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गुरुवार, 28 सितंबर 2023

दुर्गा, देव्या: कवचं

 चिंतन

दुर्गा पूजा
*
बचपन में सुना था ईश्वर दीनबंधु है, माँ पतित पावनी हैं।
आजकल मंदिरों के राजप्रासादों की तरह वैभवशाली बनाने और सोने से मढ़ देने की होड़ है। माँ दुर्गा को स्वर्ण समाधि देने का समाचार विचलित कर गया। इतिहास साक्षी है देवस्थान अपनी अकूत संपत्ति के कारण ही लूट को शिकार हुए। मंदिरों की जमीन-जायदाद पुजारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दी।
सनातन धर्म कंकर कंकर में शंकर देखता है।
वैष्णो देवी, विंध्यवासिनी, कामाख्या देवी अादि प्राचीन मंदिरों में पिंड या पिंडियाँ ही विराजमान हैं।
परम शक्ति अमूर्त ऊर्जा है किसी प्रसूतिका गृह में उसका जन्म नहीं होता, किसी श्मशान घाट में उसका दाह भी नहीं किया जा सकता।
थर्मोडायनामिक्स के अनुसार इनर्जी कैन नीदर बी क्रिएटेड नॉर बी डिस्ट्रायड, कैन ओनली बी ट्रांसफार्म्ड।
अर्थात ऊर्जा का निर्माण या विनाश नहीं केवल रूपांतरण संभव है।
ईश्वर तो परम ऊर्जा है, उसकी जयंती मनाएँ तो पुण्यतिथि भी मनानी होगी।
निराकार के साकार रूप की कल्पना अबोध बालकों को अनुभूति कराने हेतु उचित है किंतु मात्र वहीं तक सीमित रह जाना कितना उचित है?
माँ के करोड़ों बच्चे महामीरी में रोजगार गँवा चुके हैं, अर्थ व्यवस्था के असंतुलन से उत्पादन का संकट है, सरकारें जनता से सहायता हेतु अपीलें कर रही हैं और उन्हें चुननेवाली जनता का अरबों-खरबों रुपया प्रदर्शन के नाम पर स्वाहा किया जा रहा है।
एक समय प्रधान मंत्री को अनुरोध पर सोमवार अपराह्न भोजन छोड़कर जनता जनार्दन ने सहयोग किया था। आज अनावश्यक साज-सज्जा छोड़ने के लिए भी तैयार न होना कितना उचित है?
क्या सादगीपूर्ण सात्विक पूजन कर अपार राशि से असंख्य वंचितों को सहारा दिया जाना बेहतर न होगा?
संतानों का घर-गृहस्थी नष्ट होते देखकर माँ स्वर्णमंडित होकर प्रसन्न होंगी या रुष्ट?
दुर्गा सप्तशती में महामारी को भी भगवती कहा गया है। रक्तबीज की तरह कोरोना भी अपने अंश से ही बढ़ता है। रक्तबीज तभी मारा जा सका जब रक्त बिंदु का संपर्क समाप्त हो गया। रक्त बिंदु और भूमि (सतह) के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़ा था मैया ने। आज बेटों की बारी है। कोरोना वायरस और हवा, मानवांग या स्थान के बीच सोशल कॉन्टैक्ट तोड़कर कोरोना को मार दें। यह न कर कोरोना के प्रसार में सहायक जन देशद्रोही ही नहीं मानव द्रोही भी हैं। उनके साथ कानून वही करे जो माँ ने शुंभ-निशुंभ के साथ किया। कोरोना को मानव बम बनाने की सोच को जड़-मूल से ही मिटाना होगा।
२-४-२०२०
***
दुर्गा कवच अनुवाद-अर्थ सहित
*
मार्कण्डेय उवाच:
यद् गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह।।१।।
मार्कण्डे' बोले रहस्य जो गुप्त सर्व रक्षाकारक।
कहें पितामह है प्रसिद्ध जो कवच, बन सकूँ मैं धारक।।
मार्कण्डेय जी ने कहा है --हे पितामह! जो साधन संसार में अत्यन्त गोपनीय है, जिनसे मनुष्य मात्र की रक्षा होती है, वह साधन मुझे बताइए ।
*
ब्रह्मोवाच:
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने।।२।।
विधि बोले अति गुप्त कवच, सबका करता उपकार सदा।
देवों का है कवच पुण्य, हे महामुने!सुन लो कहता।।
ब्रह्मा जी ने कहा-हे ब्राह्मण! सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करनेवाला देवों का कवच यह स्तोत्र है, इसके पाठ करने से साधक सदैव सुरक्षित रहता है, अत्यन्त गोपनीय है, हे महामुने! उसे सुनिए ।
*
प्रथमं शैलपुत्री च,द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।३।।
शैलसुता है पहली, दूजी ब्रह्मचारिणी यह जानो।
शक्ति तीसरी शशिघंटा है, कूष्माण्डा चौथी मानो।।
हे मुने ! दुर्गा माँ की नौ शक्तियाँ हैं-पहली शक्ति का नाम शैलपुत्री ( पर्वतकन्या) , दूसरी शक्ति का नाम ब्रह्मचारिणी (परब्रह्म परमात्मा को साक्षात कराने वाली ) , तीसरी शक्ति चन्द्रघण्टा हैं। चौथी शक्ति कूष्माण्डा ( सारा संसार जिनके उदर में निवास करता हो ) हैं।
*
पंचमं स्कन्दमातेति, षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमम्।।४।।
शक्ति पाँचवी कार्तिक माता, छठवीं कात्यायनी सुनो।
कालरात्रि हैं सप्तम,अष्टम शक्ति महागौरी गुन लो।
पाँचवीं शक्ति स्कन्दमाता (कार्तिकेय की जननी) हैं। छठी शक्ति कात्यायनी (महर्षि कात्यायन के अप्रतिभ तेज से उत्पन्न होनेवाली) हैं सातवीं शक्ति कालरात्रि (महाकाली) तथा आठवीं शक्ति महागौरी हैं।
*
नवमं सिद्धिदात्री, च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि, ब्रह्मणैव महात्मना।।५।।
नौवीं शक्ति सिद्धिदात्री हैं, नौ दुर्गा ये जग जाने।
इन नामों की महिमा अनुपम, सुनो महात्मा विधि माने।।
नवीं शक्ति सिद्धिदात्री हैं और ये नव दुर्गा कही गई हैं। हे महात्मा! उक्त नामों को ब्रह्म ने बताया है।
*
अग्निना दह्यमानस्तु , शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव , भयार्ता: शरणं गता: ।।६ ।।
मनुज अग्नि में घिर जलता या, शत्रु बीच रण में घिरता।
विषम परिस्थिति में फँसता, पा दुर्गा चरण शरण बचता।।
जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, युद्ध भूमि मे शत्रुओं से घिर गया हो तथा अत्यन्त कठिन विपत्ति में फँस गया हो, वह यदि भगवती दुर्गा की शरण का सहारा ले ले ।
*
न तेषां जायते , किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि , शोक-दु:ख भयं न हि ।।७ ।।
तो इसका कभी युद्ध या संकट में कोई कुछ विगाड़ नहीं सकता , उसे कोई विपत्ति घेर नहीं सकती न उसे शोक , दु:ख तथा भय की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
यैस्तु भक्तया स्मृता नूनं , तेषां वृद्धि : प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि ! , रक्षसे तान्न संशय: ।।८ ।।
जो लोग भक्तिपूर्वक भगवती का स्मरण करते हैं , उनका अभ्युदय होता रहता है। हे भगवती ! जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं , निश्चय ही तुम उनकी रक्षा करती हो।
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा , वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा , वैष्णवी गरूड़ासना ।।९ ।।
चण्ड -मुण्ड का विनाश करने वाली देवी चामुण्डा प्रेत के वाहन पर निवास करती हैं ,वाराही महिष के आसन पर रहती हैं , ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है, वैष्नवी का वाहन गरुड़ है।
माहेश्वरी वृषारूढ़ा , कौमारी शिखिवाहना ।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी , पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१० ।।
माहेश्वरी बैल के वाहन पर तथा कौमारी मोर के आसन पर विराजमान हैं। श्री विष्णुपत्नी भगवती लक्ष्मी के हाथों में कमल है तथा वे कमल के आसन पर निवास करती हैं।
श्वेतरूपधरा देवी, ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढ़ा , सर्वाभरण भूषिता ।।११।।
श्वेतवर्ण वाली ईश्वरी वृष-बैल पर सवार हैं , भगवती ब्राह्मणी ( सरस्वती ) सम्पूर्ण आभूषणों से युक्त हैं तथा वे हंस पर विराजमान रहती हैं।
इत्येता मातर: सर्वा: , सर्वयोग समन्विता ।
नाना भरण शोभाढ्या , नानारत्नोपशोभिता: ।।१२ ।।
अनेक आभूषण तथा रत्नों से देदीप्यमान उपर्युक्त सभी देवियाँ सभी योग शक्तियों से युक्त हैं।
दृश्यन्ते रथमारूढ़ा , देव्य: क्रोधसमाकुला: ।
शंख चक्र गदां शक्तिं, हलं च मूसलायुधम् ।।१३ ।।
इनके अतिरिक्त और भी देवियाँ हैं, जो दैत्यों के विनाश के लिए तथा भक्तों की रक्षा के लिए क्रोधयुक्त रथ में सवार हैं तथा उनके हाथों में शंख ,चक्र ,गदा ,शक्ति, हल, मूसल हैं।
खेटकं तोमरं चैव, परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च , शार्ड़गमायुधमुत्तमम्।।१४।।
खेटक, तोमर, परशु , (फरसा) , पाश , भाला, त्रिशूल तथा उत्तम शार्ड़ग धनुष आदि अस्त्र -शस्त्र हैं।
दैत्यानां देहनाशाय , भक्तानामभयाय च ।
धारन्तया युधानीत्थ , देवानां च हिताय वै ।।१५ ।।
जिनसे देवताओं की रक्षा होती है तथा देवी जिन्हें दैत्यों को नाश तथा भक्तों के मन से भय नाश करने के लिए धारण करती हैं।
नमस्तेस्तु महारौद्रे, महाघोर पराक्रमें।
महाबले महोत्साहे , महाभयविनाशिनि ।।१६ ।।
महाभय का विनाश करने वाली , महान बल, महाघोर क्रम तथा महान उत्साह से सुसम्पन्न हे महारौद्रे तुम्हें नमस्कार है।
त्राही मां देवि ! दुष्प्रेक्ष्ये , शत्रूणां भयवद्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामेन्द्री , आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७ ।।
हे शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली देवी ! तुम मेरी रक्षा करो। दुर्घर्ष तेज के कारण मैं तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकता । ऐन्द्री शक्ति पूर्व दिशा में मेरी रक्षा करें तथा अग्नि देवता की आग्नेयी शक्ति अग्निकोण में हमारी रक्षा करें।
दक्षिणेअवतु वाराही , नैरित्वां खडगधारिणी ।
प्रतीच्यां वारूणी रक्षेद्- , वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८ ।।
वाराही शक्ति दक्षिन दिशा में, खडगधारिणी नैरित्य कोण में, वारुणी शक्ति पश्चिम दिशा में तथा मृग के ऊपर सवार रहने वाली शक्ति वायव्य कोण में हमारी रक्षा करें।
उदीच्यां पातु कौमारी , ईशान्यां शूलधारिणी ।
उर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेद , धस्ताद् वैष्नवी तथा ।।१९ ।।
भगवान कार्तिकेय की शक्ति कौमारी उत्तर दिशा में , शूल धारण करने वाली ईश्वरी शक्तिईशान कोण में ब्रह्माणी ऊपर तथा वैष्नवी शक्ति नीचे हमारी रक्षा करें।
एवं दश दिशो रक्षे , चामुण्डा शववाहना ।
जया मे चाग्रत: पातु , विजया पातु पृष्ठत: ।।२० ।।
इसी प्रकार शव के ऊपर विराजमान चामुण्डा देवी दसों दिशा में हमारी रक्षा करें।आगे जया ,पीछे विजया हमारी रक्षा करें।
अजिता वामपाश्वे तु , दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षे, दुमा मूर्घिन व्यवस्थिता ।।२१ ।।
बायें भाग में अजिता, दाहिने हाथ में अपराजिता, शिखा में उद्योतिनी तथा शिर में उमा हमारी रक्षा करें।
मालाधरी ललाटे च , भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रूवोर्मध्ये , यमघण्टा च नासिके ।।२२ ।।
ललाट में मालाधरी , दोनों भौं में यशस्विनी ,भौं के मध्य में त्रिनेत्रा तथा नासिका में यमघण्टा हमारी रक्षा करें।
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये , श्रोत्रयोर्द्वार वासिनी ।
कपोलो कालिका रक्षेत् , कर्णमूले तु शांकरी ।।२३ ।।ल
दोनों नेत्रों के बीच में शंखिनी , दोनों कानों के बीच में द्वारवासिनी , कपाल में कालिका , कर्ण के मूल भाग में शांकरी हमारी रक्षा करें।
नासिकायां सुगंधा च , उत्तरोष्ठे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला , जिह्वायां च सरस्वती ।।२४ ।।
नासिका के बीच का भाग सुगन्धा , ओष्ठ में चर्चिका , अधर में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती हमारी रक्षा करें।
दन्तान् रक्षतु कौमारी , कण्ठ देशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघंटा च , महामाया च तालुके ।।२५ ।।
कौमारी दाँतों की , चंडिका कण्ठ-प्रदेश की , चित्रघंटा गले की तथा महामाया तालु की रक्षा करें।
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् , वाचं मे सर्वमंगला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च , पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।।२६ ।।
कामाक्षी ठोढ़ी की , सर्वमंगला वाणी की , भद्रकाली ग्रीवा की तथा धनुष को धारण करने वाली रीढ़ प्रदेश की रक्षा करें।
नीलग्रीवा बहि:कण्ठे , नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयो: खंगिनी रक्षेद् , बाहू मे वज्रधारिनी ।।२७ ।।
कण्ठ से बाहर नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी , दोनों कन्धों की खंगिनी तथा वज्र को धारण करने वाली दोनों बाहु की रक्षा करें।
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षे - , दम्बिका चांगुलीषु च ।
नखाच्छुलेश्वरी रक्षेत् , कुक्षौ रक्षेत् कुलेश्वरी ।।२८ ।।
दोनों हाथों में दण्ड को धारण करने वाली तथा अम्बिका अंगुलियों में हमारी रक्षा करें । शूलेश्वरी नखों की तथा कुलेश्वरी कुक्षिप्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।
स्तनौ रक्षेन्महादेवी , मन:शोक विनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी , उदरे शूलधारिणी ।।२९ ।।
महादेवी दोनों स्तन की , शोक को नाश करने वाली मन की रक्षा करें । ललिता देवी हृदय में तथा शूलधारिणी उत्तर प्रदेश में स्थित होकर हमारी रक्षा करें ।
नाभौ च कामिनी रक्षेद् , गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेद्रं , गुदे महिषवाहिनी ।।३० ।।
नाभि में कामिनी तथा गुह्य भाग में गुह्येश्वरी हमारी रक्षा करें। कामिका तथा पूतना लिंग की तथा महिषवाहिनी गुदा में हमारी रक्षा करें।
कट्यां भगवती , रक्षेज्जानुनि विन्ध्यवासिनी ।
जंघे महाबला रक्षेद् , सर्वकामप्रदायिनी ।।३१ ।।
भगवती कटि प्रदेश में तथा विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली महाबला जांघों की रक्षा करें।
गुल्फयोर्नारसिंही च , पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाड़्गुलीषु श्री रक्षेत् , पादाधस्तलवासिनी ।।३२ ।।
नारसिंही दोनों पैर के घुटनों की , तेजसी देवी दोनों पैर के पिछले भाग की, श्रीदेवी पैर की अंगुलियों की तथा तलवासिनी पैर के निचले भाग की रक्षा करें।
नखान् दंष्ट्राकराली च , केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौनेरी , त्वचं वागीश्वरी तथा ।।३३ ।।
दंष्ट्राकराली नखों की , उर्ध्वकेशिनी देवी केशों की , कौवेरी रोमावली के छिद्रों में तथा वागीश्वरी हमारी त्वचा की रक्षा करें।
रक्त-मज्जा - वसा -मांसा , न्यस्थि- मेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च , पित्तं च मुकुटेश्वरी ।।३४ ।।
पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस , हड्डी और मेदे की रक्षा करें । कालरात्रि आँतों की तथा मुकुटेश्वरी पित्त की रक्षा करें ।
पद्मावती पद्मकोशे , कफे चूड़ामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वाला , मभेद्या सर्वसन्धिषु ।।३५ ।।
पद्मावती सहस्र दल कमल में , चूड़ामणि कफ में , ज्वालामुखी नखराशि में उत्पन्न तेज की तथा अभेद्या सभी सन्धियों में हमारी रक्षा करें।
शुक्रं ब्रह्माणिमे रक्षे , च्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं , रक्षेन् मे धर्मधारिणी ।।३६ ।।
ब्रह्माणि शुक्र की , छत्रेश्वरी छाया की , धर्म को धारण करने वाली , हमारे अहंकार , मन तथा बुद्धि की रक्षा करें।
प्राणापानौ तथा , व्यानमुदान च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेद , प्राणंकल्याणं शोभना ।।३७ ।।
वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान तथा समान वायु की , कल्याण से सुशोभित होने वाली कल्याणशोभना ,हमारे प्राणों की रक्षा करें।
रसे रूपे गन्धे च , शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं रजस्तमश्चचैव , रक्षेन्नारायणी सदा ।।३८ ।।
रस , रूप , गन्ध , शब्द तथा स्पर्श रूप विषयों का अनुभव करते समय योगिनी तथा हमारे सत्व , रज , एवं तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें ।
आयु रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यश: कीर्ति च लक्ष्मी च , धनं विद्यां च चक्रिणी ।।३९ ।।
वाराही आयु की , वैष्णवी धर्म की , चक्रिणी यश और कीर्ति की , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करें।
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत् , पशुन्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मी , भार्यां रक्ष्तु भैरवी ।।४० ।।
हे इन्द्राणी , तुम मेरे कुल की तथा हे चण्डिके , तुम हमारे पशुओं की रक्षा करो ।हे महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की तथा भैरवी देवी हमारी स्त्री की रक्षा करें।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं , क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मी , र्विजया सर्वत: स्थिता ।।४१ ।।
सुपथा हमारे पथ की , क्षेमकरी ( कल्याण करने वाली ) मार्ग की रक्षा करें। राजद्वार पर महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया भयों से हमारी रक्षा करें।
रक्षाहीनं तु यत् स्थानं , वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी ! जयन्ती पापनाशिनी ।।४२ ।।
हे देवी ! इस कवच में जिस स्थान की रक्षा नहीं कही गई है उस अरक्षित स्थान में पाप को नाश करने वाली , जयन्ती देवी ! हमारी रक्षा करें।
पदमेकं न गच्छेतु , यदीच्छेच्छुभमात्मन: ।
कवचेनावृतो नित्यं , यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३ ।।
यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहे तो वह कवच के पाठ के बिना एक पग भी कहीं यात्रा न करे । क्योंकि कवच का पाठ करके चलने वाला मनुष्य जिस-जिस स्थान पर जाता है।
तत्र तत्रार्थलाभश्च , विजय: सार्वकामिक: ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं , प्राप्नोति निश्चितम ।।४४ ।।
उसे वहाँ- वहाँ धन का लाभ होता है और कामनाओं को सिद्ध करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह पुरुष जिस जिस अभीष्ट वस्तु को चाहता है वह वस्तु उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते , भूतले पुमान ।
निर्भयो जायते मर्त्य: , सड़्ग्रामेष्वपराजित: ।। ४५ ।।
कवच का पाठ करने वाला इस पृथ्वी पर अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वह किसी से नहीं डरता और युद्ध में उसे कोई हरा भी नहीं सकता ।
रोमकूपेषु कौनेरी, त्वचं वागीश्वरी तथा।।३३ ।।
दंष्ट्राकराली नखों की , उर्ध्वकेशिनी देवी केशों की , कौवेरी रोमावली के छिद्रों में तथा वागीश्वरी हमारी त्वचा की रक्षा करें।
रक्त-मज्जा - वसा -मांसा , न्यस्थि- मेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च , पित्तं च मुकुटेश्वरी ।।३४ ।।
पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस , हड्डी और मेदे की रक्षा करें । कालरात्रि आँतों की तथा मुकुटेश्वरी पित्त की रक्षा करें ।
पद्मावती पद्मकोशे , कफे चूड़ामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वाला , मभेद्या सर्वसन्धिषु ।।३५ ।।
पद्मावती सहस्र दल कमल में , चूड़ामणि कफ में , ज्वालामुखी नखराशि में उत्पन्न तेज की तथा अभेद्या सभी सन्धियों में हमारी रक्षा करें।
शुक्रं ब्रह्माणिमे रक्षे , च्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहंकारं मनो बुद्धिं , रक्षेन् मे धर्मधारिणी ।।३६ ।।
ब्रह्माणि शुक्र की , छत्रेश्वरी छाया की , धर्म को धारण करने वाली , हमारे अहंकार , मन तथा बुद्धि की रक्षा करें।
प्राणापानौ तथा , व्यानमुदान च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेद , प्राणंकल्याणं शोभना ।।३७ ।।
वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान तथा समान वायु की , कल्याण से सुशोभित होने वाली कल्याणशोभना ,हमारे प्राणों की रक्षा करें।
रसे रूपे गन्धे च , शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्वं रजस्तमश्चचैव , रक्षेन्नारायणी सदा ।।३८ ।।
रस , रूप , गन्ध , शब्द तथा स्पर्श रूप विषयों का अनुभव करते समय योगिनी तथा हमारे सत्व , रज , एवं तमोगुण की रक्षा नारायणी देवी करें ।
आयु रक्षतु वाराही, धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यश: कीर्ति च लक्ष्मी च , धनं विद्यां च चक्रिणी ।।३९ ।।
वाराही आयु की , वैष्णवी धर्म की , चक्रिणी यश और कीर्ति की , लक्ष्मी , धन तथा विद्या की रक्षा करें।
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत् , पशुन्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मी , भार्यां रक्ष्तु भैरवी ।।४० ।।
हे इन्द्राणी , तुम मेरे कुल की तथा हे चण्डिके , तुम हमारे पशुओं की रक्षा करो ।हे महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की तथा भैरवी देवी हमारी स्त्री की रक्षा करें।
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं , क्षेमकरी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मी , र्विजया सर्वत: स्थिता ।।४१ ।।
सुपथा हमारे पथ की , क्षेमकरी ( कल्याण करने वाली ) मार्ग की रक्षा करें। राजद्वार पर महालक्ष्मी तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया भयों से हमारी रक्षा करें।
रक्षाहीनं तु यत् स्थानं , वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी ! जयन्ती पापनाशिनी ।।४२ ।।
हे देवी ! इस कवच में जिस स्थान की रक्षा नहीं कही गई है उस अरक्षित स्थान में पाप को नाश करने वाली , जयन्ती देवी ! हमारी रक्षा करें।
पदमेकं न गच्छेतु , यदीच्छेच्छुभमात्मन: ।
कवचेनावृतो नित्यं , यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३ ।।
यदि मनुष्य अपना कल्याण चाहे तो वह कवच के पाठ के बिना एक पग भी कहीं यात्रा न करे । क्योंकि कवच का पाठ करके चलने वाला मनुष्य जिस-जिस स्थान पर जाता है।
तत्र तत्रार्थलाभश्च , विजय: सार्वकामिक: ।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं , प्राप्नोति निश्चितम ।।४४ ।।
उसे वहाँ- वहाँ धन का लाभ होता है और कामनाओं को सिद्ध करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह पुरुष जिस जिस अभीष्ट वस्तु को चाहता है वह वस्तु उसे निश्चय ही प्राप्त होती है।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते, भूतले पुमान।
निर्भयो जायते मर्त्य: , सड़्ग्रामेष्वपराजित: ।। ४५ ।।
कवच का पाठ करने वाला इस पृथ्वी पर अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करता है । वह किसी से नहीं डरता और युद्ध में उसे कोई हरा भी नहीं सकता ।
त्रैलोक्ये तु भवेत् पूज्य: , कवचेनावृत: पुमान् ।
इदं तु देव्या: कवचं , देवानामपि दुर्लभम् ।।४६ ।।
तीनों लोकों में उसकी पूजा होती है।यह देवी का कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
य: पठेत् प्रयतो नित्य , त्रिसंध्यं श्रद्धयान्वित: ।
दैवीकला भवेत्तस्य , त्रैलोक्येष्वपराजित: ।। ४७ ।।
जो लोग तीनों संध्या में श्रद्धापूर्वक इस कवच का पाठ करते हैं उन्हें देवी कला की प्राप्ति होती है। तीनों लोकों में उन्हें कोई जीत नहीं सकता ।
जीवेद वर्षशतं , साग्रम पमृत्युविवर्जित: ।
नश्यन्ति व्याधय: सर्वे , लूता विस्फोटकादय: ।।४८ ।।
उस पुरुष की अपमृत्यु नहीं होती । वह सौ से भी अधिक वर्ष तक जीवित रहता है । इस कवच का पाठ करने से लूता ( सिर में होने वाला खाज का रोग मकरी ,) विस्फोटक (चेचक) आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।
स्थावरं जंगमं चैव , कृत्रिमं चाअपि यद्विषम् ।
अभिचाराणि सर्वाणि , मन्त्र-यन्त्राणि भूतले ।।४९ ।।
स्थावर तथा कृत्रिम विष , सभी नष्ट हो जाते हैं ।मारण , मोहन तथा उच्चाटन आदि सभी प्रकार के किये गए अभिचार यन्त्र तथा मन्त्र , पृथवी तथा आकाश में विचरण करने वाले
भूचरा: खेचराश्चैव , जलजा श्चोपदेशिका: ।
सहजा कुलजा माला , डाकिनी- शाकिनी तथा ।।५० ।।
ग्राम देवतादि, जल में उत्पन्न होने वाले तथा उपदेश से सिद्ध होने वाले सभी प्रकार के क्षुद्र देवता आदि कवच के पाठ करने वाले मनुष्य को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं।जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले ग्राम देवता ,कुल देवता , कण्ठमाला, डाकिनी, शाकिनी आदि ।
अन्तरिक्षचरा घोरा , डाकिन्यश्च महाबला: ।
ग्रह - भूत पिशाचाश्च , यक्ष गन्धर्व - राक्षसा: ।।५१ ।।
अन्तरिक्ष में विचरण करने वाली अत्यन्त भयानक बलवान डाकिनियां ,ग्रह, भूत पिशाच ।
ब्रह्म - राक्षस - बेताला: , कुष्माण्डा भैरवादय: ।
नश्यन्ति दर्शनातस्य , कवचे हृदि संस्थिते ।।५२ ।।
ब्रह्म राक्षस , बेताल , कूष्माण्ड तथा भयानक भैरव आदि सभी अनिष्ट करने वाले जीव , कवच का पाठ करने वाले पुरुष को देखते ही विनष्ट हो जाते हैं।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञ , स्तेजोवृद्धिकरं परम् ।
यशसा वर्धते सोअपि , कीर्ति मण्डितभूतले ।।५३ ।।
कवचधारी पुरूष को राजा के द्वारा सम्मान की प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला है।कवच का पाठ करने वाला पुरुष इस पृथ्वी को अपनी कीर्ति से सुशोभित करता है और अपनी कीर्ति के साथ वह नित्य अभ्युदय को प्राप्त करता है।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं , कृत्वा तु कवचं पुरा ।
यावद् भूमण्डलं धत्ते - , स - शैल - वनकाननम् ।।५४ ।।
जो पहले कवच का पाठ करके सप्तशती का पाठ करता है , उसकी पुत्र - पौत्रादि संतति पृथ्वी पर तब तक विद्धमान रहती है जब तक पहाड़ , वन , कानन , और कानन से युक्त यह पृथ्वी टिकी हुई है।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां , सन्तति: पुत्र- पौत्रिकी ।
देहान्ते परमं स्थानं , यत्सुरैरपि दुर्लभम् ।।५५ ।।
कवच का पाठ कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करने वाला मनुष्य मरने के बाद - महामाया की कृपा से देवताओं के लिए जो अत्यन्त दुर्लभ स्थान है
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं , महामाया प्रसादत: ।
लभते परमं रूपं , शिवेन सह मोदते ।।५६ ।।
उसे प्राप्त कर लेता है और उत्तम रूप प्राप्त कर शिवजी के साथ आन्नदपूर्वक निवास करता है।
।। इति वाराह पुराणे हरिहरब्रह्म विरचित देव्या: कवचं समाप्तम् ।।
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बुधवार, 27 सितंबर 2023

सरस्वती कवच, वक्रोक्ति, नवगीत, विवेकानंद, परमहंस, शिवतांडवस्तोत्र, बुन्देली, मुक्तिका, दोहा,

सरस्वती कवच
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार विश्वविजय सरस्वती कवच का नित्य पाठ करने से साधक में अद्भुत शक्तियों का संचार होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। देवी सरस्वती के इस विश्वविजय सरस्वती कवच को धारण करके ही महर्षि वेदव्यास, ऋष्यश्रृंग, भरद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। यह विश्वविजय सरस्वती कवच इस प्रकार है
*
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वत:।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्र पातु निरन्तरम्।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोवतु।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंक्ती: सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदावतु।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।।
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदावतु।।
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु।
ॐ रागधिष्ठातृदेव्यै सर्वांगं मे सदावतु।।
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।
ॐ सदाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ॐ गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेवतु।।
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोध्र्वं सदावतु।।
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोवतु।।
(ब्र. वै. पु. प्रकृतिखंड ४/७३-८५
२७-९-२०१९
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नवगीत
सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गिन-गिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
*
पण्डित वापिस जाएँ-बसाएँ
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएँ
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
२७-९-२०१७
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रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के बीच हुए एक अद्भुत संवाद के अंश...
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स्वामी विवेकानंद : मैं समय नहीं निकाल पाता। जीवन आपाधापी से भर गया है।
रामकृष्ण परमहंस : गतिविधियां तुम्हें घेरे रखती हैं, लेकिन उत्पादकता आजाद करती है।
स्वामी विवेकानंद : आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?
रामकृष्ण परमहंस : जीवन का विश्लेषण करना बंद कर दो। यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को सिर्फ जियो।
स्वामी विवेकानंद : फिर हम हमेशा दु:खी क्यों रहते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : परेशान होना तुम्हारी आदत बन गई है, इसी वजह से तुम खुश नहीं रह पाते।
स्वामी विवेकानंद : अच्छे लोग हमेशा दुःख क्यों पाते हैं?
रामकृष्ण परमहंस : हीरा रगड़े जाने पर ही चमकता है। सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है। अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं। इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, बेकार नहीं होता।
स्वामी विवेकानंद : आपका मतलब है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?
रामकृष्ण परमहंस : हां, हर लिहाज से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है। पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है।
स्वामी विवेकानंद : समस्याओं से घिरे रहने के कारण हम जान ही नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं?
रामकृष्ण परमहंस : अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो। अपने भीतर झांको। आखें दृष्टि देती हैं। हृदय राह दिखाता है।
स्वामी विवेकानंद : क्या असफलता सही राह पर चलने से ज्यादा कष्टकारी है?
रामकृष्ण परमहंस : सफलता वह पैमाना है, जो दूसरे लोग तय करते हैं। संतुष्टि का पैमाना तुम खुद तय करते हो।
स्वामी विवेकानंद : कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाए रख सकता है?
रामकृष्ण परमहंस : हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाए, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना बाकी है। जो कुछ पाया है, हमेशा उसे गिनो; जो हासिल न हो सका उसे नहीं।
स्वामी विवेकानंद : लोगों की कौन सी बात आपको हैरान करती है?
रामकृष्ण परमहंस : जब भी वे कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं, 'मैं ही क्यों?' जब वे खुशियों में डूबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते, 'मैं ही क्यों?'
स्वामी विवेकानंद : मैं अपने जीवन से सर्वोत्तम कैसे हासिल कर सकता हूं?
रामकृष्ण परमहंस : बिना किसी अफसोस के अपने अतीत का सामना करो। पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालो। निडर होकर अपने भविष्य की तैयारी करो।
स्वामी विवेकानंद : एक आखिरी सवाल। कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी प्रार्थनाएं बेकार जा रही हैं?
रामकृष्ण परमहंस : कोई भी प्रार्थना बेकार नहीं जाती। अपनी आस्था बनाए रखो और डर को परे रखो। जीवन एक रहस्य है जिसे तुम्हें खोजना है। यह कोई समस्या नहीं जिसे तुम्हें सुलझाना है। मेरा विश्वास करो- अगर तुम यह जान जाओ कि जीना कैसे है तो जीवन सचमुच बेहद आश्चर्यजनक है।
***
कार्यशाला
सवाल-जवाब
*
सच कहूँ तो चोट उन को लगती है
झूठ कहने से जुबान मेरी जलती है - राज आराधना
*
न कहो सच, न झूठ मौन रहो
सुख की चाहत जुबान सिलती है -संजीव
***
शिवतांडवस्तोत्र
:: शिव स्तुति माहात्म्य ::
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शिव-नंदन वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धारें, कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधना सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विकराल सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम || २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २..
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पर लहरा रही हैं, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं विभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रमकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दहकाएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में रेवा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब नर्मदा जी के कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय: || १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनो विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखें हरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर. करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
दोहा-
*
पुरुष कभी स्वामी लगा, कभी चरण का दास
कभी किया परिहास तो, कभी दिया संत्रास
*
चित्र गुप्त जिसका, बनी मूरत कैसे बोल?
यदि जयंती तो मरण दिन, बतला मत कर झोल
***
मुक्तिका बुंदेली में
*
पाक न तन्नक रहो पाक है?
बाकी बची न कहूँ धाक है।।
*
सूपनखा सें चाल-चलन कर
काटी अपनें हाथ नाक है।।
*
कीचड़ रहो उछाल हंस पर
मैला-बैठो दुष्ट काक है।।
*
अँधरा दहशतगर्द पाल खें
आँखन पे मल रओ आक है।।
*
कल अँधियारो पक्का जानो
बदी भाग में सिर्फ ख़ाक है।।
*
पख्तूनों खों कुचल-मार खें
दिल बलूच का करे चाक है।।
***
विमर्श - चरण स्पर्श क्यों?
*
चरण स्पर्श के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है। के कई आयाम है। गुरु या सिद्ध सन्त के चरण स्पर्श का आशय उनकी सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करना होता है। इस हेतु दाहिने हाथ की अंगुलियों से बाएं पैर के अंगुष्ठ को तथा बाएं हाथ की अँगुलियों से दाहिने पैर के अंगुष्ठ का स्पर्श किया जाता है। परमहंस ने अपने पैर का अंगुष्ठ नरेंद्र के मस्तक पर अपने अंतिम समय में स्पर्श कराकर अपनी सकल सिद्धियाँ देकर उन्हें विवेकानन्द बना दिया था। अपनों से ज्ञान, मान, अनुभव, योग्यता व उम्र में बड़ों के पैर छूने की प्रथा का आशय अपने अहन को तिलांजलि देकर विनम्रता पूर्वक आशीर्वाद पाना है। आजकल छद्म विनम्रता दिखाकर घुटने स्पर्श करने का स्वांग करनेवाले भूल जाते हैं की इसका आशय शत्रुता दर्शन है।
२७-९-२०१६
***
: अलंकार चर्चा १२ :
अर्थ द्वैत वक्रोक्ति है
किसी एक के कथन को, दूजा समझे भिन्न
वक्र उक्ति भिन्नार्थ में, कल्पित लगे अभिन्न
स्वराघात मूलक अलंकारों में वक्रोक्ति का स्थान महत्वपूर्ण है. किसी काव्य अंश में किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी बात में कोई दूसरा व्यक्ति जब मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना करता है तब वक्रोक्ति अलंकार होता है. वक्र उक्ति का अर्थ 'मूल से भिन्न' होता है. एक अर्थ में कही गयी बात को जान-बूझकर दूसरे अर्थ में लेने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२.
मूल से भिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु द्वारा होती है. इस आधार पर वक्रोक्ति अलंकार के २ प्रकार श्लेष वक्रोक्ति तथा काकु वक्रोक्ति हैं.
श्लेष वक्रोक्ति:
श्रोता अर्थ विशेष पर, देता है जब जोर
वक्ता ले अन्यार्थ को, ग्रहण करे गह डोर
एक शब्द से अर्थ दो, चिपक न छोड़ें हाथ
वहीं श्लेष वक्रोक्ति हो, दो अर्थों के साथ
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ
वक्ता-श्रोता हँस करें, भिन्न शब्द के अर्थ
एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष वक्रोक्ति
श्रोता-वक्ता सजग हों, मत समझें अन्योक्ति
जिस काव्यांश में एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग कर वक्ता का अर्थ एक अर्थ विशेष पर होता है किन्तु श्रोता या पाठक का किसी दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द का प्रयोग होने पर वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है.
उदाहरण:
१. हैं री लाल तेरे?, सखी! ऐसी निधि पाई कहाँ?
हैं री खगयान? कह्यौं हौं तो नहीं पाले हैं?
हैं री गिरिधारी? व्है हैं रामदल माँहिं कहुँ?
हैं री घनश्याम? कहूँ सीत सरसाले हैं?
हैं री सखी कृष्णचंद्र? चंद्र कहूँ कृष्ण होत?
तब हँसि राधे कही मोर पच्छवारे हैं?
श्याम को दुराय चन्द्रावलि बहराय बोली
मोरे कैसे आइहैं जो तेरे पच्छवारे हैं?
२. पौंरि में आपु खरे हरी हैं, बस है न कछू हरि हैं तो हरैवे
वे सुनौ कीबे को है विनती, सुनो हैं बिनती तीय कोऊ बरैबे
दीबे को ल्याये हैं माल तुम्हें, रगुनाथ ले आये हैं माल लरैबे
छोड़िए मान वे पा पकरैं, कहैं, पाप करैं कहैं अबस करैबे
इस उदाहरण में 'हरि' के दो अर्थ 'कृष्ण' और 'हारेंगे', विनती के दो अर्थ 'प्रार्थना' और 'बिना स्त्री के', 'माल' के दो अर्थ 'माला' तथा 'सामान' तथा 'पाप करै' के दो अर्थ 'पैर पकड़ें' तथा 'कुकर्म करें हैं.
३. कैकेयी सी कोप भवन में, जाने कब से पड़ी हुई है
दशरथ आये नहीं मनाने, फाँस ह्रदय में गड़ी हुई है -चंद्रसेन विराट, ओ गीत के गरुड़, ३२
यहाँ कैकेयी के दो अर्थ 'रानी' तथा 'जनता' और दशरथ के दो अर्थ 'राजा' तथा 'शासक' हैं.
काकु वक्रोक्ति:
जब विशेष ध्वनि कंठ की, ध्वनित करे अन्यार्थ
तभी काकु वक्रोक्ति हो, लिखते समझ समर्थ
'सलिल' काकु वक्रोक्ति में, ध्वनित अर्थ कुछ अन्य
व्यक्त कंठ की खास ध्वनि, करती- समझें धन्य
किसी काव्य पंक्ति में कंठ से उच्चरित विशेष ध्वनि के कारण शब्द का मूल से भिन्न दूसरा अर्थ ध्वनित हो तो वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. भरत भूप सियराम लषन बन, सुनि सानंद सहौंगौ
पर-परिजन अवलोकि मातु, सब सुख संतोष लहौंगौ
इस उदाहरण में भरतभूप, सानंद तथा संतोष शब्दों का उच्चारण काकु युक्त होने से विपरीत अर्थ ध्वनित होता है.
२. बातन लगाइ सखान सों न्यारो कै, आजु गह्यौ बृषभान किशोरी
केसरि सों तन मंजन कै दियो अंजन आँखिन में बरजोरी
हे रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाइ कै गोरी
छोड़ि दियो इतनो कहि कै, बहुरो फिरि आइयो खेलेन होरी
यहाँ 'बहुरो फिरि आइयो' में काकु ध्वनि होने से व्यंग्यार्थ है कि 'अब कभी नहीं आओगे'.
३. कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं?, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं
दुष्यंत कुमार की इस ग़ज़ल में 'मंज़र', 'गाते', ''चिल्लाने', 'तालाब', 'पानी', 'फूल', तथा 'कुम्हलाने' शब्दों में काकु ध्वनि से उत्पन्न व्यंग्यार्थ ने आपातकाल में सेंसरशिप के बावजूद कवि का शासन परिवर्तन का सन्देश लोगों को दिया.
२७-९-२०१५
***
रचना पर रचना रचें
*
संध्या सिंह:
पूरब से जीवन उगा ,प्राण-वायु चहुँ ओर
बूँद- बूँद अमृत गिरा , सुधा-कलश है भोर
*
संजीव
दोहा:
सतरंगी संध्या सरस, सुधियों संग समेट
सिंह सूर्य तम का करे, 'सलिल'अथक आखेट
*
सोरठा:
अधर धरे मुस्कान, शांत सौम्य सुन्दर छटा
किंचित सके बखान, सीमा कौन असीम की
*
हाइकु:
सूर्य किरण
गगन से धरा का
करे वरण
*
सूरज झाँके
भू की चुनरिया में
किरणें टाँके
*
जनक छन्द:
फूल फूलते झूलते
रवि किरणों को चूमते
नहीं गर्व से फूलते
*
***
विघ्नेश्वर गणेश जी की विदाई-बेला:
प्रस्तुत आरती में जोड़ी गयी अंतिम दो पंक्तियाँ मूल पंक्तियों की तरह निर्दोष नहीं है. इस परंपरागत आरती में हम अपने मनोभाव पिरोएँ इस तरह कि छंद, भाव, बिम्ब निर्दोष रहे.
*
अग्रजवत श्री चंद्रसेन विराट ने प्रचलित आरती में एक पद जोड़ा है. उन्हें हार्दिक बधाई।
प्रथम पूज्य ज्योतिर्मय, बुद्धि-बल विधाता
मंगलमय पूर्णकाम ऋद्धि-सिद्धि दाता
कदली फल मोदक का प्रिय उन्हें कलेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
मेरी समिधा:
जड़-जमीन में जमाये दूबा मन भाये
विपदा को जीतें प्रभु! पूजें-हर्षायें
स्नेह 'सलिल' साँसें हों, जीवन हो रेवा
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा
*
***
कविता:
शेर के बाड़े में
कूदा आदमी
शेर था खुश
कोई तो है जो
न घूरे दूर से
मुझसे मिलेगा
भाई बनकर.
निकट जा देखा
बँधी घिघ्घी
थी उसकी
हाथ जोड़े
गिड़गिड़ाता:
'छोड़ दो'
दया आयी
फेरकर मुख
चल पड़ा
नरसिंह नहीं
नरमेमने
जा छोड़ता हूँ
तब ही लगा
पत्थर अचानक
हुआ हमला
क्यों सहूँ मैं?
आत्मरक्षा
है सदा
अधिकार मेरा
सोच मारा
एक थप्पड़
उठा गर्दन
तोड़ डाली
दोष केवल
मनुज का है
२७-९-२०१४
***

विश्वेश्वरैया

 प्रेरकप्रसंग

एक ट्रेन द्रुत गति से दौड़ रही थी। ट्रेन अंग्रेजों से भरी हुई थी। उसी ट्रेन के एक डिब्बे में अंग्रेजों के साथ एक भारतीय भी बैठा हुआ था।

डिब्बा अंग्रेजों से खचाखच भरा हुआ था। वे सभी उस भारतीय का मजाक उड़ाते जा रहे थे। कोई कह रहा था, देखो कौन नमूना ट्रेन में बैठ गया, तो कोई उनकी वेश-भूषा देखकर उन्हें गंवार कहकर हँस रहा था।कोई तो इतने गुस्से में था कि ट्रेन को कोसकर चिल्ला रहा था, एक भारतीय को ट्रेन मे चढ़ने क्यों दिया ? इसे डिब्बे से उतारो।

किँतु उस धोती-कुर्ता, काला कोट एवं सिर पर पगड़ी पहने शख्स पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा।वह शांत गम्भीर भाव लिये बैठा था, मानो किसी उधेड़-बुन मे लगा हो।

ट्रेन द्रुत गति से दौड़े जा रही थी औऱ अंग्रेजों का उस भारतीय का उपहास, अपमान भी उसी गति से जारी था।किन्तु यकायक वह शख्स सीट से उठा और जोर से चिल्लाया "ट्रेन रोको"।कोई कुछ समझ पाता उसके पूर्व ही उसने ट्रेन की जंजीर खींच दी।ट्रेन रुक गईं।

अब तो जैसे अंग्रेजों का गुस्सा फूट पड़ा।सभी उसको गालियां दे रहे थे।गंवार, जाहिल जितने भी शब्द शब्दकोश मे थे, बौछार कर रहे थे।किंतु वह शख्स गम्भीर मुद्रा में शांत खड़ा था। मानो उसपर किसी की बात का कोई असर न पड़ रहा हो। उसकी चुप्पी अंग्रेजों का गुस्सा और बढा रही थी।

ट्रेन का गार्ड दौड़ा-दौड़ा आया. कड़क आवाज में पूछा, "किसने ट्रेन रोकी"।

कोई अंग्रेज बोलता उसके पहले ही, वह शख्स बोल उठा:- "मैंने रोकी श्रीमान"।

पागल हो क्या ? पहली बार ट्रेन में बैठे हो ? तुम्हें पता है, अकारण ट्रेन रोकना अपराध हैं:- "गार्ड गुस्से में बोला"

हाँ श्रीमान ! ज्ञात है किंतु मैं ट्रेन न रोकता तो सैकड़ो लोगो की जान चली जाती।

उस शख्स की बात सुनकर सब जोर-जोर से हंसने लगे। किँतु उसने बिना विचलित हुये, पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा:- यहाँ से करीब एक फरलाँग की दूरी पर पटरी टूटी हुई हैं।आप चाहे तो चलकर देख सकते है।

गार्ड के साथ वह शख्स और कुछ अंग्रेज सवारी भी साथ चल दी। रास्ते भर भी अंग्रेज उस पर फब्तियां कसने मे कोई कोर-कसर नही रख रहे थे।

किँतु सबकी आँखें उस वक्त फ़टी की फटी रह गई जब वाक़ई , बताई गई दूरी के आस-पास पटरी टूटी हुई थी।नट-बोल्ट खुले हुए थे।अब गार्ड सहित वे सभी चेहरे जो उस भारतीय को गंवार, जाहिल, पागल कह रहे थे।वे उसकी और कौतूहलवश देखने लगे, मानो पूछ रहे हो आपको ये सब इतनी दूरी से कैसे पता चला ??..

गार्ड ने पूछा:- तुम्हें कैसे पता चला , पटरी टूटी हुई हैं ??.

उसने कहा:- श्रीमान लोग ट्रेन में अपने-अपने कार्यो मे व्यस्त थे।उस वक्त मेरा ध्यान ट्रेन की गति पर केंद्रित था। ट्रेन स्वाभाविक गति से चल रही थी। किन्तु अचानक पटरी की कम्पन से उसकी गति में परिवर्तन महसूस हुआ।ऐसा तब होता हैं, जब कुछ दूरी पर पटरी टूटी हुई हो।अतः मैंने बिना क्षण गंवाए, ट्रेन रोकने हेतु जंजीर खींच दी।

गार्ड औऱ वहाँ खड़े अंग्रेज दंग रह गये. गार्ड ने पूछा, इतना बारीक तकनीकी ज्ञान ! आप कोई साधारण व्यक्ति नही लगते।अपना परिचय दीजिये।

शख्स ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया:- श्रीमान मैं भारतीय #इंजीनियर #मोक्षगुंडम_विश्वेश्वरैया...

जी हाँ ! वह असाधारण शख्स कोई और नही "डॉ विश्वेश्वरैया" थे।

मंगलवार, 26 सितंबर 2023

चंद्र यान पर कविताएँ, सलिल

 चंद्र यान पर कविताएँ   

कहमुकरी
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
विक्रम के काँधे बेताल
प्रश्न पूछता दे-दे ताल
उत्तर देता सीना तान
क्या अज्ञान?
ना, प्रज्ञान।
जहँ जा लिख-पढ़ बनते शिक्षित 
कर घुमाई, बिन गए अशिक्षित 
मानव मति शशि-रवि छू दक्षा 
सखी है शिक्षा?
नहिं सखि कक्षा। 
घटता-बढ़ता, नष्ट न होता 
प्रेम कथाएँ फसलें बोता 
पल में चमके, पल में मंदा 
गोरखधंधा? 
मितवा! चंदा।  
मन कहता हँस पगले! मत रो 
अपने सपने नाहक मत खो 
सपने पूरे होते किस रो? 
फ़ाइलों-पसरो?
नहिं सखि! इसरो। 
नयन मूँदते रूप दिखाया 
ना अपना नहिं रहा पराया
सँग भीगना कँपना तपना 
माला जपना?
नहिं रे! सपना। 
८.१०.२०२३
सुंदरियों की तुलना पाता
विक्रम अरु प्रज्ञान सुहाता
शीश शशीश निहारे शेष
क्या देवेश?
नहीं राकेश।
७.१०.२०१३ 
क्षणिका

विक्रम लैंडर 

*

जब लेता है 

आदमी उधार,

तब हो जाता है 

विक्रम लैंडर। 

नहीं रखता संपर्क 

अपनी धरती से, 

अपनी कक्षा में रहकर। 

***  

यादों की बारात

*

अब विक्रम के 

कंधे पर नहीं लदता,

गोदी में बैठता है 

रोवर बैताल। 

पहले सवाल पूछता था 

बनकर अनजान, 

अब उत्तर देता है 

अपना प्रज्ञान।  

करता है चहल कदमी

दूर कर गलतफहमी, 

विक्रम से करता है बात 

मानो निकल रही हो 

यादों की बारात। 

***

चाँद पर बैठे हुए

विक्रम और प्रज्ञान, 

रखते हैं हर बात का पूरा ध्यान। 

दोनों देख पा रहे हैं 

दिल्ली में बन गया है 

नया संसद भवन 

पूरा हुआ है अरमान। 

लेकिन नहीं सुधरे सांसद 

कर रहे हैं बदजुबानी, 

भूल गए हैं मर्यादा। 

राजनेता खींच रहे हैं 

एक दूसरे की टाँग 

जुमला बताकर वादा। 

सात के विरोध में हड़ताल,

नहीं कर रहे अपनों की पड़ताल। 

सीमाएँ हैं अशांत,

नेतागण दिग्भ्रांत। 

बोलते बिगड़े बोल, 

बातों में रखते झोल।  

अनुशासित रहो मतिमान,

सच सिखा रहे विक्रम-प्रज्ञान। 

मानवता का हो गान, 

देश रहे गतिमान। 

*** 


 

  

 

श्लेष अलंकार, मुक्तक, गीत, मुक्तिका, नवगीत, सॉनेट, अविश्वास, भारत

मुक्तिका
सजग भारत
*
सजग भारत है सनातन।
कर्म-पोथी करे वाचन।।

काल की है यह उपासक।
सभ्यता है यह पुरातन।।

सकल सृष्टि कुटुंब इसका।
सभी का यह करे पालन।।

करे दंडित यह अनय को।
विनय को दे अग्र आसन।।

ध्वज तिरंगा चंद्रमा ले।
करे इसका कीर्ति गायन।।

आपदाओं का प्रबंधन।
करे पल-पल निपुण शासन।।

नर नरेंद्र हरेक इसका।
बल अमित है नीति ही धन।।

भारती की आरती कर।
रोक लेता हर प्रभंजन।।

है अलौकिक लोक भारत।
सजग भारत है सनातन।।
***
सॉनेट 
अविश्वास
अविश्वास से राम बचाए,
जिस मन में पलती है शंका,
दाह डाह का कौन बुझाए?
निश्चय जलती उसकी लंका।


फलदायक विश्वास जानिए,
परंपरा ने हमें बताया,
बिन श्रद्धा कस ज्ञान पाइए?
जो ठगता, खुद गया ठगाया।


गुरु पर श्रद्धा अगर न हो तो
ज्ञान नहीं फलदायक होता,
मत नाराजी गुरु की न्योतो,
कर्ण न अपना जीवन खोता।

अविश्वास को जहर जानिए।
सच अमृत विश्वास मानिए।।
२६.९.२०२३
•••
बाल नव गीत
ज़िंदगी के मानी
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..

टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..

आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..

मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.

मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..

अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..

सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
२६-९-२०२०
***
प्रश्न -उत्तर
*
हिन्द घायल हो रहा है पाक के हर दंश से
गॉधीजी के बन्दरों का अब बताओ क्या करें ? -समन्दर की मौजें
*
बन्दरों की भेंट दे दो अब नवाज़ शरीफ को
बना देंगे जमूरा भारत का उनको शीघ्र ही - संजीव
*
नवगीत
*
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
भीड़ में घिर
हो गया है मन अकेला
धैर्य-गुल्लक
में, न बाकी एक धेला
क्या कहूँ
तेरे बिना क्या-क्या न झेला?
क्यों न तू
आकर बना ले मुझे चेला?
मान भी जा
आज सुन फरियाद मेरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
प्रेम-संसद
विरोधी होंगे न मैं-तुम
बोल जुमला
वचन दे, पलटें नहीं हम
लाएँ अच्छे दिन
विरह का समय गुम
जो न चाहें
हो मिलन, भागें दबा दुम
हुई मुतकी
और होने दे न देरी
क्यों न फुनिया कर
सुनूँ आवाज़ तेरी?
*
२४-२५ सितंबर २०१६
***
: अलंकार चर्चा ११ :
श्लेष अलंकार
भिन्न अर्थ हों शब्द के, आवृत्ति केवल एक
अलंकार है श्लेष यह, कहते सुधि सविवेक
किसी काव्य में एक शब्द की एक आवृत्ति में एकाधिक अर्थ होने पर श्लेष अलंकार होता है. श्लेष का अर्थ 'चिपका हुआ' होता है. एक शब्द के साथ एक से अधिक अर्थ संलग्न (चिपके) हों तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून
इस दोहे में पानी का अर्थ मोती में 'चमक', मनुष्य के संदर्भ में सम्मान, तथा चूने के सन्दर्भ में पानी है.
२. बलिहारी नृप-कूप की, गुण बिन बूँद न देहिं
राजा के साथ गुण का अर्थ सद्गुण तथा कूप के साथ रस्सी है.
३. जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं, यह जानत सब कोइ
गाँठ तथा रस के अर्थ गन्ने तथा मनुष्य के साथ क्रमश: पोर व रस तथा मनोमालिन्य व प्रेम है.
४. विपुल धन, अनेकों रत्न हो साथ लाये
प्रियतम! बतलाओ लाला मेरा कहाँ है?
यहाँ लाल के दो अर्थ मणि तथा संतान हैं.
५. सुबरन को खोजत फिरैं कवि कामी अरु चोर
इस काव्य-पंक्ति में 'सुबरन' का अर्थ क्रमश:सुंदर अक्षर, रूपसी तथा स्वर्ण हैं.
६. जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय
बारे उजियारौ करै, बढ़े अँधेरो होय
इस दोहे में बारे = जलाने पर तथा बचपन में, बढ़े = बुझने पर, बड़ा होने पर
७. लाला ला-ला कह रहे, माखन-मिसरी देख
मैया नेह लुटा रही, अधर हँसी की रेख
लाला = कृष्ण, बेटा तथा मैया - यशोदा, माता (ला-ला = ले आ, यमक)
८. था आदेश विदेश तज, जल्दी से आ देश
खाया या कि सुना गया, जब पाया संदेश
संदेश = खबर, मिठाई (आदेश = देश आ, आज्ञा यमक)
९. बरसकर
बादल-अफसर
थम गये हैं.
बरसकर = पानी गिराकर, डाँटकर
१०. नागिन लहराई, डरे, मुग्ध हुए फिर मौन
नागिन = सर्पिणी, चोटी
***
नवगीत:
*
एक शाम
करना है मीत मुझे
अपने भी नाम
.
अपनों से,
सपनों से,
मन नहीं भरा.
अनजाने-
अनदेखे
से रहा डरा.
परिवर्तन का मंचन
जब कभी हुआ,
पिंजरे को
तोड़ उड़ा
चाह का सुआ.
अनुबंधों!
प्रतिबंधों!!
प्राण-मन कहें
तुम्हें राम-राम.
.
ज्यों की त्यों
चादर कब
रह सकी कहो?
दावानल-
बड़वानल
सह, नहीं दहो.
पत्थर का
वक्ष चीर
गंग
सलिल सम बहो.
पाये को
खोने का
कुछ मजा गहो.
सोनल संसार
हुआ कब कभी कहो
इस-उस के नाम?
.
संझा में
घिर आयें
याद मेघ ना
आशुतोष
मौन सहें
अकथ वेदना.
अंशुमान निरख रहे
कालचक्र-रेख.
किस्मत में
क्या लिखा?,
कौन सका देख??
पुष्पा ले जी भर तू
ओम-व्योम, दिग-दिगंत
श्रम कर निष्काम।
***
एक गीत:
*
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
अपनों से मिलकर
*
सद्भावों की क्यारी में
प्रस्फुटित सुमन कुछ
गंध बिखेरें अपनेपन की.
स्नेहिल भुजपाशों में
बँधकर बाँध लिया सुख.
क्षणजीवी ही सही
जीत तो लिया सहज दुःख
बैर भाव के
पर्वत बौने
काँपे हिलकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
सपनों से मिलकर
*
सलिल-धार में सुधियों की
तिरते-उतराते
छंद सुनाएँ, उर धड़कन की.
आशाओं के आकाशों में
कोशिश आमुख,
उड़-थक-रुक-बढ़ने को
प्रस्तुत, चरण-पंख कुछ.
बाधाओं के
सागर सूखे
गरज-हहरकर
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
छंदों से मिलकर
*
अविनाशी में लीन विनाशी
गुपचुप बिसरा, काबा-
काशी, धरा-गगन की.
रमता जोगी बन
बहते जाने को प्रस्तुत,
माया-मोह-मिलन के
पल, पल करता संस्तुत.
अनुशासन के
बंधन पल में
टूटे कँपकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
नपनों से मिलकर
*
मुक्त, विमुक्त, अमुक्त हुए
संयुक्त आप ही
मुग्ध देख छवि निज दरपन की.
आभासी दुनिया का हर
अहसास सत्य है.
हर प्रतीति क्षणजीवी
ही निष्काम कृत्य है.
त्याग-भोग की
परिभाषाएँ
रचें बदलकर.
ह्रदय प्रफुल्लित
मुकुलित मन
गंधों से मिलकर
***
मुक्तक:
घाट पर ठहराव कहाँ?
राह में भटकाव कहाँ?
चलते ही रहना है-
चाह में अटकाव कहाँ?
२६-९-२०१५

सोमवार, 25 सितंबर 2023

चंचरीक, दोहा, मुक्तिका, बिटिया, शतदल

चंचरीक - चरित दोहावली
*
'चंचरीक' प्रभु चरण के, दैव कृपा के पात्र
काव्य सृजन सामर्थ्य के, नित्य-सनातन पात्र
*
'नारायण' सा 'रूप' पा, 'जगमोहन' शुभ नाम
कर्म कुशल कायस्थ हो, हरि को हुए प्रणाम
*
'नारायण' ने 'सूर्य' हो, प्रगटाया निज अंश
कुक्षि 'वासुदेवी' विमल, प्रमुदित पा अवतंश
*
सात नवंबर का दिवस, उन्निस-तेइस वर्ष
पुत्र-रुदन का स्वर सुना, खूब मनाया हर्ष
*
बैठे चौथे भाव में, रवि शशि बुध शनि साथ
भक्ति-सृजन पथ-पथिक से, कहें न नत हो माथ
*
रवि उजास, शशि विमलता, बुध दे भक्ति प्रणम्य
शनि बाधा-संकट हरे, लक्ष्य न रहे अगम्य
*
'विष्णु-प्रकाश-स्वरूप' से, अनुज हो गए धन्य
राखी बाँधें 'बसन्ती, तुलसी' स्नेह अनन्य
*
विद्या गुरु भवदत्त से, मिली एक ही सीख
कीचड में भी कमलवत, निर्मल ही तू दीख
*
रथखाना में प्राथमिक, शिक्षा के पढ़ पाठ
दरबार हाइ स्कूल में, पढ़े हो सकें ठाठ
*
भक्तरत्न 'मथुरा' मुदित, पाया पुत्र विनीत
भक्ति-भाव स्वाध्याय में, लीन निभाई रीत
*
'मन्दिर डिग्गी कल्याण' में, जमकर बँटा प्रसाद
भोज सहस्त्रों ने किया, पा श्री फल उपहार
*
'गोविंदी' विधवा बहिन, भुला सकें निज शोक
'जगमोहन' ने भक्ति का, फैलाया आलोक
*
पाठक सोहनलाल से, ली दीक्षा सविवेक
धीरज से संकट सहो, तजना मूल्य न नेक
*
चित्र गुप्त है ईश का, निराकार सच मान
हो साकार जगत रचे, निर्विकार ले जान
*
काया स्थित ब्रम्ह ही, है कायस्थ सुजान
माया की छाया गहे, लेकिन नहीं अजान
*
पूज किसी भी रूप में, परमशक्ति है एक
भक्ति-भाव, व्रत-कथाएँ, कहें राह चल नेक
*
'रामकिशोरी' चंद दिन, ही दे पायीं साथ
दे पुत्री इहलोक से, गईं थामकर हाथ
*
महाराज कॉलेज से, इंटर-बी. ए. पास
किया, मिले आजीविका, पूरी हो हर आस
*
धर्म-पिता भव त्याग कर, चले गए सुर लोक
धैर्य-मूर्ति बन दुःख सहा, कोई सका न टोंक
*
रचा पिता की याद में, 'मथुरेश जीवनी' ग्रन्थ
'गोविंदी' ने साथ दे, गह सृजन का पंथ
*
'विद्यावती' सुसंगिनी, दो सुत पुत्री एक
दे, असमय सुरपुर गयीं, खोया नहीं विवेक
*
महाराजा कॉलेज से, एल-एल. बी. उत्तीर्ण
कर आभा करने लगे, अपनी आप विकीर्ण
*
मिली नौकरी किन्तु वह, तनिक न आयी रास
जुड़े वकालत से किये, अनथक सतत प्रयास
*
प्रगटीं माता शारदा, स्वप्न दिखाया एक
करो काव्य रचना सतत, कर्म यही है नेक
*
'एकादशी महात्म्य' रच, किया पत्नि को याद
व्यथा-कथा मन में राखी, भंग न हो मर्याद
*
रच कर 'माधव-माधवी', 'रुक्मिणी मंगल' काव्य
बता दिया था कलम ने, क्या भावी संभाव्य
*
सन्तानों-हित तीसरा, करना पड़ा विवाह
संस्कार शुभ दे सकें, निज दायित्व निबाह
*
पा 'शकुंतला' हो गया, घर ममता-भंडार
पाँच सुताएँ चार सुत, जुड़े हँसा परिवार
*
सावित्री सी सुता पा, पितृ-ह्रदय था मुग्ध
पाप-ताप सब हो गए, अगले पल ही दग्ध
*
अधिवक्ता के रूप में, अपराधी का साथ
नहीं दिया, सच्चाई हित, लड़े उठाकर माथ
*
दर्शन 'गलता तीर्थ' के, कर भूले निज राह
'पयहारी' ने हो प्रगट, राह दिखाई चाह
*
'सन्तदास'-संपर्क से, पा आध्यात्म रुझान
मन वृंदावन हो चला, भरकर भक्ति-उड़ान
*
'पुरुषोत्तम श्री राम चरित', रामायण-अनुवाद
कर 'श्री कृष्ण चरित' रचा, सुना अनाहद नाद
*
'कल्कि विष्णु के चरित' को, किया कलम ने व्यक्त
पुलकित थे मन-प्राण-चित, आत्मोल्लास अव्यक्त
*
चंचरीक मधुरेश थे, मंजुल मृदुल मराल
शंकर सम अमृत लुटा। पिया गरल विकराल
*
मोहन सोहन विमल या, वृन्दावन रत्नेश
मधुकर सरस उमेश या , थे मुचुकुन्द उमेश
*
प्रेमी गुरु प्रणयी वही, अम्बु सुनहरी लाल
थे भगवती प्रसाद वे, भगवद्भक्त रसाल
*
सत्ताईस तारीख थी, और दिसंबर माह
दो हजार तेरह बरस, त्यागा श्वास-प्रवाह
*
चंचरीक भू लोक तज, चित्रगुप्त के धाम
जा बैठे दे विरासत, अभिनव ललित ललाम
*
उन प्रभु संजीव थे, भक्ति-सलिल में डूब
सफल साधना कर तजा, जग दे रचना खूब
*
निर्मल तुहिना दूब पर, मुक्तामणि सी देख
मन्वन्तर कर कल्पना, करे आपका लेख
*
जगमोहन काया नहीं, हैं हरि के वरदान
कलम और कवि धन्य हो, करें कीर्ति का गान
***
मुक्तिका
*
बोल बिके बेमोल
मौन रहा अनमोल
*
कौन किसी के साथ
नातों में है झोल?
*
मन्ज़िल तय कर आप
नाहक तू मत डोल
*
लौट न सकती बात
ले पहले तू तोल
*
ढोल बड़ा जितना
भीतर उतनी पोल
*
कौन न मरा-जिया?
है यह दुनिया गोल
*
श्वास-आस के साथ
जीवन करे किलोल
२५-९-२०१६
***
मुक्तिका:
बिटिया
*
चाह रहा था जग बेटा पर अनचाहे ही पाई बिटिया.
अपनों को अपनापन देकर, बनती रही पराई बिटिया..

कदम-कदम पर प्रतिबंधों के अनुबंधों से संबंधों में
भैया जैसा लाड़-प्यार, पाने मन में अकुलाई बिटिया..

झिड़की ब्यारी, डांट कलेवा, घुड़की भोजन था नसीब में.
चौराहों पर आँख घूरती, तानों से घबराई बिटिया..

नत नैना, मीठे बैना का, अमिय पिला घर स्वर्ग बनाया.
हाय! बऊ, दद्दा, बीरन को, बोझा पड़ी दिखाई बिटिया..

खान गुणों की रही अदेखी, रंग-रकम की माँग बड़ी थी.
बीसों बार गयी देखी, हर बार गयी ठुकराई बिटिया..

करी नौकरी घर को पाला, फिर भी शंका-बाण बेधते.
तनिक बोल ली पल भर हँसकर, तो हरजाई कहाई बिटिया..

राखी बाँधी लेकिन रक्षा करने भाई न कोई पाया.
मीत मिले जो वे भी निकले, सपनों के सौदाई बिटिया..

जैसे-तैसे ब्याह हुआ तो अपने तज अपनों को पाया.
पहरेदार ननदिया कर्कश, कैद भई भौजाई बिटिया..

पी से जी भर मिलन न पाई, सास साँस की बैरन हो गयी.
चूल्हा, स्टोव, दियासलाई, आग गयी झुलसाई बिटिया..

फेरे डाले सात जनम को, चंद बरस में धरम बदलकर
लाया सौत सनम, पाये अब राह कहाँ?, बौराई बिटिया..

दंभ जिन्हें हो गए आधुनिक, वे भी तो सौदागर निकले.
अधनंगी पोशाक, सुरा, गैरों के साथ नचाई बिटिया..

मन का मैल 'सलिल' धो पाये, सतत साधना स्नेह लुटाये.
अपनी माँ, बहिना, बिटिया सम, देखे सदा परायी बिटिया..
***
मुक्तिका:
शतदल खिले..
*
प्रियतम मिले.
शतदल खिले..

खंडहर हुए
संयम किले..

बिसरे सभी
शिकवे-गिले..

जनतंत्र के
लब क्यों सिले?

भटके हुए
हैं काफिले..

कस्बे कहें
खुद को जिले..

छूने चले
पग मंजिलें..

तन तो कुशल
पर मन छिले..
२५-९-२०१०
***

रविवार, 24 सितंबर 2023

वल्लभाचार्य

वल्लभाचार्य
*
गत-आगत में भक्ति ने, बाँधा शाश्वत सेतु।
जन मन हरि उन्मुख हुआ, भाव तारण के हेतु।।
चौरासी बैठक करीं, कृष्ण भक्ति थी इष्ट। 
साध्य साधने साधना, मेटे सकल अनिष्ट
*
शुद्धाद्वैती पंथ का, रखा अटल आधार। 
मायातीती ब्रह्म हो, लेता है अवतार।। 
*
ईश मनुज अवतार ले, फैलाता भ्रम-जाल। 
भक्त सत्य क्या जानते, शेष बजाते गाल।। 
*
ब्रह्म एक मानें नहीं, उसको कभी अनेक। 
रूप भिन्न पर चेतना, सबमें केवल एक।। 
*
ईश-कृपा कर दिखाते, छवि ज्यों सूर्य अनंत। 
जो देखे वह लीन हो, आभा व्याप्त दिगंत।। 
*
वल्लभ ने टीका लिखीं, समझ-बूझ सदग्रन्थ। 
श्री जी की श्री अलौकिक, पुष्टि दिव्य है पंथ।। 
*
जो असीम उस तक नहीं, पहुँचे कभी ससीम। 
वाक् ईश गुण गा तरे, छोड़े कहकहे न नीम।। 
*
वल्लभ ने माधुर्य को, माना अपना पंथ। 
गोपी-राधा कृष्ण मिल, पढ़ें प्रेम का ग्रंथ।। 
*
गुरु-शिष्यों की प्रथा ने,  किया लोक कल्याण। 
कृष्ण भक्ति अमृत चखा, किया जगत संप्राण।। 
*
वैश्वानर अवतार थे वल्लभ, हर तम घोर। 
श्री जी भक्ति उजास से, जग को सके विभोर।। 
*

ज्ञान मार्ग अति कठिन है, सभी न सकते साध। 
भक्तिमार्ग है सहज पथ, काट सके हर व्याध।। 
*
भक्तों तक भगवान खुद, आते उसको खोज। 
भक्ति भाव सच्चा अगर, प्रभु दें दर्शन रोज।। 
सख्य-भाव अति मधुर है, दास्य भाव है दीन। 
दोनों श्रेष्ठ समान हैं, कोई उच्च न हीन।। 
मूर्ति श्रेष्ठता मूर्त कर, लेती मन को मोह। 
सीमित होकर यहीं तक, करें न प्रभु से द्रोह।। 
मंदिर हो मोहक सदा, यही नहीं पर्याप्त। 
मन मंदिर भी स्वच्छ हो, हो प्रसन्न प्रभु आप्त।। 
भक्ति तीव्र जितनी अधिक, उतना हो वैराग्य। 
बिसर मोह-माया सकल, तभी मिलर सौभाग्य।। 
दास्य भाव कातर करे, बिसरे निज सामर्थ्य। 
सख्य भाव उत्साह दे, प्रभु अर्पित कर अर्ध्य।। 
पुष्टि मार्ग चल पुष्ट हो, प्रभु प्रति आस्था भाव। 
मत अपुष्ट पथ पर चलें, हो दृढ़ प्रभु प्रति चाव।। 
शुद्ध द्वैत पथ पर चलें, हो अद्वैत न साध्य। 
विधि-हरि-हर त्रय रूप है, तीनों मिल आराध्य।। 
ब्रह्म न क्षर, अक्षर अजर, अमर न होता नष्ट। 
ब्रह्म सखा हम भी अमर, कभी न पाते कष्ट।। 
सख्य भाव पुरुषार्थ का, होता है आधार। 
दास्य भाव भर दीनता, कहे जगत निस्सार।।  
पर-अक्षर अरु जगत हैं, तीन ब्रह्म जग मूल।
त्याज्य न जग को मानिए, मोह न मानें शूल।। 
प्रभु सुंदर-श्री युक्त हैं, हो सम सखा हमेश। 
प्रभु-प्रिय तब ही हो सके, भ्रमित न हों हम लेश।।       


श्रीबल्लभ जी 
छप्पय 
व्रजबल्लभ ''बल्लभ'', परम दुर्लभ सुख नैननि दिए। 
नृत्य गान गुन निपुन रास में रस बरसावत।। 
अब लीला ललितादि बलित दंपतहिं रिझावत। 
अति उदार निस्तार, सुजस बृजमण्डल राजत।। 
महामहोत्सव करत, बहुत सबही सुख साजत। 
श्रीनारायण भट्ट प्रभु, परम प्रीत रस बस किए। 
ब्रजबल्लभ ''बल्लभ'', परम दुर्लभ सुख नैननि दिए।।८८।। (१२६)
*
वार्तिक तिलक 
श्री वल्लभ जी ब्रजभूमि से बड़ी ही प्रीति रखते और व्रजमण्डल के लोग भी आपसे बड़ी प्रीति करते थे क्योंकि आपने सबके नेत्रों को श्री रहस्य लीला का दुर्लभ सुख दिया था, नृत्य, संगीत और और गुणों में आप प्रवीण थे और रहस्यलीला में आप आनंद रस की वर्ष किया करते थे। श्री ललितादि सखियों समेत श्रीराधाकृष्णजी को रिझाया करते थे। आप कलिजीवों के निस्तारक हुए। श्रीव्रजमण्डल में आज भी आप का सुयश छा रहा है। बड़े सुख साज के साथ, महा-महोत्सव किया करते थे। श्री वल्लभाचार्यजी ने श्रीनारायण भट्ट को, परम प्रीति से रस वश किया था। 
(गोस्वामि श्रीनाभाजी कृत श्री भक्तमाल श्रीप्रियादासजी प्रणीत टीका-कवित्त, सन २०११ ईस्वी, प्रकाशक टेजकुमार बुक डिपो (प्रा। ) लिमिटेड)