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सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

नवगीत, दोहा दीप, जनक मुक्तक, निशा तिवारी, आदमी जिंदा है, सुनीता सिंह, तकनीकी शिक्षा में हिंदी

मुक्तक
आरज़ू है अंजुमन में बहारें रहें।
आसमां में चाँद खुश हो, सितारे रहें।।
है जमीं का कौन?, सबकी वालिदा है वो
प्यार कर माँ से सलिल तो बहारें रहें।।
***
गीत
*
ओझल हो तुम
किंतु सरस छवि,
मन में अब तक बसी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
उषा किरण सम रश्मि रथी का
दर तज मेरी ड्योढ़ी आई।
तुहिन बिंदु सम ठिठकीं-सँकुचीं
अरुणाई ने की पहुनाई।।
दर पर हाथ-
हथेली छापा
घड़ी मिलन की लिखी हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दिन भर राह हेरतीं गुमसुम
कब संझा हो दीपक बालो।
रजनी हो तो मिलन पूर्व मिल
गीत मिलन के गुनगुन गा लो।।
चेहरा थाम निहारा, पाया
सिमटी-सिकुड़ी छुई-मुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
दो थे, पल में एक हो गए,
नयन नयन में डूब-उबरते।
अधर अधर पर धर अधरामृत
पीते; उर धर, विहँस सिहरते।।
पाकर खोएँ, खोकर पाएँ
आस अहैतुक पली हुई है।
यादों का पल
युग सा बीता,
ज्योति मिलन की जली हुई है।।
*
२३-१०-२०२२, ९४२५१८३२४४
***
विमर्श- तकनीकी शिक्षा में हिंदी
क्या औचित्य और उपयोग है मध्य प्रदेश में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस पाठ्यक्रम शुरू करने का, जबकि सारी पुस्तकों में अधिकांश अंग्रेजी शब्द "जस के तस" हैं और उन्हें केवल देवनागरी लिपि में लिख दिया गया है?
पहले आपकी प्रश्न की पृष्ठभूमि समझें-
पढ़ने-समझने और लिखने में भाषा माध्यम का कार्य करती है। आप भाषा जानते हैं तो विषय या कथ्य को समझते हैं। अगर भाषा ही समझ न सकें तो विषय या कथ्य कैसे समझेंगे?
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा सबसे आधी सरलता, सहजता से अपनी मातृभाषा समझता है। नवजात शिशु कुछ न जानने पर भी माँ द्वारा कहे गए शब्दों का भावार्थ समझकर प्रतिक्रिया देता है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी में बताई गयी बात समझना अधिक कठिन होता है। सामान्यत:, हम अपनी मातृभाषा में सोचकर अंग्रेजी में अनुवाद कर उत्तर देते हैं। इसीलिए अटकते हैं, या रुक-सोचकर बोलते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कराए गए अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि दुनिया में सर्वाधिक उन्नति देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा अपनी मातृभाषा देते हैं। इनमें रूस, चीन, जापान, फ़्रांस, जर्मनी आदि हैं। यह भी कि दुनिया में सर्वाधिक पिछड़े देश वे हैं जो उच्च तथा तकनीकी शिक्षा किसी विदेश भाषा में देते हैं। इनमें से अधिकांश कभी न कभी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं।
पराधीनता के समय में भारत की शिक्षा नीति पर इंग्लैंड की संसद में हुई बहस में नीति बनानेवाले लार्ड मैकाले ने स्पष्ट कहा था कि उसका उद्देश्य भारत की सनातन ज्ञान परंपरा पर अविश्वास कर पश्चिम द्वारा थूका गया चाटनेवाली पीढ़ी उत्पन्न करना है। दुर्भाग्य से वह सफल भी हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारत के शासन-प्रशासन में अंग्रेजी का बोलबाला रहा, आज भी है। इस संवर्ग में स्थान बनाने के लिए सामान्य जनों ने भी अंग्रेजी को सर पर चढ़ा लिया।
१९६२ में चीनी हमले के बाद देश में अभियंताओं की बड़ी संख्या की जरूरत हुई ताकि देश विज्ञान, तकनीक और उद्योग के क्षेत्र में प्रगति कर सके। दक्षिण भारतीय राज्यों ने ६ माह और एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स आरंभ किए जिन्हें उत्तीर्ण कर बड़ी संख्या में दक्षिण भाषी, मध्य तथा उत्तर भारत में कार्य विभागों में घुस गए और लगभग ४ दशकों तक पदोन्नत होकर उच्च पदों पर काबिज रहे। मध्य तथा उत्तर भारत में पॉलिटेक्निक आरंभ कर त्रिवर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरंभ किए गए। इनमें ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनेक युवा प्रविष्ट हुए जिन्हें उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में अच्छे एक मिले थे किन्तु पॉलिटेक्निक तथा अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में अंग्रेजी न समझ सकने के कारण ये प्रथम वर्ष में असफल हो गए। कई ने पूरक परीक्षाओं से परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु अंक कम हो गए, कई ने आत्महत्या तक कर लीं। पॉलिटेक्निक जबलपुर के छात्रों ने वर्ष १९७१-७२ में परीक्षा में हिंदी की मांग करते हुए हड़ताल की। तब मैं भी वहाँ एक छात्र था।
डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने इस विषमता को समझते हुए पदोन्नति अवसरों के सृजन, वेतनमान में सुधार तथा हिंदी में अभियांत्रिकी शिक्षण के लिए कई बार हड़तालें कीं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल आदि राज्यों के डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने अखिल भारतीय महासंघ बनाकर भारत सरकार को अपनी पीड़ा और समाधान के उपायों से वगत कराया। तब जनसंघ और समाजवादी दल विरोध में, कोंग्रेस सत्ता में थी। जनसंघ के कई नेताओं प्यारेलाल खंडेलवाल जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, अटलजी, आडवाणी जी, जोशी जी, आदि ने अभियंताओं के मांग पत्रों का समर्थन किया, विधायिकाओं में प्रश्न उठाए। तभी से यह नीति कि उच्च तथा तकनीकी शिक्षा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में हो जनसंघ और कालांतर में भाजपा की नीति बन गई। समाजवादी भी इस मांग के पक्ष में थे किन्तु सत्ता में आने पर उन्होंने इस बिंदु को भुला दिया। उस दौर में सर्व अभियंता ब्रह्म दत्त दिल्ली, रामकिशोर दत्त लख़नऊ, संजीव वर्मा जबलपुर, अमरनाथ लखनऊ, नारायण दास यादव ग्वालियर, जयशंकर सिंह महासमुंद, बृजेश सिंह बिलासपुर, रमाकांत शर्मा भोपाल, शिवप्रसाद वशिष्ठ उज्जैन, सतीश सक्सेना ग्वालियर, आदित्यपाल सिंह भोपाल आदि ने सतत संघर्ष किया। संजीव वर्मा ने जबलपुर में इंजीनियर्स फोरम (इंडिया) का गठन कर भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के जान दिन को अभियंता दिवस के रूप में मनाकर स्वभाषा में अभियांत्रिकी शिक्षा के आंदोलन को नव स्फूर्ति दी। फलत:, हर विभाग में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की मूर्ति कार्यालय परिसर में स्थापित कर हिंदी में कार्य करने का संकल्प लिया गया। डिप्लोमाधारी अभियंताओं ने प्राकल्लन (एस्टिमेटिंग), मापन (मेजरमेंट) तथा मूल्याङ्कन (वेल्युएशन) हिंदी में करना आरंभ कर दिया। डिप्लोमा परीक्षाओं में छात्रों ने हिंदी में उत्तर लिखे। शासन के लिए इन्हें अमान्य करने का अर्थ विभागीय कार्य बंद होना होता, जिससे हड़ताल सफल होती। शासन ने हड़ताल को असफल दिखाने के लिए, देयकों का भुगतान होने दिया। मध्य प्रदेश में पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा स्तर पर हिंदी में पुस्तकें तथा परीक्षा १९९० के आसपास ही सुलभ हो गयी किन्तु दुर्भाग्य से अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों ने जहाँ समाजवादियों की सरकारें थीं ने इसका अनुकरण नहीं किया।
बड़ी संख्या में निजी अभियांत्रिकी महाविद्यालय खुलने पर उनमें भी ग्रामीण छत्रों ने बड़ी संख्या में प्रवेश लिया। इतिहास ने खुद को दुहराया। बी.ई./बी.टेक. तथा एम.ई./एम.टेक. में भी हिंदी का प्रवेश हुआ। अटल बिहारी हिंदी विश्वविद्यालय भोपाल ने मेडिकल की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कर एम.बी.बी.एस. में हिंदी में करना संभव कर दिया। यद्यपि यह आरंभ मात्र है। लगभग एक दशक लगेगा मेडिकल शिक्षा का पूरी तरह हिन्दीकरण होने में।
आपका प्रश्न तकनीकी किताबों में प्रयुक्त भाषा को लेकर है। हिन्दीकरण करते समय यदि शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रयोग किया जाए तो पारिभाषिक शब्द अत्यधिक कठिन तथा अप्रचलित होंगे। विज्ञान विषयों में अध्ययन-अध्यापन एक स्थान पर, प्रश्न पत्र बनाना दूसरे स्थान पर, उत्तर लिखना तीसरे स्थान पर तथा उत्तर पुस्तिका जाँचना चौथे स्थान पर होता है। अत:, भाषा व् शब्दावली ऐसी हो जिसे सब समझकर सही अर्थ निकालें। इसलिए आरंभ में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दों को यथावत लेना ही उचित है। भाषा हिंदी होने से वाक्य संरचना सरल-सहज होगी। विद्यार्थी जो सोचता है वह लिख सकेगा। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा परीक्षक भी हिंदी के उत्तर में तकनीकी-पारिभाषिक शब्द यथावत भाषांतरित होने पर समझ सकेगा। मैंने बी.ई., एम.ई. की परीक्षाओं में इस तरह की समस्या का अनेक बार सामना किया है तथा हल भी किया है। तकनीकी लेख लिखते समय भी यह समस्या सामने आती है।
तकनीकी शिक्षा के हिन्दीकरण में सबसे बड़ी बाधा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी, इंडियन मेडिकल असोसिएशन, जैसी संस्थाएं हैं जहाँ हिंदी का प्रयोग वर्जित घोषित न होने पर कभी नहीं किया जाता। सरकार और जनता को इस दिशा में सजग होकर इन संस्थाओं का चरित्र बदलना होगा।
२३-१०-२०२२
***
पुरोवाक
'शफ़क-गुलाली' ग़ज़लाकाश में मुस्कुराती लाली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत की गंगो-जमनी तहज़ीब की बानगी देखनी हो तो ग़ज़ल पढ़नी चाहिए। गीत और दोहे की तरह ग़ज़ल ने भी वक़्त, हालत, मुल्क, जुबान और कौमों की हदों को पार कर दिलों को अपना दीवाना बनाया है। किसी बच्चे की पैदाइश की तरह ग़ज़ल के तशरीफ़ लाने की कोई तारीख तो नहीं बताई जा सकती पर यह जरूर कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे इंसान ने इंसानियत की तरफ कदम रखने की शुरुआत की, वैसे-वैसे उसने अपने दिल की बात, कम से कम लफ़्ज़ों में बयां करने का हुनर सीखा। अपने अहसासात दो मिसरों (पंक्तियों) में कहने के बाद उसने हमकाफ़िया (सम तुकांत) और हमरदीफ़ (सम पदांत) मिसरों की ईजाद की। शुरुआत में फ़क़त दो मिसरे ही कहे गए होंगे। दोहा, सोरठा, रोला, श्लोक वगैरह की मानिंद शे'र कहे गए। दो मिसरों में बात पूरी न होने पर चार मिसरों का इस्तेमाल किया गया। फ़क़ीर और शायर चार मिसरों का मुक्तक या रुबाई लिखकर गुनगुनाते-गाते और शाबाशी पाते। इनमें पहले, दूसरे और चौथे मिसरे हमकाफ़िया-हमरदीफ़ होते थे जबकि तीसरे मिसरे में यह बंदिश नहीं थी, बशर्ते वज़न (पदभार) चारों मिसरोंका एक सा होता था। शुरुआत में हजाज छंद में मुक्तक कहे गए, बाद में रुबाई के २४ औज़ान तय किये गए। बतौर नमूना -
आसमान पर शफ़क गुलाली।
तेरे रुखसारों पर लाली।।
जी करता है जी भर पी लूँ-
ढाल-ढाल प्याली पर प्याली।।
भारत में सदियों पहले से अपभृंश और अब हिंदी में कुछ छंद (दोहा, सोरठा, रोला, चौपाई वगैरह) दो पंक्तियों के हैं जबकि बहुत से छंदों (दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, चौपाई, माहिया, हाइकु वगैरह) का उपयोग कर मुक्तक कहे जाते रहे हैं। मुक्तक का विस्तार अर्थात तीसरी-चौथी पंक्तियों की तरह पंक्तियाँ जोड़कर भारतीय लोक काव्यों को गायक और कवि चिरकाल से लिखते-गाते रहे हैं। कालांतर में फारस और भारत के बीच लोगों का आना-जाना होने पर ग़ज़ल कहने की यह काव्य विधा फारस में गई। कहावत है कि इतिहास खुद को दुहराता है। ग़ज़ल के सिलसिले में यह पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई। भारत में जन्मी, पली-पुसी विधा फारसी संस्कार लेकर एवं आक्रांताओं के साथ फिर भारत में आई तो उसके नाक-नक्श ही नहीं, चाल-ढाल भी बदली हुई थी, बदलाव इस हद तक की जन्मदात्री धरती पर भी ग़ज़ल को आयातित काव्य विधा मान लिया गया। भारत में यह काव्य विधा किसी नाम विशेष से नहीं पुकारी गयी थी किन्तु इसके संस्कारों में लोकधर्मिता, शुचिता तथा पाकीजगी थी। फारस में इसे ग़ज़ल संज्ञा तथा '​तश्बीब' (​बादशाहों के मनोरंजन हेतु ​संक्षिप्त प्रेम गीत) एवं 'कसीदा' (रूप/रूपसी ​या बादशाहों की ​की प्रशंसा) विशेषण देकर ​'गजाला चश्म​'​ (मृगनयनी) महबूबा-माशूका से बातचीत के पिजरे में कैद कर, इसे पंख फड़फड़ाने के लिए मजबूर कर दिया। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ औरतों (प्रेमिकाओं) से बातें करना है।१
हिंदी ग़ज़ल
मायके लौटी बेटी के सर पर कुछ दिनों सासरे की तारीफ का भूत सवार रहने की तरह, ग़ज़ल ने भी मादरे-वतन में आने के बाद कुछ वक़्त हुस्नो-इश्क़ की इबादत में गुजारे लेकिन जल्दी ही इस पर मुल्क की माटी का रंग चढ़ गया और ग़ज़ल ने बगावती तेवर के साथ आम आदमी के दर्दो-ख्वाब के साथ नाता जोड़ना शुरू कर दिया। जनाब सरवरी ग़ज़ल का अर्थ 'जवानी का हाल बयां करना' बताते हैं२ और इश्क़ को ग़ज़ल की रूह कहते हैं।३ जनाब कादरी ग़ज़ल का मानी 'इश्क़ और जवानी का जिक्र' मानते हैं।४ हद तो तब हुई हुई जब लिखा गया 'गरज हर वह चीज जो माशूक के शायनशान न हो, वह ग़ज़ल में नापसंदीद: है।'५ बकौल डॉ. सैयद ज़ाफ़र ग़ज़ल शुरू से ही दिलवरों की बात कहती आई है।६ जनाब आल अहमद सरूर कहते हैं - 'ग़ज़ल वैसे तो महबूब से बातें करने का नाम है मगर इसमें हदीसे-हुस्न से ज्यादा इश्क की हिक़ायत है।'७-८ डॉ. रामदास 'नादार' के लफ़्ज़ों में 'उर्दू शायरी फ़ारसी शायरी का अनुकरण है और फारसी शायरी अरबी शायरी का।८ डॉ. मसऊद खां के मुअतबिक 'इसका अपना दाइर-ए-अलम (कार्यक्षेत्र) है।९ हिंदुस्तानी ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल के नक्शे-कदम पर चलने की भरपूर कोशिश उर्दू परस्तों ने की, लेकिन आखिर में हारकर चुप हो गए। इसका कारण आर्थिक है। बशीर बद्र हकीकत को यूं बयां करते हैं - 'आज ग़ज़ल का मसला क्या है? उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में, ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान-पाकिस्तान क्या दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों करोड़ों हैं। ....इस बोली जानेवाली जदीद लफ़्जीयात का बड़ा हिस्सा ग़ज़ल की जबान बनता जा रहा है।'१०
नामकरण
बहरहाल वजह कोई भी हो ग़ज़ल ने अपनी माटी की खुशबू को जल्द ही पहचान लिया और वह खुद को बदलने से न रोक सकी और बदलाव के हिमायतियों ने उसे सिर-आँखों लिया। सागर मीरजापुरी ने ग़ज़लपुर और नवगज़लपुर में इस बदलाव का स्वागत एवं 'गीतिका' नामकरण कर लिखा -'ग़ज़ल, गीत की एक विधा है जो उर्दू-फ़ारसी से हिंदी में आई है।'११ चंद्र सेन 'विराट' और पद्मभूषण नीरज जी ने मुक्तक का विस्तार इसे 'मुक्तिका' कहा। हिंदी ग़ज़ल को 'तेवरी' [तेवर (व्यवस्था विरोध के स्वर) की प्रधानता के कारण], सजल, पूर्णिका, अनुगीत आदि नाम देने के प्रयास लिए जाने के बाद भी यह 'हिंदी ग़ज़ल थी, है और रहेगी।' ॐ नीरव के शब्दों में 'गीतिका एक ऐसे ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ हिंदी छंदों का समादर हो।२९
हिंदी ग़ज़ल-उर्दू गजल
हिंदी एक समर्थ और स्वतंत्र भाषा है जिसका अपना शब्द भंडार, व्याकरण, छंद शास्त्र और लिपि है। उर्दू मूलत: सीमाप्रांत की भारतीय भाषाओँ-बोलिओं का संकर रूप है जो फ़ारसी या देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। उर्दू का अपना शब्द-भंडार नहीं है। उर्दू शब्दकोष का हर शब्द किसी अन्य भाषा-बोली से आयातित है। फारसी के व्याकरण और छंद शास्त्र का उपयोग उर्दू करती है। वास्तव में उर्दू भी हिंदी की एक शैली (भाषा रूप) मात्र है जिसमें फ़ारसी शब्दों का प्रयोग अधिक किया जाता है। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनियों का प्रयोग हिंदी ग़ज़ल बेहिचक करती है, जो फ़ारसी-ुर्दी ग़ज़ल के लिए संभव नहीं है। बांगला ग़ज़ल, तमिल ग़ज़ल, अंग्रेजी ग़ज़ल, रुसी ग़ज़ल अगर भाषिक आधार पर फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न है और वहां फ़ारसी लयखंडों या छंदों को अपनाने की बाध्यता नहीं है तो हिंदी ग़ज़ल पर ऐसे बंधन कैसे थोपे जा सकते हैं? हिंदी ग़ज़ल को विरासत में वैदिक-पौराणिक-लौकिक मिथक, बिम्ब, प्रतीक, मुहावरे, कहावतें आदि मिली हैं जिनका प्रयोग कर वह फ़ारसी-उर्दू ग़ज़ल से भिन्न हो जाती है। हिंदी ग़ज़ल का मिजाज और कहन परंपरागत ग़ज़ल से बिलकुल अलहदा और मौलिक है। बतौर नमूना -
राजनीति घना कोहरा नैतिकता का सूर्य छिपा है।
टके सेर ईमान सभी का स्वार्थ हाथों हाय! बिका है।।
रूप देखकर नज़र झुका लें कितनी वह तहज़ीब भली थी।
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़कर उसे तका है।।
गुमा मशीनों के मेले में आम आदमी खोजें कैसे?
लीवर एक्सल गियर हथौड़ा ब्रैक कहीं वह महज चका है।
आओ! हम सब इस समाज की छाती पर कुछ नश्तर मारें।
सड़े गले रंग-ढंग जीने के, हर हिस्सा एक घाव पका है।।
फ़ना हो गए वे दिन यारों जबकि हम सब फरमाते हैं।
अब तो लब खोलो तो यही कहा जाता है ख़ाक बका है।।
ईंट रेत सीमेंट जोड़कर करी इमारत 'सलिल' मुकम्मिल।
चाह रहे घर नेह-प्रेममय, बना महज बेजान मकाँ है।।
यहाँ यह भी स्पष्ट होना जरूरी है कि हिंदी-फ़ारसी ग़ज़ल की भिन्नता शब्दों के कारण कतई नहीं है। दुनिया की हर भाषा अन्य भाषाओँ से शब्दों को ग्रहण करती और अन्य भाषाओँ को शब्द देती है। हर भाषा शब्दों को अपनी प्रकृति और संस्कार के अनुसार ढलती बदलती है। हिंदी 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कर लेती है तो फ़ारसी 'ब्राह्मण' को 'बिरहमन'। संस्कृत का 'मातृ', फ़ारसी में मादर और अंग्रेजी में 'मदर' हो जाता है। डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल' के अनुसार 'हिंदी और उर्दू में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं है सिर्फ लिपि का फर्क है। फ़ारसी में लिखा जाए तो उर्दू और वही बात देवनागरी में लिखी जाए तो हिंदी हो जाती है।२७
हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकार्य (१९८५) करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना खुसरो और कबीर की ग़ज़लों में भी हिंदी ग़ज़ल के मूल तत्व देखे हैं।१२ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हिंदी ग़ज़ल में गंभीरता और जीवन दर्शन तथा सतही उथलेपन की सामान गुंजाइश देखते हैं।१३ ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है'।१४ शिवॐ अंबर कहते हैं 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्नि ऋचा है।'१५ शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार 'ग़ज़ल एक लिरिक विधा है।' १६ डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल को इस तरह परिभाषित करते हैं 'जो उर्दू ग़ज़ल की शैल्पिक काया में हिंदी की आत्मा को प्रतिष्ठित करती है।'१७ बकौल डॉ. कुंवर बेचैन 'ग़ज़ल जागरण के बाद का उल्लास है, पाँखुरी के मंच पर खुशबू का मौन स्पर्श है।'१८ डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के शब्दों में 'अनुभूति की तीव्रता एवं संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं।१९
शिल्प
स्पष्ट है कि हिंदी ग़ज़ल का शिल्प फ़ारसी ग़ज़ल की तरह होते हुए भी इसकी अपनी अलग पहचान और विशेषता है। बकौल नरेश नदीम 'ग़ज़ल एक से अधिक अशआर का संग्रह मात्र है जिसमें हर शेर दूसरों से स्वतंत्र हो सकता है।२०
विषय
डॉ. रामप्रसाद शरण 'महर्षि' के अनुसार 'कोई भी विषय क्यों न हो, अब उसे ग़ज़ल का विषय बनाया जा सकता है।'२१ डॉ. सादिका असलम नवाब 'सहर' के मत में - 'आधुनिक ग़ज़ल राजनीति और समाज से जुडी हुई समस्याओं को अभिव्यक्त करती है।२२ डॉ. महेंद्र अग्रवाल के शब्दों में 'नई ग़ज़ल का मूल प्रतिपाद्य समकालीन मकनव जीवन के समग्र है। वह ठोस यथार्थ पर खड़ी है।२३
शैली (ग़ज़लियत, तगज़्ज़ुल)
डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की मान्यता है कि ग़ज़ल की भाषा शैली प्राय: प्रतीकात्मक एवं संकेतात्मक होती है।२४ हिंदी गजल भी ‘तगज्जुल’ को स्वीकार और शेर कहते हुए अभीष्ट सांकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है। ज़हर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और काफिए हैं। शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी इसमें दिखता है। इस प्रक्रिया और विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी गजल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। यह गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का परिणाम है।'२५ रामदेव लाल 'विभोर' लिखते हैं 'तगज़्ज़ल सामान्य सी बात में अर्थ सौष्ठव उत्पन्न कर उसे असामान्य व् आनंददायी बना देता है। संस्कृत-हिंदी काव्य में इसे ही शब्द शक्ति का चमत्कार कहा गया है।'२६ 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और' यह अंदाजे-बयां ही गज़लकार के शैली कहलाती है।
तत्व
मुग़ल काल में प्रशासकों का आश्रय मिला इसलिए फ़ारसी मिश्रित हिंदी (उर्दू) को देशी हिंदी (खड़ी बोली) पर वरीयता मिली। सुशिक्षित जनों ने प्रशासन में हिस्सेदारी पाने के लिए सत्ताधीशों की भाषा को अपनाया। इसलिए ग़ज़ल के फ़ारसी मानक, लय खंड और चंद पहले प्रचलित हो गए। हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनने पर फ़ारसी पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्याय विक्सित किए गए। तदनुसार पद या पंक्ति (मिसरा), पद युग्म या द्विपदी (शे'र), पहला पद (मिसरा ऊला), दूसरी पंक्ति (मिसरा सानी), प्रथम समतुकांती द्विपदी (मत्ला), अंतिम द्विपदी (मक़्ता), तुकांत (काफ़िया), पदांत (रदीफ़), भार (वज़्न), लयखण्ड या गण (रुक्न), छंद (बह्र) हिंदी ग़ज़ल के तत्व हैं।
छंद
अन्य गीति रचनाओं की तरह हिंदी ग़ज़ल भी लयखण्ड (रुक्न, बहुवचन अरकान) तथा छंद (बह्र) का प्रयोग कर रची (कही) जाती है। गण के आधार पर छंद के दो प्रकार एक गणीय छंद (मुफर्रद बह्र) तथा मिश्रित गणीय छंद (मुरक्कब बह्र) हैं। हिंदी ग़ज़ल के दो और प्रकार एक छंदीय ग़ज़ल और बहुछंदीय ग़ज़ल भी हैं जो उर्दू ग़ज़ल में नहीं हैं। डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के अनुसार 'उर्दू ग़ज़ल की लगभग सभी बहरें हिंदी के मात्रिक या वर्णिक छंदों से निकली हैं।' २८ मैंने, रसूल अहमद 'सागर बक़ाई' डॉ. गौतम, साज जबलपुरी ने हिंदी छंदों पर आधारित ग़ज़लें लिखने का श्रीगणेश लगभग ४ दशक पूर्व किया था। 'बह्र नहीं तो ग़ज़ल नहीं' लिखकर महावीर प्रसाद 'मूकेश' ग़ज़ल में छंद की अपरिहार्यता बताते हैं।३० उत्तम (मुरस्सा) ग़ज़ल की विशेषता बताते हुए रामप्रसाद शर्मा 'महर्षि' लिखते हैं 'एक ओर नाद सौंदर्य हो तो दूसरी ओर भाषा और भाव का सौंदर्य। ३१
अलंकार व रस
अलंकार (सनअत) हिंदी ग़ज़ल के लालित्य और चारुत्व में वृद्धि कर ग़ज़ल में आकर्षण उत्पन्न कर, गज़लकार की कहन को पठनीय, श्रवणीय और मननीय बनाते हैं। हिंदी ग़ज़ल में अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, रूपक, संदेह, भ्रांतिमान, व्यतिरेक, स्मरण, दीपक, दृष्टांत, व्याजस्तुति पुरुक्तिवदाभास, अन्योक्ति आदि के प्रयोग मैंने हुए अन्य ग़ज़लकारों ने किए है। हिंदी ग़ज़ल में रस सलिला का प्रवाह अबाध होता रहा है।
'शफ़क़-गुलाली' : हिंदी ग़ज़ल का गुलदस्ता
हिंदी ग़ज़ल का ताज़ा-तरीन गुलदस्ता लेकर तसरीफ लाई हैं शाने-अवध लखनऊ से सुनीता सिंह। इन ग़ज़लों में मौलिकता, सुरुचि संपन्नता और ताज़गी सहज ही देखी जा सकती है। ये गज़लें सूरत-हाल का आईना हैं। इश्को-माशूक की खाम ख़याली से परहेज़ इन ग़ज़लों की खासियत है। इन ग़ज़लों में हिंदी के कई छंदों का सफल सार्थक प्रयोग किया गया है।
शायरा के हौसले की दाद दी जाना चाहिए जब वह आसमानी रब से भी सवाल करती है। गीतिका छंद में कही गई ग़ज़ल का यह शेर देखिए -
आसमां में बैठकर करता वहाँ क्या रब बता?
साँस बेकल डूबती तो भी सदाएँ चाहिए?
कोरोना की मार ने इंसानी रिश्तों-नातों और अहसासों को किस हद तक नुक्सान पहुँचाया, उपमान छंद में कहा गया एक शेर सूरते-हालात बयां करता है -
वहम की बात नहीं है, यकीन हारा था।
बहुत करीब थे लेकिन, फिसल गये नाते।।
रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें अमूमन बड़ी बनकर नज़दीकियों को दूरियों में बदल देती हैं। अरुण छंद में यह अनुभूति बखूबी अभिव्यक्त की गयी है -
बात ही बात में बात बढ़ती गयी।
बात भूली न तल्खी मगर जा रही।।
अरुण छंद में इससे अलग मिजाज की ग़ज़ल का मजा लें -
गुनगुनाता हुआ आसमां देखिए।
खास है ये नज़ारा ज़रा देखिए।।
आ रही कहकशां से सुहानी सदा।
रौशनी का जहां चाँद का देखिए।।
'जैसी करनी वैसी भरनी' की लोकोक्ति को चित्रपटीय गीत में 'कर्म किये जा फल की चिंता मत कर रे इंसान / जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान् / ये है गीता का ज्ञान' कहकर अभिव्यक्त किया गया है। मुक्तामणि छंद में इसी बात को सुनीता जी ने बेहद खूबसूरती से एक ग़ज़ल में पिरोया है -
बरबादियाँ कहीं पर तो सुकून है कहीं पर।
कर्मों से तय हमेशा अंजाम ज़िंदगी का।।
कहने लगा जमाना मुश्किल बहुत है जीना।
बनता रहे तमाशा सरे-आम ज़िंदगी का।।
'दीवार से सिर फोड़ना' मुहावरे का प्रयोग इस शे'र की खासियत है-
वक़्त का साज है, वक़्त का राज है।
सर न दीवार पर फोड़ना चाहिए।।
मुहावरों को लेकर कहे गए कुछ अशआर मजा लीजिए। ऐसे अशआर लिखना आसान नहीं होता। शायरा दाद की हक़दार है।
हम तो सरसों उगाने चले हाथ पर।
एक फूटी भी कौड़ी नहीं हाथ पर।।
हाथ आगे किसी के पसारे नहीं।
बनती गयी बात ही बात पर।।
योजनाएँ खटाई में पड़ गयीं।
ख़ाक में जाते मिल छानते ख़ाक पर।।
होश तो उड़ गये पर जताया नहीं।
खार खाता जहां मेरे ज़ज़्बात पर।।
कोई अपनी खबर खोज लेता नहीं।
बेतकल्लुफ हुए अपने हालात पर।।
हम तो खिचड़ी हैं अपनी पकाते अलग।
ज़िंदगी थाम लेते हैं हर मात पर।।
'क्यों कवायद सदा जूझने की रहे?', 'चाहना और पाना अलग बात है', 'ख्वाब टूटे हैं पर मलाल नहीं', 'गुल हमेश खिला नहीं करते', 'ज़िंदगी भी हमें सिखाती है', 'निराश जब दिल हो हर तरफ से, सहारा मिलता इबादतों में', 'कोशिश न बेहतरी के लिए रुकनी चाहिए', 'रहा किसी से गिला न शिकवा, फ़क़ीर जैसी हुई है फितरत' जैसे मिसरे गागर में सागर की तरह, कम लफ्जों में गहरी बात कहते हैं। इनसे गज़लसरा की भाषाई पकड़ पता चलती है।
दुष्यंत कुमार ने हालत से बेजार हो कर कहा था -'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो', सुनीता का शायर मन समय की विसंगतियों को देखते हुए लिखता है -
'अब इन हवाओं बदलना हो जरूरी है गया'
शायरी-आज़म मेरे तकी मेरे की मशहूर ग़ज़ल है 'पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है', सुनीता जी भी इस ग़ज़ल के असर को अपने रंग में ढालकर कहती हैं-
गुमसुम-गुमसुम मद्धम-मद्धम लय गीतों की लगती है।
जाने कैसा सावन बरसे, भीगी खुश्की रहती है।।
आँगन-आँगन बस्ती-बस्ती, पत्ते-पत्ते बूटों में।
बूँद बरसती सावन की जो नज़्म रूहानी कहती है।।
वक़्त और हालात की दुश्वारियों का तकाज़ा है कि एक साथ रहा जाए। सुनीता जी जानती हैं की मुश्किलों को हसालों से ही जीता जा सकता है। वे अपने तमाम पाठकों तक यह पैगाम ग़ज़ल के जरिए पहुँचाती हैं-
दुआ में हाथ उठें, दौर मुश्किलों का है।
सभी के साथ चलें, दौर मुश्किलों का है।।
बता रही दुश्वारी न जीत पाओगे
दिखे जो छाँव छले, दौर मुश्किलों का है।।
चलो दिखा दें कलेजा की हम भी रखते हैं।
ये हौसले न ढलें, दौर मुश्किलों का है।।
जम्हूरियत के इस दौर में आम आदमी अपने नेताओं से परेशां है, किस पर भरोसा करे किस पर नहीं, यही समझ नहीं आता। जिस सिक्के को आजमाया वही खोटा निकला। एवं को हर नुमाइंदे से नाउम्मीदी ही हुई। सुनीता अपनी बात इस तरह कहती हैं -
वो रहनुमा मेरा जिस पर जां निसार थी।
संग उसके ही गम गयी, मेरी बहार थी।।
वो जिस पे नाज़ था मुझे, मेरा नसीब था।
जो अनसुनी थी रह गयी, मेरी पुकार थी।।
हालात कितने भी ख़राब हों, मायूसी से कोई हल नहीं निकलता। कामयाबी मिले न मिले, कोशिश बदस्तूर जारी रहनी चाहिए। बकौल शायरे-वक़्त फ़िराक़ गोरखपुरी 'ये माना ज़िंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी / खुदा को पा गया वाइज मगर है / जरूरत आदमी को आदमी की'। साहिर लुधियानवी लिखते हैं - 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया / हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया / मनाना फज़ूल था / बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया'। सुनीता फ़िराक के शहर की रहनेवाली हैं। वे हालत और वक़्त को अपने नज़रिए से देखती-परखती हैं और फिर कहती हैं -
हँसी-खुशी गुजारिए ये चार दिन की ज़िंदगी।
न रोइए-रुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
यहाँ-वहाँ कहाँ-कहाँ सुकून ढूँढता जिया।
जरा ठहर भी जाइए ये चार दिन की ज़िंदगी।।
न कामयाब हो सके, न ख्वाब जी सके कभी।
अजी न ग़म मनाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
धुआँ-धुआँ भरा जो दिल, सुलग रहा सिगार सा।
गुबार सब निकालिए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
अगर न गुल खिले चमन, उदास क्यों हुई फ़िज़ा।
बहार फिर बुलाइए, ये चार दिन की ज़िंदगी।।
हिंदी ग़ज़ल की खासियत और खसूसियत यही है कि वह सांसारिक और आध्यात्मिक पहलुओं को सिक्के के दो पहलुओं, धूप-छाँव, हार-जीत या फूल-शूल की तरह एक साथ कहती है। सुनीता इससे पूरी तरह वाक़िफ़ हैं।
आँख खोली तो देखा सहर हो गयी।
शबनमी सी सुहानी पहर हो गयी।।
दिल हमारा-तुम्हारा खुदा पा गया।
ये मुहब्बत रूहानी अगर हो गयी।।
जो दिया, जैसा दिया, उसने दिया, शिकवा न कर। यह फलसफा हर खासो-आम के काम आता है। सुनीता कहती हैं-
सफर ये ज़िन्दगी का भला या बुरा।
तौल करनी नहीँ, बस गुजर हो गयी।।
चौरासी हिंदी ग़ज़लों का यह गुलदस्ता अलग-अलग रूप-रंग-खुशबू के गुलों से बाबस्ता है। हर तितली और भँवरे का यहाँ स्वागत है। सपनों और सच्चाईयों दोनों की खबर रखती हैं ये ग़ज़लें। इनमें ज़िन्दगी के अलहदा-अलहदा पहलू इस तरह नुमाया हुए हैं कि वाह वाह कहने का मन होता है।
खवाबों का इक मकान बनता है आदमी।
चुन-चुन के ईंट उसमें लगता है आदमी।।
ढूँढे सुई भी रेत से, सीने को ज़िंदगी।
दिल चाक अपना सबसे छिपाता है आदमी।।
जाती है रात दे के सुहानी सी भोर को।
फिर तीरगी में हार क्यों जाता है आदमी।।
इन ग़ज़लों में वतनपरस्ती का पैगाम भी है और खुदाई वज़ूद का इमकान भी -
जब-जब वतन की आन पे हो आँच आ रही।
होना ही जां को देश पर कुर्बान चाहिए।।
घर जलता देख दूसरे का हँसना छोड़िए।
करना किसी को भी न परेशान चाहिए।।
थामा है रब ने जब भी जहाँ ठोकरें लगीं।
अब और क्या वज़ूद का फरमान चाहिए।।
चचा ग़ालिब फरमाते हैं - 'दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना', सुनीता का नजरिया अलग है -
आग जलने लगी हवा पाकर।
दर्द मिटने लगा दवा पाकर।।
एकटक देखती रहीं आँखें।
आप आये नहीं पता पाकर।।
लिख रही है कलम ग़ज़ल कोई।
उनकी भेजी हुई सदा पाकर।।
रे त सी रौशनी फिसलती है।
इक झरोखा कहीं जरा पाकर।।
मानविकीकरण का एक उदाहरण देखें -
वो सूरज हमारी तरह लग रहा है।
सुबह रोज उठता मगर फिर ढला है।।
निराशा और आशा का चोली-दामन का सा साथ है। किसी एक से ज़िंदगी मुकम्मल नहीं होती है। सुनीता ने ग़ज़लों में जगह-जगह दोनों रंग पिरोये हैं। बतौर नमूना देखिए-
मुट्ठी में कैद रेत फिसलती चली गयी।
सहरा मेरी उम्मीद पे हँसती गयी।।
बरसात जो थी संग लिए रंग आ रही।
बिन बरसे मेरे घर से निकलती चली गयी।।
*
लहरा रहे हैं फूल जो सरसों के खेत में।
मन मोहने की उनकी कला भी तो कम नहीं।।
वो दूर शफक पर है सुनहरी सी लालिमा।
उससे मिली उम्मीद ये, दिल का भरम नहीं।।
'शफ़क़-गुलाली' की ग़ज़लों की जुबान आम आदमी की बोलचाल की है। आजकल भाषाई शुद्धता के नाम पर कुछ अलफ़ाज़ को उपयोग न करने का जो जाहिलाना माहौल बनाया जा रहा है, उसकी ख़िलाफ़त इसी तरह की जुबान के जरिये से की जानी चाहिए। सुनीता जी मुबारकबाद की हकदार हैं, वे सरकारी मुलाजिम होते हुए भी अपनी रूह की आवाज़ सुनती हैं और उसे गीतों, दोहों, ग़ज़लों की शक्ल में अवाम तक पहुँचा देती हैं। 'तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा' की भावना से किया गया यह रचना कर्म वाकई काबिले तारीफ है। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस दीवान को तारीफ मिलेगी और सुनीता दिन-ब-दिन ज्याद: से ज्याद: शिद्दत से यह कलमी सफर जारी रखकर बुलंदियों छुएँगी।
संदर्भ -
१. शमीमे बलाग़त, सफा ४६, २. जदीद उर्दू शायरी, सफा ४८, ३. जदीद उर्दू शायरी, सफा २६०, ४. तारीखी तनक़ीद, सफा १०१, ५. शेरुअल हिन्द, भाग २, सफा २८९, ६. तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, सफा १४४, ७. तनक़ीद क्या है?, सफा १३३, ८. उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, सफा ९२, ९. फन और तनक़ीद : ग़ज़ल का फन सफा २२१, १०. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, ११. गीतिकायनम, पृष्ठ १५, १२-१९. हिंदी ग़ज़ल स्वरूप और विकास, डॉ. अस्थाना, २०. उर्दू कविता और छंद शास्त्र, २१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १८, २२. साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल - शिल्प और चेतना पृष्ठ २६४, २३. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १९, २४. ग़ज़ल ज्ञान, ११, २५. जनसत्ता २६-८-२०१८, २६. ग़ज़ल ज्ञान पृष्ठ ११३, २७. ग़ज़ल : रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, २८. एक बह्र पर एक ग़ज़ल, ११-१२, २९. गीतिकालोक पृष्ठ १२, ३०. ग़ज़ल छंद चेतना पृष्ठ ३१. ग़ज़ल सृजन, पृष्ठ १३।
२३.१०.२०२१
***
लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी
‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव वर्मा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नई है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नई शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.
लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.
सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.
सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
***
मुक्तिका:
*
रात चूहे से चुहिया यूँ बोली
तू है पोरस तो मैं सिकंदर हूँ
.
चौंक चूहा छिपा के मुँह बोला:
तू बँदरिया, मैं तेरा बंदर हूँ
.
शोख चुहिया ने हँस जवाब दिया:
तू न गोरख, न मैं मछंदर हूँ
*
तू सुधा मेरी, मान जा प्यारी!
मैं तेरा अपना दोस्त चन्दर हूँ
.
दिया नहले पे दहला चुहिया ने
तू है मंदर मगर मैं मंदिर हूँ
.
सर झुका चूहे ने सलाम किया:
मलिका तूफान, मैं बवंडर हूँ
.
जा किनारे खड़े लहर गिनना
याद रखना कि मैं समंदर हूँ
.
बाहरी दुनिया मुबारक हो तुझे
तू है बाहर, मैं घर के अंदर हूँ
२३-१०-२०१५
***
जनक मुक्तक
*
मिल त्यौहार मनाइए
गीत ख़ुशी के गाइए
साफ़-सफाई सब जगह
पहले आप कराइए
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता।
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में
माँगी फीस वकील ने
अकल आ गयी ठिकाने
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का
पर न हो सका दिलों का
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का
*
शैलेन्द्र नगर, रायपुर
***
दोहा दीप
रांगोली से अल्पना, कहे देखकर चौक
चौंक न घर पर रौनकें, सूना लगता चौक
बाती मन, तन दीप से, कहे न देना ढील
बाँस प्रयासों का रखे, ऊँचा श्रम-कंदील
नेता जी गम्भीर हैं, सुनकर हँसते लोग
रोगी का कब डॉक्टर , किंचित करते सोग?
चाह रहे सब रमा को, बिसरा रहे रमेश
याचक हैं सौ सुरा के, चाहें नहीं सुरेश
रूप-दीप किस शिखा का, कहिए अधिक प्रकाश?
धरती धरती मौन जब, पूछे नीलाकाश
दोहा दीप जलाइए, स्नेह स्नेह का डाल
बाल न लेकिन बाल दें, करिए तनिक सम्हाल
कलम छोड़कर बाण जब, लगे चलने बाण
शशि-तारे जा छिप गए हो संकट से त्राण
दीपोत्सव, रायपुर
२३.१०.२०१४.
***
नवगीत:
मंज़िल आकर
पग छू लेगी
ले प्रदीप
नव आशाओं के
एक साथ मिल
कदम रखें तो
रश्मि विजय का
तिलक करेगी
होनें दें विश्वास
न डगमग
देश स्वच्छ हो
जगमग जगमग
भाग्य लक्ष्मी
तभी वरेगी
हरी-भरी हो
सब वसुंधरा
हो समृद्धि तब ही
स्वयंवरा
तब तक़दीर न
कभी ढलेगी
२३-१०-२०१४
***

रविवार, 22 अक्टूबर 2023

मानस, उर्दू मुक्तक, दोहा, हीरो वाधवानी, लघुकथा, विजया दशमी, नवगीत

मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
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मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
विजया दशमी पर दोहे
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भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..
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आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..
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मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..
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शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..
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राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..
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दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..
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सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..
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हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..
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कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..
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हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..
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रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
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अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच.
धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच..
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राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत.
सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत..
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दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.
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आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास.
द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास..
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रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति.
राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति..
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मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम.
शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम..
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शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्.
शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात..
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माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..
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सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व.
'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व..
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कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब.
उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब..
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सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन.
बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन..
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शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य.
सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य..
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सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार.
अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार..
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जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ.
कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ.
.
जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल.
छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल..
.
रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ.
रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ..
.
देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ.
बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ..
.
निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम.
रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम..
.
राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम.
'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम..
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो

सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४

***

गीत:

कौन रचनाकार है?....

*

कौन है रचना यहाँ पर?,

कौन रचनाकार है?

कौन व्यापारी? बताओ-

क्या-कहाँ व्यापर है?.....

*

रच रहा वह सृष्टि सारी

बाग़ माली कली प्यारी.

भ्रमर ने मधुरस पिया नित-

नगद कितना?, क्या उधारी?

फूल चूमे शूल को,

क्यों तूल देता है ज़माना?

बन रही जो बात वह

बेबात क्यों-किसने बिगारी?

कौन सिंगारी-सिंगारक

कर रहा सिंगार है?

कौन है रचना यहाँ पर?,

कौन रचनाकार है?

*

कौन नट-नटवर नटी है?

कौन नट-नटराज है?

कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?

कहाँ नग-गिरिराज है?

कौन चाकर?, कौन मालिक?

कौन बन्दा? कौन खालिक?

कौन धरणीधर-कहाँ है?

कहाँ उसका ताज है?

करी बेगारी सभी ने

हर बशर बेकार है.

कौन है रचना यहाँ पर

कौन रचनाकार है?....

*

कौन सच्चा?, कौन लबरा?

है कसाई कौन बकरा?

कौन नापे?, कहाँ नपना?

कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.

कौन ढांके?, कौन खोले?

राज सारे बिना बोले.

काज किसका?, लाज किसकी?

कौन हीरा?, कौन कचरा?

कौन संसारी सनातन

पूछता संसार है?

कौन है रचना यहाँ पर?

कौन रचनाकार है?

२२.१०.२०१०

***

शुक्रवार, 20 अक्टूबर 2023

महावीर छंद, उत्प्रेक्षा अलंकार, लघुकथा


हिन्दी के नये छंद- १४
महावीर छंद
हिंदी के नए छंदों की श्रुंखला में अब तक आपने पढ़े पाँच मात्रिक भवानी, राजीव, साधना, हिमालय, आचमन, ककहरा, तुहिणकण, अभियान, नर्मदा, सतपुडा छंद। अब प्रस्तुत है षड्मात्रिक छंद महावीर
विधान-
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा।
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु गुरु गुरु लघु।
गीत
.
नमस्कार!
निराकार!!
.
रचें छंद
निरंकार।
भरें भाव
अलंकार।
मिटे तुरत
अहंकार।
रहें देव
इसी द्वार।
नमस्कार!
निराकार!!
.
भरें बाँह
हरें दाह।
करें पूर्ण
सभी चाह।
गहें थाह
मिले वाह।
लगातार
करें प्यार
नमस्कार!
निराकार!!
२०-१०-२०१७
***
मुक्तक
आपने चाहा जिसे वह गीत चाहत के लिखेगा
नहीं चाहा जिसे कैसे वह मिलन-अमृत चखेगा?
राह रपटीली बहुत है चाह की, पग सम्हल धरना
जान लेकर हथेली पर जो चले, आगे दिखेगा
२०-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला :
उत्प्रेक्षा अलंकार
*
जब होते दो वस्तु में, एक सदृश गुण-धर्म
एक लगे दूजी सदृश, उत्प्रेक्षा का मर्म
इसमें उसकी कल्पना, उत्प्रेक्षा का मूल.
जनु मनु बहुधा जानिए, है पहचान, न भूल..
जो है उसमें- जो नहीं, वह संभावित देख.
जानो-मानो से करे, उत्प्रेक्षा उल्लेख..
जब दो वस्तुओं में किसी समान धर्म(गुण) होने के कारण एक में दूसरे के होने की सम्भावना की जाए तब वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. सम्भावना व्यक्त करने के लिये किसी वाचक शब्द यथा मानो, मनो, मनु, मनहुँ, जानो, जनु, जैसा, सा, सम आदि का उपयोग किया जाता है.
उत्प्रेक्षा का अर्थ कल्पना या सम्भावना है. जब दो वस्तुओं में भिन्नता रहते हुए भी उपमेय में उपमान की कल्पना की जाये या उपमेय के उपमान के सदृश्य होने की सम्भावना व्यक्त की जाये तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है. कल्पना या सम्भावना की अभिव्यक्ति हेतु जनु, जानो, मनु, मनहु, मानहु, मानो, जिमी, जैसे, इव, आदि कल्पनासूचक शब्दों का प्रयोग होता है..
उदाहरण:
१. चारू कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए..
यहाँ श्रीकृष्ण के मुख पर झूलती हुई लटों (प्रस्तुत) में मत्त मधुप (अप्रस्तुत) की कल्पना (संभावना) किये जाने के कारण उत्प्रेक्षा अलंकार है.
२. फूले कांस सकल महि छाई.
जनु वर्षा कृत प्रकट बुढाई..
यहाँ फूले हुए कांस (उपमेय) में वर्षा के श्वेत्केश (उपमान) की सम्भावना की गयी है.
३. फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन.
फूली रहे तारे मानो मोती अनगन हैं..
४. मानहु जगत क्षीर-सागर मगन है..
५. झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाए.
६. मनु आतप बारन तीर कों, सिमिटि सबै छाये रहत.
७. मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज शोभा.
८. तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप, उठे न चलहिं लजाइ.
मनहुँ पाइ भट बाहुबल, अधिक-अधिक गुरुवाइ..
९. लखियत राधा बदन मनु विमल सरद राकेस.
१०. कहती हुए उत्तरा के नेत्र जल से भर गए.
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए..
११. उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने लगा.
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा..
१२. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये.
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए..
१३. नित्य नहाता है चन्द्र क्षीर-सागर में.
सुन्दरि! मानो तुम्हारे मुख की समता के लिए.
१४. भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद ऋतु पाइ.
सद्गुरु मिले जाहि जिमि, संसय-भ्रम समुदाइ..
१५. रिश्ता दुनियाँ में जैसे व्यापार हो गया।
बीते कल का ये मानो अखबार हो गया।। -श्यामल सुमन
१६. नाना रंगी जलद नभ में दीखते हैं अनूठे
योधा मानो विविध रंग के वस्त्र धारे हुए हैं
१७. अति कटु बचन कहति कैकेई, मानहु लोन जरे पर देई
१८. दूरदर्शनी बहस ज्यों बच्चे करते शोर
'सलिल' न दें परिणाम ज्यों, बंजर भूमि कठोर
***
लघुकथा:
जले पर नमक
*
- 'यार! ऐसे कैसे जेब कट गयी? सम्हलकर चला करो.'
= 'कहते तो ठीक हो किन्तु कितना भी सम्हलकर चलो, कलाकार हाथ की सफाई दिखा ही देता है.'
- 'ऐसा कहकर तुम अपनी असावधानी पर पर्दा नहीं डाल सकते।'
= 'पर्दा कौन कम्बख्त डाल रहा है? जेबकतरे तो पूरी जनता जनार्दन की जेब काट रहे हैं पिछले ६७ सालों से कौन रोक पाया और कौन बच पाया?'
- 'तुम किस की बात कर रहे हो ?'
=' उन्हें की जो चुनाव की चौपड़ पर आश्वासन के पांसे फेंककर जनमत की द्रौपदी का दिल्ली के दरबार में दिन दहाड़े चीरहरण ही नहीं करते, प्यादों को शह देकर दाल, प्याज जैसी चीजों की जमाखोरी कर कई गुना ऊँचे दामों पर बिकवाकर जन गण की जेब कतरते रहते हैं. इतना ही नहीं दु:शासनी जनविरोधी नीतियों के पक्ष में दूरदर्शन पर गरज-गरज कर जन के जले मन पर नमक भी छिड़कते हैं.'
-'तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है .....'
***
लघुकथाः
मुखड़ा देख ले
*
कक्ष का द्वार खोलते ही चोंक पड़े संपादक जी| गाँधी जी के चित्र के ठीक नीचे विराजमान तीनों बंदर दो थिगड़े लपेटे कमर मटकाती बंदरिया को ताकते हुए मुस्कुरा रहे थे|
आँखें फाड़कर घूरते हुए पहले बंदर के गले में लटकी पट्टी पर लिखा था- 'बुरा ही देखो'|
हाथ में माइक पकड़े दिगज नेता की तरह मुँह फाड़े दूसरे बंदर का कंठहार बनी पट्टी पर अंकित था- 'बुरा ही बोलो'|
'बुरा ही सुनो' की पट्टी दीवार से कान सटाये तीसरे बंदर के गले की शोभा बढ़ा रही थी|
'अरे! क्या हो गया तुम तीनों को?' गले की पट्टियाँ बदलकर मुट्ठी में नोट थामकर मेज के नीचे हाथ क्यों छिपाये हो? संपादक जी ने डपटते हुए पूछा|
'हमने हर दिन आपसे कुछ न कुछ सीखा है| आज प्रैक्टिकल कर रहे हैं कोई कमी रह गयी हो तो बतायें|'
ठगे से खड़े संपादक जी के कानों में गूँज रहा था- 'मुखड़ा देख ले प्राणी जरा दर्पण में ...'
२०-१०-२०१५
***

सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

मुक्तक, गीत, रूपक अलंकार, हाइकु, नवगीत


***
मुक्तक
*
'पुष्पा' महका जीवन पूरा, 'गीता' पढ़कर हर मानव का।
'राम रतन' जड़ गया श्वास में, गहना आस ध्येय हो सबका।।
'छाया' है 'बसंत' की पल-पल, यह 'प्रताप' रेवा मैया का-
'निशि'-वासर 'जिज्ञासु' रहे मन, दर्श करें 'गिरीश' तांडव का।।
*
'आकांक्षा' 'अनुकृति' हो पाएँ, अपने आदर्शों की हम भी।
आँसू पोंछ सकें कोई हम, हों 'एकांश' प्रकृति संग ही।।
बनें सहारा निर्बल का हरि, दीनबंधु बन पाए सत्ता-
लिखें कहानी बार-बार हम, नचिकेता यम की।।
*
'विजय' वर सके 'ममता' नारी, 'श्रद्धा' की सींचें फुलवारी।
भाष 'सुभाष' छू सके दिल को, महका दें भारत की क्यारी।।
जगवाणी हो हिन्दी अपनी, बुद्धि 'विनीता' रहे हमेशा -
कंकर में शंकर देखें हम, आदमियत हो मंज़िल न्यारी।।
१६-१०-२०२१
***
गीत
*
लछमी मैया!
माटी का कछु कर्ज चुकाओ
*
देस बँट रहो,
नेह घट रहो,
लील रई दीपक खों झालर
नेह-गेह तज देह बजारू
भई; कैत है प्रगतिसील हम।
हैप्पी दीवाली
अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ
*
मूँड़ मुड़ाए
ओले पड़ रए
मूरत लगे अवध में भारी
कहूँ दूर बनवास बिता रई
अबला निबल सिया-सत मारी
हाय! सियासत
अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे
तनिक चुपाओ
*
नकली टँसुए
रोज बहाउत
नेता गगनबिहारी बन खें
डूब बाढ़ में जनगण मर रओ
नित बिदेस में घूमें तन खें
दारू बेच;
पिला; मत पीना कैती जो
बो नीति मिटाओ
१६-१०-२०१९
***
दोहा
पहले खुद को परख लूँ, तब देखूँ अन्यत्र
अपना खत खोला नहीं, पा औरों का पत्र
१६-१०-२०१७
***
अलंकार सलिला : २२ : रूपक अलंकार
एक वर्ण्य का हो 'सलिल', दूजे पर आरोप
अलंकार रूपक करे, इसका उसमें लोप
*
इसको उसका रूप दे, रूपक कहता बात
रूप-छटा मन मोह ले, अलंकार विख्यात
*
किसी वस्तु को दे 'सलिल', जब दूजी का रूप
अलंकार रूपक कहे, निरखो छटा अनूप
*
जब कवि एक व्यक्ति या वस्तु को किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु रूप देता है तो रूपक अलंकार होता है। रूपक में मूल का अन्य में उसी तरह लोप होना बताया बताया जाता है जैसे नाटक में पात्र के रूप में अभिनेता खुद को विलीन कर देता है।
उदाहरण:
१. चरन-सरोज पखारन लागा
२. निष्कलंक यश- मयंक,
पैठ सलिल-धार-अंक
रूप निज निहारता
जब प्रस्तुत या उपमेय पर अप्रस्तुत या उपमान का निषेधरहित आरोप किया जाता है तब रूपक अलंकार होता है। यह आरोप २ प्रकार का होता है। प्रथम अभेदात्मक या वास्तविक तथा द्वितीय भेदात्मक, तद्रूपात्मक या आहार्य। इस आधार पर रूपक के २ प्रकार या रूप हैं। अ. अभेद रूपक एवं आ. तद्रूप रूपक।
उक्त दोनों के ३ उप भेद क. सम, ख. अधिक तथा ग. न्यून हैं।
उदाहरण:
क. सम अभेद रूपक:
१. उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग
विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग
२. नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम
ख. अधिक अभेद रूपक:
जिस अभेद रूपक में समानता होते हुए भी उपमेय को उपमान से कुछ अधिक दिखाया या बताया जाता वहाँ अधिक अभेद रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. नव वधु विमल तात जस तोरा। रघुवर किंकर कुमुद चकोरा ।।
उदित सदा अथ इहि कबहू ना। घटिहि न जग नभ दिन-दिन दूना।।
२. केसरि रंग के अंग की वास वसी रहै याही से पास घनेरी।
चित्रमयी क्षिति भीति सवै रघुनाथ लसै प्रतिबिंबिनि घेरी।।
प्यारी के रूप अनूप की और कहाँ लौ कहौं महिमा बहुतेरी।
आनन चंद की कैसी अमंद रहै घर में दिन-रात उजेरी।।
ग. न्यून या हीन अभेद रूपक:
जहाँ उपमेय में उपमान से कुछ कमी होने पर भी अभेदता स्पष्ट की जाती है, वहाँ न्यून या हीन अभेद रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. उषा रंगीली किन्तु सजनि उसमें वह अनुराग नहीं
निर्झर में अक्षय स्वर-प्रवाह है पर वह विकल विराग नहीं
ज्योत्स्ना में उज्ज्वलता है पर वह प्राणों का मुस्कान नहीं
फूलों में हैं वे अधर किंतु उनमें वह मादक गान नहीं
२. आई हौं देखि सराहे न जात हैं, या विधि घूँघट में फरके हैं
मैं तो जानी मिले दोउ पीछे ह्वै कान लख्यो कि उन्हें हरके हैं
रंगनि ते रूचि ते रघुनाथ विचारु करें कर्ता करके हैं
अंजन वारे बड़े दृग प्यारि के खंजन प्यारे बिना परके हैं
च. सम तद्रूप रूपक :
जहाँ उपमेय को उपमान का दूसरा रूप कहा जाता है वहाँ सम रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. दृग कूँदन को दुखहरन, सीत करन मनदेस
यह वनिता भुव लोक की, चन्द्रकला शुभ वेस
२. मन-मेकल गिरिशिखर से, नेह-नर्मदा धार
बह तन-मन की प्यास हर, बाँटे हर्ष अपार
छ. अधिक तद्रूप :
जब उपमेय और उपमान की तद्रूपता दर्शायी जाते समय उपमेय में कोई बात अधिक हो, तब अधिक तद्रूप रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. लगत कलानिधि चाँदनी, निशि में ही अभिराम
दिपति अपर विधु वदन की, आभा आठों जाम
२. अर्धांगिनी बहिना सुता, नहीं किसी का मोल
माँ की ममता है मगर, सचमुच ही अनमोल
ज. न्यून या हीन तद्रूप रूपक :
जहाँ उपमेय में उपमान से यत्किंचित न्यून गुण होने पर भी तद्रूपता दिखाई जाए, वहाँ न्यून तद्रूप रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. दुइ भुज के हरि रघुवर सुंदर वेष
एक जीभ के लछिमन दूसर सेष
रस भरे यश भरे कहै कवि रघुनाथ रंग भरे रूप भरे खरे अंग कल के
कमलनिवास परिपूरन सुवास आस भावते के चंचरीक लोचन चपल के
जगमग करत भरत ड्यटी दीह पोषे जोबन दिनेश के सुदेश भुजबल के
गाइबे के जोग भये ऐसे हैं अम्मल फूले तेरे नैन कोमल कमल बिनु जल के
२. राम-श्याम अभिराम हैं, दोनों हरि के रूप
लड़ते-लड़वाते रहे, जीत-जिता अपरूप
रूपक के ३ अन्य भेद सांग, निरंग तथा परम्परित हैं।
इ. सांग रूपक :
जब उपमेय का उपमान पर आरोप करते समय उपमेय के अंगों का भी उपमान के अंगों पर आरोप किया जाए तो वहां सांग (अंग सहित) रूपक होता है। सांग में उपमेय-उपमान समानता स्थापित करते समय उनके अंगों की भी समानता स्थापित की जाती है।
उदाहरण:
१. ऊधो! मेरा हृदयतल था एक उद्यान न्यारा
शोभा देतीं अमित उसमें कल्पना-क्यारियाँ थीं
न्यारे-न्यारे कुसुम कितने भावों के थे अनेकों
उत्साहों के विपुल विटपी मुग्धकारी महा थे
लोनी-लोनी नवल लतिका थीं अनेकों उमंगें
सद्वाञ्छा के विहग उसके मंजुभाषी बड़े थे
धीरे-धीरे मधुर हिलतीं वासना-बेलियाँ थीं
प्यारी आशा-पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के
यहाँ ह्रदय को उद्यान बताते हुए उद्यान के अंगों की हृदय के अंगों से सामंता स्थापित की गई है: उद्यान - ह्रदय, क्यारियाँ -कल्पनाएँ, कुसुम - ह्रदय के विविध भाव, वृक्ष - उत्साह, लतिकाएँ - उमंगें, पक्षी - सदवांछाएँ, बेलें - वासनाएँ, पवन - आशा। लोनी = सुन्दर।
२. मेरे मस्तक के छत्र मुकुट वसुकाल सर्पिणी के शतफन
मुझ चिर कुमारिका के ललाट में नित्य नवीन रुधिर चंदन
आँजा करती हूँ चितधूम् का ड्रग में अंध तिमिर अञ्जन
श्रृंगार लपट की चीयर पहन, नचा करती मैं छूमछनन
क्रांति की नर्तकी से सामंता स्थापित करते हुए उनके अंगों की समानता (छत्र मुकुट - शत फन, रुधिर - चन्दन, चिताधूम - तिमिरअंजन, लपट - चीर) दर्शायी गयी है।
३. निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी
सच ही है श्रीमान! भोगते सुख वन में भी
चंद्रातप था व्योम तारका रत्न जड़े थे
स्वच्छ दीप था सोम, प्रजा तरु-पुञ्ज खड़े थे
शांत नदी का स्रोत बिछा था, अति सुखकारी
कमल-कली का नृत्य हो रहा था मन-हारी
यहाँ कानन और राज्य का साम्य स्थापित करते समय अंगोंपांगों का साम्य (चन्द्रातप - व्योम, रत्न - तारे, दीप - चन्द्रमा, प्रजा - तरु-पुञ्ज, बिछावन - शांत नदी का स्रोत, नर्तकी - कमल कली) दृष्टव्य है।
४. कौशिक रूप पयोनिधि पावन, प्रेम-वारि अवगाह सुहावन
राम-रूप राकेस निहारी, बढ़ी बीचि पुलकावलि बाढ़ी
विश्वामित्र - समुद्र, प्रेम - पानी, राम - चण्द्रमा, पुलकावलि - लहर। कौशिक = विश्वामित्र, पयोनिधि - समुद्र, बीचि = तरंग।
५. बरखा ऋतु रघुपति-भगति, तुलसी सालि-सु-दास
राम-नाम बर बरन जुग, सावन-भदों मास
राम-भक्ति - वर्षा, तुलसी जैसे रामभक्त = धान, रा म - सावन-भादों।
६. हरिमुख पंकज भ्रुव धनुष, खंजन लोचन नित्त
बिम्ब अधर कुंडल मकर, बसे रहत मो चित्त
हरिमुख - पंकज, भ्रुव - धनुष, खंजन - लोचन, बिम्ब - अधर, कुंडल - मकर।
७. चन्दन सा वदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना
मुझे दोष न देना जग वालों, हो जाऊँ अगर मैं दीवाना
ये काम कमान भँवें तेरी, पलकों के किनारे कजरारे
माथे पर सिंदूरी सूरज, ओंठों पे दहकते अंगारे
साया भी जो तेरा पड़ जाए, आबाद हो दिल का वीराना
ई. निरंग रूपक :
जब उपमेय मात्र का आरोप उपमान पर किया जाए अर्थात उपमेय-अपमान की समनता बताई उनके अंगों का उल्लेख न हो तो निरंग रूपक होता है।
उदाहरण:
१. चरण-कमल मृदु मंजु तुम्हारे
२. हरि मुख मृदुल मयंक
३. ईश्वर-अल्लाह एक समान
४. धरती मेरी माता, पिता आसमान
मुझको तो अपना सा लागे सारा जहान
५.
उ. परम्परित रूपक:
जहाँ प्रधान रूपक अन्य रूपक पर आश्रित हो, अथवा उपमेय का उपमान पर आरोपण किसी अन्य आरोप पर आधारित हो वहां परंपरित रूपक होता है। ।परंपरित में दो रूपक होते हैं। एक रूपक का कारण आधार दूसरा रूपक होता है।
उदाहरण:
१. आशा मेरे हृदय-मरु की मंजु मंदाकिनी है
यहाँ ह्रदय-मरु तथा मंजु-मंदाकनी दो रूपक हैं। आशा को मंदाकिनी बनाया जाना तभी उपयुक्त है जब हृदय को मरु बताया जा चुका हो।
२. रविकुल-कैरव विधु-रघुनायक
रविकुल को कैरव बताने के पश्चात रघुनायक को विधु बताया गया है। यहाँ २ रूपक हैं। पश्चात्वर्ती रूपक पूर्ववर्ती रूपक पर आधारित है।
३. किसके मनोज-मुख चन्द्र को निहारकर
प्रेम उर सागर सदैव है उछलता
यहाँ मुख-चन्द्र रूपक उर-सागर रूपक का आधार है।
४. प्रेम-अतिथि है खड़ा द्वार पर, ह्रदय-कपाट खोल दो तुम!
ह्रदय-कपाट का रूपक प्रेम-अतिथि के रूपक बिना अपूर्ण प्रतीत होगा।
५. यह छोटा सा शिशु है मेरा, जीवन-निशि का शुभ्र सवेरा
जीवन-निशि के रूपक पर शिशु-शुभ्र सवेरा का रूपक आधृत है.
***
***
अलंकार पहचानिए:
चन्दन सा वदन, चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना
मुझे दोष न देना जग वालों, हो जाऊँ अगर मैं दीवाना
ये काम कमान भँवें तेरी, पलकों के किनारे कजरारे
माथे पर सिंदूरी सूरज, ओंठों पे दहकते अंगारे
साया भी जो तेरा पड़ जाए, आबाद हो दिल का वीराना
*
अर्धांगिनी बहिना सुता, नहीं किसी का मोल
माँ की ममता है मगर, सचमुच ही अनमोल
*
मन-मेकल गिरिशिखर से, नेह-नर्मदा धार
बह तन-मन की प्यास हर, बाँटे हर्ष अपार
१६-१०-२०१५
***
नवगीत:
रोगों से
मत डरो
दम रहने तक लड़ो
आपद-विपद
न रहे
हमेशा आते-जाते हैं
संयम-धैर्य
परखते हैं
तुमको आजमाते हैं
औषध-पथ्य
बनेंगे सबल
अवरोधों से भिड़ो
जाँच परीक्षण
शल्य क्रियाएँ
योगासन व्यायाम न भायें
मन करता है
कुछ मत खायें
दवा गोलियाँ आग लगायें
खूब खिजाएँ
लगे चिढ़ाएँ
शांत चित्त रख अड़ो
***
मुक्तक:
कुसुम कली जब भी खिली विहँस बिखेरी गंध
रश्मिरथी तम हर हँसा दूर हट गयी धुंध
मधुकर नतमस्तक करे पा परिमल गुणगान
आँख मूँद संजीव मत सोना होकर अंध
१६-१०-२०१४
***

हाइकु
*
ईंट-रेट का
मंदिर मनहर
देव लापता
*
श्रम-सीकर
चरणामृत से है
ज्यादा पावन
*
मर मदिरा
मत मुझे पिलाना
दे विनम्रता
*
पर पीड़ा से
तनिक न पिघले
मानव कैसे?
*
मैले मन को
उजला तन प्रभु!
देते क्यों कर?
१६-१०-२०१३
***