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शनिवार, 5 अगस्त 2023

किंजल्क

स्मरण
जगदीश किंजल्क : बुन्देली माटी की महक से सराबोर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                  झुलसती गर्मी के बाद पहली बारिश होने पर माटी की सौंधी महक जिन नासिकाओं में गई है उन्हें शीशी की सुगंधि (परफ्यूम) कतई रास नहीं आती। यह महक ग्राम्य-वन प्रांतर में पलाश की ललाई, महुए की मादकता और आम्र बौरों की सुंदरता के साथ मिल जिस स्वप्न लोक की सृष्टि करता है कुछ कुछ वैसा ही व्यक्तित्व था जगदीश किंजल्क का। किंजल्क से भेंट अर्थात कोयल की कूक सदृश मीठी वाणी, बुन्देली संस्कृति का अपनापन, साहित्यिक सृजन की शुचिता, सामाजिक सारल्य जनित अपनत्व और वैयक्तिक निर्मलता का पंचामृत का मिल जाना। 

एकदा मध्य प्रदेशे दमोह नगरे

                  किंजल्क से मेरी पहली भेंट १९८५-८६ में हुई। तब मैं अखिल भारतीय कायस्थ सभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद, प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा के संगठन मंत्री और सामाजिक मासिक पत्रिका चित्राशीष के संचालक-संपादक तथा मध्य प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स एसोसिएशन की मासिक पत्रिका के संपादक का दायित्व निर्वहन करते हुए मध्य भारत, बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ अंचलों में सामाजिक संगठन का कार्य निरंतर करता रहता था। साहित्यिक रुचि के कारण धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, नवनीत, दिनमान आदि दर्जन भर पत्रिकाएँ नियमित पढ़ता था जिनमें विविध विषयों पर जगदीश भाई द्वारा ली गई परिचर्चाएँ निरंतर प्रकाशित होती थीं। उन्हें 'परिचर्चा सम्राट' कहा जाता था। बुंदेलखंड के चित्रगुप्त मंदिरों की जानकारी एकत्र करते हुआ और कायस्थ सभाओं के पदाधिकारियों से मिलते हुए पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर, रीवा आदि में श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार अंबिका प्रसाद 'दिव्य' और उनके यशस्वी पुत्र जगदीश किंजल्क की जानकारी मिलती रही पर उस समय भेंट न हो सकी। नल-दमयन्ती की नगरी दमोह में प्रादेशिक  सम्मेलन, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा कार्यकारिणी  बैठक तथा सामूहिक विवाह के महत्वपूर्ण आयोजन में क्षेत्र की विभूतियों के सम्मान का आयोजन किया गया। मैंने सम्मानितों में प्रथम नाम दिव्य जी का ही रखा। दमोह में मेरी श्रीमती जी का मामा पक्ष कार्यक्रम का आयोजक था। आयोजन समिति में डॉ. रमेश कुमार खरे भी थे जिन्होंने दिव्य जी पर शोध उपाधि (पी-एच. डी.) प्राप्त की थी। यह कई सौ पृष्ठ का विशाल ग्रंथ था। मैंने इसे आद्योपांत पढ़ा। 

                  दमोह सम्मेलन में राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रतन चंद वर्मा (अन्तर्राष्ट्रीय  ख्याति प्राप्त अस्थि रोग शल्यज्ञ, जादूगर एवं योगाचार्य) इंदौर के कर कमलों से सर्व प्रथम दिव्य जी को अलंकृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन मैं कर रहा था। मेरे श्वसुर प्रो. सत्य सहाय (प्रसिद्ध अर्थशास्त्री) बिलासपुर उस समय प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा के प्रांताध्यक्ष थे। तब दिव्य जी के साथ किंजल्क जी भी दमोह आए। किंजल्क ने बताया कि बुन्देलखंड में किसी कायस्थ सभा द्वारा राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम के साहित्यकारों के सम्मान का यह प्रथम अवसर था। हमारा प्रथम परिचय ही हमें स्नेह रज्जु में आबद्ध कर गया किंतु फिर कुछ अंतराल आ गया। छतरपुर के भाई रवींद्र कुमार खरे जबलपुर में यूनाइटेड बैंक में पदस्थ हुए, हमारी पारिवारिक घनिष्ठ मित्रता हुई तो किंजल्क जी की चर्चा प्राय: होती रही। कालांतर में किंजल्क जी की पदस्थापना आकाशवाणी जबलपुर में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में हुई। यह समय हमारी मित्रता का स्वर्ण काल था। 

बुन्देली गुझियों का जादू 

                  जबलपुर में किंजल्क जी और मेरी मित्रता बहुत चर्चित रही। होली हो और दोस्त रंग न खेलें यह कैसे हो सकता है। किंजल्क जी के आग्रह पर उनके निवास पर होली का रंग जमा। राजो भाभी जी के हाथों की गुझिया का स्वाद जुबान पर ऐसा चढ़ा कि आज भी भुलाए नहीं भूलता। भाभी श्री का ठेठ बुन्देली व्यक्तित्व, अपनापन और अकृत्रिम स्नेहाधिकार से बातचीत करना मुझे उनका मुरीद बना गया। किंजल्क परिवार नेपियर टाउन में पहली मंजिल पर कुछ दिन रहने के बाद, आकाशवाणी परिसर कटंगा में शासकीय आवास मिलने पर वहाँ रहने लगा। किंजल्क अपने शासकीय दायित्व के प्रति समर्पित रहने के साथ-साथ साहित्यिक लेखन,गोष्ठियों आदि में निरंतर व्यस्त रहते थे। निवास पर मुझ जैसे मित्रों का जमघट दिनचर्या का हिस्सा था। राजो भाभी जी गृह लक्ष्मी की भूमिका में साक्षात अन्नपूर्णा थीं। चाय-नाश्ता हुआ नहीं कि कुछ और मित्र आ जाते, अक्सर दुबारा, तिबारा  नाश्ता-पानी मँगाया जाता। मैंने न तो कभी नाश्ता कम होते देखा, न भाभी के मुँह पर कभी झुँझलाहट ही दिखी। किंजल्क तो जगदीश थे, जिससे मिलते, वही उनका अपना हो जाता।  

दिव्य नर्मदा अलंकरण 

                  दुर्भाग्य वश वर्ष १९८६ में शिक्षक दिवस पर एक आयोजन में भाग लेते हुए दिव्य जी (१६ मार्च १९०७ - ५ सितंबर १९८६) परलोक सिधारे और शीघ्र बाद ही बुआ श्री महीयसी महादेवी जी (२६ मार्च १९०७ - ११ सितंबर १९८७) का देहावसान हुआ। हम दोनों का विचार हुआ कि इन दोनों महान विभूतियों की स्मृति में साहित्यिक अनुष्ठान किया जाए। इस विचार को रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' की पुत्री द्वय साधना उपाध्याय जी और डॉ. अनामिका तिवारी जी तथा वरिष्ठ  साहित्यकार-शिक्षाविद के. बी. एल.सक्सेना, प्रो. हनुमान प्रसाद वर्मा, राजेन्द्र तिवारी जी आदि का समर्थन मिला और अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण का श्री गणेश हुआ। वर्ष १९९७ में प्रथम आयोजन रानी दुर्गावती संग्रहालय में हुआ। अध्यक्ष डॉ. जगदीश प्रसाद शुक्ल कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर तथा मुख्य अतिथि डॉ. शिवकुमार श्रीवास्तव कुलपति सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर ने अपने सारगर्भित संबोधन से कार्यक्रम की श्रीवृद्धि की। इस अवसर दिव्य जी पर केंद्रित एक विशेषांक भी प्रकाशित किया गया। कार्यक्रम में भाग लेने के लिए चकोरी दीदी का शहडोल से और विभा दीदी का इलाहाबाद से आगमन हुआ। किंजल्क दोनों बहिनों से बहुत छोटे थे, उन्हें मातृवत सम्मान देते थे। चंद्रसेन विराट जी, प्रबोध गोविल जी तथा शंभुरत्न दुबे जी को अलंकृत किया गया। वर्ष १९९८ में अलंकरणों की संख्या १५ हो गई। यह समारोह १० अगस्त को मानस भवन में हुआ। बुआ जी (महीयसी महादेवी जी), दिव्य जी, पत्रकाराचार्य पन्नालाल जी श्रीवास्तव, रामानुजलाल श्रीवास्तव, धर्मवीर भारती, महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा नागपूर , राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा मैनपुरी, स्वातंत्र्य वीर ज्वाला प्रसाद वर्मा, गीतकार राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव, रमेश प्रसाद वर्मा आदि की स्मृति में अलंकरण स्थापित किए गए।    

अद्भुत पितृ प्रेम 

                  पिता-पुत्र में प्राय: दूरी (जेनेरेशन गैप) हुआ करती है। दिव्य जी के प्रति किंजल्क का अनुराग असाधारण था । दिव्य जी की सभी पुस्तकें, पत्र, चित्र, रचनाएँ आदि की देखभाल किंजल्क जान से ज्यादा करते थे। अप्रकाशित कृतियों को प्रकाशित करने की निरंतर चेष्टा करते थे। अनुपलब्ध पुस्तकों के दूसरे संस्करण निकालने के लिए प्रकाशकों से निरंतर बात करते। दिव्य जी निष्णात चित्रकार भी थे। उनकी मूल पेंटिंग्स किंजल्क के लिए मणि-मुक्ता की तरह बेशकीमती थीं। दिव्य जी की कुछ कृतियाँ समीक्षा लिखने के लिए मुझे किंजल्क से प्राप्त हुईं। किंजल्क दिव्य जी के संस्मरण बहुत तन्मयता के साथ सुनाते।  

 महान विरासत 

                  किंजल्क बहुधा दिव्य जी के कर्मठ हुए आदर्श प्रिय चरित्र की चर्चा करते। अजयगढ़ में शिक्षक के रूप में दिव्य जी द्वारा गाँधी चरखे का प्रचार-प्रसार, बच्चों में राष्ट्रीयता का बीज वपन करने हेतु प्रभात फेरियाँ, ध्वजारोहण, विविध प्रतियोगिताएँ और उनमें स्वयं अपने बच्चों को सम्मिलित कर ग्राम्य बच्चों को प्रेरित प्रोत्साहित कर जाति-धर्म-वर्ण आदि सामाजिक बुराइयों से जूझते हुए सतत समरसतापूर्ण समाज के निर्माण हेतु संकल्पित समर्पित रहना। शिक्षण पद्धति ऐसी की बच्चे शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम देते हुए भी, हस्तकला, क्रीड़ा आदि में जिले में श्रेष्ठ स्थान पाते। दिव्य जी गाँधीवादी शिक्षा पद्धति से अध्यापन करते। वे हस्तकलाओं के साथ-साथ आत्मनिर्भरता का भी ध्यान रखते थे। बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में ईंट पाथने-बनाने का काम सहस्त्रों परिवारों की आजीविका था। लकड़ी के साँचे  में मिट्टी भरकर एक बार में एक ईंट बनती थी। दिव्य जी ने एक साँचा बनाया जिससे एक बार में  ४ या ८ ईंटें बनाई जा सकती थीं।  पाठशाला में तकली और चरखे से सूत कातने की कला सिखाई जाती। बच्चों के दल गठित कर, उन्हें एक-एक क्यारी दी जाती जिसमें वे पौधे उगाते, पौधों की वृद्धि देखते, तितलियों आदि की जीवन प्रणाली समझते। उस समय की यह प्रायोगिक शिक्षा पद्धति आजकल के अंग्रेजीभाषी विद्यालयों में बाजार के क्रय कर प्रादर्श (मॉडल) प्रस्तुत करनेवाली पीढ़ी की कल्पना से भी बाहर है। अभिनव प्रयोगों और श्रेष्ठ परीक्षा परिणाम की निरन्तरता से दिव्य जी की ख्याति सर्वत्र फैलने लेगी। वे राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत किए गए। स्वाभाविक है कि दिव्य-संतानों से पिता के आदर्शों और ख्याति के अनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती। किंजल्क बताते कि किस तरह दिव्य जी शिक्षण के समान्तर पर्यटन करते, जहाँ जाते वहाँ के रेखा चित्र बनाते, लालटेन और कभी-कभी दिए की रौशनी में लिखते। लोगों से मिलकर इतिहास की जानकारी लेते। काव्य संग्रह, खंडकाव्य, महाकाव्य, उपन्यास आदि लिखते समय पात्रों के चरित्र पर विशेष ध्यान देते। ऐतिहासिक चित्र बनाते समय कल्पना के साथ लोक में प्रचलित किस्सों और किंवदंतियों के आधार पर दिव्य जी ने बुंदेली शासकों, महाकवि ईसुरी आदि के जीवंत चित्र बनाए। किंजल्क इस तपस्या के चश्मदीद साक्षी थे। अपनी बड़ी बहिनों की विकसित होती प्रतिभा, उन्हें मिलती प्रशंसा से किंजल्क प्रेरित होने के साथ-साथ उनके समकक्ष होने का मानसिक दबाव भी अनुभव करते। दिव्य जी की दोनों पुत्रियाँ उनकी तरह गद्य-पद्य में निपुण थीं किन्तु किंजल्क को काव्य रचना में रुचि नहीं थी।  दिव्य जी से भेंट करने हिंदी के सभी बड़े साहित्यकार आते रहते और दिव्य-संतानों को आशीषित करते। किंजल्क सभी के व्यक्तित्व को निकटता से देखते, उनके बारे में सोचते, बाल सुलभ जिज्ञासा से पूछते-समझते। 

                  किंजल्क दिव्य जी के संस्मरण सुनाते और मैं अपने पिताश्री स्व. राजबहादुर वर्मा के कार्यों की चर्चा करता। पिता जी जेल विभाग में सीनियर जेलर व अधीक्षक पदों पर थे। बंदियों की मानसिकता में परिवर्तन के लिए पिताश्री  पृष्ठभूमि के किसानी से जुड़े ८-१० बंदियों के दल बनाकर, एक अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदार कैदी को उनका नायक बनाकर दो सिपाहियों की देख-रेख में भेजकर जेल की भूमि पर बगीचे बनवाते। कैदियों को खुला वातावरण और मनोनुकूल काम और जेल के उबाऊ वातावरण से छूट मिलती, वे इतनी सब्जी उपजाते की जेल के सभी बंदी हुए कर्मचारियों के परिवारों द्वारा उपयोग के बाद भी बच जातीं, बाजार में बेची जाकर उनकी राशि कैदियों के खाते में जमा कर दी जाती। जो कैदी बाहर निकलने योग्य विश्वसनीय नहीं होते उन्हें जेल के अंदर बढ़ई, लुहार, चमार, कुम्हार आदि का काम सिखाया जाता। वे जो सामान बनाते वह जेल से बेचा जाता और उसकी आय का कुछ अंश कैदी के खाते में जमा कर दिया जाता। सजा पूरी कर छुट्टी समय कैदी जीविकोपार्जन हेतु कला तथा कुछ राशि लेकर जाता तो अपने पैरों पर खड़ा होकर परिवार पालने योग्य हो जाता और अपराध की दुनिया में नहीं लौटता। रक्षा बंधन के दिन पिताजी दुर्दांत अपराधियों के बीच मेरी किशोर बहिनों को भेजते, जो उन्हें राखी बाँधतीं और वचन लेती कि वे फिर अपराध नहीं करेंगे। इस अवसर पर मैंने कठोर से कठोर कैदियों को बहिनों के चरणों पर सर रखकर रोते देखा है। किंजल्क यह सब बहुत रुचि के साथ सुनते। फिर वे पिताश्री से मिले और उन्हें आकाशवाणी में वार्ता हुए बुलाया।       

व्यक्तित्व निर्माण 

                  बचपन, कैशोर्य और तरुणाई के इस वातावरण ने किंजल्क को भाषा और साहित्य के साथ-साथ कला और संस्कृति की समझ भी दी। कालांतर में आकशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी बनने पर यह विरासत किंजल्क के लिए बहुत उपयोगी हुई। वे जब जहाँ पदस्थ रहे, उस अंचल के श्रेष्ठ साहित्यकारों से बेहिचक मिलने, ध्वन्यांकन के लिए आमंत्रित करने, व्यक्तित्व-कृतित्व के अनुरूप सम्यक प्रश्न पूछने और अवसरानुकूल वार्तालाप करने की सिद्धहस्तता किंजल्क को ख्याति दिला सकी। शिक्षा काल में ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की चाहत ने किंजल्क को 'परिचर्चा' की और मोड़ा। परिचर्चा के लिए समसामयिक विषयों का चुनाव, विचारोत्तेजक प्रश्न और सटीक-संक्षिप्त उत्तर उनकी परिचर्चाओं का वैशिष्ट्य था। स्व. धर्मवीर भारती ने तत्कालीन सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में किंजल्क की कई परिचर्चाएँ प्रकाशित कीं।  किंजल्क को 'परिचर्चा सम्राट' विशेषण मिला। 

                  सरकारी विभागों में लालफीताशाही हमेशा रही। चापलूसी पसंद अफसर मेधावी-प्रतिभावान अधीनस्थ को सहन नहीं कर पाते, येन-केन-प्रकारेण परेशान करना, दबाना अपना अधिकार मानते हैं। सहकर्मी समान मेहनत करने के स्थान पर अकारण शिकायतें कराकर अपनी कुंठा शांत करते हैं। स्वार्थसिद्धि करने में असफल रहे सामान्यजन अपना आक्रोश निराधार शिकायतें कर निकलते हैं। किंजल्क बहुत विनम्र, शालीन, मेधावी, परिश्रमी और कार्य-दायित्व के प्रति समर्पित थे। उनके कार्यकाल में आकाशवाणी छतरपुर के केंद्र को बहुत ख्याति मिली।  

प्रतिबद्धता 

                  किंजल्क अपने कार्यक्रमों में लोक परंपराओं, त्योहारों, राष्ट्रीय महापुरुषों और सम सामयिक सामाजिक मुद्दों को बहुत महत्व देते थे। अक्सर जिन विषयों पर वक्ता नहीं मिलते थे, उन पर मुझे वार्ता हेतु बुलाते थे। एक बार रात को ग्यारह बजे के लगभग किंजल्क का फोन आया। सीधे मुद्दे पर आते हुए बोले- 'कल २ बजे मोरारजी देसाई पर वार्ता दे सकोगे?' मैं समझ गया कि मामला गंभीर है, उत्तर दिया- 'हाँ, दे सकूँगा।' फिर पूछा- 'कैसे, सामग्री कहाँ से लाओगे? आलेख लिखकर लाना होगा, वही पढ़ना होगा।' मैंने कहा - 'मेरे पास मोरारजी देसाई की आत्म कथा के तीनों खंड हैं। रात में पढ़कर सवेरे लिख लूँगा, और २ बजे रिकॉर्डिंग कर दूँगा।' पूछा- 'और ऑफिस?' मैंने कहा- 'अवकाश ले लूँगा।' अगले दिन यह वार्ता रिकॉर्ड होने के बाद किंजल्क ने चैन की साँस ली। तब बताया कि जिन महोदय को यह विषय आवंटित था, उन्होंने रात को याद दिलाने पर बताया कि वे नहीं बोल सकेंगे। उस समय किसे बुलाऊँ, यही नहीं सूझ रहा था। तब तुम्हारा ध्यान आया कि तुम्हारे पास बहुत सी पुस्तकें हैं, शायद मोरार जी पर भी कुछ हो। कोई और होता तो वार्ता निरस्त करने की घोषणा कर, कुछ और प्रसारित कर देता पर किंजल्क अपनी घोषणाओं और कार्यक्रम में बदलाव नहीं करते थे। अपने कर्तव्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता असाधारण थी। 

जातिवाद के शिकार 

                  छतरपुर से स्थानांतरित होकर किंजल्क जबलपुर आए। जबलपुर के साहित्यिक जगत में ब्राह्मणवाद का बोलबाला है। किंजल्क इससे अनभिज्ञ थे। वे सबसे समानता का व्यवहार करते। अखिल भारतीय दिव्य अलंकरण के सारस्वत अनुष्ठान को बहुत लोकप्रियता और ख्याति मिली। इसमें दिए जानेवाले पुरस्कार निष्पक्ष थे। मठाधीशों को इससे कष्ट हो गया। पहले आयोजन में निर्णायकों द्वारा पक्षपात को देखते हुए हमने संयोजकीय अधिकार का उपयोग कर निर्णय निष्पक्ष किए तथा अगले वर्ष निर्णायक बदल दिए। इससे खुद को मसीहा मान बैठे साहित्यकार असंतुष्ट हों, यह स्वाभाविक था।   

                  दिव्य जी का उपन्यास रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराने के लिए किंजल्क ने अथक प्रयास किए। एक स्थानीय प्रकाशक से प्रकाशित कराया। विभागाध्यक्ष के विरोधियों ने किंजल्क के विरुद्ध शिकायतें कर दीं। फलत:, उन्हें सागर स्थानांतरित कर दिया गया जबकि वरिष्ठता के आधार पर इंदौर या भोपाल होना था। जबलपुर केंद्र ने उन सभी को आमंत्रित करना बंद कर दिया जो किंजल्क के निकट थे। 

नम्र किंतु दृढ़ 

                  अभियान की साहित्यिक बैठकों में किंजल्क की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। काव्य में रुचि अपेक्षाकृत कम होने पर भी वे पूरे समय सुनते और प्रतिक्रिया देते। अच्छे रचनाकारों को आकाशवाणी बुलाते। उनके द्वारा आयोजित परिचर्चाओं के विषय सम सामयिक और विचारोत्तेजक होते थे। एक मित्र के नाते वे भाई की तरह ही नहीं भाई से बढ़कर थे। अपनी बात बहुत नम्रता किंतु दृढ़ता से सामने रखते थे। किंजल्क को हिंदी प्रेम विरासत में मिल था। उनकी भाषा शुद्ध थी,, शब्द चयन में उनका सानी नहीं था। 

किंजल्क समग्र

कहानी, लेख, रिपोर्ताज आदि विधाएँ उन्हें प्रिय थीं। सागर और भोपाल में भी किंजल्क ने दिव्य अलंकरण कार्यक्रम जारी रखा। जबलपुर में मैं इस कार्यक्रम को अब भी निरन्तरित कर रहा हूँ। किंजल्क का समूचा साहित्य प्रकाशित होना चाहिए। उनके बच्चों में विरासत के प्रति लगाव स्वाभाविक है। दिव्य समग्र, किंजल्क समग्र, चकोरी समग्र और विभा समग्र पर कार्य किया जाना चाहिए। किंजल्क की स्मृति में अलंकरण भी स्थापित किया जाना चाहिए। किंजल्क को खोकर मैंने अपना मित्र और भाई खोया है। अगस्त २०२३ में मेरे संपादन में हिंदी का पहला साझा सॉनेट संकलन प्रकाशित हुआ है जिसमें ३२ सॉनेटकारों के ३२१ सॉनेट हैं। इसके आरंभ में किंजल्क को स्मरण करना स्वाभाविक है। 

दिव्य थाती के पहरुए आप भी वे दिव्य थे।  
सच कहूँ व्यक्तित्व दिखते आम, लेकिन भव्य थे।।  
समर्पित कर्तव्य प्रति वे, इष्ट निज परिवार था-
वाक्य मीठी सुनो लगता ऋचा कोई श्रव्य थे।।   
***
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, एमेल salil.sanjiv@gmail.com 

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

सॉनेट, गीत, श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, समीक्षा, दोहा , नवगीत,

सॉनेट
दर्पण

मन दर्पण को बिसर गया जो,
खुद को खुदी निहारे नाहक,
खुदी खुदा को खोज सका तो,
रहा न जग-दर्पण का चाहक।

दाँत निपोरे, आँख मिलाए,
हाथ मिलाए, दिल में दूरी,
रीझे खुद ही, खुदी रिझाए,
कौन कहे क्या अब मजबूरी।

कौन बिंब प्रतिबिंब कौन है?
किससे पूछें, कौन बताए?
भीतर-बाहर सिर्फ मौन है,
जब जो घटता, कौन घटाए?

जो दिखता वह कहीं न होता।
नहीं दिखे जो वह क्यों होता?
३-८-२०२३
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सॉनेट 
सहारा 
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हकर साथ न साथ रह सके, 
जिए सदा औरों की खातिर, 
नहीं हाथ में हाथ गह सके, 
सोचा चूजे तोल सकें पर। 

फुर्र हुए सब, निपट अकेले, 
मैं-तुम हम हो अब तो जी लें, 
हों हमराह न अन्य झमेले, 
जिनको जो कहना है कह लें। 

है जल प्लावन देवदूत जो, 
हमें एक करने आया है, 
आओ! निकट बाँह में आओ, 
युगों बाद मन तरुणाया है। 

बूढ़ा तन, मन युवा न हारा। 
पाकर प्रेमिल साथ सहारा।। 
४-८-२०२३
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गीत
*
आ! दुख को तकिया कर,
यादों को बिस्तर कर,
खुशियों के हो लें हम।
*
जब-जब खाई ठोकर,
तब-तब भूलें रोकर।
उठें-बढ़ें, मंजिल पा-
सपने नव बोलें हम।
*
मौज, मजा, मस्ती ही
ज़िंदगी नहीं होती।
चलो! श्रम, प्रयासों की-
राहें हँस खोलें हम।
*
तू-मैं को बिसराकर,
आजा हम हो जाएँ।
तू-तू-मैं-मैं भूलें-
स्नेह-प्रेम घोलें हम।
*
बीजे शत उगने दें,
अंकुर हर बढ़ने दें।
पल्लव हों कली-पुष्प-
फल पाएँ तौलें हम।
*
गुल सूखे थामे तू,
खत पीला बाँचूं मैं
फिर डूबें यादो में-
नींद मग्न हो लें हम।
२७.२.२०१८
***
अगस्त : कब-क्या?
*
०१ अगस्त - विश्व स्तनपान दिवस, बाल गंगाधर तिलक स्मृति दिवस, देवकीनंदन खत्री जयंती, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जयंती
०२ अगस्त - दादरा एवं नगर हवेली मुक्ति दिवस
०३ अगस्त - हृदय प्रत्यारोपण दिवस, नाइजर स्वतंत्रता दिवस, मैथिलीशरण गुप्त जयंती,
०४ अगस्‍त - महान गायक किशोर कुमार का जन्‍म दिवस
०५ अगस्त - मैत्री दिवस, शिवमंगल सिंह सुमन जयंती,
०६ अगस्त - हिरोशिमा दिवस, विश्व शांति दिवस, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी दिवस
०७ अगस्‍त - राष्‍ट्रीय हथकरघा दिवस, रवीन्द्रनाथ टैगोर स्मृति दिवस, रक्षा बंधन
०८. अगस्त - विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस, भीष्म साहनी जयंती, कृष्णकांत उपाध्याय जयंती,
०९ अगस्त - अगस्त क्रांति दिवस, नागासाकी दिवस, भारत छोड़ो आन्दोलन स्मृति दिवस, विश्व आदिवासी दिवस
१० अगस्‍त - विश्‍व जैव ईंधन दिवस, डेंगू निरोधक दिवस, कजरी तीज, पं. रघुनाथ पाणिग्रही निधन,
११ अगस्त - खुदीराम बोस शहीद दिवस, दिलीप कुमार जन्म १९२२
१२ अगस्त - अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस, पुस्तकालयाध्यक्ष दिन, विक्रम साराभाई जन्‍म दिवस, विश्व हाथी दिवस, नाग पंचमी
१३ अगस्त - बायें हाथ के बल्लेबाज दिवस, विश्व अंगदान दिवस
१४ अगस्त - संस्‍कृत दिवस, पाकिस्तान स्वतंत्रता दिवस, स्वामी अखंडानंद सरस्वती जयंती, शहीद गुलाब सिंह पटेल पुण्य तिथि, निहाल तांबा जन्म,
१५अगस्त - स्वतंत्रता दिवस (भारत), महर्षि अरविन्द घोष जयंती, महादेव देसाई दिवस, बांग्लादेश का राष्ट्रीय शोक दिवस, जन्माष्टमी
१६ अगस्त - पांडिचेरी विलय दिवस, रानीअवन्ती बाई दिवस,
१७ अगस्त - इण्डोनेशिया का स्वतंत्रता दिवस, अमृतलाल नागर जयंती, शहीद मदनलाल ढींगरा दिवस, नेताजी वायुयान दुर्घटना
१८ अगस्त - सुभाष चंद्र बोस स्‍मृति दिवस , अफ़ग़ानिस्तान का स्वतंत्रता दिवस, देशज जन अधिकार दिवस, गुलज़ार जन्म,
१९ अगस्त - विश्व मानवता दिवस , विश्व फोटोग्राफी दिवस, विश्व कमीज दिवस, चरक जयन्ती,
२० अगस्त - विश्व मच्छर दिन, राजीव गांधी जयंती, अर्थ ओवरशूट डे, सद्भावना दिवस भारत, संजीव सलिल जन्म
२१ अगस्त - विष्णु दिगंबर पलुस्कर दिवस, बिस्मिल्ला खां निधन
२३ अगस्त - दास व्यापार उन्मूलन दिवस
२५ अगस्त - पं. रघुनाथ पाणिग्रही निधन
२६ अगस्त - महिला समानता दिवस
२७ अगस्त - मदर टेरेसा जयंती, महान गायक मुकेश जी की पुण्यतिथि
२८ अगस्त - रास बिहारी बोस दिवस, फिराक़ गोरखपुरी जयंती, राजेंद्र यादव जन्म, श्याम सखा श्याम जन्म
२९ अगस्त - राष्‍ट्रीय खेल दिवस, ध्यानचंद जन्म दिवस,अन्तर्राष्ट्रीय नाभिकीय परीक्षण विरोध दिवस, वर्षा सिंह जन्म
३० अगस्त - लघु उद्योग दिवस, भगवती चरण वर्मा दिवस,
३१ अगस्त - अमृता प्रीतम जन्म, शिवाजी सावंत जन्म
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कृति चर्चा:
''पाखी खोले पंख'' : गुंजित दोहा शंख
[कृति विवरण: पाखी खोले शंख, दोहा संकलन, श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, प्रथम संस्करण, २०१७, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ १०४, मूल्य ३००/-, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, प्रगतिशील प्रकाशन दिल्ली, दोहाकार संपर्क अमरावती। गायत्री मंदिर रोड, सुदना, पलामू, ८२२१०२ झारखंड, चलभाष ९४३१५५४४२८, ९९३९२३३९९३, ०७३५२९१८०४४, ईमेल sp.dwivedi7@gmail.com]
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दोहा चेतन छंद है, जीवन का पर्याय
दोहा में ही छिपा है, रसानंद-अध्याय
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रस लय भाव प्रतीक हैं, दोहा के पुरुषार्थ
अमिधा व्यंजन लक्षणा, प्रगट करें निहितार्थ
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कत्था कथ्य समान है, चूना अर्थ सदृश्य
शब्द सुपारी भाव है, पान मान सादृश्य
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अलंकार-त्रै शक्तियाँ, इलायची-गुलकंद
जल गुलाब का बिम्ब है, रसानंद दे छंद
*
श्री-श्रीधर नित अधर धर, पान करें गुणगान
चिंता हर हर जीव की, करते तुरत निदान
*
दोहा गति-यति संतुलन, नर-नारी का मेल
पंक्ति-चरण मग-पग सदृश, रचना विधि का खेल
*
कवि पाखी पर खोलकर, भरता भाव उड़ान
पूर्व करे प्रभु वंदना, दोहा भजन समान
*
अन्तस् कलुष मिटाइए, हरिए तमस अशेष।
उर भासित होता रहे, अक्षर ब्रम्ह विशेष।। पृष्ठ २१
*
दोहानुज है सोरठा, चित-पट सा संबंध
विषम बने सम, सम-विषम, है अटूट अनुबंध
*
बरबस आते ध्यान, किया निमीलित नैन जब।
हरि करते कल्याण, वापस आता श्वास तब।। पृष्ठ २४
*
दोहा पर दोहा रचे, परिभाषा दी ठीक
उल्लाला-छप्पय सिखा, भली बनाई लीक
*
उस प्रवाह में शब्द जो, आ जाएँ 'अनयास'। पृष्ठ २७
शब्द विरूपित हो नहीं, तब ही सफल प्रयास
*
ऋतु-मौसम पर रचे हैं, दोहे सरस विशेष
रूप प्रकृति का समाहित, इनमें हुआ अशेष
*
शरद रुपहली चाँदनी, अवनि प्रफुल्लित गात।
खिली कुमुदिनी ताल में, गगन मगन मुस्कात।। पृष्ठ २९
*
दिवा-निशा कर एक सा, आया शिशिर कमाल।
बूढ़े-बच्चे, विहग, पशु, भये विकल बेहाल।। पृष्ठ २१
*
मन फागुन फागुन हुआ, आँखें सावन मास।
नमक छिड़कते जले पर, कहें लोग मधुमास।। पृष्ठ ३१
*
शरद-घाम का सम्मिलन, कुपित बनाता पित्त।
झरते सुमन पलाश वन, सेमल व्याकुल चित्त।। पृष्ठ ३३
*
बादल सूरज खेलते, आँख-मिचौली खेल।
पहुँची नहीं पड़ाव तक, आसमान की रेल।। पृष्ठ ३५
*
बरस रहा सावन सरस्, साजन भीगे द्वार।
घर आगतपतिका सरस, भीतर छुटा फुहार।। पृष्ठ ३६
*
उपमा रूपक यमक की, जहँ-तहँ छटा विशेष
रसिक चित्त को मोहता, अनुप्रास अरु श्लेष
*
जेठ सुबह सूरज उगा, पूर्ण कला के साथ।
ज्यों बारह आदित्य मिल, निकले नभ के माथ।। पृष्ठ ३९
*
मटर 'मसुर' कटने लगे, रवि 'उष्मा' सा तप्त पृष्ठ ४३ / ४५
शब्द विरूपित यदि न हों, अर्थ करें विज्ञप्त
*
कवि-कौशल है मुहावरे, बन दोहा का अंग
वृद्धि करें चारुत्व की, अगिन बिखेरें रंग
*
उनकी दृष्टि कपोल पर, इनकी कंचुकि कोर।
'नयन हुए दो-चार' जब, बँधे प्रेम की डोर।। पृष्ठ ४६
*
'आँखों-आँखों कट गई', करवट लेते रैन।
कान भोर से खा रही, कर्कश कोकिल बैन।। पृष्ठ ४७ २४
*
बना घुमौआ चटपटा, अद्भुत रहता स्वाद।
'मुँह में पानी आ गया', जब भी आती याद।। पृष्ठ ४९
*
दल का भेद रहा नहीं, लक्ष्य सभी का एक।
'बहते जल में हाथ धो', 'अपनी रोटी सेंक'।। पृष्ठ ५४
*
बाबा व्यापारी हुए, बेचें आटा-तेल।
कोतवाल सैंया बना, खूब जमेगा खेल।। पृष्ठ ७७
*
कई देश पर मर मिटे, हिन्दू-तुर्क न भेद।
कई स्वदेशी खा यहाँ, पत्तल-करते छेद।। पृष्ठ ७४
*
अरे! पवन 'कहँ से मिला', यह सौरभ सौगात। पृष्ठ ४७
शब्द लिंग के दोष दो, सहज मिट सकें भ्रात।।
*
'अरे पवन पाई कहाँ, यह सौरभ सौगात'
कर त्रुटि कर लें दूर तो, बाधा कहीं न तात
*
झूमर कजरी की कहीं, सुनी न मीठी बोल। पृष्ठ ४८
लिंग दोष दृष्टव्य है, देखें किंचित झोल
*
'झूमर-कजरी का कहीं, सुना न मीठा बोल
पता नहीं खोया कहाँ, शादीवाला ढोल
*
पर्यावरण बिगड़ गया, जीव हो गए लुप्त
श्रीधर को चिंता बहुत, मनुज रहा क्यों सुप्त?
*
पता नहीं किस राह से, गिद्ध गए सुर-धाम।
बिगड़ा अब पर्यावरण, गौरैया गुमनाम।। पृष्ठ ५८
*
पौधा रोपें तरु बना, रक्षा करिए मीत
पंछी आ कलरव करें, सुनें मधुर संगीत
*
आँगन में तुलसी लगा, बाहर पीपल-नीम।
स्वच्छ वायु मिलती रहे, घर से दूर हकीम।। पृष्ठ ५८
*
देख विसंगति आज की, कवि कहता युग-सत्य
नाकाबिल अफसर बनें, काबिल बनते भृत्य
*
कौआ काजू चुग रहा, चना-चबेना हंस।
टीका उसे नसीब हो, जो राजा का वंश।। पृष्ठ ६१ / ३६
*
मानव बदले आचरण, स्वार्थ साध हो दूर
कवि-मन आहत हो कहे, आँखें रहते सूर
*
खेला खाया साथ में, था लँगोटिया यार।
अब दर्शन दुर्लभ हुआ, लेकर गया उधार।। पृष्ठ ६४
*
'पर सब कहाँ प्रत्यक्ष हैँ, मीडिया पैना दर्भ पृष्ठ ७०/६१
चौदह बारह कलाएँ, कहते हैं संदर्भ
*
अलंकार की छवि-छटा, करे चारुता-वृद्धि
रूपक उपमा यमक से, हो सौंदर्य समृद्धि
*
पानी देने में हुई, बेपानी सरकार।
बिन पानी होने लगे, जीव-जंतु लाचार।। पृष्ठ ७९
*
चुन-चुन लाए शाख से, माली विविध प्रसून। पृष्ठ ७७
बहु अर्थी है श्लेष ज्यों, मोती मानुस चून
*
आँख खुले सब मिल करें, साथ विसंगति दूर
कवि की इतनी चाह है, शीश न बैठे धूर
*
अमिधा कवि को प्रिय अधिक, सरस-सहज हो कथ्य
पाठक-श्रोता समझ ले, अर्थ न चूके तथ्य
*
दर्शन दोहों में निहित, सहित लोक आचार
पढ़ सुन समझे जो इन्हें, करे श्रेष्ठ व्यवहार
*
युग विसंगति-चित्र हैं, शब्द-शब्द साकार
जैसे दर्पण में दिखे, सारा सच साकार
*
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ श्रीधर लिखें, दोहे आत्म उड़ेल
मिले साथ परमात्म भी, दीप-ज्योति का खेल
4-8-2019
***
मुक्तक
किस तरह मोती मिले बिन सीपिका
किस तरह तम से लड़ें बिन दीपिका
हो न शशि त्यागी, गुमेगी चाँदनी
अमावस में दिखे कैसे वीथिका
4-8-2018
***
नवगीत:
महका-महका
*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
लख मयंक की छटा अनूठी
सज्जन हरषे.
नेह नर्मदा नहा नवेली
पायस परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका..
***
हास्य सलिला:
संवाद
*
'ए जी! कितना त्याग किया करती हैं हम बतलाओ
तुम मर्दों ने कभी नहीं कुछ किया तनिक शरमाओ
षष्ठी, करवाचौथ कठिन व्रत करते हम चुपचाप
फिर भी मर्द मियाँ मिट्ठू बनते हैं अपने आप'
"लाली की महतारी! नहीं किसी से कम हम मर्द
करें न परवा निज प्राणों की चुप सहते हर दर्द
माँ-बीबी दो पाटों में फँस पिसते रहते मौन
दोनों दावा करें अधिक हक़ उसका, टोंके कौन?
व्रत कर इतने वर माँगे, हैं प्रभु जी भी हैरान
कन्याएँ कम हुईं, न माँगी तुमने क्यों नादान?
कह कम ज्यादा सुनो हमेशा तभी बनेगी बात
जीभ कतरनी बनी रही तो बात बढ़े बिन बात
सास-बहू, भौजाई-ननद, सुत-सुता रहें गर साथ
किसमें दम जो रोक-टोंक दे?, जगत झुकाये माथ"
' कहते तो हो ठीक न लेकिन अगर बनायें बात
खाना कैसे पचे बताओ? कट न सकेगी रात
तुम मर्दों के जैसे हम हो सके नहीं बेदर्द
पहले देते दर्द, दवाकर होते हम हमदर्द
दर्द न होता मर्दों को तुम कहते, करें परीक्षा
राज्य करें पर घर आ कैसे शिक्षा लो दे दीक्षा'
4-8-2015
***
मुक्तक
हिंदी कहो, हिंदी पढ़ो, हिंदी लिखो, नित जाल पर
चन्दन तिलक हँसकर लगाओ, भारती के भाल पर
विश्व वाणी है यही, कल सब कहेंगे सत्य यह
मीडिया-मित्रों कहो 'जय हिन्द" अंतर्जाल पर
*
दोहे
मेघदूत संदेश ले, आये भू के द्वार
स्नेह-रश्मि पा सु-मन हँस, उमड़े बन जल-धार
*
पल्लव झूमे गले मिल, कभी करें तकरार
कभी गले मिलकर 'सलिल', करें मान मनुहार
*
आदम दुबका नीड़ में, हुआ प्रकृति से दूर
वर्षा-मंगल भूलकर, कोसे प्रभु को सूर
4-8-2014
***
गीत:
हक
*
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.
न मन मिल पायें तो क्यों बन्धनों को ढोयें हम नाहक.....
*
न मैं नाज़ुक कि अपने पग पे आगे बढ़ नहीं सकता.
न तुम बेबस कि जो खुद ही गगन तक चढ़ नहीं सकता.
*
भले टेढ़ा जमाना हो, रुका है कब कहो चातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
न दिल कमजोर है इतना कि सच को सह नहीं पाये.
विरह की आग हो कितनी प्रबल यह दह नहीं पाये..
अलग हों रास्ते अपने मगर हों सच के हम वाहक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
जियो तुम सिर उठाकर, कहो- 'गलती को मिटाया है.'
जिऊँ मैं सिर उठाकर कहूँ- 'मस्तक ना झुकाया है.'
उसूलों का करें सौदा कहो क्यों?, राह यह घातक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
*
भटक जाए, न गम होगा, तलाशेगा 'सलिल' मंजिल.
खलिश किंचित न होगी, मिल ही जायेगा कभी साहिल..
बहुत छोटी सी दुनिया है, मिलेंगे फिर कभी औचक.
खफा होना तुम्हारा हक है, जाना दूर मेरा हक.....
4-8-2010
***

गुरुवार, 3 अगस्त 2023

गीत, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, बाल गीत, वर्षा, नागपंचमी,

गीत
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
***
लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***
लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
***
मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
3-8-2016
***
नवगीत:
*
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
कृषक-सूर्य को
खिला कलेवा
उषा भेजती
गगन-खेत पर
रश्मि-बीज
देता बिखेर रवि
सकल भूमि पर
देख-रेखकर
नव उजास
पल्लव विकसे
निखर गया
वसुधा का रूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
हवा बहुरिया
चली मटककर
दिशा ननदिया
खीझे चिढ़कर
बरगद बब्बा
खांस-खँखारें
नीम झींकती
रात जागकर
फटक रही है
आलस-चोकर
उठा गौरैया
ले पर -सूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
लिव इन रिश्ते
पाल रही है
हर सिंगार संग
ढीठ चमेली
ठेंगा दिखा
खाप को खींसें
रही निपोर
जुही अलबेली
चाँद-चाँदनी
झाँक देखते
छवि, रीझा है
नन्ना कूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
***
लघुकथा
शब्द और अर्थ -
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .
हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'
'इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं.' एक स्वर से सबने कहा.
'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा.
'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.
गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- 'गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों की सहमति से करते हों.'
'जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं.' - जनतंत्र ने कहा.
लोकतंत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.
***
नवगीत
*
मक्के की दो रोटियाँ
चटनी -सरसों साग
मांग रही हैं अंतड़ियाँ
लगी पेट में आग
*
हुए नहीं अपने
झूठे हैं सपने
कभी लगे तपने
कभी लगे कँपने
तोड़ रहे हैं बोटियाँ
लेकिन लगी न लॉग
डूब रही हैं झुपड़ियाँ
बादल डँसते नाग
*
बेढब हैं नपने
खास लगे खपने
खाप लगे ग्रसने
जाल लगे फंसने
जाने कितनी कोटियाँ
नेता करिया नाग
लकड़ी सी हैं लड़कियाँ
ताक न लड़के भाग
3-8-2015
***
लेख :
नागको नमन :
*
नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.
पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?
3-8-2014
*******

चित्र - देवपुरा, विनोद निगम, जगदीश किंजल्क, प्रवीण सक्सेना

चार अग्रज : 
 

  

सॉनेट 

भगवती दादा पुरोधा, 
रहे हिंदी हित समर्पित, 
नहीं ऐसा अन्य जोधा, 
करूँ नत शिर पुष्प अर्पित। 

वाकई किंजल्क थे वे,
दिव्य थाती को सँजोए,
मधुर वाणी के धनी थे,
बंधु खो हम विवश रोए। 

गीत की रसधार थे तुम, 
हास्य अधरों पर थिरकता, 
सतत शिष्ट विनोद अनुपम,
गीत लब पर मधुर सजता। 

नर्मदा की धार निर्मल, 
लखनवी तहज़ीब अनुपम, 
पूर्णिमा के चाँद उज्जवल, 
थे प्रवीण सहृदय पुरनम।   

मैं भुला सकता न इनको। 
मैं बुला सकता न इनको।। 

नमन शत शत 

                  संजीव 





मंगलवार, 1 अगस्त 2023

तुलसी गाथा, सुनीता सिंह, पुरोवाक

पुरोवाक्
तुलसी गाथा - वैराग्य का सगरमाथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
                            काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंधकाव्य। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या कर्ता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।

महाकाव्य के तत्व -

                            महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।

१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सर्गारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्राय: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना, रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपयुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।

२. नायक - महाकाव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (दुर्गा, कैकेयी, सीता, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकाव्य रचा जाए। महाकाव्य में प्राय: एक नायक रखा जाता है किंतु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकाव्य लिखा जाए तो गोखले, तिलक, लाजपत राय, रवीद्रनाथ ठाकुर, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचंद्र बोस आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।

३. रस - काव्य की आत्मा रस को कहा गया है। महाकाव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।

अन्य विधान - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरूप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु स्व. दयाराम गुप्त 'पथिक' ने कर्ण, विदुर तथा रावण पर लिखित महाकाव्यों के शीर्षक क्रमश: 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा 'कालजयी' रखकर नव परंपरा स्थापित की है।

गाथा - वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद ८.३२ .१, ८.७१.१४)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्ति लभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। गाथ शब्द की उपलब्धि होने पर भी आकारान्त शब्द का ही प्रयोग लोकप्रिय है (ऋग्. ९।९९।४)। गाथा शब्द से बने हुए शब्दों की सत्ता इसके बहुल प्रयोग की सूचिका है। गाथानी एक गीत का नायकत्व करनेवाले व्यक्ति के लिये प्रयुक्त है (ऋग्0 १। ४३।१४)। ऋजुगाथ शुद्ध रूप से मंत्रों के गायन करनेवाले के लिये (ऋग. ८। ९। २१२) तथा गाथिन केवल गायक के अर्थ में व्यवहृत किया गया है (ऋग्. ५। ४४। ५)। यद्यपि इसका पूर्वोक्त सामान्य अर्थ ही बहुश: अभीष्ट है, तथापि ऋग्वेद के इस मंत्र में इसका अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट आशय है, क्योंकि यहाँ यह नाराशंसी तथा रैभी के साथ वर्गीकृत किया गया है: 'रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥' -- ऋग्वेद १०।८६।६

                            ऐतरेय ब्राह्मण की दृष्टि में (ऐ. ब्रा. ७। १८) मंत्रों के विविध प्रकार में 'गाथा' मानव से संबंध रखती है, जबकि 'ऋच' देव से संबंध रखता है। अर्थात् गाथा मानवीय होने से और ऋच दैवी होने से परस्पर भिन्न तथा पृथक मंत्र है। इस तथ्य की पुष्टि शुन:शेप आख्यान के लिये प्रयुक्त शतगाथम (सौ गाथाओं में कहा गया) शब्द से पर्याप्तरूपेण होती है, क्योंकि शुन:शेप अजीगर्त ऋषि का पुत्र होने से मानव था जिसकी कथा ऋग्वेद (१। 24; 1। 25 आदि) के अनेक सूक्तों में दी गई है। महावीर तथा गौतम बुद्ध के उपदेशों का निष्कर्ष उपस्थित करनेवाले पद्य गाथा नाम से विख्यात है। विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत भंडार को निरंतर समृद्ध करनेवाली महाकवि सुनीता सिंह ने मानवपुंगव गोस्वामी तुलसीदास पर रचित महाकाव्य का नामकरण ''तुलसी गाथा'' रखकर औपनिषदिक परंपरा को पुनर्जीवित किया है।

हिंदी में महाकाव्य : कल से आज

                            विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अंतर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।

                            हिंदी महाकाव्य परंपरा चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत से उद्गमित है। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक् समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की 'रामचंद्रिका' में पांडित्यजनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत 'साकेत' और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत 'साकेत संत' महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने 'प्रिय प्रवास' और द्वारिका मिश्र ने 'कृष्णायन' की रचना की। 'कामायनी' - जयशंकर प्रसाद, 'वैदेही वनवास' हरिऔध, 'सिद्धार्थ' तथा 'वर्धमान' अनूप शर्मा, 'दैत्यवंश' हरदयाल सिंह, 'हल्दी घाटी' श्याम नारायण पांडेय, 'कुरुक्षेत्र' दिनकर, 'आर्यावर्त' मोहनलाल महतो, 'नूरजहां' गुरभक्त सिंह, 'गाँधी पारायण' अम्बिका प्रसाद दिव्य, 'उत्तर भागवत' तथा 'उत्तर रामायण' डॉ. किशोर काबरा, 'कैकेयी' डॉ. इंदु सक्सेना, 'देवयानी' वासुदेव प्रसाद खरे, 'महीजा' तथा 'रत्नजा' डॉ. सुशीला कपूर, 'महाभारती' डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, 'दधीचि' आचार्य भगवत दुबे, 'वीरांगना दुर्गावती' गोविन्द प्रसाद तिवारी, 'मानव' डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', 'क्षत्राणी दुर्गावती' केशव सिंह दिखित 'विमल', 'कुंवर सिंह' चंद्र शेखर मिश्र, 'वीरवर तात्या टोपे' वीरेंद्र अंशुमाली, 'सृष्टि' डॉ. श्याम गुप्त, 'विरागी अनुरागी' डॉ. रमेश चंद्र खरे, 'राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस' रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध', 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा' कालजयी' दयाराम गुप्त 'पथिक', 'आहुति' बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।

महाकाव्य की प्रासंगिकता

                            समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है। महाकाव्य जीवन जीने के उद्देश्य और विधि बताते हैं। महाकाव्यों के विविध प्रसंग जीवन में घटित हो सकनेवाली घटनाओं का विश्लेषण कर उनपर जयी होने के लिए किए गए आचरण का विश्लेषण कर व्यक्तित्व निर्माण तथा संघर्ष पथ निर्धारण में सहायक होते हैं। महाकाव्य नायक और खलनायक के चरित्र चित्रण द्वारा शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक, वरेण्य-त्याज्य जीवन मूल्यों का विश्लेषण कर समाज को दिशा दिखाते हैं। महाकाव्य हमारे इतिहास और अतीत की संस्कृति के इतिहास हैं। वे हमारी संस्कृति और सभ्यता के विविध चरणों में हुए संघर्ष, जय-पराजय, गतागत से वर्तमान पीढ़ी को परिचित कराकर उन्हें समसामयिक समस्याओं से जूझने का हौसला देते हैं तथा संघर्ष करने की विधि बताते हैं। महाकाव्य परंपराओं का परीक्षण कर, उनकी उपादेयता का परीक्षण करते हैं। संघर्षों और युद्धों के कारणों और परिणामों का विश्लेषण कार वर्तमान समस्याओं को सुलझाने की आधारभूमि देते हैं। महाकाव्य धर्म-आध्यात्म आदि से जुड़े प्रसंगों का विश्लेषण, शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर नई पीढ़ी को राह दिखाते हैं।

महाकाव्य प्रेरणा-स्रोत

                            महाकाव्य में पराक्रम की कहानियाँ होती हैं। वे हमें प्रेरित करते हैं। महाकाव्य हमें बताते हैं कि असंभव कुछ भी नहीं है, बस जरूरत है तो आत्म-विश्वास की। हमें खुद पर भरोसा करने की जरूरत है और फिर हम असंभव कार्यों को संभव कर सकते हैं। महाकाव्य हमें प्रेरणा और आत्म-विश्वास दे सकते हैं। महाकाव्यों से प्रेरणा लेकर हम जीवन में हारी हुई लड़ाइयों को आसानी से जीत सकते हैं। महाकाव्य के कथा प्रसंगों में नायक त्रासदी, घृणा, विश्वासघात, अपयश, उपहास, दुर्भाग्य और शत्रुता का सामना करता है। वही स्थिति हमारे सामने आती है तो उसकी ताकत हमें प्रेरित कर सकती है। हमें ऐसी स्थितियों में अनुसरण करने का मार्ग मिलेगा। उनका जीवन हमें उम्मीद नहीं खोने और हर स्थिति का बुद्धिमानी और निडरता से सामना करने की सीख देता है।

राष्ट्र और विश्व के प्रति कर्तव्य

                            महाकाव्य सीखते हैं कि स्थिति कैसी भी हो राष्ट्र के प्रति कतव्य भाव सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्र हमारी पहली प्राथमिकता हो। एक नागरिक के रूप में, यह हमारा कर्तव्य है कि हम जान देकर भी अपने देश की दुश्मनों से रक्षा करें। सभी नागरिकों और मनुष्यों का समान अधिकार है और किसी को भी इससे वंचित नहीं किया जा सकता। एक नागरिक के रूप में, हमें राष्ट्र के सभी नागरिकों का ध्यान रखना चाहिए। शासक का कोई भी निर्णय स्थानीय जनता के हित के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। महाकाव्य हमें सिखाते हैं कि एक अच्छा शासक वही है जो पहले स्थानीय नागरिकों के बारे में सोचता है। उनके द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम आम लोगों के हित में होना चाहिए और उन्हें किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। यही नहीं महाकाव्य सकल विश्व को एक परिवार दिखाकर हमें प्रकृति, पृथ्वी और सृष्टि के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराता है।

प्रौद्योगिकी की खोज में सहायक

                            महाकाव्यों ने हमारी प्रौद्योगिकी को बहुत अधिक प्रेरित किया है। अधिकांश आविष्कारों का अन्वेषण अथवा परिकल्पना प्राचीन कथाओं में मिलती है। कई महान प्रौद्योगिकियां पुराने युग में अपनी जड़ें जमा कार काल क्रम में विलुप्त चुकी हैं किंतु उनकी चर्चा महाकाव्यों में है, हम उन वर्णनाओं के आधार पर नव अन्वेषण कर खो चुकी तकनीकों को पुन: पा सकते हैं। शिव द्वारा अमरकंटक की झील से नर्मदा तथा मानसरोवर झील से गंगा को प्रवाहित करना, त्रिपुर के तीन उन्नत नरगों को पल भर में नष्ट कार देना, महर्षि अगस्त्य द्वारा उत्तर से दक्षिण जाने के लिए अत्युच्च विंध्याचल पर्वत के अंदर से मार्ग बनाना, समुद्र में छिपे कलके राक्षसों का वध करने के लिए समुद्र को सुखाना आदि परमाणु ऊर्जा के उपयोग बिना असंभव था। त्रेता में राम द्वारा सेतु बंधन, राम-रावण युद्ध में प्रयुक्त दिव्यास्त्रों के उत्पन्न और सैंकड़ों वर्षों के बाद आज तक भारत-लंका के मध्य थोरियम की विशाल मात्रा का होना, उस समय प्रयुक्त शस्त्रास्त्र प्रौद्योगिकी का प्रमाण है। वैज्ञानिक इस तथ्य पर सहमत हैं कि महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध में इस्तेमाल किए गए हथियारों से कई आधुनिक हथियारों, बमों या मिसाइलों का पता लगाया जा सकता है। सबसे विनाशकारी हथियार जो महाभारत में उजागर किया गया ब्रह्मास्त्र है, वह सब कुछ, पूरे जीवन को नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसे परमाणु हथियारों के समकक्ष माना जा सकता है। भगवान विष्णु ने 'विमान' को एक विधा के रूप में इस्तेमाल कियापरिवहन की। यह आधुनिक दुनिया के हवाई जहाजों और हेलीकाप्टरों के अनुरूप है। हाल ही में एक ऐसी मिसाइल का आविष्कार हुआ है जो अपने लक्ष्य के पीछे तब तक दौड़ती है जब तक कि वह उसे ढूंढकर उसे पूरा नहीं कर लेती। इसे भगवान विष्णु और भगवान कृष्ण द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार के बराबर माना जा सकता है, जिसे 'सुदर्शन चक्र' कहा जाता है। महाकाव्यों में वर्णित बातें वैज्ञानिकों के मन को मथ रही हैं और उन्हें वास्तविक जीवन में लाने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

मनोरंजन का स्रोत

                            महाकाव्य, उपन्यास, फिल्म या टीवी श्रृंखला की अपेक्षा मनोरंजन का एक बड़ा और प्रामाणिक स्रोत हैं। उन्हें अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। महाकाव्य अब आसान भाषाओं में ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। अनेक चलचित्र और धारावाहिक इन महाकाव्यों पर आधारित हैं और दर्शकों द्वारा उनकी प्रशंसा की गई है। रामायण और महाभारत पर बने धारावाहिक अपनी मिसाल आप हैं। उन्हें छोटे दर्शकों के लिए भी एनिमेटेड फिल्मों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन महाकाव्यों के आधार पर कई स्टेज शो और नाटकों का आयोजन किया जाता है। यदि आप किसी ऐसी चीज की तलाश कर रहे हैं जो आपका मनोरंजन कर सके, तो महाकाव्य एक अच्छा स्रोत हो सकते हैं। महाकाव्यों में प्यार, कर्तव्य, बलिदान, ड्रामा, सस्पेंस, एक्शन, त्रासदी, स्वार्थ, मोह आदि का भंडार है। महाकाव्य श्रेष्ठ मनोरंजन का कभी न समाप्त होनेवाला स्रोत हैं।

आदर्श एवं प्रेरणा 

                            महाकाव्य में एक उदात्त चरित-नायक होता है। यह नायक और नायिका सामान्यत: अनेक दैवी गुणों से संपन्न होते हैं तथा असाधारण सामर्थ्य का प्रदर्शन कार जीवन के संकटों को जीतकर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ऐसे महामानव पूरे समाज और हर व्यक्ति के लिए आदर्श होते हैं जिनका अनुकरण कर मनुष्य अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकता है। 
 
गोस्वामी तुलसीदास 

                            भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूर्वाञ्चल से गुजरात तक जिन आध्यात्मिक विभूतियों और धार्मिक संतों की लोकप्रियता कालजयी है उनमें गोस्वामी तुलसीदास अग्रगण्य हैं। तुलसीदास जी की जीवन गाथा और उनके द्वारा लिखित महाकाव्य राम चरित मानस दोनों अजर -अमर हैं। मानस केवल भारतीय या हिंदी साहित्य की नहीं अपितु विश्व वांगमय की अनूठी समयजयी कृति है। गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं ने पराभव काल में भारतीय जनमानस की जिजीविषा को मरने नहीं दिया। दीर्घकालिक क्रूर प्रताड़नाओं के बावजूद भारतीय अस्मिता का शीश उठा रहने का कारण तुलसीदास का श्रेष्ठ चरित्र है। जन्म लेते ही माँ का देहावसान, पिता द्वारा त्याग, पोषणकर्त्री का निधन, पत्नी से वियोग, पुत्र का निधन, पंडितों द्वारा निरंतर विरोध, मुगल सम्राट द्वारा प्रलोभन व भय, प्लेग जैसी घातक महामारी से मरणांतक पीड़ा आदि का वीरोचित धैर्य और संतोचित मनोबल से सामना करते हुए अपने उत्थान और जन-कल्याण के लिए अपने पथ पर बिना डिगे चलते हुए, अपने इष्ट के प्रति शिकायत का भाव न मन में लाना तुलसी को तुलसी बनाता है। परम सुंदरी-विदुषी पत्नी के प्रति राग-द्वेष से मुक्त तटस्थ भाव अपनाए रखना और उनका पथ प्रदर्शन करना तुलसी के ही वश की बात है। अपने इष्ट के दर्शन पाकर भी तुलसी के माँ में अहंकार या प्रलोभन नहीं जागता। ऐसे महामानव का महाचरित्र महाकाव्य लेखन के लिए सर्वथा उपयुक्त है। विशेषकर इस काल में जबकि साहित्यकार अपने कर्तव्य पथ पर नहीं चल पा रहे है, पुरस्कारों और सस्ती लोकप्रियता के पीछे भाग रहे हैं, संत आध्यात्मिक साधना भूलकर नारी और कंचन के मोह में लिप्त होकर जनआस्था गँवा चुके हैं, लोक अपने नायकों और शासन-प्रशासन के प्रति अनास्था से ग्रस्त है, हम सब अपनी त्रुटि देखे बिना एक-दूसरे की त्रुटियाँ देख-देखकर देश के सामने विघटन का खतरा उत्पन्न करने में सहायक हो रहे हैं। लोक के आराध्य राम को क्षुद्र राजनैतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है तब तुलसी का चरित्र, तुलसी का संघर्ष, तुलसी की आस्था, तुलसी त्याग, तुलसी की भक्ति का पठन-पाठन लोक को सद्मार्ग पर लाने के लिए अपरिहार्य है। इस काल में महाकाव्य लेखन के लिए तुलसीदास सर्वथा उपयुक्त महानायक हैं। 

महाकवि सुनीता सिंह 

                            किसी महान मनुष्य के चरित्र, कार्यों, संदेश तथा अवदान को सम्यक दृष्टि से देख पाने, विश्लेषित करने, निष्कर्ष निकालने, उसे विविध सर्गों में वर्गीकृत करने, काव्य बद्ध कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। सुनीता गुरु गोरखनाथ की पवित्र भूमि पर जन्म लेने को सौभाग्य पा चुकी है। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक है, तत्पश्चात उन्होंने कराधान से संबंधित विषयों पर शोध कार्य किया है।  हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, नज़्म और ऐतिहासिक कहानियाँ आदि विषयक सुनीता की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे उत्तर प्रदेश में सहायक निर्वाचन अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। सुनीता के अंदर किसी विषय को समझने, विश्लेषण करने, नवाचार की दृष्टि से मूल्यांकन करने और भविष्य की दृष्टि से नव अन्वेषण करने की सामर्थ्य है।  सुनीता न तो श्रद्धाहीन है, न ही अंधश्रद्धा युक्त। यह वैचारिक संतुलन उन्हें महाकाव्य लेखन के लिए सुपात्र बनाता। है संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी जैसे महान व्यक्तित्व के जीवन कार्य और अवदान का सम्यक सर्वोपयोगी तथ्यपरक विश्लेषण करने के साथ-साथ अब तक पर्याय: उपेक्षिता और लोक निंदिता नारी रत्न रत्नावली के दिव्य व्यक्तित्व के अछूते पहलुओं को उद्घाटित कार सुनीता ने महाकवि के रूप में अपनी पात्रता सिद्ध की है।  

                            तुलसी गाथा का श्री गणेश परंपरा अनुसार मंगलाचरण में सरस्वती वंदना (सिंहनी छंद यति १६-१६, पदादि गुरु, पदांत सगण), शिव वंदना (चौपाई गीत, शिव के १२१ नाम), गौरी-गणेश वंदना (दोहा, दोहगीत यति १३-११, पदांत गुरु लघु), श्री राम वंदना (वाचिक नखत छंद २७ मात्रिक, यति बंधन मुक्त, पदांत गुरु) से किया गया है।  ईश वंदना करने का आशय कृति के सृजन-प्रकाशन-पथ में आनेवाली सभी बाधाओं का निवारण कर, रचनाकार को शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करना है कि वह महाकाव्य लेखन के गुरुतर दायित्व का निर्वहन कर सके। 

देश की रज स्वर्ण कर दे, भाल आभा ओज भर दे।
शृंग सा उत्थान कर दे, जोश की अनमिट लहर दे।
नित प्राण करते आचमन हैं, माँ शारदे! तुझको नमन है।।    

हे ललाटाक्ष शिपिविष्ट तमोहर, पुरसाना वागीश मनोहर! 
तुम्हीं सनातन तुम्हीं पुरातन, कर दो सारे शूल विनाशन।।  

दशरथ के सुत राम, त्याग कर महलों के आराम,  
रखेंगे पिता वचन का मान, चले हैं कानन को 
सिया लखन के साथ चले हैं कानन को 

                            महाकाव्य की कथानक की पृष्ठभूमि स्वरूप रचित 'अस्तबोध' शीर्षक प्रथम अध्याय में तुलसी के काल का संदर्भ (बीसा छंद यति २०-२०, पादांत गुरु) है-

कठिन समय की धार दिखाई देती। विधना जैसे कड़ी परीक्षा लेती।।   
जहाँ कभी स्वर्णिम गौरव गाथा थी। शौर्य जहाँ कण-कण की परिभाषा थी।।  
होता रज का तिलक जहाँ माथे पर। रहते थे जन सिर ऊँचा जिसमें कर।।  
आज वहाँ रहती घनघोर निराशा। देख विधर्मी निष्ठुर खोई आशा।।  

                            इस सर्ग का समापन दोहा और किरीट सवैया (८ भगण) से हुआ है और ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि यह जो युगीन विसंगतियाँ हैं, उनका निवारण करें- 

कुछ तो ऐसा कीजिए, हे प्रभु दयानिधान।  
भवसागर की ताड़ना, सहनाहो आसान।। 

देश पड़ी विपदा जब संकट-कष्ट मिटा मन आप बसें जब। 
साज उठे बज जेपी रन दुंदुभि भक्त करे लय-ताल गया कब?
 
                            दूसरे अध्याय 'नंदन सर्ग' में तुलसी-जन्म, माता का निधन, पिता द्वारा त्याग, दासी मुनिया द्वारा तुलसी की प्राण रक्षा, मुनिया का निधन, मुनिया की भिक्षुणी सास द्वारा तुलसी का पोषण, उसका निधन, तुलसी द्वारा हनुमत मढ़िया में शरण, नरहरि गुरु द्वारा आश्रय और शिक्षा का संक्षिप्त वर्णन है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने खंडकाव्य पंचवटी में राम वनवास प्रसंग में लिखा है- 

जितने कष्ट कंटकों में है जिनका जीवन सुमन खिला।  
गौरव गंध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला।।  

                            श्री राम के लिए लिखी गई यह पंक्तियाँ राम के भक्त तुलसी के जीवन पर भी शत प्रतिशत सत्य उतरती हैं। कहते हैं 'सब दिन जात न एक समान' अंततः, तुलसी के बुरे दिन भी बीते, तुलसी को गुरु कृपा प्राप्त हुई और जैसा कबीर कहते हैं- 

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाय।  
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। 

                            अनाथ बालक तुलसी के अंतस में व्याप्त प्रतिभा का अनुमान कर गुरु नरहरि ने उसे अनाथ से सनाथ कर दिया। मेधावी तुलसी ने गुरुकृपा पाकर गुरुसेवा और अध्ययन  प्राण-प्राण से किया। गुरु यज्ञ से अपने ग्राम राजपुर लौटकर तुलसी ने मधुर वाणी से राम कथा सुनाकर ख्याति  और धन अर्जित किया। सर्ग के उत्तरार्ध में सोरोंवासी पं. आत्माराम की सुता रत्नावली के जन्म, शिक्षा, संस्कार, प्रतिभा, सात्विकता, बौद्धिकता, प्रखरता, ख्याति आदि की चर्चा है। विधि का विधान हो तो मणि-कांचन संयोग हो ही जाता है। दूसरे अध्याय का समापन वागीश्वरी छंद (७ यगण + IS) में किया गया है। 

                            'रुचिरा सर्ग' शीर्षक तृतीय अध्याय में ताटंक छंद (यति १६-१४, पदांत मगण) में तुलसी रत्नावली के मिलन, विवाह, प्रगाढ़ अनुराग, रत्ना का अचानक मायके गमन, तुलसी का लुक-छिपकर अर्धरात्रि में रत्ना के कक्ष में प्रवेश, लोकापवाद से भीत रत्ना द्वारा राम-भक्ति का उपदेश, तुलसी द्वारा सन्यास का निश्चय आदि घटनाओं का वर्णन है। तुलसी-रत्ना मिलन की पृष्ठभूमि, दोनों की मनस्थिति, अव्यक्त पारस्परिक अनुराग, मिलन, अत्यधिक प्रेम आदि प्रसंगों में महाकाव्यकार ने मौलिक चिंतन किया है। सर्गांत में दोहा तथा विद्या छंद (यति १४-१४, पदांत यगण)) का प्रयोग किया गया है। लोक ने रत्ना को रूपगर्विता-कटुभाषिणी कहकर निंदा की है किंतु लेखिका ने सहृदयतापूर्वक रत्ना के मनोभावों को व्यक्त करते हुए उसे विदुषी, विनम्र, कर्तव्यपारायण, पति निष्ठ, प्रभु भक्त चित्रित किया है। सामान्य नारी होती तो अपने रूप में आसक्त पति को तृप्त कर कृतार्थ होती किंतु रत्ना पति को सनातन सत्य का दर्शन कराती है- 

हाड़-माँस की बनी देह से प्रेम कर रहे हो जितना।  
प्रभु रामचन्द्र से प्रेम यही, करते होते जो उतना। 
पार सहज भव सागर होता, सता न पाता भय जग का। 
विषय वासना में जगती के, लीन हो गए हो कितना?
मूल स्वरूप विचारो अपना, कुछ जगती का ध्यान करो। 
कल्याण लोक का हो जाए, कुछ अपना उत्थान करो।

                            चतुर्थ अध्याय 'स्नगधरा सर्ग' में तुलसी रत्ना से सन्यास की अनुमति चाहते हैं क्योंकि जीवित पत्नी की अनुमति बिना विवाहित पुरुष सन्यास नहीं ले सकता। तुलसी रत्ना के सामने पहुँचते हैं- 

घर तक पहुँचे गोसवमी जी। अनुमति लेने सन्यासी जी। 
खबर मिली तो भगी आयी। रत्ना चौखट तक आ पायी । 
तुलसी रूप देख स्तब्ध खड़ी । असमंजस या ग्लानि में पड़ी। 
तुरत संयत किया स्वयं को। अब क्या देना स्थान अहं को।
तुलसी पग पर शीष नवाया। आदर से उनको बैठाया।   

                            बहुत प्रयास के बाद जब तुलसी को शब्द नहीं मिल रहे थे कि किस तरह प्राणाधिक प्रिय रही परम सुंदरी पतिनिष्ठ रत्नावली से सन्यास की अनुमति माँगें तब रत्ना ने ही पहल कर अपने ह्रदय पर पत्थर रखते हुए उनका धर्म संकट दूर किया- 

संकोच बिना हे नाथ! कहो। हिय हूक उठे अब चुप न रहो॥ 

                          रत्ना ने बताया कि उसके मन में तुलसी के प्रति कितना अनुराग है, उसका उद्देश्य तुलसी की अवमानना या तुलसी को प्रताड़ित करना नहीं था। तुलसी को उस विषम मौसम में, अर्धरात्रि पर्यंत, उस दुर्दशा में देखकर चिंता की वजह से यह वचन निकले थे-

मुश्किल है तुम बिन जी पाना।  अपराध बोध विष पी जाना॥ 

                         मानव मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। रत्ना भी क्षण भर को विचलित होती है - 

अगर ज्ञात जो होगा मुझको। त्याग दिया जाएगा मुझको॥  
नहीं सत्य-पथ मैं दिखलाती। नहीं त्याग की महिमा गाती॥ 
नहीं भक्ति की अलख जगाती। नहीं मोक्ष की महिमा गाती॥  

                         यह सन्यास प्रसंग महाकाव्यकार की अपनी मौलिक अवधारणा है। यह सर्ग अत्यंत मार्मिक तथा महत्वपूर्ण है। यह रत्नावली की अग्निपरीक्षा की घड़ी है। अपनी गृहस्थी की रक्षा के लिए पति को सन्यास की अनुमति न देकर संसार में रमने के लिए विवश करे या अपने ही वचनों को सत्य प्रमाणित करते हुए पति को सन्यस्त होने देकर आजीवन विरह की व्यथा और संतान के पोषण का गुरुतर दायित्व वहन करे। रत्नावली भली-भाँति जानती थी कि तुलसी के सन्यास ले लेने पर उसे सधवा होते हुए भी विधवा का सा संयम रखना होगा, समाज की प्रतारणा सहनी होगी, शिशु जैसे-जैसे होगा वैसे-वैसे उसके मन में उठते प्रश्नों का और समाज द्वारा बोई जाती शंकाओं का सामना करना होगा तथापि वह पति के मनोरथ को पूर्ण करने में साधक बनने का निर्णय लेकर, बाधक नहीं बनती। वे पुरातन ग्रहस्थ सन्यासियों का उल्लेख कर पति के राम भक्ति पथ पर सहयोगिनी के रूप में सेवा कार पाने का अवसर चाहती हैं- 

नाथ! न लो अब और परीक्षा। शांत हृदय से करो समीक्षा।।
जाप न तप में विघ्न बनूँगी। काँटे पलकों से चुन लूँगी।। 
सहचर बनकर साथ चलूँगी।सारे कंटक धूप सहूँगी।। 
ध्यान करो प्रिय! जितना चाहें। किंतु न मोड़ों अपनी राहें।। 
प्राचीन काल के सन्यासी। गढ़स्थ जीवन के अधिवासी।। 
साथ हमारे रहकर प्रियवर!। चलते जाना भक्ति डगर पर।।

                         तुलसी लोकापवाद के भय से रत्न का प्रस्ताव स्वीकार न कर, अपनी पत्नी के प्रति आभार व्यक्त  करते हुए उनकी किसी एक चाह को पूरा करने का वचन देते हैं-
 
उपकार रहा वो मुझ पर, प्रिय! मान रहा हूँ मैं।।  
मेरे साथ बँधी तुम भी, ये जान रहा हूँ मैं।।  
अगर समय मिल पाया तो, इस पर भी सोचूँगा।। 
एक तुम्हारी किसी चाह को पूरा कार दूँगा।।        

                         इस अध्याय का पूर्व भाग चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में है। उत्तर भाग में महाभागवतजातीय छंद (१४-१२ पर यति) तथा गीतिका छंद (१४-१२, पदांत लघु-गुरु) का उपयोग है। मुछ दोहों के पश्चात सर्गांत में राधा छंद (रतमयग, ८-५) का उपयोग है। 

                         पंचम अध्याय अभिज्ञान सर्ग है जिसमें ३० मात्रिक महातैथिक जातीय कुकुभवत, रुचिरा, ताटंक, कुकुभ, दोहा तथा सोमराजी छंद का उपयोग कर  सन्यासी तुलसी के मन मंथन का शब्दांकन  है। 

                         महत्वपूर्ण संप्लव सर्ग में तुलसीदास के अन्य संतों के साथ मधुर संबंध वर्णित हैं। यह सर्ग लोक श्रुति के अनुसार सूरदास, रसखान , तुलसीदास तथा नाभादासकी भेंट पर केंद्रित है। कवयित्री कालक्रम का ध्यान रखते हुए तथ्य दोष से बचने के प्रति सचेष्ट है। लावणी (१६-१४) छंद का प्रयोग उसे तुकांत बंधन से मुक्त कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। मीराबाई का मार्गदर्शन तुलसी दास द्वारा किया जाना लोक सम्मत है। इस प्रसंगों में इष्ट, पंथ तथा गुरु अलग-अलग होने पर भी संतों में पारस्परिक समादर सनातन धर्म की सहिष्णुता और एकेश्वरवाद के अनुरूप  है। इन प्रसंगों से वर्तमान समाज को प्रेरणा लेकर पारस्परिक टकराव और वैमनस्य भाव का शमन करना चाहिए। अकबर तथा बीरबल से भेंट के समय तुलसी उनसे उम्र में पर्याप्त बड़े रहे होंगे। सत्ता द्वारा संतों को प्रलोभन देकर भ्रष्ट करने के दुष्यप्रयास और तुलसी का श्री राम के प्रति एकांतिक उपास्य भाव अनुकरणीय है। तुलसी द्वारा रामलीला मंचन की परंपरा के श्री गणेश और श्रीकृष्ण दर्शन के समय उनमें श्री राम की छवि का दर्शन करना तुलसी के चरित्र को आदर्श बनाता है।


                         गोस्वामी तुलसीदास के चित्रकूट प्रवास पर केंद्रित है सप्तम प्रमिता सर्ग। श्री राम भक्ति, कवित्व शक्ति का उदय, टोडरमल से मित्रता, रामकथा में शैव-वैष्णवों की समरसता, जनजातियों केवट, निषाद, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जांबवंत आदि से श्री राम का नैकट्य तथा मैत्र भाव आदि नूतन मानवीय सामाजिक आदर्शों का रामकथा में समावेश, हनुमान जी से भेंट, राम-लक्ष्मण के दर्शन आदि महत्वपूर्ण प्रसंग इस अध्याय में वर्णित हैं। महातैथिक जातीय ताटंकवत छंद के साथ दोहा तथा सर्गांत में लवंगलता छंद (अठज ल) का प्रयोग काव्य चारुत्व में वृद्धि करता है। 

सभी कृतियाँ तुलसी कहते प्रभु रामलला सुकुमार सुहावन। 
वही लय ताल गुलाल सजा स्कजहे सब राम लगेन मन भावन।। 
कहाँ तक बूझ सके मन सूझ सके सरिता जल शीतल पावन।
बने रचना कृतियाँ सुलझी उलझी स्वर तान सुखावन सावन।। 
खुली ढलकी गगरी जल की रसकाव्य ललाम सजा हर आँगन।
निहाल हुआ जब काव्य सुना सुन के लगता सुन नाच रहा मन।।   

                         पंचत्व सर्ग में तुलसी की अर्धांगिनी नारीरत्न रत्नावली का महाप्रस्थान वर्णित है। रत्नावली का स्वास्थ्य बिगड़ना, रत्नावली द्वारा  पति का ध्यान कर उनके हाथों अंतिम संस्कार की मनोकामना, तुलसी को अंतर्मन में आभास होना, तत्काल रत्नावली के समीप पहुँचकर सांत्वना देना, अन्त्येष्टि क्रिया करना, राम कथा में कुष्ठ रोगी का वेश रखकर हनुमान जी का आना, तुलसीदास जी की भव मुक्ति आदि प्रसंग लिखते समय महाकाव्यकार ने पारंपरिक तथ्यों के साथ, मौलिक चिंतन का आश्रय लिया है। सर्गांत में सोमराजी छंद (दोय) का प्रयोग हुआ है। 
                         प्रहर्षिणी  सर्ग में तुलसी की विरासत के अंतर्गत रंचरित मानस, रामाज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमंबाहुक, गीतावली, रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, दोहावली, कवितावली, बरवै रामायण, श्रीकृष्ण गीतवली, विनय पत्रिका, सतसई आदि कृतियों पर अपनी काव्य अंजुली चढ़ाकर सुनीता ने काव्य-पूर्वज का तर्पण किया है। किसी महाकाव्य में ऐसा उपक्रम प्रथमत: करने के लिए महाकाव्यकार साधुवाद की पात्र है। भुजंगप्रयात छंद से इस सर्ग का समापन किया गया है। 

                         दसवें तरंगिणी सर्ग में कवयित्री ने तुलसीदास की काव्यगत विशेषताओं का विवेचन महातैथिक जातीय छंद में किया है। तुलसी जैसे युगकवी-महाकवि के काव्य की काव्य-समालोचना कार सुनीता ने नव प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। माया छंद (मतयसग) मे रचित षटपदी से इस सर्ग का समापन हुआ है। 

                         ग्यारहवें मालिनी सर्ग में इस संक्रमण काल में तुलसीदास के रचनात्मक अवदान की प्रासंगिकता का आयाम वर्णित है। इस सर्ग में महातैथिक छंद के साथ २० कुण्डलिया तथा  तुलसी के नीति वचन उपशीर्षक से ४० मुक्तक दिए गए हैं। 

                         कवयित्री सुनीता सिंह ने इस महाकाव्य की रचना करने के पूर्व तुलसी चरित्र, तुलसी साहित्य तथा तुलसी मीमांसा का गहन अध्ययन कर 'तुलसी का रचना संसार' तथा 'तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन' शीर्षक दो कृतियों की रचना की। इसके अतिरिक्त 'भक्ति काल के रंग' काव्य संग्रह में कबीर, तुकाराम, नानक, मीरा के साथ तुलसीदास के काव्य का विवेचन किया है। कालजयी कवि तुलसीदास के व्यक्तित्व-कृतित्व पर सुनीता ने गहन अध्ययन, मनन-चिंतन पश्चात मौलिक दृष्टि से इस महाकाव्य का प्रणयन कर आदर्श-च्युत होते समाज और असहिष्णु होते आम आदमी के पथ प्रदर्शन का गुरुतर दायित्व निभाया है। 'तुलसी गाथा' महाकाव्य का अध्ययन कर तुलसी-साहित्य और तुलसी के अवदान को विविध परिप्रेक्ष्य में बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष- ९४२५१८३२४४, एमेल salil.sanjiv@gmail.com    

पुरोवाक्, तारेश दवे

पुरोवाक् 
मुक्तक मुक्त मणि सदृश
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्ववाणी हिंदी की सर्वाधिक प्राचीन और सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य विधा मुक्तक का वैशिष्ट्य वैचारिक संपन्नता और सांदेशिक समृद्धि की दृष्टि से सर्वकालीन उपादेयता युक्त होना है। वीर भूमि राजस्थान के तरुण कवि तारेश दवे का मुक्तक संग्रह 'यादें देकर जाऊँगा' २४० मुक्त मणियों की संग्रहणीय कृति है। तारेश आत्वामालोकन और आत्मालोचन को आत्मोन्नयन की कुंजी मानते हैं-

दुखाकर दिल किसी का चैन से तुम सो न पाओगे
कहो क्या गैर की खातिर यूँ अपनों को रुलाओगे
कभी तन्हाई में बैठो तो खुद से बात ये पूछो
गलत रस्ते पे यूँ कब तक कहो खुद को चलाओगे।

तारेश की जुबान चाशनी में तैरती जलेबी की तरह हिन्दुस्तानी तहजीब की मिठास से भरी है। वे न तो संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट शुद्ध हिंदी वापरते हैं न ही अंग्रेजीपरस्त हिंगलिश का प्रयोग करते हैं। मुक्तक के कथ्य के अनुरूप शब्द चयन उनके मुक्तकों को जीवंतता प्रदान करता है।

अगर सच्चाई है दिल में तो फिर किस बात का डर है
तुम्हारे साथ धरती है, तुमहारे साथ अंबर है
हों नेकी और ईमांदारी जहाँ बुनियाद के पत्थर
यकीं मानो कि तूफ़ानों में भी महफूज वो घर है।

इन मुक्तकों को पढ़ते हुए हालाते-दौरां से मुक्तक-दर-मुक्तक मुलाकात होती है। सियासी और मजहबी बुराइयों का जिक्र करते हुए उन पर समझदार बाशिंदे के नुक्ता-ए-नजर से इस तरह तबसिरा करना की किसी को उँगली उठाने का मौका न मिले, एक नए कलमकार के लिए मुश्किल होता है लेकिन तारेश इस मुश्किल को आसान बना सके हैं। उनकी सलाहियत काबिले-दाद है। 
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- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, जबलपुर, ९४२५१८३२४४    

पुरोवाक्, प्रश्न खुद बैताल था, हरिहर झा, नवगीत

पुरोवाक्
प्रश्न खुद बैताल था : सत्य की पड़ताल था
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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विश्ववाणी हिंदी के सम-सामयिक साहित्य में को इस संक्रमण काल में घट रही घटनाओं का साक्षी होना पड़ रहा है। यह सुयोग और दुर्योग दोनों है। सुयोग इसलिए कि साहित्य को लगभग हर दिन या अधिक सटीक हो कहें हर पल अपनी सामर्थ्य और जिजीविषा को श्रवहित के निकष पर कसना पड़ रहा है, दुर्योग इसलिए कि जितनी अधिक और जैसी विकराल घटनाएँ इस दौर में घट रही हैं वैसी पूर्व काल में कभी नहीं घटीं। साहित्य का की कसौटी और लक्ष्य 'सर्वजन हिताय,सर्व जन सुखाय' न होकर 'सत्ता हिताय' और 'समर्थ सुखाय' हो गया है। चारण-भाटों की विरासत वाले देश में जब जो सत्ता पर हो उसकी प्रशस्ति करने को ही सारस्वत अनुष्ठान मान लिया जाता रहा है। पिछले दो दशकों में नव धनाढ्य और साक्षर वर्ग की संख्या और मुद्रण तकनीक की सुलभता-सरलता ने पुस्तक क्रांति को जन्म दे दिया है। पुस्तक-प्लावन, प्रशस्ति प्लावन और पुरस्कार प्लावन में तन और धन ने ले-दे का बाजारवाद इतना विकसित कर दिया है की सद्विचार और सत्साहित्य की खोज खुर्दबीन लेकर करनी पड़ रही है। इस विषमता को देखकर विधि ने तो अपना चित्र गुप्त ही कर लिया है। हरि-हर ने हिम्मत नहीं हरि है और 'प्रश्न खुद बैताल था' लेकर पाठक-पंचायत में उपस्थित हैं।

'गीत' आदिम नादात्मक चेतना की लयात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। सृष्टि का जन्म ही 'नाद' से हुआ है। अनहद नाद ही हर परमाणु की संरचना का केंद्र और जीव का संस्कार है। संस्कार प्रबल हो तो वह आत्मा के माध्यम से देह का गुण-धर्म बनकर विश्व को आलोकित करता है। कवि वस्तुत: होता है बंता नहीं है, बनाया ही नहीं जा सकता। हरिहर झा मूलत: संवेदनशील भद्र इंसान हैं। वे अपने चतुर्दिक जो घटते देखते हैं उसकी प्रतिक्रियाप्रश्न के रूप में उनके मनस में होती है। ये प्रश्न ज्ञान, विज्ञान, कला, धर्म, समाज (संसद-बाजार) ही नहीं व्यक्ति और समष्टि तथा कल-आज और कल से भी जुड़े हैं। इस प्रश्नों के व्याल-जाल में उलझ मकड़ी-मन तर्कों का जाल बुनता रहता है। अहं का वहम 'सोsहं' की प्रतीति में बाधक बनता है।  

थे सवाल चिंतन के
अहम आया बीच में
गंदगी बहस में थी
फँस गए लो कीच में
झड़पें, बौछार चली मित्र से पंगा हुआ।

'पंगा' होने तक तो ठीक है किंतु जब' दंगा' होने लगे तो आदमी की बिसात क्या, चाँद-तारे तक रोने लगते हैं-

झकझोरते प्रश्न करते, चाँद तारे
रात भर रोते रहे
पूछती हैं, हवाएँ क्यों मुक्त नभ को
बेच कर यों बेड़ियाँ सहते रहे?

और अंतत: प्राण-शक्ति माधुरी बिसारकर फटे बाँस की बाँसुरी बन जाती है-  

दिल की धकधक, फटते सुर में
वाद्य यंत्र हैं ढीले
वाणी भटके, भय भरमाए,
मुखड़े होते पीले
प्राणशक्ति कर्कश रागों में
तीखे स्वर से गाती

ईश्वर करुणावतार है या निष्पक्ष-निर्मम न्यायाधीश? संसार में हर एक को अपना पक्ष ही न्याय का पक्ष प्रतीत होता है।  

न्याय वही जो मेरे मन में
स्नेह सभी कुछ देना चाहे
हृदय तराजू तोल न पाए
धड़कन कोई सुनता काहे
न्याय, प्रेम में युद्ध हुआ तो, झगड़े में क्या करता काजी।

न्यायान्याय का द्वन्द ही माया है। माया इतनी प्रबल कि मायापति को भी नहीं छोड़ती तो शेष की क्या बिसात?

बरगलाती रिसती गीरती
मदमस्ती दामन में छाई
रूप छटा आकर्षित करती
जिस्म अप्सरा का ले आई
रूह के बुलंद स्वर तेरे , मादक धुन, संगीत सुनाते।

प्रकृति का मानवीकरण हरिहर जी को प्रिय है-

झाँके चाँद रसोई सूंघे
चंद्र प्रभा खूब लजाई
तारे बैठ गगन में देखें
आती थाल सजी सजाई
नारीवेश में गुझिया आई, गुझिया बन कर आई नार

इन नवगीतों की नवता यह है की इनमें अतिरेक नहीं यथार्थ है। ये गीति रचनाएँ यथार्थ परक हैं।


गंदगी बहती चली तो
क्रुद्ध नथुने, नाक फैली
चल पड़े नाले नदी में,
क्षुब्ध गंगा आज मैली

विष बहा, भट्टी-जहाँ में,
मादक नशीले जाम
प्रकृति देखो सिसकती।

हरिहर जी का संवेदनशील मन 'श्रम' के महत्ता जानता और यह मानता है की जो श्रम नहीं करता वह विलासी बनकर जग-जीवन पर भार हो जाता है। 

उँगली श्रम में व्यस्त नहीं तो
हाथ उठाये देती गाली
विलास में डूबा जीवन बस
तैर रहा खोखला खाली
सुविधाभोगी, दर्द डराये, खण्डित हो जाना ही भाया।

कृष्ण का बहुआयामी चरित्र विविध गीतों में विविध प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ है किंतु कहीं भी पिष्टपेषण या पुनरावृत्ति दोष नहीं है। पौराणिक चरित्रों और मिथकों के माध्यम से प्रवृत्तिगत विशेषण विस्तार में जाए बिना हो जाता है। गीतकार केवल विसंगति-वर्णन तक सीमित नहीं है, वह सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी केंद्र में रखता है। गेटकार के शब्दों में -

''बीच-बीच में रस का जायका देती हुई ’गुझिया बन कर है तैयार’, ’मोहित हूँ, तुझ में देख रहा’, ’पतंग एक प्यार है’ जैसी कविताएँ भी हैं।’ 'कंदील बालो’ कुछ वैसे ही भाव से शांतिमय क्रांति का आह्वान करती है। फ्रायड मनुष्य के अंदर जानवर को ढूँढ कर प्रेम के रहस्य की आधी सच्चाई देखता है पर ’ धनुष-बाण तेरे घुस आते’ स्वयं अज्ञानी ग्वाला होते हुए भी अपने प्रेम में राधा के दर्शन करता हुआ स्वयं को धन्य महसूस करता है। हमारे शास्त्रों में सामाजिक अवचेतन मन के ऐसे ही बिम्ब हैं जो हजारों वर्षों तक युग के अनुरूप नये नये अर्थ से समाज को पुनर्जीवित रखने की सामर्थ्य रखते हैं।''

दीप जलता, गुझिया बनकर है तैयार, ग्रीष्म बाला, मोहित हूँ, शंखनाद क्रांति का, तमन्ना तलवार की, कंदील बालो आदि गीत नवता का जयघोष करते हैं। नवगीतों को नकारात्मकता के विकराल पंजे से निकाल कर सकारात्मकता के संसार में जाना अब आवश्यक हो गया है। हरिहर जी ने जहाँ-तहाँ हास्य, श्रंगार, वीर आदि रसों की झलक गीतों में समेटी है, उसे और विस्तार मिलना चाहिए। सभी ९ रसों को नवगीतों में सँजोया जाए तो नवगीत नवजीवन पा सकेगा। हरिहर जी इस दिशा में सचेष्ट हैं, यह संतोष का विषय है। मैंने अपनी नवगीत संकलनों ''काल है संक्रांति का'' तथा ''सड़क पर'' में यह प्रयास किया है। 

'प्रश्न खुद बैताल था' शीर्षक सार्थक है। बैताल की कहानियों का बैताल जिस तरह बार-बार राजा के कंधे पर सवार हो जाता है, वैसे ही सामयिक प्रश्न गीतकार के मनस को झिंझोड़ते हैं। प्रश्नों से उआलझट-सुलझते मन की ऊहा-पोह ही इन गीतों का कलेवर है। हरिहर जी प्रसंगानुकूल सहज-सरल भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन सटीक है। मुझे पूरा विश्वास है कि हरिहर जी के ये नवगीत पाठक- दरबार में सराहा जाएगा।