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शनिवार, 24 दिसंबर 2022

नवगीत, सॉनेट, दोहे, दधीचि रामायण, वाल्मीकि,

रामायण
रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी के अनुसार- 

असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:

जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कुल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के। अत: कुल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100 वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कुछ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कुल 5155 वर्ष बीत चुके है।

इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कुल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।

श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-

वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||

अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफेद रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।


वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।

तुलसीदास लगभग 500 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। वे अवधी एवं ब्रज भाषा मे लिखते थे। जो गीता वेदव्यास द्वारा लिखित थी वो केवल 80 श्लोक की थी, आज 800 श्लोक तक पहुँच गयी है। आज से 1500 वर्ष पूर्व जन्मे राजाभोज अपनी पुस्तक भोजप्रबंध मे लिखते है कि म़ेरे से 500 वर्ष पूर्व जब राजा विक्रमादित्य शासन करते थे तब महाभारत मे 1000 श्लोक थे, मेरे दादा के समय मे 2500 श्लोक तथा मेरे समय मे 3000 श्लोक है। वर्तमान मे गीताप्रेस गोरखपुर 1 लाख 10,000 श्लोक की महाभारत छापता है। इसी प्रकार मूल रामायण के बहुत से संस्कृत श्लोकों को अवधी,ब्रज भाषा में बदलकर तुलसीदास ने काव्य रूप से रामायण की रचना की जिसे रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है।  रामचरितमानस मे जो तथ्य मूल रामायण(मुनि वाल्मीकि रचित) सम्मत है उन्हें ग्रहण करें और जो विरुद्ध हैं उन्हे त्याग दें।

श्रीराम की कथा सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता पार्वतीजी को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा 'अध्यात्म रामायण' के नाम से विख्यात है। काकभुशुण्डि : लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गिद्धराज गरूड़ को सुना दी थी।

जब रावण के पुत्र मेघनाथ ने श्रीराम से युद्ध करते हुए श्रीराम को नागपाश से बाँध दिया था, तब देवर्षि नारद के कहने पर गिद्धराज गरुड़ ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर श्रीराम को नागपाश के बंधन से मुक्त कर दिया था। भगवान राम के इस तरह नागपाश में बंध जाने पर श्रीराम के भगवान होने पर गरुड़ को संदेह हो गया। गरुड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्माजी के पास भेज देते हैं। ब्रह्माजी उनको शंकरजी के पास भेज देते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका संदेह मिटाने के लिए काकभुशुण्डिजी के पास भेज दिया। अंत में काकभुशुण्डिजी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुनाकर गरुड़ के संदेह को दूर किया।

वैदिक साहित्य के बाद जो रामकथाएँ लिखी गईं, उनमें वाल्मीकि रामायण सर्वोपरि है। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। एक दिन वे वन में ऋषि भारद्वाज के साथ घूम रहे थे और उन्होंने एक व्याघ्र (बहेलिया) द्वारा क्रौंच पक्षी को मारे जाने की हृदयविदारक घटना देखी और तभी उनके मन से एक श्लोक फूट पड़ा। बस यहीं से इस कथा को लिखने की प्रेरणा मिली। यह इसी कल्प की कथा है और यही प्रामाणिक है। वाल्मीकिज‍ी ने राम से संबंधित घटनाचक्र  अपने जीवनकाल में स्वयं देखा-सुना था, उनकी रामायण सत्य के काफी निकट है, लेकिन उनकी रामायण के सिर्फ 6 ही कांड थे। उत्तरकांड को बौद्धकाल में जोड़ा गया।  

अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्य-विशेष है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ के प्रणेता भी वाल्मीकि थे। किंतु शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी भाषा और रचना से लगता है कि किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है अर्थात अब यह वाल्मीकि कृत नहीं रही। तो क्या वाल्मीकि यह चाहते थे कि मेरी रामायण में विवादित विषय न हो, क्योंकि वे श्रीराम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही स्थापित करना चाहते थे?

क्यों हनुमानजी ने 'रामायण' समुद्र में फेंक दी थी?

हनुमद रामायण : शास्त्रों के अनुसार विद्वान लोग कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी एक शिला (चट्टान) पर अपने नाखूनों से लिखी थी। यह रामकथा वाल्मीकिजी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और यह 'हनुमद रामायण' के नाम से प्रसिद्ध है।
यह घटना तब की है जबकि भगवान श्रीराम रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद अयोध्या में राज करने लगते हैं और श्री हनुमानजी हिमालय पर चले जाते हैं। वहाँ वे अपनी शिव तपस्या के दौरान की एक शिला पर प्रतिदिन अपने नाखून से रामायण की कथा लिखते थे। इस तरह उन्होंने प्रभु श्रीराम की महिमा का उल्लेख करते हुए 'हनुमद रामायण' की रचना की।

कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भी 'वाल्मीकि रामायण' लिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। वे अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुँचे। वहाँ उन्होंने हनुमानजी को और उनके द्वारा लिखी गई 'हनुमद रामायण' को देखा। हनुमद रामायण के दर्शन कर वाल्मीकिजी निराश हो गए। वाल्मीकिजी को निराश देखकर हनुमानजी ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करते हुए श्री हनुमानजी ने हनुमद रामायण पर्वत शिला को एक कंधे पर उठाया और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए और स्वयं द्वारा की गई रचना को श्रीराम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है। वह आज भी समुद्र में पड़ी है। हनुमानजी द्वारा लिखी रामायण को हनुमानजी द्वारा समुद्र में फेंक दिए जाने के बाद महर्षि वाल्मीकि बोले कि हे रामभक्त श्री हनुमान, आप धन्य हैं! आप जैसा कोई दूसरा ज्ञानी और दयावान नहीं है। हे हनुमान, आपकी महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा और मैं वचन देता हूँ कि कलयुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा। तब मैं यह रामायण आम लोगों की भाषा में लिखूँगा। माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मीकि का ही दूसरा जन्म था। तुलसीदासजी अपनी 'रामचरित मानस' लिखने के पूर्व हनुमान चालीसा लिखकर हनुमानजी का गुणगान करते हैं और हनुमानजी की प्रेरणा से ही वे फिर रामचरित मानस लिखते हैं।

कहते हैं कि कालिदास के काल में एक पट्टलिका को समुद्र के किनारे पाया गया था जिसे एक सार्वजनिक स्थान पर टाँग दिया गया था ताकि विद्यार्थी उस पर लिखी गूढ़ लिपि को समझ और पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। कालिदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वे जान गए थे कि यह हनुमानजी द्वारा रचित हनुमद रामायण का ही एक अंश है। महाकवि तुलसीदास के हाथ वही पट्टलिका लग गई थी। उसे पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ है। हनुमन्नाटक रामायण के अंतिम खंड में लिखा है-

'रचितमनिलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्धौ

निहितममृतबुद्धया प्राड् महानाटकं यत्।।

सुमतिनृपतिभेजेनोद्धृतं तत्क्रमेण

ग्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण।।'

अर्थात : इसको पवनकुमार ने रचा और शिलाओं पर लिखा था, परंतु वाल्मीकि ने जब अपनी रामायण रची तो तब यह समझकर कि इस रामायण को कौन पढ़ेगा, श्री हनुमानजी से प्रार्थना करके उनकी आज्ञा से इस महानाटक को समुद्र में स्थापित करा दिया, परंतु विद्वानों से किंवदंती को सुनकर राजा भोज ने इसे समुद्र से निकलवाया और जो कुछ भी मिला उसको उनकी सभा के विद्वान दामोदर मिश्र ने संगतिपूर्वक संग्रहीत किया।

अब तक लिखी गई राम कथा की सूची :

१. अध्यात्म रामायण
२. वाल्मीकि की 'रामायण' (संस्कृत)
३. आनंद रामायण
४. 'अद्भुत रामायण' (संस्कृत)
५. रंगनाथ रामायण (तेलुगु)
६. कवयित्री मोल्डा रचित मोल्डा रामायण (तेलुगु)
७. रूइपादकातेणपदी रामायण (उड़िया)
८. रामकेर (कंबोडिया)
९. तुलसीदास की 'रामचरित मानस' (अव‍धी)
१०. कम्बन की 'इरामावतारम' (तमिल)
११.. कुमार दास की 'जानकी हरण' (संस्कृत)
१२. मलेराज कथाव (सिंहली)
१३. किंरस-पुंस-पा की 'काव्यदर्श' (तिब्बती)
१४. रामायण काकावीन (इंडोनेशियाई कावी)
१५. हिकायत सेरीराम (मलेशियाई भाषा)
१६. रामवत्थु (बर्मा)
१७. रामकेर्ति-रिआमकेर (कंपूचिया खमेर)
१८. तैरानो यसुयोरी की 'होबुत्सुशू' (जापानी)
१९. फ्रलक-फ्रलाम-रामजातक (लाओस)
२०. भानुभक्त कृत रामायण (नेपाल)
२१. अद्भुत रामायण
२२. रामकियेन (थाईलैंड)
२३. खोतानी रामायण (तुर्किस्तान)
२४ . जीवक जातक (मंगोलियाई भाषा)
२५. मसीही रामायण (फारसी)
२६. शेख सादी मसीह की 'दास्ताने राम व सीता'।
२७. महालादिया लाबन (मारनव भाषा, फिलीपींस)
२८. दशरथ कथानम (चीन)
२९. हनुमन्नाटक (हृदयराम-1623)
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क्या वाल्मिकि रामायण में "तथागत बुद्ध" है? यदि है तो इसका मतलब क्या है?

वाल्मीकी रामायण के सातों कांड में कहीं भी तथागत बुद्ध का उल्लेख नहीं  है। इस श्लोक के कारण भ्रांति फैली हुई है-

यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध |
स्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि |
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् |
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात्

स्रोत - अयोध्याकाण्ड, सर्ग संख्या १०९, वाल्मीकी रामायण

इस श्लोक का अंग्रेज़ी अनुवाद कुछ इस प्रकार से है -


बुद्ध का अर्थ विद्वान व्यक्ति है, न कि तथागत बुद्ध।

यह प्रसंग श्री राम और जाबाली के बीच हुए संवाद का है। जाबाली ऋषि भरत के साथ श्री राम को अयोध्या ले जाने के उद्देश्य से वन पधारे हैं। श्री राम को अयोध्या ले जाने के लिए वह चारवाक दर्शन का सहारा लेते हुए उनसे पिता की आज्ञा का पालन न करने के लिए कहते हैं और नास्तिकता का गुणगान करते हैं।

श्री राम अपने प्रतिउत्तर में चारवाक दर्शन और नास्तिकता का पूर्ण रूप से खंडन करते हैं और नास्तिक व्यक्ति को दंडनीय भी बताते हैं। इस श्लोक में श्री राम द्वारा नास्तिकता का खंडन किया गया है।

 गीताप्रेस के अनुवादसे ऐसा प्रतीत होगा कि इस श्लोक में बुद्ध का उल्लेख है। लेकिन यदि तथ्यों पर गौर करें, तो रामायण का कालखंड बुद्ध से बहुत पहले का है। इसलिए गीताप्रेस द्वारा इस श्लोक का अनुवाद गलत है।
*


कविता : कृष्ण
*
कृष्ण!

मैं देख तुम्हारी जीवन‌ यात्रा चकित हुआ,

क्यों अपने संघर्षों से इतना मैं व्यथित हुआ !

जन्म से भी आदि, जीवन के अन्त तक

सरल न कोई तुम्हारा पथ रहा

एक नहीं अनेक बार जीवन विस्थापित हुआ !

झंझाओं को जूझ देते रहे

मोह को छोड़ नित्य आगे बढ़ते रहे

मानवता के रक्षक बने

तुम्हीं से धर्म धरा पर स्थापित हुआ !!

स्वलिखित © सविता पाटील
(क्वोरा से साभार )

*

बिहारी के दोहे
*
हिंदी साहित्य के चार भाग - आदिकाल (वीरगाथाकाल), भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल हैं। आदि काल वीरकाव्य प्रधान है, भक्तिकाल भक्ति भावप्रधान और रीतिकाल शृंगार प्रधान। आधुनिक साहित्य में विषय वैविध्य उल्लेखनीय है।

रीतिकालीन कवियों में केशवदास, पद्माकर, देव, बिहारी, घनानंद और भूषण आदि प्रमुख हैं। रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि बिहारी एकमात्र कृति 'सतसई' सेहिंदी साहित्य में अमर हो गए। बिहारी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है - कल्पना की अद्भुत समाहार क्षमता और भाषा की बेजोड़ समास शक्ति। अपनी इसी विशेषता के कारण वह बहुत कम शब्दों में बहुत अधिक बातें कह देते हैं-

"कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सों बात।।"

बिहारी के काव्य की विशेषता है उनका बिंब कौशल। वह अमूर्त से अमूर्त भाव को भी शब्द-चित्र की भाषा में जीवंत कर सके हैं।

"बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करें, भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाय।।"

बिहारी की अलंकार योजना अपनी मिसाल आप है। वह श्लेष, यमक, अतिशयोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकारों के रोचक प्रयोग से व पाठक को रस-लीन करा देते हैं।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि? ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

बिहारी के काव्य का विषय-वैविध्य चमत्कारिक है। रीतिकाल के अन्य कवि सामान्यत: एक विषय पर केंद्रित रहे , किंतु बिहारी शृंगार को काव्य-केंद्र बिंदुखते हुए भी नीति, भक्ति, राजनीतिक चेतना और सामाजिक सजगता से भी साक्षात्कार करते-कराते रहे।

भक्ति भाव-

" मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय।।"

राजनीतिक चेतना -

"नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिंध्यों, आगे कौन हवाल।"

पाखंड पर प्रहार-

"जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै राम।।"

बिहारी शिल्प के सजग कवि होने के साथ ही संवेदना के स्तर पर भी अपने काव्य चरम साध सके हैं। बिहारी की काव्य भाषा मुख्यतः ब्रज है। ब्रज भाषा में सूरदास ने जो संगीतात्मकता और तन्मयता पैदा की थी उसे पूर्णता तक बिहारी ने ही पहुँचाया है। बिहारी अपने भाषा की समाहार और समास क्षमता, अनुभावों की सघन योजना, बिंब और अलंकारों का चमत्कारी प्रयोग कर अमर हो गए हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने तो यहाँ तक कहा है कि " पूरे यूरोप में एक भी कवि बिहारी की बराबरी नहीं कर सकता"।
(स्रोत- बिहारी रत्नाकर, सं. जगन्नाथदास रत्नाकर)
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महर्षि दधीचि

दधीचि ऋषि का हिंदू धर्म में केंद्रीय चरित्र रहा है। इन्हें दधिचंथा या दधिंगा के नाम से भी जाना जाता है। दधीचि मुख्य रूप से अपने जीवन का त्याग करने के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने देवताओं की सहायता के लिए अपनी हड्डियों से “वज्र” नामक हथियार बनाकर तत्क्षण उनको दान में दिया था। इस वज्र को बनाने के लिए उन्होंने अपने प्राणों का त्याग करने में तनिक भी देरी नहीं की थी। नागराज वृत्र द्वारा स्वर्ग से निष्कासित होने के बाद देवताओं को नागराज से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार की आवश्यकता थी, यह हथियार ऋषि दधीचि की हड्डियों से बना वज्र था, जिसका उपयोग करके देवताओं ने असुर को हराकर पुनः स्वर्ग को प्राप्त किया।

संस्कृत में दध्यांच या दधिहंगा दो शब्दों दधि (दही) + एंक (भागों) का एक संयोजन है, जिसका अर्थ है “दही से शरीर के अंगों का बल लेना।” दधीचि नाम दधिंगा या दधिचांचा का अपभ्रंश रूप है, जैसा कि प्राचीन संस्कृत विद्वान पाणिनि ने अपने कार्य अष्टाध्यायी में बताया है।

वृत्र को पराजित करके देवताओं ने अकाल का उन्मूलन करने के लिए पानी का प्रवाह शुरू किया, जिससे कि जीवित प्राणियों को, जो असुरों के अन्याय का शिकार हुए थे, राहत मिल सके। ऋषि दधीचि ने अपने बलिदान के माध्यम द्वारा देवताओं को असुरों को हराने में मदद की। ऋषि दधीचि की इसी निस्वार्थता के कारण वह ऋषियों और हिंदू संतो के बीच अत्यंत श्रद्धा का पात्र बन गए। ऋषि दधीचि का यह बलिदान इस बात का प्रतीक है कि बुराई से रक्षा करने में यदि कोई त्याग करना पड़े तो, कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। भारत का सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार “परमवीर चक्र” भी ऋषि दधीचि के इसी बलिदान और वीरता का प्रतीक है, जो युद्ध में असाधारण साहस दिखाने वाले सैनिकों को मरणोपरांत दिया जाता है।

ऋषि दधीचि के सम्मुख भगवन शिव का प्रकट होना

ऋषि दधीचि भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। जब भगवान शिव अपनी पत्नी देवी शक्ति से अलग हो गए तो विरह की इस पीड़ा के दौरान वह एक ऋषि के रूप में एकांत में रहने के लिए जंगल चले गए। महाशिवरात्रि के वार्षिक उत्सव में भगवान शिव पहली बार ऋषि के रूप में अपने भक्तों के सामने प्रकट हुए, जिसमें ऋषि दधीचि और उनके शिष्य भी शामिल थे, जो उस समय भगवान शिव की प्रार्थना कर रहे थे।

ऋषि दधीचि का परिवार एवं मंदिर

भगवत पुराण में ऋषि दधीचि को अथर्वण का पुत्र कहा गया है, इनकी माता का नाम चिति था। अथर्वण, अथर्ववेद के लेखक कहे जाते हैं, जो चारों वेदों में से एक है। चिति ऋषि कर्दम की पुत्री थी। ऋषि दधीचि एक ब्राह्मण वंश के थे, जो मुख्यता राजस्थान में पाया जाता है। ऋषि दधीचि की पत्नी का नाम स्वार्चा और पुत्र का नाम पिप्पलदा था। पिप्पलदा ने प्रसन्न उपनिषद की रचना की। ऋषि दधीचि ने अपना आश्रम मिसरिख, नैमिषारण्य के पास (जो कि उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में स्थित है) में स्थापित किया था। नैमिषारण्य, सभी पुराणों में उनके आश्रम के स्थान के रूप में उद्धृत किया गया है और यह आज भी अस्तित्व में है। वर्तमान का साबरमती आश्रम (अहमदाबाद, गुजरात में स्थित है) प्राचीन काल में इनके आश्रमों में से एक था। प्राचीन भारत में ऋषि मुनि सामान्यतया लंबी दूरी की यात्रा तय किया करते थे। ऐसा माना जा सकता है कि उन्होंने कुछ समय तक साबरमती नदी के किनारे वास किया होगा और उसी दौरान उन्होंने यह आश्रम बनाया होगा।

दाहोद के विषय में भी एक प्रचलित किंवदन्ती यह है कि एक बार ऋषि दधीचि ने दाहोद में दूधमति नदी के तट पर ध्यान किया। दधिमती इनकी बहन का नाम था।जिनके नाम पर नागपुर के राजस्थान में “दधिमती माता मंदिर” के नाम से एक मंदिर स्थापित है, यह मंदिर चौथी शताब्दी से भी ज्यादा पुराना है। इसका नाम ऋग्वेद के पहले मंडल में मिलता है। साथ ही ऋग्वेद के विभिन्न सुक्तों में भी ऋषि दधीचि का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि ऋषि दधीचि ने दक्षिण भारत में प्रसिद्ध भजन “नारायण कवचम” की रचना की थी, जिसे शक्ति और शांति के लिए गाया जाता था।

दधीच ब्राह्मण, ऋषि दधीचि के वंशज माने जाते हैं। उनके देवता दधिमती हैं, जो महर्षि दधीचि की बहन थीं।

ऋषि दधीचि के विषय में कई हिंदू किंवदंतियों भी हैं, जैसे कि कभी-कभी उन्हें घोड़े के सिर के रूप में भी चित्रित किया जाता है।

ऋषि दधीचि का अश्वशिरा (घोड़े के सिर वाला) रूप

ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि वे ब्रह्मविद्या (मधु विद्या) नामक वैदिक कला के महान ज्ञाता थे। यह ब्रह्मविद्या, एक ऐसी विद्या है, जो अमरत्व प्राप्त कराने में सक्षम बनाती हैं। इसके कारण देवराज इंद्र ने महसूस किया कि उनका पद संकट में है, उनके अनुसार ऐसी शक्तियों का किसी नश्वर मनुष्य के हाथों में होना असुरक्षित था, विशेष रूप से ऋषि दधीचि समान ऐसे मनुष्य के पास, जिनके पास अत्यंत शक्ति और गुणों का भंडार है। देवराज इंद्र, अश्विन जुड़वा (औषधियों के देवता) के पूरी तरह खिलाफ थे क्योंकि वह ब्रह्म विद्या सीखना चाहते थे। इसी कारण देवराज इंद्र ने यह शपथ ली कि जो भी उन्हें ब्रह्मविद्या सिखाएगा, वह उनका सिर धड़ से काट देंगे। हालांकि अश्विनी जुड़वाँ देवता यह विद्या सीखना चाहते थे परंतु वे, ऋषि दधीचि को इंद्र की शक्तियों से बचाना भी चाहते थे इसलिए उन्होंने एक योजना तैयार की। वह जानते थे कि यदि उन्होंने यह विद्या सीखी तो देवराज इंद्र ऋषि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर देंगे इसलिए उन्होंने योजना बंद होकर कार्य किया। पहले उन्होंने यह विद्या ऋषि दधीचि से सीखी, जिसके बाद देवराज इंद्र ने ऋषि दधीचि का सिर काट दिया।

अश्विनी जुड़वा देवताओं ने उनके इस कटे सिर को सुरक्षित बचा कर रखा और एक अश्व के सिर को उनके सिर के स्थान पर लगा दिया। यह देखकर देवराज इंद्र अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने अश्व के सिर वाले ऋषि दधीचि का सिर पुनः काट दिया। इसके बाद अश्विन देवता ने ऋषि दधीचि का मूल सिर, जो उन्होंने बचा कर रखा था, इस घोड़े के सिर के स्थान पर स्थानांतरित कर दिया तथा मधु विद्या का प्रयोग करते हुए, जो उन्होंने ऋषि दधीचि से सीखी थी, ऋषि दधीचि को वापस जीवित कर दिया। यही कारण है कि ऋषि दधीचि को अश्वशिरा अर्थात घोड़े के सिर वाला भी कहा जाता है।

ऋषि दधीचि द्वारा कुशवा तथा इंद्रदेव को पराजित करना

एक बार ऋषि दधीचि और विष्णु भक्त राजा कुशवा के मध्य ब्राह्मणों में श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। धीरे-धीरे इस विवाद ने झगड़े का रूप ले लिया और यह इतना बढ़ गया कि ऋषि दधीचि ने राजा कुशवा पर प्रहार कर दिया, जिसके उत्तर में राजा कुशवा ने भी ऋषि दधीचि पर वज्र से प्रहार किया। जिसके फलस्वरूप ऋषि दधीचि घायल हो गए। उस समय शुक्राचार्य ने ऋषि दधीचि का इलाज किया। इसके बाद ऋषि दधीचि ने जाकर भगवान शिव की भारी तपस्या की और उनसे तीन वरदान माँगे –वह कभी अपमानित नहीं होंगे, उनकी कभी हत्या नहीं की जा सकेगी तथा उनकी अस्थियाँ हीरे की तरह सख्त हो जाएँगी ।'

इसके बाद ऋषि दधीचि वापस लौट कर कुशवा से युद्ध किया और उन्हें पराजित कर दिया। राजा कुशवा, भगवान विष्णु के पास जाकर उनसे मदद माँगने लगे। तब भगवान विष्णु ने एक योजना के द्वारा इस समस्या का हल निकालने की कोशिश की। उन्होंने दधीचि के ऊपर एक त्रिशूल से हमला किया, जिसे देखकर भगवान विष्णु के अलावा अन्य सभी देवता भाग गए। इतना सब होने के बावजूद भी महर्षि दधीचि के मन में भगवान विष्णु के प्रति बहुत सम्मान की भावना थी इसी कारण जब देवताओं ने वृत्र के विरुद्ध युद्ध हेतु महर्षि दधीचि से मदद की गुहार लगाई और उनसे उनकी अस्थियों की माँग की, तो महर्षि दधीचि ने जैसे ही यह सुना, कि देवताओं को भगवान विष्णु ने भेजा है, वह तुरंत अपने अस्थियों का दान करने को तैयार हो गए।

इंद्र और वृत्र – ऋषि दधीचि द्वारा दिए गए वज्र से किये गए युद्ध की कथा

एक बार वृत्र नामक असुर के द्वारा देवराज इंद्र को देवलोक से बाहर निष्कासित कर दिया गया था। इस असुर को यह वरदान प्राप्त था कि इसकी हत्या किसी भी ज्ञात हथियार से नहीं की जा सकेगी, जिसके कारण यह अजेय बन गया था। इस असुर वृत्र ने संसार में उपस्थित समस्त जल को अपने और अपनी दानव सेना के उपयोग के लिए चुरा लिया। ऐसा करने के पीछे का कारण यह था, कि वह चाहता था कि संसार के अन्य सभी जीवित प्राणी भूख और प्यास से मरने लगें, जिससे कोई भी मानव या देवता उसे चुनौती देने के लिए जीवित ना रहे। इसी कारण देवराज इंद्र ने भी स्वर्ग लोक की पुनः प्राप्ति की सभी आशा खो दी थी, परंतु फिर भी वह भगवान विष्णु के पास पहुंचे ताकि उनसे कुछ सहायता ले सकें और स्वर्ग लोक पुनः प्राप्त कर सकें। भगवान विष्णु ने देवराज इंद्र से कहा कि केवल ऐसा हथियार जो हीरे के समान मजबूत और अस्थियों से बना हो, उसी से वृत्रासुर की मृत्यु संभव है। (उनका तात्पर्य ऋषि दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से था।) इसके बाद इंद्रदेव और बाकी सभी देवता, ऋषि दधीचि, एक समय जिनके सिर को देवराज इंद्र ने धड़ से अलग कर दिया था, उन्हीं से वृत्रासुर को हराने के लिए मदद मांगने पहुंचे। ऋषि दधीचि ने देवताओं के अनुरोध को तुरंत मान लिया, परंतु उन्होंने कहा कि उनकी इच्छा है कि शरीर का त्याग करने से पहले वह पवित्र नदियों के तीर्थ स्थल पर जाना चाहते हैं। जिसके पश्चात देवराज इंद्र ने सभी पवित्र नदियों का जल को नैमिषारण्य में एकत्रित किया और इस प्रकार ऋषि की इच्छा को बिना समय नष्ट किए, पूरा कर दिया गया। तत्पश्चात ऋषि दधीचि घोर ध्यान की अवस्था में चले गए और अपने शरीर से उनके प्राणों को मुक्त कर दिया। उसके बाद कामधेनु के बछड़े ने महर्षि दधीचि के मृत शरीर को चाट कर अस्थियों में लगे मांस को हटाया और देवताओं ने उनकी रीढ़ की हड्डी से वज्र का निर्माण किया तथा बाकी अस्थियों से दूसरे अस्त्रों का निर्माण किया गया। उसके बाद इस वज्र का प्रयोग करते हुए देवराज इंद्र ने असुर वृत्रासुर का वध कर दिया और स्वर्ग लोक को पुनः प्राप्त किया। तत्पश्चात उन्होंने असुर द्वारा चुराए गए जल को पुनः संसार के सभी जीव जंतुओं के लिए मुक्त कर दिया।

ऋषि दधीचि द्वारा अस्त्रों को घोल कर पी जाना

इस कहानी का एक दूसरा संस्करण भी मिलता है, जहां देवताओं ने ऋषि दधीचि से उनके अस्त्रों की सुरक्षा करने के लिए कहा था, क्योंकि उनके अस्त्र, असुरों के अस्त्रों की पुरातन कला से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहे थे, जिसका देवता पता लगाना चाहते थे। ऋषि दधीचि ने बहुत समय लंबे समय तक अस्त्रों की सुरक्षा की, परंतु फिर वह थक गए और उन्होंने उन अस्त्रों को पानी में घोलकर पी लिया। जब देवता वापस आए और उन्होंने उनसे अस्त्र लौटाने के लिए कहा, जिससे कि वह असुरों की सेना को जो वृत्रासुर के नेतृत्व में उनसे युद्ध कर रही थी, हरा सकें। महर्षि दधीचि ने उन्हें बताया कि अब उनके अस्त्र उनकी अस्थियों का हिस्सा बन चुके हैं। इसके बाद महर्षि दधीचि ने महसूस किया कि उनकी अस्थियां ही एकमात्र तरीका है, असुरों को हराने का। तब उन्होंने स्वेच्छा से अपने प्राण त्यागने की बात कही। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने अग्नि प्रज्वलित करके प्राण त्याग दिए। भगवान ब्रह्मा के निर्देश में ऋषि दधीचि की हड्डियों से बड़ी संख्या में अस्त्र बनाए गए, जिसमें वज्रयुद्ध भी शामिल था, जिसका निर्माण उनकी रीढ़ की हड्डी से किया गया था। इसके बाद देवताओं ने इन अस्त्रों द्वारा वृत्रासुर का वध कर दिया।

ऋषि दधीचि द्वारा दक्ष का विरोध

ऋषि दधीचि के साथ कई अन्य किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। ऋषि दधीचि के बारे में कहा जाता है कि जैसे ही उन्हें पता चला कि दक्ष ने उनके आराध्य भगवान शिव को यज्ञ पूजा में आमंत्रित नहीं किया है, तत्क्षण ही उन्होंने राजा दक्ष के यज्ञ का त्याग करके वहां से चले गए।

ऋषि दधीचि द्वारा परशुराम के प्रकोप से बालकों की रक्षा

देवी हिंगलाज का मंत्र भी ऋषि दधीचि द्वारा ही निर्मित किया गया है। परशुराम के प्रकोप से कुछ क्षत्रिय बालकों को बचाने के लिए ऋषि दधीचि ने उन्हें हिंगलाज माता के मंदिर के अंदर छुपा दिया और हिंगलाज की स्थापना की, जिसके कारण उन बच्चों की परशुराम के प्रकोप से रक्षा की जा सकी।
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए

वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए

अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए

अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए

वाग्देवी कृपा करिए
*

पूनम की निशि योगिता, इंदु जगत उजियार।
शिक्षक सम पूजित सदा, है जीवन-आधार।।

शकुंतला हर श्वास हो, हो जितेंद्र हर देह।
आकांक्षा कर पूर्ण हो, हो हर आत्म विदेह।।

लखन-राम मोहन पूजित, हुए तभी सच मान।
जब शिक्षक से पा सके, कृपा और वरदान।।

शिखा-किरण की भावना, समझ पतंगा मौन।
कूद-जल गया आप ही, पीड़ा समझे कौन?

आकृति कोई भी नहीं, अर्जुन पाया देख।
आँख परिंदे की रही, नयन तीर की रेख।।

सिमरन शिक्षक का किया, जिसने वही प्रवीण।
हो दिनेश नित दमककर, करे तिमिर को क्षीण।।

अंजलि महके मालती, हेमा नेहा मुग्ध।
जहाँ चंद्र वर्धन वहाँ, 'मावस हो जल दग्ध।।

संजय हो संजीव हर, उमा-उमेश प्रसन्न।
रितिका शालू शालिनी, नव उमंग आसन्न।।
*
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष

सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास

देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल

शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
*
सॉनेट
शिक्षक
शिक्षक सब कुछ रहे सिखाते
हम ही सीख नहीं कुछ पाए
खोटे सिक्के रहे भुनाते
धन दे निज वंदन करवाए

मितभाषी गुरु स्वेद बहाते
कंकर से शंकर गढ़ पाए
हम ढपोरशंखी पछताते
आपन मुख आपन जस गाए

गुरु नेकी कर रहे भुलाते
हमने कर अहसान जताए
गुरु बन दीपक तिमिर मिटाते
हमने नाते-नेह भुनाए

गुरु पग-रज यदि शीश चढ़ाते
आदम हैं इंसान कहाते
*
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***

सॉनेट, चित्रगुप्त, गंगोदक सवैया, गीत, बड़ा दिन, हिंदी भाषी, भजन, मुक्तिका, दोहा, जनक छंद,

सॉनेट

चित्रगुप्त मन में बसें, हों मस्तिष्क महेश।
शारद उमा रमा रहें, आस-श्वास- प्रश्वास।
नेह नर्मदा नयन में, जिह्वा पर विश्वास।।
रासबिहारी अधर पर, रहिए हृदय गणेश।।
पवन देव पग में भरें, शक्ति गगन लें नाप।
अग्नि देव रह उदर में, पचा सकें हर पाक।
वसुधा माँ आधार दे, वसन दिशाएँ पाक।।
हो आचार विमल सलिल, हरे पाप अरु ताप।।
रवि-शशि पक्के मीत हों, सखी चाँदनी-धूप।
ऋतुएँ हों भौजाई सी, नेह लुटाएँ खूब।
करतल हों करताल से, शुभ को सकें सराह।
तारक ग्रह उपग्रह विहँस मार्ग दिखाएँ अनूप।।
बहिना सदा जुड़ी रहे, अलग न हो ज्यों दूब।।
अशुभ दाह दे मनोबल, करे सत्य की वाह।।
२४-१२-२०२१
*
***
गंगोदक सवैया
विधान - ८ रगण।
राम हैं श्याम में, श्याम हैं राम में, ध्याइए-पाइए, कीर्ति भी गाइए।
कौन लाया कभी साथ ले जा सका, जोड़ जो जो मरा, सोच ले आइए।
कल्पना कामना, भावना याचना, वासना हो छले, भूल मुस्काइए।
साधना वंदना प्रार्थना अर्चना नित्य आराधिए, मुक्त हो जाइए।
२४-१२-२०२०
***
गीत
*
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
तकिया ले तेरी बाँहों का,
सुधियों की नव फसलें बोएँ।
*
अपनेपन की गरम रजाई,
शीत-दूरियाँ दूर भगा दे.
मतभेदों की हर सलवट आ!
एक साथ मिल परे हटा दे।
बहुत बटोरीं खुशियाँ अब तक
आओ! लुटाएँ, खुशियाँ खोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
हँसने और हँसाने का दिन
बीत गया तो करें न शिकवा।
मिलने, ह्रदय मिलाने की
घड़ियों का स्वागत कर ले मितवा!
ख़ुशियों में खिलखिला सके तो
दुःख में मिलकर नयन भिगोएँ।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
.*
प्रतिबंधों का मठा बिलोकर
अनुबंधों का माखन पा लें।
संबंधों की मिसरी के सँग
राधा-कान्हा बनकर खा लें।
अधरों-गालों पर चिपका जो
तृप्ति उसी में छिपी, न धो लें।
आ! सिरहाने रख यादों को,
सपनों की चादर पर सोएँ।
*
२४-१२-२०१७
***
गीत:
'बड़ा दिन'
*
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.
बनें सहायक नित्य किसी के-
पूरा करदें उसका सपना.....
*
केवल खुद के लिए न जीकर
कुछ पल औरों के हित जी लें.
कुछ अमृत दे बाँट, और खुद
कभी हलाहल थोडा पी लें.
बिना हलाहल पान किये, क्या
कोई शिवशंकर हो सकता?
बिना बहाए स्वेद धरा पर
क्या कोई फसलें बो सकता?
दिनकर को सब पूज रहे पर
किसने चाहा जलना-तपना?
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
निज निष्ठा की सूली पर चढ़,
जो कुरीत से लड़े निरंतर,
तन पर कीलें ठुकवा ले पर-
न हो असत के सम्मुख नत-शिर.
करे क्षमा जो प्रतिघातों को
रख सद्भाव सदा निज मन में.
बिना स्वार्थ उपहार बाँटता-
फिरे नगर में, डगर- विजन में.
उस ईसा की, उस संता की-
'सलिल' सीख ले माला जपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....
*
जब दाना चक्की में पिसता,
आटा बनता, क्षुधा मिटाता.
चक्की चले समय की प्रति पल
नादां पिसने से घबराता.
स्नेह-साधना कर निज प्रतिभा-
सूरज से कर जग उजियारा.
देश, धर्म, या जाति भूलकर
चमक गगन में बन ध्रुवतारा.
रख ऐसा आचरण बने जो,
सारी मानवता का नपना.
हम ऐसा कुछ काम कर सकें
हर दिन रहे बड़ा दिन अपना.....

***

कविता
हिंदी भाषी
*
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
हिंदी जिनको
रास न आती
दीगर भाषा बोल न पाते।
*
हिंदी बोल, समझ, लिख, पढ़ते
सीढ़ी-दर सीढ़ी है चढ़ते
हिंदी माटी,हिंदी पानी
श्रम करके मूरत हैं गढ़ते
मैया के माथे
पर बिंदी
मदर, मम्मी की क्यों चिपकाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
जो बोलें वह सुनें - समझते
जो समझें वह लिखकर पढ़ते
शब्द-शब्द में अर्थ समाहित
शुद्ध-सही उच्चारण करते
माँ को ठुकरा
मौसी को क्यों
उसकी जगह आप बिठलाते?
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
मनुज-काठ में पंचस्थल हैं
जो ध्वनि के निर्गमस्थल हैं
तदनुसार ही वर्ण विभाजित
शब्द नर्मदा नद कलकल है
दोष हमारा
यदि उच्चारण
सीख शुद्ध हम नहीं सिखाते
हिंदी भाषी ही
हिंदी की
क्षमता पर क्यों प्रश्न उठाते?
*
अंग्रेजी के मोह में फँसे
भ्रम-दलदल में पैर हैं धँसे
भरम पाले यह जगभाषा है
जाग पायें तो मोह मत ग्रसे
निज भाषा का
ध्वज मिल जग में
हम सब काश कभी फहराते
***
कविता -
*
करें पत्ते परिंदों से गुफ्तगू
व्यर्थ रहते हैं भटकते आप क्यूँ?
दरख्तों से बँध रहें तो हर्ज़ क्या
भटकने का आपको है मर्ज़ मया?
परिंदे बोले न बंधन चाहिए
नशेमन के संग आँगन चाहिए
फुदक दाना चुन सकें हम खुद जहाँ
उड़ानों पर भी न बंदिश हो वहाँ
बिना गलती क्यों गिरें हम डाल से?
करें कोशिश जूझ लें हर हाल से
चुगा दें चुग्गा उन्हें असमर्थ जो
तौल कर पर नाप लें हम गगन को
मौन पत्ता छोड़ शाखा गिर गया
परिंदा झटपट गगन में उड़ गया
२४-१२-२०१५
***
भजन
भोले घर बाजे बधाई
स्व. शांति देवी वर्मा
मंगल बेला आयी, भोले घर बाजे बधाई ...
गौर मैया ने लालन जनमे,
गणपति नाम धराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
द्वारे बन्दनवार सजे हैं,
कदली खम्ब लगाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
हरे-हरे गोबर इन्द्राणी अंगना लीपें,
मोतियन चौक पुराई.
भोले घर बाजे बधाई ...
स्वर्ण कलश ब्रम्हाणी लिए हैं,
चौमुख दिया जलाई.
भोले घर बाजे बधाई ...
लक्ष्मी जी पालना झुलावें,
झूलें गणेश सुखदायी.
भोले घर बाजे बधाई ...
***
गीत
चलो हम सूरज उगायें
आचार्य संजीव 'सलिल'
चलो! हम सूरज उगायें...
सघन तम से क्यों डरें हम?
भीत होकर क्यों मरें हम?
मरुस्थल भी जी उठेंगे-
हरितिमा मिल हम उगायें....
विमल जल की सुनें कल-कल।
भुला दें स्वार्थों की किल-किल।
सत्य-शिव-सुंदर रचें हम-
सभी सब के काम आयें...
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या?,
किसी के मन भाएंगे क्या?
सोच यह जीवन जियें हम।
हाथ-हाथों से मिलायें...
आत्म में विश्वात्म देखें।
हर जगह परमात्म लेखें।
छिपा है कंकर में शंकर।
देख हम मस्तक नवायें...
तिमिर में दीपक बनेंगे।
शून्य में भी सुनेंगे।
नाद अनहद गूँजता जो
सुन 'सलिल' सबको सुनायें...
***
मुक्तिका
तुम
*
सारी रात जगाते हो तुम
नज़र न फिर भी आते हो तुम.
थक कर आँखें बंद करुँ तो-
सपनों में मिल जाते हो तुम.
पहले मुझ से आँख चुराते,
फिर क्यों आँख मिलाते हो तुम?
रूठ मौन हो कभी छिप रहे,
कभी गीत नव गाते हो तुम
नित नटवर नटनागर नटखट
नचते नाच नचाते हो तुम
'सलिल' बाँह में कभी लजाते,
कभी दूर हो जाते हो तुम.

***

 दोहा सलिला:

चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, उससे सृष्टि निहाल।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
***
मुक्तक
दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया।
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया।
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया।
दिल लिया दिल बिन दिए ही, दिल दिया बिन दिल लिए।
देखकर यह खेल रोते दिल बिचारे लब सिए।
फिजा जहरीली कलंकित चाँद पर लानत 'सलिल'-
तुम्हें क्या मालूम तुमने तोड़ कितने दिल दिए।
***
***
नवगीत:
खोल दो खिड़की
हवा ताजा मिलेगी
.
ओम की छवि
व्योम में हैं देखना
आसमां पर
मेघ-लिपि है लेखना
रश्मियाँ रवि की
तनिक दें ऊष्णता
कलरवी चिड़ियाँ
नहीं तुम छेंकना
बंद खिड़की हुई तो
साँसें डँसेंगी
कब तलक अमरस रहित
माज़ा मिलेगी
.
घर नहीं संसद कि
मनमानी करो
अन्नदाता पर
मेहरबानी करो
बनाकर कानून
खुद ही तोड़ दो
आप लांछित फिर
भी निगरानी करो
छंद खिड़की हुई तो
आसें मिलेंगी
क्या कभी जनता
बनी राजा मिलेगी?
.
***
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
२४-१२-२०१४
***
जनक छंदी सलिला :
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में मधुवन खिले..
*
कौन किसी का हैं यहाँ?
सब मतलब के मीत हैं.
नाम इसी का है जहाँ..
*
लोकतंत्र नीलाम कर,
देश बेचकर खा गये.
थू नेता के नाम पर..
*
सबका सबसे हो भला,
सभी सदा निर्भय रहें.
हर मन हो शतदल खिला..
*
सत-शिव सुन्दर है जगत,
सत-चित -आनंद ईश्वर.
हर आत्मा में है प्रगट..
*
सबको सबसे प्यार हो,
अहित किसी का मत करें.
स्नेह भरा संसार हो..
*
वही सिंधु है, बिंदु भी,
वह असीम-निस्सीम भी.
वही सूर्य है, इंदु भी..
*
जन प्रतिनिधि का आचरण,
जन की चिंता का विषय.
लोकतंत्र का है मरण..
*
शासन दुश्शासन हुआ,
जनमत अनदेखा करे.
कब सुधरेगा यह मुआ?
*
सांसद रिश्वत ले रहे,
क़ैद कैमरे में हुए.
ईमां बेचे दे रहे..
*
सबल निबल को काटता,
कुर्बानी कहता उसे.
शीश न निज क्यों काटता?
*
जीना भी मुश्किल किया,
गगन चूमते भाव ने.
काँप रहा है हर जिया..
*
आत्म दीप जलता रहे,
तमस सभी हरता रहे.
स्वप्न मधुर पलता रहे..
*
उगते सूरज को नमन,
चतुर सदा करते रहे.
दुनिया का यह ही चलन..
*
हित-साधन में हैं मगन,
राष्ट्र-हितों को बेचकर.
अद्भुत नेता की लगन..
*
सांसद लेते घूस हैं,
लोकतन्त्र के खेत की.
फसल खा रहे मूस हैं..
*
मतदाता सूची बदल,
अपराधी है कलेक्टर.
छोडो मत दण्डित करो..
*
बाँधी पट्टी आँख में,
न्यायालय अंधा हुआ.
न्याय न कर, ले बद्दुआ..
*
पहने काला कोट जो,
करा रहे अन्याय नित.
बेच-खरीदें न्याय को..
*
हरी घास पर बैठकर,
थकन हो गयी दूर सब.
रूप धूप का देखकर..
*
गाल गुलाबी लाल लख़,
रवि ऊषा को छेड़ता.
भू-माँ-गृह वह जा छिपी..
*
ऊषा-संध्या-निशा को
चन्द्र परेशां कर रहा.
सूर्य न रोके डर रहा..
*
चाँद-चाँदनी की लगन,
देख मुदित हैं माँ धरा.
तारे बाराती बने..
*
वर से वधु रूठी बहुत,
चाँद मुझे क्यों कह दिया?
गाल लाल हैं क्रोध से..
*
लहरा बल खा नाचती,
नागिन सी चोटी तेरी.
सँभल, न डस ले यह तुझे..
*
मन मीरा, तन राधिका,
प्राण स्वयं श्री कृष्ण हैं.
भवसागर है वाटिका..
***

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

हिंदी, नवगीत, षट्पदी, हाइकु, दोहा, क्षणिका

षट्पदी
*
बाँचे कोई तो कभी, अपना लिखा कवित्त।
खुद को कविवर समझकर, खुश हो जाता चित्त।।

खुश हो जाता चित्त, मित्त तालियाँ बजाते।
सुना-दिखाकर कलाकार, रोटियाँ कमाते।।

रुष्ट 'सलिल' कविराय, थमाकर नोटिस नाचे।
करे कमाई वकील, पिटीशन लिखकर बाँचे।।
***
क्षणिका
मैं बोला- आदाब!
वे समझीं- आ दाब।
खाना हुआ खराब
भागा तुरत जनाब
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोरे करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
२३-१२-२०१६
***
नवगीत:
नए साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
.
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पायेगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटायी
तो क्या
घटनाक्रम होगा?
.
काशी, मथुरा, अवध
विवाद मिटेंगे क्या?
नक्सलवादी
तज विद्रोह
हटेंगे क्या?
पूर्वांचल में
अमन-चैन का
क्या होगा?
.
धर्म भाव
कर्तव्य कभी
बन पायेगा?
मानवता की
मानव जय
गुंजायेगा?
मंगल छू
भू के मंगल
का क्या होगा?
***
हाइकु सलिला:
.
मन मोहतीं
धूप-छाँव दोनों ही
सच सोहतीं
.
गाँव न गोरी
अब है सियासत
धनी न धोरी
.
तितली उड़ी
पकड़ने की चाह
फुर्र हो गयी
.
ओस कणिका
मुदित मुकुलित
पुष्प कलिका
.
कुछ तो करें
महज आलोचना
पथ न वरें
***
दोहा सलिला:
.
प्रेम चंद संग चाँदनी, सहज योग हो मीत
पानी शर्बत या दवा, पियो विहँस शुभ रीत
.
रख खातों में ब्लैक धन, लाख मचाओ शोर
जनगण सच पहचानता, नेता-अफसर चोर
.
नया साल आ रहा है, खूब मनाओ हर्ष
कमी न कोशिश में रहे, तभी मिले उत्कर्ष
.
चन्दन वंदन कर मने, नया साल त्यौहार
केक तजें, गुलगुले खा, पंचामृत पी यार
.
रहें राम-शंकर जहाँ, वहाँ कुशल भी साथ
माता का आशीष पा, हँसो उठकर माथ
***
षट्पदी :
.
है समाज परिवार में, मान हो रहे अंध
जुट समाजवादी गये, प्रबल स्वार्थ की गंध
प्रबल स्वार्थ की गंध, समूचा कुनबा नेता
घपलों-घोटालों में माहिर, छद्म प्रणेता
कथनी-करनी से हुआ शर्मसार जन-राज है
फ़िक्र न इनको देश की, संग न कोई समाज है
*
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
***
नवगीत:
संजीव
.
कुण्डी खटकी
उठ खोल द्वार
है नया साल
कर द्वारचार
.
छोडो खटिया
कोशिश बिटिया
थोड़ा तो खुद को
लो सँवार
.
श्रम साला
करता अगवानी
मुस्का चहरे पर
ला निखार
.
पग द्वय बाबुल
मंज़िल मैया
देते आशिष
पल-पल हजार
***
नवगीत:
*
नये बरस की
भोर सुनहरी
.
हरी पत्तियों पर
कलियों पर
तुहिन बूँद हो
ठहरी-ठहरी
ओस-कुहासे की
चादर को चीयर
रवि किरण
हँसे घनेरी
खिड़की पर
चहके गौरैया
गाये प्रभाती
हँसे गिलहरी
*
लोकतंत्र में
लोभतंत्र की
सरकारें हैं
बहरी-बहरी
क्रोधित जनता ने
प्रतिनिधि पर
आँख करोड़ों
पुनः तरेरी
हटा भरोसा
टूटी निष्ठा
देख मलिनता
लहरी-लहरी
.
नए सृजन की
परिवर्तन की
विजय पताका
फहरी-फहरी
किसी नवोढ़ा ने
साजन की
आहट सुन
मुस्कान बिखेरी
गोर करतल पर
मेंहदी की
सुर्ख सजावट
गहरी-गहरी
***
आलेख
हिंदी : चुनौतियाँ और संभावनाएँ
- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
रचनाकार परिचय:-
आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त
कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपने निर्माण के नूपुर, नींव के
पत्थर, राम नाम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८
आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है।
आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य,
२०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश
गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय
सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। आप मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग के कार्यपालन यंत्री / संभागीय
परियोजना यंत्री पदों पर कुशलतापूर्वक कार्य कर चुके हैं.
रचनाकार परिचय: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को हिंदी तथा साहित्य के प्रति लगाव पारिवारिक विरासत में प्राप्त हुआ है. अपने नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा, बी. ई., एम. आई., एम. ए. (अर्थ शास्त्र, दर्शन शास्त्र), एल-एल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डिप्लोमा कप्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा किया है. आपकी प्रकाशित कृतियाँ अ. कलम का देव (भक्ति गीत संग्रह), लोकतंत्र का मकबरा तथा मेरे (अछांदस कविताएँ) तथा भूकम्प के साथ जीना सीखें (तकनीकी लोकोपयोगी) हैं. आपने ९ पत्रिकाओं तथा १६
भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति में शिशु को पूर्व प्राथमिक से ही अंग्रेजी के शिशु गीत रटाये जाते हैं. वह बिना अर्थ जाने अतिथियों को सुना दे तो माँ-बाप का मस्तक गर्व से ऊँचा हो जाता है. हिन्दी की कविता केवल २ दिन १५ अगस्त और २६ जनवरी पर पढ़ी जाती है, बाद में हिन्दी बोलना कोई नहीं चाहता. अंग्रेजी भाषी विद्यालयों में तो हिन्दी बोलने पर 'मैं गधा हूँ' की तख्ती लगाना पड़ती है. इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिन्दी यत्किंचित पढ़ता है... फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिन्दी छुटा ही देता है.
इस मानसिकता की आधार भूमि पर जब साहित्य रचना की ओर मुड़ता है तो हिन्दी भाषा, व्याकरण और पिंगल का अधकचरा ज्ञान और हिन्दी को हेय मानने की प्रवृत्ति उसे उर्दू की ओर उन्मुख कर देती है जबकि उर्दू स्वयं हिन्दी की अरबी-फारसी शब्द बाहुल्यता की विशेषता समेटे शैली मात्र है.
गत कुछ दिनों से एक और चिंतनीय प्रवृत्ति उभरी है. राजनैतिक नेताओं ने मतों को हड़पने के लिये आंचलिक बोलियों (जो हिन्दी की शैली विशेष हैं) को प्रान्तों की राजभाषा घोषित कर उन्हें हिन्दी का प्रतिस्पर्धी बनाने का कुप्रयास किया है. अंतरजाल (नेट) पर भी ऐसी कई साइटें हैं जहाँ इन बोलियों के पक्षधर जाने-अनजाने हिन्दी विरोध तक पहुँच जाते हैं जबकि वे जानते हैं कि क्षेत्र विशेष के बाहर बोलिओं की स्वीकृति नहीं हो सकती.
मैंने इस के विरुद्ध रचनात्मक प्रयास किया और खड़ी हिन्दी के साथ उर्दू, बृज, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, मारवाड़ी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली आदि भाषारूपों में रचनाएँ इन साइटों को भेजीं, कुछ ई कविता के मंच पर भी प्रस्तुत कीं. दुःख हुआ कि एक बोली के पक्षधर ने किसी अन्य बोली की रचना में कोई रूचि नहीं दिखाई. इस स्थिति का लाभ अंग्रेजी के पक्षधर ले रहे हैं.
उर्दू के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है... वह अंग्रेजों के पहले मुग़ल काल में शासन-प्रशासन की भाषा रही है. हमारे घरों के पुराने कागजात उर्दू लिपि में हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने लिखा है. उर्दू की उस्ताद-शागिर्द परंपरा इस शैली को लगातार आगे बढ़ाती और नये रचनाकारों को शिल्प की बारीकियाँ सिखाती हैं. हिन्दी में जानकार नयी कलमों को अतिउत्साहित, हतोत्साहित या उपेक्षित करने में गौरव मानते हैं. अंतरजाल आने के बाद स्थिति में बदलाव आ रहा है... किन्तु अभी भी रचना की कमी बताने पर हिन्दी का कवि उसे अपनी शैली कहकर शिल्प, व्याकरण या पिंगल के नियम मानने को तैयार नहीं होता. शुद्ध शब्द अपनाने के स्थान पर उसे क्लिष्ट कहकर बचता है. उर्दू में पाद टिप्पणी में अधिक कठिन शब्द का अर्थ देने की रीति हिन्दी में अपनाना एक समाधान हो सकता है.
हर भारतीय यह जानता है कि पूरे भारत में बोली-समझी जानेवाली भाषा हिन्दी और केवल हिन्दी ही हो सकती है तथा विश्व स्तर पर भारत की भाषाओँ में से केवल हिन्दी ही विश्व भाषा कहलाने की अधिकारी है किन्तु सच को जानकर भी न मानने की प्रवृत्ति हिन्दी के लिये घातक हो रही है.
हम रचना के कथ्य के अनुकूल शब्दों का चयन कर अपनी बात कहें... जहाँ लगता हो कि किसी शब्द विशेष का अर्थ सामान्य पाठक को समझने में कठिनाई होगी वहाँ अर्थ कोष्ठक या पाद टिप्पणी में दे दें. किसी पाठक को कोई शब्द कठिन या नया लगे तो वह शब्द कोष में अर्थ देख ले या रचनाकार से पूछ ले.
हिन्दी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओँ के साहित्य को आत्मसात कर हिन्दी में अभिव्यक्त करने की तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषय-वस्तु को हिन्दी में अभिव्यक्त करने की है. हिन्दी के शब्द कोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है. इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओँ, विदेशी भाषाओँ, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना जरूरी है.
एक सावधानी रखनी होगी. अंग्रेजी के नये शब्द कोष में हिन्दी के हजारों शब्द समाहित किये गये हैं किन्तु कई जगह उनके अर्थ/भावार्थ गलत हैं... हिन्दी में अन्यत्र से शब्द ग्रहण करते समय शब्द का लिंग, वचन, क्रियारूप, अर्थ, भावार्थ तथा प्रयोग शब्दकोष में हो तो उपयोगिता में वृद्धि होगी. यह महान कार्य सैंकड़ों हिन्दीप्रेमियों को मिलकर करना होगा. विविध विषयों के निष्णात जन अपने विषयों के शब्द-अर्थ दें जिन्हें हिन्दी शब्द कोष में जोड़ा जाये.
रचनाकारों को हिन्दी का प्रामाणिक शब्द कोष, व्याकरण तथा पिंगल की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब जैसे समय मिले पढ़ने की आदत डालनी होगी. हिन्दी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी या ने किसी भाषा/बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है चूँकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती.
२३-१२-२०१४
***

गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

हाइकु गीत, सॉनेट, नारी, मुक्तक, गीत, मुक्तिका, मातृ वंदना, रेफ,

हाइकु गीत  

जोड़-घटाना
प्रेम-नफरत को,
जीवन जीना.....
गुणा करना  / परिश्रम का मीत / मत थकना। 
भाग करना / थकावट का, जीत / मत रुकना।।
याद रखना 
वस्त्र फ़टे या दिल 
तुरंत सीना..... 
 
प्रेम परिधि / संदेह के चाप से  / कट न सके। 
नेह निधि  / आय घट-बढ़ से / घट न सके।।  
नहीं फलता 
गैर का प्राप्य यदि 
तुमने छीना..... 
जीवन रेखा / सरल हो या वक्र / टूट न सके। 
भाग्य का लेखा / हाथ में लिया हाथ / छूट न सके।।  
लाज का पर्दा  
लोहे से मजबूत 
किंतु है झीना..... 

संजीव 
२२-१२-२०२२, २०.३३ 
जबलपुर 
***
सॉनेट
नारी
*
शारद-रमा-उमा की जय-जय, करती दुनिया सारी।
भ्रांति मिटाने साथ हाथ-पग बढ़ें तभी हो क्रांति।
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी।।
सफल साधना तभी रहे जब जीवन में सुख-शांति।।
जाया-माया, भोगी-भोग्या, चित-पट अनगिन रंग।
आशा पुष्पा दे बगिया को, सुषमा-किरण अनंत।
पूनम तब जब रहे ज्योत्सना, रजनीपति के संग।।
उषा-दुपहरी-संध्या सहचर दिनपति विभा दिगंत।।
शिक्षा-दीक्षा, रीति-नीति बिन सार्थक हुई न श्वासा।
क्षुधा-पिपासा-तृष्णा बिना हो, जग-जीवन बेरंग।
कीर्ति-प्रतिष्ठा, सज्जा-लज्जा से जीवन मधुमासा।।
राधा धारा भक्ति-मुक्ति की, शुभ्रा-श्वेता संग।।
अमला विमला धवला सरला, सुख प्रदायिनी नारी।
मैया भगिनि भामिनि भाभी पुत्री सखी दुलारी।।
२२-१२-२०२१
***
मुक्तक:
*
दे रहे सब कौन सुनता है सदा?
कौन किसका कहें होता है सदा?
लकीरों को पढ़ो या कोशिश करो-
वही होता जो है किस्मत में बदा।
*
ठोकर खाएँ नहीं हम हार मानते।
कारण बिना नहीं किसी से रार ठानते।।
कुटिया का छप्पर भी प्यारा लगता-
संगमर्मरी ताजमहल हम न जानते।।
*
तम तो पहले भी होता था, ​अब भी होता है।
यह मनु पहले भी रोता था, अब रोता है।।
पहले थे परिवार, मित्र, संबंधी उसके साथ-
आज न साया संग इसलिए धीरज खोता है।।
*
२२.१२.२०१८
***
मुक्तक
*
जब बुढ़ापा हो जगाता रात भर
याद के मत साथ जोड़ो मन इसे.
प्रेरणा, जब थी जवानी ली नहीं-
मूढ़ मन भरमा रहा अब तू किसे?
२२-१२-२०१६
***
सामयिक गीत :
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
तुम ही नहीं सयाने जग में
तुम से कई समय के मग में
धूल धूसरित पड़े हुए हैं
शमशानों में गड़े हुए हैं
अवसर पाया काम करो कुछ
मिलकर जग में नाम करो कुछ
रिश्वत-सुविधा-अहंकार ही
झिला रहे हो, झेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
*
दलबंदी का दलदल घातक
राजनीति है गर्हित पातक
अपना पानी खून बताएँ
खून और का व्यर्थ बहाएँ
सच को झूठ, झूठ को सच कह
मैली चादर रखते हो तह
देशहितों की अनदेखी कर
अपनी नाक नकेल रहे हो
नूराकुश्ती खेल रहे हो
देश गर्त में ठेल रहे हो
२१-१२-२०१५
***
मुक्तिका:
नए साल का अभिनंदन
अर्पित है अक्षत-चंदन
तम हरने दीपक जलता
कब कहता है लगी अगन
कोशिश हार न मानेगी
मरु को कर दे नंदन वन
लक्ष्य वही वर पाता है
जो प्रयास में रहे मगन
बाधाओं को विजय करे
दृढ़ हो जिसका अंतर्मन
गिर मत रुक, उठ आगे बढ़
मत चुकने दे 'सलिल' लगन
बंदूकों से 'सलिल' न डर
जीता भय पर सदा अमन
***
धूप -छाँव: बात निकलेगी तो फिर
गुजरे वक़्त में कई वाकये मिलते हैं जब किसी साहित्यकार की रचना को दूसरे ने पूरा किया या एक की रचना पर दूसरे ने प्रति-रचना की. अब ऐसा काम नहीं दिखता। संयोगवश स्व. डी. पी. खरे द्वारा गीता के भावानुवाद को पूर्ण करने का दायित्व उनकी सुपुत्री श्रीमती आभा खरे द्वारा सौपा गया. किसी अन्य की भाव भूमि पर पहुँचकर उसी शैली और छंद में बात को आगे बढ़ाना बहुत कठिन मशक है. धूप-छाँव में हेमा अंजुली जी के कुछ पंक्तियों से जुड़कर कुछ कहने की कोशिश है. आगे अन्य कवियों से जुड़ने का प्रयास करूंगा ताकि सौंपे हुए कार्य के साथ न्याय करने की पात्रता पा सकूँ. पाठक गण निस्संकोच बताएं कि पूर्व पंक्तियों और भाव की तारतम्यता बनी रह सकी है या नहीं? हेमा जी को उनकी पंक्तियों के लिये धन्यवाद।
हेमा अंजुली
इतनी शिद्दत से तो उसने नफ़रत भी नहीं की ....
जितनी शिद्दत से हमने मुहब्बत की थी.
.
सलिल:
अंजुली में न नफरत टिकी रह सकी
हेम पिघला फिसल बूँद पल में गई
साथ साये सरीखी मोहब्बत रही-
सुख में संग, छोड़ दुख में 'सलिल' छल गई
*
हेमा अंजुली
तुम्हारी वो एक टुकड़ा छाया मुझे अच्छी लगती है
जो जीवन की चिलचिलाती धूप में
सावन के बादल की तरह
मुझे अपनी छाँव में पनाह देती है
.
सलिल
और तुम्हारी याद
बरसात की बदरी की तरह
मुझे भिगाकर अपने आप में सिमटना
सम्हलना सिखा आगे बढ़ा देती है.
*
हेमा अंजुली
कभी घटाओं से बरसूँगी ,
कभी शहनाइयों में गाऊँगी,
तुम लाख भुलाने कि कोशिश कर लो,
मगर मैं फिर भी याद आऊँगी ...
.
सलिल
लाख बचाना चाहो
दामन न बचा पाओगे
राह पर जब भी गिरोगे
तुम्हें उठायेंगे
*
हेमा अंजुली
छाने नही दूँगी मैं अँधेरो का वजूद
अभी मेरे दिल के चिराग़ बाकी हैं
.
सलिल
जाओ चाहे जहाँ मुझको करीब पाओगे
रूह में खनक के देखो कि आग बाकी है
*
हेमा अंजुली
सूरत दिखाने के लिए तो
बहुत से आईने थे दुनिया में
काश! कि कोई ऐसा आईना होता
जो सीरत भी दिखाता
.
सलिल
सीरत 'सलिल' की देख टूट जाए न दर्पण
बस इसलिए ही आइना सूरत रहा है देख
***
मुक्तक
मन-वीणा जब करे ओम झंकार
गीत हुलास कर खटकाते हैं द्वार
करे संगणक स्वागत टंकण यंत्र-
सरस्वती मैया की जय-जयकार
***
मातृ वंदना -
*
ममतामयी माँ नंदिनी-करुणामयी माँ इरावती।
सन्तान तेरी मिल उतारें, भाव-भक्ति से आरती...
लीला तुम्हारी हम न जानें, भ्रमित होकर हैं दुखी।
सत्पथ दिखाओ माँ, बने सन्तान सब तेरी सुखी॥
निर्मल ह्रदय के भाव हों, किंचित न कहीं अभाव हों-
सात्विक रहे आचार, माता सदय रहो निहारती..
कुछ काम जग के आ सकें, महिमा तुम्हारी गा सकें।
सत्कर्म कर आशीष मैया!, पुत्र तेरे पा सकें॥
निष्काम औ' निष्पक्ष रह, सब मोक्ष पायें अंत में-
निश्छल रहें मन-प्राण, वाणी नित तम्हें गुहारती...
चित्रेश प्रभु केकृपा मैया!, आप ही दिलवाइये।
जैसे भी हैं, हैं पुत्र माता!, मत हमें ठुकराइए॥
कंकर से शंकर बन सकें, सत-शिव औ' सुंदर वर सकें-
साधना कर सफल, क्यों मुझ 'सलिल' को बिसारती...
२१-१२-२०१४
***
विचार-विमर्श नारी प्रताड़ना का दंड? संजीव 'सलिल'
*
दिल्ली ही नहीं अन्यत्र भी भारत हो या अन्य विकसित, विकासशील या पिछड़े देश, भाषा-भूषा, धर्म, मजहब, आर्थिक स्तर, शैक्षणिक स्तर, वैज्ञानिक उन्नति या अवनति सभी जगह नारी उत्पीडन एक सा है. कहीं चर्चा में आता है, कहीं नहीं किन्तु इस समस्या से मुक्त कोई देश या समाज नहीं है.
फतवा हो या धर्मादेश अथवा कानून नारी से अपेक्षाएं और उस पर प्रतिबन्ध नर की तुलना में अधिक है. एक दृष्टिकोण 'जवान हो या बुढ़िया या नन्हीं सी गुडिया, कुछ भी हो औरत ज़हर की है पुड़िया' कहकर भड़ास निकलता है तो दूसरा नारी संबंधों को लेकर गाली देता है.
यही समाज नारी को देवी कहकर पूजता है यही उसे भोगना अपना अधिकार मानता है.
'नारी ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया' यदि मात्र यही सच है तो 'एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी' कहनेवाला पुरुष आजीवन माँ, बहन, भाभी, बीबी या कन्या के स्नेहानुशासन में इतना क्यों बंध जाता है 'जोरू का गुलाम कहलाने लगता है.
स्त्री-पीड़ित पुरुषों की व्यथा-कथा भी विचारणीय है.
घर में स्त्री को सम्मान की दृष्टि से देखनेवाला युअव अकेली स्त्री को देखते ही भोगने के लिए लालायित क्यों हो जाता है?
ऐसे घटनाओं के अपराधी को दंड क्या और कैसे दिया जाए. इन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है. आपका स्वागत है.
२२-१२-२०१२
***
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्‍स में ड्‍ स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
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६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
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१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
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चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
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