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मंगलवार, 9 मई 2023

सोनेट, नवगीत, टैगोर, लघुकथा, अवतार छंद, मोहन छंद, संपदा छंद,

सॉनेट 
आओ सीताराम रमैया
आभा जीवन में बिखराओ
ओम बना पतवार खिवैया 
भव भय मन से दूर भगाओ

सफल साधना हो जब तुम में
दिखे मोहिनी छवि कान्हा की
मन संजीवित हो ऋषि हम में
भरमा सके न छवि माया की

आओ, आकर कहीं न जाओ
जब लौं तुम तब लौं मन हर्षित 
राम राम कर, हाल सुनाओ
तुम बिन मन कैसे हो प्रमुदित 

जागेश्वर जू हमें जगाओ
फिर न जगाओ अगर सुलाओ
९-५-२०२३
•••
सॉनेट
चाह
चाह रहा मन भोग लगाए
जो पाया वह सब है जूठा
खट्टा तीखा फीका मीठा
कहाँ मिले जो कोई न खाए?
करूँ समर्पित पेय तुम्हें कुछ
खोजा लेकिन हार गया फिर
पिया जा चुका पहले ही सब
गया निराशा से मन ही बुझ।
सुमन चढ़ाऊँ किंतु पूर्व ही
किए समर्पित नभ को भू ने
छंद वाक् भी हैं न अछूते
छला गया मन प्रभु! खुद से ही
चाह अधूरी विकल कर रही
ग्रहण करो प्रभु! यही अछूती
९-५-२०२२
•••
द्विपदी
नहीं है दूरदर्शी नीति-नेता
सिसकते घाव युग युग तक कहेंगे
९-५-२०२१
***
गीत
*
काहे को रोना?, कोरोना आया है तो जाएगा भी
आदम पृथा पुत्र नभ बेटा, तुझे जीतकर गाएगा भी.....
*
सूर्य तनय हम सघन तिमिर में, जलकर जय प्रकाश की गाते
हों निराश क्यों?, पवनपुत्र के वारिस संजीवनि ले आते
सलिल-धार सिर धार सदाशिव, सर्प शशीश धरें निर्भय हो
को विद?, पूछ रहा है कोविद, कुछ खोकर कुछ पाएगा भी
नेह नर्मदा नित्य नहाकर, लहर-लहर लहराएगा भी....
*
एक आत्म दो कर्ण नेत्र त्रय, कर-पग चार, पाँच हैं नाते
षडरागी हम सप्त सुरों में, अष्ट अंग नव ग्रह संग गाते
दस इंद्रिय ग्यारह रुद्रों सम, द्वादश रवि धनतेरस-तेरहीं
रूप चौदशी आत्म दीप राजिव शतदल खिल पाएगा भी
सफल साधना नव आशा पुष्पा उपवन सुषमाएगा भी.....
*
जय प्रकाश की बोल बढ़ें जब, 'मावस भी पूनम बन जाए
ओम व्योम में गुंजित हो यदि, मन मंदिर में प्रभु मुसकाए
श्वास ग्रंथ के नवल पृष्ठ पर, आस कलम नित गीत लिख रही
अलंकार रस छंद भावमय कथ्य हृदय छू जाएगा ही
गीत प्रीत की रीत निभाने, मीत ध्वजा फहराएगा ही
९-५-२०२०
***
जागो रे!
रवींद्रनाथ ठाकुर
*
हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
जागो रे धीरे.
हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-छीन.
शक-हूण डीके पठान-मोगल एक देहे होलो लीन.
पश्चिमे आजी खुल आये द्वार
सेथाहते सबे आने उपहार
दिबे आर निबे, मिलाबे-मिलिबे.
जाबो ना फिरे.
एइ भारतेर महामानवेर सागर तीरे.
*
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*
हे मेरे मन! पुण्य तीर्थ में जागो धीरे रे.
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
*
आर्य-अनार्य यहीं थे, आए यहीं थे द्राविड़-चीन.
हूण पठन मुग़ल शक, सब हैं एक देह में लीन..
खुले आज पश्चिम के द्वार,
सभी ग्रहण कर लें उपहार.
दे दो-ले लो, मिलो-मिलाओ
जाओ ना फिर रे...
*
इस भारत के महामनुज सागर के तीरे रे..
जागो धीरे रे...
९-५-२०१८
***
एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा
गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।
यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***
भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।
***
लघुकथा
सफेदपोश तबका
देश के विकास और निर्माण की कथा जैसी होती है वैसी दिखती नहीं, और जैसी दिखती है वैसी दिखती नहीं.... क्या कहा?, नहीं समझे?... कोइ बात नहीं समझाता हूँ.
किसी देश का विकास उत्पादन से होता है. उत्पादन सिर्फ दो वर्ग करते हैं किसान और मजदूर. उत्पादनकर्ता की समझ बढ़ाने के लिए शिक्षक, तकनीक हेतु अभियंता तथा स्वास्थ्य हेतु चिकित्सक, शांति व्यवस्था हेतु पुलिस तथा विवाद सुलझाने हेतु न्यायालय ये पाँच वर्ग आवश्यक हैं. शेष सभी वर्ग अनुत्पादक तथा अर्थ व्यवस्था पर भार होते हैं. -वक्ता ने कहा.
फिर तो नेता, अफसर, व्यापारी और बाबू अर्थव्यवस्था पर भार हुए? क्यों न इन्हें हटा दिया जाए?-किसी ने पूछा.
भार ही तो हुए. ये कितने भी अधिक हों हमेशा खुद को कम बताएँगे और अपने अधिकार, वेतन और सुविधाएं बढ़ाते जायेंगे. यह शोषक वर्ग प्रशासन के नाम पर पुलिस के सहारे सब पर लद जाता है. उत्पादक और उत्पादन-सहायक वर्ग का शोषण करता है. सारे काले कारनामे करने के बाद भी कहलाता है 'सफेदपोश तबका'.
***
एक आनुप्रसिक दोहा
*
दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
***
लघुकथा
धुँधला विवेक
संसार में अन्याय, अत्याचार और पीड़ा देखकर संदेह होता है कि ईश्वर नहीं है. जरा से बच्चे को इतनी बीमारियाँ, बेईमानों को सफलता, मेहनती की फाकाकशी देखकर जगता है या तो ईश्वर है ही नहीं या अविवेकी है? - एक ने कहा.
संसार में आनेवाले और संसार से जानेवाले हर जीव के कर्मों का खाता होता है. ठीक वैसे ही जैसे बैंक में घुसने और बैंक से निकलनेवाले का होता है. कोई खाली हाथ जाकर गड्डियाँ लाता है तो कोई गड्डी ले जाकर खाली हाथ निकलता है. हम इसे अंधेरगर्दी नहीं कहते क्योंकि हम जानते हैं कि कोई पहले जमा किया धन निकाल रहा है, कोई आगे के लिए जमा कर रहा है या कर्ज़ चुका रहा है. किसी जीव की कर्म पुस्तक हम नहीं जानते, इसलिए उसे मिल रहा फल हमें अनुचित प्रतीत होता है.
ईश्वर परम न्यायी और निष्पक्ष है तो वह करुणासागर नहीं हो सकता. कोई व्यक्ति कितना ही प्रसाद चढ़ाए या प्रार्थना करे, अपने कर्म फल से बच नहीं सकता. दूसरे ने समझाया.
ऐसा है तो हर धर्म में पुजारी वर्ग कर्मकांड और पूजा-पाठ क्यों करता है?
पेट पालने के लिए और यजमान को गलत राह पर ले जाता है किसी भी प्रकार राहत पाने की इच्छा और उसका धुंधला विवेक.
***
लघुकथा
मीठा-मीठा गप्प
*
आपको गंभीर बीमारी है. इसकी चिकित्सा लंबी और खर्चीली है. हम पूरा प्रयास करेंगे पर सफलता आपके शरीर द्वारा इलाज के प्रति की जाने वाली प्रतिक्रिया पर निर्भर है. तत्काल इलाज न प्रारंभ करने पर यह बीमारी बहुत तेजी से फैलती है. तब इसका कोई उपचार संभव नहीं होता. आप निराश न हों, अभिशाप में वरदान यह है की आरम्भ में ही चिकित्सा हो तो यह पूरी तरह ठीक हो जाती है. चिकित्सक अपनी तरफ से मेरा मनोबल बढ़ाने का पूरा - पूरा प्रयास कर रहा था.
मरता क्या न करता? किसी तरह धन की व्यवस्था की और चिकित्सा आरम्भ हुई. मझे ईश्वर से बहुत शिकायत थी कि मैंने कभी किसी का कुछ बुरा नहीं किया. फिर साथ ऐसा क्यों हुआ? अस्पताल में देखा मेरी अपेक्षा बहुत कम आर्थिक संसाधन वाले, बहुत कम आयु के बच्चे, कठिन चिकित्सा प्रक्रिया से गुजर रहे थे. मुझे उनके आगे अपनी पीड़ा बिसर जाती. उनके दुःख से अपना दुःख बहुत कम प्रतीत होता.
अस्पताल प्रांगण में स्थापित भगवान् की मूर्ति पर दृष्टि पड़ी तो लगा भगवान् पूछ रहे हैं मैं निर्मम हूँ या करूँ इसकी जाँच हर व्यक्ति अपने-अपने कष्ट के समय ही क्यों करता है, आनंद के समय क्यों नहीं करता? खुशियाँ तुम्हारे कर्म का परिणाम है तो कष्ट के लिए भी तुम्हारे कर्म ही कारण हैं न?. मैं कुछ पाती इसके पहले ही अपना पल्लू खिंचते देख पीछे मुड़कर देखा. कीमोथिरेपी कराकर बाहर आया वही छोटा सा बच्चा था जिसे मैंने वादा किया था कि बीमारी के कारण उसकी पढ़ाई की हानि नहीं हो इसलिए मुझसे पूछ लिया करे. एक हाथ में किताब लिए पूछ रहा था- इस मुहावरे का अर्थ बताइए 'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू.'
९-५-२०१७
***
नवगीत:
*
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
बेलाइसेंसी कारोंवालों शर्म करो
मदहोशी में जब कोई दुष्कर्म करो
माफी मांगों, सजा भोग लो आगे आ
जिनको कुचला उन्हें पाल कुछ धर्म करो
धन-दौलत पर बहुत अधिक इतराओ मत
बहुत अधिक मोटा मत अपना चर्म करो
दिन भर मेहनत कर
जो थककर सोते हैं
पड़ते छाले उनके
हाथों-पांवों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
महलों के अंदर रहकर तुम ऐश करो
किसने दिया तुम्हें हक़ ड्राइविंग रैश करो
येन-केन बचने के लिये वकील लगा
झूठे लाओ गवाह खर्च नित कैश करो
चुल्लू भर पानी में जाकर डूब मारो
सत्य-असत्य कोर्ट में मत तुम मैश करो
न्यायालय में न्याय
तनिक हो जाने दो
जनगण क्यों चुप्पी
साधे ज़ज़्बातों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
स्वार्थ सध रहे जिनके वे ही संग जुटे
उनकी सोचो जिनके जीवन-ख्वाब लुटे
जो बेवक़्त बोलते कड़वे बोल यहाँ
जनता को मिल जाएँ अगर बेभाव कुटें
कहे शरीयत जान, जान के बदले दो
दम है मंज़ूर करो, मसला सुलटे
हो मासूम अगर तो
माँगो दण्ड स्वयं
लज्जित होना सीखो
हुए गुनाहों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
८-५-२०१५
***
छंद सलिला:
अवतार छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
दुष्ट धरा पर जब बढ़ें / तभी अवतार हो
तेरह दस यति, रगण रख़ / अंत रसधार हो
सत-शिव-सुंदर ज़िंदगी / प्यार ही प्यार हो
सत-चित-आनँद हो जहाँ / दस दिश दुलार हो
उदाहरण:
१. अवतार विष्णु ने लिये / सब पाप नष्ट हो
सज्जन सभी प्रसन्न हों / किंचित न कष्ट हो
अधर्म का विनाश करें / धर्म ही सार है-
ईश्वर की आराधना / सच मान प्यार है
२. धरती की दुर्दशा / सब ओर गंदगी
पर्यावरण सुधारना / ईश की बंदगी
दूर करें प्रदूषण / धरा हो उर्वरा
तरसें लेनें जन्म हरि / स्वर्ग है माँ धरा
३. प्रिय की मुखछवि देखती / मूँदकर नयन मैं
विहँस मिलन पल लेखती / जाग-कर शयन मैं
मुई बेसुधी हुई सुध / मैं नहीं मैं रही-
चक्षु से बही जलधार / मैं छिपाती रही.
६-५-२०१४
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
गीत:
*
आन के स्तन न होते, किस तरह तन पुष्ट होता
जान कैसे जान पाती, मान कब संतुष्ट होता?
*
पय रहे पी निरन्तर विष को उगलते हम न थकते
लक्ष्य भूले पग भटकते थक गये फ़िर भी न थकते
मौन तकते हैं गगन को कहीँ क़ोई पथ दिखा दे
काश! अपनापन न अपनोँ से कभी भी रुष्ट होता
*
पय पिया संग-संग अचेतन को मिली थी चेतना भी
पयस्वनि ने कब बतायी उसे कैसी वेदना थी?
प्यार संग तकरार या इंकार को स्वीकार करना
काश! हम भी सीख पाते तो मनस परिपुष्ट होता
*
पय पिला पाला न लेकिन मोल माँगा कभी जिसने
वंदनीया है वही, हो उऋण उससे कोई कैसे?
आन
भी वह, मान भी वह, जान भी वह, प्राण भी वह
खान ममता की न होती, दान कैसे तुष्ट होता?
६-५-२०१४
***
गीत:
.
जैसा किया है तूने
वैसा ही तू भरेगा
.
कभी किसी को धमकाता है
कुचल किसी को मुस्काता है
दुर्व्यवहार नायिकाओं से
करता, दानव बन जाता है
मार निरीह जानवर हँसता
कभी न किंचित शर्माता है
बख्शा नहीं किसी को
कब तक बोल बचेगा
.
सौ सुनार की भले सुहाये
एक लुहार जयी हो जाए
अगर झूठ पर सच भारी हो
बददिमाग रस्ते पर आये
चक्की पीस जेल में जाकर
ज्ञान-चक्षु शायद खुल जाए
साये से अपने खुद ही
रातों में तू डरेगा
६.५.२०१५
***
कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना फिरिया जेओ ना प्रभु! का भावानुवाद:
(’नैवेद्य’ नामक कविता संग्रह में ५वीं कविता)
*
”जोदि ए आमार हृदोयदुआर
बोन्धो रोहे गो कोभु
द्वार भेंगे तुमि एशो मोर प्राणे
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन ए बीणार तारे
तोबो प्रियनाम नाहि झोंकारे
दोया कोरे तुमि क्षणेक दाँडाओ
फिरिया जेओ ना प्रभु!
तोबो आह्वाने जोदि कोभु मोर
नाहि भेंगे जाय शुप्तिर घोर
बोज्रोबेदोने जागाओ आमाय
फिरिया जेओ ना प्रभु!
जोदि कोनो दिन तोमार आशोने
आर-काहारेओ बोशाई जोतोने
चिरोदिबोशेर हे राजा आमार
फिरिया जेओ ना प्रभु!"
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद -द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
***
मुक्तक :
*
अब तक सुना था, दिखा बाड़ खेत खा गयी
चंदा को अमावास की रात खूब भा गयी
चाहा था न्याय ने कि उसे जेल ही मिले
कुछ जम गया जुगाड़ उसे बेल भा गयी
*
कितना शरीफ है कि कुचल भूल गया है
पी ली तो क्या, दुश्मन ने अधिक तूल दिया है
झूठे गवाह लाये उसका पेट पालने-
फूल रौंद भोंक उसे शूल दिया है
*
कितने शरीफ हो न बताने की बात है
कैसे भी हो गुनाह छिपाने की बात है
दुनिया से बच गये भी तो देगा सजा खुदा
आईने से भी आँख चुराने की बात है
***
दोहा सलिला:
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
९-५-२०१५
***
छंद सलिला:
मोहन छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ५-६-६-६, चरणांत गुरु लघु लघु गुरु
लक्षण छंद:
गोपियाँ / मोहन के / संग रास / खेल रहीं
राधिका / कान्हा के / रंग रंगी / मेल रहीं
पाँच पग / छह छह छह / सखी रखे / साथ-साथ
कहीं गुरु / लघु, लघु गुुरु / कहीं, गहें / हाथ-हाथ
उदाहरण:
१. सुरमयी / शाम मिले / सजन शर्त / हार गयी
खिलखिला / लाल हुई / चंद्र देख / भाग गयी
रात ने / जाल बिछा / तारों के / दीप जला
चाँद को / मोह लिया / हवा बही / हाय छला
२. कभी खुशी / गम कभी / कभी छाँव / धूप कभी
नयन नम / करो न मन / नमन करो / आज अभी
कभी तम / उजास में / आस प्यास / साथ मिले
कभी हँस / प्रयास में / आम-खास / हाथ मिले
३. प्यार में / हार जीत / जीत हार / प्यार करो
रात भी / दिवस लगे / दिवस रात / प्यार वरो
आह भी / वाह लगे / डाह तजो / चाह करो
आस को / प्यास करो / त्रास सहो / हास करो
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
छंद सलिला:
संपदा छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति ११-१२, चरणांत लघु गुरु लघु (जगण/पयोधर)
लक्षण छंद:
शक्ति-शारदा-रमा / मातृ शक्तियाँ सप्राण
सदय हुईं मनुज पर / पीड़ा से मुक्त प्राण
ग्यारह-बारह सुयति / भाव सरस लय निनाद
मधुर छंद संपदा / अंत जगण का प्रसाद
उदाहरण:
१. मीत! गढ़ें नव रीत / आओ! करें शुचि प्रीत
मौन न चाहें और / गायें मधुरतम गीत
मन को मन से जोड़ / समय से लें हम होड़
दुनिया माने हार / सके मत लेकिन तोड़
२. जनता से किया जो / वायदा न भूल आज
खुद ही बनाया जो / कायदा न भूल आज
जनगण की चाह जो / पूरी कर वाह वाह
हरदम हो देश का / फायदा न भूल आज
३. मन मसोसना न मन / जो न सही, वह न ठान
हैं न जन जो सज्जन / उनको मत मीत मान
धन-पद-बल स्वार्थ का / कलम कभी कर न गान-
निर्बल के परम बल / राम सत्य 'सलिल' मान.
९-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा ४-
शब्द ब्रह्म उच्चार
*
अजर अमर अक्षर अजित, निराकार साकार
अगम अनाहद नाद है, शब्द ब्रह्म उच्चार
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सकल सुरासुर सामिनी, सुणि माता सरसत्ति
विनय करीन इ वीनवुँ, मुझ तउ अविरल मत्ति
सुरासुरों की स्वामिनी, सुनिए माँ सरस्वति
विनय करूँ सर नवाकर, निर्मल दीजिए मति
संवत् १६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्त दोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधी नियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहीं है, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतः शुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं-
१. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित "ह" जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित "हा" जैसा करें।
२. विसर्ग के पूर्व "अ", "आ", "इ", "उ", "ए" "ऐ", या "ओ" हो तो उच्चार क्रमशः "ह", "हा", "हि", "हु", "हि", "हि" या "हो" करें।
यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि।
३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः.
४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर "ह" जैसा करें।
यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः.
५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें।
यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा
यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि।
६. "सः" के बाद "अ" आने पर दोनों मिलकर "सोऽ" हो जाते हैं।
यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्.
७. "सः" के बाद "अ" के अलावा अन्य वर्ण हो तो "सः" का विसर्ग लुप्त हो जाता है।
८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर "ओ" बनता है।
यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः.
९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है।
यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा .
१०. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर "र" होगा।
यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्.
११. विसर्ग के पूर्व "अ" या "आ" को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद "र" हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है।
यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्।
उच्चार चर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमों के आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्द बनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनी निपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ की प्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे।
दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार ‌
बढ़ा शब्द भंडार दे, भाषा शिल्प सँवार ‌ ‌
शब्दाक्षर के मेल से, प्रगटें अभिनव अर्थ ‌
जिन्हें न ज्ञात रहस्य यह, वे कर रहे अनर्थ ‌ ‌
गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद
गद्य पद्य अभिव्यक्ति की, दो शैलियाँ सुरम्य ‌
बिंब भाव रस नर्मदा, सलिला सलिल अदम्य ‌ ‌
जो कवि पिंगल व्याकरण, पढ़े समझ हो दक्ष ‌
बिरले ही कवि पा सकें, यश उसके समकक्ष ‌ ‌
कविता रच रसखान सी, दे सबको आनंद ‌
रसनिधि बन रसलीन कर, हुलस सरस गा छंद ‌ ‌
भाषा द्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं। गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करता है। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगल करता है।
कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लिये कुछ नियम बनाये गये हैं जिनका समुच्चय "पिंगल" कहलाता है। गद्य पर व्याकरण का नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रण होता है।
छंद वह सांचा है जिसके अनुसार कविता ढलती है। छंद वह पैमाना है जिस पर कविता नापी जाती है। छंद वह कसौटी है जिस पर कसकर कविता को खरा या खोटा कहा जाता है। पिंगल द्वारा तय किये गये नियमों के अनुसार लिखी गयी कविता "छंद" कहलाती है। वर्णों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, गति, यति आदि के आधार पर की गयी रचना को छंद कहते हैं। छंद के तीन प्रकार मात्रिक, वर्णिक तथा मुक्त हैं। मात्रिक व वर्णिक छंदों के उपविभाग सममात्रिक, अर्ध सममात्रिक तथा विषम मात्रिक हैं।
दोहा अर्ध सम मात्रिक छंद है। मुक्त छंद में रची गयी कविता भी छंदमुक्त या छंदहीन नहीं होती।
छंद के अंग
छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है।
वर्ण- किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता।
मात्रा- वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा‌ तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है।
इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं।
उदाहरण- गगन = ।‌+। ‌+। ‌ = ३, भाषा = ऽ + ऽ = ४.
पाद- पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ में होता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों के कारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहा गया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं।
गति- छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह को गति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों के उठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय से अन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता।
यति- छंद पाठ के समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यति होती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण के बीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है।
तुक- दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य व मधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण सम तुकांती होते हैं।
गण- तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्र में से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनी जाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा।
क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ
१. यगण यमाता ‌ ऽऽ = ५
२. मगण मातारा ऽऽऽ = ६
३. तगण ताराज ऽऽ ‌ = ५
४. रगण राजभा ऽ ‌ ऽ = ५
५. जगण जभान ‌ ऽ ‌ = ४
६. भगण भानस ऽ ‌ ‌ = ४
७. नगण नसल ‌ ‌ ‌ = ३
८. सगण सलगा ‌ ‌ ऽ = ४
उदित उदय गिरि मंच पर , रघुवर बाल पतंग । ‌ - प्रथम पद
प्रथम विषम चरण यति द्वितीय सम चरण यति
विकसे संत सरोज सब , हरषे लोचन भ्रंग ‌‌‌ ‌ । - द्वितीय पद
तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति
आगामी पाठ में बिम्ब, प्रतीक, भाव, शैली, संधि, अलंकार आदि काव्य तत्वों के साथ दोहा के लक्षण व वैशिष्ट्य की चर्चा होगी.
९-५-२०१३ ***
मुक्तिका:
तुम क्या जानो
*
तुम क्या जानो कितना सुख है दर्दों की पहुनाई में.
नाम हुआ करता आशिक का गली-गली रुसवाई में..

उषा और संझा की लाली अनायास ही साथ मिली.
कली कमल की खिली-अधखिली नैनों में, अंगड़ाई में..

चने चबाते थे लोहे के, किन्तु न अब वे दाँत रहे.
कहे बुढ़ापा किससे क्या-क्या कर गुजरा तरुणाई में..

सरस परस दोहों-गीतों का सुकूं जान को देता है.
चैन रूह को मिलते देखा गजलों में, रूबाई में..

'सलिल' उजाला सभी चाहते, लेकिन वह खलता भी है.
तृषित पथिक को राहत मिलती अमराई - परछाँई में
९-५-२०११
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शंका समाधान:
उसने क्यों सिरजा मुझे, मकसद जाने कौन?
जिससे पूछा वही चुप, मैं खुद तोडूँ मौन.
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मकसद केवल एक है, मिट्टी ले आकार.
हर कंकर शंकर बने, नियति करे स्वीकार..
हाथों की रेखा कहे, मिटा न मुझको मीत.
अन्यों से ज्यादा बड़ी, खींच- सही है रीत..
***
दोहा दुनिया

छिपी वाह में आह है, इससे बचना यार.
जग-जीवन में लुटाना, बिना मोल नित प्यार.
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वह तो केवल बनाता, टूट रहे हम आप.
अगर न टूटें तो कहो, कैसें सकते व्याप?
*
बिंदु सिन्धु हो बिखरकर, सिन्धु सिमटकर बिंदु.
तारे हैं अगणित मगर, सिर्फ एक है इंदु..
*
जो पैसों से कर रहा, तू वह है व्यापार.
माँ की ममता का दिया, सिला कभी क्या यार.
*
बहिना ने तुझको दिया, प्रतिपल नेह-दुलार.
तू दे पाया क्या उसे?, कर ले तनिक विचार
*
पत्नी ने तन-मन लुटा, किया तुझे स्वीकार.
तू भी क्या उस पर कभी सब कुछ पाया वार?
*
अगर नहीं तो यह बता, किसका कितना दोष.
प्यार न क्यों दे-ले सका, अब मत हो मदहोश..
*
बने-बनाया कुछ नहीं, खुद जाते हम टूट.
दोष दे रहे और को, बोल रहे हैं झूठ.
*
वह क्यों तोड़ेगा कभी, वह है रचनाकार.
चल मिलकर कुछ रचें हम, शून्य गहे आकार..
*
अमर नाथ वह मर्त्य हम, व्यर्थ बनते मूर्ति
पूज रहे बस इसलिए, करे स्वार्थ की पूर्ति

*
***
विचारणीय :
अगर न होता काश तो.......
*
काश न होता सलिल' तो, ना होता अवकाश.
कहिये कैसे देखते हम, सिर पर आकाश?.
रवि शशि दीपक बल्ब भी, हो जाते बेकार-
गहन तिमिर में किस तरह, मिलता कहें प्रकाश?.
धरना देता अतिथि जब, अनचाहा चढ़ शीश.
मन ही मन कर जोड़कर, कहते अब जा काश..
९-५-२०१०
*

आयुर्वेद, धतूरा, ममता सैनी

गुणकारी है धतूरा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
परिचय- 
गुणकारी है धतूरा, मातुल कनक न भूल।
करता है उन्मत्त यह, खिलते सुंदर फूल।१।
धतूरा गुणकारी वनस्पति है। इसे मातुल तथा कनक भी कहा जाता है। यह उन्मत्त कार देता है। धतूरा के पौधे पर सुंदर पुष्प खिलते हैं।१।   
*
सोलेनशिआ सुनाम है, अरबी में दातूर।
थॉर्न एप्पल इंग्लैंड में, फारस में तातूर।२।
धतूरा को वनस्पति शास्त्र में सोलेनशिआ, अरबी में दातूर, इंग्लिश में थॉर्न एप्पल, तथा फारसी में तातूर कहा जाता है।२। 
*
सुश्रुत-चरक थे सुपरिचित, जान सके गुण-धर्म।
गणना की विष वर्ग में, लक्ष्य चिकित्सा कर्म।३।
*
महर्षि सुश्रुत तथा महर्षि चरक धतूरा से भली-भाँति परिचित थे। उन्होंने धतूरा के गुण-धर्म जानकार इसे विष वर्ग में रखा तथा इसके अध्ययन का लक्ष्य चिकित्सा निर्धारत किया।३।
पहचान-
कद पौधे का तीन फुट, हरे नुकीले पर्ण। 
पुष्प पाँच इंची खिलें, पर्पल-श्वेत विवर्ण।४। 
धतूरे के पौधे का औसत कद लगभग ३ फुट होता है। इसके पत्ते हरे-नुकीले होते हैं। इसकी शकहाओं पर बैगनी-सफेद रंग के लाह भाग ५ इंच लंबे फूल खिलते हैं।४। 
*
काँटों सज्जित गोल फल, चपटे भूरे बीज। 
वृक्काकारी श्याम भी, चुभें शूल हो खीझ।५।
इसका फल गोलाकार होता है जिस पर सब ओर काँटे होते हैं। इसके बीज आकार में चपटे तथा भूरे अथवा वृक्क के आकार के काले रंग के रंग के होते हैं। इसके नुकीले काँटे चुभ सकते हैं।५।  
*
उत्पाद- 
मिलता हायोसायमिन, हायोसीन सुक्षार। 
राल-तेल भी प्राप्त हो, जहँ-तहँ उगे उदार।६।
धतूरा से  हायोसायमिन तथा हायोसीन नामक क्षार प्राप्त होता है। धतूरा से रायल तथा तेल भी प्राप्त किया जाता है। इसका पौधा जहाँ-तहाँ कहीं भी ऊग जाता है।६।
*
उपयोग/उपचार- 
वायु मद
अग्नि वायु मद दे बढ़ा, करे लीख-जूँ नष्ट। 
ज्वर कृमि खुजली कोढ़ कफ, व्रण के हरता कष्ट।७।
धतूरा का सेवन अग्नि तथा वायु की वृद्धि करता है। धतूरा बुखार, कृमि, खुजली, कोढ़, कफ तथा घाव को ठीक करता है।७।
*
रूखा भ्रमकारी बहुत, कड़वा भी लें मान।
श्वास नली के रोग में, बहु उपयोगी जान।८।
धतूरा बहुत रूखा, भ्रम पैदा करने वाला तथा कड़वा होती है। यह श्वास संबंधी रोगों में बौट उपयोगी है।८।
*
सिर-पीड़ा / स्तन सूजन 
नित्य बीज दो खाइए, सिर-पीड़ा हो दूर। 
स्तन सूजे बाँधें तुरत, पत्ते गर्म हुजूर।९।
धतीर के दो बीज रोज खाने से सिर की पीड़ा दूर होती है।९।
*
स्तन में गाँठ 
गाँठें हो स्तन में अगर, दूध अधिक हो तात।  
ताजा पत्ते बाँधिए, मिले व्याधि को मात।१०।
स्तन में गांठ होने पर धतीर के ताजे पत्ते बाँधने से लाभ होता है तथा दूध अधिक उतरता है।१०।  
*
सिर में जूँ 
राइ-तेल में चौगुना, पत्तों का रस डाल।
पका लगाएँ जूँ मिटे, श्याम स्वस्थ हो बाल।११।
राइ के तेल में चार गुना धतूरा के पत्तों का रस डालकार लगाने पर जूँ व लीखें  नष्ट हो जाती हैं तथा बाल स्वस्थ्य और काले होते हैं।११। 
*
उन्माद 
पित्त पापड़ा अर्क में, बीज धतूरा श्याम। 
घोंट पिएँ उन्माद हो, शांत मिले आराम।१२।
पिट पापड़ा के यार्क में काले धतूरा-बीज घोंटकर पीने से उन्माद शांत होकर आराम मिलता है।१२। 
*
सूर्य-ताप/प्रसव का उन्माद 
बीज धतूरा में मिला, काली मिर्च समान। 
पानी ले करिए खरल, गोली बना सुजान।१३ अ।
धतूरा के बीज में समान मात्रा में काली मिर्च मिलाकर खरल में कूटकर पानी के साथ गोली बनाकर जानकार रख लेते हैं।१३ अ। 
सूर्य-ताप आघात या, प्रसव जनित उन्माद।
रत्ती भर मक्खन सहित, देकर करें निदान।१३ आ।
सूर्य की गर्मी से उत्पन्न आघात या प्रसव से हुए उन्माद में रत्ती भर मक्खन के साथ एक गोली खाने पर रोग दूर होता है ।१३ आ।
*
नेत्र पीड़ा 
नेत्र दुखें यदि हो सखे!, शोथ-दाह से लाल। 
पत्तों का रस लेपिए, दुःख हो दूर कमाल।१४।
हे मित्र! यदि शोथ-दाह से लाल होकर नत्र दुखते हों तो धतूरा के पत्तों के रस का लेप करिए। आराम मिलेगा।१४।
*
श्वास रोग 
पत्ते फल शाखा सुखा, कूट बनाएँ चूर्ण। 
धूम्रपान से दूर हो, श्वास रोग संपूर्ण।१५।
धतूरे के पत्ते, फल शाखा आदि को सुखाकर कूटें तथा चूर्ण बना लें। इसके धुएँ का सेवन करने से श्वास रोग दूर होते हैं।१५।
*
दमा 
अधसूखे पत्ते उठा, टुकड़े रत्ती चार।
ले बीड़ी पी लीजिए, हों न दमा-बीमार।१६।
धतूरा के अधसूखे चार पत्तों की बीड़ी बनाकर पीने से दमा नहीं होता।१६। 
*
बीज तमाखू जवांसा, अपामार्ग समभाग।
चूर्ण चिलम में पिएँ हो, दमा दूर बड़भाग।१७।
धतूरा-बीज, तमाखू, जवांसा तथा अपामार्ग को समान मातर में मिलाकर चूर्ण बना लें। इसे चिलम में भरकर पीने से दमा का रोग दूर हो जाता है।१७। 
*
चूर्ण, धतूरा तमाखू, शोरा काली चाय।  
ले समान बीड़ी पिएँ, रोके दमा उपाय।१८।
दमा दूर करने के लिए धतूरा, तमाखू, शोर तथा काली चाय के चूर्ण की बीड़ी पिएँ। यह दमा को रोकती है ।१८। 
*
हैजा 
हैजे का उपचार है, मातुल फूल-पराग। 
रखें बतासे में निगल, हैजा मिटे सुभाग।१९।
धतूरे के फूल के पराग को बतासे के साथ खाने से हैजा रोग दूर होता है ।१९।
*
गर्भ धारण 
फल चूरन घी शहद दें, चटा गर्भ हित आप। 
लें चौथाई ग्राम ही, हर्ष सके तब व्याप।२०।
गर्भ धारण करने के लिए धतूरा फल का चूर्ण, घी तथा शहद की चौथाई ग्राम मात्रा कहता दें तो गर्भ थराने से खुशी होती है।२०।  
*
वात खुजली
पर्ण फूल फल शाख जड़, मिला पका तिल-तेल। 
मलें वात खुजली मिटे, व्यर्थ न पीड़ा झेल।२१। 
खुजली होने पर व्यर्थ पीड़ा मत झेलिए। धतूरे के पत्तों, फूलों, फलों तथा जड़ों को तिल के तेल में पका कर मलने से खुजली दूर होती है।२१।
*
अस्थि जोड़ पीड़ा
सत दें आधा ग्रेन यदि, तीन बार नित आप। 
अस्थि जोड़ पीड़ा नहीं, सके आपको व्याप।२२।
धतूरा का आधा ग्रेन सत दिन में तीन बार लेने से अस्थि-जोड़ की पीड़ा नहीं होती।२२। 
*
पर्ण धतूरा लेपिए, बाँधें पुलटिस रोज। 
हड्डी-पीड़ा दूर हो, हो चेहरे पर ओज।२३।
धतूरा के पत्तों को पीसकर रोज लेप लगाएँ तथा पुलटिस बाँधें तो हड्डी का दर्द दूर होता है तथा चेहरे पर चमक आती है।२३।
*
सूजन 
पर्ण पीसकर मिला लें, शिलाजीत कर लेप। 
अंडकोश फुफ्फुस उदर, सूजन हो विक्षेप।२४।
अंधकोश, फुफ्फुस या उदर में सूजन होने पर धतूरा के पत्तों को पीसकर शिलाजीत के साथ मिलाकर लेप करने से सूजन दूर हो जाती है।२४।
*
ऐंद्रिक शिथिलता 
बीज धतूरा अकरकस, लौंग वटी खा नित्य। 
काम साधना कीजिए, हो आनंद अनित्य।२५।
धतूरा के बीज, अकरकस तथा लौंग को पीसकर गोली बना लें। इसका नित्य सेवन करने से काम शक्ति बढ़ती है। इसे खाकर काम की साधना कीजिए, अधिक आनंद मिलेगा।२५।      
*
तेल धतूरा बीज का, तलवों पर मल रात। 
करें प्रिया-सहवास हो, स्तंभन बहु भाँत।२६।
अपने तलवों पर धतूरा के बीजों का तेल मलकर रात को प्रेयसी के साथ सहवास करिए, अधिक और तरह-तरह से स्तंभन कार सकेंगे।२६।
*
पीस धतूरा बीज-फल, मिला दूध में मीत।
दही जमा घी निकालें, रखें पान में रीत।२७ अ। 
धतूरा के बीज-फल को पीसकर दूध में मिला लें। इसका दही जमाकर घी निकालें। इस घी को पान के पत्ते में रखकर पान बना लें।२७ अ। 
खाएँ बाजीकरण हो, करे शिथिलता दूर। 
कामेन्द्रिय की मिले, सुखानंद भरपूर।२७ आ। 
यह पान खाने से बाजीकरण की तरह प्रभाव होता है। लिंग की शिथिलता दूर होती है और कांक्रीय का भरपूर आनंद मिलता है।२७ आ।
*
मलेरिया
बीज-धतूरा जलाकर, सुबह-शाम लें राख।
हो मलेरिया दूर झट, लगे न ज्वर को पाख।२८।
*
धतूरे के बीज को जलाकर बनी रख का सुबह-शाम सेवन कीजिए। मलेरिया का ज्वार अधिक नहीं चढ़ सकेगा तथा रोग दूर हो जाएगा।२८।
*
कनक बीज का चूर्ण खा, ज्वर आने के पूर्व। 
ज्वर को दूर भगाइए, हो आराम अपूर्व।२९।
धतूरे के बीज का चूर्ण  यदि बुखार आने के पूर्व या तुरंत बाद खा लें तो तुरंत आराम होता है।२९।
*
पान धतूरा पर्ण अरु, काली मिर्ची पीस।
वटी बना खा ज्वर मिटे, रहें निपोरे खीस।३० अ। 
पान, धतूरा का पत्ता और काली मिर्च को मिलाकर पीस लें। इसकी गोली बनाकर, ज्वर आने पर एक गोली खालें, ज्वर दूर हो जाएगा।३० अ।  
सौंफ अर्क के साथ खा, करिए दूर प्रमेह। 
है इलाज यह शर्तिया, तनिक नहीं संदेह।३० आ। 
प्रमेह होने पर सौंफ के यार्क के साथ एक गोली खाएँ। यह शर्तिया उपचार है३० आ। 
*
तिजारी
दही-पर्ण रस का करें, सेवन फिर विश्राम। 
रोग तिजारी का मिटे, झट मिलता आराम।३१।
तिजारी रोग होने पर धतूरे के पत्तों का रस तथा दही का सेवन कार आराम कीजिए। तुरंत आराम मिलता है।३१।
*
बिच्छू-काटा
पत्तों की लुगदी बना, बाँध दीजिए घाव।
बिच्छू-काटा ठीक हो, पार लग सके नाव।३२।
बिच्छू के काटने पर धतूरा के पत्तों को पीसकार बनाई लुगदी बाँध दें। दर्द तथा जहर दूर होकर तुरंत आराम मिलता है।३२।
*
पका घाव 
पीप घाव की धोइए, जल ले थोड़ा गर्म। 
कनक-पत्र पुलटिस बँधे, पीर मिटे हो नर्म।३३।
घाव पक जाने पर कुनकुने पानी से धोकर, धतूरा के पत्तों को से  बनाई लुगदी की पुलटिस बाँध लें। घाव नरम होकर दर्द मिट जाता है।३३। 
*
कर्ण शोथ
कर्ण शोथ हो लगाएँ, रस गाढ़ा रह मौन। 
सूजन-पीड़ा घटे सब, पूछें पीड़ित कौन।३४।
कान में शोथ होने पर धतूरा का गाढ़ा रस लगाएँ। सूजन और दर्द तुरंत दूर हो जाता है।  
*
हो मवाद यदि कान में, गंधक सरसों-तेल।
पर्ण धतूरा-रस मिला, डालें मिटे झमेल।३५।
कान में मवाद होने पर गंधक, सरसों का तेल, धतूरा के पत्तों का रस मिलकर डालिए, तुरंत आराम हिकार झंझट दूर हो जाता है।३५।
*
हल्दी पीसें लें मिला, रस धतूर तिल-तेल।
पका छान ले लगा हो, कर्ण नाड़ी व्रण खेल।३६। 
कान की नस में घाव होने पर पीसी हल्दी, धतूरे का रस और तिल का तेल मिला-पाक-छानकर लगाइए। खेल खेल में दर्द दूर हो जाएगा।३६। 
*
विष 
पत्ते-फूल कपास से, हो धतूर-विष शांत। 
दें ठंडा निर्यास हो, चित्त तनिक नहिं भ्रांत।३७।
कपास के पत्तों तथा फूल से धतूरे का विष शांत होता है। ठनदा निर्यास देन तो चित्त भ्रांत नहीं होता। 
*
दूषित जल पी रोग हो, नारू कृमि दे पीर। 
पत्तों को लें बाँध हो, कष्ट दूर दर धीर।३८।
*
नारू रोग 
दूषित पानी पीने से हुए नारू रोग का कीड़ा यदि कष्ट दे रहा हो तो धतूरा के पत्ते बाँध लें, दर्द दूर हो जाएगा।३८।
*
दुष्प्रभाव 
विष धतूर मात्रा अधिक, कर दे सुन्न शरीर। 
हो खुश्की सिर दर्द भी, फिर बेहोशी पीर।३९।
धतूरे के विष की अधिक मात्रा शरीर को सुन्न कर देती है, इससे खुश्की, सिर दर्द और बेहोशी हो सकती है।३९।
सावधानी 
करिए बाह्य प्रयोग ही, मात्रा कम ही ठीक। 
सावधान हो सजग भी, 'सलिल' न तजिए लीक।४०।
इसलिए बाहरी प्रयोग सावधान और सजग रहकर करें तथा बताई गई लीक का उल्लंघन न करें।४०।                                                 
***
 (आभार- आयुर्वेद जड़ी बूटी रहस्य, भाव प्रकाश, भेषज्य रत्नावली)
+++++
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।। 
...
क्षणिका 
धतूरा 
.
महक छटा से 
भ्रमित हो  
अमृत न मानो। 
विष पचाना सीख लो 
तब मीत जानो। 
मैं धतूरा 
सदाशिव को 
प्रिय बहुत हूँ। 
विरागी हूँ, 
मोह-माया से रहित हूँ। 
...
संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर 482001 
एमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष 9425183244 

सोमवार, 8 मई 2023

मुक्तक, नवगीत, रवीन्द्रनाथ, सॉनेट,

सॉनेट

माटी लेकर सोचे माटी
जननी हूँ, कुछ नया करूँगी
नई बनाऊँ मैं परिपाटी
माटी को जीवंत करूँगी

जगजननी की जननी बनना
करी कल्पना रम्य मनोहर
गुनना क्या लाऊँ फिर चुनना
संसाधन संयोजित कर हर

अपनी दुनिया आप बनाई
मृण्मय में चेतन पधराया
देख मुग्ध हो खुद मुस्काई
मान सजीवित शीश झुकाया

नारि न मोहि नारि कै रूपा
गलत, मुग्ध द्वय नारि अनूपा
८-५-२०२३
***
मुक्तक
जुदाई जान ले लेगी तभी आओगे तुम जाना
लिया जब जान तब ठाना तुम्हारे बिन नहीं जाना
न आओगे, न जाऊँगा, जो आओगे तो रोकोगे
तुम्हें दुख दे नहीं सकता, हुआ तय यह नहीं जाना
८-५-२०२२
***
नवगीत:
*
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
बेलाइसेंसी कारोंवालों शर्म करो
मदहोशी में जब कोई दुष्कर्म करो
माफी मांगों, सजा भोग लो आगे आ
जिनको कुचला उन्हें पाल कुछ धर्म करो
धन-दौलत पर बहुत अधिक इतराओ मत
बहुत अधिक मोटा मत अपना चर्म करो
दिन भर मेहनत कर
जो थककर सोते हैं
पड़ते छाले उनके
हाथों-पांवों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
महलों के अंदर रहकर तुम ऐश करो
किसने दिया तुम्हें हक़ ड्राइविंग रैश करो
येन-केन बचने के लिये वकील लगा
झूठे लाओ गवाह खर्च नित कैश करो
चुल्लू भर पानी में जाकर डूब मारो
सत्य-असत्य कोर्ट में मत तुम मैश करो
न्यायालय में न्याय
तनिक हो जाने दो
जनगण क्यों चुप्पी
साधे ज़ज़्बातों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
*
स्वार्थ सध रहे जिनके वे ही संग जुटे
उनकी सोचो जिनके जीवन-ख्वाब लुटे
जो बेवक़्त बोलते कड़वे बोल यहाँ
जनता को मिल जाएँ अगर बेभाव कुटें
कहे शरीयत जान, जान के बदले दो
दम है मंज़ूर करो, मसला सुलटे
हो मासूम अगर तो
माँगो दण्ड स्वयं
लज्जित होना सीखो
हुए गुनाहों पर
जो 'फुट' पर चलते
पलते हैं 'पाथों' पर
उनका ही हक है सारे
'फुटपाथों' पर
८-५-२०१५
***
बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
८-५-२०१४
*

रविवार, 7 मई 2023

मानक हिंदी, माहिया गीत, दोहा, सलमान, जनगीत, मुक्तक



***

भाषा नीति, मानक हिंदी
०१. स्वर-व्यंजन निम्न अनुसार होंगें-
(अ) स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार- अं विसर्ग: अ:।
(आ ) व्यंजन - क, ख, ग, घ, ङ (क़, ख़, ग़), च, छ, ज, झ, ञ (ज़, झ़), ट, ठ, ड, ढ, ण (ड़, ढ़), त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, (फ़), य, र, ल, व, श, ष, स, ह।
(इ) संयुक्त वर्ण- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र, क्र, प्र, ब्र, स्र, ह्र, ख्र आदि। 
(ई)संयुक्त वर्ण 
(अ) खड़ी पाईवाले व्यंजन - ख्यात, लग्न, विघ्न, कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्वनि, न्यास, प्यास, अब्बा, सभ्य, रम्य, अय्याश, उल्लेख, व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय, स्वीकृति, यक्ष्मा, त्र्यंबक। 
(आ) अन्य व्यंजन - संयुक्त, पक्का, दफ्तर, वाङ्मय, लट्टू, बुड्ढा, विद्या, ब्रह्मा,प्रकार, धर्म, श्री, श्रृंगार, विद्वान, चिट्ठी, बुद्धि, विद्या, चंचल, अंक, वृद्ध; द्वैत आदि।
(उ) संस्कृत भाषा के मूल श्लोकों को उद्धृत करते समय मूल अंश में प्रयुक्त वर्ण, संयुक्ताक्षर तथा हिंदी वर्णमाला में जो वर्ण शामिल नहीं हैं, वे यथावत लिखे जाएँ। पाली, ब्राह्मी, प्रकृत, कैथी, शारदा आदि लिपियों के उद्धरण मूल उच्चारण के अनुसार देवनागरी में लिखे जाएँ।
(ऊ) शिरोरेखा (मुड्ढा) का प्रयोग अनिवार्य है।
(ए) विरामचिह्न-
पूर्णविराम - । इसका प्रयोग -
वाक्य के अंत में करें। कृष्णप्रज्ञा उत्तम पत्रिका है।
अल्पविराम , इसका प्रयोग -
(१) तीन या अधिक शब्दों को अलग करने के लिए - गीत, ग़ज़ल, सॉनेट, माहिया आदि काव्य रूप हैं।
(२) एक वाक्य में प्रयुक्त एक प्रकार के पदबंधों, उपवाक्यों को अलग करने के लिए - नर्मदा का शीतल जल, हरीतिमा और सौंदर्य मन मोह लेता है।
(३) वाक्य के बीच में किसी अंश को अलग दिखाने के लिए - पाठ्यक्रम बदल जाने से, पुस्तकें बदलेंगी, परीक्षा फल भी प्रभावित होंगा।
(४) सकारात्मक और नकारात्मक अभिव्यक्ति के बाद - हाँ, चले जाओ। / नहीं, मत जाओ।
(५) बस, सचमुच, अच्छा, वास्तव में, खैर आदि शब्दों से आरंभ होने वाले वाक्यों में इनके बाद - बस, और आगे मत जाओ।
(६) संबोधन के बाद - संपादक जी, रचना चयनित होने की सूचना दें।
अर्धविराम ; इसका प्रयोग
(१) एक वाक्य पर आश्रित दो या अधिक वाक्यों की श्रृंखला में हो। विद्या विनय से आती है; विनय से पात्रता; पात्रता से धन; धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
(२) समुच्चयबोधकों से बने उपवाक्यों को अलग करने के लिए - आपने उसकी निंदा की; इसलिए वह आपका शत्रु बनेगा।
(३) समानाधिकरण उपवाक्यों के बीच में - गाँधी जी ने सत्याग्रह किए; अहिंसा का शस्त्र दिया।
(४) अंकों का विवरण देने में - पेन - १२ ; पेन्सिल ६; रबर ६
उपविराम : आगेआनेवाली सूची के पूर्व, जैसे मनुष्य के ३ शत्रु हैं : १आलस्य, हीनता, पराश्रय।
योजक/निर्देशक चिह्न - योजक चिह्न की आड़ी रेखा छोटी होती है जबकि निर्देशक चिह्न की आड़ी रेखा अपेक्षाकृत लंबी होती है।
योजक चिह्न का प्रयोग -
(१) द्वंद्व समास के बीच में। जैसे - राम और श्याम के स्थान पर राम-श्याम
(२) शब्द की आवृत्ति होने पर। यथा :- मुख्य-मुख्य बिंदुओं पर विचार करें।
(३) विलोम शब्दों के बीच में। जैसे :- रात-दिन।
निर्देशक चिह्न का प्रयोग
(१) उद्धरण के बाद और लेखक के पहले - स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है - तिलक
(२) निम्न व निम्नलिखित के बाद - पानी के समानार्थी निम्न/निम्नलिखित हैं - नीर, जल, सलिल, वारि आदि।
विवरण चिह्न :- यह उपविराम तथा निर्देशक चिन्ह का मिश्रित रूप है। इसका प्रयोग दोनों के विकल्प रूप में किया जाता है।
प्रश्न चिह्न ? इसका प्रयोग प्रश्न पूछने के बाद किया जाता है - तुम्हारा नाम क्या है ? क्या, क्यों, कब, कैसे, कितने, किसने, किससे, किस लिए जैसे प्रश्न सूचक शब्द इस चिह्न के प्रयोग के पूर्व प्रयुक्त होते हैं।
विस्मयसूचक चिह्न ! यह विस्मय, हर्ष, आह्लाद, आदि के अभिव्यक्ति के बाद प्रयुक्त होता है। जैसे :- हे राम! यह कैसे हुआ?
ऊर्ध्व अल्प विराम ' इसका प्रयोग - अंक लोपन हेतु, सन '४७ से सन '५२ तक।
शब्द चिह्न ' ' इसका प्रयोग पुस्तक, व्यक्ति, स्थान आदि के नाम के साथ किया जाता है। 'गीता' में निष्काम कर्म को ही धर्म बताया गया है।
उद्धरण चिह्न " " इसका प्रयोग किसी का कथन ज्यों का त्यों उद्धृत करते समय, नाटकों-कहानियों में संवाद के साथ, किसी सिद्धांत / लोकोक्ति के साथ करें। नेता जी ने कहा - ''तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"
छोटा कोष्ठक () - इसके अंदर वह सामग्री रखी जाती है जो मुख्य वाक्य का अंग होते हुए भी पृथक की जा सकती है। काल के तीन प्रकारों (भूत, वर्तमान, भविष्य) के उदाहरण दो। क्रमांक, अक्षरों तथा अंकों में लिखी संख्या को अक्षरों में लिखने के लिए भी छोटा कोष्ठक प्रयोग करें।
मध्यम कोष्ठक {} - एक से अधिक प्रकार की टिप्पणी हेतु माध्यम कोष्ठक का प्रयोग करें।
बड़ा कोष्ठक [] - दो से अधिक प्रकार की टिप्पणी हेतु बड़े कोष्ठक का प्रयोग करें।
लोप चिह्न ... किसी लेखांश को न लिखना हो तो इस चिह्न का प्रयोग करें। जैसे :- तेरी ........... ।
हंसपद ^ - दो शब्दों के मध्य कुछ लिखना हो तो यह चिन्ह बनाकर पंक्ति के ऊपर लिखें।
सार/ संक्षेप चिह्न . इसका प्रयोग संक्षेपाक्षर के बाद करें। एम.ए., से.मी. आदि।
(ऐ) विसर्ग और उपविराम (कोलन) चिन्ह : समान है। इनके प्रयोग में अन्तर है।
(१) विसर्ग वर्ण से चिपकाकर (भारत:) तथा कोलन कुछ दूरी पर (सरकार के ३ अंग : विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका हैं।) रखें। (२) संख्याओं में अनुपात प्रदर्शित करने के लिए - २ : ४।
(३) नाटक/एकांकी में उद्धरण चिह्न के बिना केवल उपविराम चिह्न का प्रयोग किया जाता है। राम : सीते! अग्नि देव ने यह प्रमाणित किया है कि तुम निर्दोष, निष्कलंक हो।
(४) सूचनाओं के लिए - स्थान : सभागार , समय अपराह्न ५ बजे
०२. कृष्ण प्रज्ञा की मुख्य भाषा आधुनिक (खड़ी) हिंदी तथा लिपि देवनागरी है। संस्कृत, भारतीय भाषाओँ-बोलिओं, आंचलिक बोलिओं तथा विदेशी भाषा-बोलिओं के उद्धरण यथास्थान दिए जा सकते हैं। अहिन्दी भाषाओँ के उद्धरण देते समय मूल उच्चारण देवनागरी लिपि में तथा हिंदी अर्थ दिया जाना चाहिए।
०३. लेखक उद्धरणों की शुद्धता तथा प्रामाणिकता हेतु जिम्मेदार होंगे। प्रयुक्त उद्धरणों के संदर्भ आरोही (बढ़ते हुए) क्रम में लेख के अंत में देंगे। पृष्ठ डिजाइनर हर पृष्ठ पर मुद्रित सामग्री संबंधी उद्धरणों के संदर्भ उसी पृष्ठ पर पाद टिप्पणी के रूप में देंगे।
०४. रचनाओं में तत्सम-तद्भव शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य है।
०५. रचनाओं में केवल यूनिकोड या यूनिकोड समर्थित फॉण्ट का उपयोग करें जिसे कोकिला फॉण्ट में परिवर्तित कर मुद्रित किया जायेगा।
०६. कृष्णप्रज्ञा में हिंदी संस्करण में देवनागरी अंकों तथा अंग्रेजी संस्करण में अंग्रेजी अंकों का प्रयोग किया जाए।
०७. हिंदी में पारंपरिक रूप से नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। लेखक अपनी भाषा-शैली में चाहे तो नुक्ता का प्रयोग यथास्थान कर सकता है।
०८. कारक चिह्न (परसर्ग) -
(अ) हिंदी के कारक : कर्ता - ने, कर्म - को, करण - से; द्वारा, संप्रदान - को; के लिए, अपादान - से (पृथक होना), संबंध - का; के; की; ना, नी ने, रा, री, रे, अधिकरण - में; पर, संबोधन - हे; अहो, अरे, अजी आदि हैं।
(आ) संज्ञा शब्दों में कारक प्रतिपादक से अलग लिखें।
(इ) सर्वनाम शब्दों में करक को प्रतिपादक के साथ मिलाकर लिखें।
(ई) सर्वनाम के साथ दो कारक एक साथ हों तो पहला कारक मिलाकर तथा दूसरा अलग लिखा जाए। सर्वनाम और कारक के बीच निपात हों तो कारक को पृथक लिखें।
०९. संयुक्त क्रिया पद -
सभी अंगीभूत क्रियाएँ अलग-अलग लिखें।
१०. योजक चिह्न (हाइफ़न -) - इसका प्रयोग स्पष्टता के लिए किया जाता है।
(अ) द्वंद्व समास में पदों के बीच में योजक चिह्न हो। उदाहरण :- शिव-पार्वती, लिखना-पढ़ना आदि।
(आ) सा, से, सी के पूर्व योजक चिह्न हो। जैसे :- तुम-सा, उस-सी, कलम से आदि।
(इ) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग केवल वहीं हो जहाँ उसके बिना भ्रम की संभावना हो, अन्यथा नहीं। जैसे भू-तत्व = पृथ्वी तत्व, भूतत्व = भूत होने का भाव या लक्षण आदि।
(ई) कठिन संधियों से बचने के लिए भी योजक प्रयोग किया जा सकता है। द्वयक्षर के स्थान पर द्वि-अक्षर, त्र्यंबक के स्थान पर त्रि-अंबक। इससे अहिन्दीभाषियों के लिए समझना आसान होगा।
११. अव्यय -
(अ) 'तक', 'साथ' आदि अव्यय हमेशा अलग लिखें। जैसे :-वहाँ तक, उसके साथ।
(आ) जब अव्यय के आगे परसर्ग (कारक) आए तब भी अव्यय अलग ही लिखा जाए। अब से, सदा के लिए, मुझे जाने तो दो, बीघा भर जमीन, बात भी नहीं बनी आदि।
(इ) सब पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि समास होने पर सकल पद एक माना जाता है। यथा :- 'दस रूपए मात्र , मात्र कुछ रुपए आदि।
१२. सम्मानसूचक अव्यय
(अ) सम्मानात्मक अव्यय पृथक लिखें। यथा :- श्री चित्रगुप्त जी, पूज्य स्वामी विवेकानंद आदि।
(आ) श्री संज्ञा का भाग हो तो अलग नहीं लिखें। जैसे :- श्रीगोपाल श्रीवास्तव।
(इ) सभी पदों में प्रति, मात्र, यथा आदि अव्यय जोड़कर लिखें। उदाहरण :- प्रतिदिन, प्रतिशत, नित्यप्रति, मानवमात्र, निमित्तमात्र, यथासमय, यथोचित, यथाशक्ति आदि।
१३. अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी)
(अ) अनुस्वार व्यंजन है।
(आ) संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अन्य वर्णीय वर्णों (य से ह तक) से पहले रहेगा। यथा :- यंत्र, रंचमात्र, लंब, वंश, शंका, संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, संक्षेप, संतोष, हंपी, अंश, कंस, सिंह आदि।
(इ) संयुक्त वर्ण में पाँचवे अक्षर ('ङ्', ञ्, ण, न, म) के बाद सवर्णीय वर्ण हो तो अनुस्वार का प्रयोग करें। यथा :- कंगाल, खंगार, गंगा, घंटा, चंचु, छंद, जंजाल, झंझट, टंकर, ठंडा, डंडी, तंदूर, थंब, दंश, धंधा, नंद, पंच, फंदा, बंधु, भंते, मंदिर आदि।
(ई) पाँचवे अक्षर के बाद अन्य वर्ग का वर्ण आए तो पांचवा अक्षर अनुस्वार के रूप में नहीं बदलेगा। जैसे :- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख, चिन्मय, जन्मेजय, तन्मय आदि।
(उ) पाँचवा वर्ण साथ-साथ आए तो अनुस्वार में नहीं बदलेगा। जैसे :- अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि।
(ऊ) अन्य भाषाओँ (उर्दू, अंग्रेजी आदि) से लिए गए शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्य (न, म) व्यंजन पूरा लिखें। जैसे :- लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।
१४. अनुनासिक (चंद्रबिंदु)
(अ) अनुनासिक स्वर का नासिक्य विकार है। यह, व्यंजन नहीं,स्वरों का ध्वनि गुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में मुँह और नाक से वायु प्रवाह होता है। जैसे :- अँ, आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ आदि।
(आ) अनुस्वार और अनुनासिक के गलत प्रयोग से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। जैसे :- हंस = पक्षी, हँस - क्रिया, आंगन
(इ) जहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग भ्रम न उत्पन्न करे वहाँ निषेध नहीं है। जैसे :- में, मैं, नहीं, आदि में अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग।
१५. विसर्ग
(अ) तत्सम रूप में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों में विसर्ग का प्रयोग यथास्थान किया जाए। जैसे :- दु:खानुभूति।
(आ) तत्सम शब्दों के अंत में विसर्ग का प्रयोग अवश्य हो। यथा :- अत:. पुन:, स्वत:, प्राय:, मूलत:, अंतत:, क्रमश: आदि।
(इ) विसर्ग के स्थान पर उसके उच्चरित रूप 'ह' का प्रयोग कतई न किया जाए।
(ई) दुस्साहस, निस्स्वार्थ तथा निश्शब्द का नहीं, दु:साहस, नि:स्वार्थ तथा नि:शब्द का प्रयोग करें।
(उ) निस्तेज, निर्वाचन, निश्छल लिखें। नि:तेज, नि:वचन,नि:चल न लिखें।
(ऊ) अंत:करण, अंत:पुर, दु:स्वप्न, नि:संतान, प्रात:काल विसर्ग सहित ही लिखें।
(ए) तद्भव / देशी शब्दों में विसर्ग का प्रयोग न करें। छः नहीं छह लिखें।
(ऐ) प्रायद्वीप, समाप्तप्राय आदि में विसर्ग नहीं है।
(ओ) विसर्ग को वर्ण के साथ चिपकाकर लिखा जाए जबकि उपविराम (कोलन) चिन्ह शब्द से कुछ दूरी पर हो। अत:, जैसे :- आदि।
१६. हल् चिह्न ( ् )
(अ) व्यंजन के नीचे लगा हल् चिह्न बताता है कि वह व्यंजन स्वर रहित है। हल् चिह्न लगा शब्द 'हलंत' शब्द है। जैसे :- जगत्।
(आ) संयुक्ताक्षर बनाने में हल् चिह्न का प्रयोग आवश्यक है। यथा :- बुड्ढा, विद्वान आदि।
(इ) तत्सम शब्दों का प्रयोग हलन्त रूपों के साथ हो। प्राक्, वाक्, सत्, भगवन्, साक्षात्, जगत्, तेजस्, विद्युत्, राजन् आदि। महान, विद्वान आदि में हल् चिह्न न लगाएँ।
१७. स्वन परिवर्तन
संस्कृतमूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी ज्यों की त्यों रखें। 'ब्रह्मा' को ब्रम्हा, चिह्न को चिन्ह न लिखें। अर्ध, तत्त्व आदि स्वीकार्य हैं।
१८. 'ऐ' तथा 'औ' का प्रयोग
(अ) 'ै' तथा ' ौ' का प्रयोग दो तरह से (अ) मूल स्वरों की तरह - 'है', 'और' आदि में तथा सन्ध्यक्षरों के रूप में 'गवैया', कौवा' आदि में किया जा सकता है। इन्हें 'गवय्या', 'कव्वा' आदि न लिखें।
(आ) अहिन्दी शब्दों 'अय्यर', 'नय्यर', 'रामय्या' को 'ऐयर', 'नैयर', 'रामैया' न लिखें। 'अव्वल', 'कव्वाली' आदि प्रचलित शब्द यथावत प्रयोग किए जा सकते हैं।
(अ) संस्कृत शब्द 'शय्या' को 'शैया' या 'शइया' न लिखें।
१९. पूर्वकालिक कृदंत
(अ) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया से मिलाकर लिखें। जैसे :- आकर, सुलाकर, दिखलाकर आदि।
(आ) कर + कर = 'करके', करा + कर = 'कराके' होगा।
२०. 'वाला' प्रत्यय
(अ) क्रिया रूप में अलग लिखें। जैसे :- करने वाला, बोलने वाला आदि।
(आ) योजक प्रत्यय के रूप में एक साथ लिखें। यथा :- दिलवाला, टोपीवाला, दूधवाला आदि।
(इ) निर्देशक शब्द के रूप में 'वाला' अलग से लिखें। जैसे :- अच्छी वाली बात, कल वाली कहानी, यह वाला गीत आदि।
२१. श्रुतिमूलक 'य', 'व्'
(अ) विकल्प रूप में प्रयोग न किया जाए। जैसे :- 'किए', 'नई', 'हुआ' आदि के स्थान पर 'किये', 'नयी', 'हुवा' आदि का प्रयोग न करें।
(आ) जहाँ 'य' शब्द का मूल तत्व हो वहाँ उसे न बदलें। जैसे :- 'स्थायी', 'अव्ययीभाव', 'दायित्व' आदि को 'स्थाई', 'अव्यईभाव', 'दाइत्व' आदि न लिखें।
२२. अहिन्दी-विदेशी ध्वनियाँ
(अ) अरबी-फ़ारसी (उर्दू) शब्द -
(क) हिंदी का अभिन्न अंग बन चुके अरबी-फ़ारसी शब्द बिना नुक्ते के लिखें। जैसे :- 'कलम', 'किला', 'दाग' लिखें, 'क़लम', 'क़िला', 'दाग़' न लिखें।
(ख) जहाँ शब्द को मूल भाषा के अनुसार लिखना आवश्यक हो वहाँ हिंदी रूप में यथास्थान नुक्ता (बिंदु) लगाएँ। जैसे- 'खाना', 'राज', 'फन' के स्थान पर 'ख़ाना', 'राज़', 'फ़न' आदि लिखें।
(आ) अंग्रेजी शब्द
(क) जिन अंग्रेजी शब्दों में अर्ध विवृत 'ओ' ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध हिंदी रूप के लिए 'ा ' (आ की मात्रा) के ऊपर अर्धचंद्र लगाएँ। जैसे :- हॉल, मॉल, चॉल, डॉल, टॉकीज, मॉम आदि।
(ख) अंग्रेजी शब्दों का देवनागरी लिप्यंतरण मूल उच्चारण के अधिक से अधिक निकट हो।
(इ) अन्य विदेशी भाषाओँ के शब्द
चीनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाओँ के शब्दों को देवनागरी में लिखते समय उनके उच्चारण साम्य पर ध्यान दें। 'बीजिंग' को 'पीकिंग' न लिखें।
२३. दो रूपी शब्द -
कुछ शब्दों के शब्दों के रूप चिरकाल से लोक में प्रचलित तथा साहित्य में उपयोग किये जाते रहे हैं। ऐसे शब्दों के दोनों रूपों का उपयोग किया जा सकता है। जैसे :- गरदन-गर्दन, गरम-गर्म, गरमी-गर्मी, बरफ़-बर्फ़, बिलकुल-बिल्कुल, सरदी-सर्दी, कुरसी-कुर्सी, भरती-भर्ती, फुरसत-फुर्सत, बरदाश्त-बर्दाश्त, बरतन-बर्तन, दुबारा-दोबारा आदि।
२४. आगत शब्दों की वर्तनी -
(अ) निम्न में संयुक्ताक्षर का प्रयोग न हो - नुकसान, इनसान, इनकार, परवाह, बरबाद, मजदूर, सरकार, फरमान, तनखाह, करवट, कुदरत, शिरकत, मरकज़, अकबर, मुजरिम, परवाना, मुगदर, मसखरा, इलजाम, फिलहाल, फुरसत, मनज़र, इनकलाब, आसमान, तकलीफ, मरहम, दरकार, किरदार, शबनम, इजलास, इकबाल, इनतहा, तनहा, तनहाई, असल, असली, असलियत, फसली, गलत, गलती, नकल, नकली, नकलची, वरना, शरबत, दफतर, सरकस, अकसर, रफतार, शरम, शरमाना आदि। अल्प प्रचलित शब्दों के साथ कोष्ठक में उनके हिंदी अर्थ दें। जैसे निस्बत (के लिए), मुख़ालफ़त (विरोध), ज़ाहिर (स्पष्ट), हैरत (आश्चर्य) आदि।
(आ) निम्न में संयुक्ताक्षर का प्रयोग हो - फुर्ती, फुर्तीला, शिकस्त, दुरुस्त, बुजुर्ग, गिरफ्त, गिरफ्तार, रुख्सत, ज़िंदा, क़र्ज़, खर्च, ज़िंदगी, इंतकाम, इंतज़ार, इल्तिजा, अशर्फी, इम्तहान, तिलिस्म, पुख्ता,दरख्त, तर्रार, तश्तरी, लश्कर, जींस, मुंशी, नक्शा, कब्ज़, लफ्ज़, शुक्र,शुक्रिया, खटियर, इत्तेफाक, इश्तहार, बख्शीश, अक्ल, शक्ल, सख्त, सख्ती, गश्त, क़िस्त, किस्म, मुश्क, इश्क, जश्न, कश्मीर, पश्मीना, जिलम, जुर्म, जिस्म, रस्म, रस्मी, हश्र, फिक्र, मुल्क, इल्म, फर्ज, फ़र्ज़ी, इर्द-गिर्द, गोश्त, रास्ता, नाश्ता, शख्स, दर्ज़, दर्ज़ी, सुर्ख, सुर्खी, गुर्दा, जल्द, जल्दी, चश्मा, भिश्ती, उम्र,कुश्ती, चुस्त, चुस्ती, चसकी, फर्क, शर्म, शर्मीली आदि।
(इ) कुछ और मानक शब्द - दुहरा, दुहराना, दुगुना, दूना, दुपहर, दुमंज़िला, दुधारी, दुकान, दुशाला, कुहनी, कुहरा, कुहराम, मुहब्बत, कुहासा, सुहाग, सुहागन, मोहताज, शोहरत, बोहनी, मोहसिन, पहनावा, पहचान, दहलीज, मेहमान, एहसान, एहसास, एहतियात, महँगा, लहँगा, तहज़ीब, गहरा, मुहल्ला, धुआँ, कुआँ, कुँवर, कुँआरा, गेहुँआ आदि।
(ई) आगत शब्दों के बहुवचन तथा लिंग - आगत शब्दों के बहुवचन तथा लिंग हिंदी व्याकरण के अनुसार रखें, उस भाषा के व्याकरण के अनुसार नहीं। जैसे - क़ौम - क़ौमें (अक़्वाम नहीं), किताब - किताबें (किताबात नहीं), किस्म - किस्में (अक्साम नहीं), पिन - पिनें (पिंस नहीं), बोतल - बोतलें (बॉटल - बॉटल्स नहीं) आदि। उद्धरण में वर्जित शब्द यथावत दिए जा सकेंगे।
(उ) विश्व की विविध भाषाओं के हिंदी में प्रचलित शब्दों का प्रयोग हिंदी शब्दों की तरह ही किया जाए।
अंग्रेजी शब्द - बटन, फीस, पिन, पेट्रोल, पुलिस, पेंट, पैंट, पेंसिल, पेन, निब, कैमरा, फोटो, रेडिओ, सिनेमा, साइकिल, रिक्शा, कैलेंडर, फ्रेम, लेंस, नाइट्रोजन, टॉफी, पॉलिश, फुटबाल, हॉकी, मनीऑर्डर, टी. बी., हॉस्पिटल, डॉक्टर, बुक, रेडियो, पेन, पेंसिल, स्टेशन, कार, स्कूल, कंप्यूटर, ट्रेन, सर्कस, ट्रक, टेलीफोन, टिकट, टेबल आदि।
अरबी शब्द - अदा, अजब, अमीर, अजीब, अजायब, अदावत, अक्ल, असर, अहमक, अल्ला, आसार, आखिर, आदमी, आदत, इनाम, इजलास, इज्जत, इमारत, इस्तीफा, इलाज, ईमान, उम्र, एहसान, औरत, औसत, औलाद, कसूर, कदम, कब्र, कसर, कमाल, कर्ज, क़िस्त, किस्मत, किस्सा, किला, कसम, कीमत, कसरत, कुर्सी, किताब, कायदा, कातिल, खबर, खत्म, खत, खिदमत, खराब, खयाल, गरीब, गैर, जिस्म, जलसा, जनाब, जवाब, जहाज, जालिम, जिक्र, तमाम, तकदीर, तारीफ, तकिया, तमाशा, तरफ, तै, तादाद, तरक्की, तजुरबा, दाखिल, दिमाग, दवा, दाबा, दावत, दफ्तर, दगा, दुआ, दफा, दल्लाल, दुकान, दिक, दुनिया, दौलत, दान, दीन, नतीजा, नशा, नाल, नकद, नकल, नहर, फकीर, फायदा, फैसला, बाज, बहस, बाकी, मुहावरा, मदद, मरजी, माल, मिसाल, मजबूर, मालूम, मामूली, मुकदमा, मुल्क, मल्लाह, मौसम, मौका, मौलवी, मुसाफिर, मशहूर, मजमून, मतलब, मानी, मान, राय, लिहाज, लफ्ज, लहजा, लिफाफा, लायक, वारिस, वहम, वकील, शराब, हिम्मत, हैजा, हिसाब, हरामी, हद, हज्जाम, हक, हुक्म, हाजिर, हाल, हाशिया, हाकिम, हमला, हवालात, हौसला आदि।
इटालियन शब्द - कार्टून, गजट, पिआनो, मलेरिआ, लॉटरी, वायलिन, रॉकेट, सॉनेट, स्टूडियो आदि।
चीनी (मैंडेरिन) शब्द - कारतूस, चाय, पटाखा, लीची, साबुन आदि।
जर्मन शब्द - ट्रेन, नात्सी (नाज़ी), सेमिनार।
जापानी शब्द - कतौता, चोका, ताँका, रेंगा, जूडो, सदोका, सायोनारा, हाइकु, हाइगा आदि।
डच शब्द - तुरूप, बम, चिडिया, ड्रिल।
तुर्की शब्द - आगा, आका, उजबक, उर्दू, कातिल, दुकान, बदनाम, कालीन, काबू, कैंची, कुली, कुर्की, चिक, चेचक, चमचा, चुगुल, चकमक, जाजिम, तमगा, तोप, तलाश, बेगम, बहादुर, मुगल, लफंगा, लाश, सौगात, सुराग, चाकू, बारूद, कलंगी, चम्मच, कालीन, खंजर, चुगली, चोगा, तमजा, तमाशा, बावर्ची, उर्दू, हवा, हफ़्ता इत्यादि।
पर्शियन शब्द - ताज़ा।
पुर्तगाली शब्द - अगस्त, अचार, अलमारी, आया, आलपिन, आलू, इस्पात, कनस्तर, कमीज, कार्बन, गमला, गोदाम, गोभी, चाबी, तंबाकू, तौलिया, नीलाम, पतलून, पपीता, पादरी, पीपा, पिस्तौल, प्याज, फालतू, फीता, बटन, बस्ता, बाल्टी, मेज, संतरा, साबुन आदि।
फारसी शब्द - कम, कमर, ख़ाक, गम, वापस, खुदा, अफसोस, आबदार, आबरू, आतिशबाजी, अदा, आराम, आमदनी, आवारा, आफत, आवाज, आइना, उम्मीद, कबूतर, कमीना, कुश्ती, कुश्ता, किशमिश, कमरबन्द, किनारा, कूचा, खाल, खुद, खामोश, खरगोश, खुश, खुराक, खूब, गर्द, गज, गुम, गल्ला, गवाह, गिरफ्तार, गरम, गिरह, गुलूबन्द, गुलाब, गुल, गोश्त, चाबुक, चादर, चिराग, चश्मा, चरखा, चूँकि, चेहरा, चाशनी, जंग, जहर, जीन, जोर, जबर, जिन्दगी, जादू, जागीर, जान, जुरमाना, जिगर, जोश, तरकश, तमाशा, तेज, तीर, ताक, तबाह, तनख्वाह, ताजा, दीवार, देहात, दस्तूर, दुकान, दरबार, दंगल, दिलेर, दिल, दवा, नामर्द, नाव, नापसन्द, पलंग, पैदावार, पलक, पुल, पारा, पेशा, पैमाना, बेवा, बहरा, बेहूदा, बीमार, बेरहम, मादा, माशा, मलाई, मुर्दा, मजा, मुफ्त, मोर्चा, मीना, मुर्गा, मरहम, याद, यार, रंग, रोगन, राह, लश्कर, लगाम, लेकिन, वर्ना, वापिस, शादी, शोर, सितारा, सितार, सरासर, सुर्ख, सरदार, सरकार, सूद, सौदागर, हफ्ता, हजार आदि।
फ्रेंच (फ़्रांसिसी) शब्द - अंग्रेज, एडवोकेट, काजू, कारतूस, कूपन, मीनू, मेयर, रेस्तरां, लैंप, वारंट, सूप आदि।
यूनानी शब्द - एकेडमी, एटलस, बाइबिल, टेलिफोन, एटम।
रूसी शब्द - जार, बुजुर्ग, लूना, वोद्का, वोल्गा, स्पुत्निक।
स्पेनिश शब्द - कारक, प्यून, देस्पासीतो (क्रमश:, धीरे-धीरे). सिगरेट, सिगार,
(ऊ) कोई अन्य भाषायी शब्द आवश्यक हो तो उसे शब्द चिन्ह (' ') एकल इन्वर्टेड कोमा में लिखें। जैसे :- यह जटिल 'प्रॉब्लम' है।
(ए) अंग्रेजी शब्दों का लिप्यंतरण करते समय केवल 'ई'तथा 'ऊ' का प्रयोग करें। जैसे :- key की, city सिटी, blue ब्लू , shoe शू आदि।
(ऐ) अन्य भाषाओँ की व्यक्तिवाचक संज्ञाओं (नामों) उच्चारण यथासंभव मूल रखें। जैसे :- जापानी : तोक्यो (tokyo), फ्रांसीसी : दूप्ले (duplex), रूसी : तोलसतोय (टॉलस्टॉय), स्पेनी : दान किहोते (डॉनक्विज़ोट), अन्य : पोल्स्की (पोलिश नहीं), सोल (सियोल नहीं), म्याँमा (म्याँमार/मियांमार नहीं) आदि।
२५. तत्सम शब्द -
पर्वत, दर्पण जैसे तत्सम शब्दों के देशज रूप परबत, दरपन आदि कॉल उद्धरणों या स्थानीय बोली में उपयोग करें।
२६.तद्भव शब्द -
२७. देशज शब्द - देश + ज अर्थात देश में जन्मा, जो शब्द देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित आम बोल-चाल की भाषा से हिंदी में आ गए हैं, वे देशज शब्द कहलाते हैं। इनकी व्युत्पत्ति का पता नही चलता।प्रचलित हेमचन्द्र ने उन शब्दों को 'देशी' कहा है, जिनकी व्युत्पत्ति किसी संस्कृत धातु या व्याकरण के नियमों से नहीं हुई। विदेशी विद्वान जॉन बीम्स ने देशज शब्दों को मुख्यरूप से अनार्यस्त्रोत से सम्बद्ध माना हैं। जैसे :- चिरैया, पन्हैया, डिबिया, टेंटुआ, कटरा, चिड़िया, कटरा, कटोरा, खिरकी, जूता, खिचड़ी, पगड़ी, लोटा, तेंदुआ, कटरा, अण्टा, ठेठ, ठुमरी, खखरा, चसक, फुनगी, डोंगा आदि।
हिंदी में प्रचलित भारतीय भाषाओँ के शब्द -
ओड़िया शब्द - अटका, अपकर्ष, हँसी-ठट्टा आदि।
गुजराती शब्द - गरबा, बा, बापू, हड़ताल आदि।
पंजाबी शब्द - कुड़माई, गिद्धा, जट्ट, खालसा, बेबे, भाँगड़ा, माहिया, वीर, सिक्ख आदि।
बांगला शब्द - आपत्ति, उपन्यास, गल्प, चमचम, रसगुल्ला, आदि।
मराठी शब्द - चालू, बाजू, लागू, वापरना आदि।
७-५-२०२२
***
माहिया गीत
मौसम के कानों में
*
(माहिया:पंजाब का त्रिपदिक मात्रिक छंद है. पदभार 12-10-12, प्रथम-तृतीय पद सम तुकांत, विषम पद तगण+यगण+2 लघु = 221 122 11, सम पद 22 या 21 से आरंभ, एक गुरु के स्थान पर दो गुरु या दो गुरु के स्थान पर एक लघु का प्रयोग किया जाता है, पदारंभ में 21 मात्रा का शब्द वर्जित।)
*
मौसम के कानों में
कोयलिया बोले,
खेतों-खलिहानों में।
*
आओ! अमराई से
आज मिल लो गले,
भाई और माई से।
*
आमों के दानों में,
गर्मी रस घोले,
बागों-बागानों में---
*
होरी, गारी, फगुआ
गाता है फागुन,
बच्चा, बब्बा, अगुआ।
*
प्राणों में, गानों में,
मस्ती है छाई,
दाना-नादानों में---
*
दोहा सलिला:
मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात।
जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात।।
*
कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।
मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।
*
जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।
आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।
*
मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।
रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।
*
खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?
खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.
*
प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।
जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।
*
लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।
तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।
*
क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।
गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।
*
जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।
देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।
*
भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।
घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।
७.५.२०१८
***
दोहा सलिला:
संजीव, सलमान खान
.
सजा सुनी तो हो गये, तुरत रुँआसे आप
रूह न कापी जब किये, हे दबंग! नित पाप
.
उनका क्या ली नशे में, जिनकी पल में जान
कहे शरीअत आपकी, वे भी ले लें जान
.
नायक ने नाटक किया, मिलकर मिली न जेल
मेल व्यवस्था से हुआ, खेल हो गयी बेल
.
गायक जिसको पूछता, नहीं कोई भी आज
दे बयान यह चाहता, फिर से पा ले काज
.
नायक-गायक को सुला, फुटपाथों पर रोज
कुछ कारें भिजवाइये, दे कुत्तों को भोज
.
जिसने झूठी साक्ष्य दी, उस पर भी हो वाद
दंड वकीलों को मिले, किया झूठ परिवाद
.
टेर रहे काले हिरन, करो हमारा न्याय
जां के बदल जां मिले, बंद करो अन्याय
***
***
जनगीत :
हाँ बेटा
.
चंबल में
डाकू होते थे
हाँ बेटा!
.
लूट किसी को
मार किसी को
वे सोते थे?
हाँ बेटा!
.
लुटा किसी पर
बाँट किसी को
यश पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अख़बारों के
कागज़ उनसे
रंग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
पुलिस और
अफसर भी उनसे
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
केस चले तो
विटनेस डरकर
भग जाते थे?
हाँ बेटा!
.
बिके वकील
झूठ को ही सच
बतलाते थे?
हाँ बेटा!
.
सब कानून
दस्युओं को ही
बचवाते थे?
हाँ बेटा!
.
चमचे 'डाकू की
जय' के नारे
गाते थे?
हाँ बेटा!
.
डाकू फिल्मों में
हीरो भी
बन जाते थे?
हाँ बेटा!
.
भूले-भटके
सजा मिले तो
घट जाती थी?
हाँ बेटा!
.
मरे-पिटे जो
कहीं नहीं
राहत पाते थे?
हाँ बेटा!
.
अँधा न्याय
प्रशासन बहरा
मुस्काते थे?
हाँ बेटा!
.
मानवता के
निबल पक्षधर
भय खाते थे?
हाँ बेटा!
.
तब से अब तक
वहीं खड़े हम
बढ़े न आगे?
हाँ बेटा!
७-५-२०१५
.
दोहा गाथा : ३.
दोहा छंद अनूप
*
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप।
पंचतत्वमय व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।
"भाषा" मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषा शिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तक पल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों में साकारित करती है। संस्कृति वह बल है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है। भारतीय संस्कृति की नींव "संस्कृत" और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। "एकता" कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है। विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं। भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए कि गूढ-अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सके। स्पष्ट विचार समाज में आचार-विचार की एकरूपता याने "एकता" को पुष्ट करते हैं।
भाषा, भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त।
उर तक उर की चेतना, पहुँचे हो अभिव्यक्त।।
उच्चार :
ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार।
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार।।
ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।
सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद।
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद।।
उच्चारण स्थान
वर्ग
कठोर(अघोष) व्यंजन
मृदु(घोष) व्यंजन
अनुनासिक
कंठ- क वर्ग : क्, ख्, ग्, घ्, ङ्
तालू- च वर्ग : च्, छ्, ज्, झ्, ञ्
मूर्धा- ट वर्ग : ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्
दंत- त वर्ग : त्, थ्, द्, ध्, न्
अधर- प वर्ग : प्, फ्, ब्, भ्, म्
विशिष्ट व्यंजन
ष्, श्, स्, ह्, य्, र्, ल्, व्
कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।
विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :
य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।
स्वराश्रित व्यंजन:
तीन स्वराश्रित व्यंजन अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग ) हैं।
संयुक्त वर्ण :
विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।
मात्रा :
उच्चारण की न्यूनाधिकता अर्थात किस अक्षर पर कितना कम या अधिक भार ( जोर, वज्न) देना है अथवा किसका उच्चारण कितने कम या अधिक समय तक करना है ज्ञात हो तो लिखते समय सही शब्द का चयन कर दोहा या अन्य छांदस काव्य रचना के शिल्प को सँवारा और भाव को निखारा जा सकता है। गीति रचना के वाचन या पठन के समय शब्द सही वजन का न हो तो वाचक या गायक को शब्द या तो जल्दी-जल्दी लपेटकर पढ़ना होता है या खींचकर लंबा करना होता है, किंतु जानकार के सामने रचनाकार की विपन्नता, उसके शब्द भंडार की कमी, शब्द ज्ञान की दीनता स्पष्ट हो जाती है। अतः, दोहा ही नहीं किसी भी गीति रचना के सृजन के पूर्व मात्राओं के प्रकार व गणना-विधि पर अधिकार कर लेना जरूरी है।
उच्चारण नियम :
उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव।
अर्थ-अनर्थ न हो सके, सुनिए लेकर चाव।।
शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त।
वह मात्रा जाने नहीं, रचनाकार अशक्त।।
हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान।
भार एक, दो, तीन लो, इनका क्रमशः मान।।
१. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ - अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर।
२. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं।
३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा - नंदन, दु:ख आदि.
४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है।
५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ - ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित।
६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है।
७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी।
पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ = ५
ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५
कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४
हृदय = १ + १ +२ = ४
अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार :
उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये 'अनुनासिक' कहलाते हैं।
वर्ग-अंत के वर्ण का, नाक करे उच्चार।
अनुनासिक उसको कहें, गुणिजन सोच-विचार।।
१. अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारित होता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उस वर्ग का अनुनासिक होगा। यथा-
१. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा।
क + ङ् + कड़ = कंकड़,
श + ङ् + ख = शंख,
ग + ङ् + गा = गंगा,
ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य
२. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा.
प + ञ् + च = पञ्च = पंच
वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय
म + ञ् + जु = मंजु
सा + ञ् + झ = सांझ
३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है.
घ + ण् + टा = घंटा
क + ण् + ठ = कंठ
ड + ण् + डा = डंडा
४. अनुस्वार के बाद 'त' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण 'न्' होता है.
शा + न् + त = शांत
प + न् + थ = पंथ
न + न् + द = नंद
स्क + न् + द = स्कंद
५ अनुस्वार के बाद 'प' वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार 'म्' होगा.
च + म्+ पा = चंपा
गु + म् + फि + त = गुंफित
ल + म् + बा = लंबा
कु + म् + भ = कुंभ
आज का पाठ कुछ कठिन किंतु अति महत्वपूर्ण है। अगले पाठ में विशिष्ट व्यंजन के उच्चार नियम, पाद, चरण, गति, यति की चर्चा करेंगे।
अनुरोध :
आप अपनी पसंद का एक दोहा चुनें और उसकी मात्राओं की गिनती कर भेजें। अगली गोष्ठी में हम आपके द्वारा भेजे गए दोहों के मात्रा सम्बन्धी पक्ष की चर्चा कर कुछ सीखेंगे।
गौ भाषा को दुह रहा, दोहा कर पय-पान।।
सही-ग़लत की 'सलिल' कर, सही-सही पहचान।।
७-५-२०१३
***
मुक्तक
बात हो बेबात तो 'क्या बात' कहा जाता है.
को ले गर दिल को तो ज़ज्बात कहा जाता है.
घटती हैं घटनाएँ तो हर पल ही बहुत सी लेकिन-
गहरा हो असर तो हालात कहा जाता है.
दोहा
कौन अकेला जगत में, प्रभु हैं सबके साथ.
काम करो निष्काम रह, उठा-झुकाओ माथ..
७-५-२०१०