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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

मुक्तक, करवा चौथ, मुक्तिका, सॉनेट, नयन, नवगीत, भारती वंदना, -वृन्दावन, दोहा, रासलीला

सॉनेट 
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर 
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट

नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई 
नयन उठे सँग सपने कई कई 
नयन नयन में बसे मिटा भय

नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे

नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न बहरे
नयन न रोके रुके न ठहरे
१३•१०•२०२२
●●●
मुक्तक
*
वन्दना प्रार्थना साधना अर्चना
हिंद-हिंदी की करिये, रहे सर तना
विश्व-भाषा बने भारती हम 'सलिल'
पा सकें हर्ष-आनंद नित नव घना
*
चाँद हो साथ में चाँदनी रात हो
चुप अधर, नैन की नैन से बात हो
पानी-पानी हुई प्यास पल में 'सलिल'
प्यार को प्यार की प्यार सौगात हो
*
चाँद को जोड़कर कर मनाती रही
है हक़ीक़त सजन को बुलाती रही
पी रही है 'सलिल' हाथ से किंतु वह
प्यास अपलक नयन की बुझाती रही
*
चाँद भी शरमा रहा चाँदनी के सामने
झुक गया है सिर हमारा सादगी के सामने
दूर रहते किस तरह?, बस में न था मन मान लो
आ गया है जल पिलाने ज़िंदगी के सामने
*
गगन का चाँद बदली में मुझे जब भी नज़र आता
न दिखता चाँद चेहरा ही तेरा तब भी नज़र आता
कभी खुशबू, कभी संगीत, धड़कन में कभी मिलते-
बसे हो प्राण में, मन में यही अब भी नज़र आता

*

मुक्तिका
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुंदर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
*
संजीव, ७९९९५५९६१८
करवा चौथ २७-१०-२०१८
*
नवगीत:
हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर
तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की
दिशाहीन
बहसें मुँहजोर
छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश
जाग उठो
फिर लाओ भोर
पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान
साथ चलो
फिर उगाओ भोर
***
***
हिंदी ग़ज़ल -
बहर --- २२-२२ २२-२२ २२२१ १२२२
*
है वह ही सारी दुनिया में, किसको गैर कहूँ बोलो?
औरों के क्यों दोष दिखाऊँ?, मन बोले 'खुद को तोलो'
*
​खोया-पाया, पाया-खोया, कर्म-कथानक अपना है
क्यों चंदा के दाग दिखाते?, मन के दाग प्रथम धो लो
*
जो बोया है काटोगे भी, चाहो या मत चाहो रे!
तम में, गम में, सम जी पाओ, पीड़ा में कुछ सुख घोलो
*
जो होना है वह होगा ही, जग को सत्य नहीं भाता
छोडो भी दुनिया की चिंता, गाँठें निज मन की खोलो
*
राजभवन-शमशान न देखो, पल-पल याद करो उसको
आग लगे बस्ती में चाहे, तुम हो मगन 'सलिल' डोलो
***
***
भारती वंदना
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें विधि जगवाणी की
संस्कृत-पुत्री को अपना गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
अवधी, असमी, कन्नड़, गढ़वाली, गुजराती
बुन्देली, बांगला, मराठी, बृज मुस्काती
छतीसगढ़ी, तेलुगू, भोजपुरी, मलयालम
तमिल, डोगरी, राजस्थानी, उर्दू भाती
उड़िया, सिंधी, पंजाबी गलहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
देश, विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
दोहा सलिला
सुधियों के संसार में, है शताब्दि क्षण मात्र
श्वास-श्वास हो शोभना, आस सुधीर सुपात्र
*
मृदुला भाषा-काव्य की, धारा, बहे अबाध
'सलिल' साधना कर सतत, हो प्रधान हर साध
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्वमय देह
ईश्वर का उपहार है, पूजा करें सनेह
*
हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल
'सलिल'संस्कृत सान दे,पुड़ी बने कमाल
*
जन्म ब्याह राखी तिलक,गृह प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
*
बिन अपनों के हो सलिल' पल-पल समय पहाड़
जेठ-दुपहरी मिले ज्यों, बिन पाती का झाड़
*
विरह-व्यथा को कहें तो, कौन सका है नाप?
जैसे बरखा का सलिल, या गर्मी का ताप
*
कंधे हों मजबूत तो, कहें आप 'आ भार'
उठा सकें जब बोझ तो, हम बोलें 'आभार'
*
कविता करना यज्ञ है, पढ़ना रेवा-स्नान
सुनना कथा-प्रसाद है, गुनना प्रभु का ध्यान
*
कांता-सम्मति मानिए, हो घर में सुख-चैन
अधरों पर मुस्कान संग, गुंजित मीठे बैन
***
***
एक रचना: मन-वृन्दावन
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
किस पग-रज की दिव्य स्वामिनी का मन-आँगन राज सखे!
*
कलरव करता पंछी-पंछी दिव्य रूप का गान करे.
किसकी रूपाभा दीपित नभ पर संध्या अभिमान करे?
किसका मृदुल हास दस दिश में गुंजित ज्यों वीणा के तार?
किसके नूपुर-कंकण ध्वनि में गुंजित हैं संतूर-सितार?
किसके शिथिल गात पर पंखा झलता बृज का ताज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी केशराशि श्यामाभित, नर्तन कर मन मोह रही?
किसके मुखमंडल पर लज्जा-लहर जमुन सी सोह रही?
कौन करील-कुञ्ज की शोभा, किससे शोभित कली-कली?
किस पर पट-पीताम्बरधारी, मोहित फिरता गली-गली?
किसके नयन बाणकान्हा पर गिरते बनकर गाज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसकी दाड़िम पंक्ति मनोहर मावस को पूनम करती?
किसके कोमल कंठ-कपोलों पर ऊषा नर्तन करती?
किसकी श्वेताभा-श्यामाभित, किससे श्वेताभित घनश्याम?
किसके बोल वेणु-ध्वनि जैसे, करपल्लव-कोमल अभिराम?
किस पर कौन हुआ बलिहारी, कैसे, कब-किस व्याज सखे?
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
*
किसने नीरव को रव देकर, भव को वैभव दिया अनूप?
किसकी रूप-राशि से रूपित भवसागर का कण-कण भूप?
किससे प्रगट, लीन किसमें हो, हर आकार-प्रकार, विचार?
किसने किसकी करी कल्पना, कर साकार, अवाक निहार?
किसमें कर्ता-कारण प्रगटे, लीन क्रिया सब काज सखे!
किस पग के नूपुर खनके मन-वृन्दावन में आज सखे!
१३-१०-२०१७
***
रासलीला :
संजीव 'सलिल'
*
रासलीला दिव्य क्रीड़ा परम प्रभु की.
करें-देखें-सुन तरें, आराध्य विभु की.
चक्षु मूँदे जीव देखे ध्यान धरकर.
आत्म में परमात्म लेखे भक्ति वरकर.
जीव हो संजीव प्रभु का दर्श पाए.
लीन लीला में रहे जग को भुलाए.
साधना का साध्य है आराध्य दर्शन.
पूर्ण आशा तभी जब हो कृपा वर्षण.
पुष्प पुष्पा, किरण की सुषमा सुदर्शन.
शांति का राजीव विकसे बिन प्रदर्शन
वासना का राज बहादुर मिटाए.
रहे सत्य सहाय हरि को खोज पाए.
मिले ओम प्रकाश मन हनुमान गाए.
कृष्ण मोहन श्वास भव-बाधा भुलाए.
आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.
झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.
कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.
अधर शतदल पाँखुरी से रस भरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.
नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.
खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.
कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.
सिर्फ तू ही तो नहीं मैं भी यहाँ हूँ.
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.
चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.
अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.
भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.
कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?
पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?
कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?
क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?
कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाए.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाए.
जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?
ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?
थाप में आलाप कब देता सुनाई?
हर किसी में आप वह देता दिखाई?
अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?
कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?
कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?
कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.
भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?
द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?
कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?
अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.
नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.
आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.
अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् दिगादि दिगंत जैसे एक पाया.
कंकरों में शंकरों का वास देखा.
जमुन रज में आज बृज ने हास देखा.
मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.
रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.
रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.
रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.
रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.
रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.
रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..
रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.
राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचती थीं.
साधिका होकर साध्य को ही बाँचती थीं.
'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्री बांकेबिहारी.
नर्मदा सी वर्मदा सी शर्मदा सी.
स्नेह-सलिला बही ब्रज में धर्मदा सी.
वेणु झूमी, थिरक नाची, स्वर गुँजाए.
अर्धनारीश्वर वहीं साकार पाए.
रहा था जो चित्र गुप्त, न गुप्त अब था.
सुप्त होकर भी न आत्मन् सुप्त अब था.
दिखा आभा ज्योति पावन प्रार्थना सी.
उषा संध्या वंदना मन कामना सी.
मोहिनी थी, मानिनी थी, अर्चना थी.
सृष्टि सृष्टिद की विनत अभ्यर्थना थी.
हास था पल-पल निनादित लास ही था.
जो जहाँ जैसा घटित था, रास ही था.
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३०-४-२०१०

समीक्षा, उपन्यास मैं प्रेम हूँ, रश्मि कौशल

 कृति चर्चा


‘मैं प्रेम हूँ’ राधाभाव रश्मि का अनूठा कौशल



[कृति विवरण- ‘मैं प्रेम हूँ’, उपन्यास, डा. रश्मि कौशल, ISBN- 978-81-9439048-0, प्रथम संस्करण 2020, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृ.सं. 184, मूल्य, 275 रुपये, शिल्पायन बुक्स, शाहदरा, दिल्ली, कृतिकार संपर्क : 9711282391]


मानव सभ्यता के जन्म से तुरत पश्चात् से आज तक विकास के हर सोपान पर कथा कहानियाँ चोली-दामन की तरह उसके साथ रही हैं। इऩका जन्म मानव की कौतूहली प्रवृत्ति, औत्सुक्य तथा मनोरंजन की तृप्ति हेतु हुआ। कई कथाओं का उद्देश्यपूर्ण क्रमवार सुगठित प्रस्तुतीकरण उपन्यास है। उपन्यास मानवीय जिजीविषा, स्पर्धा, संघर्ष, समरसता, सहिष्णुता, राग-द्वेष, आदि की समग्र झाँकी प्रस्तुत करते हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, भाषाशैली, देश, काल तथा उद्देश्य उपन्यास के प्रमुख अंग हैं। उपन्यास दो शब्दों  उप+न्यास के योग से बना है, जिसका अर्थ आसपास की कहानी या घटनाक्रम है। उपन्यास को मानव जीवन का गाथा भी कहा जा सकता है। उपन्यास का रूपविधान लचीला होता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र कहा है। उपन्यास के अनेक प्रकार हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सांस्कृतिक, समाजवादी, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, राजनैतिक, प्रयोगात्मक, तिलस्मी-जादुई, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, जासूसी, आदर्शवादी, नीतिप्रधान, आत्मचरितात्मक, समस्या-प्रधान, भावप्रधान, महाकाव्यात्मक, वातावरण प्रधान, पर्यावरणात्मक, चरित्रप्रधान, कथानक प्रधान, स्त्रीविमर्शवादी, आप्रवासी, पुरुष-विमर्शवादी आदि। 


विवेच्य उपन्यास ‘मैं प्रेम हूँ’ धार्मिक भावप्रधान, मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। उपन्यासकार डा. रश्मि कौशल उच्च शिक्षित अभियंता हैं। अनास्था, पश्चिम के अंधानुकरण तथा धर्म व भक्ति को पिछड़ापन मानने के इस संक्रान्तिकाल में इलैक्ट्रॉनिक्स एवं इंजीनियरिंग में डॉक्टरी उपाधि प्राप्त रश्मिजी द्वारा एक भक्ति भाव प्रधान उपन्यास लिखा जाना चकित करता है। उपन्यास के शीर्षक से यह कृति रोमानी होने की प्रतीति होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास कृष्णकाल की बहुचर्चित, अतिलोकप्रिय, विवादास्पद (थी या नहीं थी), अगणित भक्तों की आराध्या सोलह कला से सम्पन्न विष्णु के अवतार  श्रीकृष्ण की प्रेयसी, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही राधा रानी पर केन्द्रित है। 'राधा हरती भव बाधा' लोक मानस में राधा की छवि तमाम लोक परंपराओं, रीति रिवाजों, मूल्यों आदि के विपरीत आचरण करने पर भी कल्याणकारी जगदम्बिका की है, जो ईश्वर की आल्हादिनी शक्ति है। जिसके साथ विवाह न हुआ, उसके साथ लुक-छिपकर, लड़-झगड़कर रास रचाने, श्रृंगार कराने तथा जिसके साथ विवाह हुआ उससे प्रायः दूरी पालने के बाद भी राधा लोकमानस में मंगलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। राधा थी या नहीं थी, राधा का आचरण अनुकरणीय था या नहीं, राधा-कृष्ण का प्रेम आत्मिक था या दैविक, राधाकृष्ण का विवाह हुआ या नहीं, कृष्ण एक से एक रूपवती, गुणवती पत्नियों के रहते राधा को विस्मृत नहीं कर सके, राधा, कृष्ण द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद भी कृष्ण के प्रति समर्पित क्यों रही? दोनों का साहचर्य केवल निर्दोष बालक्रीड़ा थी या कैशोर्य, तारुण्य और यौवन की बेला में परिपुष्ट हुआ नाता, वार्धक्य में दोनों मिले या नहीं? कृष्ण की पटरानियों और राधा का अंतर्संबंध आदि अनेक प्रश्न लोक मानस में उठते और चर्चा का विषय बनते रहते हैं। इस कृति की रचना इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए नहीं की गई, पर विचित्र किंतु सत्य है कि इस कृति का आद्योपांत वाचन करने पर इनमें से हर प्रश्न का सटीक, परिस्थितजन्य, तर्क आधारित उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।। यह उपन्यासकार रश्मिजी का अद्भुत कौशल है कि वे बिना लिखे भी वह सब लिख सकी हैं, जो पाठक पढ़ना चाहता है।

‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास एक दैवीय अनुभव, सृष्टि से पहले  सृष्टि के बाद, रूप और नियम, पृथ्वी पर अवतरण, मिलन, बचपन, गोवर्धन, संबंध, स्पर्श, महारास, विवाह, घर-आँगन, मान, मथुरागमन, विरह, प्रयोजन, उद्धव प्रकरण, मेरा जीवन, मार्गदर्शन, भ्रमण, विलयन, संदेह प्रश्न, तथा सार संग्रह शीर्षक 24 अध्यायों में विभक्त है। हर शीर्षक कथाक्रम की प्रतीति कराता है। सामान्यतः, रचनाकार अपनी रचना का श्रेय खुद लेता है, किंतु रश्मि आभार के क्षण के आरंभ में ही “इस पुस्तक के लिए दैविकता के प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूँ वो कम ही होगा। इस पुस्तक में जितनी भी कल्पनाएँ हैं, सत्य हैं, जो कुछ भी है उसका सारा श्रेय दैविकता को देती हूँ।” लिखकर “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा?” की भंगिमा के साथ कृति को कृष्णार्पित कर देतीं हैं। विवेच्य कृति में पूर्व रश्मिजी काव्य संग्रह ‘बारिश की दीवारें’ तथा ‘दरख्त का दर्पण’, कहानी संग्रह, ‘यह शहर की धूप है’ तथा विज्ञानाधारित उपन्यास ‘मुरली एक रहस्यकथा’ का प्रणयन कर चुकी हैं। व्यावसायिक तकनीकी क्षेत्र में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवादों में 24 शोधालेख प्रस्तुत कर रश्मि बहुश्रुत और बहुचर्चित हुई हैं।

‘मैं प्रेम हूँ’, न तो शत-प्रतिशत प्रामाणिक दस्तावेज है, न ही कपोल-कल्पना। यह लोक मान्यताओं, पौराणिक साहित्य, लोक परम्पराओं, वैयक्तिक चिंतन तथा प्रचलित धारणाओं का तर्कसंगत सुव्यवस्थित सिलसिलेवार विश्लेषण करता कथाक्रम है। मैं प्रेम हूँ की कथावस्तु सृष्टि रचना पूर्व दैवीय तत्वों के विमर्श, राधारानी के अष्ट रूपों का प्राकट्य, महारास, राधा का प्राकट्य, दाम्पत्य आदि लेखिका  की मनःसृष्टि की उपज है। मौलिक चिंतन तथा तर्क सम्मतता के ताने-बाने से बुना गया कथानक यथावश्यक पौराणिक साहित्य से समरसता स्थापित कर अपनी तथ्यपरकता की प्रतीति कराता है। इस तकनीक ने मौलिक चिंतन को दिशाभ्रम से बचाकर लोक-मान्यताओं से संश्लिष्ट रखा है। यह कथानक लोकश्रुत, लोकमान्य, रुचिकर तथा पाठक को चिन्तन परक कल्पनाकाश में उड़ान भरने का अवसर देने में समर्थ है। 

उपन्यास की नायिका राधा का चरित्र-चित्रण महिमामय होना स्वाभाविक है। ‘मैं प्रेम हूँ’ का कृष्ण भी राधा के समतुल्य महिमामय है। उपन्यासांत में राधा कृष्णावलंबित होकर अपेक्षाकृत कम उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। सम्भवतः इसका कारण राधा का मूर्तिमंत प्रेम होना है। प्रेम में आत्मोत्सर्ग प्रेमी के प्रति समर्पण और प्रेमी में विलय के त्रिचरणीय सोपानों पर राधा के चरित्र का विकास किया गया है। कृष्ण पर गद्य और पद्य में असंख्य लघु-दीर्घ रचनाएँ सहज उपलब्ध हैं, किंतु राधा पर लेखन मुख्यतः राधाभक्तिधारा तक सीमित रह गया है। रश्मि ने राधा पर स्वतंत्र औपन्यासिक कृति की रचना कर साहस का परिचय दिया है, जोखिम उठाया है। राधा थी या नहीं? यह युधिष्ठिर के यक्ष प्रश्न की तरह चिरकाल तक पूछा-बूझा जाता रहेगा। ‘एक दैवीय अनुभव’ के अंतर्गत स्वयं रश्मि भी इस तथ्य का उल्लेख करती हैं। राधा पर लिखित अपनी कविता में वे ‘राधा कौन थी?’ इस प्रश्न के विविध पहलुओं और विकल्पों से दो-चार होती हैं किन्तु कोई मान्यता पाठक पर थोपती नहीं, उसे चिंतन करने का अवकाश देती हैं।  अंतत:, वे राधा की ही शरण गहतीं हैं  और तब राधा अनुकंपा कर उनके मानस के प्रश्नों के उत्तर ही नहीं देतीं, अपनी समूची कथा में प्रवेश कराकर उन्हें कृतकृत्य करती हैं।

‘सृष्टि से पहले’ के घटनाक्रम की बृहद् आरण्यक उपनिषद् में वर्णित कथा से साम्यता है। पुरुष (ब्रह्म) से उत्पन्न राधा (प्रेम) से सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन अद्भुत है। प्रेम का उद्भव पुरुष के हृदय में होना, प्रेम का पृथक् प्रकट होना, प्रेम के मन में प्रश्न और पुरुष द्वारा उत्तर पठनीय है पुरुष और प्रेम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन रोचक बन पड़ा है। तुम प्रेम हो, तुम्हारी उत्पत्ति मेरे हृदय से हुई है। मैं इस अनंतनिद्रा अवस्था में था। मैंने तुमको अपने भीतर अनुभव किया, मुझमें स्पंदन हुआ मैं भी तुमसे ही जागृत हुआ।

“...जैसे तुम मेरे अंदर थी,  मैं तुम्हारे अंदर हूँ। तुम्हारे बिना मैं भी कुछ नहीं है।... तुम्हारी  प्रेम-ऊर्जा से संसार की रचना होगी। जैसे तुम मेरे हदय के केंद्र में स्थित थीं, अब यह सारा अनगिनत ब्रह्माण्ड अनंत तक होगा और तुम उसका केंद्र होओगी। तुम्हारे बिना सृष्टि असंभव है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ है।” इस प्रसंग में पुरुष से प्रेम की उत्पत्ति वर्णित है तथा प्रेम से सृष्टि के जन्म का संकेत है। प्रेम कहता है- ''पुरुष मुझे अपनी तरफ खींच रहा था, जैसे मैं फिर से उसमें समा जाऊँगी। पुरुष ने प्रकृति को इशारा किया। प्रकृति ने तुरंत मेरे पैरों में नूपुर बाँध दिए और पुरुष के हाथ में बाँसुरी दे दी। मेरे कदम बढ़े और नूपुरों की ध्वनि निकली, साथ ही बन रही सृष्टि में गूँजा एक मधुर संगीत बाँसुरी का संगीत। पुरुष एक के बाद एक धुनें बजा रहा था, मेरे कदम जो उसमें समाने के लिए निकले थे, वे धीरे धीरे नृत्य करने लगे। पुरुष भी झूम रहा था औऱ हम दोनों के कदमों की आवाज से, नृत्य और संगीत से हुए कंपन से सृष्टि में निर्माण हुआ अनंत ब्रह्माण्ड, अनेक सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, देव, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस, असुर और अनेकानेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई।'' यहाँ प्रकृति कौन है, कहाँ से आई, प्रकृति पुरुष से उत्पन्न हुई या पुरुष प्रकृति से, जैसे प्रश्न उठते हैं किंतु अनुत्तरित हैं।

पुरुष के चरणों से ‘काल’ का जन्म जहाँ ‘काल’ वहाँ ‘मोह’ से परे, सृष्टि निवासियों द्वारा सीमोल्लंघन, महाविष्णु, महादेव, पुरुष, प्रेम का सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु गोलोक में अवतरण... यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि महाविष्णु व महादेव पुरुष से उत्पन्न हुए या उऩकी स्वतंत्र सत्ता है? जिस तरह ‘पुरुष’ से ‘प्रेम’ उत्पन्न हुआ क्या वैसे ही महाविष्णु व महादेव से भी किसी तत्त्व की उत्पत्ति हुई? गोलोक के नीचे वैकुण्ठ और शिवलोक का संकेत है किंतु भूलोक या अन्य लोकों का नहीं। कालांतर में सिद्धों, मुनियों, देवों के आग्रह पर पुरुष और प्रेम, नर-नारी का रूप लेकर गोलोक में दृष्टिगोचर हुए, जिन्हें पृथ्वीलोक के प्रबुद्ध जनों ने ‘कृष्ण’ और ‘राधा’ नाम दिया। गोलोक में राधा-कृष्ण एक-दूसरे के आराध्य हैं।

‘सृष्टि के बाद’ अध्याय में असुरों का अनाचार, कृष्णभक्त श्रीदामा द्वारा प्रेम (राधा) की अवमानना से फलस्वरूप शंखचूड़ के रूप में जन्म, राधा की कला के अंश से तुलसी का जन्म, राधा के अंश से विरजा का जन्म, राधा-कृष्ण से गंगा की उत्पत्ति, कृष्ण-राधा का अवतरण आदि प्रसंगों का संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण से संकलित है। ‘रूप’ और ‘निगम’ शीर्षक अध्याय में शिव तथा विष्णु के आग्रह पर कृष्ण का विष्णु व राधा का लक्ष्मीरूप धारण करना, कश्यप, अदिति तथा द्रोण व धरा द्वारा तप, हरि का संग चाहनेवालों के जन्मादि का प्रसंग है। ‘पृथ्वी पर अवतरण’ नामक अध्याय में राधा-कृष्ण-योगमाया का धरावतरण, नश्वर  सृष्टि देह बंधनों आदि का संकेत है। ‘मिलन’ अध्याय में राधा के 11 माह बाद कृष्ण का जन्म वर्णित है। शैशव से परस्पर आकर्षण, कृष्ण द्वारा असुरवध, बाल लीलाएँ, बचपन शीर्षक अध्याय में वकासुर, तथा कालिय मर्दन, राधा की मानरक्षा, गोवर्धन अध्याय में राधा के सहयोग से कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण वर्णित है। संबंध अध्याय राधा-कृष्ण-मैत्री से उठते लोकापवादों, दुर्वासा के आगमन, राधा की बालसुलभ जिज्ञासाओं पर केंद्रित है। स्पर्श अध्याय में ग्यारह वर्षीया राधा तथा दस वर्षीय कृष्ण की विविध लीलाएँ हैं, देवी द्वारा नृत्य शिक्षा तथा रास का आध्यात्मिक अर्थ ‘महारास’अध्याय का वर्ण्य विषय है। राधा के अनुसार– “रास एक क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा ऊर्जा एकत्रित की गई थी, पृथ्वी के संतुलन के लिए, युग-युगांतर के लिए.... रास समाधि की वह अवस्था है, जहाँ हममें से कोई भी न शरीर होता था, न मन, न ही कर्मों में लिपटा आत्मन। हम सब सिर्फ ऊर्जा के रूप में थे।” 

इसमें भाग लेनेवाली हर गोपी आध्यात्मिक शिखर पर थी... कृष्ण माया का उपयोग अवश्य करते थे तकि गोपियाँ अगले दिन सब भूल जाएँ... हमारी ऊर्जा का स्पंदन गाँव से निकल कर, पृथ्वी के वातावरण को चीरते हुए त्रिलोक में फैलने लगा... आगे महाभारत होने वाला था, उसमें जितना विध्वंस होता उसी को कमतर करने के लिए महारास की जरूरत थी अगर कोई मानव चाहे तो अपने अंदर इस महारास को देख सकता है।। उन 144 ऊर्जा-केंद्नों को समझ सकता है, सर्वशक्तिमान परब्रह्म का अनुभव कर सकता है परमानंद पा सकता है, परब्रह्म में विलीन हो सकता है।...”

बढ़ते लोकापवादों को समाप्त करने के लिए राधा-अमन विवाह, राधा की कृष्णमयता, ससुर नंद का रोष, घर-आँगन तथा महल अध्यायों में  है। मथुरा गमन तथा विरह शीर्षक ही अध्यायों के कथ्य का संकेत देते हैं। प्रयोजन अध्याय में लेखिका कृष्ण के माध्यम से महारास पर और प्रकाश डालती है। रास में गोपेश्वर शिव के सम्मिलित होने पर राधा के प्रश्नों के उत्तर में कृष्ण कहते हैं- “वो सृजन और संहार की युगलबंदी हैं जिसे पाना आसान नहीं है... ऊर्जा संतुलन के लिए महारास का प्रयोजन (आयोजन) अनिवार्य था। महाभारत के लिए आसुरी शक्तियाँ थीं और महारास के लिए सात्त्विक प्रेम शक्तियाँ। ” इन प्रसंगों में राधा-कृष्ण की अभिन्नता, और एक दूसरे के बिना अपूर्णता जगह-जगह द्रष्टव्य है।

ब्रह्मज्ञान के गर्व से भरे उद्धव और प्रेमभक्ति में निमग्न गोपियों का संवाद उद्धव प्रकरण अध्याय में है। कृष्ण के जीवन की उथल-पुथल तथा आठ विवाहों का संकेत कर राधा कहती हैं- “उन आठों का उनके भौतिक जीवन पर अधिकार था और मेरे जीवन की हर साँस पर कृष्ण का नाम था, कृष्ण का अधिकार था।” लोक की दृष्टि में अमन की पत्नी  की सांस पर कृष्ण का अधिकार कैसे मान्य होता?

स्वप्न साक्षात्कार में पधारे कृष्ण ने राधा को व्यावहारिक-आध्यात्मिक दीक्षा देकर मार्गदर्शन भी किया। राधा और अमन को हर (श्यामवर्णी) और हरि (गौरवर्णी) पुत्रों की प्राप्ति हुई। नंद बाबा द्वारा राधा से प्रेम और भक्ति का ज्ञान पाना, राधा के सास-ससुर तथा पति तथा दोनों पुत्रों का महाप्रस्थान,  राधा द्वारा उद्धव व सखियों को ज्ञान देना, दोनों पटरानियों का रास से साक्षात्का,र राधा का चिर कैशोर्य तथा कांति देख विस्मित होना, ईर्ष्यावश गर्म दूध पिलाना, कृष्ण के पाँवों में छाले होना, कृष्ण द्वारा रोग के निवारणार्थ रानियों से उनकी चरणरज शीश पर लगाने का अनुरोध, रानियों का भय-संकोच और समाचार मिलते ही राधा द्वारा अपना पग कृष्ण के शीश पर रखकर उन्हें निरोग करने का प्रसंग राधा-कृष्ण की अभिन्नता और ऐक्य इंगित करते हैं। ‘विलयन’ के अध्याय में रुक्मिणी द्वारा आमंत्रण, राधा और गोपियों का द्वारका-गमन, वापिसी के समय कृष्ण विरह से व्याकुल गोपियों के अश्रुपात से भरे सरोवर में 26 गोपियों का देहपात, कृष्ण द्वारा  राधा को रोकना, राधा द्वारा वृद्धा का रूप धारणकर रसोई बनाना, दुर्वासा को आभास, राधा द्वारा बनाई खीर का सेवनकर जूठी खीर में तपोबल मिलाकर कृष्ण के तन पर मलने हेतु कहना, कृष्ण द्वारा ऋषि-प्रसाद पाँवों पर न लगाना, दुर्वासा का चिंतित होकर पैरों का विशेष ध्यान रखने का संकेत करना, सांब द्वारा दुर्वासा का उपहास, दुर्वासा द्वारा शाप, कृष्ण का राधा के रंग में रंगकर पांडुरंग होना, व्याध जरा द्वारा कृष्ण वध तथा द्वारका का समुद्र में विलय होने के साथ उपन्यास का पटाक्षेप होता है।

परिशिष्टवत् संदेह-प्रश्न के अंतर्गत कुछ प्रश्नोत्तर हैं, जिनके अंत में राधाजी लेखिका को बतलातीं हैं कि वे लेखिका (हर भक्त) के अभ्यंतर में प्रेम रूप में हैं, अपने भीतर डूबकर उन्हें पाया जा सकता है। ‘सार-संग्रह’  में लेखिका की आत्मानुभूति है, उसका वैज्ञानिक मन, आध्यात्मिक अनुभूतियों से समायोजन स्थापित कर जो पाता है, वही राधा-कृष्ण का प्रसाद मानकर पाठकों में बाँट देता है। तदनुसार जीवन प्रेम है, प्रेम से उत्पन्न, प्रेम में लीन, प्रेम में विलीन... और बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ... अतः, गुरु के प्रति आभार।

‘मैं प्रेम हूँ’ में मुख्य तथा गौण पात्रों का चरित्र-चित्रण स्थूल रूप से कम, उऩकी मनोवृत्ति के संकेत के रूप में अधिक है। इस तकनीक से लेखिका ने अनावश्यक विस्तार से बचकर कथा को गति तथा दिशा देने में सफलता पाई है। इसी तरह कथोपकथन में पारस्परिक प्रश्नोत्तरी संवाद न्यून तथा वर्णनात्मक अभिकथन अधिक है। यह शिल्प हर संवाद के माध्यम से वह उद्घाटित करता है जिससे कथा तथा घटनाक्रम आगे बढ़ते रहे। घटनाओं को क्रमानुसार न रखकर, कथाक्रम की उपादेयता के अनुसार रखा गया है। इस तरह लेखिका अपनी विचार सरणि में पात्रों को भटकाव के भँवर से बचाकर सुरक्षित पार लगा सकी है।

उपन्यास की भाषा शैली विषय की गूढ़ता, आध्यात्मिक प्रसंगों में अभिव्यक्ति की जटिलता शब्दों की सीमित सामर्थ्य तथा पाठक की ग्रहण क्षमता के परिप्रेक्ष्य में सरल, सुबोध, सटीक तथा सहज है। उपन्यास का देश-काल अति विस्तृत है। राधा-कृष्ण के अवतरण से पूर्व प्रसंग पाठक के मन में पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। उन्हें राधा की आत्मानुभूति के रूप में कथाक्रम में पिरोया जा सकता था। पूरे उपन्यास में राधा की भूमिका द्वितीयक तथा कृष्ण की प्राथमिक है, बावजूद इसके कि स्वयं कृष्ण स्वीकारते हैं कि राधा-रहित कृष्ण नहीं हो सकते। 'मैं प्रेम हूँ' नायिका प्रधान उपन्यास है किन्तु नायिका हर प्रसंग में नायक पर आश्रित है, नायक उसमें संबल खोजता है पर बल पाता नहीं, देता हुआ मिलता है। उपन्यास का उद्देश्य राधा-कृष्ण का एकत्व प्रतिपादित करना है, और वह भली प्रकार से प्रतिपादित हुआ भी है। लेखिका अपनी विज्ञान के प्रति वैचारिक पृष्ठभूमि में अध्यात्मजनित कथांकुरों को पल्लवित-पुष्पित करने में पूरी तरह सफल है।

डा. अवधेश प्रसाद सिंह ठीक ही लिखते हैं कि “वर्णित सारी घटनाएँ ऐसी हैं जैसे किसी ने सब कुछ अपनी आँखों देखा है।”  श्रीपाद कश्यप के मत में – “पुराणों का ज्ञान, तथ्यों का ताना-बाना, रचनात्मकता, भावनाओं और दृश्यों की क्रमबद्ध बेहतरीन प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय बनाता है।”

'मैं प्रेम हूँ' में प्रेम भाव की सघनता इतनी अधिक है कि कृष्ण भारद्वाज के शब्दों में  “ पहली बार ऐसा लगा कि मैं राधाजी बन जाऊँ। पूर्ण प्रेम बन जाऊँ।” शिवी शर्मा इस कृति को “आधुनिक ग्रंथ के समान तथा दैविक प्रेरणा के वशीभूत लिखी गई” पाते हैं। डा. अश्विनी इंदुलकर इस किताब को पढ़ते समय खुद को कृष्ण भगवान् के युग में अनुभव करत हैं। “जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...”

मुझे एक पाठक के नाते 'मैं प्रेम हूँ' का प्रथमतः वाचन करते समय भावलोक में विचरण कर धन्यता की प्रतीति हुई। 'मैं प्रेम हूँ' का द्वितीय वाचन अपने अंतर्मन के सामान्यतः अज्ञात रहे पक्ष को उद्घाटित करता लगा और यह विवेचन लिखते समय उपन्यास को उलटते-पलटते हुए राधा-कृष्ण की विविध छवियों की साक्षात् प्रति हुई।

राधा-कृष्ण ही नहीं, अन्य पौराणिक पात्रों, घटनाओं आदि पर क औपन्यासिक कृतियाँ तथा प्रबंध काव्यों को पढ़ने का सौभाग्य मिला है। प्रायः रचनाकारों के पांडित्य प्रदर्शन से उन्हें सराबोर पाया है। कई कृतियों में पात्रों के संवादों, गतिविधियों आदि से रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता झलकती है तब ऐसा प्रतीत होता कि किसी कठपुतली को दूसरी कठपुतली की वेश-भूषा पहना दी गयी है।

रश्मि का कौशल यह है कि वह उपन्यास की हर पंक्ति, हर शब्द में होकर भी कहीं नहीं है। भोजन की थाली में हर व्यंजन में पानी होता है पर ऊपरी दृष्टि से कहीं नहीं दिखता। रश्मि के अभियंता के रूप में कथ्यानुशासन, वैज्ञानिक तथ्यों का नवान्वेषण, भक्त की भावपरकता, लेखिका का अभिव्यक्ति सामर्थ्य तथा 'स्व' को 'सर्व' में ढाल सकने के मातृत्व भाव के पंच तत्त्व इस उपन्यास की रचना करते हुए, सृजन में लीन सृष्टि में विलीन होकर पाठक मन में पुन: पुनः अवतरित होते हैं। यह लेखिका की सृजन साधना की सफलता है।

अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के इस त्रिवेणी संगम में हर चैतन्य पाठक को अवगाहन करना चाहिए। पौराणिक औपनिषदिक कथ्यों को विज्ञान सम्मत तथ्यपरकता के साथ संगुंफित कर सत्साहित्य सृजन का सारस्वत अनुष्ठान सतत चलता रहे तो हिंदी साहित्य समृद्ध होगा तथा युवा पाठकों का अपनी उदात्त विरासत की प्रामाणिकता से भी परिचय होगा।

डा. रश्मि कौशल एक लगभग अछूते विषय पर 'मैं प्रेम हूँ' उपन्यास के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य की छाप छोड़ सकी हैं। कथ्य का संक्षेपीकरण-सरलीकरण, नीर-क्षीर-विश्लेषण, घटनाओं की तारतम्यता, पौराणिक प्रसंगों का यथार्थपरक वर्णन तथा सुगठित कथाक्रम कृति की पठनीयता में वृद्धि करता है। जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु प्रणीत राधा भाव भक्ति धारा आंदोलन ने संक्रमण काल में जनगण के मन को शांत-सुदृढ़ करने में महती भूमिका निभाई है। राधाभाव भक्ति का विज्ञान-सम्मत विश्लेषण, राधाभाव धारा को नव आयाम देकर तर्कणा प्रधान नव पीढ़ी को जोड़ने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इस सोद्देश्य सृजन हेतु डा. रश्मि कौशल साधुवाद की पात्र हैं।

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समीक्षक संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर 482001, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com

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कृति चर्चा

‘मैं प्रेम हूँ’ राधाभाव रश्मि का अनूठा कौशल

[कृति विवरण- ‘मैं प्रेम हूँ’, उपन्यास, डा. रश्मि कौशल, ISBN- 978-81-9439048-0, प्रथम संस्करण 2020, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृ.सं. 184, मूल्य, 275 रुपये, शिल्पायन बुक्स, शाहदरा, दिल्ली, कृतिकार संपर्क : 9711282391]


‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास एक दैवीय अनुभव, सृष्टि से पहले  सृष्टि के बाद, रूप और नियम, पृथ्वी पर अवतरण, मिलन, बचपन, गोवर्धन, संबंध, स्पर्श, महारास, विवाह, घर-आँगन, मान, मथुरागमन, विरह, प्रयोजन, उद्धव प्रकरण, मेरा जीवन, मार्गदर्शन, भ्रमण, विलयन, संदेह प्रश्न, तथा सार संग्रह शीर्षक 24 अध्यायों में विभक्त है। हर शीर्षक कथाक्रम की प्रतीति कराता है। सामान्यतः, रचनाकार अपनी रचना का श्रेय खुद लेता है, किंतु रश्मि आभार के क्षण के आरंभ में ही “इस पुस्तक के लिए दैविकता के प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूँ वो कम ही होगा। इस पुस्तक में जितनी भी कल्पनाएँ हैं, सत्य हैं, जो कुछ भी है उसका सारा श्रेय दैविकता को देती हूँ।” लिखकर “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा?” की भंगिमा के साथ कृति को कृष्णार्पित कर देतीं हैं। विवेच्य कृति में पूर्व रश्मिजी काव्य संग्रह ‘बारिश की दीवारें’ तथा ‘दरख्त का दर्पण’, कहानी संग्रह, ‘यह शहर की धूप है’ तथा विज्ञानाधारित उपन्यास ‘मुरली एक रहस्यकथा’ का प्रणयन कर चुकी हैं। व्यावसायिक तकनीकी क्षेत्र में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवादों में 24 शोधालेख प्रस्तुत कर रश्मि बहुश्रुत और बहुचर्चित हुई हैं।

यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास कृष्णकाल की बहुचर्चित, अतिलोकप्रिय, विवादास्पद (थी या नहीं थी), अगणित भक्तों की आराध्या सोलह कला से सम्पन्न विष्णु के अवतार  श्रीकृष्ण की प्रेयसी, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही राधा रानी पर केन्द्रित है। 'राधा हरती भव बाधा' लोक मानस में राधा की छवि तमाम लोक परंपराओं, रीति रिवाजों, मूल्यों आदि के विपरीत आचरण करने पर भी कल्याणकारी जगदम्बिका की है, जो ईश्वर की आल्हादिनी शक्ति है। जिसके साथ विवाह न हुआ, उसके साथ लुक-छिपकर, लड़-झगड़कर रास रचाने, श्रृंगार कराने तथा जिसके साथ विवाह हुआ उससे प्रायः दूरी पालने के बाद भी राधा लोकमानस में मंगलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। राधा थी या नहीं थी, राधा का आचरण अनुकरणीय था या नहीं, राधा-कृष्ण का प्रेम आत्मिक था या दैविक, राधाकृष्ण का विवाह हुआ या नहीं, कृष्ण एक से एक रूपवती, गुणवती पत्नियों के रहते राधा को विस्मृत नहीं कर सके, राधा, कृष्ण द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद भी कृष्ण के प्रति समर्पित क्यों रही? दोनों का साहचर्य केवल निर्दोष बालक्रीड़ा थी या कैशोर्य, तारुण्य और यौवन की बेला में परिपुष्ट हुआ नाता, वार्धक्य में दोनों मिले या नहीं? कृष्ण की पटरानियों और राधा का अंतर्संबंध आदि अनेक प्रश्न लोक मानस में उठते और चर्चा का विषय बनते रहते हैं। इस कृति की रचना इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए नहीं की गई, पर विचित्र किंतु सत्य है कि इस कृति का आद्योपांत वाचन करने पर इनमें से हर प्रश्न का सटीक, परिस्थितजन्य, तर्क आधारित उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।। यह उपन्यासकार रश्मिजी का अद्भुत कौशल है कि वे बिना लिखे भी वह सब लिख सकी हैं, जो पाठक पढ़ना चाहता है।

‘मैं प्रेम हूँ’, न तो शत-प्रतिशत प्रामाणिक दस्तावेज है, न ही कपोल-कल्पना। यह लोक मान्यताओं, पौराणिक साहित्य, लोक परम्पराओं, वैयक्तिक चिंतन तथा प्रचलित धारणाओं का तर्कसंगत सुव्यवस्थित सिलसिलेवार विश्लेषण करता कथाक्रम है। मैं प्रेम हूँ की कथावस्तु सृष्टि रचना पूर्व दैवीय तत्वों के विमर्श, राधारानी के अष्ट रूपों का प्राकट्य, महारास, राधा का प्राकट्य, दाम्पत्य आदि लेखिका  की मनःसृष्टि की उपज है। मौलिक चिंतन तथा तर्क सम्मतता के ताने-बाने से बुना गया कथानक यथावश्यक पौराणिक साहित्य से समरसता स्थापित कर अपनी तथ्यपरकता की प्रतीति कराता है। इस तकनीक ने मौलिक चिंतन को दिशाभ्रम से बचाकर लोक-मान्यताओं से संश्लिष्ट रखा है। यह कथानक लोकश्रुत, लोकमान्य, रुचिकर तथा पाठक को चिन्तन परक कल्पनाकाश में उड़ान भरने का अवसर देने में समर्थ है। 

‘सृष्टि से पहले’ के घटनाक्रम की बृहद् आरण्यक उपनिषद् में वर्णित कथा से साम्यता है। पुरुष (ब्रह्म) से उत्पन्न राधा (प्रेम) से सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन अद्भुत है। प्रेम का उद्भव पुरुष के हृदय में होना, प्रेम का पृथक् प्रकट होना, प्रेम के मन में प्रश्न और पुरुष द्वारा उत्तर पठनीय है पुरुष और प्रेम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन रोचक बन पड़ा है। तुम प्रेम हो, तुम्हारी उत्पत्ति मेरे हृदय से हुई है। मैं इस अनंतनिद्रा अवस्था में था। मैंने तुमको अपने भीतर अनुभव किया, मुझमें स्पंदन हुआ मैं भी तुमसे ही जागृत हुआ।

“...जैसे तुम मेरे अंदर थी,  मैं तुम्हारे अंदर हूँ। तुम्हारे बिना मैं भी कुछ नहीं है।... तुम्हारी  प्रेम-ऊर्जा से संसार की रचना होगी। जैसे तुम मेरे हदय के केंद्र में स्थित थीं, अब यह सारा अनगिनत ब्रह्माण्ड अनंत तक होगा और तुम उसका केंद्र होगी। तुम्हारे बिना सृष्टि असंभव है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ है।” इस प्रसंग में पुरुष से प्रेम की उत्पत्ति वर्णित है तथा प्रेम से सृष्टि के जन्म का संकेत है। प्रेम कहता है- ''पुरुष मुझे अपनी तरफ खींच रहा था, जैसे मैं फिर से उसमें समा जाऊँगी। पुरुष ने प्रकृति को इशारा किया। प्रकृति ने तुरंत मेरे पैरों में नूपुर बाँध दिए और पुरुष के हाथ में बाँसुरी दे दी। मेरे कदम बढ़े और नूपुरों की ध्वनि निकली, साथ ही बन रही सृष्टि में गूँजा एक मधुर संगीत बाँसुरी का संगीत। पुरुष एक के बाद एक धुनें बजा रहा था, मेरे कदम जो उसमें समाने के लिए निकले थे, वे धीरे धीरे नृत्य करने लगे। पुरुष भी झूम रहा था औऱ हम दोनों के कदमों की आवाज से, नृत्य और संगीत से हुए कंपन से सृष्टि में निर्माण हुआ अनंत ब्रह्माण्ड, अनेक सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, देव, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस, असुर और अनेकानेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई।'' यहाँ प्रकृति कौन है, कहाँ से आई, प्रकृति पुरुष से उत्पन्न हुई या पुरुष प्रकृति से, जैसे प्रश्न उठते हैं किंतु अनुत्तरित हैं।

पुरुष के चरणों से ‘काल’ का जन्म जहाँ ‘काल’ वहाँ ‘मोह’ से परे, सृष्टि निवासियों द्वारा सीमोल्लंघन, महाविष्णु, महादेव, पुरुष, प्रेम का सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु गोलोक में अवतरण... यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि महाविष्णु व महादेव पुरुष से उत्पन्न हुए या उऩकी स्वतंत्र सत्ता है? जिस तरह ‘पुरुष’ से ‘प्रेम’ उत्पन्न हुआ क्या वैसे ही महाविष्णु व महादेव से भी किसी तत्त्व की उत्पत्ति हुई? गोलोक के नीचे वैकुण्ठ और शिवलोक का संकेत है किंतु भूलोक या अन्य लोकों का नहीं। कालांतर में सिद्धों, मुनियों, देवों के आग्रह पर पुरुष और प्रेम, नर-नारी का रूप लेकर गोलोक में दृष्टिगोचर हुए, जिन्हें पृथ्वीलोक के प्रबुद्ध जनों ने ‘कृष्ण’ और ‘राधा’ नाम दिया। गोलोक में राधा-कृष्ण एक-दूसरे के आराध्य हैं।

‘सृष्टि के बाद’ अध्याय में असुरों का अनाचार, कृष्णभक्त श्रीदामा द्वारा प्रेम (राधा) की अवमानना से फलस्वरूप शंखचूड़ के रूप में जन्म, राधा की कला के अंश से तुलसी का जन्म, राधा के अंश से विरजा का जन्म, राधा-कृष्ण से गंगा की उत्पत्ति, कृष्ण-राधा का अवतरण आदि प्रसंगों का संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण से संकलित है। ‘रूप’ और ‘निगम’ शीर्षक अध्याय में शिव तथा विष्णु के आग्रह पर कृष्ण का विष्णु व राधा का लक्ष्मीरूप धारण करना, कश्यप, अदिति तथा द्रोण व धरा द्वारा तप, हरि का संग चाहनेवालों के जन्मादि का प्रसंग है। ‘पृथ्वी पर अवतरण’ नामक अध्याय में राधा-कृष्ण-योगमाया का धरावतरण, नश्वर  सृष्टि देह बंधनों आदि का संकेत है। ‘मिलन’ अध्याय में राधा के 11 माह बाद कृष्ण का जन्म वर्णित है। शैशव से परस्पर आकर्षण, कृष्ण द्वारा असुरवध, बाल लीलाएँ, बचपन शीर्षक अध्याय में वकासुर, तथा कालिय मर्दन, राधा की मानरक्षा, गोवर्धन अध्याय में राधा के सहयोग से कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण वर्णित है। संबंध अध्याय राधा-कृष्ण-मैत्री से उठते लोकापवादों, दुर्वासा के आगमन, राधा की बालसुलभ जिज्ञासाओं पर केंद्रित है। स्पर्श अध्याय में ग्यारह वर्षीया राधा तथा दस वर्षीय कृष्ण की विविध लीलाएँ हैं, देवी द्वारा नृत्य शिक्षा तथा रास का आध्यात्मिक अर्थ ‘महारास’अध्याय का वर्ण्य विषय है। राधा के अनुसार– “रास एक क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा ऊर्जा एकत्रित की गई थी, पृथ्वी के संतुलन के लिए, युग-युगांतर के लिए.... रास समाधि की वह अवस्था है, जहाँ हममें से कोई भी न शरीर होता था, न मन, न ही कर्मों में लिपटा आत्मन। हम सब सिर्फ ऊर्जा के रूप में थे।” 

ब्रह्मज्ञान के गर्व से भरे उद्धव और प्रेमभक्ति में निमग्न गोपियों का संवाद उद्धव प्रकरण अध्याय में है। कृष्ण के जीवन की उथल-पुथल तथा आठ विवाहों का संकेत कर राधा कहती हैं- “उन आठों का उनके भौतिक जीवन पर अधिकार था और मेरे जीवन की हर साँस पर कृष्ण का नाम था, कृष्ण का अधिकार था।” लोक की दृष्टि में अमन की पत्नी  की सांस पर कृष्ण का अधिकार कैसे मान्य होता?

परिशिष्टवत् संदेह-प्रश्न के अंतर्गत कुछ प्रश्नोत्तर हैं, जिनके अंत में राधाजी लेखिका को बतलातीं हैं कि वे लेखिका (हर भक्त) के अभ्यंतर में प्रेम रूप में हैं, अपने भीतर डूबकर उन्हें पाया जा सकता है। ‘सार-संग्रह’  में लेखिका की आत्मानुभूति है, उसका वैज्ञानिक मन, आध्यात्मिक अनुभूतियों से समायोजन स्थापित कर जो पाता है, वही राधा-कृष्ण का प्रसाद मानकर पाठकों में बाँट देता है। तदनुसार जीवन प्रेम है, प्रेम से उत्पन्न, प्रेम में लीन, प्रेम में विलीन... और बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ... अतः, गुरु के प्रति आभार।

‘मैं प्रेम हूँ’ में मुख्य तथा गौण पात्रों का चरित्र-चित्रण स्थूल रूप से कम, उऩकी मनोवृत्ति के संकेत के रूप में अधिक है। इस तकनीक से लेखिका ने अनावश्यक विस्तार से बचकर कथा को गति तथा दिशा देने में सफलता पाई है। इसी तरह कथोपकथन में पारस्परिक प्रश्नोत्तरी संवाद न्यून तथा वर्णनात्मक अभिकथन अधिक है। यह शिल्प हर संवाद के माध्यम से वह उद्घाटित करता है जिससे कथा तथा घटनाक्रम आगे बढ़ते रहे। घटनाओं को क्रमानुसार न रखकर, कथाक्रम की उपादेयता के अनुसार रखा गया है। इस तरह लेखिका अपनी विचार सरणि में पात्रों को भटकाव के भँवर से बचाकर सुरक्षित पार लगा सकी है।

डा. रश्मि कौशल एक लगभग अछूते विषय पर 'मैं प्रेम हूँ' उपन्यास के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य की छाप छोड़ सकी हैं। कथ्य का संक्षेपीकरण-सरलीकरण, नीर-क्षीर-विश्लेषण, घटनाओं की तारतम्यता, पौराणिक प्रसंगों का यथार्थपरक वर्णन तथा सुगठित कथाक्रम कृति की पठनीयता में वृद्धि करता है। जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु प्रणीत राधा भाव भक्ति धारा आंदोलन ने संक्रमण काल में जनगण के मन को शांत-सुदृढ़ करने में महती भूमिका निभाई है। राधाभाव भक्ति का विज्ञान-सम्मत विश्लेषण, राधाभाव धारा को नव आयाम देकर तर्कणा प्रधान नव पीढ़ी को जोड़ने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इस सोद्देश्य सृजन हेतु डा. रश्मि कौशल साधुवाद की पात्र हैं।

***


मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

दोहा, बात, दोहा मुक्तिका, नवगीत, वास्तु, हरिगीतिका



॥प्रभु से जुड़ना ॥   

भगवान के सम्मुख कैसे जा सकते हैं? भगवान विभीषण जी से कहते हैं -

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँधि बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें ।लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

अर्थात् - माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सबके ममत्वरूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है अर्थात् सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है ! ऐसे सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसते है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है । तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं । 
श्रीराम कहते हैं इन दस बातों को मुझसे जोड़ दो । भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुड़ने की |

इस प्रकार जीव भगवान् के सम्मुख पहुँच सकता है।

*
 *संगत का प्रभाव*

एक राजा का तोता मर गया। उन्होंने कहा-- मंत्रीप्रवर! हमारा पिंजरा सूना हो गया। इसमें पालने के लिए एक तोता लाओ। 

मंत्री एक संत के पास गये और कहा-- भगवन्! राजा साहब एक तोता लाने की जिद कर रहे हैं। आप अपना तोता दे दें तो बड़ी कृपा होगी। संत ने कहा- ठीक है, ले जाओ। 

राजा ने सोने के पिंजरे में बड़े स्नेह से तोते की सुख-सुविधा का प्रबन्ध किया।

ब्रह्ममुहूर्त में तोता बोलने लगा--  जय श्री राम ,,,   ओम् तत्सत्....ओम् तत्सत् ... उठो राजा! उठो महारानी! दुर्लभ मानव-तन मिला है। यह सोने के लिए नहीं, भजन करने के लिए मिला है।

'चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर।।'

कभी रामायण की चौपाई तो कभी गीता के श्लोक उसके मुँह से निकलते। पूरा राजपरिवार बड़े सवेरे उठकर उसकी बातें सुना करता था। राजा कहते थे कि सुग्गा क्या मिला, एक संत मिल गये।

हर जीव की एक निश्चित आयु होती है। एक दिन वह सुग्गा मर गया। 

किसी प्रकार राजपरिवार ने शोक संवरण किया और राजकाज में लग गये। पुनः राजा साहब ने कहा-- मंत्रीवर ! खाली पिंजरा सूना-सूना लगता है, एक तोते की व्यवस्था हो जाती! 

मंत्री ने इधर-उधर देखा, एक कसाई के यहाँ वैसा ही तोता एक पिंजरे में टँगा था। मंत्री ने कहा कि इसे राजा साहब चाहते हैं।

कसाई ने कहा कि आपके राज्य में ही तो हम रहते हैं। हम नहीं देंगे तब भी आप उठा ही ले जाएँगे। कसाई ने बताया कि किसी बहेलिये ने एक वृक्ष से दो सुग्गे पकड़े थे। एक को उसने महात्माजी को दे दिया था और दूसरा मैंने खरीद लिया था। राजा को चाहिये तो आप ले जाइए। 

अब कसाईवाला तोता राजा के पिंजरे में पहुँच गया। राजपरिवार बहुत प्रसन्न हुआ। सबको लगा कि वही तोता जीवित होकर चला आया है। दोनों की नासिका, पंख, आकार, चितवन सब एक जैसे थे। लेकिन बड़े सवेरे तोता उसी प्रकार राजा को बुलाने लगा जैसे वह कसाई अपने नौकरों को उठाता था कि..उठ ! हरामी के बच्चे! राजा बन बैठा है। मेरे लिए ला अण्डे, नहीं तो पड़ेंगे डण्डे! 

राजा को इतना क्रोध आया कि उसने तोते को पिंजरे से निकाला और गर्दन मरोड़कर किले से बाहर फेंक दिया। 

दोनों सुग्गे, सगे भाई थे। एक की गर्दन मरोड़ दी गयी, तो दूसरे के लिए झण्डे झुक गये, भण्डारा किया गया, शोक मनाया गया।
*
दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..

योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..

आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..

बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..

राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..

अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..

जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?

सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..

सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..

लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..

'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
नवगीत:
कम लिखता हूँ...
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...

***
मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..

गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..

कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में
चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..

ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..

राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.
चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..

वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.
ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..

'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.
शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..

***
***
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः

वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश

वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों
को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई,
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की
दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश
अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की
तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक
दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा
आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा
एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों।
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।

* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों।
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन -
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
हरिगीतिका:
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..

अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..

माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*


***
दोहा सलिला
दोहे बात ही बात में
*
बात करी तो बात से, निकल पड़ी फिर बात
बात कह रही बात से, हो न बात बेबात
*
बात न की तो रूठकर, फेर रही मुँह बात
बात करे सोचे बिना, बेमतलब की बात
*
बात-बात में बढ़ गयी, अनजाने ही बात
किये बात ने वार कुछ, घायल हैं ज़ज्बात
*
बात गले मिल बात से, बन जाती मुस्कान
अधरों से झरता शहद, जैसे हो रस-खान
*
बात कर रही चंद्रिका, चंद्र सुन रहा मौन
बात बीच में की पड़ी, डांट अधिक ज्यों नौन?
*
आँखों-आँखों में हुई, बिना बात ही बात
कौन बताये क्यों हुई, बेमौसम बरसात?
*
बात हँसी जब बात सुन, खूब खिल गए फूल
ए दैया! मैं क्या करूँ?, पूछ रही चुप धूल
*
बात न कहती बात कुछ, रही बात हर टाल
बात न सुनती बात कुछ, कैसे मिटें सवाल
*
बात काट कर बात की, बात न माने बात
बात मान ले बात जब, बढ़े नहीं तब बात
*
दोष न दोषी का कहे, बात मान निज दोष
खर्च-खर्च घटत नहीं, बातों का अधिकोष
*
बात हुई कन्फ्यूज़ तो, कनबहरी कर बात
'आती हूँ' कह जा रही, बात कहे 'क्या बात'
११-१०-२०११
***