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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

सॉनेट, नवगीत, माँ, नौटंकियाँ, टैगोर, मुक्तक, मुक्तिका, कांता रॉय, नीरज, दोहा

 सॉनेट

मधुर
मधुर मधुर मुस्कान मनोहर
है गोपाल कृष्ण कण-कण में
छलिया छिपा हुआ तृण-तृण में
नटखट नटवर धरा धरोहर
पथिक न जिसने थकना जाना
तरुण अरुण सम श्याम सलौना
उस बिन जीवन लगे अलौना
दुनिया दिखी मुसाफ़िरखाना
रास-हास पर्याय कृपालु
धेनु धरा धुन धर्म रसालु
रेणु-वेणु सँग रमा दयालु
धारा राधा ने अँसुअन में
राधा को धारा चुप मन में
व्यथा छिपा खंजन नैनन में
२०-७-२०२२
•••
नवगीत -
फ़िक्र मत करो
*
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
सूरज डूबा उगते-उगते
क्षुब्ध उषा को ठगते-ठगते
अचल धरा हो चंचल धँसती
लुटी दुपहरी बचते-फँसते
सिंदूरी संध्या है श्यामा
रजनी को
चंदा छलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
गिरि-चट्टानें दरक रही हैं
उथली नदियाँ सिसक रही हैं
घायल पेड़-पत्तियाँ रोते
गुमसुम चिड़ियाँ हिचक रही हैं
पशु को खा
मानव पलता है
फ़िक्र मत करो
सब चलता है
*
मनमर्जी कानून हुआ है
विधि-नियमों का खून हुआ है
रीति-प्रथाएँ विवश बलात्कृत
तीन-पाँच दो दून हुआ है
हाथ तोड़ पग
कर मलता है
***
१८. १२. २०१५
***
यादें न जाएँ: नवगीत महोत्सव २०१५ लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना: फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आए हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाए हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोएँ-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसाएँ
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पाएँ
मतभेदों को विहँस पचाएँ
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
***
नवगीत:
नौटंकियाँ
*
नित नयी नौटंकियाँ
हो रहीं मंचित
*
पटखनी खाई
हुए चित
दाँव चूके
दिन दहाड़े।
छिन गयी कुर्सी
बहुत गम
पढ़ें उलटे
मिल पहाड़े।
अब कहो कैसे
जियें हम?
बीफ तजकर
खायें चारा?
बना तो सकते
नहीं कुछ
बन सके जो
वह बिगाडें।
न्याय-संटी पड़ी
पर सुधरे न दंभित
*
'सहनशीली
हो नहीं
तुम' दागते
आरोप भारी।
भगतसिंह, आज़ाद को
कब सहा तुमने?
स्वार्थ साधे
चला आरी।
बाँट-रौंदों
नीति अपना
सवर्णों को
कर उपेक्षित-
लगाया आपात
बापू को
भुलाया
ढोंगधारी।
वाममार्गी नाग से
थे रहे दंशित
*
सह सके
सुभाष को क्या?
क्यों छिपाया
सच बताओ?
शास्त्री जी के
निधन को
जाँच बिन
तत्क्षण जलाओ।
कामराजी योजना
जो असहमत
उनको हटाओ।
सिक्ख-हत्या,
पंडितों के पलायन
को भी पचाओ।
सह रहे क्यों नहीं जनगण ने
किया जब तुम्हें दंडित?
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएँ और बरसें जिससे तन-मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इंद्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना? आईए, आज एक सुंदर गीत सुनकर आनंद लें जिसे रचा है भानु सिंह ने। अरे! आप भानुसिंह को नहीं जानते? अब जान लीजिए, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी 'प्रेम कवितायेँ' भानुसिंह के छद्म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
*
सावन गगने घोर घन घटा; निशीथ यामिनी रे!
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब; अबला कामिनी रे!!
उन्मद पवने जमुना तर्जित; घन-घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित; थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम; बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले; निविड़ तिमिरमय कुञ्ज।
कह रे सजनी! ये दुर्योगे; कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत; सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे; टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम; बाँध ह चंपक माले।
गहन रैन में न जाओ, बाला! नवल किशोर क' पास
गरजे घन-घन बहु डरपाव;ब कहे 'भानु' तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाए; आधी रतिया रे!
बाग़ डगर किस विधि जाएगी?; निर्बल गुइयाँ रे!!
मत्त हवा यमुना फुँफकारे; गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि; मग-वृक्ष लोटते; थर-थर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेज तरु; घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर; कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले; 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे; लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट-चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत; तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है: देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं: हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बाँसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
मुक्तक:
आँखों से बरसात हो, अधर झराते फूल
मन मुकुलित हो जूही सम, विरह चुभे ज्यों शूल
तस्वीरों को देखकर, फेर रहे तस्बीह
ऊपर वाला कब कहे: 'ठंडा-ठंडा कूल'
***
मुक्तक
माँ के प्रति प्रणतांजलि:
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी.
दोहा गीत गजल कुण्डलिनी, मुक्तक छप्पय रूबाई सी..
मन को हुलसित-पुलकित करतीं, यादें 'सलिल' डुबातीं दुख में-
होरी गारी बन्ना बन्नी, सोहर चैती शहनाई सी..
*
मानस पट पर अंकित नित नव छवियाँ ऊषा अरुणाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी..
प्यार हौसला थपकी घुड़की, आशीर्वाद दिलासा देतीं-
नश्वर जगती पर अविनश्वर विधि-विधना की परछांई सी..
*
उँगली पकड़ सहारा देती, गिरा उठा गोदी में लेती.
चोट मुझे तो दर्द उसे हो, सुखी देखकर मुस्का देती.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी-
'सलिल' अभागा माँ बिन रोता, श्वास -श्वास है रुसवाई सी..
*
जन्म-जन्म तुमको माँ पाऊँ, तब हो क्षति की भरपाई सी.
दूर हुईं जबसे माँ तबसे घेरे रहती तन्हाई सी.
अंतर्मन की पीर छिपाकर, कविता लिख मन बहला लेता-
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
*
कौशल्या सी ममता तुममें, पर मैं राम नहीं बन पाया.
लाड़ दिया जसुदा सा लेकिन, नहीं कृष्ण की मुझमें छाया.
मूढ़ अधम मुझको दामन में लिए रहीं तुम निधि पाई सी.
तन पुलकित, मन सुरभित करतीं, माँ की सुधियाँ पुरवाई सी
***
मुक्तिका:
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
२०-७-२०१८
***
कृति चर्चा :
घाट पर ठहराव कहाँ : लघुकथाओं पुष्पोंकी सुवासित बगिया
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: घाट पर ठहराव कहाँ, लघुकथा संग्रह, कांता रॉय, ISBN ९७८-८१-८६८१०-३१-५ पृष्ठ १२४, २००/-पुस्तकालय संस्करण, १५०/- जन संस्करण, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द पेपर जैकेट सहित, समय साक्ष्य प्रकाशन, १५ फालतू लाइन, देहरादून २४८००१, रचनाकार संपर्क:९५७५४६५१४७ )
*
'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' सतसइया के दोनों के संदर्भ में कही गयी इस अर्धाली में 'छोटे' को 'छोटी' कर दें तो यह लघुकथा के सन्दर्भ में सौ टंच खरी हो जाती है। लघुकथा के शिल्प और कथ्य के मानकों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। भाषा और साहित्य जड़ता से जितना दूर और चेतना के जितने निकट हो उतना ही सजीव, व्यापक और प्रभावी होता है। पद्य के दोहा और शे'र को छोड़ दें तो नवगीत और मुक्तिका की सी आकारगत लघुता में कथ्य के असीम आकाश को अन्तर्निहित कर सम्प्रेषित करने की अप्रतिम सामर्थ्य लघुकथा की स्वभावगत विशेषता है। लघु कथा की 'गागर में सागर' जैसी अभिव्यक्ति सामर्थ्य ने न केवल पाठक जुटाये हैं अपितु पाठकों के मन में पैठकर उन्हें लघुकथाकार भी बनाया है। विवेच्य कृति नव लघुकथाकारों की बगिया में अपनी सृजन-सुरभि बिखेर रही काँता रॉय जी का प्रथम लघुकथा संग्रह है. 'जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ....' बच्चन जी की इन पंक्तियों को जीती लेखिका को जैसे हो वक़्त मिला वह 'मूषक' (माउस) को थामकर सामाजिक शल्यों की चीरफ़ाड़ी करने में जुट गयी, फलत: ११० लघुकथाओं का पठनीय संग्रह हमारे हाथों में है। संतोष यह कि कृति प्रकाशन को लक्ष्य नहीं पड़ाव मात्र मानकर कांताजी निरंतर लघुकथा सृजन में संलग्न हैं।
'घाट पर ठहराव कहाँ' की लघुकथाओं के विषय दैनंदिन जीवन से उठाये गये हैं। लाड़ली बिटिया, संकोची नवोढ़ा, ममतामयी माँ, संघर्षशील युवती और परिपक्व नारी के रूप में जिया-भोया-सँवारा जीवन ही इन लघुकथाओं का उत्स है। इनके विषय या कथ्य आकाशकुसुमी नहीं, धरा-जाये हैं। लेखिका के अनुसार 'मैंने हमेशा वही लिखा जो मैंने महसूस किया, बनावटी संविदाओं से मुझे सदा ही परहेज रहा है।' डॉ. मालती बसंत के अनुसार 'कांता रॉय के श्वास-श्वास में, रोम-रोम में लघुकथा है।'
कोई विस्मय नहीं कि अधिकाँश लघुकथाओं का केंद्र नारी है। 'पारो की वेदना' में प्रेमी का छल, 'व्यथित संगम' में संतानहीनता का मिथ्या आरोप, 'ममता की अस्मिता' में नारी-अस्मिता की चेतना, 'दरकती दीवारें चरित्र की' में धन हेतु समर्पण, 'घाट पर ठहराव में' जवान प्रवाह में छूटे का दुःख, 'रीती दीवार' में सगोत्री प्रेमियों की व्यथ-कथा, 'गरीबी का फोड़ा' में बेटे की असफलता -जनित दुःख, 'रुतबा' मंत्रालय का में झूठी शान का खोखलापन, 'अनपेक्षित' में गोरेपन का अंधमोह, 'गले की हड्डी' में समधी के कुत्सित इरादों से युक्तिपूर्वक छुटकारा, 'श्राद्ध' में अस्पतालों की लोलुपता, 'पतित' में बदले की आग, 'राहत' में पति की बीमारी में शांति की तलाश, 'झमेला' में दुर्घटना-पश्चात पुलिस सूचना, 'दास्तान-ए-कामयाबी' में संघर्ष पश्चात सफलता,' डिस्टेंट रिलेशनशिप' में नेट के संबंध, 'सुनहरी शाम' में अतीत की यादों में भटकता मन, 'जादू का शो' में मंचीय अश्लीलता, 'मिट्टी की गंध' में नगर प्रवास की व्यथा, 'मुख्य अतिथि' में समय की पाबंदी, 'आदर्श और मिसाल' में वर पक्ष का पाखंड,महिला पार्ष में अयोग्य उम्मीदवार,धर्म के ठेकेदा में मजहबी उन्माद की आग में ध्वस्त प्रेमी,एकलव् में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में गुरु-शिष्य द्वन्द अर्थात जीवन के विविध पक्षों में व्याप्त विसंगतियाँ शब्दित हुई हैं।
कांता जी की विशेषता जीवन को समग्र में देखना है। छद्म नारी हित रक्षकों के विपरीत उनकी लघुकथाएँ पुरुष मात्र को अपराधी मान सूली पर चढ़ाने की मांग नहीं करतीं। वे लघुकथाओं को अस्त्र बनकर पीड़ित के पक्ष में लिखती हैं, वह स्त्री है या पुरुष, बालक या वृद्ध यह गौड़ है। 'सरपंची' लघुकथा पूरे देश में राजनीति को व्यापार बना रही प्रवृत्ति का संकेत करती है। 'तख्तापलट' में वैज्ञानिक प्रगति पर कटाक्ष है। 'आतंकवादी घर के' लघुकथा स्त्री प्रगति में बाधक पुरुष वृत्ति को केंद्र में लाती है। 'मेरा वतन' में सम्प्रदायिकता से उपजी शर्म का संकेत है। 'गठबंधन' लघुकथा महाकल मंदिर की पृष्भूमि में सांसारिकता के व्यामोह में ग्रस्त सन्यासिनी पर केंद्रित है। 'मैं भक्ति के अतिरेक में डूब ही पाई थी कि ……मैं उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर विचार करने लगा' यह लिंग परिवर्तन कब और कैसे हो गया, कौन बताये?
'प्रतिभा', 'दोस्ती', 'नेतागिरी', 'व्रती', 'जीवन संकल्प', 'उम्रदराज', 'सुई', 'सहयात्री', 'रिश्ता', 'कब तक का रिश्ता', 'कश्मकश', पनाह', 'पनाह', 'अनुकंपा', 'नमक', 'फैशन की रसोई' आदि नारी जीवन के विविध पहलुओं पर केंद्रित हैं तो 'विरासत', 'पार्क', 'रिपोर्ट', 'ब्रेकिंग न्यूज', 'पुनर्जन्म', 'मनरेगा','सत्य अभी मारा नहीं'. इधर का उधर' आदि में सामाजिक पाखंडों पर प्रहार है. कांता जी कहीं-कहें बहुत जल्दबाजी में कथ्य को उभरने में चूक जाती हैं। 'कलम हमारी धार हमारी', 'हार का डर', 'आधुनिक लेखिका', 'नेकी साहित्य की' आदि में साहित्य जगत की पड़ताल की गयी है।
कांता जी की लेखन शैली सरस, प्रवाहमयी, प्रसाद गुण संपन्न है। भाषिक समृद्धि ने उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य को धार दी है। वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के साथ संस्कृतनिष्ठ और देशज शब्दों का यथास्थान प्रयोग कर अपनी बात बखूबी कह पाती हैं। स्नेहिल, स्वप्न, स्वयंसिद्धा, उत्तल, विभक्त, उंकुके, तन्द्रा, निष्प्राण जैसे संस्कृत शब्द, सौंधी, गयेला, अपुन, खाप, बुरबक, बतिया, बंटाधार, खोटी आदि देशज शब्द, जुदाई, ख़ामोशी, इत्तेफ़ाक़, परवरिश, अपाहिज, अहसास, सैलाब, मशगूल, दास्तां. मेहरबानी, नवाज़े, निशानियाँ, अय्याश, इश्तिहार, खुशबू, शिद्दत, आगोश, शगूफा लबरेज, हसरत, कशिश, वक्र, वजूद, बंदोबस्त जैसे उर्दू शब्द, रिमोट, ओन, बॉडी, किडनी, लोग ऑफ, पैडल बोट, बोट क्लब, टेस्ट ड्राइव, मैजिक शो, मैडम ड्रेसिंग टेबल, कंप्यूटर, मिसेज, इंटरनेट, ऑडिशन, कास्टिंग काउच जैसे अंग्रेजी शब्द काँता जी ने बखूबी उपयोग किये हैं। अंग्रेजी के जिन शब्दों के सरल और सटीक पर्याय प्रचलित हैं उन्हें उपयोग न कर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग किया जाना अनावश्यक प्रतीत होता है। ऐसे शब्दों में डिस्टेंस (दूरी), मेसेज (संदेश), ( बंद, निकट), कस्टमर (ग्राहक), कनेक्शन (संबंध, जुड़ाव), अड्वान्स (अग्रिम), मैनेजमेंट (प्रबंधन), ग्रुप (समूह, झुण्ड), रॉयल (शाही), प्रिंसिपल (प्राचार्य) आदि हैं।
उर्दू शब्द ज़ज़्बा (भावना) का बहुवचन ज़ज़्बात (भावनाएँ) है, 'ज़ज़्बातों' (पृष्ठ ३८) का प्रयोग उतना ही गलत है जितना सर्वश्रेष्ठ या बेस्टेस्ट। 'रेल की रेलमपेल' में (पृष्ठ ४७) भी गलत प्रयोग है।बच्चों की रेलमपेल अर्थात बच्चों की भीड़, रेल = पटरी, ट्रेन = रेलगाड़ी, रेल की रेलमपेल = पटरियों की भीड़ इस अर्थ की कोई प्रासंगिकता सनरभित लघुकथा 'भारतीय रेल' में नहीं है। अपवादों को छोड़कर समूचे लघुकथा संकलन में भाषिक पकड़ बनी हुई है। कांता जी लघुकथा के मानकों से सुपरिचित हैं। संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, बेधकता, मर्मस्पर्शिता, विसंगति निर्देश आदि सहबी तत्वों का उचित समायोजन कांता जी कर सकी हैं। नवोदित लघु कथाकारों की भीड़ में उनका सृजन अपनी स्वतंत्र छाप छोड़ता है। प्रथम में उनकी लेखनी की परिपक्वता प्रशंसनीय है। आशा है वे लघुकथा विधा को नव आयामित करने में समर्थ होंगी।
२३-१०-२०१५
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गीत
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है।
नेह-नर्मदा काव्य नहाकर, व्याकुल मनुज तरा करता है।।
*
नीरज है हर एक कारवां, जो रोतों को मुस्कानें दे।
पीर-गरल पी; अमिय लुटाए, गूँगे कंठों को तानें दे।।
हों बदनाम भले ही आँसू, बहे दर्द का दर्द देखकर।
भरती रहीं आह गजलें भी, रोज सियासत सर्द देखकर।।
जैसी की तैसी निज चादर, शब्द-सारथी ही धरता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
"ओ हर सुबह जगानेवाले!" नीरज युग का यह न अंत है।
"ओ हर शाम सुलानेवाले!", गीतकार हर शब्द-संत है।।
"सारा जग बंजारा होता", नीरज से कवि अगर न आते।
"साधो! हम चौसर की गोटी", सत्य सनातन कौन सुनाते?
"जग तेरी बलिहारी प्यारे", कह कुरीती से वह लड़ता है।।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
'रीती गागर का क्या होगा?", क्यों गोपाल दास से पूछे?
"मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ", खाली जेब; हाथ ले छूछे।।
"सारा जग मधुबन लगता है", "हर मौसम सुख का मौसम है"।
"मेरा श्याम सकारे मेरी हुंडी" ले भागा क्या कम है?
"इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम" गीत-माला जपता है।
केवल देह नहीं रहने से, नीरज नहीं मरा करता है..
*
[टीप: ".." नीरज जी के गीतों से उद्धृत अंश]
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
स्व. नीरज के प्रति
*
कंठ विराजीं शारदा, वाचिक शक्ति अनंत।
शब्द-ब्रम्ह के दूत हे!, गीति काव्य कवि-कंत।।
गीति काव्य कवि-कंत, भाव लय रस के साधक।
चित्र गुप्त साकार, किए हिंदी-आराधक।।
इंसां को इंसान, बनाने ही की कविता।
करे तुम्हारा मान, रक्त-नत होकर सविता।।
*
नीर नर्मदा-धार सा, निर्मल पावन काव्य।
नीरज कवि लें जन्म, फिर हिंदी-हित संभाव्य।
हिंदी हित संभाव्य, कारवां फिर-फिर गुजरे।
गंगो-जमनी मूल्य, काव्य में सँवरे-निखरे।।
दिल की कविता सुने, कहे दिल हुआ प्यार सा।
नीरज काव्य महान, बहा नर्मदा-धार सा।।
*
ऊपरवाला सुन पायेगा जब जी चाहे मीठे गीत
समझ सकेंगे चित्रगुप्त भी मानव मन में पलती प्रीत
सारस्वत दरबार सजेगा कवि नीरज को पाकर बीच-
मनुज सभ्यता के सुर सुनने बैठें सुर, नीरज की जीत.
***
२०.७.२०१८, ७९९९५५९६१८
दोहा दुनिया
*
कांत-कांति कांता मुदित, चाँद-चाँदनी देख
साथ हाथ में हाथ ले, कर सपनों का लेख
*
वातायन से देखकर, चाँद-चाँदनी सँग
दोनों मुखड़ों पर चढ़ा, प्रिय विछोह का रंग
*
गुरुघंटालों से रहें, सजग- न थामें बाँह
गुरु हो गुरु-गंभीर तो, गहिए बढ़कर छाँह
*
दोहा मुक्तिका
*
भ्रम-शंका को मिटाकर, जो दिखलाये राह
उसको ही गुरु मानकर, करिये राय-सलाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
करें न गुरु की सीख की, शिष्य अगर परवाह
गुरु क्यों अपना मानकर, हरे चित्त की दाह?
*
सुबह शिष्य- संध्या बने, जो गुरु वे नरनाह
अपने ही गुरु से करें, स्वार्थ-सिद्धि हित डाह
*
उषा गीत, दुपहर ग़ज़ल, संध्या छंद अथाह
व्यंग्य-लघुकथा रात में, रचते बेपरवाह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
*
२०-६-२०१६
***
मुक्तिका:
*
2122 2122 2122 212
*
कामना है रौशनी की भीख दें संसार को
मनुजता को जीत का उपहार दें, हर हार को
सर्प बाधा, जिलहरी है परीक्षा सामर्थ्य की
नर्मदा सा ढार दें शिवलिंग पर जलधार को
कौन चाहे मुश्किलों से हो कभी भी सामना
नाव को दे छोड़ जब हो जूझना मँझधार को
भरोसा किस पर करें जब साथ साया छोड़ दे
नाव से खतरा हुआ है हाय रे पतवार को
आ रहे हैं दिन कहीं अच्छे सुना क्या आपने?
सूर्य ही ठगता रहा जुमले कहा उद्गार को
***
नवगीत:
*
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
परीक्षा पर परीक्षा
जो ले रहे.
खुद परीक्षा वे न
कोई दे रहे.
प्रश्नपत्रों का हुआ
व्यापार है
अंक बिकते, आप
कितने ले रहे?
दीजिये वह हाथ का
जो मैल है-
तोड़ भी दें
मन में जो पाले भरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
हर गली में खुल गये
कॉलेज हैं.
हो रहे जो पास बिन
नॉलेज है.
मजूरों से कम पगारी
क्लास लें-
त्रासदी के मूक
दस्तावेज हैं.
डिग्रियाँ लें हाथ में
मारे फिरें-
काम करने में
बहुत आती शरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
*
घुटालों का प्रशिक्षण
है हर जगह
दोषियों को मिले
रक्षण, है वजह
जाँच में जो फँसा
मारा जा रहा
पंक को ले ढाँक
पंकज आ सतह
न्याय हो नीलाम
तर्कों पर जहाँ
स्वार्थ का है स्वार्थ
के प्रति रुख नरम
प्राणहंता हैं
व्यवस्था के कदम
***
नवगीत
*
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
घोर वृष्टि
भू स्खलित
काँप उठे केदार
पशुपति का
भूकंप ने घर
ही दिया उजाड़
महाकाल
थर्रा रहे, देख
प्रलय सा दृश्य
रामेश्वर
पुल पर लगा
ढैया शनि अदृश्य
क्या करते
प्रभु? भक्त गण
रहे भाग्य को झींक
पूजन हित
आ पुजारी
गिरा रहे हैं पीक
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
*
अमरनाथ
पथ को रहे
आतंकी मिल घेर
बाधाएँ
कैलाश के
मग में आईं ढेर
हिमगिरि भी
विचलित हुआ
धीरज जाता टूट
मनुज नहीं
थमता तनिक
रहा प्रकृति को लूट
कर असगुन
पीढ़ी नयी
रही राह में छींक
घोटाले
हर दिन नये
उद्घाटित हों चीख
घड़ी-घड़ी
मत देख घड़ी
समय नहीं है ठीक
जन प्रतिनिधि
अफसर-वणिक
गढ़ें स्वार्थ की लीक
***
नवगीत
ज़िंदगी का
एक ही है कायदा
*
बाहुबली की जय-जयकार
जिसको चाहे दे फटकार
बरसा दे कोड़ों की मार
निर्दय करता अत्याचार
बढ़कर शेखी रहा बघार
कोई नहीं बचावनहार
तीसमार खां बन बटमार
सजा रहा अपना दरबार
कानूनों की हर पल हार
वही प्यारा
जो कराता फायदा
*
सद्गुण का सूना दरबार
रूप-रंग पर जान निसार
मोहे सिक्कों की खनकार
रूपया अभिनन्दित फिर यार
कसमें खाता रोज लबार
अदा न करता लिया उधार
लेता कभी न एक डकार
आप लाख कर दें उपकार
पल में दे उपकार बिसार
भुला देता
किया जो भी वायदा
२०-७-२०१५
***
दोहा
तिमिर न हो तो रुचेगा, किसको कहो प्रकाश.
पाता तभी महत्त्व जब, तोड़े तम के पाश
२०-७-२०११

मंगलवार, 18 जुलाई 2023

नवीन

मुरली वाला कृष्ण कन्हैया

साँकरी सी खोर गहवर वन की थी वो
जिसमें सखियों संग राधा चल रही थी
यूँ तो ना ना कर रही थी वह मिलन को
किन्तु मन में आस भी कुछ पल रही थी

नील अम्बर पर घटाएँ छा रही थीं
मेघ वर्षा करने को जुड़ने लगे थे
कोयलें झुण्डों में कोरस ग़ा रही थीं
काले काले केश भी उड़ने लगे थे

ऐसे में मुरली की धुन कानों तक आयी
जिसको सुनते ही सभी ने होश खोये
एक सखी ने बात राधे को बतायी
कृष्ण बैठा है तेरे सपने सँजोये

इससे आगे प्रीत का पथ है सुहाना
जिस को तुम दौनों को मिलकर है सजाना

***

ओढ़कर धानी चुनर एक रोज राधा
संग सखियों के कहीं पर जा रही थी
था गगन में चाँद भी उस रोज आधा
गीत खुशियों के हवा भी ग़ा रही थी

तीर पर यमुना के एक हंसों का जोड़ा
प्रीत के संगीत का रस ले रहा था
उस समय वातावरण भी थोड़ा थोड़ा
संगमन में साथ उनका दे रहा था

दृश्य अनुपम हर किसी के मन को भाया
बस तभी प्रारब्ध ने लीला दिखायी
एक ग्वाला धीरे धीरे पास आया
पास आते ही मधुर मुरली बजायी

ध्यान से देखा तो मुरलीधर खड़े थे
देर तक फिर दौनों के नैना लड़े थे

***

दिख रहा था सब मगर कुछ भी न देखा
गोपियों की सुध कहीं पर खो गयी थी
केश, कपड़े, घर, नगर कुछ भी न देखा
बाँसुरी की धुन बड़ी मोहक लगी थी

छँट रहा था युग युगान्तर का अँधेरा
वे किसी बाती के जैसे जल पड़ी थीं
नाम जिसका याद आया उसको टेरा
और एक अल्हड़ नदी सी चल पड़ी थीं

थम गये आकाश में चंदा सितारे
रास की अभिलाष को मन में सजाये
कुंज गलियों से गुजर कर झुण्ड सारे
राधिका और कृष्ण की महफिल में आये

अप्रतिम आभास की लीला हुई थी
छह महीने रास की लीला हुई थी

***

ज्ञान देने के लिए उद्धव गया जब
गोपियों ने उसके मन की गाँठें खोलीं
ज्ञान की बातें सुनाकर थक गया तब
धैर्य से सब गोपियाँ एक साथ बोलीं

झूठी बातों से हमें भरमा न उद्धव
कौन कहता है किशन मथुरा गया है
देख तेरे पास ही बैठा है केशव
हमको लगता है कि तू पगला गया है

एक दिन क्या छोड़ जायेगा मुरारी
सोच कर जब दिल बहुत घबरा रहा था
कृष्ण ने खुद भाँप कर हालत हमारी
नन्दबाबा की कसम खा कर कहा था

हर घड़ी हर पल बिताऊँगा यहीं में
छोड़ कर ब्रज को न जाऊँगा कहीं मैं

***

जानते थे इसको जाना होगा एकदिन
इसलिये ही तो न अपनी तानते थे
माँ यशोदा थी भले अनजान लेकिन
नन्दबाबा सब हकीकत जानते थे

देवकी वसुदेव के लल्ला को अपना
मानते तो थे मगर संकोच भी था
जानते थे कृष्ण है बस एक सपना
साथ ही इस तथ्य पर संकोच भी था

सामना जब वास्तविकता से हुआ तो
थे मुलायम किन्तु पत्थर बन गये थे
जब यशोदा का कलेजा फट पड़ा तो
नन्दबाबा खुद रफूगर बन गये थे

हूक जब जब भी उठी खुद को ही दाबा
रो नहीं पाये कभी भी नन्दबाबा

***


कल्पना बिन गद्य क्या है पद्य क्या है
कल्पना ने पोत पानी पर चलाये
कल्पना ने ब्रह्म अक्षर को कहा है
कल्पना ने ही गगन में यान उड़ाये

थोड़ा सा बढ़ चढ़ के लिखते ही हैं लेखक
शोलों को शबनम कहा करते हैं शायर
लिखने वाले शाह हो कर भी हैं सेवक
जो नहीं सुनते वे हो जाते हैं फायर

क्या पता दुनिया ही थी तब उस तरह की
ये भी मुमकिन है कि बानक यों बने हो
पाठकों को चाह जिस साहित्य की थी
लेखकों ने लेख वैसे ही लिखे हों

पूर्वजों से जो मिला उसको कबूलें
फिर बना के झूले उन झूलों पै झूलें

***

दर्ज हैं इतिहास में बीसों फसाने
ऐसे ऐसे जिनने दुनिया को सजाया
जब भी अपनी पर उतर आये दीवाने
एक नया रस्ता सभी को है दिखाया

कंस की नजरों में था जो मात्र भोजन
जीविका का वस्तुतः आधार था वह
दूध को मथकर निकलता था जो माखन
ब्रज-जनों के वासते व्यापार था वह

गोप बोले टैक्स की दर तुम करो तय
हम करेंगे भाव तय निज वस्तुओं का
कंस आखिर तक नहीं समझा ये आशय
शत्रु बन बैठा वो जीव और जन्तुओं का

कंस ने ताकत दिखाना ठीक समझा
कृष्ण ने माखन चुराना ठीक समझा

***


दिन निकलता है तो कुछ कारण है उसका
शाम भी कारण बिना ढलती नहीं है
बिन वजह तिनका नहीं उड़ता है कुश का
बिन वजह तो आग भी जलती नहीं है

सृष्टि के आरम्भ में थे व्यक्ति दो ही
मध्य उनके रस्म थी ना रीति कोई
जो मिले खा लेते थे दौनों बटोही
फिर उगाया अन्न अपनाई रसोई

रूप जीवन को मिला है ऐसे ही तो
सभ्यताएँ विश्व में यों ही बढ़ी थीं
सब नहीं कुछ गोपियाँ मासूम थीं जो
स्नान के बारे में कुछ अनभिज्ञ सी थीं

शुभ्र, नैतिक सभ्यता के वासते थी
चीर लीला शिष्टता के वासते थी

***

क्यों भला रणछोड़ का तमगा पहनते
क्यों भला निज नाम पर धब्बा लगाते
चाहते यदि कृष्ण तो पीछे न हटते
युद्ध में कसकर कमर फिर कूद जाते

किन्तु करुणाकर ने सोचा जन्म से ही
मैं तो अपने युद्ध को लड़ ही रहा हूँ
और निश्चित रूप से है सत्य यह भी
शत्रु पर इक्कीस भी पड़ ही रहा हूँ

किन्तु मेरे साथ जो इन्सान हैं वे
भी हमेशा दहशतों में जी रहे हैं
हर घड़ी के कष्ट से हलकान हैं वे
घूँट भर भर आँसुओं को पी रहे हैं

सोच यह करुणेश ने करुणा दिखायी
सिन्धु में जा कर नयी दुनिया बसायी

***

कृष्ण जैसा कौन होगा पूर्णकामा
मुँह किसी से भी कभी मोड़ा नहीं है
हाथ जिसका भी दयासागर ने थामा
अन्त तक थामे रखा छोड़ा नहीं है

एक मधुर मुस्कान से जीता जगत को
प्रेम प्रेम और प्रेम ही उसने किया बस
हार कर खुद को भी जीता है भगत को
जो शरण में आ गया अपना लिया बस

ऐसा होगा तो नहीं होगा वो वैसा
है कठिन तुलना करो तो कर दिखाना
मित्रता के मामले में कृष्ण जैसा
मित्र यदि कोई हुआ हो तो बताना

जिस सुदामा के कभी तांदूल खाये
धोने को उसके चरन आँसू बहाये

***

कृष्ण का जीवन समुन्दर की तरह था
वे सतत टकरा रहे थे साहिलों से
उनके जीवन में बहुत कुछ बेवजह था
फिर भी हँसकर लड़ रहे थे मुश्किलों से

लाख बहलाने से भी जब दिल न बहले
क्या दशा हो जाती है सच सच बताना
माधवन पर टिप्पणी करने से पहले
आईने के सामने कुछ पल बिताना

सच तो ये ही है भटक-भटका के मैं भी
थक गया तो मित्र मोहन को बनाया
नैन मूँदे लब सिले तब जा के मैं भी
कृष्ण मिश्री की डली हैं जान पाया

शब्द की सीमाओं को जो जानते हैं
खामुशी को बस वही पहचानते हैं

***

अकबर, प्रताप, लघुकथा, राखी, अलंकार, दोहा, शब्द, अंग्रेजी, लहर,सोनेट, बाल कविता

सॉनेट
जय-पराजय
जय-पराजय में अचल रह
आप अपनी राह चल रे
आँख में बन स्वप्न पल रे!
कोशिशों की बाँह हँस गह
पीर को मत कह पराई
आज लगती दूर यदि वह
कल लिपट जाए विहँस सह
दूर तुझसे है न भाई!
वेदना को प्यार कर ले
श्वास का शृंगार कर ले
निज गले का हार कर ले
सत्य-शिव-सुंदर सदा वर
हलाहल हँस कंठ में धर
अमिय औरों हित लुटाकर
१८-७-२०२२
•••
बाल कविता
जाह्नवी
*
बाल अरुण की सखी जाह्नवी
भू पर उतरी परी जाह्नवी
नेह नर्मदा निर्मल-चंचल
लोक कहे सुरसरी जाह्नवी
स्वप्न सलौने अनगिन देखे
बिन सोए, जग रही जाह्नवी
रूठे-मचले धरे शीश पर
नभ ही बात न सुने जाह्नवी
शारद-रमा-उमा की छवि ले
भव तारे खुद तरे जाह्नवी
है सब दुनिया खोटी लेकिन
सौ प्रतिशत है खरी जाह्नवी
मान सको तो बिटिया है यह
लाड़ करे ज्यों जननी जाह्नवी
जान बसी है इसमें सबकी
जान सभी को रही जाह्नवी
११-६-२०१९
***
स्वास्थ्यवर्धक रसभरी
केप गुसबेरी (वानस्पतिक नाम : Physalis peruviana ; physalis = bladder) एक छोटा सा पौधा है। इसके फलों के ऊपर एक पतला सा आवरण होता है। कहीं-कहीं इसे 'मकोय' भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे 'चिरपोटी'व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पटपोटनी भी कहते हैं। इसके फलों को खाया जाता है। रसभरी औषधीय गुणो से परिपूर्ण है। केप गुसबेरी का पौधा किसानो के लिये सिरदर्द माना जाता है। जब यह खर पतवार की तरह उगता है तो फसलों के लिये मुश्किल पैदा कर देता है।
औषधीय गुण
केप गुसबेरी का फल और पंचांग (फल, फूल, पत्ती, तना, मूल) उदर रोगों (और मुख्यतः यकृत) के लिए लाभकारी है। इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से पाचन अच्छा होता है साथ ही भूख भी बढ़ती है। यह लीवर को उत्तेजित कर पित्त निकालता है। इसकी पत्तियों का काढ़ा शरीर के भीतर की सूजन को दूर करता है। सूजन के ऊपर इसका पेस्ट लगाने से सूजन दूर होती है। रसभरी की पत्तियों में कैल्सियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन-ए, विटामिन-सी पाये जाते हैं। इसके अलावा कैटोरिन नामक तत्त्व भी पाया जाता है जो ऐण्टी-आक्सीडैंट का काम करता है। बाबासीर में इसकी पत्तियों का काढ़ा पीने से लाभ होता है। संधिवात में पत्तियों का लेप तथा पत्तियों के रस का काढ़ा पीने से लाभ होता है। खांसी, हिचकी, श्वांस रोग में इसके फल का चूर्ण लाभकारी है। बाजार में अर्क-रसभरी मिलता है जो पेट के लिए उपयोगी है। सफेद दाग में पत्तियों का लेप लाभकारी है। अनुभूूत है यह डायबेटीज मे कारगर है। लीवर की सूजन कम करने में अत्यंत उपयोगी।
***
समीक्षा ......
मीत मेरे : केवल कविताएँ नहीं
समीक्षक: चंद्रकांता अग्निहोत्री, पंचकूला
[कृति विवरण: मीत मेरे, कविताएँ, संजीव 'सलिल', आवरण पेपर बैक जैकेट सहित बहुरंगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:७९९९५५९६१८]
*
‘कलम के देव’ ,’लोकतंत्र का मकबरा’ ,’कुरुक्षेत्र गाथा’ ,’यदा कदा’ ‘काल है संक्रांति का’ ‘मीत मेरे’ अन्य कई कृतियों के रचियता व दिव्य –नर्मदा नामक सांस्कृतिक पत्रिका के सम्पादक आचार्य संजीव वर्मा जी का परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है |
काव्य कृति ‘मीत मेरे’ में कवि की छंद मुक्त रचनाएं संग्रहीत हैं |छंद मुक्त कविता की गरिमा इसी में है कि कविता में छंद बद्धता के लिए बार –बार शब्दों का उनकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जा सकता|ऐसे ही प्रस्तुत संग्रह में लगभग सभी कविताओं में प्राण हैं ,गति है ,शक्ति है और आवाह्न है |
उनकी पूरी कृति में निम्न पंक्तियाँ गुंजायमान होती हैं
मीत मेरे
नहीं लिखता
मैं ,कभी कुछ
लिखाता है
कोई मुझसे
*
बन खिलौना
हाथ उसके
उठाता हूँ कलम |
उनकी कविताओं में चिर विश्वास है |गहन चिंतन की पराकाष्ठा है जब वे अपनी बात में लिखते हैं ------
तुम
उसी के अंश हो
अवतंश हो |
सलिल जी का स्वीकार भाव प्रणम्य है |वे कहते हैं ------
रात कितनी ही बड़ी हो
आयेंगे
फिर –फिर सवेरे |
अपने देश की माटी के सम्बन्ध में कहते हैं
सुख –दुःख ,
धूप -छाँव
हंस सहती
पीड़ा मन की
कभी न कहती
...................
भारत की माटी |
सलिल जी की हर कविता प्रेरक है |फिर भी कुछ कवितायें हैं जो विशेष रूप से उद्धहरणीय हैं |..........
जैसे :- सत्यासत्य ,नींव का पत्थर ,प्रतीक्षा ,लत, दीप दशहरा व दिया आदि |
हर पल को जीने की प्रेरणा देती कविता ......जियो
जो बीता ,सो
बीता चलो
अब खुश होकर
जी भर कर जिओ |
समर्पित भाव से आपूरित ------तुम और हमदम
तुम .....विहंस खुद सहकर
जिसके बिना मैं नहीं पूरा
सदा अधूरा हूँ
मेरे साथी मेरे मितवा
वही तुम हो ,वही तुम |
हमदम ......मैं तुम रहें न दो
हो जाएँ हमदम |
आत्म स्वीकृति से ओत प्रोत कविता |
रोको मत बहने दो में .........
मन को मन से
मन की कहने दो
‘सलिल’ को
रोको मत बहने दो |.....बहुत मन भावन कविता है|वास्तव में इस कविता में सियासत के प्रति आक्रोश है व आम आदमी के लिए स्वतंत्रता की कामना |
सपनों की दुकान ......निराशा को बाहर फैंकते हैं सपने|
गीत ,मानव मन ,क्यों ,बहने दे व मृण्मय मानव आदि मनमोहक कवितायेँ हैं |सलिल जी अपनी कविताओं में व्यक्ति स्वतंत्रता की घोषणा करते प्रतीत होते हैं |
रेल कविता .......जीवन संघर्षों का प्रतिबिम्ब |
मुसाफिर .......क्षितिज का नीलाभ नभ
देता परों को नित निमन्त्रण
और चल पड़ता
अनजाने पथ पर फिर
मैं मुसाफिर
जीवन मान्यताओं ,धारणाओं व संघर्षों के बीच गतिमान है
‘ताश’,व संदूक में कवि का आक्रोश परिलक्षित होता है जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं |
व्यंग्य प्रधान रचना ....इक्कीसवीं सदी |
सभी कवितायें यथार्थ के धरातल पर आदर्शोन्मुख हैं ,व्यक्ति को उर्ध्वगमन का सन्देश देती हैं |सलिल जी आप अपनी कविताओं में अभावों को जीते ,उन्हें महसूस करते हुए शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्न शील हैं |
अंत में यही कहूँगी कि छंदमुक्त होते हुए भी हर कविता में लय है, गीत है व लालित्य है |निखरी हुई कलम से उपजी कविता सान्त्वना भी देती है ,झंझोड़ती, है दुलारती हैं ,उकसाती है व समझाती भी है |जीवन की सीढ़ी चढ़ने की प्रेरणा भी देती है | पंख फैला कर उड़ने के लिए प्रोत्साहित भी करती है |निर्भीक होकर सत्य को कहना सलिल जी की कविताओं की विशिष्टता भी है और गौरव भी |
सच कहूँ तो कविताएँ केवल कविताएँ नहीं बल्कि एक गौरव –गाथा है |
चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री |

***
लहर (उर्मि, तरंग, वेव) पर दोहे
*
नेह नर्मदा घाट पर, पटकें शीश तरंग.
लहर-लहर लहरा रहीं, सिकता-कण के संग.
*
सलिल-धार में कूदतीं, भोर उर्मियाँ झाँक.
टहल रेत में बैठकर, चित्र अनूठे आँक.
*
ओज-जोश-उत्साह भर, कूदें छप्प-छपाक.
वेव लेंग्थ को ताक पर, धरें वेव ही ताक.
*
मन में उठी उमंग या, उमड़ा भाटा-ज्वार.
हाथ थाम संजीव का, कूद पडीं मँझधार.
*
लहँगा लहराती रहीं, लहरें करें किलोल.
संयम टूटा घाट का, गया बाट-दिल डोल.
*
घहर-घहर कर बह चली, हहर-हहर जलधार.
जो बौरा डूबन डरा, कैसे उतरे पार.
*
नागिन सम फण पटकती, फेंके मुख से झाग.
बारिश में उफना लहर, बुझे न दिल की आग.
*
निर्मल थी पंकिल हुई, जल-तरंग किस व्याज.
मर्यादा-तट तोड़कर, करती काज अकाज.
*
कर्म-लहर पर बैठकर, कर भवसागर पार.
सीमा नहीं असीम की, ले विश्वास उबार.
***
१८,७,२०१८
***
'शब्द' पर दोहे
*
अक्षर मिलकर शब्द हों, शब्द-शब्द में अर्थ।
शब्द मिलें तो वाक्य हों, पढ़ समझें निहितार्थ।।
*
करें शब्द से मित्रता, तभी रच सकें काव्य।
शब्द असर कर कर सकें, असंभाव्य संभाव्य।।
*
भाषा-संस्कृति शब्द से, बनती अधिक समृद्ध।
सम्यक् शब्द-प्रयोग कर, मनुज बने मतिवृद्ध।।
*
सीमित शब्दों में भरें, आप असीमित भाव।
चोटिल करते शब्द ही, शब्द मिटाते घाव।।आद्या
*
दें शब्दों का तोहफा, दूरी कर दें दूर।
मिले शब्द-उपहार लें, बनकर मित्र हुजूर।।
*
निराकार हैं शब्द पर, व्यक्त करें आकार।
खुद ईश्वर भी शब्द में, हो जाता साकार।।
*
जो जड़ वे जानें नहीं, क्या होता है शब्द।
जीव-जंतु ध्वनि से करें, भाव व्यक्त बेशब्द।।
*
बेहतर नागर सभ्यता, शब्द-शक्ति के साथ।
सुर नर वानर असुर के, शब्द बन गए हाथ।।
*
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ें, मिट-घट सकें न शब्द।
कहें, लिखें, पढ़िए सतत, कभी न रहें निशब्द।।
*
शब्द भाव-भंडार हैं, सरस शब्द रस-धार।
शब्द नए नित सीखिए, सबसे सब साभार।।
*
शब्द विरासत; प्रथा भी, परंपरा लें जान।
रीति-नीति; व्यवहार है, करें शब्द का मान।।
*
शब्द न अपना-गैर हो, बोलें बिन संकोच।
लें-दें कर लगता नहीं, घूस न यह उत्कोच।।
*
शब्द सभ्यता-दूत हैं, शब्द संस्कृति पूत।
शब्द-शक्ति सामर्थ्य है, मानें सत्य अकूत।।
*
शब्द न देशी-विदेशी, शब्द न अपने-गैर।
व्यक्त करें अनुभूति हर, भाव-रसों के पैर।।
*
शब्द-शब्द में प्राण है, मत मानें निर्जीव।
सही प्रयोग करें सभी, शब्द बने संजीव।।
*
शब्द-सिद्धि कर सृजन के, पथ पर चलें सुजान।
शब्द-वृद्धि कर ही बने, रचनाकार महान।।
*
शब्द न नाहक बोलिए, हो जाएंगे शोर।
मत अनचाहे शब्द कह, काटें स्नेहिल डोर।।
*
समझ शऊर तमीज सच, सिखा बनाते बुद्ध।
युद्ध कराते-रोकते, करते शब्द प्रबुद्ध।।
*
शब्द जुबां को जुबां दें, दिल को दिल से जोड़।
व्यर्थ होड़ मत कीजिए, शब्द न दें दिल तोड़।।
*
बातचीत संवाद गप, गोष्ठी वार्ता शब्द।
बतरस गपशप चुगलियाँ, होती नहीं निशब्द।।
*
दोधारी तलवार सम, करें शब्द भी वार।
सिलें-तुरप; करते रफू, शब्द न रखें उधार।।
*
शब्दों से व्यापार है, शब्दों से बाजार।
भाव-रस रहित मत करें, व्यर्थ शब्द-व्यापार।।
*
शब्द आरती भजन जस, प्रेयर हम्द अजान।
लोरी गारी बंदिशें, हुक्म कभी फरमान।।
*
विनय प्रार्थना वंदना, झिड़क डाँट-फटकार।
ऑर्डर विधि आदेश हैं, शब्द दंड की मार।।
*
शब्द-साधना दूत बन, करें शब्द से प्यार।
शब्द जिव्हा-शोभा बढ़ा, हो जाए गलहार।।
18.7.2018
***
दोहा सलिला:
अंगरेजी में खाँसते...
संजीव 'सलिल'
*
अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
*
टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
*
जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
*
नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
*
जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में श्रेष्ठ वह, कहना सचमुच सैड..
*
चचा फूफा मौसिया, खो बैठे पहचान.
अंकल बनकर गैर हैं, गुमी स्नेह की खान..
*
गुरु शिक्षक थे पूज्य पर, टीचर हैं लाचार.
शिष्य फटीचर कह रहे, कैसे हो उद्धार?.
*
शिशु किशोर होते युवा, गति-मति कर संयुक्त.
किड होता एडल्ट हो, एडल्ट्री से युक्त..
*
कॉपी पर कॉपी करें, शब्द एक दो अर्थ.
यदि हिंदी का दोष तो अंगरेजी भी व्यर्थ..
*
टाई याने बाँधना, टाई कंठ लंगोट.
लायर झूठा है 'सलिल', लायर एडवोकेट..
*
टैंक अगर टंकी 'सलिल', तो कैसे युद्धास्त्र?
बालक समझ न पा रहा, अंगरेजी का शास्त्र..
*
प्लांट कारखाना हुआ, पौधा भी है प्लांट.
कैन नॉट को कह रहे, अंगरेजीदां कांट..
*
खप्पर, छप्पर, टीन, छत, छाँह रूफ कहलाय.
जिस भाषा में व्यर्थ क्यों, उस पर हम बलि जांय..
*
लिख कुछ पढ़ते और कुछ, समझ और ही अर्थ.
अंगरेजी उपयोग से, करते अर्थ-अनर्थ..
*
हीन न हिन्दी को कहें, भाषा श्रेष्ठ विशिष्ट.
अंगरेजी को श्रेष्ठ कह, बनिए नहीं अशिष्ट..
***
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना, माय के=माता-पिता का घर, माँ के
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
***
विमर्श:
इतिहास और भविष्य
*
अकबर महान है या महाराणा प्रताप???
ये कैसा प्रश्न, कैसा मुद्दा आज पूरे देश में उठाया जा रहा है? ऐसी दुविधा उत्पन्न करनेवाले महानुभावों से मेरा अनुरोध है कि आप इतिहास बदलने पर जितना ज़ोर दे रहे हैं उतना प्रयास व उतना समय एक नया इतिहास गढ़ने में दीजिये।
एक विदुषी ने अपने पन्ने पर अकबर पर लगाए जा रहे आक्षेपों पर आपत्ति करते हुए प्रताप से तुलना पर आपत्ति की है। इस सिलसिले में अपना मत प्रस्तुत कर रहा हूँ आप सबकी राय जानने के लिए।
***
इतिहास को पढ़ें और समझें तब कुछ कहें। अकबर कहीं से सुख सुविधा के लिए आया नहीं था। उसके बाप-दादे विदेश से भारत में आए थे। अकबर भारत में ही पैदा हुआ और पाला-पोसा गया था। वह पूरी तरह भारतीय था, भारत की संतान था।
कंस की तरह अकबर ने केवल सत्ता और भोग-विलास के लिए अपने ही देशवासियों पर जुल्म किए, इसलिए वह नींद का पात्र है। रानी दुर्गावती और चाँद बीबी अकबर की माँ की उम्र की थीं किन्तु दोनों के रूप-लावण्य के चर्चे सुनकर उन्हें अपने हरम में लाने के लिए अकबर ने आक्रमण कर उनके समृद्ध सुसंचालित राज्य नष्ट कर दिए। बुंदेलखंड की विदुषी सुंदरी राय प्रवीण को अपने पास भेजने के लिए ओरछा के राजा को विवश किया। यह दीगर बात है कि राय प्रवीण अपनी बुद्धिमता से बच कार वापिस लौट गईं। महाराणा प्रताप भी अकबर से बहुत बड़े थे। भारतीय होते हुए भी अकबर ने खुद को कभी भारतीय नहीं समझा, खुद को मुगलिया और तैमूरी कहता रहा । अकबर इस देश की मिट्टी का गुनाहगार है। रावण ने लंका के खिलाफ कभी कुछ नहीं किया। अकबर ने भारत के हित में कुछ नहीं किया। अफ़सोस कि खुद को बुद्धिजीवी समझनेवाले बिना इतिहास को समझे दूसरों को कटघरे में खड़ा करते हैं।
गोंडवाने के मूल निवासी दुर्गावती के बलिदान के लगभग २७० साल बाद भी उन्हें पूजते और अकबर को लानत भेजते हैं। यही स्थिति राजस्थान में है।
क्या आपको यह ज्ञात है कि अकबर के नवरत्नों में सम्मिलित बीरबल और तानसेन भारतीय राजाओं के गद्दार थे। उन्हें अपने राज्यों के भेद बताने और अपने ही राज्यों पर मुग़ल आक्रमण में मदद का पुरस्कार दिया गया था। भारतीय होने के नाते भारत की परंपरा और मूल्यों को समझकर इतिहास का मूल्यांकन करें तो बेहतर होगा।
***
लघुकथा
सफेदपोश तबका
देश के विकास और निर्माण की कथा जैसी होती है वैसी दिखती नहीं, और जैसी दिखती है वैसी होती नहीं.... क्या कहा?, नहीं समझे?... कोई बात नहीं समझाता हूँ.
किसी देश का विकास उत्पादन से होता है. उत्पादन सिर्फ दो वर्ग करते हैं किसान और मजदूर. उत्पादनकर्ता की समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक, तकनीक हेतु अभियंता तथा स्वास्थ्य हेतु चिकित्सक, शांति व्यवस्था हेतु पुलिस तथा विवाद सुलझाने हेतु न्यायालय ये पाँच वर्ग आवश्यक हैं. शेष सभी वर्ग अनुत्पादक तथा अर्थ व्यवस्था पर भार होते हैं. -वक्ता ने कहा.
फिर तो नेता, अफसर, व्यापारी और बाबू अर्थव्यवस्था पर भार हुए? क्यों न इन्हें हटा दिया जाए?-किसी ने पूछा.
भार ही तो हुए. ये कितने भी अधिक हों हमेशा खुद को कम बताएँगे और अपने अधिकार, वेतन और सुविधाएं बढ़ाते जायेंगे. यह शोषक वर्ग प्रशासन के नाम पर पुलिस के सहारे सब पर लद जाता है. उत्पादक और उत्पादन-सहायक वर्ग का शोषण करता है. सारे काले कारनामे करने के बाद भी कहलाता है 'सफेदपोश तबका'.
***
पहल
*
''आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! हम सब अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प इस रक्षाबंधन पर लें।''
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते नेताओं, अफ्सरों और धन्नासेठों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
१८-७-२०१७
***

चंचरीक

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
*
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।
लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि
कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश
सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप
चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य
राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन
सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष
कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज
सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब
चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत
दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम
चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य
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सोमवार, 17 जुलाई 2023

आँख, अम्मी, नवगीत, ओ तुम, सॉनेट, जनमत, दोहे,

सॉनेट
जनमत
*
कुछ ने इसको आज चुना
औरों ने ठुकराया है
ठेंगा भी दिखलाया
कुछ ने उसको आज चुना
हर दाना है यहाँ घुना
किसको बीज बना बोएँ
किस्मत को हम क्यों रोएँ
सपना फिर से नया बुना
नेता सभी रचाए स्वांग
सत्ता-कूप घुली है भांग
इसकी उसकी खींचें टांग
खुद को नहीं सुधार रहे
जनमत हाय! बिसार रहे
नेता ही बीमार रहे
१७-७-२०२१
***
दोहा सलिला
*
सलिल धार दर्पण सदृश, दिखता अपना रूप।
रंक रंक को देखता, भूप देखता भूप।।
*
स्नेह मिल रहा स्नेह को, अंतर अंतर पाल।
अंतर्मन में हो दुखी, करता व्यर्थ बवाल।।
*
अंतर अंतर मिटाकर, जब होता है एक।
अंतर्मन होत सुखी, जगता तभी विवेक।।
*
गुरु से गुर ले जान जो, वह पाता निज राह।
कर कुतर्क जो चाहता, उसे न मिलती थाह।।
*
भाषा सलिला-नीर सम, सतत बदलती रूप।
जड़ होकर मृतप्राय हो, जैसे निर्जल कूप।।
*
हिंदी गंगा में मिलीं, नदियाँ अगिन न रोक।
मर जाएगी यह समझ, पछतायेगा लोक।।
*
शब्द संपदा बपौती, नहीं किसी की जान।
जिनको अपना समझते, शब्द अन्य के मान।।
*
'आलू' फारस ने दिया, अरबी शब्द 'मकान'।
'मामा' भी है विदेशी, परदेसी है 'जान'।।
*
छाँट-बीन करिये अलग, अगर आपकी चाह।
मत औरों को रोकिए, जाएँ अपनी राह।।
*
दोहा तब जीवंत हो, कह पाए जब बात।
शब्द विदेशी 'इंडिया', ढोते तजें न तात।।
*
'मोबाइल' को भूलिए, कम्प्यूटर' से बैर।
पिछड़ जायेगा देश यह, नहीं रहेंगे खैर।।
*
'बाप, चचा' मत वापरें, कहिये नहीं 'जमीन'।
दोहा के हम प्राण ही, क्यों चाहें लें छीन।।
*
'कागज-कलम' न देश के, 'खीर-जलेबी' भूल।
'चश्मा' लगा न 'आँख' पर, बोल न 'काँटा' शूल।।
*
चरण तीसरे में अगर, लघु-गुरु है अनिवार्य।
'श्वान विडाल उदर' लिखें, कैसे कहिये आर्य?
*
है 'विडाल' ब्यालीस लघु, गुरु-लघु दो से अंत।
चरण तीन दो गुरु कहाँ, पाएँ कहिए संत?
*
'श्वान' चवालिस लघु लिए, दो गुरु इसमें मीत!
चरण तीसरा बिना गुरु, यह दोहे की रीत।।
*
'उदर' एक गुरु मात्र ले, रचते दोहा खूब।
नहीं अंत में गुरु-लघु, तजें न कह 'मर डूब'।।
*
'सर्प' लिख रहे गुरु बिना, कहिए क्या आधार?
क्यों कहते दोहा इसे, बतलायें सरकार??
*
हिंदी जगवाणी बने अगर चाहते बंधु।
हर भाषा के शब्द ले, इसे बना दें सिंधु।।
*
खाल बाल की खींचकर, बदमजगी उत्पन्न।
करें न; भाषा को नहीं, करिये मित्र विपन्न।।
*
गुरु पूर्णिमा, १६-७-२०१९
***
एक रचना:
ओ तुम!
*
ओ तुम! मेरे गीत-गीत में बहती रस की धारा हो.
लगता हर पल जैसे तुमको पहली बार निहारा हो.
दोहा बनकर मोहा तुमने, हाथ थमाया हाथों में-
कुछ न अधर बोले पर लगता तुमने अभी पुकारा हो.
*
ओ तुम! ही छंदों की लय हो, विलय तुम्हीं में भाव हुए.
दूर अगर तुम तो सुख सारे, मुझको असह अभाव हुए.
अपने सपने में केवल तुम ही तुम हो अभिसारों में-
मन-मंदिर में तुम्हीं विराजित, चौपड़ की पौ बारा हो.
*
ओ तुम! मात्रा-वर्ण के परे, कथ्य-कथानक भाषा हो.
अलंकार का अलंकार तुम, जीवन की परिभाषा हो.
नयनों में सागर, माथे पर सूरज, दृढ़संकल्पमयी-
तुम्हीं पूर्णिमा का चंदा हो, और तुम्हीं ध्रुव तारा हो.
*
तुम्हीं लावणी, कजरी, राई, रास, तुम्हीं चौपाई हो.
सावन की हरियाली हो तुम, फागों की अरुणाई हो.
कथा-वार्ता, व्रत, मेला तुम, भजन, आरती की घंटी -
नेह-नर्मदा नित्य निनादित, तुम्हीं सलिल की धारा हो.
१७.७.२०१८
***
कार्यशाला:
बीनू भटनागर
राहुल मोदी भिड़ रहे, बीच केजरीवाल,
सत्ता के झगड़े यहाँ,दिल्ली बनी मिसाल।
संजीव
दिल्ली बनी मिसाल, अफसरी हठधर्मी की
हाय! सियासत भी मिसाल है बेशर्मी की
लोकतंत्र की कब्र, सभी ने मिलकर खोदी
जनता जग दफना दे, कजरी राहुल मोदी
***
कार्यशाला:
रोज मैं इस भँवर से दो- चार होती हूँ
क्यों नहीं मैं इस नदी से पार होती हूँ ।
*
संजीव
लाख रोके राह मेरी, है मुझे प्यारी
इसलिए हँस इसी पर सवार होती हूँ ।
*
***
कार्य शाला:
--अनीता शर्मा
शायरी खुदखुशी का धंधा है।
अपनी ही लाश, अपना ही कंधा है ।
आईना बेचता फिरता है शायर उस शहर मे
जो पूरा शहर ही अंधा है।।
*
-संजीव
शायरी धंधा नहीं, इबादत है
सूली चढ़ना यहाँ रवायत है
ज़हर हर पल मिला करता है पियो
सरफरोशी है, ये बगावत है
१७-७-२०१८
***
एक रचना
गाय
*
गाय हमारी माता है
पूजो गैया को पूजो
*
पिता कहाँ है?, ज़िक्र नहीं
माता की कुछ फ़िक्र नहीं
सदा भाई से है लेना-
नहीं बहिन को कुछ देना
है निज मनमानी करना
कोई तो रस्तों सूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गौरक्षक हम आप बने
लाठी जैसे खड़े-तने
मौका मिलते ही ठोंके-
बात किसी की नहीं सुनें
जबरा मारें रों न देंय
कार्य, न कारण तुम बूझो
पूजो गैया को पूजो
*
गैया को माना माता
बैल हो गया बाप है
अकल बैल सी हुई मुई
बात अक्ल की पाप है
सींग मारते जिस-तिस को
भागो-बचो रे! मत जूझो
पूजो गैया को पूजो
१७-७-२०१७
***
मुक्तिका
*
मापनी: १२२ १२२ १२२ १२२
*
हमारा-तुम्हारा हसीं है फ़साना
न आना-जाना, बनाना बहाना
न लेना, न देना, चबाना चबेना
ख़ुशी बाँट, पाना, गले से लगाना
मिटाना अँधेरा, उगाना सवेरा
पसीना बहाना, ग़ज़ल गुनगुनाना
न सोना, न खोना, न छिपना, न रोना
नये ख्वाब बोना, नये गीत गाना
तुम्हीं को लुभाना, तुम्हीं में समाना
तुम्हीं आरती हो, तुम्हीं हो तराना
***
दोहा सलिला:
आँखों-आँखों में हुआ, जाने क्या संवाद?
झुकीं-उठीं पलकें सँकुच, मिलीं भूल फरियाद
*
आँखें करतीं साधना, रहीं वैद को टेर
जुल्मी कजरा आँज दे, कर न देर-अंधेर
*
आँखों की आभा अमित, पल में तम दे चीर
जिससे मिलतीं, वह हुआ, दिल को हार फ़क़ीर
*
आँखों में कविता कुसुम, महकें ज्यों जलजात
जूही-चमेली, मोगरा-चम्पा, जग विख्यात
*
विरह अमावस, पूर्णिमा मिलन, कह रही आँख
प्रीत पखेरू घर बना, बसा समेटे पाँख
*
आँख आरती हो गयी, पलक प्रार्थना-लीन
संध्या वंदन साधना, पूजन करे प्रवीण
१७-७-२०१५

***
अभिनव प्रयोग:
नवगीत
जब लौं आग न बरिहै
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
.
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२, महाभागवत छंद)
बुधवार १४ जनवरी २०१५

***
मुक्तिका:
अम्मी
*
माहताब की जुन्हाई में, झलक तुम्हारी पाई अम्मी.
दरवाजे, कमरे आँगन में, हरदम पडीं दिखाई अम्मी.
*
बसा सासरे केवल तन है. मन तो तेरे साथ रह गया.
इत्मीनान हमेशा रखना- बिटिया नहीं पराई अम्मी.
*
भावज जी भर गले लगाती, पर तेरी कुछ बात और थी.
तुझसे घर अपना लगता था, अब बाकी पहुनाई अम्मी.
*
कौन बताये कहाँ गयी तू ? अब्बा की सूनी आँखों में,
जब भी झाँका पडी दिखाई तेरी ही परछाँई अम्मी.
*
अब्बा में तुझको देखा है, तू ही बेटी-बेटों में है.
सच कहती हूँ, तू ही दिखती भाई और भौजाई अम्मी.
*
तू दीवाली, तू ही ईदी, तू रमजान दिवाली होली.
मेरी तो हर श्वास-आस में तू ही मिली समाई अम्मी.
*
तू कुरआन, तू ही अजान है, तू आँसू, मुस्कान, मौन है.
जब भी मैंने नजर उठाई, लगा अभी मुस्काई अम्मी.
१७-७-२०१२
***
सुभाष राय
मित्र हुए हम सलिल के , हमको इसका नाज
हिन्दी के निज देश के पूरे होंगे काज
***

काल है संक्रांति का, डा. श्याम गुप्त



पुस्तक समीक्षा-- काल है संक्रांति का...डा श्याम गुप्त
पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य कृति- काल है संक्रांति का...रचनाकार-आचार्य संजीव वर्मा सलिल...संस्करण-२०१६..मूल्य -२००/- ..आवरण –मयंक वर्मा..रेखांकन..अनुप्रिया..प्रकाशक-समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर.. समीक्षक—डा श्यामगुप्त |
साहित्य जगत में समन्वय के साहित्यकार, कवि हैं आचार्य संजीव वर्मा सलिल | प्रस्तुत कृति ‘काल है संक्रांति का’ की सार्थकता का प्राकट्य मुखपृष्ठ एवं शीर्षक से ही होजाता है | वास्तव में ही यह संक्रांति-काल है, जब सभी जन व वर्ग भ्रमित अवस्था में हैं | एक और अंग्रेज़ी का वर्चस्व जहां चमक-धमक वाली विदेशी संस्कृति दूर से सुहानी लगती है; दूसरी और हिन्दी –हिन्दुस्तान का, भारतीय स्व संस्कृति का प्रसार जो विदेश बसे को भी अपनी मिट्टी की और खींचता है | या तो अँगरेज़ होजाओ या भारतीय –परन्तु समन्वय ही उचित पंथ होता है हर युग में जो विद्वानों, साहित्यकारों को ही करना होता है | सलिल जी की साहित्यिक समन्वयक दृष्टि का एक उदहारण प्रस्तुत है ---गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचानें |
माँ शारदा से पहले, ब्रह्म रूप में चित्रगुप्त की वन्दना भी नवीनता है | कवि की हिन्दी भक्ति वन्दना में भी छलकती है –‘हिन्दी हो भावी जग वाणी / जय जय वीणापाणी’ |
यह कृति लगभग १४ वर्षों के लम्बे अंतराल में प्रस्तुत हुई है | इस काल में कितनी विधाएं आईं–गईं, कितनी साहित्यिक गुटबाजी रही, सलिल मौन दृष्टा की भांति गहन दृष्टि से देखने के साथ साथ उसकी जड़ों को, विभिन्न विभागों को अपने काव्य व साहित्य-शास्त्रीय कृतित्वों से पोषण दे रहे थे, जिसका प्रतिफल है यह कृति|
कितना दुष्कर है बहते सलिल को पन्ने पर रोकना उकेरना | समीक्षा लिखते समय मेरा यही भाव बनता था जिसे मैंने संक्षिप्त में काव्य-रूपी समीक्षा में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“शब्द सा है मर्म जिसमें, अर्थ सा शुचि कर्म जिसमें |
साहित्य की शुचि साधना जो, भाव का नव धर्म जिसमें |
उस सलिल को चाहता है, चार शब्दों में पिरोना ||”
सूर्य है प्रतीक संक्रांति का, आशा के प्रकाश का, काल की गति का, प्रगति का | अतः सूर्य के प्रतीक पर कई रचनाएँ हैं | ‘जगो सूर्य लेकर आता है अच्छे दिन’ ( -जगो सूर्य आता है ) में आशावाद है, नवोन्मेष है जो उन्नाकी समस्त साहित्य में व इस कृति में सर्वत्र परिलक्षित है | ‘मानव की आशा तुम, कोशिश की भाषा तुम’ (-उगना नित) ‘छंट गए हैं फूट के बादल, पतंगें एकता की उडाओ”(-आओ भी सूरज ) |
पुरुषार्थ युत मानव, शौर्य के प्रतीक सूर्य की भांति प्रत्येक स्थित में सम रहता है | ‘उग रहे या ढल रहे तुम, कान्त प्रतिपल रहे सूरज’ तथा ‘आस का दीपक जला हम, पूजते हैं उठ सवेरे, पालते या पल रहे तुम ‘(-उग रहे या ढल रहे ) से प्रकृति के पोषण-चक्र, देव-मनुज नाते का कवि हमें ज्ञान कराता है | शिक्षा की महत्ता – ‘सूरज बबुआ’ में, सम्पाती व हनुमान की पौराणिक कथाओं के संज्ञान से इतिहास की भूलों को सुधारकर लगातार उद्योग व हार न मानने की प्रेरणा दी गयी है ‘छुएँ सूरज’ रचना में | शीर्षक रचना ‘काल है संक्रांति का’ प्रयाण गीत है, ‘काल है संक्रांति का, तुम मत थको सूरज’ ..सूर्य व्यंजनात्मक भाव में मानवता के पौरुष का,ज्ञान का व प्रगति का प्रतीक है जिसमें चरैवेति-चरैवेति का सन्देश निहित है | यह सूर्य स्वयं कवि भी होसकता है | “
युवा पीढ़ी को स्व-संस्कृति का ज्ञान नहीं है कवि व्यथित हो स्पष्टोक्ति में कह उठता है –
‘जड़ गँवा जड़ युवापीढी, काटती है झाड, प्रथा की चूनर न भाती, फैकती है फाड़ /
स्वभाषा भूल इंग्लिश से लड़ाती लाड |’
यदि हम शुभ चाहते हैं तो सभी जीवों पर दया करें एवं सामाजिक एकता व परमार्थ भाव अपनाएं | कवि व्यंजनात्मक भाव में कहता है ---‘शहद चाहैं, पाल माखी |’ (-उठो पाखी )| देश में भिन्न भिन्न नीतियों की राजनीति पर भी कवि स्पष्ट रूप से तंज करता है..’धारा ३७० बनी रहेगी क्या’/ काशी मथुरा अवध विवाद मिटेंगे क्या’ | ‘ओबामा आते’ में आज के राजनीतिक-व्यवहार पर प्रहार है |
अंतरिक्ष पर तो मानव जारहा है परन्तु क्या वह पृथ्वी की समस्याओं का समाधान कर पाया है यह प्रश्न उठाते हुए सलिल जी कहते हैं..’मंगल छू / भू के मंगल का क्या होगा |’ ’सिंधी गीत ‘सुन्दरिये मुंदरिये ’...बुन्देली लोकगीत ‘मिलती कायं नें’ कवि के समन्वयता भाव की ही अभिव्यक्ति है |
प्रकृति, पर्यावरण, नदी-प्रदूषण, मानव आचरण से चिंतित कवि कह उठता है –
‘कर पूजा पाखण्ड हम / कचरा देते डाल |..मैली होकर माँ नदी / कैसे हो खुशहाल |’
‘जब लौं आग’ में कवि उत्तिष्ठ जागृत का सन्देश देता है कि हमारी अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है-
‘मोड़ तोड़ हम फसल उगा रये/ लूट रहे व्यौपार |जागो बनो मशाल नहीं तो / घेरे तुमें अन्धेरा |
धन व शक्ति के दुरुपयोग एवं वे दुरुपयोग क्यों कर पा रहे हैं, ज्ञानी पुरुषों की अकर्मण्यता के कारण | सलिल जी कहते हैं हैं---‘रुपया जिसके पास है / उद्धव का संन्यास है /सूर्य ग्रहण खग्रास है |’ (-खासों में ख़ास है )
पेशावर के नरपिशाच..तुम बन्दूक चलाओ तो..मैं लडूंगा ..आदि रचनाओं में शौर्य के स्वर हैं| छद्म समाजवाद की भी खबर ली गयी है –‘लड़वाकर / मामला सुलझाए समाजवादी’ |
पुरखों पूर्वजों के स्मरण बिना कौन उन्नत हो पाया है, अतः सभी पूर्व, वर्त्तमान, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष पुरखों , पितृजनों के एवं उनकी सीख का स्मरण में नवता का एक और पृष्ठ है ‘स्मरण’ रचना में –
‘काया माया छाया धारी / जिन्हें जपें विधि हरि त्रिपुरारी’
‘कलम थमाकर कर में बोले / धन यश नहीं सृजन तब पथ हो |’ क्योंकि यश व पुरस्कार की आकांक्षा श्रेष्ठ सृजन से वंचित रखती है | नारी-शक्ति का समर्पण का वर्णन करते हुए सलिल जी का कथन है –
‘बनी अग्रजा या अनुजा तुम / तुमने जीवन सरस बनाया ‘ (-समर्पण ) | मिली दिहाड़ी रचना में दैनिक वेतन-भोगी की व्यथा उत्कीर्णित है |
‘लेटा हूँ ‘ रचना में श्रृंगार की झलक के साथ पुरुष मन की विभिन्न भावनाओं, विकृत इच्छाओं का वर्णन है | इस बहाने झाडूवाली से लेकर धार्मिक स्थल, राजनीति, कलाक्षेत्र, दफ्तर प्रत्येक स्थल पर नारी-शोषण की संभावना का चित्र उकेरा गया है | ‘राम बचाए‘ में जन मानस के व्यवहार की भेड़चाल का वर्णन है –‘मॉल जारहे माल लुटाने / क्यों न भीड़ से भिन्न हुए हम’| अनियंत्रित विकास की आपदाएं ‘हाथ में मोबाइल’ में स्पष्ट की गयी हैं|
‘मंजिल आकर’ एवं ‘खुशियों की मछली’ नवगीत के मूल दोष भाव-सम्प्रेषण की अस्पष्टता के उदाहरण हैं | वहीं आजकल समय बिताने हेतु, कुछ होरहा है यह दिखाने हेतु, साहित्य एवं हर संस्था में होने वाले विभिन्न विषयों पर सम्मेलनों, वक्तव्यों, गोष्ठियों, चर्चाओं की निरर्थकता पर कटाक्ष है—‘दिशा न दर्शन’ रचना में ...
‘क्यों आये हैं / क्या करना है |..ज्ञात न पर / चर्चा करना है |’
राजनैतिक गुलामी से मुक्त होने पर भी अभी हम सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र नहीं हुए हैं | वह वास्तविक आजादी कब मिलेगी, कृतिकार के अनुसार, इसके लिए मानव बनना अत्यावश्यक है ....
‘सुर न असुर हम आदम यदि बन जायेंगे इंसान, स्वर्ग तभी होपायेगा धरती पर आबाद |’
सार्वजनिक जीवन व मानव आचरण में सौम्यता, समन्वयता, मध्यम मार्ग की आशा की गयी है ताकि अतिरेकता, अति-विकास, अति-भौतिक उन्नति के कारण प्रकृति, व्यक्ति व समाज का व्यबहार घातक न होजाय-
‘पर्वत गरजे, सागर डोले / टूट न जाएँ दीवारें / दरक न पायें दीवारे |’
इस प्रकार कृति का भावपक्ष सबल है | कलापक्ष की दृष्टि से देखें तो जैसा कवि ने स्वयं कहा है ‘गीत-नवगीत‘ अर्थात सभी गीत ही हैं | कई रचनाएँ तो अगीत-विधा की हैं –‘अगीत-गीत’ हैं| वस्तुतः इस कृति को ‘गीत-अगीत-नवगीत संग्रह’ कहना चाहिए | सलिल जी काव्य में इन सब छंदों-विभेदों के द्वन्द नहीं मानते अपितु एक समन्वयक दृष्टि रखते हैं, जैसा उन्होंने स्वयम कहा है- ‘कथन’ रचना में --
‘गीत अगीत प्रगीत न जानें / अशुभ भुला शुभ को पहचाने |’
‘छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता |’
‘विरामों से पंक्तियाँ नव बना / मत कह, छंद हीना / नयी कविता है सिरजनी |’
सलिल जी लक्षण शास्त्री हैं | साहित्य, छंद आदि के प्रत्येक भाव, भाग-विभाग का व्यापक ज्ञान व वर्णन कृति में प्रतुत किया गया है| विभिन्न छंदों, मूलतः सनातन छंदों –दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्ह छंद, लोकधुनों के आधार पर नवगीत रचना दुष्कर कार्य है | वस्तुतः ये विशिष्ट नवगीत हैं, प्रायः रचे जाने वाले अस्पष्ट सन्देश वाले तोड़ मरोड़कर लिखे जाने वाले नवगीत नहीं हैं | सोरठा पर आधारित एक गीत देखें-
‘आप न कहता हाल, भले रहे दिल सिसकता |
करता नहीं ख़याल, नयन कौन सा फड़कता ||’
कृति की भाषा सरल, सुग्राह्य, शुद्ध खड़ीबोली हिन्दी है | विषय, स्थान व आवश्यकतानुसार भाव-सम्प्रेषण हेतु देशज व बुन्देली का भी प्रयोग किया गया है- यथा ‘मिलती कायं नें ऊंची वारी/ कुरसी हमकों गुइयाँ |’ उर्दू के गज़लात्मक गीत का एक उदाहरण देखें—
‘ख़त्म करना अदावत है / बदल देना रवायत है /ज़िंदगी गर नफासत है / दीन-दुनिया सलामत है |’
अधिकाँश रचनाओं में प्रायः उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है | वर्णानात्मक व व्यंगात्मक शैली का भी यथास्थान प्रयोग है | कथ्य-शैली मूलतः अभिधात्मक शब्द भाव होते हुए भी अर्थ-व्यंजना युक्त है | एक व्यंजना देखिये –‘अर्पित शब्द हार उनको / जिनमें मुस्काता रक्षाबंधन |’ एक लक्षणा का भाव देखें –
‘राधा हो या आराधा सत शिव / उषा सदृश्य कल्पना सुन्दर |’
विविध अलंकारों की छटा सर्वत्र विकिरित है –‘अनहद अक्षय अजर अमर है /अमित अभय अविजित अविनाशी |’ में अनुप्रास का सौन्दर्य है | ‘प्रथा की चूनर न भाती ..’ व उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका |’ में उपमा दर्शनीय है | ‘नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र..’ में रूपक की छटा है तो ‘कुमुद कमल सम आखर मनका’ में श्लेष अलंकार है | उपदेशात्मक शैली में रसों की संभावना कम ही रहती है तथापि ओबामा आते, मिलती कायं नें, लेटा हूँ में हास्य व श्रृंगार का प्रयोग है | ‘कलश नहीं आधार बनें हम..’ में प्रतीक व ‘आखें रहते भी सूर’ व ‘पौवारह’ कहावतों के उदाहरण हैं | ‘गोदी चढ़ा उंगलियाँ थामी/ दौड़ा गिरा उठाया तत्क्षण ‘.. में चित्रमय विम्ब-विधान का सौन्दर्य दृष्टिगत है |
पुस्तक आवरण के मोड़-पृष्ठ पर सलिल जी के प्रति विद्वानों की राय एवं आवरण व सज्जाकारों के चित्र, आचार्य राजशेखर की काव्य-मीमांसा का उद्धरण एवं स्वरचित दोहे भी अभिनव प्रयोग हैं | अतः वस्तुपरक व शिल्प सौन्दर्य के समन्वित दृष्टि भाव से ‘काल है संक्रांति का’ एक सफल कृति है | इसके लिए श्री संजीव वर्मा सलिल जी बधाई के पात्र हैं |
. ----डा श्याम गुप्त
लखनऊ . दि.११.१०.२०१६
विजय दशमी सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना , लखनऊ-२२६०१२.. मो.९४१५१५६४६४