू की ओर उन्मुख कर देती है जबकि उर्दू स्वयं हिन्दी की अरबी-फारसी शब्द बाहुल्यता की विशेषता समेटे शैली मात्र है.
गत कुछ दिनों से एक और चिंतनीय प्रवृत्ति उभरी है. राजनैतिक नेताओं ने मतों को हड़पने के लिये आंचलिक बोलियों (जो हिन्दी की शैली विशेष हैं) को प्रान्तों की राजभाषा घोषित कर उन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बनाने का कुप्रयास किया है. अंतरजाल (नेट) पर भी ऐसी कई साइटें हैं जहाँ इन बोलियों के पक्षधर जाने-अनजाने हिन्दी विरोध तक पहुँच जाते हैं जबकि वे जानते हैं कि क्षेत्र विशेष के बाहर बोलिओं की स्वीकृति नहीं हो सकती.
मैंने इस के विरुद्ध रचनात्मक प्रयास किया और खड़ी हिन्दी के साथ उर्दू, बृज, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली आदि भाषारूपों में रचनाएँ इन साइटों को भेजीं, कुछ ई कविता के मंच पर भी प्रस्तुत कीं. दुःख हुआ कि एक बोली के पक्षधर ने किसी अन्य बोली की रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई. इस स्थिति का लाभ अंग्रेजी के पक्षधर ले रहे हैं.
उर्दू के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है... वह अंग्रेजों के पहले मुग़ल काल में शासन-प्रशासन की भाषा रही है. हमारे घरों के पुराने कागजात उर्दू लिपि में हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लिखा है. उर्दू की उस्ताद-शागिर्द परंपरा इस शैली को लगातार आगे बढ़ाती और नये रचनाकारों को शिल्प की बारीकियाँ सिखाती हैं. हिन्दी में जानकार नयी कलमों को अतिउत्साहित, हतोत्साहित या उपेक्षित करने में गौरव मानते हैं. अंतरजाल आने के बाद स्थिति में बदलाव आ रहा है... किन्तु अभी भी रचना की कमी बताने पर हिन्दी का कवि उसे अपनी शैली कहकर शिल्प, व्याकरण या पिंगल के नियम मानने को तैयार नहीं होता. शुद्ध शब्द अपनाने के स्थान पर उसे क्लिष्ट कहकर बचता है. उर्दू में पाद टिप्पणी में अधिक कठिन शब्द का अर्थ देने की रीति हिन्दी में अपनाना एक समाधान हो सकता है.
हर भारतीय यह जानता है कि पूरे भारत में बोली-समझी जानेवाली भाषा हिन्दी और केवल हिन्दी ही हो सकती है तथा विश्व स्तर पर भारत की भाषाओँ में से केवल हिन्दी ही विश्व भाषा कहलाने की अधिकारी है किन्तु सच को जानकर भी न मानने की प्रवृत्ति हिन्दी के लिये घातक हो रही है.
हम रचना के कथ्य के अनुकूल शब्दों का चयन कर अपनी बात कहें... जहाँ लगता हो कि किसी शब्द विशेष का अर्थ सामान्य पाठक को समझने में कठिनाई होगी वहाँ अर्थ कोष्ठक या पाद टिप्पणी में दे दें. किसी पाठक को कोई शब्द कठिन या नया लगे तो वह शब्द कोष में अर्थ देख ले या रचनाकार से पूछ ले.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
एक सावधानी रखनी होगी. अंग्रेजी के नये शब्द कोष में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्दकोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दीप्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जाये.
रचनाकारों को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या ने किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
२३-१२-२०१४
***

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

अष्टावक्र, रेफ, स्त्री विमर्श, मातृ वंदना, मुक्तिका, गीत, सॉनेट, हाइकु गीत, मुक्तक

 सलिल सृजन- २२ दिसंबर 

हाइकु गीत
जोड़-घटाना
प्रेम-नफरत को,
जीवन जीना.....
गुणा करना / परिश्रम का मीत / मत थकना।
भाग करना / थकावट का, जीत / मत रुकना।।
याद रखना
वस्त्र फ़टे या दिल
तुरंत सीना.....
प्रेम परिधि / संदेह के चाप से / कट न सके।
नेह निधि / आय घट-बढ़ से / घट न सके।।
नहीं फलता
गैर का प्राप्य यदि
तुमने छीना.....
जीवन रेखा / सरल हो या वक्र / टूट न सके।
भाग्य का लेखा / हाथ में लिया हाथ / छूट न सके।।
लाज का पर्दा
लोहे से मजबूत
किंतु है झीना.....
संजीव
२२-१२-२०२२, २०.३३
जबलपुर
***
सॉनेट
गणपति
*
जय जय गणपति!, ऋद्धि-सिद्धिपति, मंगलकर्ता, हे प्रथमेश।
भव बाधा हर, हे शब्देश्वर!, सदय रहो प्रभु जोड़ूँ हाथ।
जयति गजानन, जय मतिदाता, शिवा तनय जय, हे विघ्नेश।।
राह न भटकूँ, कहीं न अटकूँ, पैर न पटकूँ, बल दो नाथ।।
वंदन-चंदन, कर अभिनंदन, करूँ स्तवन नित, हे सर्वेश!
जगजननी-जगपिता की कृपा, हो हम पर ऐसा वर दो।
विधि-हरि, शारद-रमा कृपा पा, भज पाएँ हम तुम्हें हमेश।।
करें काम निष्काम भाव से, शांति निकेतन सा घर दो।।
सत्य सनातन कह पाएँ जो ऐसी रचनाएँ हो दैव।
समयसाsक्षी घटनाओं में देखें-दिखा प्रगति की रेख।
चित्र गुप्त हो हरदम उज्जवल, निर्मल हो आचार सदैव।।
सकल सृष्टि परिवार हमारा, प्रकृति मैया पाएँ लेख।।
जय जय दीनानाथ! दयामय, द्रुतलेखी जय जय कलमेश!
रहे नर्मदा जीवन यात्रा, हर लो सारे कष्ट-कलेश।।
२२-१२-२०२१
***
सॉनेट
विवाह
*
चट मँगनी पट माँग भराई।
दुलहा सूरज दुल्हन धूप है।
उषा निहारे खूब रूप है।।
सास धरा को बहू सुहाई।।
द्वार हरिद्रा-छाप लगाई।
छाप पाँव की शुभ अनूप है।
सुतवधु रानी, पुत्र भूप है।।
जोड़ी विधि ने भली मिलाई।।
भौजाई की कर पहुनाई।
है हर्षाई ननदी कोयल।
नाचे मिट्ठू, देवर झूमे।।
ससुर गगन दे मुँह दिखराई।
सँकुचाई बरबस वधु चंचल
नजर बजा सूरज वधु चूमे।।
२२-१२-२०२१
***
सॉनेट
नारी
*
शारद-रमा-उमा की जय-जय, करती दुनिया सारी।
भ्रांति मिटाने साथ हाथ-पग बढ़ें तभी हो क्रांति।
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।।
सफल साधना तभी रहे जब जीवन में सुख-शांति।।
जाया-माया, भोगी-भोग्या, चित-पट अनगिन रंग।
आशा पुष्पा दे बगिया को, सुषमा-किरण अनंत।
पूनम तब जब रहे ज्योत्सना, रजनीपति के संग।।
उषा-दुपहरी-संध्या सहचर दिनपति विभा दिगंत।।
शिक्षा-दीक्षा, रीति-नीति बिन सार्थक हुई न श्वासा।
क्षुधा-पिपासा-तृष्णा बिना हो, जग-जीवन बेरंग।
कीर्ति-प्रतिष्ठा, सज्जा-लज्जा से जीवन मधुमासा।।
राधा धारा भक्ति-मुक्ति की, शुभ्रा-श्वेता संग।।
अमला विमला धवला सरला, सुख प्रदायिनी नारी।
मैया भगिनि भामिनि भाभी पुत्री सखी दुलारी।।
२२-१२-२०२१
***
सुभाषित
*अस्थिरं जीवितं लोके, अस्थिरे धनयौवने।*
*अस्थिरा: पुत्रदाराश्च, धर्मकीर्तिद्वयं स्थिरं*।।
अस्थिर जीवित लोक, धन यौवन स्थिर है नहीं।
सुत-स्त्री अस्थिर यहाँ, धर्म-कीर्ति स्थिर रहे।।
अर्थात्- इस जगत में जीवन सदा नही रहने वाला है, धन और यौवन भी सदा नहीं रहने वाले हैं, पुत्र और स्त्री भी सदा नहीं रहने वाले हैं ;केवल धर्म और कीर्ति ही सदा रहने वाले हैं॥
***
प्रात नमन स्वीकार कीजिए हे माधव।
स्वप्न सभी साकार कीजिए हे माधव।।
राघव सा लाघव, सीता सी मर्यादा
युत हमको आचार दीजिए हे माधव।।
वृंदा को जो छले न ऐसे हरि हों हम
शूर्पणखा हित लखन भेजिए हे माधव।।
नगरवधू से मुक्त समूचा भारत हो
गृहवधुओं सज्जित गृह करिए हे माधव।।
नेता हों रणछोड़; न लूटें जनगण को
गो गिरि वन नद पीड़ा हरिए हे माधव।।
हिरणकशिपु सेठों की भस्म करें लंका
जनहित-पथ पर फिर पग धरिए हे माधव।।
कंस प्रशासन ऐश कर रहा जन-धन पर
दर्प हरें कालिय फण नचिए हे माधव।।
न्याय व्यवस्था बंदी काले कोटों की
इन्हें दूर कर श्वेत-सरल करिए माधव।।
श्रीराधे को हृदय बसी छवि जो मधुरिम
वह से सलिल-हृदय में हँस बसिए माधव।।
२२-१२-२०१९
***
मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ नहीं हम हार मानते।
कारण बिना नहीं किसी से रार ठानते।।
कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
२२.१२.२०१८
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मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
२२-१२-२०१६
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सामयिक गीत :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिला रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घातक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बताएँ
खून और का व्यर्थ बहाएँ
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
२१-१२-२०१५
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मुक्तिका:
नए साल का अभिनंदन
अर्पित है अक्षत-चंदन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
२२.१२.२०१४
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धूप -छाँव: बात निकलेगी तो फिर
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गई
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गई
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है.
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी,
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी ...
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठायेंगे
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरो का वजूद
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं
.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश! कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख
***
मुक्तक
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
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मातृ वंदना -
*
ममतामयी माँ नंदिनी-करुणामयी माँ इरावती।
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी।
सत्पथ दिखाओ माँ, बने सन्तान सब तेरी सुखी॥
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहे आचार, माता सदय रहो निहारती..
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें।
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें॥
निष्काम औ' निष्पक्ष रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निश्छल रहें मन-प्राण, वाणी नित तम्हें गुहारती...
चित्रेश प्रभु केकृपा मैया!, आप ही दिलवाइये।
जैसे भी हैं, हैं पुत्र माता!, मत हमें ठुकराइए॥
कंकर से शंकर बन सकें, सत-शिव औ' सुंदर वर सकें-
साधना कर सफल, क्यों मुझ 'सलिल' को बिसारती...
२१-१२-२०१२
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विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'
*
दिल्ली ही नहीं अन्यत्र भी भारत हो या अन्य विकसित, विकासशील या पिछड़े देश, भाषा-भूषा, धर्म, मजहब, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, वैज्ञानिक उन्नति या अवनति सभी जगह नारी उत्पीडन एक सा है. कहीं चर्चा में आता है, कहीं नहीं किन्तु इस समस्या से मुक्त कोई देश या समाज नहीं है.
फतवा हो या धर्मादेश अथवा कानून नारी से अपेक्षाएं और उस पर प्रतिबन्ध नर की तुलना में अधिक है. एक दृष्टिकोण 'जवान हो या बुढ़िया या नन्हीं सी गुडिया, कुछ भी हो औरत ज़हर की है पुड़िया' कहकर भड़ास निकलता है तो दूसरा नारी संबंधों को लेकर गाली देता है.
यही समाज नारी को देवी कहकर पूजता है यही उसे भोगना अपना अधिकार मानता है.
'नारी ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया' यदि मात्र यही सच है तो 'एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी' कहनेवाला पुरुष आजीवन माँ, बहन, भाभी, बीबी या कन्या के स्नेहानुशासन में इतना क्यों बंध जाता है 'जोरू का गुलाम कहलाने लगता है.
स्त्री-पीड़ित पुरुषों की व्यथा-कथा भी विचारणीय है.
घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युवा अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?
ऐसे घटनाओं के अपराधी को दंड क्या और कैसे दिया जाए? इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है. आपका स्वागत है।
२२-१२-२०१२
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विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्स में ड् स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***