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सोमवार, 20 जून 2022

पिता,गीत,शिवलिंग,शालिग्राम,रैदास,पैरोडी,व्यंग्य गीत,छंद पद्मावती/कमलावती, सदोका, व्यंग्य गीत, आभा सक्सेना, नागरिक अधिकार, लघुकथा

सदोका सलिला 
ई​ कविता में
करते काव्य स्नान ​
कवि​-कवयित्रियाँ।
सार्थक​ होता
जन्म निरख कर
दिव्य भाव छवियाँ।१।
ममता मिले
मन-कुसुम खिले,
सदोका-बगिया में।
क्षण में दिखी
छवि सस्मित मिली
कवि की डलिया में।२।
​न​ नौ नगद ​
न​ तेरह उधार,
लोन ले, हो फरार।
मस्तियाँ कर
किसी से मत डर
जिंदगी है बहार।३।
धूप बिखरी
कनकाभित छवि
वसुंधरा निखरी।
पंछी चहके
हुलस, न बहके
सुनयना सँवरी।४।
 ​
श्लोक गुंजित
मन भाव विभोर,
पुजा माखनचोर।
उठा हर्षित
सक्रिय हो नीरव 
क्यों हो रहा शोर?५।
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।६।
गुलाबी हाथ
मृणाल अंगुलियाँ
कमल सा चेहरा।
गुलाब थामे
चम्पा सा बदन
सुंदरी या बगिया?७।
लिए उच्चार
पाँच, सात औ' सात
दो मर्तबा सदोका।
रूप सौंदर्य
क्षणिक, सदा रहे
प्रभाव सद्गुणों का।८।
सूरज बाँका
दीवाना है उषा का
मुट्ठी भर गुलाल
कपोलों पर
लगाया, मुस्कुराया
शोख उषा शर्माई।९।
आवारा मेघ
कर रहा था पीछा
देख अकेला दौड़ा
हाथ न आई
दामिनी ने गिराई
जमकर बिजली।१०।
हवलदार
पवन ने जैसे ही
फटकार लगाई।
बादल हुआ
झट नौ दो ग्यारह
धूप खिलखिलाई।११।
महकी कली
गुनगुनाते गीत
मँडराए भँवरे।
सगे किसके
आशिक हरजाई
बेईमान ठहरे।१२।
घर ना घाट
सन्यासी सा पलाश
ध्यानमग्न, एकाकी।
ध्यान भग्न
करना चाहे संध्या
दिखला अदा बाँकी।१३।
सतत बही
जो जलधार वह
सदा निर्मल रही।
ठहर गया
जो वह मैला हुआ
रहो चलते सदा।१४।
पंकज खिला
करता नहीं गिला
जन्म पंक में मिला।
पुरुषार्थ से
विश्व-वंद्य हुआ
देवों के सिर चढ़ा।१५।
खिलखिलाई 
इठलाई शर्माई 
सद्यस्नाता नवोढ़ा। 
चिलमन भी 
रूप देख बौराया 
दर्पण आहें भरे।१६। 
• 
लहराती है 
नागिन जैसी लट, 
भाल-गाल चूमती। 
बेला की गंध 
मदिर सूँघ-सूँघ 
बेड़नी सी नाचती।१७।
• 
क्षितिज पर 
मेघ घुमड़ आए 
वसुंधरा हर्षाई। 
पवन झूम 
बिजली संग नाचा, 
प्रणय पत्र बाँचा।१८। 
• 
लोकतंत्र में 
नेता करे सो न्याय 
अफसर का राज। 
गौरैयों ने 
राम का राज्य चाहा 
बाजों को चुन लिया।१९। 
• 
घर को लगी 
घर के चिराग से 
दिन दहाड़े आग। 
मंत्री का पूत 
किसानों को कुचले 
और छाती फुलाए। २०।
मेघ गरजे 
रिमझिम बरसे 
आसमान भी तर। 
धरती भीगी 
हवा में हवा हुआ 
दुपट्टा, गाल लाल ।२१। 
• 
निर्मल नीर 
गगन से भू पर 
आकर मैला हुआ। 
ज्यों कलियों का 
दामन भँवरों ने 
छूकर पंकिल किया।२२। 
• 
चुभ रही थी 
गर्मी में तीखी धूप 
जीव-जंतु परेशां। 
धरा झुलसी 
धन्य धरा धीरज  
बारिश आने तक।२३। 
• 
करते पहुनाई 
ढोल बजा दादुर 
पत्ते बजाते ताली। 
सौंधी महक 
माटी ने फैला दी 
झूम उठीं शाखाएँ।२४। 
• 
मेघ ठाकुर 
आसमानी ड्योढी में 
जमाए महफिल। 
दिखाए नृत्य 
कमर लचकाती 
बिजली बलखाती।२५। 
विमर्श
निर्बल नागरिकों के अधिकारों का हनन
लोकतंत्र में निर्बल नागरिकों की जीवन रक्षा का भर जिन पर है वे उसका जीना मुश्किल कर दें और जब कोई असामाजिक तत्व ऐसी स्थिति में उग्र हो जाए तो पूरे देश में हड़ताल कर असंख्य बेगुनाहों को मरने के लिए विवश कर दिया जाए।
शर्म आनी चाहिए कि बिना इलाज मरे मरीजों के कत्ल का मुकदमा आई एम् ए के
पदाधिकारियों पर क्यों नहीं चलाती सरकार?
आम मरीजोंजीवन रक्षा के लिए कोर्ट में जनहित याचिका क्यों नहीं लाई जाती ?
मरीजों के मरने के बाद भी जो अस्पताल इलाज के नाम पर लाखों का बिल बनाते हैं,
और लाश तक रोक लेते हैं उनके खिलाफ क्यों नहीं लाते पिटीशन?
दुर्घटना के बाद घायलों को बिना इलाज भगा देनेवाले डाक्टरों के खिलाफ क्यों नहीं
होती पिटीशन?
राजस्थान में डॉक्टर ने मरीज को अस्पताल में सबके साबके मारा, उसके खिलाफ
आई एम् ए ने क्या किया?
यही बदतमीजी वकील भी कर रहे हैं। एक वकील दूसरे वकील को मारे और पूरे देश में हड़ताल कर दो। न्याय की आस में घर, जमीन बेच चुके मुवक्किदिलाने ल की न्याय की चिंता नहीं है किसी वकील को।
आम आदमी को ब्लैक मेल कर रहे पत्रकारों के साथ पूरा मीडिया जुट जाता है।
कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं हम। निर्बल और गरीब की जान बचानेवाला, न्याय
दिलाने वाला, उसकी आवाज उठाने वाला, उसके जीवन भर की कमाई देने का सपना दिखानेवाला सब संगठन बनाकर खड़े हैं। उन्हें समर्थन को संरक्षण चाहिए, और ये सब असहायकी जान लेते रहें उनके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा।
शर्मनाक।
२०-६-२०१९
***
संस्मरण:
अपने आपमें छंद काव्य सलिल जी
- आभा सक्सेना, देहरादून
*
संजीव वर्मा सलिल एक ऐसा नाम जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है |उनकी प्रशंसा करना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा |उनसे मेरा परिचय मुख पोथी पर सन २०१४-१५ में हुआ |उसके बाद तो उनसे दूरभाष पर वार्तालाप का सिलसिला चल रहा है| सलिल जी स्वयं में ही एक पूरा छंद काव्य हैं| उन्होने किस विधा में नहीं लिखा हर विधा के वे ज्ञानी पंडित हैं उन के व्यक्तित्व में उनकी कवियित्री बुआ महादेवी वर्मा जी की साफ झलक दिखाई देती है |
सन २०१४, उस समय मैं नवगीत लिखने का प्रयास कर रही थी उस समय मुझे उन्हों ने ही नवगीत विधा की बारीकियाँ सिखाईं। मेरा नव गीत उनके कुछ सुझावों के बाद -
नव गीत
कुछ तो
मुझसे बातें कर लो
अलस्सुबह जा
सांझ ढले
घर को आते हो
क्या जाने
किन हालातों से
टकराते हो
प्रियतम मेरे!
सारे दिन मैं
करूँ प्रतीक्षा-
मुझ को
निज बाँहों में भर लो
थका-चुका सा
तुम्हें देख
कैसे मुँह खोलूँ
बैठ तुम्हारे निकट
पीर क्या
हिचक टटोलूँ
श्लथ बाँहों में
गिर सोते
शिशु से भाते हो
मन इनकी
सब पीड़ा हर लो
.....आभा
आजकल वे सवैया छंद पर कार्य कर रहे हैं उनका कहना है कि
“सवैया आधुनिक हिंदी की शब्दावली के लिए पूरी तरह उपयुक्त छंद' है। यह भ्रांति है कि सरस सवैये केवल लोकभाषाओं लिखे जा सकते हैं। सत्य यह है कि सवैया वाचिक परंपरा से विकसित छंद है। लोकगायक प्रायः अशिक्षित या अल्प शिक्षित थे। उन्होंने लोकभाषा में सवैया रचे और उन्हें पढ़कर उन्हीं की शब्दावली हमें सहज लगती है। मैं सवैया कोष पर काम कर रहा हूँ। १६० प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं। के सवैये बना चुका हूँ। सब आधुनिक हिंदी में हैं जिनमें वर्णिक व मात्रिक गणना व यति समान हैं”। वे कार्यशालाओं में निरंतर नए प्रयोग कर जिज्ञासुओं को छंदों की बारीकियाँ बताते हैं।
एक कथ्य चार छंद:
*
जनक छंद
फूल खिल रहे भले ही
गर्मी से पंजा लड़ा
पत्ते मुरझा रहे हैं।
*
माहिया
चाहे खिल फूल रहे
गर्मी से हारे
पत्ते कुम्हलाय हरे।
*
दोहा
फूल भले ही खिल रहे, गर्मी में भी मौन।
पत्ते मुरझा रहे हैं, राहत दे कब-कौन।।
*
सोरठा
गर्मी में रह मौन, फूल भले ही खिल रहे।
राहत दे कब-कौन, पत्ते मुरझा रहे हैं।।
रोला
गर्मी में रह मौन, फूल खिल रहे भले ही।
राहत कैसे मिलेगी, पत्ते मुरझा रहे हैं।।
*
सलिल जी बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। उनको देख कर लगता है कि उनका साहित्य के प्रति विशेष रूप से लगाव है इसीलिए उन्होंने अपना जीवन साहित्य के प्रति समर्पित कर दिया है |दोहा लिखना भी मैंने उनसे ही सीखा है। आजकल अपरिपक्व कवि अधकचरी रचनाओं पर भी कॉपी राइट की बात करते और चोरी होनी की आशंका जताकर अहं की पुष्टि करते रहते हैं जबकि सलिल जी अपनी श्रेष्ठ रचनाओं को निरंतर बिना किसी भय या दावेदारी एक नित्य प्रति परोसते रहते हैं। उनकी उदारता यह कि मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने एक दोहा मेरे नाम का प्रयोग करते हुए लिखा और कुझे बहुत पसंद आने पर मेरे नाम ही कर दिया।
आभामय दोहे नवल, आ भा करते बात।
आभा पा आभित सलिल, पंक्ति पंक्ति जज़्बात।।
इसे कहते हैं बड़प्पन | उनकी प्रतिभा दूर दूर तक देदीप्यमान है और रहेगी। बेहद आभार आपका।
ऐसे व्यक्तित्व को मेरा कोटिशः नमन भविष्य में उनकी साहित्यिक प्रगति और अच्छे स्वास्थ्य एवं शतायु की कामना करते हुए .....
आभा सक्सेना 'दूनवी'
२०-६-२०१९, देहरादून
***
ॐ सरस्वत्यै नम: ॐ
शारद वंदना
लाक्षणिक जातीय पद्मावती/कमलावती छंद
*
शारद छवि प्यारी, सबसे न्यारी, वेद-पुराण सुयश गाएँ।
कर लिए सुमिरनी, नाद जननि जी, जप ऋषि सुर नर तर जाएँ।।
माँ मोरवाहिनी!, राग-रागिनी नाद अनाहद गुंजाएँ।
सुर सरगमदात्री, छंद विधात्री, चरण - शरण दे मुसकाएँ।।
हे अक्षरमाता! शब्द प्रदाता! पटल लेखनी लिपि वासी।
अंजन जल स्याही, वाक् प्रवाही, रस-धुन-लय चारण दासी।।
हो ॐ व्योम माँ, श्वास-सोम माँ, जिह्वा पर आसीन रहें।
नित नेह नर्मदा, कहे शुभ सदा, सलिल लहर सम सदा बहें।।
कवि काव्य कामिनी, छंद दामिनी, भजन-कीर्तन यश गाए।
कर दया निहारो, माँ उपकारो, कवि कुल सारा तर जाए।।
*
२०-६-२०२०
***
व्यंग्य गीत:

अभिनंदन
लो
*
युग-कवयित्री!
अभिनंदन
लो....
*
सब जग अपना, कुछ न पराया
शुभ सिद्धांत तुम्हें यह भाया.
गैर नहीं कुछ भी है जग में-
'विश्व एक' अपना सरमाया.
जहाँ मिले झट झपट वहीं से
अपने माथे यश-चंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
मेरा-तेरा मिथ्या माया
दास कबीरा ने बतलाया.
भुला परायेपन को तुमने
गैर लिखे को कंठ बसाया.
पर उपकारी अन्य न तुमसा
जहाँ रुचे कविता कुंदन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
हिमगिरी-जय सा किया यत्न है
तुम सी प्रतिभा काव्य रत्न है.
चोरी-डाका-लूट कहे जग
निशा तस्करी मुदित-मग्न है.
अग्र वाल पर रचना मेरी
तेरी हुई, महान लग्न है.
तुमने कवि को धन्य किया है
खुद का खुद कर मूल्यांकन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
कवि का क्या? 'बेचैन' बहुत वह
तुमने चैन गले में धारी.
'कुँवर' पंक्ति में खड़ा रहे पर
हो न सके सत्ता अधिकारी.
करी कृपा उसकी रचना ले
नभ-वाणी पर पढ़कर धन लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
*
तुम जग-जननी, कविता तनया
जब जी चाहा कर ली मृगया.
किसकी है औकात रोक ले-
हो स्वतंत्र तुम सचमुच अभया.
दुस्साहस प्रति जग नतमस्तक
'छद्म-रत्न' हो, अलंकरण लो
युग-कवयित्री
अभिनंदन
लो....
***
टीप: श्रेष्ठ कवि की रचना को अपनी बताकर २३-५-२०१८ को प्रात: ६.४० बजे काव्य धारा कार्यक्रम में आकाशवाणी पर प्रस्तुत कर धनार्जन का अद्भुत पराक्रम करने के उपलक्ष्य में यह रचना समर्पित उसे ही जो इसका सुपात्र है।
***
स्मृति गीत:
*
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे. यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
लेपहचान गैर-अपनों को-कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अबन गोद में बिठलाते हैं.हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं हर दिन पिता याद आते हैं...
२०-६-२०१०
***
लघु कथा
राष्ट्रीय एकता
*
'माँ! दो भारतीयों के तीन मत क्यों होते हैं?'
''क्यों क्या हुआ?''
'संसद और विधायिकाओं में जितने जन प्रतिनिधि होते हैं उनसे अधिक मत व्यक्त किये जाते हैं.'
''बेटा! वे अलग-अलग दलों के होते हैं न.''
'अच्छा, फिर दूरदर्शनी परिचर्चाओं में किसी बात पर सहमति क्यों नहीं बनती?'
''वहाँ बैठे वक्ता अलग-अलग विचारधाराओं के होते हैं न?''
'वे किसी और बात पर नहीं तो असहमत होने के लिये ही सहमत हो जाएँ।
''ऐसा नहीं है कि भारतीय कभी सहमत ही नहीं होते।''
'मुझे तो भारतीय कभी सहमत होते नहीं दीखते। भाषा, भूषा, धर्म, प्रांत, दल, नीति, कर, शिक्षा यहाँ तक कि पानी पर भी विवाद करते हैं।'
''लेकिन जन प्रतिनिधियों की भत्ता वृद्धि, अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने, व्यापारियों के कर घटाने, विद्यार्थियों के कक्षा से भागने, पंडितों के चढोत्री माँगने, समाचारों को सनसनीखेज बनाकर दिखाने, नृत्य के नाम पर काम से काम कपड़ों में फूहड़ उछल-कूद दिखाने और कमजोरों के शोषण पर कोई मतभेद देखा तुमने? भारतीय पक्के राष्ट्रवादी और आस्तिक हैं, अन्नदेवता के सच्चे पुजारी, छप्पन भोग की परंपरा का पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मद्रास का इडली-डोसा, पंजाब का छोला-भटूरा, गुजरात का पोहा, बंगाल का रसगुल्ला और मध्यप्रदेश की जलेबी खिलाकर देखो, पूरा देश एक नज़र आयेगा।''
और बेटा निरुत्तर हो गया...
***
पैरोडी
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।।
प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी
हमें यातना-पीर घनेरी ।।
प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।
प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती
तुम दुलहा, हम महज घराती।।
प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।
प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।
प्रभु जी! भोग और हम अनशन
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।
प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।
प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
***
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर

***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
विमर्श
शिवलिंग और शालिग्राम
*
लोकोक्ति है 'कंकर मन शंकर' तथा 'कण-कण में भगवान'।
सनातन धर्मानुसार श्रुति के जन्मदाता ब्रह्मा, पालक विष्णु और विनाशक महेश हैं।
अपने भाव-गुणों के द्वारा त्रिदेव स्थूल रूप में प्रकृति में अन्तर्निहित हैं। यह भी की हर जीव में त्रिदेवों की उपस्थिति त्रिगुण (सत,रज,तम) के रूप में हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद अध्याय ४ मंत्र ५ में ऋषि कहते हैं-
एक जन्म देता अनेक को
रक्त, श्वेत अरु श्याम त्रैगुणी।
अग्यासनी, आसक्त भोगता,
ग्यानी प्रकृति को तज देता।
त्रिदेव वास्तव में निराकार हैं कइँती जनसामान्य को उनकी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें साकार रूप में भगवान ब्रह्मा को शंख (सरस्वती ध्वनि रूप में), भगवान विष्णु को शालिग्राम () तथा शिव को शिवलिंग और जिलहरी (पार्वती) रूप में पूजा गया है। सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है।
मूलत: सनातन धर्म में मूर्ति-पूजा मान्य न होने पर भी शालिग्राम और शिवलिंग को विग्रह रूप में मान्य हैं।
शालिग्राम का मंदिर :
शालिग्राम का एकमात्र प्रसिद्ध मुक्तिनाथ मंदिर नेपाल में है। यह वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। दुर्गम मुक्तिनाथ की की कृपा से सब कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। काठमांडु से मुक्तिनाथ की यात्रा के लिए सड़क या हवाई मार्ग से पोखरा जाना होता है। पोखरा से जोमसोम जाकर २०० किलोमीटर दूर मुक्तिनाथ जाने के लिए बस, हेलिकॉप्टर या फ्लाइट ले सकते हैं।
शालिग्राम
दुर्लभ शालिग्राम नेपाल के मुक्तिनाथ, काली गण्डकी नदी के तट पर पाया जाता है। काले और भूरे शालिग्राम के अलावा सफेद, नीले और ज्योतियुक्त शालिग्राम दुर्लभ हैं। पूर्ण शालिग्राम में भगवाण विष्णु के चक्र की आकृति अंकित होती है।
शालिग्राम के प्रकार : विष्णु के अवतारों के अनुसार शालिग्राम पाया जाता है। गोल शालिग्राम विष्णु का गोपाल रूप है। मछली के आकार का शालिग्राम श्री विष्णु के मत्स्य अवतार का प्रतीक है। कछुए के आकार का शालिग्राम भगवान के कच्छप (कूर्म) अवतार का प्रतीक है। इसके अलावा शालिग्राम पर उभरे चक्र और रेखाएं विष्णु के अन्य अवतारों और श्रीकृष्ण के कुल के लोगों को इंगित करती हैं। लगभग ३३ प्रकार के शालिग्राम होते हैं जिनमें से २४ प्रकार विष्णु के २४ अवतारों तथा वर्ष के २४ एकादशी व्रतों से संबंधित हैं।
शालिग्राम की पूजा :
* घर में सिर्फ एक ही शालिग्राम की पूजा करना चाहिए।
* विष्णु की मूर्ति से कहीं ज्यादा उत्तम है शालिग्राम की पूजा करना।
* शालिग्राम पर चंदन लगाकर उसके ऊपर तुलसी का एक पत्ता रखें।
* प्रतिदिन शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराएँ।
* जहाँ शालिग्राम-पूजन होता है, वहाँ लक्ष्मी का सदैव वास रहता है।
* नियमितशालिग्राम पूजन से अगले-पिछले सभी जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
* शालिग्राम सात्विकता के प्रतीक हैं। उनके पूजन में आचार-विचार की शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
शिवलिंग :
शिवलिंग
भगवान शिव का जीवंत विग्रह तथा जलहरी को माँ पार्वती हैं। 'ॐ नम: शिवाय' पंचाक्षरी मंत्र का जप करते हुए शिवलिंग का पूजन या अभिषेक कर महामृत्युंजय मंत्र और शिवस्त्रोत का पाठ करें। रुद्राभिषेक किसी पुजारी से सम्पन्न कराएँ।
शिवलिंग पूजा के नियम :
* शिवलिंग को पंचांमृत से स्नानादि कराकर उन पर भस्म से तीन आड़ी लकीरों वाला तिलक लगाएँ।
* शिवलिंग पर हल्दी न चढ़ाएँ, लेकिन जलाधारी पर हल्दी चढ़ाई जा सकती है।
* शिवलिंग पर दूध, जल, काले तिल चढ़ाने के बाद बेलपत्र चढ़ाएँ।
* केवड़ा तथा चम्पा के फूल न चढ़ाएँ। गुलाब और गेंदा किसी पुजारी से पूछकर ही चढ़ाएँ।
* कनेर, धतूरे, आक, चमेली, जूही के फूल चढ़ा सकते हैं।
* शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ प्रसाद ग्रहण नहीं किया जाता, सामने रखा गया प्रसाद अवश्य ले सकते हैं।
* शिवलिंग नहीं शिवमंदिर की आधी परिक्रमा ही की जाती है।
* शिवलिंग के पूजन से पहले पार्वती का पूजन करना जरूरी है
शिवलिंग का अर्थ : शिवलिंग को नाद और बिंदु का प्रतीक माना जाता है। पुराणों में इसे ज्योर्तिबिंद कहा गया है। पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है जैसे- प्रकाश स्तंभ लिंग, अग्नि स्तंभ लिंग, ऊर्जा स्तंभ लिंग, ब्रह्मांडीय स्तंभ लिंग आदि।
शिव का अर्थ 'परम कल्याणकारी शुभ' और 'लिंग' का अर्थ है- 'सृजन ज्योति'। वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है। यह सूक्ष्म शरीर १७ तत्वों से बना है - मन, बुद्धि, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच वायु। भ्रकुटी के बीच स्थित हमारी आत्मा या कहें कि हम स्वयं बिंदु रूप हैं।
ब्रह्माण्ड का प्रतीक : शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा की तरह है। यह शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड में घूम रहे पिंडों का प्रतीक है। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
अरुणाचल है प्रमुख शिवलिंगी स्थान : भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) प्रकट किया था। इस लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव के परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में लिंग की पूजा आरंभ हुई। यह घटना अरुणाचल में घटित हुई थी।
आकाशीय पिंड : ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत के कुछ सहस्त्राब्दि पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहाँ-जहाँ ये पिंड गिरे, वहाँ-वहाँ इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे १०८ ज्योतिर्लिंग।
संग-ए-असवद : शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्योति पिंड धरती पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। कहते हैं कि मक्का का संग-ए-असवद (मक्केश्वर महादेव) भी आकाश से गिरा था।
***
स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.हर
दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड़, डाँट, झिड़की, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों को-
कर न दर्द की कभी नुमाइश.
अब न गोद में बिठलाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
अक्षर-शब्द सिखाये तुमने.
नित घर-घाट दिखाए तुमने.
जब-जब मन कोशिश कर हारा-
फल साफल्य चखाए तुमने.
पग थमते, कर जुड़ जाते हैं
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
२०-६-२०१०

रविवार, 19 जून 2022

छंद मल्लिका, दोहा, दुर्गावती, छंद शुद्धध्वनि, मुक्तिका, मिट्टी,नवगीत,आरक्षण, दोना

गीत
*
मल्लिका छंद
रजगल
ग ल ग ल ग ल ग ल
२१ २१ २१ २१
*
मल्लिका रहे न मौन
.
लोकतंत्र की पुकार
लोग ही करें सुधार
दोष और का न मान
लें सुधार रीति जान
गंदगी बटोर साफ
कीजिए; न धार मौन
.
शक्ति लोक की अपार
तंत्र से न मान हार
पौध रोप दें हजार
भूमि हो हरी निहार
राजनीति स्वार्थ त्याग
अग्रणी बनें; न मौन
.
ऊगता न आप भोर
सूर्य ले उषा अँजोर
आसमान दे बुहार
अंधकार मान हार
भागता; प्रकाशवान
सूर्य लोग हों; न मौन
*
संवस, ७९९९५५९६१८
१९-६-२०१९
***
दोहा सलिला:
*
जन्म; ब्याह; राखी; तिलक; गृह-प्रवेश; त्यौहार.
सलिल बचा; पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार.
*
पुस्तक जग की प्रीत है, पुस्तक मन का मीत.
पुस्तक है तो साथ है, भावी-आज-अतीत.
*
पुश्त-पुश्त पुस्तक चले, शेष न रहता साथ.
जो पुस्तक पढ़ता रहा, उसका ऊँचा माथ.
*
पौधारोपण कीजिए, सतत बचाएँ नीर.
पंछी कलरव करें तो, आप घटेगी पीर.
*
तबियत होती है हरी, हरियाली को देख.
रखें स्वच्छता हमेशा, सुधरे जीवन-लेख.
१९.६.२०१८
***

२४ जून १५६४ महारानी दुर्गावती शहादत दिवस पर विशेष रचना
छंद सलिला: ​​​शुद्ध ध्वनि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १०-८-८-६, पदांत गुरु
लक्षण छंद:
लाक्षणिक छंद है / शुद्धध्वनि पद / अंत करे गुरु / यश भी दे
यति रहे अठारह / आठ आठ छह, / विरुद गाइए / साहस ले
चौकल में जगण न / है वर्जित- करि/ए प्रयोग जब / मन चाहे
कह-सुन वक्ता-श्रो/ता हर्षित, सम / शब्द-गंग-रस / अवगाहे
.
उदाहरण:
१. बज उठे नगाड़े / गज चिंघाड़े / अंबर फाड़े / भोर हुआ
खुर पटकें घोड़े / बरबस दौड़े / संयम छोड़े / शोर हुआ
गरजे सेनानी / बल अभिमानी / मातु भवानी / जय रेवा
ले धनुष-बाण सज / बड़ा देव भज / सैनिक बोले / जय देवा
कर तिलक भाल पर / चूड़ी खनकीं / अँखियाँ छलकीं / वचन लिया
'सिर अरि का लेना / अपना देना / लजे न माँ का / दूध पिया'
''सौं मातु नरमदा / काली मैया / यवन मुंड की / माल चढ़ा
लोहू सें भर दौं / खप्पर तोरा / पिये जोगनी / शौर्य बढ़ा''
सज सैन्य चल पडी / शोधकर घड़ी / भेरी-घंटे / शंख बजे
दिल कँपे मुगल के / धड़-धड़ धड़के / टँगिया सम्मुख / प्राण तजे
गोटा जमाल था / घुला ताल में / पानी पी अति/सार हुआ
पेड़ों पर टँगे / धनुर्धारी मा/रें जीवन दु/श्वार हुआ
वीरनारायण अ/धार सिंह ने / मुगलों को दी / धूल चटा
रानी के घातक / वारों से था / मुग़ल सैन्य का / मान घटा
रूमी, कैथा भो/ज, बखीला, पं/डित मान मुबा/रक खां लें
डाकित, अर्जुनबै/स, शम्स, जगदे/व, महारख सँग / अरि-जानें
पर्वत से पत्थर / लुढ़काये कित/ने हो घायल / कुचल मरे-
था नत मस्तक लख / रण विक्रम, जय / स्वप्न टूटते / हुए लगे
बम बम भोले, जय / शिव शंकर, हर / हर नरमदा ल/गा नारा
ले जान हथेली / पर गोंडों ने / मुगलों को बढ़/-चढ़ मारा
आसफ खां हक्का / बक्का, छक्का / छूटा याद हु/ई मक्का
सैनिक चिल्लाते / हाय हाय अब / मरना है बिल/कुल पक्का
हो गयी साँझ निज / हार जान रण / छोड़ शिविर में / जान बचा
छिप गया: तोपखा/ना बुलवा, हो / सुबह चले फिर / दाँव नया
रानी बोलीं "हम/ला कर सारी / रात शत्रु को / पीटेंगे
सरदार न माने / रात करें आ/राम, सुबह रण / जीतेंगे
बस यहीं हो गयी / चूक बदनसिंह / ने शराब थी / पिलवाई
गद्दार भेदिया / देश द्रोह कर / रहा न किन्तु श/रम आई
सेनानी अलसा / जगे देर से / दुश्मन तोपों / ने घेरा
रानी ने बाजी / उलट देख सो/चा वन-पर्वत / हो डेरा
बारहा गाँव से / आगे बढ़कर / पार करें न/र्रइ नाला
नागा पर्वत पर / मुग़ल न लड़ पा/येंगे गोंड़ ब/नें ज्वाला
सब भेद बताकर / आसफ खां को / बदनसिंह था / हर्षाया
दुर्भाग्य घटाएँ / काली बनकर / आसमान पर / था छाया
डोभी समीप तट / बंध तोड़ मुग/लों ने पानी / दिया बहा
विधि का विधान पा/नी बरसा, कर / सकें पार सं/भव न रहा
हाथी-घोड़ों ने / निज सैनिक कुच/ले, घबरा रण / छोड़ दिया
मुगलों ने तोपों / से गोले बर/सा गोंडों को / घेर लिया
सैनिक घबराये / पर रानी सर/दारों सँग लड़/कर पीछे
कोशिश में थीं पल/टें बाजी, गिरि / पर चढ़ सकें, स/मर जीतें
रानी के शौर्य-पराक्रम ने दुश्मन का दिल दहलाया था
जा निकट बदन ने / रानी पर छिप / घातक तीर च/लाया था
तत्क्षण रानी ने / खींच तीर फें/का, जाना मु/श्किल बचना
नारायण रूमी / भोज बच्छ को / चौरा भेज, चु/ना मरना
बोलीं अधार से / 'वार करो, लो / प्राण, न दुश्मन / छू पाये'
चाहें अधार लें / उन्हें बचा, तब / तक थे शत्रु नि/कट आये
रानी ने भोंक कृ/पाण कहा: 'चौरा जाओ' फिर प्राण तजा
लड़ दूल्हा-बग्घ श/हीद हुए, सर/मन रानी को / देख गिरा
भौंचक आसफखाँ / शीश झुका, जय / पाकर भी थी / हार मिली
जनमाता दुर्गा/वती अमर, घर/-घर में पुजतीं / ज्यों देवी
पढ़ शौर्य कथा अब / भी जनगण, रा/नी को पूजा / करता है
जनहितकारी शा/सन खातिर नित / याद उन्हें ही / करता है
बारहा गाँव में / रानी सरमन /बग्घ दूल्ह के / कूर बना
ले कंकर एक र/खे हर जन, चुप / वीर जनों को / शीश नवा
हैं गाँव-गाँव में / रानी की प्रति/माएँ, हैं ता/लाब बने
शालाओं को भी , नाम मिला, उन/का- देखें ब/च्चे सपने
नव भारत की नि/र्माण प्रेरणा / बनी आज भी / हैं रानी
रानी दुर्गावति / हुईं अमर, जन / गण पूजे कह / कल्याणी
नर्मदासुता, चं/देल-गोंड की / कीर्ति अमर, दे/वी मैया
जय-जय गाएंगे / सदियों तक कवि/, पाकर कीर्ति क/था-छैंया
*********
टिप्पणी: कूर = समाधि,
दूरदर्शन पर दिखाई जा रही अकबर की छद्म महानता की पोल रानी की संघर्ष कथा खोलती है.
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदन,मदनावतारी, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुद्ध ध्वनि, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..
बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..
पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, सँवरती रही मिट्टी मेरी..
ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..
कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..
खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों तक.
पाक-नापाक दहकती रही मिट्टी मेरी..
खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..
गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..
राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती रही मिट्टी मेरी..
कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही मिट्टी मेरी..
१९-६-२०१७

***
नवगीत
*
होरा भूँज रओ छाती पै
आरच्छन जमदूत
पैदा होतई बनत जा रए
बाप बाप खें, पूत
*
लोकनीति बनबास पा रई
राजनीति सिर बैठ
नाच नचाउत नित तिगनी का
घर-घर कर खें पैठ
नाम आधुनिकता को जप रओ
नंगेपन खों भूत
*
नींव बगैर मकान तान रए
भौत सयाने लोग
त्याग-परिस्रम खों तलाक दें
चाह भोग लें भोग
फूँक रए रे, मिली बिरासत
काबिल भए सपूत
*
ईंट-ईंट में खेंच दिवारें
तोड़ रए हर जोड़
लाज-लिहाज कबाड़ बता रए
बेसरमी हित होड़
राह बिसर कें राह दिखा रओ
सयानेपन खों भूत
२०-११-२०१५
चित्रकूट एक्सप्रेस,
उन्नाव-कानपूर
***
मुक्तिका:
*
मापनी:
१२१२ / ११२२ / १२१२ / २२
ल ला ल ला ल ल ला ला, ल ला ल ला ला ला
महारौद्र जातीय सुखदा छंद
*
मिलो गले हमसे तुम मिलो ग़ज़ल गाओ
चलो चलें हम दोनों चलो चलें आओ
.
यही कहीं लिखना है हमें कथा न्यारी
कली खिली गुल महके सुगंध फैलाओ
.
कहो-कहो कुछ दोहे चलो कहो दोहे
यहीं कहीं बिन बोले हमें निकट पाओ
.
छिपाछिपी कब तक हो?, लुकाछिपी छोड़ो
सुनो बुला मुझ को लो, न हो तुम्हीं आओ
.
भुला गिले-शिकवे दो, सुनो सपन देखो
गले मिलो हँस के प्रिय, उन्हें 'सलिल' भाओ
***
क्या यह 'बहरे मुसम्मन मुरक़्क़ब मक्बूज़ मख्बून महज़ूफ़ो मक्तुअ' में है?
***
नवगीत :
*
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
*
हँसकर गले लगाइये
या हाथ मिलायें
तीरे-नज़र से दिल,
छुरे से पीठ बचायें
हैं आम तो न ख़ास से
तकरार कीजिए-
जो कीजिए तो झूठ
न इल्जाम लगायें
इल्हाम हो न हो
नहीं किरदार गिरायें
कैसे भी हो
हालात
न जेबें खँगालिये
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
*
दिल से भले भुलाइये
नीचे न गिरायें
यादें न सही जाएँ तो
चुपके से सिरायें
माने न मन तो फिर
मना इसरार कीजिए-
इकरार कीजिए
अगर तो शीश चढ़ायें
जो पाठ खुद पढ़ा नहीं
न आप पढ़ायें
बच्चे बिगड़ न जाएँ
हो सच्चे
सम्हालिए
पगड़ी हो
या हो दिल
न किसी का उछालिये
१९-६-२०१५
***
विमर्श :
दोने-पत्तल का विज्ञान
भारत मे 2000 से ज्यादा वनस्पतियों से भोजन को रखने के लिए दोने पत्तल बनाई जाती है और इन दोने पत्तल मे हर एक दोने पत्तल कई कई बीमारियो का इलाज है और औषधीय गुण रखता है आइये हम कुछ जानकारी ले
आम तौर पर केले की पत्तियो मे खाना परोसा जाता है। प्राचीन ग्रंथों मे केले की पत्तियो पर परोसे गये भोजन को स्वास्थ्य के लिये लाभदायक बताया गया है। आजकल महंगे होटलों और रिसोर्ट मे भी केले की पत्तियो का यह प्रयोग होने लगा है।
* पलाश के पत्तल में भोजन करने से स्वर्ण के बर्तन में भोजन करने का पुण्य व आरोग्य मिलता है ।
* केले के पत्तल में भोजन करने से चांदी के बर्तन में भोजन करने का पुण्य व आरोग्य मिलता है ।
* रक्त की अशुद्धता के कारण होने वाली बीमारियों के लिये पलाश से तैयार पत्तल को उपयोगी माना जाता है। पाचन तंत्र सम्बन्धी रोगों के लिये भी इसका उपयोग होता है। आम तौर पर लाल फूलो वाले पलाश को हम जानते हैं पर सफेद फूलों वाला पलाश भी उपलब्ध है। इस दुर्लभ पलाश से तैयार पत्तल को बवासिर (पाइल्स) के रोगियों के लिये उपयोगी माना जाता है।
* जोडो के दर्द के लिये करंज की पत्तियों से तैयार पत्तल उपयोगी माना जाता है। पुरानी पत्तियों को नयी पत्तियों की तुलना मे अधिक उपयोगी माना जाता है।
* लकवा (पैरालिसिस) होने पर अमलतास की पत्तियों से तैयार पत्तलो को उपयोगी माना जाता है।
इसके अन्य लाभ :
१.. पत्तल को धोना नहीं पड़ेगा, सीधा मिट्टी में दबा सकते है l
२. पानी कम खर्च होगा l
३. कामवाली का मासिक खर्च भी बचेगा l
३. केमिकल कम उपयोग करने पड़ेंगे l
५. केमिकल द्वारा शरीर को आंतरिक हानि नहीं पहुँचेगीl
६. अधिक पौधे उगेंगे, जिससे अधिक आक्सीजन भी मिलेगी l
७. प्रदूषण घटेगा ।
८. जूठी पत्तलों को एक जगह गाड़कर, खाद बनाकर मिटटी की उपजाऊ क्षमता को बढ़ाया जा सकता है l
९. पत्तल बनानेवालों को रोजगार प्राप्त होगा l
१०. मुख्य लाभ, आप नदियों को दूषित होने से बहुत बड़े स्तर पर बचा सकते हैं। बर्तन धोने में उपयोग किया केमिकल वाला पानी, नाले-नदियों में जाकरजल प्रदूषण करता है।
१९-६-२०१४
***

शनिवार, 18 जून 2022

रेलवे, कवित्त, चतुष्पदी, द्विपदी, नवगीत

गीत ३

पश्चिम-मध्य रेलवे की जय।
जन-सेवा-साधक हम निर्भय।।

तीर नर्मदा नगर जबलपुर।
मुख्यालय मनमोहक सुंदर।।
पथ विद्युतीकरण सुविधामय

ऐतिहासिक नगरी भोपाल।
उज्जयिनी बैठे जगपाल।।
साँची बुद्ध अस्थियाँ अक्षय

कोटा कोचिंग हब लासानी।
हवामहल जयपुर अभिमानी।।
मीरां कृष्ण-भक्ति की धुन-लय

शेर सफेद विंध्य बाँधवगढ़।
घूम पचमढ़ी चौरागढ़ चढ़।।
जा पातालकोट तज विस्मय
१८-६-२०२२
•••

कवित्त
*
शिवशंकर भर हुंकार, चीन पर करो प्रहार, हो जाए क्षार-क्षार, कोरोना दानव।
तज दो प्रभु अब समाधि, असहनीय हुई व्याधि, भूकलंक है उपाधि, देह भले मानव।।
करता नित अनाचार, वक्ष ठोंक दुराचार, मिथ्या घातक प्रचार, करे कपट लाघव।
स्वार्थ-रथ हुआ सवार, धोखा दे करे वार, सिंह नहीं है सियार, मिटा दो अमानव।।
१८-६-२०२०
***
चतुष्पदी
श्रेया
श्रेया है बगिया की कलिका, झूमे नित्य बहारों संग।
हर दिन होली रात दिवाली, पल-पल खुशियाँ भर दें रंग।।
कदम-कदम बढ़ नित नव मंजिल पाओ, दुनिया देखे दंग।
रुकना झुकना चुकना मत तुम, जीते जीवन की हर जंग।।
*
द्विपदी
पापा
पा पा कह हर इच्छित पाने को जो प्रोत्साहित करते।
नतमस्तक को पापा कहकर प्यार उन्हें बच्चे करते।।
१८-६-२०१९
***
नवगीत
क्या???
*
क्या तेरा?
क्या मेरा? साधो!
क्या तेरा?
क्या मेरा? रे!....
*
ताना-बाना कौन बुन रहा?
कहो कपास उगाता कौन?
सूत-कपास न लट्ठम-लट्ठा,
क्यों करते हम, रहें न मौन?
किसका फेरा?
किसका डेरा?
किसका साँझ-सवेरा रे!....
*
आना-जाना, जाना-आना
मिले सफर में जो; बेगाना।
किसका अब तक रहा?, रहेगा
किसका हरदम ठौर-ठिकाना?
जिसने हेरा,
जिसने टेरा
उसका ही पग-फेरा रे!....
*
कालकूट या अमिय; मिले जो
अँजुरी में ले; हँसकर पी।
जीते-जीते मर मत जाना,
मरते-मरते जीकर जी।
लाँघो घेरा,
लगे न फेरा
लूट, न लुटा बसेरा रे!....
***
१८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८,
salil.sanjiv@gmail.com

शुक्रवार, 17 जून 2022

रेल गीत, शिशु गीत, सरस्वती, पिता, लक्ष्मीबाई, बुंदेली दोहे, राकेश खंडेलवाल, नवगीत, मुक्तिका, बाल गीत

रेल गीत (पश्चिम मध्य जोन जबलपुर) १

गीतकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
9425183244
*
निश-दिन दौड़े सरपट रेल, कहती सबसे रखना मेल।
लेकर टिकिट सफर करना, नहीं स्वच्छता-रक्षा खेल।।
*
पश्चिम-मध्य रेल्वे अनुपम, नव विकास की सबल धुरी।
जबलपुर, भोपाल व कोटा, धरती मोहक हरी-भरी।।
विंध्य-सतपुड़ा-मेकल पर्वत, रेवा-चंबल सलिलाएँ।
कान्हा, रणथंभौर, भरतपुर, बांधवगढ़, साँची भाएँ।।
दुर्गा, कमला, कामकंदला, कीर्ति अमर ज्यों जगमग ज्वेल
*
भीमबेटका,  आदमगढ़ के शैलचित्र इतिहास कहे।
जाबाली, महेश योगी, ओशो, शकुंतला  संत रहे।।
है चूना, सीमेंट, कोयला, आयुध निर्माणी पहचान।
राजासौरस नर्मडेंसिस, घुघवा फॉसिल अद्भुत शान।।
जंक्शन कटनी अरु इटारसी, रेलों की है रेलमपेल
*
जबलपुर कमलापति स्टेशन, अपनी आप मिसाल है।
कोचिंग हब कोटा जबलपुर, बरगी बाँध कमाल है।।
निशातपुरा की कोच फैक्ट्री, नव निर्माण सतत करती।
शारद मैया, आल्हा-ऊदल, जगनिक ईसुरि की धरती।।
जोड़ 'सलिल' मालवा-विंध्य को, लक्ष्य वरे हर बाधा झेल
*

गीत २  
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा।
करता यात्री-माल ढुलाई, श्रम-कौशल इसके देवा..... 
*
मुख्यालय है नगर जबलपुर, संस्कारधानी प्यारी। 
नंदीकेश, जाबाली, योगी, ओशो की छवि है न्यारी।।
जीवाश्मों-डायनासौरों का, ठौर नर्मदा की घाटी। 
स्वतन्त्रता संघर्ष विरासत, शौर्य अमर है परिपाटी।।
आदिवासियों ने पूजा है नागदेव-निंगा देवा।
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....  
*
कमलापति, भोपाल, मालवा, महाकाल क्षिप्रा, साँची। 
कोटा, रणथंभौर बाँकुरा, देशभक्ति पुस्तक बाँची।।
पक्षी अभ्यारण्य भरतपुर, कृष्ण नाथद्वारा बैठे।  
जगनिक-ईसुर, आल्हा-फागें, गाँव-गाँव घर-घर पैठे।।
ज्वार-बाजरा, अरहर-मक्का, कोदो महुआ है मेवा। 
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....
*
कोच फैक्ट्री, कोच रेस्तरां, रेल-पाठों का नव निर्माण। 
ब्रॉडगेज-विद्युतीकरण ने, परिपथ में फूँके हैं प्राण।।
साफ़-सफाई, हरियाली अरु, वेग वृद्धि से समय-बचत। 
जनभाषा में हो जन-शिक्षण, 'सलिल' बचे खरचा-लागत।।
नव विकास के नव सपनों का, कोइ नहीं हम सा लेवा। 
पश्चिम मध्य रेलवे मंडल, करे अहर्निश जन सेवा.....    
***
शिशु गीत सलिला

भालू
आया भालू।
खाता आलू।।
बंदर कहता-
उसको कालू।।
*

बंदर

बंदर नाच दिखाता है।
सबके मन को भाता है।।
दौड़ झाड़ पर चढ़ जाता-
हाथ नहीं फिर आता है।।
*

बिल्ली

बिल्ली बोले म्याऊँ-म्याऊँ।
चूहा पाकर झट खा जाऊँ।।
नटखट चूहा हाथ न आया।
बचकर ठेंगा दिखा चिढ़ाया।।
*

माँ

मेरी माँ प्यारी-न्यारी।
मुझ पर जाती है वारी।।
मैं भी खूब दुलार करूँ-
गोदी में छिप प्यार करूँ।।

*

बहिन

बहिन पढ़ेगी रोज किताब।
सदा करेगी सही हिसाब।।
बात भाई तब मानेगा।
रार न नाहक ठानेगा।।

*

भाई

भाई करता है ऊधम।
कहता नहीं किसी से कम।
बातें खूब बनाता है -
करे नाक में सबकी दम।।
१७-६-२०२२
***

शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो,
गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो,
भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
कोरोना दाता यह राक्षस,
मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***
१७-६-२०२०
***
शिशु गीत सलिला :
*
पापा-
पापा लाड़ लड़ाते खूब,
जाते हम खुशियों में डूब।
उन्हें बना लेता घोड़ा-
हँसती, देख बाग़ की दूब।।
*
पापा चलना सिखलाते,
सारी दुनिया दिखलाते।
रोज बिठाकर कंधे पर-
सैर कराते मुस्काते।।
*
गलती हो जाए तो भी,
मुझे नहीं खोना आपा।
सीख-सुधारो, खुद सुधारो-
सीख सिखाते थे पापा।।

***

पिता पर दोहे:
*
पिता कभी वट वृक्ष है, कभी छाँव-आकाश.
कंधा, अँगुली हैं पिता, हुए न कभी हताश.
*
पूरा कुनबा पालकर, कभी न की उफ़-हाय.
दो बच्चों को पालकर, हम क्यों हैं निरुपाय?
*
थके, न हारे थे कभी, रहे निभाते फर्ज.
पूत चुका सकते नहीं, कभी पिता का कर्ज.
*
गिरने से रोका नहीं, चुपा; कहा: 'जा घूम'.
कर समर्थ सन्तान को, लिया पिता ने चूम.
*
माँ ममतामय चाँदनी, पिता सूर्य की धूप.
दोनों से मिलकर बना, जीवन का शुभ रूप.
*
पिता न उँगली थामते, होते नहीं सहाय.
तो हम चल पाते नहीं, रह जाते असहाय.
*
माता का सिंदूर थे, बब्बा का अरमान.
रक्षा बंधन बुआ का, पिता हमारी शान.
*
दीवाली पर दिया थे, होली पर थे रंग.
पिता किताबें-फीस थे, रक्षा हित बजरंग.
*
पिता नमन शत-शत करें, संतानें नत माथ.
गये न जाकर भी कहीं, श्वास-श्वास हो साथ.
*
१७.६.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
***
मुक्तक
*
महाकाल भी काल के, वश में कहें महेश
उदित भोर में, साँझ ढल, सूर्य न दीखता लेश
जो न दिखे अस्तित्व है, उसका उसमें प्राण
दो दिखता निष्प्राण हो कभी, कभी संप्राण
*
नि:सृत सलिल महेश शीश से, पग-प्रक्षालन करे धन्य हो
पिएं हलाहल तनिक न हिचकें, पूजित जग में हे! अनन्य हो
धार कंठ में सर्प अभय हो, करें अहैतुक कृपा रात-दिन
जगजननी को ह्रदय बसाए, जगत्पिता सचमुच प्रणम्य हो
*
१६-६-२०१६
***
विरासत :
कहाँ-कैसे हैं रानी लक्ष्मीबाई के वंशज
इतिहास की ताकतवर महिलाओं में शुमार रानी लक्ष्मी बाई के बेटे का जिक्र इतिहास में भी बहुत कम हुआ है। यही वजह है कि यह असलियत लोगों के सामने नहीं आ पाई। रानी के शहीद होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इंदौर भेज दिया था। उन्होंने बेहद गरीबी में अपना जीवन बिताया। अंग्रेजों की उनपर हर पल नजर रहती थीं। दामोदर के बारे में कहा जाता है कि इंदौर के ब्राह्मण परिवार ने उनका लालन-पालन किया था।
इतिहास में जब भी पहले स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जिक्र सबसे पहले होता है। रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी गुमनामी का जीवन जी रहे हैं। १७ जून १८५८ में ग्वालियर में रानी शहीद हो गई थी। रानी के शहीद होते ही वह राजकुमार गुमनामी के अंधेरे में खो गया जिसको पीठ बांधकर उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध लड़ा था। इतिहासकार कहते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई का परिवार आज भी गुमनामी की जिंदगी जी रहा है। दामोदर राव का असली नाम आनंद राव था। इसे भी बहुत कम लोग जानते हैं। उनका जन्म झांसी के राजा गंगाधर राव के खानदान में ही हुआ था।
५०० पठान थे अंगरक्षक
दामोदर राव जब भी अपनी मां झांसी की रानी के साथ महालक्ष्मी मंदिर जाते थे, तो ५०० पठान अंगरक्षक उनके साथ होते थे। रानी के शहीद होने के बाद राजकुमार दामोदर को मेजर प्लीक ने इंदौर भेज दिया था। ५ मई १८६० को इंदौर के रेजिडेंट रिचमंड शेक्सपियर ने दामोदर राव का लालन-पालन मीर मुंशी पंडित धर्मनारायण कश्मीरी को सौंप दिया। दामोदर राव को सिर्फ १५० रुपए महीने पेंशन दी जाती थी।
२८ मई १९०६ को इंदौर में हुआ था दामोदर का निधन
लोगों का यह भी कहना है कि दामोदर राव कभी 25 लाख रुपए की सालाना रियासत के मालिक थे, जबकि दामोदर के असली पिता वासुदेव राव नेवालकर के पास खुद चार से पांच लाख रुपए सालाना की जागीर थी। बेहद संघर्षों में जिंदगी जीने वाली दामोदर राव १८४८ में पैदा हुए थे। उनका निधन २८ मई १९०६ को इंदौर में बताया जाता है।
इंदौर में हुआ था दामोदर राव का विवाह
रानी लक्ष्मीबाई के बेटे के निधन के बाद १९ नवंबर १८५३ को पांच वर्षीय दामोदर राव को गोद लिया गया था। दामोदर के पिता वासुदेव थे। वह बाद में जब इंदौर रहने लगे तो वहां पर ही उनका विवाह हो गया दामोदर राव के बेटे का नाम लक्ष्मण राव था। लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।
लक्ष्मण राव को बाहर जाने की नहीं थी इजाजत
२३ अक्टूबर वर्ष १८७९ में जन्मे दामोदर राव के पुत्र लक्ष्मण राव का चार मई १९५९ को निधन हो गया। लक्ष्मण राव को इंदौर के बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। इंदौर रेजिडेंसी से २०० रुपए मासिक पेंशन आती थी, लेकिन पिता दामोदर के निधन के बाद यह पेंशन १०० रुपए हो गई। वर्ष १९२३ में ५० रुपए हो गई। १९५१ में यूपी सरकार ने रानी के नाती यानी दामोदर राव के पुत्र को ५० रुपए मासिक सहायता आवेदन करने पर दी थी, जो बाद में ७५ रुपए कर दी गई।
जंगल में भटकते रहे दामोदर राव
इतिहासकार ओम शंकर असर के अनुसार, रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को पीठ से बाँधकर चार अप्रैल १८५८ को झाँसी से कूच कर गई थीं। १७ जून १८५८ को तक यह बालक सोता-जागता रहा। युद्ध के अंतिम दिनों में तेज होती लड़ाई के बीच महारानी ने अपने विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख को दामोदर राव की जिम्मेदारी सौंप दी। दो वर्षों तक वह दामोदर को अपने साथ लिए रहे। वह दामोदर राव को लेकर ललितपुर जिले के जंगलों में भटके।
पहले किया गिरफ्तार फिर भेजा इंदौर
दामोदर राव के दल के सदस्य भेष बदलकर राशन का सामान लाते थे। दामोदर के दल में कुछ उंट और घोड़े थे। इनमें से कुछ घोड़े देने की शर्त पर उन्हें शरण मिलती थी। शिवपुरी के पास जिला पाटन में एक नदी के पास छिपे दामोदर राव को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर उन्हें मई, १८६० में अंग्रेजों ने इंदौर भेज दिया गया था। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के परिजन आज भी इंदौर में गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। परिवार के सदस्य प्रदेश के पुलिस विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
***
बुन्देली दोहे
महुआ फूरन सों चढ़ो, गौर धना पे रंग।
भाग सराहें पवन के, चूम रहो अॅंग-अंग।।
मादल-थापों सॅंग परंे, जब गैला में पैर।
धड़कन बाॅंकों की बढ़े, राम राखियो खैर।।
हमें सुमिर तुम हो रईं, गोरी लाल गुलाल।
तुमें देख हम हो रए, कैसें कएॅं निहाल।।
मन म्रिदंग सम झूम रौ, सुन पायल झंकार।
रूप छटा नें छेड़ दै, दिल सितार कें तार।।
नेह नरमदा में परे, कंकर घाईं बोल।
चाह पखेरू कूक दौ, बानी-मिसरी घोल।।
सैन धनुस लै बेधते, लच्छ नैन बन बान।
निकरन चाहें पै नईं, निकर पा रए प्रान।।
तड़प रई मन मछरिया, नेह-नरमदा चाह।
तन भरमाना घाट पे, जल जल दे रौ दाह।।
अंग-अंग अलसा रओ, पोर-पोर में पीर।
बैरन ननदी बलम सें, चिपटी छूटत धीर।।
कोयल कूके चैत मा, देख बरे बैसाख।
जेठ जिठानी बिन तपे, सूरज फेंके आग।।
४-४-२०१६
***

नवगीत
*
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
जिसका जितना अधिक रसूख
उसकी उतनी ज्यादा भूख
छाँह नहीं, फल-फूल नहीं
दे जो- जाए भाड़ में रूख
गरजे मेघ, नाचता देख
जग को देता खुशी मयूख
उलझ न झुँझला
न हो निढाल
हल कर जितने उठे सवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
पेट मिला है केवल एक
पर न भर सकें यत्न अनेक
लगन, परिश्रम, कोशिश कर
हार न माने कभी विवेक
समय-परीक्षक खरा-कड़ा
टेक न सर, कर पूरी टेक
कूद समुद में
खोज प्रवाल
मानवता को करो निहाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
.
मिट-मिटकर जो बनता है
कर्म कहानी जनता है
घूरे को सोना करता
उजड़-उजड़ कर बस्ता है
छलिया औरों को कम पर
खुद को ज्यादा छलता है
चुप रह, करो
न कोई बबाल
हो न तुम्हारा कहीं हवाल
चूल्हा, चक्की, आटा, दाल
लाते-दूर करें भूचाल
*
१३-१-२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर
***
एक गीत:
राकेश खंडेलवाल
आदरणीय संजीव सलिल की रचना ( अच्छे दिन आयेंगे सुनकर जी लिये
नोट भी पायेंगे सुनकर जी लिये ) से प्रेरित
*
प्यास सुलगती, घिरा अंधेरा
बस कुछ पल हैं इनका डेरा
सावन यहाँ अभी घिरता है
और दीप जलने वाले हैं
नगर ढिंढोरा पीट, शाम को तानसेन गाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
बँधी महाजन की बहियों में उलझी हुई जन्म कुंडलियाँ
होंगी मुक्त, व्यूह को इनके अभिमन्यु आकर तोड़ेगा
पनघट पर मिट्टी पीतल के कलशों में जो खिंची दरारें
समदर्शी धारा का रेला, आज इन्हें फ़िर से जोड़ेगा
सूनी एकाकी गलियों में
विकच गंधहीना कलियों में
भरने गन्ध, चूमने पग से
होड़ मचेगी अब अलियों में
बीत चुका वनवास, शीघ्र ही राम अवध आने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
फिर से होंगी पूज्य नारियाँ,रमें देवता आकर भू पर
लोलुपता के बाँध नहीं फिर तोड़ेगा कोई दुर्योधन
एकलव्य के दायें कर का नहीं अँगूठा पुन: कटेगा
राजा और प्रजा में होगा सबन्धों का मृदु संयोजन
लगा जागने सोया गुरुकुल
दिखते हैं शुभ सारे संकुल
मन के आंगन से बिछुड़ेगा
संतापों का पूरा ही कुल
फूल गुलाबों के जीवन की गलियाँ महकाने वाले हैं
रे मन धीरज रख ले कुछ पल, अच्छे दिन आने वाले हैं
अर्थहीन हो चुके शब्द ये, आश्वासन में ढलते ढलते
बदल गई पीढ़ी इक पूरी, इन सपनों के फ़ीकेपन में
सुखद कोई अनुभूति आज तक द्वारे पर आकर न ठहरी
भटका किया निरंतर जन गण, जयघोषों के सूने पन में
आ कोई परिवर्तन छू रे
बरसों में बदले हैं घूरे
यहाँ फूल की क्यारी में भी
उगते आये सिर्फ़ धतूरे
हमें पता हैं यह सब नारे, मन को बहकाने वाले हैं
राहें बन्द हो चुकी सारी अच्छे दिन आने वाले हैं ?
***
मुक्तिका:
*
तुम गलत पर हम सही कहते रहे हैं
इसलिए ही दूरियाँ सहते रहे हैं
.
ज़माने ने उजाड़ा हमको हमेशा
मगर फिर-फिर हम यहीं रहते रहे हैं
.
एक भी पूरा हुआ तो कम नहीं है
महल सपनों के अगिन ढहते रहे हैं
.
प्रथाओं को तुम बदलना चाहते हो
पृथाओं से कर्ण हम गहते रहे हैं
.
बिसारी तुमने भले यादें हमारी
सुधि तुम्हारी हम सतत तहते रहे हैं
.
पलाशों की पीर जग ने की अदेखी
व्यथित होकर 'सलिल' चुप दहते रहे हैं
.
हम किनारों पर ठहर कब्जा न चाहें
इसलिए होकर 'सलिल' बहते रहे हैं.
१७-६-२०१५
***
बाल गीत:
पाखी की बिल्ली
*
पाखी ने बिल्ली पाली.
सौंपी घर की रखवाली..
फिर पाखी बाज़ार गयी.
लाये किताबें नयी-नयी
तनिक देर जागी बिल्ली.
हुई तबीयत फिर ढिल्ली..
लगी ऊंघने फिर सोयी.
सुख सपनों में थी खोयी..
मिट्ठू ने अवसर पाया.
गेंद उठाकर ले आया..
गेंद नचाना मन भाया.
निज करतब पर इठलाया..
घर में चूहा आया एक.
नहीं इरादे उसके नेक..
चुरा मिठाई खाऊँगा.
ऊधम खूब मचाऊँगा..
आहट सुन बिल्ली जागी.
चूहे के पीछे भागी..
झट चूहे को जा पकड़ा.
भागा चूहा दे झटका..
बिल्ली खीझी, खिसियाई.
मन ही मन में पछताई..
१७-६-२०१२
***

बुधवार, 15 जून 2022

गीत,सूर्य,दोहे, पिता, छंद धारा,सदोका,सॉनेट, नवगीत

सॉनेट
चाँदनी में निशा नहाई है 
जमीं पर पाँव ही नहीं पड़ते  
चाँद से आँख ज्यों मिलाई है
सितारे शूल की तरह गड़ते 

नेह की नर्मदा बहाई है 
पाँव थम से गए, नहीं बढ़ते 
चेहरे पर अजब लुनाई है 
प्रेम के पाठ बिन पढ़े, पढ़ते 

नहीं सुध-बुध रही, गँवाई है
लाज से नैन ही नहीं उठते 
चाँद ने टकटकी लगाई है 
चेहरे से नयन नहीं हटते  

मेघ ने बिजुरिया गिराई है 
प्रीत की बेल महमहाई है   
१५-६-२०२२ 
सदोका सलिला २
• 
लिए उच्चार 
पाँच, सात औ' सात
दो मर्तबा सदोका।
रूप सौंदर्य 
क्षणिक, सदा रहे 
प्रभाव सद्गुणों का।८। 
सूरज बाँका 
दीवाना है उषा का 
मुट्ठी भर गुलाल 
कपोलों पर
 लगाया, मुस्कुराया 
शोख उषा शर्माई।९। 
• 
आवारा मेघ 
कर रहा था पीछा 
देख अकेला दौड़ा 
हाथ न आई 
दामिनी ने गिराई 
जमकर बिजली।१०। 
• 
हवलदार 
पवन ने जैसे ही 
फटकार लगाई। 
बादल हुआ 
झट नौ दो ग्यारह 
धूप खिलखिलाई।११। 
• 
महकी कली 
गुनगुनाते गीत 
मँडराए भँवरे। 
गे किसके 
आशिक हरजाई 
बेईमान ठहरे।१२। 
• 
घर ना घाट 
सन्यासी सा पलाश 
ध्यानमग्न, एकाकी। 
ध्यान भग्न 
करना चाहे संध्या 
दिखला अदा बाँकी।१३। 
• 
सतत बही 
जो जलधार वह 
सदा निर्मल रही। 
ठहर गया 
जो वह मैला हुआ 
रहो चलते सदा।१४। 
• 
पंकज खिला 
करता नहीं गिला 
जन्म पंक में मिला। 
पुरुषार्थ से 
विश्व-वंद्य हुआ 
देवों के सिर चढ़ा।१५। 
१५-६-२०२२ 
दोहा सलिला-
ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि
निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि
*
परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त
परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त
*
ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान
हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान
*
भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच
है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच
*
काया-स्थित ब्रम्ह ही, 'कायस्थ' ले जो जान
छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान
*
राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक
ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक
*
निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ
तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ
*
कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव
भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव
*
पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान
ईश तत्व से रास कर, करे 'सलिल' गुणगान
*
सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान
आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान
*
चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान
चारों का पालन करें, नर-नारी है आन
*
हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य
स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य
*
रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप
ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप
*
काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष
जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष
*
विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम
जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम
***
नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो
हुई नाक में
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर
एक-दूसरे को
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे
दिल दुखते हैं
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें
एक-दूसरे बिन
ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर
जब मैं-तुम
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं
एक-दूसरे में
खो-पा हम।
१०-६-२०१६
TIET JABALPUR
***
नवगीत:
बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
*
१२.६.२०१५
४०१ जीत होटल बिलासपुर
***
छंद सलिला:
धारा छंद
*
छंद लक्षण: जाति महायौगिक, प्रति पद २९ मात्रा, यति १५ - १४, विषम चरणांत गुरु लघु सम चरणांत गुरु।
लक्षण छंद:
दे आनंद, न जिसका अंत , छंदों की अमृत धारा
रचें-पढ़ें, सुन-गुन सानंद , सुख पाया जब उच्चारा
पंद्रह-चौदह कला रखें, रेवा-धारा सदृश बहे
गुरु-लघु विषम चरण अंत, गुरु सम चरण सुअंत रहे
उदाहरण:
१. पूज्य पिता को करूँ प्रणाम , भाग्य जगा आशीष मिला
तुम बिन सूने सुबहो-शाम , 'सलिल' न मन का कमल खिला
रहा शीश पर जब तक हाथ , ईश-कृपा ने सतत छुआ
छाँह गयी जब छूटा साथ , तत्क्षण ही कंगाल हुआ
२. सघन तिमिर हो शीघ्र निशांत , प्राची पर लालिमा खिले
सूरज लेकर आये उजास , श्वास-श्वास को आस मिले
हो प्रयास के अधरों हास , तन के लगे सुवास गले
पल में मिट जाए संत्रास , मन राधा को रास मिले
३. सतत प्रवाहित हो रस-धार, दस दिश प्यार अपार रहे
आओ! कर सोलह सिंगार , तुम पर जान निसार रहे
मिली जीत दिल हमको हार , हार ह्रदय तुम जीत गये
बाँटो तो बढ़ता है प्यार , जोड़-जोड़ हम रीत गये
***
पितृ दिवस पर-
पिता सूर्य सम प्रकाशक :
*
पिता सूर्य सम प्रकाशक, जगा कहें कर कर्म
कर्म-धर्म से महत्तम, अन्य न कोई मर्म
*
गृहस्वामी मार्तण्ड हैं, पिता जानिए सत्य
सुखकर्ता भर्ता पिता, रवि श्रीमान अनित्य
*
भास्कर-शशि माता-पिता, तारे हैं संतान
भू अंबर गृह मेघ सम, दिक् दीवार समान
*
आपद-विपदा तम हरें, पिता चक्षु दें खोल
हाथ थाम कंधे बिठा, दिखा रहे भूगोल
*
विवस्वान सम जनक भी, हैं प्रकाश का रूप
हैं विदेह मन-प्राण का, संबल देव अनूप
*
छाया थे पितु ताप में, और शीत में ताप
छाता बारिश में रहे, हारकर हर संताप
*
बीज नाम कुल तन दिया, तुमने मुझको तात
अंधकार की कोख से, लाकर दिया प्रभात
*
गोदी आँचल लोरियाँ, उँगली कंधा बाँह
माँ-पापा जब तक रहे, रही शीश पर छाँह
*
शुभाशीष से भरा था, जब तक जीवन पात्र
जान न पाया रिक्तता, अब हूँ याचक मात्र
*
पितृ-चरण स्पर्श बिन, कैसे हो त्यौहार
चित्र देख मन विकल हो, करता हाहाकार
*
तन-मन की दृढ़ता अतुल, खुद से बेपरवाह
सबकी चिंता-पीर हर, ढाढ़स दिया अथाह
*
श्वास पिता की धरोहर, माँ की थाती आस
हास बंधु, तिय लास है, सुता-पुत्र मृदु हास
***
सूर्य के २१ नाम
१ विकर्तन (विपत्तिनाशक), २ विवस्वान (प्रकाश रूप), ३ मार्तंड, ४. भास्कर, ५ रवि, ६ लोकप्रकाशक, ७ श्रीमान, ८. लोक चक्षु, ९ गृहेश्वर, १० लोक साक्षी, ११ त्रिलोकेश, १२ कर्ता, १३ हर्ता, १४ तमिस्त्रहा (अंधकारनाशक), १५ तपन, १६ तापन, १७१७ शुचि (पवित्र), १८ सप्ताश्ववाहन, गभस्तिहस्त (किरणें जिनके हाथ स्वरूप हैं, २० ब्रह्मा, सर्वदेवनमस्कृत।
१५-६-२०१४
***
गीत : भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ.
अंक में सर धर तुम्हारे,
एक टक तुमको निहारूँ.....

नयन उन्मीलित, अधर कंपित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...

हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...

बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा, उसको बिसारूँ...

बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ, पी कहँ? पुकारूँ...

पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
१५-६-२०१०
***