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गुरुवार, 6 जुलाई 2023

सोनेट, मतदान, नवगीत, अर्चन, ज्योति, धर्म, पर्यावरण गीत, जिकड़ी छंद, मुक्तक, दोहे

सॉनेट
मतदान
*
मत दान कर, मतदान कर
शुभ का सदा गुणगान कर
श्रम-साधना वरदान कर
विद्वान का सम्मान कर
जो हो रहा, वह देख-सुन
क्या उचित-अनुचित मौन गुन
सपने नए दिन-रात बुन
साकार करने एक चुन
वर लक्ष्य, शर-संधान कर
रख देह अपनी तानकर
हो दृष्टि स्थिर, संकल्प दृढ़
हँस कोशिशों का मानकर
कह बात हर रस-खान कर
रस-लीन हो, सज जानकर
६-७-२०२२
•••
सॉनेट
अर्चन
*
अर्चन कर पाऊँ शिव तेरा
अर्पण कर रस-छंद गीत कुछ
नर्तन काव्य कामिनी का हो
अर्जन हो यश-कीर्ति का तनिक
श्वासों से सध सके तरन्नुम
आसें में अदायगी उसकी
त्रासों-हासों का दाता जो
रासें बनें बंदगी उसकी
ज्यों की त्यों चादर धर पाएँ
अंतिम पल प्रभु रहें ध्यान में
तब तक सत् शिव सुंदर गाएँ
चारण बनकर ईश-शान में
शिव तुझ बिन सब कुछ केवल शव
शिवा कर कृपा, छूट सके भव
६-७-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा:
'ऐसा भी होता है' गीत मन भिगोता है
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय: ऐसा भी होता है, गीत संग्रह, शिव कुमार 'अर्चन', वर्ष २०१७, आईएसबीएन ९७८-९३-९२२१२- ८९-५, आकार २१ से.मी.x १४ से.मी., आवारण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य ७५/-, पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, ९८२६८३७३३५, गीतकार संपर्क: १० प्रियदर्शिनी ऋषि वैली, ई ८ गुलमोहर विस्तार, भोपाल, ९४२५१३७१८७४]
*
सौंदर्य की नदी नर्मदा अपने अविरल-निर्मल प्रवाह के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आदिकाल से कलकल निनादिनी के तट पर शब्द-साधना और शब्द-साधकों की अविच्छिन्न परंपरा रही है। इस परंपरा को वर्तमान समय में आगे बढ़ाने में महती भूमिका का निर्वहन के प्रति सचेष्ट सरस्वती-सुतों में शिवकुमार 'अर्चन' का नाम उल्लेखनीय है। शिवकुमार गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में दखल रखते हैं। विवेच्य कृति के पूर्व दो कृतियों ग़ज़ल क्या कहे कोई २००७ तथा गीत संग्रह उत्तर की तलाश २०१३ के माध्यम से हिंदी जगत ने अर्चन के कृतित्व में अंतर्निहित बाँकी बिम्बात्मकता और मौलिक कहन के गंगो-जमुनी संगम का आनंद लिया है।
अर्चन के गीत आम आदमी के दर्द-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव, मौसम की धूप-छाँव और संघर्ष-सफलता के बीच में से उभरते हैं। अर्चन आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक कमनीयता, दिवास्वप्न की तरह वायवी आदर्शवादिता, कृत्रिम क्रंदन के कोलाहल, ऐ.सी. में बैठकर नकली अभावों की प्रदर्शनी लगाने, अथवा गले तक ठूस कर भोग लगाने के बाद भुखमरी को शोकेस में सजानेवाले शब्द-बाजीगरों से सर्वथा अलग शिष्ट-शांत, मर्यादित तरीके और सलीके से अपनी बात सामने रखने में दक्ष हैं।
प्रेम और श्रृंगार अर्चन के प्रिय विषय है किन्तु सात्विकता के पथिक होने के नाते वे प्रदर्शनप्रियता, प्रगल्भता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं करते। साहित्यिक गोष्ठियों, काव्य मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने गीतों और ग़ज़लों के माधुर्य के लिए अर्चन जाने जाते हैं। सात्विक श्रृंगार की एक बानगी 'फूल पारिजात के' गीत से-
आँखों में उग आये / फूल पारिजात के
ऐसे अनुदान हुए / भीगी बरसात के
साँसों पर टहल रहीं / अनछुई सुगन्धियाँ
राजमार्ग जीती हैं / सूनी पगडंडियाँ
तितली के पंखों पर / हैं निबंध रात के
कविता का उत्स पीड़ा से सर्व मान्य है। भारतीय वांग्मय में मिथुनरत क्रौंच युगल पर व्याध के शर-प्रहार से नर का प्राणांत होने पर व्याकुल क्रौंची के आर्तनाद को काव्य का उद्गम कहा गया है तो अरब में हिरन शावक के वध पश्चात हिरनी के आर्तनाद को ग़ज़ल का मूल बताया गया है। पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' गीतकार शैलेन्द्र कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'' अर्चन का अनुभव इनसे जुदा न होते हुए भी जुदा है। जुदा इसलिए नहीं कि अर्चन भी छंद का उत्स दर्द से मानते हैं, जुदा इसलिए कि यह दर्द मृत्युजनित नहीं, प्रेमजनित है।
जो ऐसे अनुबंध न होते / दर्द हमारे छंद न होते
अगर न पीड़ाओं को गाते / तो शायद कब के मर जाते
और
जब-जब हमने गीत उठाया / दौड़ा, दौड़ा आँसू आया
अर्चन गीत और नवगीत को एक शाख पर खिले दो फूलों की तरह देखते हैं। उन्हें गीत-नवगीत में भारत-पकिस्तान की तरह अनुल्लंघ्य सीमारेखा कहीं नहीं दिखती। इसलिए वे दोनों को साथ-साथ रचते, गुनगुनाते, गाते है नहीं छपाते भी रहे हैं। अर्चन के नवगीत 'अभाव' को सहजता से सहकर 'भाव' की भव्यता को जीते भारतीय मानस के आत्मानंद को अभिव्यक्त करते हैं। वे सहज सुलभ सुविधा से रहते हुए आडम्बरी असुविधा को शब्दों में गूँथने का पाखंड नहीं करते। संभवत: इसीलिये साम्यवादी विचारधारा समर्थक आलोचक अर्चन के नवगीतों में सामाजिक विघटन परक विसंगति-विडम्बना और ओढ़े हुए दर्द-अन्याय के भाव में उन्हें नवगीत कहते झिझकते हैं। अर्चन ने नवगीत को उत्सवधर्मी भावमुद्रा दी है। एक झलक 'धरती मैया' शीर्षक नवगीत से- जय-जय धरती मैया रे / चल-चल-चल हल भैया रे!
गीत उगायें माटी में / गीतों के राम रखैया रे!
झम्मर-झम्मर बदरा बरसे / महकी क्यारी-क्यारी...
... धरती के पृष्ठों पर लिख दें / श्रम की नयी कहानी...
... अमृत बाँटा, ज़हर पी लिया / श्रम इस तरह जिया है
धरती पलना, डूब बिछौना / अम्बर ओढ़ लिया है
जिन्हें नहीं है श्रम से मतलब खाएं दूध मलैया रे!
यह नवगीत लोकगीत, जनगीत और पारंपरिक गीत तीनों में गिना जा सकता है। यह गीत अर्चन की समरसतापरक सोच की बानगी प्रस्तुत करता है।
'संध्या' शीर्षक नवगीत में ताम के हाथों तमाचा खाकर शंकाओं को जनम देने वाला उजियारा हो या प्रश्न चिन्ह लिए लौट रहा श्रम अथवा सौतन रात के कहर से रोती सूर्यमुखी तीनों का अंत आशा, उल्लास के सूर्य का वंश पालने से होता है। नवगीत के उद्गम के समय चिन्हित किये गए कुछ लक्षणों को पत्थर की लकीर मान रहे तथाकथित प्रगतिवादी खेमे के समीक्षक 'गीत' के मरने की घोषणा कर खुद को कालजयी मानने की मृग मरीचिका से छले जाकर इहलोक से प्रस्थान कर गए किन्तु गीत और छंद अदम्य जिजीविषा के पर्याय बनकर नवपरिवेशानुकूल साज-सज्जा के साथ सर उठाकर खड़े ही नहीं हुए, सृजनाकाश में अपनी पताका भी फहरा रहे हैं। नवगीत की उत्सवधर्मी भावमुद्रा के विकास में अर्चन का योगदान उल्लेखनीय है।
जले-जले, दीपक जले-जले
अँधियारों की गोदी / सूरज के वंश पले
पोखर में डूब गया / सूरज का गोला
***
***
विमर्श
ज्योति
- ज्योति से ज्योति जलाते चलो...
- ज्योति जलेगी तो आलोक फैलेगा, तिमिर मिटेगा।
- ज्योति तब जलेगी जब बाती, स्नेह (तेल) और दीपक होगा।
- बाती बनाने के लिए कपास उगाने, तेल के लिए तिल उगाने और दीप बनाने के लिए अपरिहार्य है माटी।
- माटी ही मिटकर दीप, तेल और बाती में रूपांतरित होती है तथापि इन तीनों से तम नहीं मिटता, आलोक नहीं फैलता।
- माटी का मिटना सार्थक तब होता है जब अग्नि ज्योतित होती है।
- अग्नि बिना पवन के ज्योतित नहीं हो सकती।
- माटी पानी को आत्मसात किए बिना दीपक नहीं बन सकती।
- पानी पाए बिना न तो कपास उत्पन्न हो सकती है न तिल।
- आकाश न हो तो प्रकाश कहाँ फैले?
- माटी, पानी, पवन, आकाश और अग्नि होने पर भी उन्हें रूपांतरित और समन्वित करने के लिए मनुष्य का होना और उद्यम करना जरूरी है।
- उद्यम करने के लिए चाहिए मति या बुद्धि।
- मति रचने की ओर प्रवृत्त तभी होगी जब उसे जग और जीवन में रस हो।
- रसवती मति सरसवती होकर सत-शिव-सुंदर का सृजन करती है और सरस्वती के रूप में सुर, नर, असुर, वानर, किन्नर सबकी पूज्य और आराध्य होती है।
- वह सरस्वती ही विधि (ब्रह्मा), हरि (विष्णु) और हर (महेश) की नियामक है।
- सरस्वती ही त्रिदेवों की आत्मशक्ति के रूप में उन्हें सक्रिय करती है।
- शक्ति का अस्तित्व शक्तिवान को बिना संभव नहीं। यह शक्तिवान निर्गुण है, निराकार है।
- निराकार का चित्र नहीं हो सकता अर्थात चित्र गुप्त है।
- निराकार ही सगुण-साकार होकर सकल सृष्टि में अभिव्यक्त होता है।
- निवृत्ति और प्रवृत्ति का सम्मिलन हुए बिना रचना नहीं होती।
- रचनाकार ही खुद को भाषा, भूषा, लिंग, क्षेत्र, विचारधारा को आधार पर विभाजित कर मठाधीशी करने लगे तो सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?
- विश्वैक नीड़म्, वसुधैव कुटुम्बकम्, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि और शिवोsहम् की विरासत पाकर भी जीवन में रस का अभाव अनुभव करना विडंबना ही है।
- आइए! रसाराधना कर श्वास-श्वास को रसवती, सरसवती बनाएँ ।
***
***
विमर्श
धर्म
*
- धर्म क्या है?
- धर्म वह जो धारण किया जाए
- क्या धारण किया जाए?
- जो शुभ है
- शुभ क्या है?
- जो सबके लिए हितकारी, कल्याणकारी हो
- हमने जितना जीवन जिया, उसमें जितने कर्म किए, उनमें से कितने सर्वहितकारी हैं और कितने सर्वहितकारी? खुद सोचें गम धार्मिक हैं या अधार्मिक?
- गाँधी से किसी ने पूछा क्या करना उचित है, कैसे पता चले?
- एक ही तरीका है गाँधी' ने कहा। यह देखो कि उस काम को करने से समाज के आखिरी आदमी (सबसे अधिक कमजोर व्यक्ति) का भला हो रहा है या नहीं? गाँधी ने कहा।
- हमारे कितने कामों सो आखिरी आदमी का भला हुआ?
- अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं। परिंदे, चीटी, गिलहरी जैसे कमजोर जीव आपत्काल के लिए बताते भी हैं किंतु ताकतवर शेर, हाथी आदि कभी जोड़ते नहीं। इतना ही नहीं, पेट भरने के बाद खाते भी नहीं, अपने से कमजोर जानवरों के लिए छोड़ देते हैं जिसे खाकर भेजिए, सियार उनका छोड़ा खाकर बाज, चील, अवशिष्ट खाकर इल्ली आदि पाते हैं।
- हम तथाकथित समझदार इंसान इसके सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। खाते कम, जोड़ते अधिक हैं। यहाँ तक कि मरने तक कुछ भी छोड़ते नहीं।
- धार्मिक कौन है? सोचें, फकीर या राजा, साधु या साहूकार?, समय का अधिकारी?
- गम क्या बनना चाहते हैं? धार्मिक या अधार्मिक?
६-७-२०२०
***
दोहा सलिला
प्रात नमन करता अरुण, नित अर्णव के साथ
कहे सत्य सारांश में, जिओ उठाकर माथ
जिओ उठाकर माथ, हाथ यदि थाम चलोगे
पाओगे आलोक, धन्य अखिलेश कहोगे
रमन अनिल में करो, विजय तब मिल पाएगी
श्रीधर दिव्य ज्योत्सना मुकुलित जय गाएगी
मीनाक्षी सपना चंदा नर्मदा नहाएँ
तारे हो संजीव, सलिल में भव तर जाएँ
शिव शंकर डमडम डिमडिम डमरू गुंजाएँ
शिवा गजानन कार्तिक से मन छंद लिखाएँ
जगवाणी हिंदी दस दिश हो सके प्रतिष्ठित
संग बोलियाँ-भाषाएँ सब रहें अधिष्ठित
कर उपासना सतत साधना सद्भावों की
होली जला सकें हम मिलकर अलगावों की
६-७-२०
***
पर्यावरण गीत
पौधा पेड़ बनाओ
*
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
*
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
***
६.७.२०१८


दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
६-७-२०१८
***
मुक्तक:
*
भारती की आरती है शुभ प्रभात
स्वच्छता ही तारती है शुभ प्रभात
हरियाली चूनर भू माँ को दो-
मैया मनुहारती है शुभ प्रभात
*
झुक बुजुर्ग से आशिष लेना शुभ प्रभात है
छंदों में नव भाव पिरोना शुभ प्रभात है
आशा की नव फसलें बोना शुभ प्रभात है
कोशिश कर अवसर ना खोना शुभ प्रभात है
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध, कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रुकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मनभाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
***
मुक्तक:
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
६-७-२०१७
***
गुरु महिमा
*
जीवन के गुर सिखाकर, गुरु करता है पूर्ण
शिष्य बिना गुरु,शुरू बिना रहता शिष्य अपूर्ण
*
गुरु उसको ही जानिए, जो दे ज्ञान-प्रकाश
आशाओं के विहग को, पंख दिशा आकाश
*
नारायण-आनंद का, माध्यम कर्म अकाम
ब्रम्हा-विष्णु-महेश ही, कर्मदेव के नाम
*
गुरु को अर्पित कीजिये, अपने सारे दोष
लोहे को सोना करें, गुरु पाये संतोष
*
गुरु न गूढ़, होता सरल, क्षमा करे अपराध
अहंकार-खग मारता, ज्यों निष्कंपित व्याध
***
गीत
शहर
*
मेरा शहर
न अब मेरा है,
गली न मेरी
रही गली है।
*
अपनेपन की माटी गायब,
चमकदार टाइल्स सजी है।
श्वान-काक-गौ तकें, न रोटी
मृत गौरैया प्यास लजी है।
सेव-जलेबी-दोने कहीं न,
कुल्हड़-चुस्की-चाय नदारद।
खुद को अफसर कहता नायब,
छुटभैया तन करे अदावत।
अपनेपन को
दे तिलांजलि,
राजनीति विष-
बेल पली है।
*
अब रौताइन रही न काकी,
घूँघट-लज्जा रही न बाकी।
उघड़ी ज्यादा, ढकी देह कम
गली-गली मधुशाला-साकी।
डिग्री ऊँची न्यून ज्ञान, तम
खर्च रूपया आय चवन्नी।
जन की चिंता नहीं राज को
रूपया रो हो गया अधन्नी।
'लिव इन' में
घायल हो नाते
तोड़ रहे दम
चला-चली है।
*
चाट चाट, खाना ख़राब है
देर रात सो, उठें दुपहरी।
भाई भाई की पीठ में छुरा
भोंक जा रहा रोज कचहरी।
गूँगे भजन, अजानें बहरी
तीन तलाक पड़ रहे भारी।
नाते नित्य हलाल हो रहे
नियति नीति-नियतों से हारी।
लोभतंत्र ने
लोकतंत्र की
छाती पर चढ़
दाल दली है।
६-७-२०१६
***
मुक्तक:
*
त्रासदी ही त्रासदी है इस सदी में
लुप्त नेकी हो रही है क्यों बदी में
नहीं पानी रहा बाकी आँख तक में
रेत-कंकर रह गए बाकी नदी में
*
पुस्तकें हैं मीत मेरी
हार मेरी जीत मेरी
इन्हीं में सुख दुःख बसे हैं
है इन्हीं में प्रीत मेरी
६-७-२०१५
***

शिव नारायण जोहरी विमल

 नया महाभारत

श्री शिव नारायण जोहरी विमल
*
ज्वाला मुखी सोये हुए है
जंगल की आग बुझ चुकी
केवल मरुथल ही जल रहा है
उसका ही धुआ है जो
आ रहा है इस ओर
नहीं सुहाता है गोतमी भूमि पर
भरत के वंशजों कों
नऐ महाभारत की बिजली का
चमकना धुऐ की गह्रराइयों से
चिंतित है सभी
नगर से गाँव तक |
हथियारों की खरीदी ने गरीबी कों
और नंगा कर दिया है
भूखी और प्यासी माँ के
सूखे हुए स्तन
अब दूध देते ही नहीं
क्या पिलाए गोद के शिशु कों
खेत में सूखा पड़ा है
पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है |
जल थल और आसमां में
सीमा रेखाएं खिची है
सेन्य दल दीवार फौलादी
वना उन पर खड़ा है |
पीछे हम और हमारे देवता
निहत्थे खड़े है तमाशा देखते
कानून ने हमकों निहत्था कर दिया है
धर्माचार्य आधुनिक शस्त्र
और आधुनिक वाहन
देते ही नहीं है देवताओं को
आज के संग्राम
तीर और तलवार से
जीते नहीं जाते |
घर में देशद्रोही
शत्रु का झंडा उठाए घूमते है
शत्रु की जय कार करते हैं
भारत माँ के प्रति वफादारी की
उड़ा कर धज्जियाँ
जिन्दा अभी तक हैं
युद्ध जारी है एकतरफा
एक कोड़े मारने में व्यस्त
दूसरा चमड़ी बचाने में
कब तक चलेगा सिलसिला ऐसा |
२४/डी के देवस्थली फेज टू
दाना पानी रेस्टोरेंट के पास
बाबडिया कला रोड
भोपाल मध्यप्रदेश

सुरेश कुमार पंडा, नवगीत समीक्षा



कृति चर्चा-
"अंजुरी भर धूप" नवगीत अरूप
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति परिचय- अँजुरी भर धूप, गीत-नवगीत संग्रह, सुरेश कुमार पंडा, वर्ष २०१६, ISBN ८१-८९२४४-१८-०४, आकार २०.५ से.मी.x१३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, १०४, मूल्य १५०/-, वैभव प्रकाशन अमीनपारा चौक, पुरानी बस्ती, रायपुर गीतकार संपर्क ९४२५५१००२७]
*
क्रमश: विकसित होते आदि मानव ने अपनी अनुभूतियों और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए प्राकृतिक घटनाओं और अन्य जीव-जंतुओं की बोली को अपने मस्तिष्क में संचित कर उनका उपयोग कर अपने सत्यों को संदेश देने की कला का निरंतर विकास कर अपनी भाषा को सर्वाधिक उन्नत किया. अलग-अलग मानव-समूहों द्वारा विकसित इन बोलियों-भाषाओँ से वर्त्तमान भाषाओँ का आविर्भाव होने में अगणित वर्ष लग गए. इस अंतराल में अभिव्यक्ति का माध्यम मौखिक से लिखित हुआ तो विविध लिपियों का जन्म हुआ. लिपि के साथ लेखनाधार भूमि. शिलाएं, काष्ठ पट, ताड़ पात्र, कागज़ आदि तथा अंगुली, लकड़ी, कलम, पेन्सिल, पेन आदि का विकास हुआ. अक्षर, शब्द, तथा स्थूल माध्यम बदलते रहने पर भी संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ नहीं बदलीं. अपने सुख-दुःख के साथ अन्यों के सुख-दख को अनुभव करना तथा बाँटना आदिकाल से आज तक ज्यों का त्यों है. अनुभूतियों के आदान-प्रदान के लिए भाषा का प्रयोग किये जाने की दो शैलियाँ गद्य और पद्य का विकसित हुईं. गद्य में कहना आसान होने पर भी उसका प्रभाव पद्य की तुलना में कम मर्मस्पर्शी रहा.
पद्य साहित्य वक्ता-श्रोता तथा लेखक-पाठक के मध्य संवेदना-तन्तुओं को अधिक निकटता से जोड़ सका. विश्व के हिस्से और हर भाषा में पद्य सुख-दुःख और गद्य दैनंदिन व्यवहार जगत की भाषा के रूप में व्यवहृत हुआ. भारत की सभ्यता और संस्कृति उदात जीवनमूल्यों, सामाजिक सहचरी और सहिष्णुता के साथ वैयक्तिक राग-विराग को पल-पल जीती रही है. भारत की सभी भाषाओँ में पद्य जीवन की उदात्त भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सहजता और प्रचुरता से प्रयुक्त हुआ. हिंदी के उद्भव के साथ आम आदमी की अनुभूतियों को, संभ्रांत वर्ग की अनुभूतियों पर वरीयता मिली. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में राजाओं और विदेश संप्रभुओं के विरुद्ध जन-जागरण में हिंदी पद्य साहित्य में महती भूमिका का निर्वहन किया. इस पृष्ठभूमि में हिंदी नवगीत का जन्म और विकास हुआ. आम आदमी की सम्वेदनाओं को प्रमुखता मिलने को साम्यवादियों ने विसंगति और विडम्बना केन्द्रित विचारधारा से जोड़ा. साम्यवादियों ने स्वान्त्रयोत्तर काल में जन समर्थन तथा सत्ता न मिलने पर भी योजनापूर्वक शिक्षा संस्थाओं और साहित्यिक संस्थाओं में घुसकर प्रचुर मात्र में एकांगी साहित्य रचकर, अपने की विचारधारा के समीक्षकों से अपने अनुकूल मानकों के आधार पर मूल्यांकन कराया.
अन्य विधाओं की तरह नवगीत में भी सामाजिक विसंगति, वर्ग संघर्ष, विपन्नता, दैन्य, विडम्बना, आक्रोश आदि के अतिरेकी और एकांगी शब्दांकन को वैशिष्ट्य मान तथाकथित प्रगतिवादी साहित्य रचने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी. भारतीय आम जन सनातन मूल्यों और परम्पराओं में आस्था तथा सत-शिव-सुंदर में विश्वास रखने के संस्कारों के कारण ऐसे साहित्य से दूर होने लगा. साहित्यिक प्रेरणा और उत्स के आभाव ने सामाजिक टकराव को बढ़ाया जिसे राजनीति ने हवा दी. साहित्य मनीषियों ने इस संक्रमण काल में सनातन मूल्यपरक छांदस साहित्य को जनभावनाओं के अनुरूप पाकर दिशा परिवर्तन करने में सफलता पाई. गीत-नवगीत को जन सामान्य की उत्सवधर्मी परंपरा से जोड़कर खुली हवा में श्वास लेने का अवसर देनेवाले गीतकारों में एक नाम भाई सुरेश कुमार पंडा का भी है. सुरेश जी का यह गीत-नवगीत संग्रह शिष्ट श्रृंगार रस से आप्लावित मोहक भाव मुद्राओं से पाठक को रिझाता है.
'उग आई क्षितिज पर
सेंदुरी उजास
ताल तले पियराय
उर्मिल आकाश
वृन्तों पर शतरंगी सुमनों की
भीग गई
रसवन्ती कोर
बाँध गई अँखियों को शर्मीली भोर
*
फिर बिछलती साँझ ने
भरमा दिया
लेकर तुम्हारा नाम
*
अधरों के किसलई
किनारों तक
तैर गया
रंग टेसुआ
सपनीली घटी के
शैशवी उतारों पर
गुम हो गया
उमंग अनछुआ
आ आकर अन्तर से
लौट गया
शब्द इक अनाम
लिखा है एक ख़त और
अनब्याही ललक के नाम
*
सनातन शाश्वत अनुभूतियों की सात्विकतापूर्ण अभिव्यक्ति सुरेश जी का वैशिष्ट्य है. वे नवगीतों को आंचलिकता और प्रांजलता के समन्वय से पठनीय बनाते हैं. देशजता और जमीन से जुड़ाव के नाम पर अप्रचलित शब्दों को ठूँसकर भाषा और पाठकों के साथ अत्याचार नहीं करते. अछूती भावाभिव्यक्तियाँ, टटके बिम्ब और मौलिक कहन सुरेश जी के गीतों को पाठक की अपनी अनुभूति से जोड़ पाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रहीं आँखें
जाने कब
अँधियारा पसर गया?
एकाकी बगर गया
रीते रहे पल-छिन
अनछुई उसांसें.
*
नवगीत की सरसता सहजता, ताजगी और अभिव्यंजना ही उसे गीतों से पृथक करती है. 'अँजुरी भर धूप' में यह तीनों तत्व सर्वत्र व्याप्त हैं. एक सामान्य दृश्य को अभिनव दृष्टि से शब्दित करने की कला में नवगीतकार माहिर है -
आँगन के कोने में
अलसाया
पसरा था
करवट पर सिमटी थी
अँजुरी भर धूप
*
तुम्हारे एक आने से
गुनगुनी
धूप सा मन चटख पीला
फूल सरसों का
तुम्हारे एक आने से
सहज ही खुल गई आँखें
उनींदी
रतजगा
करती उमंगों का.
*
सुरेश जी विसंगतियों, पीडाओं और विडंबनाओं को नवगीत में पिरोते समय कलात्मकता को नहीं भूलते. सांकेतिकता उनकी अभिव्यक्ति का अभिन्न अंग है -
चाँदनी थी द्वार पर
भीतर समायी
अंध कारा
पास बैठे थे अजाने
दुर्मुखों का था सहारा.
*
'लिखा है एक ख़त' शीर्षक गीत में सुरेश जी प्रेम को दैहिक आयाम से मुक्त कराकर अंतर्मन से जोड़ते हैं-
भीतर के गाँवों तक
थिरक गयी
पुलकन की
लहर अनकही
निथर गयी
साँसों पर आशाएँ
उर्मिल और
तरल अन्बही
भीतर तक
पसर गयी है
गंध एक अनाम.
लिखा है एक ख़त
यह और
अनब्याही ललक के नाम.
*
जीवन में बहुद्द यह होता है की उल्लास की घड़ियों में ख़ामोशी से दबे पाँव, बिना बताये गम भी प्रवेश कर जाता है. बिटिया के विवाह का उल्लास कब बिदाई के दुःख में परिवर्तित हो जाता है, पता ही नहीं चल पाता. सुरेश जी इस जीवन सत्य को 'अनछुई उसासें' शीर्षक से उठाते हैं-
पीपल की फुनगी पर
टँगी रही आँखें
जाने कब
अंधियारा पसर गया,
एकाकी बगर गया,
रीते रहे पल-छीन
अनछुई उसासें
*
गुपचुप इशारों सी
तारों की पंक्ति
माने तब
मनुहारिन अलकों में
निष्कम्पित पलकों में
आते पदचापों की होती है गिनती.
*
'अपने मन का हो लें' गीत व्यवस्था से मोह भंग की स्थिति में मनमानी करनी की सहज-स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति को सामने लता है किन्तु इसमें कहीं विद्रोह का स्वर नहीं है. असहमति और मत वैभिन्न्य की भी अभिव्यक्ति पूर्ण सकारात्मकता के साथ कर पाना गीतकार का इष्ट है-
अमराई को छोड़
कोयलिया
शहर बस गयी
पीहर पाकर
गूँज रही है
कूक सुरीली
आओ अब हम
खिड़की खोलें.
प्रेशर कुकर की सीटी भाप को निकाल कर जिस तरह विस्फोट को रोकती है उसे तरह यहाँ खिड़की खोलने का प्रतीक पूरी तरह सार्थक और स्वाभाविक है.
जुगनू ने
पंगत तोडी है
तारों की
संगत में आकर
उजियारा
सपना बन बैठा
कैसे हम जीवन रस घोलें?...
.... तम का
क्या विस्तार हो गया
बतलाओ तो
क्यों न अपने मन का हो लें?
*
आदिवासी और ग्रामीण अंचलों में अभावों के बाद भी जीवन में व्याप्त उल्लास और हौसले को सुरेश जी 'मैना गीत गाती हैं' में सामने लाते हैं. शहरी जीवन की सुविधाएँ और संसाधन विलासिता की हद तक जाकर भी सुख नहीं दे पाते जबकि गाँव में आभाव के बाद भी जिंदगी में 'गीत' अर्थात राग शेष है.
मैना गीत गाती है
रात में जं
गल सरइ के
गुनगुनाते हैं.
घोर वन के
हिंस्र पशु भी
शांत मन से
झुरमुठों में
शीत पाते हैं.
रात करती नृत्य
मैना गीत गाती है.
हरड़ के पेड़ों चढ़ी
वह
भोर की ठंडी हवा भी
सनसनाती है.
जंगली फल-मूल से
घटती उदर ज्वाला
मन का नहीं है
अब तलक
कोना कोई काला.
स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना 'सतपुड़ा के घने जंगल' की याद दिलाती इस रचना का उत्तरार्ध जंगल की शांति मिटाते नकसली नक्सली आतंक को शब्दित करता है-
अब यहाँ
जीवन-मरण का
खेल चलता है
बारूदों के ढेर बैठा
विवश जीवन
हाथ मलता है.
भय का है फैला
क्षेत्र भर में
अजब कारोबार
वैन में,
नदी में
पर्वतों में
आधुनिकतम बंदूकें ही
दनदनाते हैं.
*
अपने समय के सच से आँख मिलाता कवि साम्यवाद और प्रगतिवाद की यह दिशाहीन परिणति सामने लाने में यत्किंचित भी संकोच नहीं करता. 'मन का कोना में निस्संकोच कहता है-
अर्थहीन
पगडंडी जाती
आँख बचाकर
दूर.
नवगीत इस 'अर्थहीनता' के चक्रव्यूह को बेधकर 'अर्थवत्ता' के अभिमन्यु का जयतिलक कर सके, इसी में उसकी सार्थकता है. प्राकृतिक वन्य संपदा और उसमें अन्तर्निहित सौन्दर्य कवि को बार-बार आकर्षित करता है-
कांस फूला
बांस फूला
आम बौराया.
हल्दी का उबटन घुलाकर
नीम हरियाया.
फिर गगन में मेघ संगी
तड़ित पाओगे.
आज तेरी याद फिर गहरा गयी है, कौन है, स्वप्न से जागा नहीं हूँ, मन मेरा चंचल हुआ है, तुम आये थे, तुम्हारे एक आने से, मन का कोना, कब आओगे?, चाँदनी है द्वार पर, भूल चुके हैं, शहर में एकांत, स्वांग, सूरज अकेला है, फागुन आया आदि रचनाएँ मन को छूती हैं. सुरेश जी के इन नवगीतों की भाषा अपनी अभिव्यंजनात्मकता के सहारे पाठक के मन पैठने में सक्षम है. सटीक शब्द-चयन उनका वैशिष्ट्य है. यह संग्रह पाठकों को मन भाने के साथ अगले संग्रह के प्रति उत्सुकता भी जगाता है.
***

बुधवार, 5 जुलाई 2023

मुक्तिका, अचल छंद, अमरनाथ, गुरु वंदन, चोका गीत, हाइकु,

गुरुवंदन
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरुवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, अन्य नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वही गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
*
ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
*
गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
*
गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
*
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा, रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
५-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण ३
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मध-ुरस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
***
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
५-७-२०१९
***
हाइकु सलिला:
*
रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
***
रचना - प्रति रचना:
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए.
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए.
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,,
सिया-उमा-भोले जी के संग आ विराजिए.
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा किनारे 'सलिल' सँग पंजीरी फांकिये.
५-७-२०१८
***
दोहा मुक्तक सलिला:
अमरनाथ
*
अमरनाथ! रहिए सदय, करिए दैव निहाल।
करूँ विनय संकट हरें, प्रभु! तव ह्रदय विशाल।।
अमरनाथ की कृपा से, विजय-तिलक वर भाल।
करतल में करताल ले, भजन करे हर हाल।।
*
अमर नाथ; सेवक नहीं, पल में हो निर्जीव।
प्रभु संप्राणित करें तो, शव भी हो संजीव।।
भोले पल में तुष्ट हो, बनते करुणासींव।
रुष्ट हुए तो खैरियत, मन न सकता जीव।।
*
अमर नाथ जिसके न वह, रहे कभी भयभीत।
शब्द-सुमन अर्पित करे, अक्षर-अक्षर प्रीत।।
भाव-सलिल साथी बने, नव रस का हो मीत।
समर सत्य-हित कर सदा, निश्चय मिलना जीत।।
*
अमरनाथ-जयकार कर, शंका का हो अंत।
कंकर शंकर-दास हो, कोशिश कर-कर कंत।।
आनंदित हैं भू-गगन, नर्तित दिशा-दिगंत।
शून्य-सांत हैं जो वही, हैं सर्वस्व अनंत।।
*
अमर नाथ बसते वहीं, जहाँ 'सलिल' की धार।
यह पद-प्रक्षालन करे, वे रखते सिर-धार।।
गरल-अमिय सम भाव से, ईश करें स्वीकार।
निराकार हैं जो वही, हैं कण-कण साकार।।
*
अमरनाथ ही आस हो, शकुंतला सी श्वास।
प्रगति-योजना हर सके, जीवन का संत्रास।।
मन-दीपक जलता रहे, ले अधरों पर हास।
स्वेद खिले साफल्य का, सुमन बिखेर सुवास।।
*
अमरनाथ जो ठान लें, तत्क्षण करते काम।
राम मिल सकें जप 'मरा', सीधी हो विधि वाम।।
सुर-नर-असुरों से पूजें, करते काम तमाम।
दुराचार के नाश हित करते काम तमाम। ।
**
५.७.२०१८
***
एक षट्पदी:
*
ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव को जप, पी ब्रांडी-व्हिस्की-शैम्पेन,
रम पी राम-राम जप प्यारे, भाँग छान ले भोले मैन।
चिलम धतूरा चंचल चित ले, चिन्मय से साक्षात् करे-
चकित-भ्रमित या थकित अगर तू, खुद में डूब न हो बेचैन।
सुर-नर-असुर सुरा पीने हित, तज मतभेद एक होते
पी स्कोच चढ़ा ठर्रा सँग दीन-धनी दूरी खोते।।
५-७-२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल छंद से
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
***
एक दोहा
रमा रमा में मन रहा, किसको याद रमेश।
छोड़ विष्णु पुज रहीं हैं, लछमी सहित गणेश।।
५-७-२०१६
***
दोहा संग्रह की दोहा समीक्षा
(कृति विवरण: होते ही अंतर्मुखी, दोहा संग्रह, दोःकर: स्वामी श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', पृष्ठ ११२, सजिल्द, बहुरंगी आकर्षक आवरण, १५० रु., आकार डिमाई, विद्या भगत प्रकाशन, रानी बाग, दिल्ली ३४.)
विश्व वांग्मय में नहीं, दोहा जैसा छंद.
छंदराज यह सूर्य सम, हरता तिमिर अमंद..
जन-जीवन पर्याय यह, जन-मानस का मित्र.
अंकित करता शब्दशः आँखों देखे चित्र..
होते ही अंतर्मुखी, दोहा रचिए आप.
बहिर्मुखी हो देखिये, शांति गयी मन-व्याप..
स्वामी श्यामानंद ने, रौशन शारद-कोष.
यह कृति देकर किया है, फिर दोहा- जयघोष..
सारस्वत वरदान सम, दोहा अद्भुत छंद.
समय सारथी सनातन, पथ दर्शक निर्द्वंद..
गीति-गगन में सोहता, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद सुर किन्तु यह, है सुर-राज सुरेश..
सत्-चित-आनंद मन बसे, सत्-शिव-सुन्दर देह.
शेष अशेष विशेष है, दोहा निस्संदेह..
दो पद शशि-रवि, रात-दिन, इडा-पिंगला जान.
बना स्वार्थ परमार्थ को, बन जा मन मतिमान..
स्वामी श्यामानंद को है सरस्वती सिद्ध.
हर दोहा-शर कर रहा, अंतर्मन को बिद्ध..
होते ही अंतर्मुखी, रौशन हुआ जहान.
दीखता हर इन्सान में बसा हुआ भगवान्..
हिंदी उर्दू संस्कृत पिंगल में निष्णात.
शब्द-ब्रम्ह आराधना, हुई साध्य दिन-रात..
दोहा-लेखन साधना, करें ध्यान में डूब.
हर दोहा दिल को छुए, करे प्रभावित खूब..
पढिये-गुनिये-समझिये, कवि के दोहे चंद.
हर दोहे की है अलग, दीप्ति-उजास अखंड..
''दोहा कहना कठिन है, दुष्कर है कवि-कर्म.
कितनों को आया समझ, दोहे का जो मर्म..''--पृष्ठ १७
''दोहा कहने की कला, मत समझो आसान.
धोखा खाते हैं यहाँ, बड़े-बड़े विद्वान्..'' -''--पृष्ठ १७
सरल-शुद्ध शब्दावली, सरस उक्ति-माधुर्य.
भाव, बिम्ब, लय, कथ्य का, दोहों में प्राचुर्य..
''दोहे में मात्रा गिरे, है भारी अपराध.
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध..''--पृष्ठ १७
प्रेम-प्यार को मानते, हैं जीवन का सार.
स्वामी जी दे-पा रहे, प्यार बिना तकरार..
''प्यार हमारा धर्म है, प्यार दीन-ईमान.
हमने समझा प्यार को, ईश्वर का वरदान..''--पृष्ठ २२
''उपमा सच्चे प्रेम की, किससे दें श्रीमान?
प्रेम स्वयं उपमेय है, प्रेम स्वयं उपमान..''--पृष्ठ २१
दिखता रूप अरूप में, है अरूप खुद रूप.
द्वैताद्वैत भरम मिटा, भिक्ष्क लगता भूप..
''रूप कभी है छाँव तो, रूप कभी है धूप.
जिससे प्रगत रूप है, उसका रूप अनूप''--पृष्ठ २४
स्वामी जी की संपदा, सत्य-शांति-संतोष.
देशप्रेम, सत् आचरण, संयम सुख का घोष..
देख विसंगति-विषमता, कवि करता संकेत.
सोचें-समझें-सुधारें, खुद को खुद अभिप्रेत..
''लोकतंत्र में भी हुआ, कैसा यह उपहास?
इंग्लिश को कुर्सी मिली, हिंदी को वनवास..''--पृष्ठ २७
''राजनीति के क्षेत्र में सबके अपने स्वार्थ.
अपने-अपने कृष्ण हैं, अपने-अपने पार्थ..''--पृष्ठ ३८
''ले आया किस मोड़ पर सुन्दरता का रोग.
देह प्रदर्शन देखते आंखें फाड़े लोग..''--पृष्ठ ४३
''कैसे इनको मिल गया, जनसेवक का नाम?
खून चूसना ही अगर, ठहरा इनका काम..''--पृष्ठ ५३
शायर सिंह सपूत ही, चलें तोड़कर लीक.
स्वामी जी काव्य पढ़, उक्ति लगे यह ठीक..
''रोती रहती है सदा, रात-रात भर रात,
दिन से होती ही नहीं, मुलाकात की बात..''--पृष्ठ ६२
कवि कहता है- ''व्यर्थ है, सिर्फ किताबी ज्ञान.
करना अपने ढंग से, सच का सदा बखान..'
''भौंचक्के से रह गए द्वैत और अद्वैत.
दोनों पर भारी पड़ा, केवल एक लठैत..''--पृष्ठ ६४
''मँहगा पड़ता है सदा, माटी का अपमान.
माटी ने माटी किया, कितनों का अभिमान..''--पृष्ठ ८३
'गंता औ' गन्तव्य का, जब मिट जाता द्वैत.
बने आत्म परमात्म तब, शेष रहे अद्वैत..
''चलते-चलते ही मिला, मुझको यह मन्तव्य.
गंता भी हूँ मैं स्वयम, और स्वयं गन्तव्य..''--पृष्ठ ११०
दोहे श्यामानंद के, 'सलिल' स्नेह की धार.
जो पड़ता वह डूबता, डूबा लगता पार..
अलंकार, रस, बिम्ब, लय, भाव भरे भरपूर.
दोहों को पढ़ सीखिए, दोहा छंद जरूर..
दोहा-दर्पण दिखाता, 'सलिल'-स्नेह ही सत्य.
होते ही अंतर्मुखी, मिटता बाह्य असत्य..
रचिए दोहे और भी, रसिक देखते राह.
'सलिल' न बूडन से डरे, बूडे हो भव-पार..
*
***
मुक्तिका:
*
नित नयी आशा मुखर हो साल भर
अब न नेता जी बजायें गाल भर
मिले हिंदी को प्रमुखता शोध श्री
तोड़कर अंग्रेजियत का जाल भर
सनेही है राम का जो लाल वह
चाहता धरती रहे खुशहाल भर
करेगा उद्यान में तब पुष्प राज
जब सुनीता हो हमारी चाल भर
हों खरे आचार अपने यदि सदा
ज्योति को तम में मिलेगा काल भर
हसरतों पर कस लगामें रे मनुज!
मत भुलाना बाढ़ और भूचाल भर
मिटेगी गड़बड़ सभी कानून यदि
खींच ले बिन पेशियों के खाल भर
सुरक्षित कन्या हमेशा ही रहे
संयमित जीवन जियें यदि लाल भर
तंत्र सुधरेगा 'सलिल' केवल तभी
सम रहें सबके हमेशा हाल भर
५-७-२०१५
***
आइये, सोचें-विचारें
*
जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
५-७-२०१०
***

यायावर

 कृति चर्चा:

गलियारे गंध के- डॉ रामसनेही शर्मा यायावर
[कृति विवरण: गलियारे गंध के, गीत-नवगीत संग्रह रचनाकार- डॉ. रामसनेही शर्मा यायावर, प्रथम संस्करण- २०१२, आकार डिमाई, मूल्य- रूपये ७०/-, पृष्ठ- ८४, आवरण दोरंगी पेपरबैक, प्रकाशक- कलरव प्रकाशन, १२४७/८६ शांति नगर, त्रिनगर दिल्ली ११००३५ ]
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के प्रणयपरक नवगीतों का संग्रह ‘गलियारे गंध के’ सुवासित नवगीत पुष्पों की ऐसी अंजुरी है जो काव्य रसिकों को मोगरे की भीनी-भीनी सुरभि की तरह मुग्ध और आनंदित करती है, जिसे बार-बार पाने और पीने का मन करता है।
इन नवगीतों में एक ओर परिपक्व-उत्कृष्ट कव्यशास्त्रीयता अन्तर्निहित है तो दूसरी ओर नितांत वैयक्तिक प्रणयाभिव्यक्ति में सामाजिक अनुभूतियों की गंगो-जमुनी छवि और छटा काय-छाया की तरह दृष्टव्य है। श्रेष्ठ भाव सम्प्रेषण, उत्तम काव्यत्व, सरस लयात्मकता, छान्दसिक नैपुण्य तथा भाषिक प्रांजलता के पंचतत्व इस संग्रह को पढ़ने ही नहीं इसके गीतों को गुनगुनाने के निकष पर भी खरा सिद्ध करते हैं।
तन की पोथी पर महाकाव्य
तुम भी बाँचो
मैं भी बाँचूँ
शब्दों का अर्थ न करें वरण
यह लिपि का कैसा धुँधलापन
आदिम गंधों से भरी पवन
हृत चेतन करती मन कानन
यह सृजन तन्त्र
यह संविधान
तुम भी जाँचो
मैं भी जाँचूँ
‘संविधान’ शब्द का यह प्रयोग चौंकाने के साथ-साथ डॉ॰ यायावर की नव दृष्टिपरक भाषिक सामर्थ्य का भी परिचायक है। ये नवगीत प्रमाणित करते हैं कि अभिव्यक्ति में उक्ति-वैचित्र्य, जीवंत बिम्ब-प्रेक्षण तथा प्रतीकों का अभिनव रूपायन डॉ॰ यायावर का वैशिष्ट्य है। ये नवगीत पाठक को चाक्षुस तथ मानसिक दोनों धरातलों पर रसानन्दित करने में समर्थ हैं।
हर बार समय लिख देता है
मस्तक पर
अग्नि परीक्षा क्यों?
क्यों अधरों पर लिख दिया ‘तृषा’
इस प्राण-पटल पर ‘आकर्षण’
मोती के भाग्य लिखा ‘बिंधना’
सीपी को सौंपा ‘खालीपन’
मेघों को तड़प-तड़प गलना
चातक को
विकल प्रतीक्षा क्यों?
दिनोंदिन अधिकाधिक निर्मम होते परिवेश, मूल्यों का लाक्षागृह बनता समाज, चतुर्दिक पीड़ा के तांडव नर्तन से उपजी असंतुष्टि, सार्वजनिक जीवन में उमडती मिथ्या का तूफ़ान, तंत्र में दम तोड़ते सत्य की निरीहता, पुरस्कृत होने के लोभ में अस्मिता नीलाम करती कलमें, स्वानुशासन को कापुरुषता मनाने की प्रवृत्ति, अनाचार को घटते देखके अनदेखा करने की कायरता आदि से उपजा आक्रोश व घृणा सर्वस्व को नष्ट करने को औचित्यपूर्ण बताये- यह दृष्टि और राह यायावर को मान्य नहीं है। वे तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं के बाद भी तिमिर पर उजास की जयजयकार देख सकने की सामर्थ्य रखते हैं।
निर्मम पैसों से कुचले जाते हों
जब भोले दिवास्वप्न
हम-तुम मिलकर
कैसे कोई इतिहास लिखें?
जब रिश्ते ही संत्रास लिखें
हम-तुम
अपना अनुबंध लिखें
ये अधर गीत-गोविंद लिखें
मन का ययाति न अतृप्त रहे
प्रतिबंध-गंध परिसुप्त रहे
तन भोजपत्र बन जाए अमर
लिख जाए तरल गीतों के स्वर
चिर मिलन कामना
तृप्त बनें
ये अधर गीत-गोविंद लिखें
शब्दों को मूलार्थ के साथ-साथ लाक्षणिक अर्थ में प्रयोग करने में यायावर जी सिद्धहस्त हैं। अर्जुन, शकुंतला, ययाति, तथागत, सुजाता, पुरुरवा, राधा-माधव, रति-अनंग, अहल्या, मीरा, श्याम, सुकरात, वृन्दावन, पनघट, वंशीवट, गगरी, यमुना तट, गोकुल, कण्वाश्रम, खाजिराहो, होरी, गोदान, लक्ष्मण रेखा, क्रौंच मिथुन, मृग मरीचिका, सागर मंथन आदि शब्दों का लाक्षणिक प्रयोग नवगीतों को भावार्थ की दृष्टि से संपन्न बना सका है।
डॉ. यायावर ने नवगीतों को शिकायत पुस्तिका बनाने के स्थान पर लालित्यमय रस-कोष बनाया है। महारास, आलिंगन, परिरम्भण, चुम्बन, मिथुन, पीयूष कलश, मदिराघट, तृषा, तृप्ति, प्रणय पूजा, कामना, वर्जना, समर्पण, प्रणय पिपासा, प्राण यजन, देह धर्म, रस समाधि, वर्जित फल, आदिम युग जैसे शब्द इन नवगीतों में पूर्ण अस्मिता और अर्थवत्ता के साथ प्रतिष्ठित ही नहीं हैं अपितु नवगीतों में प्राण भी फूँक सके हैं। इन नवगीतों की भाषिक सांस्कारिकता अद्भुत है
सरिता का तट वह मुक्त-पवन
संग्रथित उँगलियाँ भुज-बंधन
तुलसी-दल जैसे अधर
वक्ष पर लिखें प्रणय
जब देह-धर्म के साथ
हुआ जग पूर्ण विलय
रस की समाधि में विस्मृत क्षण
अनियंत्रित पल
डॉ. यायावर युगीन विसंगतियों की अनदेखी नहीं करते किन्तु उन्हें उद्घाटित करने के लिये नागफनी की फसल नहीं उगाते, गुलाबों की क्यारी सजाते हैं।
पतझर से जीते बार-बार
हारे मन के मधुमासों से
संदेहों की चौखट पर
हम फिर ठगे गये विश्वासों से
‘कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयाँ और’ की तरह नवगीतकारों में डॉ. यायावर का किसी बात को कहने का अपना अलग अंदाज़ है। नवगीत की भाषा और अभिव्यक्ति का तरीका ही नवगीतकार की पहचान स्थापित करता है। नवगीत रचना में लालित्य, चारुत्व, सौष्ठव, तथा कोमलता ही उसे नयी कविता से पृथक करती है। नयी कविता से प्रभावित नवगीतकारों में शैल्पिक भिन्नता तो होती है किन्तु कथ्य नयी कविता से सादृश्य रखने के कारण उनकी अभिव्यक्ति में भाषिक सौष्ठव की श्रेष्ठता कम ही मिलाती है किन्तु डॉ. यायावर नवगीतों में भाषा में प्राण फूँकते दिखते हैं। उन्होंने गीत विधा में ही डी. लिट्. उपाधि प्राप्त की है। स्वाभाविक है कि वे गीत रचना के तत्वों, विधान, प्रक्रिया तथा प्रभावों पर पूर्ण अधिकार रखें।
डॉ. यायावर के ये प्रणयपरक नवगीत प्रकृति से एकाकारित प्रतीत होते हैं। इन गीतों में पवन, लहर, ज्वार, सिन्धु, सागर, यमुना तट, प्रभंजन, शंख, सीप, घोंघे, मोती, सरिता, मीन, चाँद, चाँदनी, नील गगन, धरा, गृह, सूर्य, नक्षत्र, नभ गंगा, प्रभाकर, समीर, मरुस्थल, कूप आदि के साथ मधुवन, चन्दन वन, महुआ वन, कुञ्ज, मौलश्री, बरगद, नीम, नागफनी, बेला, कचनार, कल्प वृक्ष, वंशी वट, बबूल, बांस, कांस, पीपल, तुलसी, गुलमोहर, हरसिंगार, सोनजुही, शतदल, गुलाब, अमलतास, मेहँदी, माधवी, शेफाली, पलाश, पल्लव, आम, कदंब ही नहीं कस्तूरी मृग, कामधेनु, शृगाल, मर्कट, सर्प, नाग, हिरण, विहाग, कपोत, चकवा, चकवी, चिड़िया, पाखी, तोता, मैना, मोर, कोयल, गौरैया, सारस, खंजन, कागा, हीरामन, तितलियाँ, मधुप और पखावज, मृदंग, वीणा, ढोल, बीन, बाँसुरी, वंशी, शहनाई और इकतारा भी हैं। उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए इनसे बेहतर अन्य शब्द नहीं हो सकते।
इस नवगीत संग्रह का वैशिष्ट्य हिन्दी के शुद्ध-सहज रूप का व्यवहार करना है। पूरे संग्रह में कहीं भी अनावश्यक हिंदीतर शब्द का प्रयोग नहीं है। परिनिष्ठित हिंदी में रचित हर नवगीत मन-वीणा को झंकृत कर आनन्द मग्न करता है। छंदानुशासन में कसे-सजे-सँवरे ये नवगीत नव्य नवगीतकारों के लिये पठनीय ही नहीं अनुकरणीय भी हैं। इन नवगीतों को काव्य-दोषों से मुक्त रखने के प्रति यायावर जी सजग रहे हैं।
‘गलियारे गंध के’ नवगीतों का एक विशिष्ट संग्रह है जिसके सही गीत प्रणय परकता से सराबोर होने पर भी शील तथा श्लील से युक्त स्वानुशासित हैं। इन नवगीतों की प्रांजल भाषा लालित्य तथा चारूत्व से मन मोहती है। यह कृति गीतानंद मात्र नहीं देती अपितु भाषा संस्कारित करने में भी समर्थ है।
***

मदन महल

-: गोंड़ दुर्ग मदन महल : एक अध्ययन :-
संजीव वर्मा 'सलिल', अभियंता
मयंक वर्मा, वास्तुविद
* प्रस्तावना
मदन महल पहुँच पथ, निर्माण काल, निर्माणकर्ता आदि।
भारत के हृदयप्रदेश मध्य प्रदेश के मध्य में सनातन सलिला नर्मदा के समीप बसे पुरातन नगर संस्कारधानी जबलपुर में जबलपुर-नागपुर मार्ग पर से लगभग ४.५ किलोमीटर दूर, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के सामने, तक्षशिला इंस्टीट्यूट ऑफ़ तक्नोलोजी की और जा रहे पथ पर मदन महल दुर्ग के ध्वंसावशेष हैं। इसके पूर्व प्रकृति का चमत्कार 'कौआडोल चट्टान' (संतुलित शिला,बैलेंस्ड रॉक) के रूप में है। यहाँ ग्रेनाइट पत्थर की विशाल श्याम शिला पर दूसरी श्याम शिला सूक्ष्म आधार पर स्थित है। देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि एक कौआ भी आकर बैठे तो चट्टान पलट जाएगी पर १९९३ में आया भयानक भूकंप भी इसका बाल-बाँका न कर सका।
मदन महल दुर्ग सन १११६ ईसवी में गोंड़ नरेश मदन शाह द्वारा बनवाया गया।१ गोंड़ साम्राज्य की राजधानी गढ़ा जो स्वयं विशाल दुर्ग था, के निकट मदन महल दुर्ग निर्माण का कारण, राज-काज से श्रांत-क्लांत राजा के मनोरंजन हेतु सुरक्षित स्थान सुलभ करने के साथ-साथ आपदा की स्थिति में छिपने अथवा अन्य सुरक्षित किलों की ओर जा सकने की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराना रह होगा। गढ़ा का गोंड़ साम्राज्य प्राकृतिक संपत्ति से समृद्ध था।
* गोंड़
भारत भूमि का 'गोंडवाना लैंड्स' नामकरण दर्शाता है कि गोंड़ भारत के मूल निवासी हैं। गोंड़ प्राकृतिक संपदा से संपन्न, सुसंस्कृत, पराक्रमी, धर्मभीरु वनवासी प्रजाति हैं जिनसे अन्य आदिवासी प्रजातियों, कुलों, कुनबों, वंशों आदि का उद्भव हुआ। गोंड़ संस्कृति प्रकृति को 'माता' मानकर उसका संवर्धन कर पोषित होती थी। गोंड़ अपनी आवश्यकता से अधिक न जोड़ते थे, न प्रकृति को क्षति पहुँचाते थे। प्रकृति माँ, प्राकृतिक उपादान पेड़-पौधे, नदी-तालाब, पशु-पक्षी आदि कुल देव। अकारण हत्या नहीं, अत्यधिक संचय नहीं, वैवाहिक संबंध पारस्परिक सहमति व सामाजिक स्वीकृति के आधार पर, आहार प्राकृतिक, तैलीय पदार्थों का उपयोग न्यून, भून कर खाने को वरीयता, वनस्पतियों के औषधीय प्रयोग के जानकार। गोंड़ लोगों ने १३ वीं और १९ वीं शताब्दी ईस्वी के बीच गोंडवाना में शासन किया था। गोंडवाना वर्तमान में मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग और ओडिशा के पश्चिमी भाग के अंतर्गत आता है। भारत के कटि प्रदेश - विंध्यपर्वत,सिवान, सतपुड़ा पठार, छत्तीसगढ़ मैदान में दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिम - में गोदावरी नदी तक फैले हुए पहाड़ों और जंगलों में रहनेवाली आस्ट्रोलायड नस्ल तथा द्रविड़ परिवार की एक जनजाति, जो संभवत: पाँचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण से गोदावरी के तट को पकड़कर मध्य भारत के पहाड़ों में फैल गई। आज भी मोदियाल गोंड़ जैसे समूह गोंडों की जातीय भाषा गोंड़ी बोलते हैं जो द्रविड़ परिवार की है और तेलुगु, कन्नड़, तमिल आदि से संबन्धित है। आस्ट्रोलायड नस्ल की जनजातियों की भाँति विवाह संबंध के लिये गोंड भी सर्वत्र दो या अधिक बड़े समूहों में बँटे रहते हैं। एक समूह के अंदर की सभी शांखाओं के लोग 'भाई बंद' कहलाते हैं और सब शाखाएँ मिलकर एक बहिर्विवाही समूह बनाती हैं। विवाह के लिये लड़के द्वारा लड़की को भगाए जाने की प्रथा है। भीतरी भागों में विवाह पूरे ग्राम समुदाय द्वारा सम्पन्न होता है और वही सब विवाह संबंधी कार्यो के लिये जिम्मेदार होता है। ऐसे अवसर पर कई दिन तक सामूहिक भोज और सामूहिक नृत्यगान चलता है। हर त्यौहार तथा उत्सव का मद्यपान आवश्यक अंग है। वधूमूल्य की प्रथा है और इसके लिए बैल तथा कपड़े दिए जाते हैं।
युवकों की मनोरंजन संस्था - गोटुल का गोंड़ों के जीवन पर बहुत प्रभाव है। बस्ती से दूर गाँव के अविवाहित युवक एक बड़ा घर बनाते हैं। जहाँ वे रात्रि में नाचते, गाते और सोते हैं; एक ऐसा ही घर अविवाहित युवतियाँ भी तैयार करती हैं। बस्तर के मारिया गोंड़ों में अविवाहित युवक और युवतियों का एक ही कक्ष होता है जहाँ वे मिलकर नाच-गान करते हैं।
गोंड खेतिहर हैं और परंपरा से दहिया खेती करते हैं जो जंगल को जलाकर उसकी राख में की जाती है और जब एक स्थान की उर्वरता तथा जंगल समाप्त हो जाता है तब वहाँ से हटकर दूसरे स्थान को चुन लेते हैं। सरकारी निषेध के कारण यह प्रथा समाप्तप्राय है। गाँव की भूमि समुदाय की सपत्ति होती है, खेती के लिये परिवारों को आवश्यकतानुसार दी जाती है। दहिया खेती पर रोक लगने से और आबादी के दबाव के कारण अनेक समूहों को बाहरी क्षेत्रों तथा मैदानों की ओर आना पड़ा। वनप्रिय होने के कारण गोंड समूह खेती की उपजाऊ जमीन की ओर आकृष्ट न हो सके। धीरे-धीरे बाहरी लोगों ने इनके इलाकों की कृषियोग्य भूमि पर सहमतिपूर्ण अधिकार कर लिया। गोंड़ों की कुछ उपजातियां रघुवल, डडवे और तुल्या गोंड आदि सामान्य किसान और भूमिधर हो गए हैं, अन्य खेत मजदूरों, भाड़ झोंकने, पशु चराने और पालकी ढोने जैसे सेवक जातियों के काम करते हैं।
गोंडों का प्रदेश गोंडवाना के नाम से भी प्रसिद्ध है जहाँ १५ वीं तथा १७ वीं शताब्दी राजगौंड राजवंशों के शासन स्थापित थे। अब यह मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में है। उड़ीसा, आंध्र और बिहार राज्यों में से प्रत्येक में दो से लेकर चार लाख तक गोंड हैं।
किला/दुर्ग :
राजपरिवार के निवास तथा सुरक्षा के लिए महल बनाए जाते थे। महल के समीप बड़ी संख्या में दास-दासी, सैनिक, सवारी हेतु प्रयुक्त पशु, दूध हेतु गाय-भैंस, मनोरंजन हेतु पशु-पक्षी तथा उनके लिए आवश्यक आहार, अस्त्र-शस्त्रादि के भंडारण, पाकशाला आदि की सुरक्षा था प्राकृतिक आपदा या शत्रु आक्रमण से बचाव के लिए किले, दुर्ग, गढ़ आदि का निर्माण किया जाता था।
* किला 'कोट' (अरबी किला) चौड़ी-मजबूत दीवालों से घिरा स्थान होता था। इसमें प्रजा भी रह सकती थी। 'गढ़' (पुर-ऋग्वेद) छोटे किले होते थे। 'दुर्ग' सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य, अजेय होता था। दुर्ग की तरह अजेय देवी 'दुर्गा' शक्ति के रूप में पूज्य हैं। दुर्ग कई प्रकार के होते थे जिनमें से प्रमुख हैं -
अ. धन्व दुर्ग - धन्व दुर्ग थल दुर्ग होते हैं जिनके चतुर्दिक खाली ढलवां जमीन, बंजर मैदान या मरुस्थली रेतीली भूमि होती थी जिसे पार कर किले की ओर आता शत्रु देखा जाकर उस पर वार किया जा सके।
आ. जल दुर्ग - इनका निर्माण समुद्र, झील या नदी में पाने के बीच टापू या द्वीप पर किया जाता है। इन पर आक्रमण करना बहुत कठिन होता है। लंका समुद्र के बीच होने के कारण ही दुर्ग की तरह सुरक्षित थी। ये किले समतल होते हैं। टापू के किनारे-किनारे प्राचीर, बुर्ज तथा दीप-स्तंभ व द्वार बनाकर शत्रु का प्रवेश निषिद्ध कर दिया जाता है। मुरुद जंजीरा का दुर्ग जल दुर्ग है।
इ. गिरि दुर्ग - किसी पहाड़ के शिखर को समतल कर उस पर बनाए गए दुर्ग को गिरि दुर्ग कहा जाता है। ग्वालियर, चित्तौड़, रणथंभौर के दुर्ग श्रेष्ठ गिरि दुर्ग हैं। पहाड़ी पर होने के कारण इनमें प्रवेश के मार्ग सीमित होते हैं। तलहटी से किये गए शत्रु के वार नहीं पहुँच पाते जबकि किले से किए गए प्रहार घातक होते हैं।
ई. गिरि पार्श्व दुर्ग - इनका निर्माण पहाड़ के ढाल पर किया जाता है। जहाँ पहाड़ के दूसरी और से आक्रमण की संभावना न हो वहाँ इस तरह के दुर्ग बनाये जाते हैं।
उ. गुहा दुर्ग - गुहा दुर्ग का निर्माण ऐसी तलहटी में किया जाता है जिसके चारों ओर ऊँचे पर्वत शिखर हों जिन पर निगरानी चौकियाँ बनाई जा सकें।
ऊ. वन दुर्ग - इन दुर्गों का निर्माण सघन वन में ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के मध्य किया जाता है ताकि दूर से उनका होना ज्ञात न हो। कंकवारी दुर्ग अलवरइसी तरह का दुर्ग है।
ऊ. नर दुर्ग - नर दुर्ग का निर्माण युद्ध में व्यूह की तरह किया जाता है। महाभारत युद्ध में अभिमन्यु का वध करने के लिए बनाया गया चक्रव्यूह नर दुर्ग ही था।
* मदनमहल
मदनमहल का दुर्ग एक पहाड़ी के ऊपर होने के कारण सामान्यत: गिरि दुर्ग कहा जाता है किन्तु वास्तव में यह पहाड़ी लगभग ५०० मीटर ऊँची है। इस पर चढ़ पाना दुष्कर नहीं है। मदनमहल के चतुर्दिक तालाब हैं। आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व जब यह दूर बनाया गया तब ये तालाब बहुत गहरे और बड़े रहे होंगे। इस पहाड़ी के चारों ओर घना वन रहा होगा जिसमें हजारों गगनचुंबी वृक्ष रहे होंगे।
* मदन महल स्थल चयन:
किसी दुर्ग के निर्माण का महत्वपूर्ण पक्ष स्थल-चयन है। मदन महल के निर्माण का निर्णय लिए जाने पर इसके चारों ओर की भूमि की प्रकृति पर विचार करना होगा। मदन महल का दुर्ग वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरि दुर्ग का मिला-जुला रूप है।
१. प्राकृतिक सुरक्षा-निगरानी- इसके समीप ही गढ़ा का विशाल दुर्ग (जिसके स्थान पर गढ़ा और जबलपुर बसा है) होने के कारण उस ओर (उत्तर व पूर्व) से आक्रमण की संभावना नहीं थी। उस ओर से पहुँच मार्ग रखा जाना सर्वथा निरापद है। शेष दो ओर (दक्षिण पूर्व से दक्षिण ) गहरा पहाड़ी ढाल होने से वहाँ से आक्रमण एकाएक नहीं हो सकता था। किले के अंदर और बाहर व्यवस्थाएँ की गई थीं। दक्षिण पूर्व में संग्राम सागर का विशाल सरोवर है।
२. मजबूत जमीनी आधार- मदन महल के निर्माण के लिए जिए भूखंड का चयन किया गया था वह कड़ी कंकरीली मुरम, नरम चट्टान तथा कड़ी चट्टान का क्षेत्र है। कारण बारहों महीने यहाँ बेरोक-टोक आया-जाया जा सकता था। मजबूत आधार भूमि होने के कारण नींव को गहरा या बड़ा रखने की जरूरत नहीं थी। दीवारों की मोटाई भी सामान्य रखी गई थी। इस कारण किले का निर्माणअपेक्षाकृत अल्पव्ययी रहा होगा। किले की बाह्य प्राचीर के अंदर सैन्य बल के रहवास, पाकशाला, अस्तबल (अश्वशाला), जल स्रोत, शस्त्रागार, बारादरी, सेवकों के आवास आदि का नर्माण किया गया होगा जिनके ध्वंसावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस किले के अंदर राजा-रानी के प्रवास हेतु दो ग्रेनाइट-चट्टानों पर लघु महल बनाया गया था जिसे भ्रमवश निगरानी चौकी कहा जाता है।
यहाँ यह समझना होगा कि राजा-रानी का स्थाई निवास गढ़ा किले था। मदन महल का निर्माण राजा-रानी के अल्प प्रवास हेतु था। इसलिए यह अन्य महलों की तरल विशालकाय नहीं है। इस महल का एक अन्य उपयोग यह था कि यहाँ राजकोष को छिपाने की गुप्त व्यवस्था की गई थी कि कभी पराजित होने पर मुख्य गढ़ा दुर्ग हाथ से निकल जाए तो भी कोष सुरक्षित रहे। लोकोक्ति है - 'मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच। जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट।' ऐसे आपातकाल में राजा-रानी आदि की सुरक्षित निकासी हेतु मदन महल में सुरंग भी बनाई गयी थी जो कालान्तर में बंद कर दी गई है।
३. ऊँचाई - किले तथा राजनिवास का निर्माण इस तरह किया गया है कि किला समीपस्थ क्षेत्र से ऊँचा रहे। किले की प्राचीरों की ऊँचाई के बराबर ऊँची श्याम शिलाओं के ऊपर राजसी दंपत्ति के लिए एक कक्ष बनाया गया था जो आज तक बचा है। इस तक पहुँचने के लिए जीना (सीढ़ियाँ) बहुत सुविधाजनक नहीं हैं ताकि कोई वेग के साथ एकाएक राजसी दंपत्ति के विश्राम कक्ष में प्रवेश न कर सके। सीढ़ियाँ ऊँची तथा घुमावदार हैं।
४. निर्माण सामग्री की सुलभता - यह स्थल चयन निर्माण सामग्री की सुलभता की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। यहाँ मिट्टी, मुरम, पत्थर, लकड़ी, बेल फल, श्रमिक तथा कारीगर आदि पर्याप्त मात्रा में तथा सस्ती दरों में सुलभ रहे होंगे।
५. पहुँच एवं निकासी मार्ग -मदन महल किले का सर्वज्ञात निकासी मार्ग पूर्व दिशा में है जबकि महल का निकासी द्वार उत्तर दिशा में है। वास्तु की दृष्टि से ऐसा किया जाना सर्वथा उचित और शास्त्र सम्मत था।
६. अदृश्यता - इस किले और महल का निर्माण सघन-ऊँचे वृक्षों के मध्य इस तरह किया गया था कि द्वार के सम्मुख आ जाने तक यह निश्चित न हो सके कि किला इतने सन्निकट है और दूर से इसे देखकर इस पर प्रहार न जा सके।
७. पेय जल की उपलब्धता - दुर्ग में बड़ी संख्या में सैनिक, सेवक, पशु और जान सामान्य भी रहते और आते-जाते थे। इसलिए शुद्ध पेय जल पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक था। इस किले के चारों ओर अनेक सरोवर, बावली, झरने आदि थे जिनमें से कुछ अब भी द्रष्टव्य हैं।
८. परिवेश - महल तथा किले के चतुर्दिक रमणीय सघन वन, सुन्दर जलाशय, मनोरम दृश्य, विविध प्रकार के पशु-पक्षी आदि थे। यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त की नयनाभिराम छवियाँ देखी जा सकती थीं।
९. छिपने-छिपाने के स्थल (गुफाएँ) - इस दुर्ग की एक असामान्य विशेषता इसके अंदर और बाहर अनेक गुफाएँ, दरारें आदि थीं जिनमें छिपकर किले के अंदर आने और बिना किसी कोज्ञात हुए बाहर जाने की व्यवस्था का लाभ राजा और उनकी फ़ौज उठा सकती थी किन्तु आक्रामक नहीं क्योंकि उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं होती थी।
* मदन महल निर्माण की आवश्यकताएँ :
सन्निकट विशाल और मजबूत गढ़ा का किला होने के बाद भी इस किले को बनाने का कारण राज्य विस्तार, सुरक्षा, प्रतिष्ठा, बसाहट, भण्डारण, रोजगार, शिल्प कौशल का विकास, सैन्य प्रशिक्षण था।इस किले ने हर उद्देश्य को पूर्ण भी किया।
* मदन महल का रूपांकन :
किले का आकार और विस्तार - महत्वपूर्ण व्यक्तियों, सैन्य दल, शस्त्रागार, पाकशाला, पशु, सैन्य अभ्यास, मनरंजन आदि के संपादन हेतु किले में पर्याप्त स्थान सुलभ था। राज महल अपेक्षाकृत छोटा रखा गया कि उससे अन्य गतिविधियाँ प्रभावित न हो सके।
विभिन्न भवनों की स्थिति - किले के अंदर महल, पशुशाला, अश्वशाला, शस्त्रागार, सैनिकों व सेवकों आदि के आवास आदि कई इमारतें थीं जिनके अवशेष ही अब शेष हैं। इन के आकार अपेक्षाकृत छोटे होने का कारण यह है कि समीप ही गढ़ा किले में वृहदाकारी ीअमरतें रही होंगीं जिन्हें मुगलों, अंग्रेजों और जन सामान्य ने बेरहमी से नष्ट कर दिया।
जल स्रोत - किले के अंदर कूप और बाहर अनेक सरोवर, निर्झर और बावड़ियाँ शुद्ध पेय जल सुलभ कराती थीं।
राज निवास - राज निवास (महल) बहुत छोटा होने का कारण यह है कि यह सर्वकालिक राज निवास नहीं था। यह अल्पकालिक प्रवास हेतु था। गोंडों की जीवन शैली अत्यंत सादगीपूर्ण था जबकि राजपूतों, मराठों और मुगलों की जीवन शैली अत्यंत शानशौकतपूर्ण और विलसितामय होती थी। इनसे तुलना करने पर गोंड़ों के महल या किले प्रभावित नहीं करते किंतु वास्तव में गोंड राजाओं ने जन-धन का अपव्यय निजी विलासिता के लिए न कर, आदर्श प्रस्तुत किया था। राज निवास में प्रवेश के लिए बनाई गयीं सीढ़ियाँ ऊँची, हैं ताकि उन पर सहजता से बिना आहट न चढ़ा जा सके। दरवाजे कम ऊँचाई बनाए गए हैं ताकि प्रवेश करते समय सिर झुकाकर घुसना पड़े। अवांछित आगंतुक या शत्रु के प्रवेश करने पर वह वार सके इसके पहले ही उसकी गर्दन काट दी जा सके। गोंड़ भूमिपुत्र थे, जमीन पर सोते थे। मुख्य कक्ष में जमीन पर लेते, बैठें या खड़े हों दीवार में छेद इस तरह बनाये गए हैं कि उनसे सुदूर बाह्य क्षेत्र पर नज़र रखी जा सके। यही नहीं जो छेद हैं वे दीवार की मोटाई में लंबवत नहीं, लहभग ३० अंश तिरछे हैं। इस कारण कक्ष के अंदर से निशाना साधकर बाहर शर-प्रहार किया जा सकता है किन्तु बाहर से अंदर निशाना नहीं साधा जा सकता। राजा की सुरक्षा हेतु अन्य भी अनेक व्यवस्थाएँ की गई थीं।
सैन्य दल - मदन महल में गोंडों की सेना का मुख्यालय नहीं था इसलिए यहाँ उतनी ही सेना रखी जाती थी जो राजा या अन्य महत्वपूर्ण अतिथियों तथा किले की सुरक्षा के लिए अनिवार्य थी। इस सैन्य दल का सतत जागरूक रहना और चुस्त-दुरुस्त रहना आवश्यक था। इसलिए सैनिकों के लिए बनाए गए आवास सुविधा पूर्ण तो थे, विलासिता पूर्ण नहीं।
पाक शाला - गोंडों का भोजन बहुत सादा था। वे माँसाहारी थे किन्तु पशु-पक्षियों को शौक के लिए नहीं मारते थे, केवल भोजन हेतु शिकार करते थे। ज्वार-बाजरा, कोड़ों-कुटकी, मक्का, अरहर, मूँग आदि उनके प्रिय खाद्यान्न थे। वे लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग करते थे। पाक शाला सामान्य कक्ष के तरह थी।
पशुशाला - पशुशाला में गाय और घोड़े मुख्य पशु थे जो इस किले में रखे जाते थे। बड़ी गजशाला और अश्वशाला वर्तमान जीवन बीमा संभागीय कार्यालय की भूमि पर था जिसे ध्वस्त कर इस कार्यालय की इमारत बनाई गयी।
* मदन महल का शिल्प और वास्तु :
ईकाइयों का निर्धारण, परिमाप तथा आकार, दिशावेध, लंबाई-चौड़ाई-ऊँचाई, द्वार-वातायन, कक्ष, प्रकाश तथा वायु संचरण, दीवालें और प्राचीरें, स्तंभ, छत, मेहराब, गुंबद, आले, मुँडेर, प्रतीक चिन्ह आदि में स्थानीयता सामग्री शिल्प और कला की प्रमुखता स्पष्ट है। यह भ्रम है कि गोंड़ी इमारतों पर मुग़ल स्थापत्य की छाप है। वास्तव में गोंड़ी सभ्यता और संस्कृति प्राचीनतम है। गोंड़ों के मकान झोपड़ीनुमा छोटे-छोटे, पत्थर (बोल्डर) और कच्ची ईंटों को को गारे से जोड़कर निर्मित होते थे। दीवारों में मलगे, कैंची, , दरवाजे खूँटियाँ आदि लकड़ी की होती थीं। छत बनाने के लिए बाँस, जूट, तेंदूपत्ते आदि का पयोग किया जाता था। चूने के गारे और अपक्की ईटों या आयताकार पत्थरों का उपयोग समृद्ध जनों के आवास हेतु किया जाता था। इसीलिये इस निर्माण सामग्री से बनी इमारत को भले ही वह छोटी हो 'महल' कहा जाना सर्वथा उचित है। सादगी गोंड़ जीवनशैली का अंग और वैशिष्ट्य थे, विपन्नता नहीं।
* मदन महल भावी विकास :
मदन महल क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विक्सित किये जाने की आवश्यकता और संभावना दोनों हैं। यहाँ के पर्यावरण और परिवेश को देखते हुए यहाँ लाखों की संख्या में बाँस, साल, सागौन, तेन्दु, पलाश, सीताफल, बीजा, महुआ, सेमल आदि के वृक्ष लगाए जाने चाहिए। यहाँ की पहाड़ियों में सर्पगन्धा, अश्वगंधा, ब्राम्ही, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा, वच, आर्टीमीशिया,लेमनग्रास, अकरकरा, सहजन जैसी आयुर्वेदिक औषधिजनक पौधों की रोपणी बनाई जानी चाहिए। इससे इन पहाड़ियों का क्षय होना बंद होगा। यहाँ के बैसाल्ट पत्थरों को तोड़ने पर तुरंत रोक लगाई जाए। यह शिलायें जबलपुर क्षेत्र को भूकंपरोधी बनाने में सहायक हैं। वन और औषधीय पौधों के विकास से भूमिगत जलस्तर ऊपर उठेगा। इन वनों में गिरनेवाला वर्षाजल कुओं। बवालियों, झरनों, नदियों में पहुँचेगा तो औषधीय गुणों से युक्त होगा जिसका पान करने से जन सामान्य को लाभ होगा। यह बड़ी मात्रा में सर्प रहते हैं जी गर्मी और बरसात में निकलते हैं। सर्प संग्रहालय बनाकर सर्प विष का उत्पादन किया जा सकता है। यहाँ तेंदुओं तथा मृगों का भी आवास रहा है। अनेक तरह के पक्षी यहाँ अभी भी रहते हैं। वन विकसित होने पर पक्षी अभयारण्य भी विक्सित किया जा सकता है। इन इमारतों को मूल रूप में पुनर्निर्मित कर उनमें गोंड़ सभ्यता और संस्कृति का संग्रहालय भी बनाया जा सकता है। वर्तमान में इस क्षेत्र में जो भी विकास योजनाएं हैं वे इस परिवेश और विरासत के अनुकूल नहीं हैं। इस क्षेत्र में नई इमारतें बनाना प्रतिबंधित कर, नगरीकरण से बचाकर प्रकृति के अनुकूल विकास कार्य किए जाने चाहिए।
५-७-२०२२