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मंगलवार, 5 सितंबर 2023

सॉनेट, शिक्षक, पुनरुक्ति अलंकार, सरस्वती, गणेश, नवगीत, आत्मालाप

सॉनेट
शिक्षक दिवस
नित्य नया सीखिए,
नित्य नव सिखाइए,
अग्रगण्य दीखिए,
राह नव दिखाइए।

अंधकार को गले,
दीप बन लगाइए,
दें प्रकाश गर ढले,
भोर रवि उगाइए।

बने क्षर अक्षर सभी,
शब्द नित सिखाइए,
भाव बिंब रस नदी,
नर्मदा बहाइए।

जीवन को जिताइए।
सजीवित बनाइए।।
५-९-२०२३
शिक्षक दिवस
•••
सॉनेट
शिक्षक
शिक्षक सब कुछ रहे सिखाते
हम ही सीख नहीं कुछ पाए
खोटे सिक्के रहे भुनाते
धन दे निज वंदन करवाए
मितभाषी गुरु स्वेद बहाते
कंकर से शंकर गढ़ पाए
हम ढपोरशंखी पछताते
आपन मुख आपन जस गाए
गुरु नेकी कर रहे भुलाते
हमने कर अहसान जताए
गुरु बन दीपक तिमिर मिटाते
हमने नाते-नेह भुनाए
गुरु पग-रज यदि शीश चढ़ाते
आदम हैं इंसान कहाते
५-९-२०२२
***
अलंकार सलिला
पुनरुक्ति अलंकार
*
पुनरुक्ति अथवा वीप्सा अलङ्कार में काव्य अथवा वाक्य में एक ही शब्द किसी भाव को पुष्ट करने के लिए उसी अर्थ में बार-बार प्रयोग किया जाता है। यथा इस अलङ्कार को परिभाषित करते हुए मेरा 'बार-बार' का उसी अर्थ में प्रयोग पुनरुक्ति है।
यह संस्कृत श्लोक वीप्सा अलङ्कार का सुन्दर उदाहरण है :
शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे-गजे।
साधवो न हि सर्वत्रं, चन्दनं न वने-वने ॥
इस अलङ्कार के तीन भेद हैं, और उन भेदों में भी सूक्ष्म विभेद हैं।
१. पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार - पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार में एक ही शब्द उसी रूप में दोबारा प्रयोग किया जाता है। इसके ७ भेद हैं :
१.१ सञ्ज्ञा पूर्ण पुनरुक्ति - जिसमें सञ्ज्ञा शब्दों की पुनरावृत्ति होती है। साहिर लुधियानवी का लिखा, रवि का संगीतबद्ध किया और आशा भोंसले का गाया नीलकमल का यह गीत जिसमें रोम शब्द की पुनरुक्ति हुई है :
हे रोम रोम में बसने वाले राम
हे रोम रोम में बसने वाले राम
जगत के स्वामी हे अंतर्यामी
मै तुझसे क्या माँगू?
१.२ सर्वनाम पूर्ण पुनरुक्ति — जिसमें सर्वनाम शब्दों की पुनरावृत्ति होती है। जैसे, जी एम दुर्रानी के गाए कमर जलालाबादी के लिखे पण्डित अमरनाथ तथा हुस्नलाल-भगतराम के संगीत निर्देशन में मिर्जा-साहिबान (१९४७) का यह गीत जिसमें सर्वनाम शब्द 'कहाँ-कहाँ' पूर्ण पुनरुक्ति हुई है।
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ -२
बदनाम होगी मेरी कहानी कहाँ-कहाँ -२
ओ रोने वाले अब तेरा दामन भी फट गया -२
पहुँचेगी आँसुओँ की रवानी कहाँ-कहाँ -२
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ
जिस बाग़ पर निगाह पड़ी वो उजड़ गया -२
बरसाऊँ अपनी आँख का पानी कहाँ-कहाँ -२
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ
१.३ विशेषण पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का प्रयोग 'जाने-अनजाने' (१९७१) के लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी के गाए, शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में हसरत जयपुरी के लिखे इस गीत में 'नीली नीली' शब्द का आँखों के विशेषण के रूप में प्रयोग
तेरी नीली नीली आँखों के
दिल पे तीर चल गए
चल गए चल गए चल गए
ये देख के दुनियावालों के
दिल जल गए
जल गए जल गए जल गए
१.४ क्रिया-विशेषण पुनरुक्ति अलङ्कार - क्रिया-विशेषण पुनरुक्ति प्रयोग 'झूम झूम' के रूप में 'अंदाज़' में नौशाद के संगीत निर्देशन में मुकेश के गाए इस गीत में देखा जा सकता है। इस गीत में सञ्ज्ञा 'आज' तथा क्रिया 'नाचो' की भी पुनरुक्ति है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा है।
झूम झूम के नाचो आज नाचो आज
गाओ खुशी के गीत हो
गाओ खुशी के गीत
आज किसी की हार हुई है,
आज किसी की जीत हो
गाओ खुशी के गीत हो
१.५ विस्मयादिबोधक पुनरुक्ति अलङ्कार का प्रयोग 'रामा रामा' के अनूठे प्रयोग से 'नया जमाना' (१९७१) लता मंगेशकर के गाए इस गीत में देखा जा सकता है। संगीतकार सचिन देव बर्मन तथा गीतकार आनन्द बख्शी हैं।
हाय राम
रामा रामा गजब हुई गवा रे
रामा रामा गजब हुई गवा रे
हाल हमारा अजब हुई गवा रे
रामा रामा गजब हुई गवा रे
१.६ विभक्ति सहित पुनरुक्ति, इसमें पुनरुक्त शब्दों के मध्य में विभक्ति शब्द होता है। जैसे कि 'सन्त ज्ञानेश्वर' (१९६४) फिल्म के लिए मुकेश तथा लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शब्दों की पुनरावृत्ति के बीच विभक्ति सूचक शब्द 'से' का प्रयोग हुआ है। गीतकार भरत व्यास हैं तथा संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का है।
ज्योत से ज्योत जगाते चलो,
ज्योत से ज्योत जगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो,
प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आये जो दीन दुखी,
राह में आये जो दीन दुखी
सब को गले से लगते चलो,
प्रेम की गंगा बहाते चलो
१.७ क्रिया पुनरुक्ति का प्रयोग भी कुछ गीतों में देखा जा सकता है। जैसे कि हेमन्त कुमार तथा लता मंगेशकर के गाए इस गीत में क्रिया और क्रिया-विशेषण दोनों ही की पुनरावृत्ति होती है। पायल(१९५७) के इस गीत के गीतकार राजेन्द्र कृष्ण तथा संगीतकार हेमन्त कुमार स्वयं ही हैं
चलो चले रे सजन धीरे धीरे
बलम धीरे धीरे सफर है प्यार का
खोई खोई है यह रात रंगीली
नजर है नशीली समां इकरार का
२. अपूर्ण पुनरुक्ति - इसके ३ प्रकार हैं।
२.१ दो सार्थक सानुप्रास शब्दों का मेल, यह शब्द सञ्ज्ञा, क्रिया, विशेषण, क्रिया-विशेषण कुछ भी हो सकते हैं। 'मिस इण्डिया' फिल्म के इस गीत में विभक्ति सहित सानुप्रास सञ्ज्ञा तथा सर्वनाम शब्दों का प्रयोग देखा जा सकता है। राजेन्द्र कृष्ण के गीत को सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में शमशाद बेगम ने यह गीत गाया है।
है जैसे को तैसा
नहले पे दहला
दुनिया का प्यारे
असूल है ये पहला
जैसे को तैसा
नहले पे दहला
२.२ दो निरर्थक शब्दों की पुनरुक्ति से, जैसे खटा खट, झटा झट, फटाफट, फट फट, लाटू बाकू आदि इसका उदाहरण नीचे दिया गया है। जैसे किशोर कुमार और शमशाद बेगम के गाए इस गीत में अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का बहुतायत से प्रयोग हुआ है, और अनेक स्थानों पर सार्थक अथवा निरर्थक शब्दों का मेल दिखता है। प्रेम धवन के लिखे गीत को मदनमोहन ने संगीत दिया है फिल्म है 'अदा' (१९५१)।
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं उँचे सुरों में गाऊँ
मैं तुमसे भी उँचा जाऊँ
होय मैं उँचे सुरों में गाऊँ
अजि मैं तुमसे भी उँचा जाऊँ
सा रे गा
रे गा मा
गा मा पा
मा पा धा
पा धा नि
धा नि पा
नि सा रे ए ए ए
सा रे गा रे गा मा गा मा पा
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं झट पट झटा पट बोलूं
मैं फट फट फटा फट बोलूं
मैं झट पट झटा पट बोलूं
मैं फट फट फटा फट बोलूं
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट फट झट फट
फट फट फट फट ट्र्र्रर्र्र
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं धीरे धीरे बोलूँ
मैं तुमसे भी धीरे बोलूँ
मैं धीरे धीरे बोलूँ
मैं तुमसे भी धीरे बोलूँ
आओ दिल की बात करें
आप हमसे दूर रहें
हम तुम पे मरते हैं
हम तुमसे डरते हैं
हम जान लुटाते हैं
हम जान छुडाते हैं
हम दिल के
तुम दिल के खोटे हो
बेपेंदी के लोटे हो
डबल रोटे हो
तुम बहुत ही मोटे हो
ओएँऽऽऽऽ
आँऽऽऽऽ
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकता हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकता हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं मीठा मीठा गाऊँ
मैं तुमसे भी मीठा गाऊँ
मैं मीठा मीठा गाऊँ
मैं तुमसे भी मीठा गाऊँ
जिया बेक़रार है
छाई बहार है
आजा मोरे बालमा
तेरा इंतेज़ार है
जिया बेक़रार है
छाई बहार है
आजा मोरे बालमा
बालम आए बसो मोरे मन मै बा आ आ आऽऽऽऽ
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
तुम कर सकती हो मुझसे भी बढ चढ के बढ चढ के
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के बढ चढ के
तुम कर सकती हो मुझसे भी बढ चढ के बढ चढ के
बढ चढ के बढ चढ के
२.३ एक सार्थक और एक निरर्थक शब्द की पुनरुक्ति से, उदाहरणार्थ गोल-माल, गोल-मोल-झोल आदि। 'हाफ-टिकट' में किशोर कुमार के गाए, सलिल चौधरी के संगीत में सजे इस गीत में अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार के सभी रूपों का आनन्द लिया जा सकता है।
या या या ब ग या युं या ब ग उन
आ रहे थे इस्कूल से रास्ते में हमने देखा
एक खेल सस्ते में
क्या बेटा क्या आन मान
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह वाह
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
छुक-छुक-छुक चली जाती है रेल
छुक-छुक-छुक चली जाती है रेल
छुप-छुप-छुप तोता-मैना का मेल
प्यार की पकौड़ी, मीठी बातों की भेल
प्यार की पकौड़ी, मीठी बातों की भेल
थोड़ा नून, थोड़ी मिर्च, थोड़ी सूँठ, थोड़ा तेल
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह बोल
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए अरे वाह रे बेटा
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
गोल-मोल-झोल मोटे लाला शौकीन
गोल-मोल-झोल मोटे लाला शौकीन
तोंद में छुपाए हैं चिराग़-ए-अलादीन
तीन को हमेशा करते आए साढ़े-तीन
तीन को हमेशा करते आए साढ़े-तीन
ज़रा नाप, ज़रा तोल, इसे लूट, उससे छीन
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
कोई मुझे चोर कहे कोई कोतवाल
कोई मुझे चोर कहे कोई कोतवाल
किसपे यक़ीन करूँ मुश्किल सवाल
दुनिया में यारो है बड़ा-ही गोलमाल
दुनिया में यारो है बड़ा-ही गोलमाल
कहीं ढोल, कहीं पोल, सीधी बात टेढ़ी चाल
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह वाह
उन बाबा मन की आँखें खोल
३. अनुकरणात्मक पुनरुक्ति अलङ्कार, इसमें किसी वस्तु की कल्पित ध्वनि को आधारित कर बने शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे, रेल के लिए 'छुक छुक' (पिछले गीत में), बरसात के लिए 'रिमझिम', 'झमाझम', मेंढक की 'टर्र-टर्र', घोड़े की 'हिनहिन' आदि। इसमें सार्थक-निरर्थक किसी भी प्रकार के शब्द हो सकते हैं। जैसे मनोज कुमार की फिल्म 'यादगार' (१९७०) के इस गीत का मुखड़ा, वर्मा मलिक के इस गीत को कल्याणजी-आनंदजी ने सुरों में सजाया है और महेन्द्र कपूर ने गाया है।
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
बात है लम्बी मतलब गोल
खोल न दे ये सबकी पोल
तो फिर उसके बाद
एक तारा बोले
तुन तुन सुन सुन सुन
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
एक तारा बोले
तुन तुन तुन तुन तुन
और अन्त में इस गीत में भी अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का पूर्ण आनन्द लें
ईना मीना डीका, डाइ, डामोनिका
माका नाका नाका, चीका पीका रीका
ईना मीना डीका डीका डे डाइ डामोनिका
माकानाका माकानाका चीका पीका रोला रीका
रम्पम्पोश रम्पम्पोश
विशेष टिप्पणी - वीप्सा अलङ्कार के समान ही यमक अलङ्कार में शब्दों की पुनरावृत्ति होती है, किन्तु इनमें अन्तर यह है कि वीप्सा / पुनरुक्ति अलङ्कार में शब्द का अर्थ एक ही होता है, किन्तु यमक अलङ्कार में स्थान के अनुसार शब्द का अर्थ परिवर्तित हो जाता है। जैसे आशा भोंसले के गाए 'सौदागर' (१९७३) के इस गीत में सजना दो अर्थों में प्रयोग किया गया है, यह यमक अलङ्कार का उत्तम उदाहरण है। गीत और संगीत दोनों रवीन्द्र जैन के हैं।
सजना है मुझे सजना के लिए
सजना है मुझे सजना के लिए
ज़रा उलझी लटें सँवार लूँ
हर अंग का रंग निखार लूँ
के सजना है मुझे सजना के लिए
सजना है मुझे सजना के लिए
*
***
सरस्वती वंदना
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।
शक्ति ऐसी दो हमें माँ,सत्य लिख संसार का दूँ।
सार समझा दूँ जगत का,ज्ञान बस परिहार का दूँ।
आन बैठो नित्य जिह्वा,कंठ में मृदु राग भर दो-
नाद अनहद बज उठे उर,प्राण निर्मल भावना हो।
काव्य हो अभिमान मेरा,तूलिका पहचान मेरी।
छंद रंगित पृष्ठ शोभित,वंद्य कूची शान मेरी।
छिन भले लो साज सारे,पर कलम को धार दो माँ-
मसि धवल शुचि नीर लेकर,अम्ब!तेरी अर्चना हो।
लिख सकूँ अरमान सारे,रच सकूँ इतिहास स्वर्णिम।
ठूँठ पतझर के हृदय पर,रख सकूँ मधुमास स्वर्णिम।
शब्द अभिधा अर्थ अभिनव,रक्त कणिका में घुला दो-
शारदे! निज कर बढ़ा दो,शुभ चरण आराधना हो।
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।
५-९-२०१९
***
एक रचना
*
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६
***
आदरणीय श्री संजीव सलिल जी के सम्मान में सादर समीक्षाधीन एक मुक्तक ।
= = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = =
कभी उसके मुकदमों में, बकालत हो नहीें सकती ।
कहे कोई भले उसकी, खिलाफत हो नहीें सकती ।
भले हो देर ही लेकिन, सदा वह न्याय करता है,
बड़ी उससे जमाने में, अदालत हो नहीें सकती ।
४-९-२०१६
गीतकार राजवीर सिंह
सबलगढ़ ( मुरैना ) म.प्र
फोन - 9827856799
***
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
***
नवगीत:
*
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
गड्ढों की
गिनती मत कर
मत खोज सड़क.
रुपया माँगे
अगर सिपाही
नहीं भड़क.
पैडल घुमा
न थकना-रुकना
बढ़ना है.
खड़ी चढ़ैया
दम-ख़म साधे
चढ़ना है.
बहा पसीना
गमछा लेकर
पोंछ, न रुक.
रामभरोसे!
बढ़ता चल
सुन सूरज की
बात: 'कीमती
है हर पल.'
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
बचुवा की
लेना किताब,
पैसे हैं कम.
खाँस-खाँस
अम्मा की आँखें
होतीं नम.
चाब न पाते
रोटी, डुकर
दाँत टूटे.
धुतिया फ़टी
पहन घरनी
चुप, सुख लूटे.
टायर-ट्यूब
बदल, खालिस
सपने मत बुन.
चाय-समोसे
गटक,
सवारी बैठा,
खाली हाथ
न मल.
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
डिजिटल-फिजिटल
काम न कुछ भी
आना है.
बिटिया को
लोटा लेकर ही
जाना है.
मुई सियासत
अपनेपन में
आग लगा.
दगा दे गयी
नहीं किसी का
कोई सगा.
खाली खाता
ठेंगा दिखा
चिढ़ाता है.
अच्छा मन
कब काम
कभी कुछ
आता है?
अच्छे दिन,
खा खैनी,
रिक्सा खींच
सम्हाल रे!
नहीं फिसल।
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'

***
शुभकामनायें
रचना-रचनाकार को, नित कर नम्र प्रणाम
'सलिल' काम निष्काम कर, भला करेंगे राम
ईश्वर तथा प्रकृति को नमन कर निस्वार्थ भाव से कार्य करने से प्रभु कृपा करते हैं.
परमात्मा धारण करे, काया होकर आत्म
कहलाये कायस्थ तब, तजे मिले परमात्म
निराकार परब्रम्ह अंश रूप में काया में रहता है तो कायस्थ कहलाता है. जब वह काया का त्याग करता है तो पुन: परमात्मा में मिल जाता है.
श्री वास्तव में मिले जब, खरे रहें व्यवहार
शक-सेना हँस जय करें, भट-नागर आचार
वास्तव में समृद्धि तब ही मिलती है जब जुझारू सज्जन अपने आचरण से संदेहों को ख़ुशी-ख़ुशी जीत लेते हैं।
संजय दृष्टि तटस्थ रख, देखे विधि का लेख
वर्मा रक्षक सत्य का, देख सके तो देख
महाभारत युद्ध में संजय निष्पक्ष रहकर होनी को घटते हुए देखते रहे. अपनी देश और प्रजा के रक्षक नरेश (वर्मा = अन्यों की रक्षा करनेवाला) परिणाम की चिंता किये बिना अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार युद्ध कर शहीद हुए।
शांत रखे तन-मन सदा, शांतनु तजे न धैर्य
हो न यादवी युद्ध अब, जीवन हो निर्वैर्य
देश के शासक हर स्थिति में तन-मन शांत रखें, धीरज न तजें. आपसी टकराव (कृष्ण के अवसान के तुरंत बाद यदुवंश आपस में लड़कर समाप्त हुआ) कभी न हो. हम बिना शत्रुता के जीवन जी सकें।
सिंह सदृश कर गर्जना, मेघ बरस हर ताप
जगती को शीतल करे, भले शेष हो आप
परोपकारी बदल शेर की तरह गरजता है किन्तु धरती की गर्मी मिटाने के लिये खुद मिट जाने तक बरसता है।
***
पर्व नव सद्भाव के
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..
शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..
धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
***
एक चैट वार्ता:
कुछ दिन पूर्व एक वार्ता आपसे साझा की थी. आज एक अन्य वार्ता से आपको जोड़ रहा हूँ. कोई कहानीकार इन पर कहानी का तन-बाना बुन सकता है. आपसे साझा करने का उद्देश्य समाज में बढ़ रही प्रवृत्तियों का साक्षात है. समाज में हो रहे वैचारिक परिवर्तन का संकेत इन वार्ताओं से मिलता है.
- hi
= नमस्कार
- hi
= कहिए, कैसी हैं?
- thik hu ji
= क्या कर रही हैं आजकल?
- kuch nahi ji. aap kyaa karte ho ji?
=मैं लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर रहा. अब सेवा निवृत्त हूँ.
- aachha ji
= आपके बच्चे किन कक्षाओं में हैं?
- beta 4th me or beti 3 मे.
= बढ़िया. उनके साथ रोज शाम को रामचरित मानस के ५ दोहे अर्थ के साथ पढ़ा करें। इससे वे नये शब्द और छंद को समझेंगे। उनकी परीक्षा में उपयोगी होगा। गाकर पढ़ने से आवाज़ ठीक होगी।
- ji. me aapke charan sparsh karti hu. aap bahut hi nek or aachhe insan he.
= सदा प्रसन्न रहें। बच्चों की पहली और सबसे अधिक प्रभावी शिक्षक माँ ही होती है. माँ बच्चों की सखी भी हो तो बच्चे बहुत सी बुराइयों से बच जाते हैं.
- or sunaao kuch. mujhe aap se bat karke bahut aacha laga ji
= आपके बच्चों के नाम क्या हैं?
- beta sachin beti sandhya
= रोज शाम को एकाग्र चित्त होकर लय सहित मानस का पाठ करने से आजीवन शुभ होता है.
- wah wah kya bat he ji. aap mere guru ji ho
= आपकी सहृदयता के लिए धन्यवाद। बच्चों को बहुत सा आशीर्वाद
- orr sunaao aapko kya pasand he? mere layk koi sewa?
= आप कहाँ तक पढ़ी हैं? कौन से विषय थे.


- 10 pas hu. koi job karna chahti hu.
= अभी नहीं। पहले मन को मजबूत कर १२ वीं पास करें। प्राइवेट परीक्षा दें. साथ में कम्प्यूटर सीखें। इससे आप बच्चों को मदद कर सकेंगी. बच्चों को ८० प्रतिशत अंक मिलें तो समझें आप को मिले. आप के पति क्या करते हैं? आय कितनी है?
- ha par m padhai nahi kar sakti hu. computar chalaana to aata he mujhe mobail repering ka kam he dukaan he khud ki


= तब तो सामान्य आर्थिक स्थिति है. बच्चे कॉलेज में जायेंगे तो खर्च अधिक होगा। अभी से सोचना होगा। आप किस शहर में हैं?
- ……।


= आय लगभग १५-२० हजार रु. मानूं तो भी आपको कुछ कमाना होगा। कम्प्यूटर में माइक्रौसौफ़्ट ऑफिस, माइक्रोसॉफ्ट वर्ड, विंडो आदि सीखना होगा। बच्चे छोटे हैं इसलिए घर में रहना भी जरूरी है. आप घर पर वकीलों और किताबों का टाइपिंग काम करें तो अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है. बाहर नौकरी करेंगी तो घर में अव्यवस्था होगी.
- bahar bhi kar lugi yadi job achha he to. 10 hajar s jyada nahi kama pate he.


= अच्छी नौकरी के लिए १० वीं पर्याप्त नहीं है. आजकल प्राइवेट स्कूल १ से ३ हजार में शिक्षिकाएं रखते हैं जो BA या MA होती हैं. कंप्यूटर से टाइपिंग सीखने में २-३ माह लगेंगे और आप घर पर काम कर अच्छी आय कर सकती हैं. घर कहाँ है?
- steshan k pas men rod par, kabhi aana to hum s jarur milna aap.
= दूसरा रास्ता घर में पापड़, आचार, बड़ी आदि बनाकर बेचना है. यह घर, दूकान तथा सरकारी दफ्तरों में किया जा सकता है. नौकरी करने वाली महिलाओं को घर में बनाने का समय नहीं मिलता। आपसे स्वच्छ, स्वादिष्ट तथा सस्ता सामान मिल सकेगा। त्योहारों आर मिठाई भी बना कर बेच सकती हैं. इसमें लगभग ६० % का फायदा है. जबलपुर में मेरी एक रिश्तेदार ने इसी तरह अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई है. यह सुझाव उन्हें भी मैंने ही दिया था.
- thank u ji
= पति के साथ सोच-विचार कर कोई निर्णय करें जिसमें घर और बच्चों को देखते हुए भी आय कर सकें. घर में और कौन-कौन हैं?
- total femli 4 log, sas sasur nahi he, bhai sab aalag rahte he
= फिर तो पूरी जिम्मेदारी आप पर है, वे होते तो आपके बाहर जाने पर बच्चों को बड़े देख लेते। मेरी समझ में बेहतर होगा कि आप घर से ही काम करें।
- ji, hamari bhai ki ladki yahi p rahti he coleej ki padhai kar rahi he ghar ka kam to bo kar leti he. m jyadatar free rahti hu. isliye kuch karne ka socha
= घर में सामान बना कर बेचेंगी, अथवा पढ़ाई करेंगी या टाइपिंग का काम करेंगी तो समय कम पड़ेगा। घर पर करने से घर और बच्चों की देख-रेख कर सकेंगी. थकान होने पर सुस्ता सकेंगी, बाहर की नौकरी में घर छोड़ना होग. समय अधिक लगेगा. आने-जाने में भी खर्च होग. वेतन भी कम ही मिलेगा. उससे अधिक आप घर पर काम कर कमा सकती हैं. बनाया हुआ सामान बिकने लगे तो फिर काम बढ़ता जाता है. त्योहारों पर सहायक रखकर काम करना होता है. मैदा, बेसन आदि बोरों से खरीदने अधिक बचत होती है. आप लड्डू, बर्फी, सेव, बूंदी, मीठी-नमकीन मठरी, शकरपारे, गुझिया, पपड़ियाँ आदि बना लेती होंगी। अभी यह योग्यता घर तक सीमित है.
- mujhe ghumna pasand he. aap jese jankar or sammaniy logos bat karna aacha lagta he. gana gane ka shook he
= जब सामान बना लेंगी तो बेचने के लिए घूमना होगा। सरकारी दफ्तरों में काम करनेवाले कर्मचारी ही आपके ग्राहक होंगे. जिनके घरों में महिलायें बनाना नहीं जानतीं, बीमार हैं, या आलसी हैं वे सभी घर का बना साफ़-सुथरा सामान खरीदना पसंद करते हैं.गायन अच्छी कला है पर इससे धन कमाना कठिन है. अधिकांश कार्यक्रम मुफ्त देना होते हैं, लगातार अभ्यास करना होता है. आयोजक या व्यवस्था ठीक न हो तो कठिनाई होती है. पूरी टीम चाहिए। गायक-गायिका, वादक, माइक आदि
- ji, aapko kya pasand he
= आपकी परिस्थितियों, वातावरण और साधनों को देखते हुए अधिक सफलता घर में सामान बनाकर बेचने से मिल सकती है. नौकरीवालों के लिए टिफिन भी बना सकती हैं. इससे घर के सदस्यों का भोजन-व्यय बच जाता है. कमाई होती है सो अलग.
गायन, वादन, नर्तन आदि शौक हो सकते हैं पर इनसे कमाई की सम्भावना काम है.
- aapko kya pasand he
= मुझे हिंदी मैया की सेवा करना पसंद है. रिटायर होने के बाद रोज १०-१२ घंटे लिखता-पढ़ता हूँ. चैटिंग के माध्यम से समस्याएं सुलझाता हूँ.
- thank u. i l u. i lick u
= प्रभु आपकी सहायता करें.. कंप्यूटर पर हिंदी में लिखना सीख लें.
- aap bhi kuch sahayta karo
= इतना विचार-विमर्श और मार्गदर्शन सहायता ही तो है.
- haa ji
= आपने गायन के जो कार्यक्रम किये उनसे कितनी आय हुई ?
- मै आपको मिल जाऊँ तो आप क्या करोगे । 1. दोस्ती, 2.प्यार, 3. सेक्स। mene koi karykaran nahi kiya he kewal shook he ghar p gati rahti hu
= मैं केवल लेखन और परामर्श देने में रुचि रखता हूँ. दोस्ती जीवन साथी से, प्यार बच्चों से करना उत्तम है. सेक्स का उद्देश्य संतान उत्पत्ति है. अब उसकी कोई भूमिका नहीं है.
- मै आपसे दोस्ती करना चाहती हूँ,
= सम्बन्ध तन, नहीं मन के हों तभी कल्याणकारी होते हैं. आप विवाहिता हैं, माँ भी हैं, किसी के चाहने पर भी देह के सम्बन्ध कैसे बना सकती हैं?
- m kuch bhi kar sakti hu, paresan hu. peeso ki jarurathe mujhe
= चरित्र से बड़ा कुछ नहीं है. ऐसा कुछ कभी न करें जिससे आप खुद, पति या बच्चे शर्मिंदा हों. देह व्यापार से आत्मा निर्बल हो जाती है. मन को शांत करें, नित्य मानस-पाठ करें. दुर्गा जी से सहायता की प्रार्थना करें।
- aap mujhe 10 hajar ru ki madad de sakte ho
= नहीं। अपने सहायक आप हो, होगा सहायक प्रभु तभी. श्रम करें, याचना नहीं।
- ok ji. muft ki salaah to har koi deta he kisi s 2 rupay mago to koi nahi deta. mene aapko aapna samajh kar madad magi thi kuch bhi kam karne k liy peesa ki jarurat to sabse pahle hoti he or wo mere pas nahi he ji
= राह पर कदम बढ़ाने से, मंज़िल निकट आती है. ठोकर लगे तो सहारा मिला जाता है अथवा ईश्वर उठ खड़े होने की हिम्मत देता है. किनारे बैठकर याचना करने पर भिक्षा मिल भी जाए तो मंज़िल नहीं मिलती.
- कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई
= आपको भी पर्व मंगलमय हो
५-९-२०१५
***
कविता:
आत्मालाप:
*
क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब?
कौन किसे बतलाए?
मन की मात्र यही जिज्ञासा
हम क्या थे संग लाए?


आए खाली हाथ
गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
पाने को थी सकल सृष्टि
हम ही कुछ पचा न पाए .


ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
हमें सच बता-बताकर हारे
कोई न अपना, नहीं पराया
हम ही समझ न पाए.


माया में भरमाये हैं हम
वहम अहम् का पाले.
इसीलिए तो होते हैं
सारे गड़बड़ घोटाले.


जाना खाली हाथ सभी को
सभी जानते हैं सच.
धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
कौन सका इनसे बच?


जब, जो, जैसा जहाँ घटे
हम साक्ष्य भाव से देखें.
कर्ता कभी न खुद को मानें
प्रभु को कर्ता लेखें.


हम हैं मात्र निमित्त,
वही है रचने-करनेवाला.
जिससे जो चाहे करवा ले
कोई न बचनेवाला.


ठकुरसुहाती उसे न भाती
लोभ, न लालच घेरे.
भोग लगा खाते हम खुद ही
मन से उसे न टेरें.


कंकर-कंकर में वह है तो
हम किससे टकराते?
किसके दोष दिखाते हरदम?
किससे हैं भय खाते?


द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
तभी मिल सके दृष्टि.
तिनका-तिनका अपना लागे
अपनी ही सब सृष्टि.


कर अमान्य मान्यता अन्य की
उसका हृदय दुखाएँ.
कहें संकुचित सदा अन्य को
फिर हम हँसी उड़ाएँ..


कितना है यह उचित?,
स्वयं सोचें, विचार कर देखें.
अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें,
व्यर्थ अन्य को लेखें..


जिनके जैसे पंख,
वहीं तक वे पंछी उड़ पाएँ.
ऊँचा उड़ें,न नीचा
उड़नेवाले को ठुकराएँ..


जैसा चाहें रचें,
करे तारीफ जिसे भाएगा..
क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी
नेह-प्रीत लाएगा??..


सृजन नहीं मसखरी,न लेखन
द्वेष-भाव का जरिया.
सद्भावों की सतत साधना
रचनाओं की बगिया..


शत-शत पुष्प विकसते देखे
सबकी अलग सुगंध.
कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह,
उस पर हो प्रतिबन्ध.'


कभी न एक पुष्प को देखा
दे दूजे को टीस,
व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे
जो वह दिखे कपीश..


नेह नर्मदा रहे प्रवाहित
चार दिनों का साथ.
जीते-जी दें कष्ट
बिछुड़ने पर करते नत माथ?


माया है यह, वहम अहम् का
इससे यदि बच पाये.
शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन
करे 'सलिल' तर जाये.


५-९-२०१०


***

सोमवार, 4 सितंबर 2023

बाल कविता, तुहिना-दादी, मुक्तिका, दोहा, अमरेन्द्र नारायण, सॉनेट, नर्मदा

सॉनेट नर्मदा • है शहर पुरातन जबलपुर, सब इसे जानते दूर दूर, नर्मदा नदी के है तट पर, भेड़ाघाट दृश्य सुंदर। नर्मदा गूंँज गिरती अपार, कलकल ध्वनि ज्यों बजता सितार, जल बिंदु सघन बनते फुहार, यह जलप्रपात है धुआंँधार। संजीव करें अंतर्मन को, सुख देती है यह नयनन को, कर जुड़ जाते हैं वंदन को, माँ रेवा के अभिनंदन को। बड़भागी ही दर्शन पाते, परकम्मावासी तर जाते।। ४-९-२०२३ •••
पुस्तक चर्चा
काल है संक्रांति का - एक सामयिक और सशक्त काव्य कृति
- अमरेन्द्र नारायण
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक सम्माननीय अभियंता, एक सशक्त साहित्यकार, एक विद्वान अर्थशास्त्री, अधिवक्ता और एक प्रशिक्षित पत्रकार हैं। जबलपुर के सामाजिक जीवन में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी यही बहुआयामी प्रतिभा उनकी नूतन काव्य कृति 'काल है संक्रांति का' में लक्षित होती है। संग्रह की कविताओं में अध्यात्म, राजनीति, समाज, परिवार, व्यक्ति सभी पक्षों को भावनात्मक स्पर्श से संबोधित किया गया है। समय के पलटते पत्तों और सिमटते अपनों के बीच मौन रहकर मनीषा अपनी बात कहती है-
'शुभ जहाँ है, उसीका उसको नमन शत
जो कमी मेरी कहूँ सच, शीश है नत।
स्वार्थ, कर्तव्यच्युति और लोभजनित राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के इस संक्रांति काल में कवि आव्हान करता है-
प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
अब भ्रान्ति टाल दो, जगो-उठो।
कवि माँ सरस्वती की आराधना करते हुए कहता है-
अम्ल-धवल, शुचि
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान प्रदायिनी छैयाँ
तिमितहारिणी, भयनिवारिणी सुखदा
नाद-ताल, गति-यति खेलें तव कैयाँ
अनहद सुनवा दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
अध्यात्म के इन शुभ क्षणों में वह अंध-श्रद्धा से दूर रहने का सन्देश भी देता है-
अंध शृद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिए
आँख पर पट्टी न अपनी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप हैं।
संग्रह की रचनाओं में विविधता के साथ-साथ सामयिकता भी है। अब भी जन-मानस में सही अर्थों में आज़ादी पाने की जो ललक है, वह 'कब होंगे आज़ाद' शीर्षक कविता में दिखती है-
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
गये विदेश पर देशी अंग्रेज कर रहे शासन
भाषण देतीं, पर सरकारें दे न स्की हैं राशन
मंत्री से सन्तरी तक, कुटिल-कुतंत्री बनकर गिद्ध
नोच-खा रहे भारत माँ को, ले चटखारे-स्वाद
कब होंगे आज़ाद?
कहो हम
कब होंगे आज़ाद?
आकर्षक साज-सज्जा से निखरते हुए इस संकलन की रचनाएँ आनन्द का स्रोत तो हैं ही, वे न केवल सोचने को मजबूर करती हैं बल्कि अकर्मण्यता दूर करने का सन्देश भी देती हैं।
कवि को हार्दिक धन्यवाद और बधाई।
गीत-नवगीत की इस पुस्तक का स्वागत है।
४-९-२०१६
***
समीक्षक परिचय- अमरेंद्र नारायण, ITS (से.नि.), भूतपूर्व महासचिव एशिया पेसिफिक टेलीकम्युनिटी बैंगकॉक , हिंदी-अंग्रेजी-उर्दू कवि-उपन्यासकार, ३ काव्य संग्रह, उपन्यास संघर्ष, फ्रेगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स, द स्माइल ऑफ़ जास्मिन, खुशबू सरहदों के पार (उर्दू अनुवाद)संपर्क- शुभा आशीर्वाद, १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइन जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६०४६००, ईमेल- amarnar@gmail.com।
***
दोहा सलिला:
यथा समय हो कार्य...
*
जो परिवर्तित हो वही, संचेतित सम्प्राण.
जो किंचित बदले नहीं, वह है जड़ निष्प्राण..

जड़ पल में होता नहीं, चेतन यह है सत्य.
जड़ चेतन होता नहीं, यह है 'सलिल' असत्य..

कंकर भी शत चोट खा हो, शंकर भगवान.
फिर तो हम इंसान हैं, ना सुर ना हैवान..

माटी को शत चोट दे, गढ़ता कुम्भ कुम्हार.
चलता है इस तरह ही, सकल सृष्टि व्यापार..

रामदेव-अन्ना बने, कुम्भकार दें चोट.
धीरे-धीरे मिटेगी, जनगण-मन की खोट..

समय लगे लगता रहे, यथा समय हो कार्य.
समाधान हो कोई तो, हम सबको स्वीकार्य..

तजना आशा कभी मत, बन न 'सलिल' नादान..
आशा पर ही टँगा है, आसमान सच मान.
४-९-२०११ 
***
मुक्तिका:
उज्जवल भविष्य
*
उज्जवल भविष्य सामने अँधियार नहीं है.
कोशिश का नतीजा है ये उपहार नहीं है..
कोशिश की कशिश राह के रोड़ों को हटाती.
पग चूम ले मंजिल तो कुछ उपकार नहीं है..
गर ठान लें जमीन पे ले आएँ आसमान.
ये सच है इसमें तनिक अहंकार नहीं है..
जम्हूरियत में खुद पे खुद सख्ती न करी तो
मिट जाएँगे और कुछ उपचार नहीं है..
मेहनतो-ईमां का टका चलता हो जहाँ.
दुनिया में कहीं ऐसा तो बाज़ार नहीं है..
इंसान भी, शैतां भी, रब भी हैं हमीं यारब.
वर्ना तो हम खिलौने हैं कुम्हार नहीं हैं..
दिल मिल गए तो जात-धर्म कौन पूछता?
दिल ना मिला तो 'सलिल' प्यार प्यार नहीं है..
जागे हुए ज़मीर का हर आदमी 'सलिल'
महका गुले-गुलाब जिसमें खार नहीं है..
४-९-२०१०
***
बाल कविता :
तुहिना-दादी
*
तुहिना नन्हीं खेल कूदती.
खुशियाँ रोज लुटाती है.
मुस्काये तो फूल बरसते-
सबके मन को भाती है.
बात करे जब भी तुतलाकर
बोले कोयल सी बोली.
ठुमक-ठुमक चलती सब रीझें
बाल परी कितनी भोली.
दादी खों-खों करतीं, रोकें-
टोंकें सबको : 'जल्द उठो.
हुआ सवेरा अब मत सोओ-
काम बहुत हैं, मिलो-जुटो.
काँटें रुकते नहीं घड़ी के
आगे बढ़ते जायेंगे.
जो न करेंगे काम समय पर
जीवन भर पछतायेंगे.'
तुहिना आये तो दादी जी
राम नाम भी जातीं भूल.
कैयां लेकर, लेंय बलैयां
झूठ-मूठ जाएँ स्कूल.
यह रूठे तो मना लाये वह
वह गाये तो यह नाचे.
दादी-गुड्डो, गुड्डो-दादी
उल्टी पुस्तक ले बाँचें.
*********************
७-६-२०१०

रविवार, 3 सितंबर 2023

नवगीत, सामाजिक समरसता, दोहा मुक्तिका, दोहा-दोहा यमक, कजरी गीत

नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
१-९-२०१६
१३.००
गोरखपुर दन्त चिकित्सालय
***
कुंडलिया कार्यशाला
बिगडे़ जग के हाल पर, मत चुप रहिए आप।
इंतज़ार में देखिए, शब्द खड़े चुपचाप।।
तारकेश्वरी 'सुधि'
शब्द खड़े चुपचाप, मुखर करिए रचनाकर।
सच कह बनें कबीर, निबल सुधि ले कर आखर।।
स्नेह सलिल दे तृप्ति, मिटाकर सारे झगड़े।
मरुथल मधुवन बने, परिस्थिति अधिक न बिगड़े।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
3-9-2019
***
लेख -
वर्तमान संक्रांतिकाल में सामाजिक समरसता
*
साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में राजनैतिक नेतृत्व के प्रति जनमानस की आस्था डगमगाना चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। आत्मोत्सर्ग और बलिदान के पथ से स्वातँत्र्योपासना करनेवाले बलिपंथियों के सिरमौर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अदृश्य होने, जबलपुर तथा मुम्बई में भारतीय सेना की इकाइयों द्वारा विद्रोह करने, द्वितीय विश्वयुध्द पश्चात् इंग्लैण्ड की डाँवाडोल होती परिस्थिति ने ब्रिटेन को भारत से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह देश के स्वतंत्र होने का श्रेय कोंग्रेस को मिला जिसने गाँधी-नेहरू की अयथार्थवादी-आत्मकेंद्रित विचार धारा को शासन प्रणाली का केंद्र बना कर कश्मीर को गाँव दिया जबकि अन्य रियासतों को सरदार पटेल ने येन-केन-प्रकारेण बचा लिया।
देश के विभाजन से जनमानस पर लगे घावों के भरने के पूर्व ही गाँधी-हत्या ने राष्ट्रवादी हिन्दू शक्तियों को हाशिये पर डाल दिया। हिन्दू महासभा और जनसंघ बहुमत नहीं पा सके, समाजवादी वैचारिक बिखराव के शिकार होकर आपस में ही टकराते रहे, साम्यवादी अतिरेकी और एकतरफा क्रांति की भ्रांति में उलझे रह गए और कोंग्रस सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार की इबारतें गढ़ती रही। फलत:, सामाजिक संरचना सतत क्षतिग्रस्त होती रही। विनोबा भावे ने सर्वोदय के माध्यम से सत-शिव-सुन्दर के प्रति जनास्था जगाने का प्रयास किया किन्तु वह तूफ़ान में दिए की लौ की तरह टिमटिमाता रह गया। १९६२ में चीन के विश्वासघात पूर्ण आक्रमण तथा नेहरू की मृत्यु ने पराभव की जो कालिमा देश के चेहरे पर पोती उससे निजात लालबहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को पटकनी देकर तथा इंदिरा गाँधी ने पाकिस्तान के एक हिस्से को बांग्ला देश बनवाकर दिलाई।
सामाजिक समरसता भंग हुई आपातकाल की घोषणा के साथ। कारावास में विविध विचारधारा के नेताओं का मोहभंग हुआ और समन्वय बिना मुक्ति की राह अवरुद्ध देखकर, सब नेता और दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक साथ आ खड़े हुए। केर-बेर का संग या चूं-चूं का मुरब्बा बहुत दिन टिक नहीं सका और आम आदमी की आशाओं पर तुषारापात करते दल फिर बिखराव की राह पर चल पड़े। राजनैतिक घटाटोप के स्वातंत्र्योत्तर काल में गुरु गोलवलकर, सत्य साईं बाबा, महर्षि महेश योगी, ओशो, आचार्य श्री राम शर्मा, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी, रविशंकर आदि ने धर्म-दर्शन के आधार पर सामाजिक समरसता को बचाने-बढ़ाने का कार्य किया जिसे सरकारों से कोई सहयोग नहीं मिला। कोंग्रेस सरकारों द्वारा प्रताड़ना के बावजूद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र-धर्म की ज्योति न केवल जलाये रखी अपितु संकट काल में समर्पण भाव से जनसेवा के मापदण्ड भी बनाये।
सामाजिक समरसता के समर्थक गुरु गोलवलकर के चिंतन का मूलाधार सत्य के प्रति आस्था, राष्ट्र के प्रति समर्पण, आम आदमी से जुड़ाव, आध्यात्म तथा वैश्विकता था। निर्भयता तथा निर्वैर्यता का वरण कर सबको समान समझने और सबके काम आने की विचारधारा देश के कोने-कोने में ही स्वयं सेवकों की अपराजेय वाहिनी नहीं खड़ी की अपितु अगणित स्वयंसेवकों को विविध देशों में प्रवासी बनाकर भेजा और भारतीय राष्ट्रवाद को धीरे-धीरे विश्ववाद का पर्याय बना दिया। गुरूजी ने 'हिंदू' शब्द को पंथ या संप्रदाय के स्थान पर सनातन मानव सभ्यता, मनुष्यता और वैश्विकता के पर्याय रूप में परिभाषित किया। उन्होंने हिंदू समाज के पतन को राष्ट्र के पराभव का कारण मानकर राष्ट्रोन्नति हेतु समाजोन्नति तथा समाजोन्नति हेतु भेद-भाव को भुलाकर एकात्मता, एकरसता तथा समरसता की स्थापना को अपरिहार्य बताया।
सनातन सभ्यता और समन्वयवादी सभ्यता के जनक भारत ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और वर्तमान कलियुग में आतताइयों का उद्भव, आतंक, संघर्ष और पराभव बार-बार देखा है। देश की माटी साक्षी है कि सत-शिव-सुंदर जीवन-मूल्यों पर कितने ही विकट संकट आयें, अंतत: समाप्त हो ही जाते हैं। अक्षय, अजर, अमर, अटल, अचल अमिट सत-चित-आनंद ही है। आधुनिक काल में भी विविध देशों में कई विचारकों और पंथ गुरुओं ने सामाजिक समरसता के स्वप्न देखे किंतु उन्हीं के अनुयायियों ने उन स्वप्नों को साकार न होने दिया। बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मुहम्मद पैगंबर और कार्ल मार्क्स ने आदर्श समाज, नर-नारी सद्भाव, सर्व मानव समानता, शांति, सुख, सहकार आदि की कामना की किन्तु उन्हीं के अनुयायियों ने न केवल अन्य पंथों और देशों के अगणित लोगों को तो मारा ही, उसके पहले अपने ही देश में सहयोगियों को लूटा-मारा। गुरूजी ने नया पंथ स्थापित न कर अपने अनुयायियों को भटकने और मारने-मरने से विरत कर राष्ट्र-धर्म की उपासना और राष्ट्र-निर्माण के महायज्ञ में लगाये रखा। इसका परिणाम पाश्चात्य जीवन-पद्धति और शिक्षा-प्रणाली के प्रति अंध मोह के बावजूद सनातन-सात्विक-सद्भावपरक मूल्यों का पराभव न होने के रूप में हमारे सामने है। यह स्थिति तब है जब कि स्वतंत्रता-पश्चात् शासन-प्रशासन ने राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा ही नहीं की, दमन भी किया। यदि सनातन धर्म प्रणीत सामाजिक समरसता को भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों ने स्थानीय निकायों के माध्यम से क्रियान्वित किया होता तो वर्तमान में भारत विश्व का सिरमौर होता।
अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। सामाजिक जीवन में व्याप्त केंद्रीय भाव के आधार पर मानव सभ्यता का ४ युगों में काल विभाजन किया जाना इसका प्रमाण है। मानव मात्र में समानता, संपत्ति पर सबके सामूहिक अधिकार, हर एक को अपनी आवश्यकतानुसार संसाधनों के उपयोग था। कर्तव्य पालन को धर्म की संज्ञा दी गयी। अपने धर्म का पालन राजा-प्रजा सब के लिए अनिवार्य था। समाज की समन्वित धारणा (सुचारु कार्य विभाजन हेतु वर्ण व्यवस्था, सबके उन्नयन हेतु विप्रों (विद्वानों) को परामर्श / शिक्षा दान का कार्य दिया गया। बाह्य तथा आतंरिक विघ्न संतोषियों से आम जान की रक्षा हेतु समर्थ क्षत्रियों को सैन्य दल गठित कर रक्षा कार्य क्षत्रियों को सौंप गया। दैनन्दिन आवश्यकताओं और अकाल, जलप्लावन, तूफ़ान आदि आपदाओं या आक्रमण काल के समय उपयोगी वस्तुओं के आदान-प्रदान और क्रय-विक्रय का दायित्व वैश्यों ने सम्हाला। आतंरिक व्यवस्था बनाये रखने हेतु शेष सेवा कार्य शूद्रों ने जिम्मे किया गया। कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक वर्ग द्वारा अन्य वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप दण्डनीय था। शम्बूक को इसी आधार पर दण्डित किया गया। वह शूद्र के साथ राजन्य वर्ग का अनाचार नहीं निर्धारित रीति का पालन मात्र था। शूद्र उपेक्षित और शोषित होते तो एक धोबी जन प्रतिनिधि के आरोप पर राजमहिषि सीता को वनवास न जाना पड़ता। बाली, रावण, कंस और कौरवों को राजा होते हुए भी मर्यादा भंग करने पर सत्ता ही नहीं प्राण भी गँवाने पड़े।
समाज की धारणा करने वाली तथा ऐहिक और पारलौकिक सुख को संप्रदान करनेवाली शक्ति को ही हमने धर्म की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकार विश्व को एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाले धर्म के आधार पर प्रत्येक अपनी प्रकृति को जानकर दूसरे के सुख के लिए काम करता है। सत्ता न होते हुए भी केवल धर्म के कारण न तो एक दूसरे पर आघात होते थे न आपस में संघर्ष ही होता था। चराचर के साथ एकात्मता का साक्षात्कार होने के कारण किसी प्रकार बाह्य नियंत्रण न होते हुए भी मनुष्य 'नायं हन्ति न हन्यते' के भाव के अनुसार पूर्ण शांति व्यवहार करता है। समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है। वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं। उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा। उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं। खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं।’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र्य, समता और बंधुता इन तीन तत्वों को साधा जा सकता है। दुर्भाग्य से हिन्दू समाज की रचना इन तीन तत्वों के आधार पर नहीं हुई है। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हों, वही समाज रचना श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं होते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था।
निसर्गतया जो असमानता उत्पन्न होती है उसे भेद या विषमता नहीं माना गया। मनुष्य योनि में जन्म के कारण सभी मानव, मानव इस संज्ञा से समान हैं, लेकिन काया से सब एक सरीखे(identical) नहीं होते। जन्मत: बुध्दि, रंग, कद, शक्ति, रूचि, गुण, स्वभाव आदि में भिन्नता, स्वाभाविक है। निसर्गत: मानव ही नहीं अन्य जीवों में भी गुणों की, क्षमताओं की असमानता रहती है। जन्मत: असमानता, विषमता नहीं है। यह परम चैतन्य शक्ति का विविधतापूर्ण आविष्कार है। आत्मा का आधार ही वास्तविक आधार है, क्योंकि आत्मा सम है, सब में एक ही जैसी समान रूप से अभिव्यक्त है। सब का एक ही चैतन्य है, इस पूर्णता के आधार पर ही प्रेमपूर्ण व्यवहार, व्यक्ति को परमात्मा का अंग मानकर नितांत प्रेम, विश्व को परमेश्वर का व्यक्त रूप मानकर विशुध्द प्रेम यही वह अवस्था है। इसीलिए प्रार्थना की जाती है - सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणु पश्यन्ति मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत'
भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है। संतों ने समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है। इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है। गुरु गोलवलकर समरस समाज जीवन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के संबंध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।'' वसुधैव कुटुम्बकम, वैश्विक नीडं, सबै भूमि गोपाल की जैसी उक्तियॉं प्रमाण हैं कि भारत में असमानता नहीं थी।
ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा, असमानता, शोषण, अन्याय आदि कलियुग की पहचान हैं। 'आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयार हैं। आत्मौपम्य बुध्दि घटी है। धर्म की न्यूनता के कारण जीवन में दु:ख, दैन्य और अशांति है। आदर्श समाज की रचना केवल भाषण देने, कविता लिखने, चुनाव लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पड़ेंगे। संपूर्ण समाज की एकात्मता, पूर्ण राष्ट्र की सेवा, देशवासियों हेतु सर्वस्वार्पण करना होगा।सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर करना होगा। 'समरसता' दिखावे का शब्द नहीं, जीवन व्यवहार का दर्शन बनाना होगा। कलियुग में हर व्यक्ति अपने परिवार, पेशे और लाभ का लक्ष्य लेकर अन्यों हेतु निर्धारित क्षेत्र में प्रवेश का प्रयास करेगा इसलिए टकराव होगा। 'समानों में समानता' (ईक्विटी अमंग्स्ट ईकवल्स) तथा 'विधि के शासन' (रूल ऑफ़ लॉ) हेतु आरक्षण का प्रावधान समता, समानता और साम्यता पाने-देने के लिए आवश्यक है किन्तु क्रमश: कम कर विलोपित करने की नीति अन्यों में असन्तोष न होने देगा।
गुरु जी के सुयोग्य उत्तराधिकारी डॉ. मोहन भागवत के अनुसार 'हमारे समाज में विविधता है स्वभाव, क्षमता और वैचारिक स्तर पर विविधता का होना स्वाभाविक है। भाषा, खान-पान, देवी-देवता, पंथ संप्रदाय तथा जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर यह विविधता कभी हमारी आत्मीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करती। विविध प्रकार के लोगों का समूह होने के बावजूद हम सब एक हैं। समान व्यवहार, समता का व्यवहार होने से यह विविधता भी समाज का अलंकार बन जाती है। सामाजिक जीवन में जातिभेद के कारण विषमता और संघर्ष होता है, इसलिए जातिभेद को दूर करना होगा। जब तक सामाजिक भेदभाव है, तब तक आरक्षण भी रहे। हमारा मन निर्मल हो, वचन दंशमुक्त हो, व्यवहार मित्र बनाने वाला हो तब समाज में समता का भाव विकसित होगा।
साम्यवादी चिंतन से उपजे सामाजिक विघटनात्मक नक्सलवाद, समाजवादी विचारधारा के व्यक्तिपरक चिन्तन से उपजे विखण्डन, मुस्लिम साम्प्रदायिकता से उत्पन्न आतंकवाद, तमिलनाड व असम में नसलीय टकराव जनित हिंसा और कश्मीर से पण्डितों के पलायन के बाद भी देश कमजोर न होना यह दर्शाता है कि ऊपरी टकराव के बाद भी सामाजिक समरसता कम नहीं हुई है। डॉ. सुवर्णा रावल के अनुसार सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ एक श्रेष्ठ तत्व है। भारत के संविधान में समानतायुक्त समाज रचना तथा विषमता निर्मूलन को प्राथमिकता दी गयी है।
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है। समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ि के रूप में प्रतिस्थापित होती है। भारतीय समाज ने समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर मान्यता भी दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहा। ‘समता’ को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ का व्यावहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है। समरसता में ‘बंधुभाव’ की असाधारण महत्ता है।
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया। राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों ने अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुँची सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया। सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि का योगदान अपार है। डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता ही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है। स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती।’’
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग अत्यल्प है। बहुजन वर्ग वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज आदि अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है। सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है। बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है। स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों पहली शिक्षा और दूसरी सेवा की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार ‘‘साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक। हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुँचा, इसका कारण विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में रहना है। इसमें राजाओं का समर्थन होने से साधारण जनता निरी गँवार रह गयी और देश विनाश के रास्ते पर बढ़ा। इस स्थिति में से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है।
सामाजिक समरसता पर इस्लाम का विशेष आग्रह है। इस्लाम बहुदेववाद को नहीं मानता लेकिन मनुष्य के धार्मिक व्यवहार सहित दैनिक आचार में वह निश्चित रूप से सहिष्णुता का हिमायती रहा है। इसके लिए वह आस्था बदलना जरूरी नहीं समझता। समाज में जिस तरह सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा है, उसे देखकर सामाजिक जीवन के एक अंतर्निहित गुण के रूप में आज धार्मिक सद्भाव की आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। आम धारणा के विपरीत इस्लाम धर्म सामाजिक सौहार्द का प्रतिपादन करता है। क़ुरान के अनुसार 'जो इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म का अनुयायी होगा, उसे अल्लाह स्वीकार नहीं करेंगे और वह इस दुनिया में आकर खो जाएगा' की बहुधा गलत व्याख्या की गई है। क़ुरान में साफ-साफ कहा गया है - यहूदी, ईसाई, सैबियन्स (प्राचीन साबा राजशाही के मूल निवासियों का धर्म) सभी आस्तिक हैं, जो खुदा और क़यामत में विश्वास रखते हैं और जो सही काम करते हैं, अल्लाह उन्हें इनाम देगा। उन्हें न तो डरने की जरूरत है और न पश्चाताप करने की।' इस्लाम के पैमाने से मोक्ष व्यक्ति के अपने आचरण पर निर्भर करता है न कि किसी खास धार्मिक समूह से संबंधित होने पर। यह समझदारी धार्मिक समरसता के लिए निहायत जरूरी है। इस्लाम ईश्वर या सच्चाई की अनेकता में नहीं, एकता में विश्वास करता है जबकि दुनिया में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। तब उनमें समरसता कैसे हो? इस्लाम विचारधारात्मक मतभेदों को स्वीकार करलोगों के दैनिक जीवन में सहिष्णुता और एक-दूसरे के धर्म को आदर देने की वकालत करता है। क़ुरान घोषणा करता है कि धार्मिक मामलों में जोर-जबर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। क़ुरान किसी भी दूसरे धर्म की निंदा करने को गैरवाजिब बताता है।
इस्लाम धार्मिक समरसता के बदले धार्मिक लोगों की समरसता पर ज्यादा जोर देता है। सामाजिक समरसता मतभिन्नता के बावजू्‌द एकता पर आधारित होती है, न कि बिना मतभेद की एकता पर। मुहम्मद साहेब के जीवन काल में ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम के धर्मगुरुओं ने उच्च विचार और धार्मिक समरसता के महान उद्देश्यों के लिए याथ्रिब शहर में बहस की थी। धार्मिक मामलों में सहिष्णुता से काम लेना ही काफी नहीं है, बल्कि यह हमारे जीवन के रोज-रोज के आचार-व्यवहार का हिस्सा होनी चाहिए। इस्लाम की आज्ञा है कि अगर प्रार्थना के समय मुसलमान के अलावा कोई अन्य धर्म का अनुयायी भी मस्जिद में आ जाए तो उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा करने में स्वतंत्र महसूस करना चाहिए औऱ वह मस्जिद में ही ऐसा कर सकता है। इतिहास के हर दौर में सहिष्णुता इस्लाम का नियम रहा है। यही कारण है कि दुनिया का सबसे नया धर्म होने के बावजूद इसका इतने बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। इस्लाम ने किसी धर्म को मिटाया नहीं। धार्मिक सहिष्णुता लोगों की आस्था को बदलकर नहीं की जा सकती। इसका एकमात्र रास्ता यही है कि लोगों को दूसरे धर्म के मानने वालों के प्रति आदर भाव रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और व्यवहार में हमेशा लागू किया जाए।
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुँच सकें हों तो शिक्षा उन तक पहुँचे। दुर्बलों की सेवा ही नारायण की सेवा है। दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है। लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं। कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस हो तो मुट्ठीभर लोग भी सारी दुनिया में क्रांति कर सकते हैं। समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व अपरिहार्य है। ‘आरक्षण’ सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं। यह ध्यान रखना जरूरी है। डॉ. आंबेडकर का धर्म पर गहरा विश्वास रथा।धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी। धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है। धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया। बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया। निस्संदेह सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और बंधुत्व ही आधुनिक युग का मानव धर्म है।
भारत ही नहीं विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनेताओं में अग्रगण्य नरेन्द्र मोदी जी प्रणीत स्वच्छता अभियान केवल भौतिक नहीं अपितु मानसिक कचरे की सफाई की भी प्रेरणा देता है। जब तक देश और विश्व में हर व्यक्ति को शिक्षा, धन, धर्म, वाद, पंथ, क्षेत्र, लिंग आदि अधरों पर बिना किसी भेदभाव के 'मन की बात' करने और कहने का अवसर न मिले, वह अपने मन के 'मेक इन' और 'मेड इन' को सबके साथ बाँट न सके सामाजिक समरसता बेमानी है। सामाजिक समरसता का महामंत्र विश्व में सर्वत्र बार-बार गुंजित हो रहा है। इसे अपने जीवन में उतारकर हम मानववाद की अनादि-अनंत श्रंखला से जुड़ कर जीवन को सार्थक कर सकते हैं।
3-9-2016
***
नवगीत:
*
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
मौत उजाले की होती
कब-किसने देखी?
सौत अँधेरी रात
हमेशा रही अदेखी।
किस्मत जुगनू सी
टिमटिम कर राह दिखाती।
शरत चाँदनी सी मंज़िल
पथ हेर लुभाती।
दौड़ा लपका हाथ बढ़ा
कर लूँ कुड़माई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
अपने सपने
पल भर में नीलाम हो गये।
नपने बने विधाता
काहे वाम हो गये?
को पूछे किससे, काहे
कब, कौन बताये?
किस्से दादी संग गये
अब कौन सुनाये?
पथवारी मैया
लगती हैं गैर-पराई।
कोशिश कर-कर हांरा
लेकिन हाथ न आई।
अँधियारे! कब देख सका तू
निज परछांई?
*
***
दोहा मुक्तिका:
आशा जिसके साथ हो, तोड़ निराशा-पाश
पा सकता है एक को, फेंट मुश्किलें-ताश
*
धरती पर पग भले हों, निकट लगे आकाश
जब-जब होता सन्निकट, 'सलिल' संग कैलाश
*
जब कथनी को भूल मन, वर लेता मन 'काश'
तज यथार्थ को कल्पना, करे समय का नाश
*
ढोता है आतंक की, जब-जब मजहब लाश
पाखंडों का हो तभी, जग में पर्दाफाश
*
नफरत के सौदागरों, तज तम गहो प्रकाश
अगर न सुधरे सुनिश्चित, होगा सत्यनाश
3-9-2015
***
नवगीत:
*
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा बोले बच्चा
बच्चा होता है सच्चा
हम सचाई से सचमुच दूर
आँखें रहते भी हैं सूर
फेंक अमिय
नित विष घोलें
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पंछी बोले
संग-साथ हिल-मिल डोले
हम लड़ते हैं भाई से
दुश्मन निज परछाईं के
दिल में
भड़क रहे शोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
*
निज भाषा पशु को भाती
प्रकृति न भूले परिपाटी
संचय-सेक्स करे सीमित
खुद को करे नहीं बीमित
बदले नहीं
कभी चोले
हम क्यों
निज भाषा बोलें?
***
दोहा सलिला:
दोहा-दोहा यमकमय
*
चरखा तेरी विरासत, ले चर खा तू देश
किस्सा जल्दी ख़त्म कर, रहे न कुछ भी शेष
*
नट से करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर! नट कहाँ?, कसे बता कब कौन??
*
देख-देखकर शकुन तला, गुझिया-पापड़ आज
शकुनतला-दुष्यंत ने, हुआ प्रेम का राज
*
पल कर, पल भर भूल मत, पालक का अहसान
पालक सम हरियाएगा, प्रभु का पा वरदान
*
नीम-हकीम न नीम सम, दे पाते आरोग्य
ज्यों अयोग्य में योग्य है, किन्तु न सचमुच योग्य
*
***
श्री गणेश वंदना
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कजरी गीत:१

भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.

भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.

भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, आके न जाओ रे भोला.

भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
*

कजरी गीत:२

हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.

हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.

हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.

*