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शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

सॉनेट, लघुकथा, गीत, नवगीत, मुहावरे, आँख, धतूरा, सैनिक

शिवरात्रि पर विशेष 
रमा-उमा संवाद 
.
रमा-
कहु गिरिजा! कित गया भिखारी?
उमा-
बलि-द्वारे पर गया रमा री!
...
 
सॉनेट
धतूरा
*
सदाशिव को है 'धतूरा' प्रिय।
'कनक' कहते हैं चरक इसको।
अमिय चाहक को हुआ अप्रिय।।
'उन्मत्त' सुश्रुत कहें; मत फेंको।।
.
तेल में रस मिला मलिए आप।
शांत हो गठिया जनित जो दर्द।
कुष्ठ का भी हर सके यह शाप।।
मिटाता है चर्म रोग सहर्ष।।
.
'स्ट्रामोनिअम' खाइए मत आप।
सकारात्मक ऊर्जा धन हेतु।
चढ़ा शिव को, मंत्र का कर जाप।
पार भव जाने बनाएँ सेतु।।
.
'धुस्तूर' 'धत्तूरक' उगाता बाल।
फूल, पत्ते, बीज,जड़ अव्याल।।
१७-२-२०२३ 
...
सॉनेट
प्रभु जी
प्रभु जी! तुम नेता, हम जनता।
झूठे सपने हमें दिखाते।
समर चुनावी जब-जब ठनता।।
वादे कर जुमला बतलाते।।
प्रभु जी! अफसर, हम हैं चाकर।
लंच-डिनर ले पैग चढ़ाते।
खाता चालू हम, तुम लॉकर।।
रिश्वत ले, फ़ाइलें बढ़ाते।।
प्रभु जी धनपति, हम किसान हैं।
खेत छीन फैक्टरी बनाते।
प्रभु जी कोर्ट, वकील न्याय हैं।।
दर्शन दुलभ घर बिकवाते।।
प्रभु कोरोना, हम मरीज हैं।
बादशाह प्रभु हम कनीज़ हैं।।
•••
सॉनेट
धीर धरकर
पीर सहिए, धीर धरिए।
आह को भी वाह कहिए।
बात मन में छिपा रहिए।।
हवा के सँग मौन बहिए।।
कहाँ क्या शुभ लेख तहिए।
मधुर सुधियों सँग महकिए।
दर्द हो बेदर्द सहिए।।
स्नेहियों को चुप सुमिरिए।।
असत् के आगे न झुकिए।
श्वास इंजिन, आस पहिए।
देह वाहन ठीक रखिए।
बनें दिनकर, नहीं रुकिए।।
शिला पर सिर मत पटकिए।
मान सुख-दुख सम विहँसिए।।
१७-२-२०२२
•••
सॉनेट
सैनिक
सीमा मुझ प्रहरी को टेरे।
फल की चिंता करूँ न किंचित।
करूँ रक्त से धरती सिंचित।।
शौर्य-पराक्रम साथी मेरे।।
अरिदल जब-जब मुझको घेरे।
माटी में मैं उन्हें मिलाता।
दूध छठी का याद कराता।।
महाकाल के लगते फेरे।।
सैखों तारापुर हमीद हूँ।
होली क्रिसमस पर्व ईद हूँ।
वतन रहे, होता शहीद हूँ।।
जान हथेली पर ले चलता।
अरि-मर्दन के लिए मचलता।
काली-खप्पर खूब से भरता।।
१७-२-२०२२
•••
क्षणिका 
धतूरा 
.
महक छटा से 
भ्रमित हो  
अमृत न मानो। 
विष पचाना सीख लो 
तब मीत जानो। 
मैं धतूरा 
सदाशिव को 
प्रिय बहुत हूँ। 
विरागी हूँ, 
मोह-माया से रहित हूँ। 
...
लघुकथा
सबक
*
'तुम कैसे वेलेंटाइन हो जो टॉफी ही नहीं लाये?'
''अरे उस दिन लाया तो था, अपने हाथों से खिलाई भी थी।भूल गयीं?''
'भूली तो नहीं पर मुझे बचपन में पढ़ा सबक आज भी याद है। तुमने कुछ पढ़ा-लिखा होता तो तुम्हें भी याद होता।'
''अच्छा, तो मैं अनपढ़ हूँ क्या?''
'मुझे क्या पता? कुछ पढ़ा होता तो सबक याद न होता?'
''कौन सा सबक?''
'वही मुँह पर माखन लगा होने के बाद भी 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' कहनेवाला सूर का पद। जब मेरे आराध्य को रोज-रोज खाने के बाद भी माखन खाना याद नहीं रहा तो एक बार खाई टॉफी कैसे??? चलो माफ़ किया अब आगे से याद रखना सबक। '
***
गीत :
समा गया तुम में
---------------------
समा गया है तुममें
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
जो आया, गया वह
बचा है न कोई
अजर कौन कहिये?
अमर है न कोई
जनम बीज ने ही
मरण बेल बोई
बनाया गया तुमसे
यह विश्व सारा
भरम पाल तुमने
पसारा पसारा
*
किसे, किस तरह, कब
कहाँ पकड़ फाँसे
यही सोच खुद को
दिये व्यर्थ झाँसे
सम्हाले तो पाया
नहीं शेष साँसें
तुम्हारी ही खातिर है
यह विश्व सारा
वहम पाल तुमने
पसारा पसारा
१७-२-२०१७

***
आँख पर मुहावरे:
आँख मारना = इंगित / इशारा करना।
मुझे आँख मारते देख गवाह मौन हो गया।
आँखें आना = आँखों का रोग होना।
आँखें आने पर काला चश्मा पहनें।
आँखें चुराना = छिपाना।
उसने समय पर काम नहीं किया इसलिए आँखें चुरा रहा है।
आँखें झुकना = शर्म आना।
वर को देखते ही वधु की आँखें झुक गयीं।
आँखें झुकाना = शर्म आना।
ऐसा काम मत करो कि आँखें झुकाना पड़े।
आँखें टकराना = चुनौती देना।
आँखें टकरा रहे हो तो परिणाम भोगने की तैयारी भी रखो।
आँखें दिखाना = गुस्से से देखना।
दुश्मन की क्या मजाल जो हमें आँखें दिखा सके?
आँखें फेरना = अनदेखी करना।
आज के युग में बच्चे बूढ़े माँ-बाप से आँखें फेरने लगे हैं।
आँखें बंद होना = मृत्यु होना।
हृदयाघात होते ही उसकी आँखें बंद हो गयीं।
आँखें मिलना = प्यार होना।
आँखें मिल गयी हैं तो विवाह के पथ पर चल पड़ो।
आँखें मिलाना = प्यार करना।
आँखें मिलाई हैं तो जिम्मेदारी से मत भागो।
आँखों में आँखें डालना = प्यार करना।
लैला मजनू की तरह आँखों में ऑंखें डालकर बैठे हैं।
आँखें मुँदना = नींद आना, मर जाना।
लोरी सुनते ही ऑंखें मुँद गयीं।
माँ की आँखें मुँदते ही भाई लड़ने लगे।
आँखें मूँदना = सो जाना।
उसने थकावट के कारण आँखें मूँद लीं।
आँखें मूँदना = मर जाना। डॉक्टर इलाज कर पते इसके पहले ही घायल ने आँखें मूँद लीं।
आँखें लगना = नींद आ जाना। जैसे ही आँखें लगीं, दरवाज़े की सांकल बज गयी।
आँखें लड़ना = प्रेम होना।
आँखें लड़ गयी हैं तो सबको बता दो।
आँखें लड़ाना = प्रेम करना।
आँखें लड़ाना आसान है, निभाना कठिन।
आँखें बिछाना = स्वागत करना।
मित्र के आगमन पर उसने आँखें बिछा दीं।
आँखों का काँटा = शत्रु।
घुसपैठिए सेना की आँखों का काँटा हैं।
आँखों की किरकिरी = जो अच्छा न लगे।
आतंकवादी मानव की आँखों की किरकिरी हैं।
आँखों में खून उतरना = अत्यधिक क्रोध आना।
कसाब को देखते ही जनता की आँखों में खून उतर आया।
आँखों में धूल झोंकना = धोखा देना।
खड़गसिंग बाबा भारती की आँखों में धूल झोंक कर भाग गया।
आँखों से गिरना = सम्मान समाप्त होना।
झूठे आश्वासन देकर नेता मतदाताओं की आँखों से गिर गए हैं।
आँखों-आँखों में बात होना = इशारे से बात करना।
आँखों-आँखों मने बात हुई और दोनों कक्षा से बाहर हो गये।
आँखों ही आँखों में इशारा हो गया / बैठे-बैठे जीने का सहारा हो गया।
आँखों-आँखन में बात होने दो / मुझको अपनी बाँहों में सोने दो।
आँख से सम्बंधित मुहावरे:
अंधो मेँ काना राजा = अयोग्यों में खुद को योग्य बताना।
अंधों में काना राजा बनने से योग्यता सिद्ध नहीं होती।
एक आँख से देखना = समानता का व्यवहार करना।
समाजवाद तो नाम मात्र का है, अपने दाल और अन्य दलों के लोगों को कोई भी एक आँख से कहाँ देखता है?
फूटी आँखों न सुहाना = एकदम नापसंद करना।
माली की बेटी रानी को फूटी आँखों न सुहाती थी।
कहावत
अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना = नासमझ/असमर्थ के सामने अपनीव्यथा कहना।
नेताओं से सत्य कहना अंधे के आगे रोना, अपने नैना खोना ही है।
आँख का अंधा नाम नैन सुख = नाम के अनुसार गुण न होना।
उसका नाम तो बहादुर पर छिपकली से डर भी जाता हैं, इसी को कहते हैं आँख का अँधा नाम नैन सुख।
***
सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख
संजीव 'सलिल'
*
कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.
१७-२-२०१३

सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

सोरठा, कृष्ण, सॉनेट, चुनाव, लघुकथा, हाइकू नवगीत, सिद्धि छंद, मुक्तिका

सोरठा सलिला 
• 
कृष्ण कांत का दास, बन तर जा भव से सलिल। 
मन रख दृढ़ विश्वास, चंद्रा तारणहार हैं।। 
• 
धवल कृष्ण सा अन्य, सकल सृष्टि में है कहाँ? 
श्यामल श्यामल अनन्य, जहाँ देखो पाओ वहाँ।। 
• 
राम श्याम हैं एक, धनुष-चक्र ले दनु वधें। 
सिय-राधा के कांत, कांता-कांति अनन्य है।। 
• 
वनवासी-गोपाल, त्याग-राग वैराग्य वर। 
होते भक्त निहाल, भवसागर को पार कर।।
 • 
सरयू-जमुना धार, सलिल राह देखे अथक। 
कब हो प्रभु अवतार, दर्शन कर पाए पुलक।। 
१३-२-२०२३ 
•••
सॉनेट
चुनाव
लबरों झूठों के दिन आए।
छोटे कद, वादे हैं ऊँचे।
बातें कड़वी, जहर उलीचे।।
प्रभु ये दिन फिर मत दिखलाए।।
फूटी आँख न सुहा रहे हैं।
कीचड़ औरों पर उछालते।
स्वार्थ हेतु करते बगावतें।।
निज औकातें बता रहे हैं।।
केर-बेर का संग हो रहा।
सुधरो, जन धैर्य खो रहा।
भाग्य देश का हाय सो रहा।।
नाग-साँप हैं, किसको चुन लें?
सोच-सोच अपना सिर धुन लें।
जन जागे, नव सपने बुन ले।।
१३-२-२०२२

•••
भोपाल १२-२-२०१७. स्वराज भवन भोपाल में अखिल भारतीय गीतिका काव्योत्सव् एवं सम्मान समारोह के प्रथम सत्र में संक्षिप्त वक्तव्य के साथ तुरंत रची मुक्तिका तथा मुक्तक का पाठ किया-
गीतिका उतारती है भारती की आरती
नर्मदा है नेह की जो विश्व को है तारती
वास है 'कैलाश' पे 'उमेंश' को नमन करें
'दीपक' दें बाल 'कांति' शांति-दीप धारती
'शुक्ल विश्वम्भर' 'अरुण' के तरुण शब्द
'दृगों में समंदर' है गीतिका पुकारती
'गीतिका मनोरम है' शोभा 'मुख पुस्तक' की
घनश्याम अभिराम हो अखंड भारती
गीतिका है मापनी से युक्त-मुक्त दोनों ही
छवि है बसंत की अनंत जो सँवारती
*
मुक्तक
अपनी जड़ों से टूटकर, मत अधर में लटकें कभी
गोद माँ की छोड़कर, परिवेश में भटकें नहीं
रच कल्पना में अल्पना, रस-भाव-लय का संतुलन
जो हित सहित है सर्व के, साहित्य है केवल वही
*
मुख पुस्तक पर पढ़ रहे, मन के अंतर्भाव
रच-पढ़-बढ़ते जो सतत, रखकर मन में चाव
वे कण-कण को जोड़ते, सन्नाटे को तोड़
क्षर हो अक्षर का करे, पूजन 'सलिल' सुभाव
***
टीप- श्री कैलाश चंद्र पंत मंत्री राष्ट्र भाषा प्रचार समिति विशेष अतिथि, डॉ. उमेश सिंह अध्यक्ष साहित्य अकादमी म. प्र. मुख्य अतिथि, डॉ. देवेन्द्र दीपक निदेशक निराला सर्जन पीठ अध्यक्ष , डॉ. कांति शुक्ल प्रदेश अध्यक्ष मुक्तिका लोक, डॉ. विश्वम्भर शुक्ल संयोजक मुक्तक लोक, अरुण अर्णव खरे संयोजक, घनश्याम मैथिल 'अमृत', अखंड भारती संचालक, बसंत शर्मा अतिथि कवि, दृगों में समंदर तथा गीतिका मनोरम है विमोचित कृतियाँ.
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गीतिका है मनोरम सभी के लिये
दृग में है रस समुंदर सभी के लिए
सत्य, शिव और सुंदर सृजन नित करें
नव सृजन मंत्र है यह सभी के लिए
छंद की गंधवाही मलय हिन्दवी
भाव-रस-लय सुवासित सभी के लिए
बिम्ब-प्रतिबिम्ब हों हम सुनयने सदा
साध्य है, साधना है, सभी के लिए
भाव ना भावना, काम ना कामना
तालियाँ अनगिनत गीतिका के लिए
गीत गा गीतिका मुक्तिका से कहे
तेवरी, नव गजल 'सलिल' सब के लिए
***
***
लघुकथा-
निरुत्तर
*
मेरा जूता है जापानी, और पतलून इंग्लिस्तानी
सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
पीढ़ियाँ गुजर गयीं जापान, इंग्लॅण्ड और रूस की प्रशंसा करते इस गीत को गाते सुनते, आज भी उपयोग की वस्तुओं पर जापान, ब्रिटेन, इंग्लैण्ड, चीन आदि देशों के ध्वज बने रहते हैं उनके प्रयोग पर किसी प्रकार की आपत्ति किसी को नहीं होती। ये देश हमसे पूरी तरह भिन्न हैं, इंग्लैण्ड ने तो हमको गुलाम भी बना लिया था। लेकिन अपने आसपास के ऐसे देश जो कल तक हमारा ही हिस्सा थे, उनका झंडा फहराने या उनकी जय बोलने पर आपत्ति क्यों उठाई जाती है? पूछा एक शिष्य ने, गुरु जी थे निरुत्तर।
***
आशा की कंदील झूलती, मिली समय की शाख पर
जलकर भी देती उजियारा, खुश हो खुद को राख कर
***
हाइकु नवगीत :
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.
***
षटपदियाँ:
आभा की देहरी हुआ, जब से देहरादून
चमक अर्थ पर यूं रहा, जैसे नभ में मून
जैसे नभ में मून, दून आनंद दे रहा
कितने ही यू-टर्न, मसूरी घुमा ले रहा
सलिल धार से दूरी रख, वर्ना हो व्याधा
देख हिमालय शिखर, अनूठी जिसकी आभा.
.
हुए अवस्था प्राप्त जो, मिला अवस्थी नाम
राम नाम निश-दिन जपें, नहीं काम से काम
नहीं काम से काम, हुए बेकाम देखकर
शास्त्राइन ने बेलन थामा, लक्ष्य बेधकर
भागे जान बचाकर, घर से भंग बिन पिए
बेदर बेघर-द्वार आज देवेश भी हुए
१३-२-२०१५
***
छंद सलिला:
सिद्धि छंद
*
दो पदी, चार चरणीय, ४४ वर्णों, ६९ मात्राओं के मात्रिक सिद्धि छंद में प्रथम चरण इन्द्रवज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु) तथा द्वितीय, तृतीय व् चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा (जगण तगण जगण २ गुरु) छंद के होते हैं.
उदाहरण:
१. आना, न जाना मन में समाना, बना बहाना नज़रें मिलाना
सुना तराना नज़दीक आना, बना बहाना नयना चुराना
२. ऊषा लजाये खुद को भुलाये, उठा करों में रवि चूम भागा
हुए गुलाबी कह गाल ?, करे ठिठोली रतनार मेघा
३. आकाशचारी उड़ता अकेला, भरे उड़ानें नभ में हमेशा
न पिंजरे में रहना सुहाता, हरा चना भी उसको न भाता
***
हास्य सलिला:
लाल गुलाब
*
लालू घर में घुसे जब लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊंगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
चलो रसोई सम्हालो, मैं जाऊं बाज़ार
चलकर पहले पोंछ दो मैली मेरी चार.'
१३-२-२०१४
***
नवगीत:
कम लिखता हूँ...
*
क्या?, कैसा है??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत केवल
है गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही मंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
***
मुक्तिका
साथ बुजुर्गों का...
*
साथ बुजुर्गों का बरगद की छाया जैसा.
जब हटता तब अनुभव होता था वह कैसा?

मिले विकलता, हो मायूस मौन सहता मन.
मिले सफलता, नशा मूंड़ पर चढ़ता मै सा..

कम हो तो दुःख, अधिक मिले होता विनाश है.
अमृत और गरल दोनों बन जाता पैसा..

हटे शीश से छाँव, धूप-पानी सिर झेले.
फिर जाने बिजली, अंधड़, तूफां हो ऐसा..

जो बोया है वह काटोगे 'सलिल' न भूलो.
नियति-नियम है अटल, मिले जैसा को तैसा..
***
मुक्तिका:
जमीं बिस्तर है
*

जमीं बिस्तर है, दुल्हन ज़िंदगी है.
न कुछ भी शेष धर तो बंदगी है..

नहीं कुदरत करे अपना-पराया.
दिमागे-आदमी की गंदगी है..

बिना कोशिश जो मंजिल चाहता है
इरादों-हौसलों की मंदगी है..

जबरिया बात मनवाना किसी से
नहीं इंसानियत, दरिन्दगी है.

बात कहने से पहले तौल ले गर
'सलिल' कविताई असली छंदगी है..
१३-२-२०११
***

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

सॉनेट, गणतंत्र, मुक्तिका, दोहे, तलाक, सवैया, उल्लाला, पटवारी

सॉनेट
विडंबना
*
अपना दीपक आप बनो रे!
बुद्ध कह गए हमने माना।
दीप जलाना मन में ठाना।।
भूले अँखिया खोल रखो रे।।
घर झुलसा घर के दीपक से।
बैठे हैं हम आग तापते।
भोग लगा वरदान माँगते।।
केवल इतना नाता प्रभु से।।
जपें राम पर काम न करते।
तजें न सत्ता, काम सुमिरते।
भवबंधन में खुद को कसते।।
आँख न खोलें नाम नयनसुख।
निज करनी से पाते हैं दुख।
रब को कैसे दिखलाएँ मुख?
१२-२-२०२२
•••

अगिन नमन गणतंत्र महान
जनगण गाए मंगलगान
*
दसों दिशाएँ लिए आरती
नजर उतारे मातु भारती
धरणि पल्लवित-पुष्पित करती
नेह नर्मदा पुलक तारती
नीलगगन विस्तीर्ण वितान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
ध्वजा तिरंगी फहरा फरफर
जनगण की जय बोले फिर फिर
रवि बन जग को दें प्रकाश मिल
तम घिर विकल न हो मन्वन्तर
सत्-शिव-सुंदर मूल्य महान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
नीव सुदृढ़ मजदूर-किसान
रक्षक हैं सैनिक बलवान
अभियंता निर्माण करें नव
मूल्य सनातन बन इंसान
सुख-दुख सह समभाव सकें हँस
श्वास-श्वास हो रस की खान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
केसरिया बलिदान-क्रांति है
श्वेत स्नेह सद्भाव शांति है
हरी जनाकांक्षा नव सपने-
नील चक्र निर्मूल भ्रांति है
रज्जु बंध, निर्बंध उड़ान
अगिन नमन गणतंत्र महान
*
कंकर हैं शंकर बन पाएँ
मानवता की जय जय गाएँ
अडिग अथक निष्काम काम कर
बिंदु सिंधु बनकर लहराएँ
करे समय अपना जयगान
२६-१-२०२१
***
मुक्तिका
*
आज खत का जवाब आया है
धूल में फूल मुस्कुराया है
*
याद की है किताब हाथों में
छंद था मौन; खिलखिलाया है
*
नैन नत बोलते बिना बोले
रोज डे रोज ही मनाया है
*
कौन किसको प्रपोज कब करता
चाह ने चाहकर बुलाया है
*
हाथ बढ़ हाथ थामकर सिहरा
पैर ने पैर झट मिलाया है
*
देख मुखड़ा बना लिया मुखड़ा
अंतर में अंतरा बसाया है
*
दे दिया दिल न दिलरुबा छोड़ा
दिलवरी की न दिल दुखाया है
१२-२२०२१
***
तीन तलाक - दोहे
*
तीन तलाक दीजिए, हर दिन जगकर आप
नफरत, गुस्सा, लोभ को, सुख न सकेंगे नाप
जुमलों धौंस प्रचार को, देकर तीन तलाक
दिल्ली ने कर दिया है, थोथा गर्व हलाक
भाव छंद रस बिंब लय, रहे हमेशा साथ
तीन तलाक न दें कभी, उन्नत हो कवि-माथ
आँसू का दरिया कहें, पर्वत सा दर्द
तीन तलाक न दे कभी, कोई सच्चा मर्द
आँखों को सपने दिए, लब को दी मुस्कान
छीन न तीन तलाक ले, रखिए पल-पल ध्यान
दिल से दिल का जोड़कर, नाता हुए अभिन्न
तीन तलाक न पाक है, बोल न होइए भिन्न
अल्ला की मर्जी नहीं, बोलें तीन तलाक
दिल दिलवर दिलरुबा का, हो न कभी भी चाक
जो जोड़ा मत तोड़ना, नाता बेहद पाक
मान इबादत निभाएँ बिसरा तीन तलाक
जो दे तीन तलाक वह, आदम है शैतान
आखिर दम तक निभाए, नाता गर इंसान
***
सवैया
२७ वर्णिक
यति १४-१३
*
ये सवेरा तीर की मानिंद चुभता है, चलो आशा का नया सूरज उगाएँ
घेर लें बादल निराशा के अगर तो, हौसलों की हवा से उनको उड़ाएँ
मेहनत है धर्म अपना स्वेद गंगा, भोर से संझा नहा नवगीत गाएँ
रात में बारात तारों की सजाकर, चाँदनी घर चाँद को दूल्हा बनाएँ
१२-२-२०२०
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ उल्लाला
*
उल्लाला हिंदी छंद शास्त्र का पुरातन छंद है। वीर गाथा काल में उल्लाला तथा रोला को मिलकर छप्पय छंद की रचना की जाने से इसकी प्राचीनता प्रमाणित है। उल्लाला छंद को स्वतंत्र रूप से कम ही रचा गया है। अधिकांशतः छप्पय में रोला के ४ चरणों के पश्चात् उल्लाला के २ दल (पंक्ति) रचे जाते हैं। प्राकृत पैन्गलम तथा अन्य ग्रंथों में उल्लाला का उल्लेख छप्पय के अंतर्गत ही है।
जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित छंद प्रभाकर तथा ॐप्रकाश 'ॐकार' रचित छंद क्षीरधि के अनुसार उल्लाल तथा उल्लाला दो अलग-अलग छंद हैं। नारायण दास लिखित हिंदी छन्दोलक्षण में इन्हें उल्लाला के २ रूप कहा गया है। उल्लाला १३-१३ मात्राओं के २ सम चरणों का छंद है। उल्लाल १५-१३ मात्राओं का विषम चरणी छंद है जिसे हेमचंद्राचार्य ने 'कर्पूर' नाम से वर्णित किया है। डॉ. पुत्तूलाल शुक्ल इन्हें एक छंद के दो भेद मानते हैं। हम इनका अध्ययन अलग-अलग ही करेंगे।
'भानु' के अनुसार:
उल्लाला तेरा कला, दश्नंतर इक लघु भला।
सेवहु नित हरि हर चरण, गुण गण गावहु हो शरण।।
अर्थात उल्लाला में १३ कलाएं (मात्राएँ) होती हैं दस मात्राओं के अंतर पर ( अर्थात ११ वीं मात्रा) एक लघु होना अच्छा है।
दोहा के ४ विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। यह १३-१३ मात्राओं का सम पाद मात्रिक छन्द है जिसके चरणान्त में यति है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा विभाजन ८+३+२ है अंत में १ गुरु या २ लघु का विधान है।
सारतः उल्लाला के लक्षण निम्न हैं-
१. २ पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के ४ चरण
२. सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु
३. चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए।
४. चरणान्त में एक गुरु या २ लघु हों।
५. सम चरणों (२, ४) के अंत में समान तुक हो।
६. सामान्यतः सम चरणों के अंत एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक सी मात्रा हो। अपवाद स्वरुप प्रथम पद के दोनों चरणों में एक जैसी तथा दूसरे पद के दोनों चरणों में
उदाहरण :
१.नारायण दास वैष्णव
रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु।
काटत भव के फन्द को, और न कोऊ राम बिनु।।
२. घनानंद
प्रेम नेम हित चतुरई, जे न बिचारतु नेकु मन।
सपनेहू न विलम्बियै, छिन तिन ढिग आनंदघन।
३. ॐ प्रकाश बरसैंया 'ॐकार'
राष्ट्र हितैषी धन्य हैं, निर्वाहा औचित्य को।
नमन करूँ उनको सदा, उनके शुचि साहित्य को।।
४. अभिनव प्रयोग-
उल्लाला गीत:
जीवन सुख का धाम है
संजीव 'सलिल'
*
जीवन सुख का धाम है,
ऊषा-साँझ ललाम है.
कभी छाँह शीतल रहा-
कभी धूप अविराम है...*
दर्पण निर्मल नीर सा,
वारिद, गगन, समीर सा,
प्रेमी युवा अधीर सा-
हर्ष, उदासी, पीर सा.
हरी का नाम अनाम है
जीवन सुख का धाम है...
*
बाँका राँझा-हीर सा,
बुद्ध-सुजाता-खीर सा,
हर उर-वेधी तीर सा-
बृज के चपल अहीर सा.
अनुरागी निष्काम है
जीवन सुख का धाम है...
*
वागी आलमगीर सा,
तुलसी की मंजीर सा,
संयम की प्राचीर सा-
राई, फाग, कबीर सा.
स्नेह-'सलिल' गुमनाम है
जीवन सुख का धाम है...
***
उल्लाला मुक्तिका:
दिल पर दिल बलिहार है
संजीव 'सलिल'
*
दिल पर दिल बलिहार है,
हर सूं नवल निखार है..
प्यार चुकाया है नगद,
नफरत रखी उधार है..
कहीं हार में जीत है,
कहीं जीत में हार है..
आसों ने पल-पल किया
साँसों का सिंगार है..
सपना जीवन-ज्योत है,
अपनापन अंगार है..
कलशों से जाकर कहो,
जीवन गर्द-गुबार है..
स्नेह-'सलिल' कब थम सका,
बना नर्मदा धार है..
******
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
संजीव 'सलिल'
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
१२-२-२०१६
***
नवगीत:
.
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नवगीतों ने व्यथा-कथाएँ
कही अंतरों में गा-गाकर
छंदों ने अमृत बरसाया
अविरल दुःख सह
सुख बरसाकर
दोहा आल्हा कजरी पंथी
कर्म-कुंडली बाँच-बाँचकर
थके-चुके जनगण के मन में
नव आशा
फसलें बो पाये
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
नव प्रयास के मुखड़े उज्जवल
नव गति-नव यति, ताल-छंद नव
बिंदासी टटकापन देकर
पार कर रहे
भव-बाधा हर
राजनीति की कुलटा-रथ्या
घर के भेदी भक्त विभीषण
क्रय-विक्रयकर सिद्धांतों का
छद्म-कहानी
कब कह पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
.
हास्य-व्यंग्य जमकर विरोध में
प्रगतिशीलता दर्शा हारे
विडंबना छोटी कहानियाँ
थकीं, न लेकिन
नक्श निखारे
चलीं सँग, थक, बैठ छाँव में
कलमकार से कहे लोक-मन
नवगीतों को नवाचार दो
नयी भंगिमा
दर्शा पाये?
आश्वासन के उपन्यास
कब जन गण की
पीड़ा हर पाये?
१२-२-२०१५
.
नवगीत:
.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
मेहनतकश हाथों ने बढ़
मतदान किया.
झुकाते माथों ने
गौरव का भान किया.
पंजे ने बढ़
बटन दबाया
स्वप्न बुने.
आशाओं के
कमल खिले
जयकार हुआ.
अवसर की जय
रात हटी तो प्रात हुई.
आसमान में आयी ऊषा.
पौध जगे,
पत्तियाँ हँसी,
कुछ कुसुम खिले.
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
.
आम आदमी ने
खुद को
पहचान लिया.
एक साथ मिल
फिर कोइ अरमान जिया.
अपने जैसा,
अपनों जैसा
नेता हो,
गड़बड़ियों से लड़कर
जयी विजेता हो.
अलग-अलग पगडंडी
मिलकर राह बनें
केंद्र-राज्य हों सँग
सृजन का छत्र तने
जग सिरमौर पुनः जग
भारत बना सकें
मफलर की जय
सूट-बूट की मात हुई.
चमरौधों में जागी आशा
शीश उठे,
मुट्ठियाँ तनीं,
कुछ कदम बढ़े.
११.२.२०१५
.
मुक्तिका
*
यहीं कहीं था, कहाँ खो गया पटवारी जी?
जगते-जगते भाग्य सो गया पटवारी जी..

गैल-कुआँ घीसूका, कब्जा ठाकुर का है.
फसल बैर की, लोभ बो गया पटवारी जी..

मुखिया की मोंड़ी के भारी पाँव हुए तो.
बोझा किसका?, कौन ढो गया पटवारी जी..

कलम तुम्हारी जादू करती मान गये हम.
हरा चरोखर, खेत हो गया पटवारी जी..

नक्शा-खसरा-नकल न पायी पैर घिस गये.
कुल-कलंक सब टका धो गया पटवारी जी..

मुट्ठी गरम करो लेकिन फिर दाल गला दो.
स्वार्थ सधा, ईमान तो गया पटवारी जी..

कोशिश के धागे में आशाओं का मोती.
'सलिल' सिफारिश-हाथ पो गया पटवारी जी..
***
मुक्तिका
*
आँखों जैसी गहरी झील.
सकी नहीं लहरों को लील..

पर्यावरण प्रदूषण की
ठुके नहीं छाती में कील..

समय-डाकिया महलों को
कुर्की-नोटिस कर तामील..

मिष्ठानों का लोभ तजो.
खाओ बताशे के संग खील..

जनहित-चुहिया भोज्य बनी.
भोग लगायें नेता-चील..

लोकतंत्र की उड़ी पतंग.
थोड़े ठुमके, थोड़ी ढील..

पोशाकों की फ़िक्र न कर.
हो न इरादा गर तब्दील..

छोटा मान न कदमों को
नाप गये हैं अनगिन मील..

सूरज जाये महलों में.
'सलिल' कुटी में हो कंदील..
१२-२-२०११
***

भारतेंदु हरिश्चंद्र,प्रहसन

 सबै जात गोपाल की

भारतेंदु हरिश्चंद्र
(एक पंडित जी और एक क्षत्री आते हैं)
क्षत्री : महाराज देखिये बड़ा अंधेर हो गया कि ब्राह्मणों ने व्यवस्था दे दी कि कायस्थ भी क्षत्री हैं। कहिए अब कैसे कैसे काम चलेगा।
पंडित : क्यों, इसमें दोष क्या हुआ? ”सबै जात गोपाल की“ और फिर यह तो हिन्दुओं का शास्त्रा पनसारी की दुकान है और अक्षर कल्प वृक्ष है इस में तो सब जात की उत्तमता निकल सकती है पर दक्षिणा आप को बाएं हाथ से रख देनी पडे़गी फिर क्या है फिर तो ”सबै जात गोपाल की“।
क्ष. : भला महाराज जो चमार कुछ बनना चाहे तो उसको भी आप बना दीजिएगा।
पं. : क्या बनना चाहै?
क्ष. : कहिये ब्राह्मण।
पं. : हां, चमार तो ब्राह्मण हुई है इस में क्या संदेह है, ईश्वर के चम्र्म से इनकी उत्पत्ति है, इन को यह दंड नहीं होता। चर्म का अर्थ ढाल है इससे ये दंड रोक लेते हैं। चमार में तीन अक्षर हैं ‘च’ चारों वेद ‘म’ महाभारत ‘र’ रामायण जो इन तीनों को पढ़ावे वह चमार। पद्मपुराण में लिखा है। इन चर्मकारों ने एक बेर बड़ा यज्ञ किया था, उसी यज्ञ में से चर्मण्ववती निकली है। अब कर्म भ्रष्ट होने से अन्त्यज हो गए हैं नहीं तो है असिल में ब्राह्मण, देखो रैदास इन में कैसे भक्त हुए हैं लाओ दक्षिणा लाओ। ‘सवै’
क्ष. : और डोम?
पं. : डोम तो ब्राह्मण क्षत्रिय दोनों कुल के हैं, विश्वामित्र-वशिष्ट वंश के ब्राह्मण डोम हैं और हरिश्चंद्र और वेणु वंश के क्षत्रिय हैं। इस में क्या पूछना है लाओ दक्षिणा ‘सबै जा.’।
क्ष. : और कृपा निधान! मुसलमान।
पं. : मीयाँ तो चारों वर्णों में हैं। बाल्मीकि रामायण में लिखा है जो वर्ण रामायण पढ़े मीयाँ हो जाय।
पठन् द्विजो वाग् ऋषभत्वमीयात्।
ख्यात् क्षत्रियों भूमिपतित्वमीयात् ।।
अल्लहोपनिषत् में इनकी बड़ी महिमा लिखी है। द्वारका में दो भाँति के ब्राह्मण थे जिनको बलदेव जी (मुशली) मानते थे। उनका नाम मुशलिमान्य हुआ और जिन्हें श्रीकृष्ण मानते उनका नाम कृष्णमान्य हुआ। अब इन दोनों शब्दों का अपभ्रंश मुसलमान और कृस्तान हो गया।
क्ष. : तो क्या आप के मत से कृस्तान भी ब्राह्मण हैं?
पं. : हई हैं इसमें क्या पूछना है-ईशावास उपनिषत् में लिखा है कि सब जगत ईसाई है।
क्ष. : और जैनी?
पं. : बड़े भारी ब्राह्मण हैं। ”अहैन्नित्यपि जैनशासनरता“ जैन इनका नाम तब से पड़ा जब से राजा अलर्क की सभा में इन्हें कोई जै न कर सका!
क्ष. : और बौद्ध?
पं. : बुद्धि वाले अर्थात् ब्राह्मण।
क्ष. : और धोबी?
पं. : अच्छे खासे ब्राह्मण जयदेव के जमाने तक धोबी ब्राह्मण होते थे। ‘धोई कविः क्षमापतिः’। ये शीतला के रज से हुए हैं इससे इनका नाम रजक पड़ा।
क्ष. : और कलवार?
पं. : क्षत्री हैं, शुद्ध शब्द कुलवर है, भट्टी कवि इसी जाति में था।
क्ष. : और महाराज जी कुंहार?
पं. : ब्राह्मण, घटखप्र्पर कवि था।
क्ष. : और हां, हां, वैश्या?
पं. : क्षत्रियानी-रामजनी, और कुछ बनियानी अर्थात् वेश्या।
क्ष. : अहीर?
पं. : वैश्य-नंदादिकों के बालकों का द्विजाति संस्कार होता था। ”कुरु द्विजाति संस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकं“ भागवत में लिखा है।
क्ष. : भुंइहार?
पं. : ब्राह्मण।
क्ष. : ढूसर?
पं. : ब्राह्मण, भृगुवंश के, ज्वालाप्रसाद पंडित का शास्त्रार्थ पढ़ लीजिए।
क्ष. : जाठ?
पं. : जाठर क्षत्रिय।
क्ष. : और कोल?
पं. : कोल ब्राह्मण।
क्ष. : धरिकार?
पं. : क्षत्रिय शुद्ध शब्द धर्यकार है।
क्ष. : और कुनबी और भर और पासी?
पं. : तीनों ब्राह्मण वंश में हैं, भरद्वाज से भर, कन्व से कुनबी, पराशर के पासी।
क्ष. : भला महाराज नीचों को तो आपने उत्तम बना दिया अब कहिए उत्तमों को भी नीच बना सकते हैं?
पं. : ऊँच नीच क्या, सब ब्रह्म है, आप दक्षिणा दिए चलिए सब कुछ होता चलेगा।
क्ष. : दक्षिणा मैं दूंगा, आप इस विषय में भी कुछ परीक्षा दीजिए।
पं. : पूछिए मैं अवश्य कहूंगा।
क्ष. : कहिए अगरवाले और खत्री?
पं. : दोनों बढ़ई हैं, जो बढ़िया अगर चंदन का काम बनाते थे उनकी संज्ञा अगरवाले हुई और जो खाट बीनते थे वे खत्री हुए या खेत अगोरने वाले खत्री कहलाए।
क्ष. : और महाराज नागर गुजराती?
पं. : सपेरे और तैली, नाग पकड़ने से नागर और गुल जलाने से गुजराती।
क्ष. : और महाराज भुंइहार और भाटिये और रोडे?
पं. : तीनों शूद्र, भुजा से भुंइहार, भट्टी रखने वाले भाटिये, रोड़ा ढोने वाले रोडे़।
क्ष. : (हाथ जोड़कर) महाराज आप धन्य हौ। लक्ष्मी वा सरस्वती जो चाहैं सो करैं। चलिए दक्षिणा लीजिये।
पं. : चलौ इस सब का फल तो यही था।
(दोनों गए)
***
विमर्श :
कायस्थ शासक सेन वंश
*
सेन वंश को गौर (पश्चिमी क्षेत्रों में) या गौड़ (पूर्वी क्षेत्रों )में कहा जाता है।
रामपाल के शासनकाल में १०९७ ई. से १०९८ ई. तक में तिरहुत में कर्नाट राज्य का उदय संस्थापक नान्यदेव के नेतृत्व में हुआ था। नान्यदेव एक महान शासक था। नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरावगढ़ बनाई। कर्नाट शासकों का शासनकाल मिथिला का स्वर्ण युग कहा जाता है। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था। नान्यदेव का पुत्र गंगदेव एक योग्य शासक बना। वैन वार वंश के शासन तक मिथिला में स्थिरता और प्रगति हुई ।
सेन वंश का संस्थापक सामन्त सेन था। विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि क्रमश: शासक बने। सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार पर शासन किया। विजय सेन शैव धर्मानुयायी था। उसने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का निर्माण करवाया। वह एक लेखक भी थे जिसने ‘दान सागर’ और ‘अद्‍भुत सागर’ दो ग्रंथों की रचना की। सेन वंश का अंतिम शासक लक्ष्मण सेन था। हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मंत्री एवं न्यायाधीश था। गीत गोविंद के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी था।
सेन राजाओं ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए ११६० ई. में गया के शासक गोविंदपाल से युद्ध किया। ११२४ ई. में गहड़वाल शासक गोविंदपाल ने मनेर तक अभियान चलाया ।
जयचंद्र ने ११७५-७६ ई. में पटना और ११८३ ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर उसने तुर्की का सहयोग लिया। उसी समय बख्तियार खिलजी बिहार आया। उसने नरदेव सिंह को धन देकर सन्तुष्ट कर लिया और नरदेव सिंह का साम्राज्य तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैल गया। कर्नाट वंश के शासक सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रांतपति बनाए गए।
बिहार और बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक ने १३२४-२५ ई. में आधिपत्य कर लिया। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह था। वह तुर्क सेना से हार मानकर नेपाल की तराई में जा छिपा। इस प्रकार उत्तरी और पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश १३७८ ई. में समाप्त हो गया ।
आदित्य सेन- माधवगुप्त की मृत्यु ६५० ई. के बाद उसका पुत्र आदित्य सेन मगध की गद्दी पर बैठा । वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक था। अफसढ़ और शाहपुर के लेखों से मगध पर उसका आधिपत्य प्रमाणित होता है। मंदार पर्वत के लेख में अंग राज्य पर आदित्य सेन के अधिकार तथा चोल राज्य पर विजय का उल्लेख है । उसने तीन अश्वमेध यज्ञ किये थे। आदित्य सेन उत्तर प्रदेश के आगरा और अवध के अंतर्गत एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने वाला प्रथम शासक था।
उसने अपने पूर्वगामी गुप्त सम्राटों की परंपरा को पुनर्जीवित किया। उसके शासनकाल में चीनी राजदूत वांग यूएनत्से ने दो बार भारत की यात्रा की। कोरियन बौद्ध यात्री के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मंदिर बनवाया था। आदित्य सेन ने ६७५ ई. तक शासन किया था।
आदित्य सेन के उत्तराधिकारी तथा उत्तर गुप्तों का विनाश-
आदित्य सेन की ६७५ ई. में मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवगुप्त द्वितीय हुआ। उसने भी परम भट्टारक महाधिराज की उपाधि धारण की । चालुक्य लेखों के अनुसार उसे सकलोत्तर पथनाथ कहा गया है। इसके बाद विष्णुगुप्त तथा फिर जीवितगुप्त द्वितीय राजा बने। जीवितगुप्त द्वितीय का काल लगभग ७२५ ई. माना जाता है। जीवितगुप्त द्वितीय का वध कन्नौज नरेश यशोवर्मन ने किया। जीवितगुप्त की मृत्यु के बाद उत्तर गुप्तों के मगध साम्राज्य का अंत हो गया ।
***

पुस्तक विमोचन, संगीता भारद्वाज, नवनीता चौरसिया, अस्मिता 'शैली' , जयंत भारद्वाज

पुस्तक विमोचन वक्तव्य 
यादों के पलाश तथा यात्राओं की तलाश - डॉ. संगीता भारद्वाज। 
मन नवनीत - नवनीता चौरसिया 
सृजन के सोपान - अस्मिता 'शैली' 
*
ॐ अनाहद नाद, चित्र गुप्त जो चित्त में।
वही वर्ण बन व्याप्त, होता सदा कवित्त में।।
.
कलकल-कलरव व्याप, करे शारदा वंदना। 
कण-कण में है आप, दीप ज्योति कर साधना।।।
.
'तरुण' अरुण 'पाथेय', 'श्री वास्तव' में लुटाता। 
नर के मध्य 'सुरेश', कलाकार की कला सम।।
.
पाकर 'चंद्रा' छाँव, 'भगवत' होती 'तनूजा'।।
काव्य-कला के गाँव, हो 'जयंत' हर नव सृजन।।
.
जीव तभी 'संजीव', जब 'प्रवीण' हो 'मुसाफिर'। 
प्रगटे करुणासींव, बिंदु-शब्द में आप ही।।
.
'संगीता' हर श्वास, 'नवनीता' हो आस हर। 
करे 'अस्मिता' रास, 'शैली' 'पथिक' 'मधुर' चुने।।
.
जब जब शत आकर, निराकार 'अन्विता' ले।  
तब सपने साकार, हो 'मौली' सम साथ हों।।
जीवन रेवा तीर,'यादें बने पलाश' जब। 
दहकें दे सुख-पीर, बिछुड़े-बीते-यादकर।।
.
करते रहें 'तलाश, यात्राओं की' जो सतत। 
वे बाँधें भुज-पाश, प्रकृति-सुंदरी की छटा।।
.
होता 'मन नवनीत' जब, तन हो जब चट्टान। 
तब रस-निधि रस-लीन हो, आत्म बने रस-खान।। 
.
पाए परमानंद, चढ़े सृजन सोपान जो।
पल पल आनंदकंद, रहें सदा उस पर सदय।।
.
सृजन 'त्रिवेणी' आज, 'कला वीथिका' में बहे। 
धन्य सार्थक काज, जो अवगाहे वह कहे।।  
.
बिंदु-लकीर न भिन्न, हैं अभिन्न तन-आत्म सम। 
शब्दोच्चार अभिन्न, परापरा इनमें निहित।। 
.
रचना-रचनाकार, सृष्टि-ब्रह्म सम एक हैं।  
दिखते रूप हजार, कोई गिन सकता नहीं।।
.
हर रेखा में ताल, बिंदु बिंदु में नाद है।
सचमुच किया कमाल, वाह वाह शैली गजब।।
.
शैली के संकेत, सोपानों पर सृजन के। 
अंतर्मन अनिकेत, देख सराहें मुग्ध सब।।
.
खाता मिसरी घोल, कान्हा मन नवनीत ले।
वृत्ति रही है बोल, नवनीता की विनोदी।।
.
यादें देतीं साथ, तब जब जब खिलें पलाश।
मौलि शुभागत हाथ, मन जयंत हो बाँधता।।
.
बढ़ते पैर तलाश, यात्राओं की जब करें।
यादें हों भुजपाश, मंज़िल मिलकर नहिं मिले।।
.
पद्य-गद्य अरु चित्र, त्रिदल त्रिवेणी त्रिनेत्री। 
त्रिपुर त्रिकाल त्रिमित्र, ताप दोष पावक त्रयी।।
.
जोड़ तीन संयोग, तीन भगिनियाँ त्रिदेवी। 
शुभ सारस्वत योग, तीन राम ज्यों हों वरद।  
.
दिन अंबर ले नाप, चार दिशा सम पुस्तकें। 
करें अभय हर ताप, मन पर देकर दस्तकें।।
.
वेद धाम युग पीठ, आश्रम वर्ण विकार भी। 
सब जानें हैं चार, चतुरानन को कर नमन।।
.
ग्यारह रुद्र पधार, तिथि ग्यारह एकादशी। 
दे आशीष निहार, कहें पञ्च अमृत पियो।।
.
हुए मंच आसीन, पाँच अतिथि सुर पाँच ज्यों। 
यज्ञ प्राण नद तत्व, गव्य भूत शर पाँच ही।। 
.
ग्यारह दो तेईस, नौ शुभांक दे पूर्णता। 
पूजें मातृ मनीश, भक्ति नंद निधि रत्न ग्रह।।
.
चढ़ें सृजन सोपान, फागुन सावन सम लगे। 
यादें तान वितान, रंग पलाशी बिखेरें।।
.
खुद की करें तलाश, यात्राओं में हम सभी।
पाकर मन नवनीत, आह्लादित हों कान्ह सम।। 
...    


शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

विराट, समीक्षा, नवगीत, दिल्ली, सर्वोदय, अमरनाथ, दोहा, सॉनेट रस, सोरठा, वैलेंटाइन

सॉनेट 
वैलेंटाइन 
वैलेंटाइन प्रेम-खुमारी 
सारी दुनिया है पगलाई
लला-लली को भाई यारी
गिफ्ट लिफ्ट की राह सुहाई

रोज रोज़ ले इत-उत ताँकें
टॉफी-चॉकलेट मुट्ठी-भर 
आलिंगन भर बाँकी-बाँके
प्रॉमिस करते नित झोली भर

आँख बचाकर आँख मिलाते
आँख फेरते, आँख चुराते
आँख मिलाते, आँख दिखाते
आँख बसाते, आँख गिराते

दो दिन में खो जाती शाइन
नौ दो ग्यारह वैलेंटाइन 
११-२-२०२३
•••

सोरठा सलिला
सेंकें नेता लोग, अपनी-अपनी रोटियाँ।
इनको तनिक न सोग, लोग मरें मँहगाई से।.
*
गगन छू रहे भाव, आय निरंतर घट रही।
नेताओं का चाव, बिन मतलब की बतकही।।
*
टैक्सेबल हो साँस, चाह रही सरकार यह।
बनी गले की फाँस, राह न कोई सूझती।।
*
ऑक्टोपस बाजार, उपभोक्ता के प्राण ले। 
उसके हाथ हजार, इसकी इनकम एक है।।
*
लघु- कुटीर उद्योग, मिटा रही सरकार नित। 
चंद खरबपति लोग, साध रहे हिन् निहित हित।।
११-२-२०२३ 
***
हास्य सलिला:
वैलेंटाइन पर्व:
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर
*
मुक्तक :
.
जो हुआ अनमोल है बहुमूल्य, कैसे मोल दूँ मैं ?
प्रेम नद में वासना-विषज्वाल कैसे घोल दूँ मैं?
तान सकता हूँ नहीं मैं तार, संयम भंग होगा-
बजाना वीणा मुझे है कहो कैसे झोल दूँ मैं ??
.
सॉनेट
रस
*
रस गागर रीते फिर फिर भर।
तरस न बरस सरस होकर मन।
नीरस मत हो, हरष हुलस कर।।
कलकल कर निर्झर सम हर जन।।
दरस परस कर, उमग-उमगकर।
रूपराशि लख, मादक चितवन।
रसनिधि अक्षर नटवर-पथ पर।।
हो रस लीन श्वास कर मधुबन।।
जग रसखान मान, अँजुरी भर।
नेह नर्मदा जल पी आत्मन!
कर रस पान, पुलक जय-जयकर।।
सुबह शाम हर फागुन-सावन।।
लगे हाथ रस गर न बना रस।
लूट लुटा रे धँस-हँस बतरस ।।
११-२-२०२२
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कृति चर्चा :
दोहा गाथा : छंदराज पर शोधपरक कृति
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : दोहा गाथा, शोध कृति, अमरनाथ, प्रथम संस्करण २०२०, २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ ९६, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१]
विश्ववाणी हिंदी के छंद कोष का कालजयी रत्न छंदराज दोहा, कवियों हो सर्वाधिक प्रिय रहा है और रहेगा भी। छन्दाचार्य अभियंता अमरनाथ जी द्वारा रचित 'दोहागाथा' गागर में सागर की तरह लघ्वाकारी किन्तु गहन शोध परक कृति है। खंड काव्य जटायु व कालजयी, कहानी संग्रह जीवन के रंग तथा आस पास बिखरी हुई जिंदगी, नव विधा क्षणिका संग्रह चुटकी, भजन संग्रह चरणों में, व्यंग्य संग्रह खरी-खोटी तथा सूक्ष्म समीक्षा कृति काव्य रत्न के सृजन के पश्चात् दोहागाथा अमरनाथ साहित्य का नौवा रत्न है। कहावत है 'लीक तोड़ तीनों चलें शायर सिंह सपूत' अमर नाथ जी इन तीनों गुणों से संपन्न हैं। शायर अर्थात कवि तो वे हैं ही, अभियंता संघों में आंदोलन-काल में सिंह की तरह दहाड़ते अमरनाथ को जिन्होंने सुना है, वे भूल नहीं सकते। अमरनाथ जी जैसा सपूत हर माता-पिता चाहता है। अमरनाथ जी के व्यक्तित्व के अन्य अनेक पक्ष पर्यावरण कार्यकर्ता, समाज सुधारक, बाल शिक्षाविद, समीक्षक तथा संपादक भी हैं।
दोहा गाथा में दोहे का इतिहास, उत्पत्ति, परिभाषा एवं विकास क्रम, दोने का विधान एवं संरचना तथा दोहे के भेद, दोहे के उर्दू औजान शीर्षकों के अन्तर्गत नव दोहाकारों ही नहीं वरिष्ठ दोहाकारों के लिए भी बहुमूल्य सामग्री संकलित की गई है। विषय सामग्री का तर्कसम्मत प्रस्तुतीकरण करते समय सम्यक उदाहरण 'सोने में सुहागा' की तरह हैं। दोय, होय जैसे क्रिया रूप शोध कृति में उचित नहीं प्रतीत होते। लेखन का नाम मुखपृष्ठ पर 'अमरनाथ', पृष्ठ ८-९ पर 'अमर नाथ' होना खीर में कंकर की तरह खटकता है। दोहा-विधान पर प्रकाश डालते समय कुछ नए-पुराने दोहाकारों के दोहे प्रस्तुत किये जाने से कृति की उपयोगिता में वृद्धि हुई है। हिंदी छंद संबंधी शोध में फ़ारसी बह्रों और छंद दोषों का उल्लेख क्यों आवश्यक क्यों समझा गया? क्या उर्दू छंद शास्त्र की शोध कृति में हिंदी या अन्य भाषा के छंदों का विवेचन किया जाता है? विविध भाषाओँ के छंदों का तुलनात्मक अध्ययन उद्देश्य हो तो भारत की अन्य भाषाओँ-बोलिओं से भी सामग्री ली जानी चाहिए। हिंदी छंद की चर्चा में उर्दू की घुसपैठ खीर और रायते के मिश्रण की तरह असंगत प्रतीत होता है।
दोहा रचना संबंधी विधान विविध पिङगल ग्रंथों से संकलित किये जाना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह है कि विषम-चरणों की कल-बाँट सोदाहरण समझाई गई है। विविध भाषाओँ/बोलिओं तथा रसों के दोहे कृति को समृद्ध करते हैं किंतु इसे और अधिक समृद्ध किया जा सकता है। दोहे के विविध रूप संबंधी सामग्री रोचक तथा ज्ञानवर्धक है।
दोहा के चरणों की अन्य छंदों के चरणों से तुलना श्रमसाध्य है। यह कार्य अपूर्ण रहना ही है, यह छंद प्रभाकर में जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' द्वारा दी गई छंद संख्या (मात्रिक छंद ९२,२७,७६३, वर्णिक छंद १३, ४२,१७, ६२६, उदाहरण ७०० से कुछ अधिक) से ही समझा जा सकता है। दोहा रचना में इस तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है तथापि शोध की दृष्टी से इसकी उपादेयता असंदिग्ध है।
दोहे के विषम या सैम चरणों में संशोधन से निर्मित छंद संबंधी सामग्री के संबंध में यह कैसे निर्धारित किया जाए की उन छड़ों में परिवर्तन से दोहा बना या दोहे में परिवर्तन से वे छंद बने। विविध छंदों के निर्माण की तिथि ज्ञात न होने से यह निर्धारित नहीं किया जा सकता की किस छंद में परिवर्तन से कौन सा छंद बना या वे स्वतंत्र रूप से बने। दोहे के उलटे रूप शीर्षक से प्रस्तुत सामग्री रोचक है। चौबीस मात्रिक अन्य ७५,०२५ छंदों में से केवल २० छंदों का उल्लेख ऊँट के मुंह में जीरे की तरह है।
दोहे का अन्य छंदों के साथ प्रयोग शीर्षक अध्याय प्रबंध काव्य रचना की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
दोहे में परिवर्तन कर बनाये गए नए छंदों का औचित्य भविषा निर्धारित करेगा की इन्हें अपनाया जाता है या नहीं?
संख्यावाचक शब्दावली का उल्लेख अपर्याप्त है।
कृति के अंत में आभार प्रदर्शन लेखक की ईमानदारी की मिसाल है।
मुखपृष्ठ पर कबीर, रहीम, तुलसी तथा बिहारी के चित्रों से कृति की शोभा वृद्धि हुई है किंतु प्रकाशन की चूक से बिहारी के नाम के साथ विद्यापति का चित्र लग गया है। इस गंभीर त्रुटि का निवारण बिहारी के वास्तविक चित्र के स्टिकर यथस्थान चिपकाकर किया जा सकता है।
यह निर्विवाद है कि इस कृति की अधिकांश सामग्री पूर्व प्राप्य नहीं है। अमरनाथ जी ने वर्षों तक सैंकड़ों पुस्तकों और पत्रिकाओं का अध्ययन कर उदाहरण संकलित किये हैं। किसी भी नई सामग्री के विवेचन और विश्लेषण में मतभेद स्वाभाविक है किंतु विषय के विकास की दृष्टि से ऐसे गूढ़ अध्ययन की प्रासंगिकता, उपादेयता और मौलिकता प्रशंसनीय ही नहीं पठनीय एवं मननीय भी है। इस सारस्वत शोधपरक प्रस्तुति हेतु अमरनाथ जी साधुवाद के पात्र हैं। दोहाकारों ही नहीं अन्य छंदों के अध्येताओं और रचनाकारों को भी इस कृति का अध्ययन करना चाहिए।
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
***
सर्वोदय गीत
सर्वोदय भारत का सपना।
हो साकार स्वप्न हर अपना।।
*
हम सब करें प्रयास निरंतर।
रखें न मनुज मनुज में अंतर।।
एक साथ हम कदम बढ़ाएँ।
हाथ मिला श्रम की जय गाएँ।।
युग अनुकूल गढ़ों नव नपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
हर जन हरिजन हुआ जन्म से।
ले-देकर है वणिक कर्म से।।
रक्षा कर क्षत्रिय हैं हम सब।
हो मतिमान ब्राह्मण हैं सब।।
कर्म साध्य नहिं माला जपना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
*
श्रम सीकर में विहँस नहाएँ।
भूमिहीन को भू दे गाएँ।।
ऊँच-नीच दुर्भाव मिटाएँ।
स्नेह सलिल में सतत नहाएँ।।
अंधभक्ति तज, सच है वरना।
सर्वोदय भारत का सपना।।
११-२-२०१२१

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दिल्ली बोली
*
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
पैदल ने वजीर को मारा
औंधे मुँह वह जो हुंकारा
जो गरजे वे मेघ न बरसे
जनहितकारी की पौबारा
अब जुबान पर लगा चटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
कथनी करनी का जो अंतर
लोग समझते; चला न मंतर
भानुमती का कुनबा आया
रोगी भोगी सब छूमंतर
शुरू हो गई पैर तले से दरी सरकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
बंदर बाँट कर रहे लड़वा
सेठों के हित विधि से सधवा
पूज गोडसे; गाँधी ठुकरा
बेकारी मँहगाई बढ़वा
कड़वी गोली पड़ी गटकनी
बड़बोलों ने खाई पटकनी
दिल्ली बोली
११-२-२०२०
***
नवगीत:
.
आम आदमी
हर्ष हुलास
हक्का-बक्का
खासमखास
रपटे
धारों-धार गये
.
चित-पट, पट चित, ठेलमठेल
जोड़-घटाकर हार गये
लेना- देना, खेलमखेल
खुद को खुद ही मार गये
आश्वासन या
जुमला खास
हाय! कर गया
आज उदास
नगदी?
नहीं, उधार गये
.
छोडो-पकड़ो, देकर-माँग
इक-दूजे की खींचो टाँग
छत पानी शौचालय भूल
फाग सुनाओ पीकर भाँग
जितना देना
पाना त्रास
बिखर गया क्यों
मोद उजास?
लोटा ले
हरि द्वार गये
.
नवगीत :
.
दुनिया
बहुत सयानी लिख दे
.
कोई किसी की पीर न जाने
केवल अपना सच, सच माने
घिरा तिमिर में
जैसे ही तू
छाया भी
बेगानी लिख दे
.
अरसा तरसा जमकर बरसा
जनमत इन्द्रप्रस्थ में सरसा
शाही सूट
गया ठुकराया
आयी नयी
रवानी लिख दे
.
अनुरूपा फागुन ऋतु हर्षित
कुसुम कली नित प्रति संघर्षित
प्रणव-नाद कर
जनगण जागा
याद आ गयी
नानी लिख दे
.
भूख गरीबी चूल्हा चक्की
इनकी यारी सचमुच पक्की
सूखा बाढ़
ठंड या गर्मी
ड्योढ़ी बाखर
छानी लिख दे
.
सिहरन खलिश ख़ुशी गम जीवन
उजली चादर, उधड़ी सीवन
गौरा वर
धर कंठ हलाहल
नेह नरमदा
पानी लिख दे
११-२-२०१५
.
कृति चर्चा:
बोल मेरी ज़िंदगी: हिंदी ग़ज़ल का उजला रूप
*
(कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००ऋ, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन)
*
हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख, हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरो ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल के उज्जवल रूप को प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन में परिवन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएं और आवश्यकताएं तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक औदार्यता की और उन्मुख किया है.
गीतिका, उदयिका, प्रारम्भिक, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नए पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार कि टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धर के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतनता, लड़ाई लम्बी में मानसिक परिष्कार का आव्हान, मयय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद बोल मेरी ज़िंदगी में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है.
विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;
'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'
अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना और मात्राएँ गिराए बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण है. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-
तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो
जी सकूं मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की कहाँ अपनी मिसाल आप है :
देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी
*
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है
*
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
*
लूं न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह
*
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले
*
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है
*
विराट मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकर का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं:
गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना
*
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
*
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है
*
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
*
उनका दवा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली
*
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे
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मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
*
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे
*
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिससे
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मेरे गीत! कुशलता से / मर्मव्यथा मार्दव से कह
*
गीत! इस मरुस्थल में तू कहाँ चला आया
*
बेच हमने भी दिए गीत नहीं रोयेंगे / पेट भर खायेंगे हम आज बहुत सोयेंगे
*
विराट जी हिंदी के वार्णिक-मात्रिक छंदों की नींव पर हिंदी ग़ज़ल के कथ्य की इमारत खड़ी कर उर्दू के बहरो-अमल से उसकी साज-सज्जा करते हैं. हिंदी ग़ज़लों की इस केसरिया स्वादिष्ट खीर में बराए नाम कुछ कंकर भी हैं जो चाँद में दाग की तरह हैं:
ये मीठी हँसी की अधर की मिठाई / हमें कुछ चखाओ गज़ल कह रहा हूँ
यहाँ प्रेमी अपनी प्रेमिका से अधरों की मधुरता चखने का निवेदन कर रहा है. कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से अनेकों को अधर-रस-पान करने का अनुरोध नहीं कर सकता। अतः, कर्ता एकवचन 'हैम' के स्थान पर 'मैं' होगा। यहाँ वचन दोष है.
दिल को चट्टान मान बैठे थे / किस कदर अश्रु से सजल निकली
यहाँ 'चट्टान' पुल्लिंग तथा 'निकली' स्त्रीलिंग होने से लिंग दोष है.
पत्नी को क्यों लगाया युधिष्ठिर बताइये / क्यों दांव पर स्वयं को लगाया नहीं गया?
महाभारत में वर्णित अनुसार युधिष्ठिर पहले राज्य फिर भाइयों को, फिर स्वयं को तथा अंत में द्रौपदी को हारे थे. अतः, यहाँ तथ्य दोष है.
'मौन क्यों रहती है तू' शीर्षक ग़ज़ल में 'रहती है तू, कहती है तू, महती है तू, दहति है तू, ढहती है तू, बहती है तू तथा सहती है तू' के साथ 'वरती है तू' का प्रयोग खटकता है.
'वचनों से फिर गया कोइ' शीर्षक गज़ल की अंतिम द्विपदी 'यह तो मौसन था उसके खिलने का / हाय, इसमें ही खिर गया कोई' में प्रयुक्त 'खिर' शब्द हिंदी-उर्दू शब्द कोष में नहीं मिला। यहाँ 'ही' को 'हि' की तरह पढ़ना पड़ रहा है जो हिंदी ग़ज़ल में दोष कहा जायेगा। यदि 'हाय, इसमें बिखर गया कोई' कर दिया जाए तो लय और अर्थ दोनों सध जाते हैं.
विराट जी की रचनाओं में पौराणिक मिथकों और दृष्टान्तों का पिरोया जाना स्वाभाविक और सहज है. इस संग्रह का वैशिष्ट्य गीता-महाभारत-कृष्ण सम्बन्धी प्रसंगों का अनेक स्थलों पर विविध सन्दर्भों में मुखर होना है. यथा: हो चूका अन्याय तब भी जातियों के नाम पर / मान्य अर्जुन को किया पर कर्ण ठुकराया गया, बढ़ोगे तुम भी लक्ष्य वो चिड़िया की आँख का / अर्जुन की भाँति खुद को निष्णात तो करो, उठा दे दखल ज़िंदगी / यक्ष के ताल से चुन कमल ज़िंदगी, प्राप्त माखन नहीं / छाछ को क्यों मथा, सब कोष तो खुले हैं कुबेरों के वास्ते / लेकिन किसी सुदामा को अवसर तो नहीं है, फेन काढ़ता है दंश को उसका अहम् सदा / तक्षक का खानदान है / है तो हुआ करे, समर में कृष्ण ने जो भी युधिष्ठिर से कहलवाया / 'नरो वा कुंजरो वा' में सचाई है- नहीं भी है, हम अपनी डाल पर हैं सुरक्षित तो न चिंता / उन पर बहेलिये का है संधान हमें क्या? मोर का पंख / यश है मुकुट का बना, तुम बिना कृष्ण के अर्जुन हो उठो भीलों से / गोपियाँ उनकी बचा लो कि यही अवसर है, भीष्म से पार्थ बचे और न टूटे प्रण भी / कृष्ण! रथ-चाक उठा लो कि यही अवसर है, भोले से एकलव्य से अंगुष्ठ माँगकर / अर्जुन था द्रोण-शिष्य विरल कर दिया गया, एक सपना तो अर्जुन बने / द्रोण सी शिक्षा-दीक्षा करें आदि. उल्लेखनीय है कि एक ही प्रसंग को दो स्थानों पर दो भिन्नार्थों में प्रयोग किया गया है. यह गज़लकार की असाधारण क्षमता का परिचायक है.
सारतः, अनुप्रास, उपमा और दृष्टान्त विराट जी को सर्वाधिक प्रिय अलंकार हैं जिनका प्रयोग प्रचुरता से हुआ है. विराट जी की शब्द सामर्थ्य स्पृहणीय है. हिंदी शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू तथा देशज शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है जबकि अंगरेजी शब्द (सेंसेक्स, डॉक्टर आदि) अपरिहार्य होने पर अपवाद रूप ही हैं. संग्रह में प्रयुक्त भाषा प्रसाद गुण संपन्न है. व्यंग्यात्मक, अलंकारिक तथा उद्बोधनात्मक शैली में विराट जी पाठक के मन को बाँध पाये हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर चतुर्दिक घट रही राजनैतिक घटनाओं और सामाजिक परिवर्त्तनों पर सजग कवि की सतर्क प्रतिक्रिया गज़लों को पठनीय ही नहीं ग्रहणीय भी बनाती हैं. सामयिक संकलनों की भीड़ में विराट जी का यह संग्रह अपनी परिपक्व चिनतंपूर्ण ग़ज़लों के कारण पाठकों को न केवल भायेगा अपितु बार-बार उद्धृत भी किया जायेगा।
११-२-२०१४
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