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सोमवार, 11 अप्रैल 2022

तैत्तिरीयोपनिषद

ॐ तैत्तिरीयोपनिषद
(कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक के १० अध्यायों में से ७ वाँ , ८ वाँ, ९ वाँ अध्याय)
*
शांति पाठ 
हों हमें कल्याणकारी, मित्र दिवस-सुप्राण मुखिया। 
वरुण रात्रि-अपान मुखिया, अर्यमा रवि-चक्षु मुखिया।।
बल-भुजामय इंद्र शुभ हों, वाक्-मतिमय बृहस्पति भी। 
दीर्घ डगमय विष्णु शुभ हों, नमन आत्म स्वरूप ब्रह्मण।।
नमस्ते हे वायु! तुम विधि, ऋत-अधिष्ठाता कहूँ मैं।
अधिष्ठाता सत्य के हे!, सत्य कहता; करो रक्षा।।
आचार्य की; मेरी करे, रक्षा मेरी आचार्य की ।।  
।। ॐ दैहिक-दैविक-भौतिक शांति ॐ ।।  
शिक्षा वल्ली
(इसमें वर्णित शिक्षानुसार जीवन व्यतीत करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में सर्वोत्तम फल पाकर ब्रह्म विद्या ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है।)
 अनुवाक १ 
शांति पाठ 
हों हमें कल्याणकारी, मित्र दिवस-सुप्राण मुखिया। 
वरुण रात्रि-अपान मुखिया, अर्यमा रवि-चक्षु मुखिया।।
बल-भुजामय इंद्र शुभ हों, वाक्-मतिमय बृहस्पति भी। 
दीर्घ डगमय विष्णु शुभ हों, नमन आत्म स्वरूप ब्रह्मण।।
नमस्ते हे वायु! तुम विधि, ऋत-अधिष्ठाता कहूँ मैं।
अधिष्ठाता सत्य के हे!, सत्य कहता; करो रक्षा।।
आचार्य की; मेरी करे, रक्षा मेरी आचार्य की ।।  
।। ॐ दैहिक-दैविक-भौतिक शांति ॐ ।।
*
अनुवाक २  
अब करते शिक्षा का वर्णन। शुद्ध कहें स्वर वर्ण मात्रा। 
मंत्र गान विधि; संधि आदि भी, तब शिक्षा अध्याय पूर्ण हो।।
*
अनुवाक ३  
ब्रह्म-तेज-यश साथ ही बढ़े, हम दोनों गुरु और शिष्य का। 
करें संहिता और उपनिषद की व्याख्या हम पंच संधि सह।। 

स्वर व्यंजन रस विसर्ग अनुस्वर, लोक ज्योति विद्या प्रज्ञात्मा।
पढ़ ज्योतिष-आध्यात्म समझ लें, महासंहिता प्रथम लोक की।। 
 
लोकसंहिता का वर्णन यह, धरती पहले; स्वर्ग बाद में। 
अंतरिक्ष है संधि बीच में, वायु इन्हीं का संयोजक है।  

अब कहते हैं ज्योति संहिता, पूर्वरूप पावक; रवि उत्तर। 
संधि सलिल; विद्युत् संयोजक, ज्योति संहिता कही गयी यह। 
यह विद्या संहिता सुनें सब, पहले गुरु है शिष्य बाद में। 
विद्या संधि; संधिका प्रवचन, यह विद्या संहिता कही है।। 

प्रजा संहिता- पूर्व वर्ण है, माता उत्तर वर्ण पिता है। 
है संतान संधि; प्रजनन संधान; प्रजा संहिता यही है।।

आत्म संहिता नीचे-ऊपर, जबड़ा जो पूर्वोत्तर है वह। 
वाक् संधि संधान जीभ है, आत्म संहिता कही गयी यह।।      
पाँच महासंहिता कहीं यह, जो जन इन्हें जान लेता है। 
पा संतति पशु ब्रह्म तेज अरु, अन्न स्वर्ग में रहे प्रतिष्ठित।
*
अनुवाक ४     
जो वेदों में सर्वश्रेष्ठ है, विश्वरूप है; अमृतवत है। 
छंदरूप में प्रगट हुआ वह, इंद्र मुझे मेधामय कर दे।

प्रभु! मैं अमिय धर सकूँ हृद में, तन निरोग हो; जिह्वा मधुर हो। 
कान अधिकतम सुनें देव हे!, मति से रक्षा करूँ 'सुने' की।

लाए-बना-बढ़ा दे झट जो, वसन-गाय खाद्यान्न हमेशा।
मेरे-अपने लिए वही श्री, हे परमेश्वर मुझको ला दे।

ब्रह्मचारियों आओ स्वाहा, हों निष्कपट ज्ञान गह स्वाहा। 
इन्द्रिय-दमन करें सब स्वाहा, मन वश में कर पाएँ स्वाहा

लोगों में यश पाऊँ स्वाहा, धन धनिकों से ज्यादा स्वाहा। 
मैं-प्रभु में, प्रभु मुझमें स्वाहा, लीन बहुभुजी में हो स्वाहा। 

सलिल-धार ज्यों मिले सिंधु में, माह मिलें ज्यों संवत्सर में। 
मिलें ब्रह्मचारी मुझको प्रभु!, तू मुझमें ही रहे प्रकाशित।।
*
अनुवाक ५  
व्याहृति तीन 'भू भुवः स्वः' 'मह', चौथी चमस-पुत्र ने जानी। 
वही ब्रह्म है; सबकी आत्मा, अंग शेष सुर, 'भू' यह धरती।

अंतरिक्ष है 'भुव:' और 'स्व:', स्वर्ग लोक; 'मह' है रवि जानो।
सभी लोक करता आलोकित, सदा सदा आदित्य देव ही।

'भू' पावक है; 'भुव:' पवन है, 'स्व:' रवि, 'मह' शशि व्याहृति जानो। 
सकल ज्योतियाँ महिमामंडित, चंद्र देव से ही हैं होती।।

'भू' 'ऋच'; 'भुव:' साम; 'स्व:' यजु है, 'मह'; है ब्रह्म सत्य यह समझो। 
महिमावान वेद सब होते, ब्रह्म देव से सदा सदा ही।

'भू-भुव' 'प्राण-'अपान' जानिए, 'स्व:-मह' व्यान-अन्न को जानें। 
होते प्राण सभी संजीवित, मात्र अन्न से यही सत्य है।

एक-एक व्याहृति के होते, चार प्रकार; योग कुल सोलह। 
जो यह जाने; ब्रह्म जानता, देव भेंट दें आकर उसको।।
*
अनुवाक ६   

ह्रदय मध्य आकाश में बसा, जो वह शुद्ध प्रकाश सदृश है। 
वह अविनाशी है मनबसिया, परम् पुरुष परमेश्वर है वह।

तालु मध्य में रहे लटकता, स्तनवत जो उसके भीतर। 
केश मूल में ब्रह्मरंध्र है, भेद कपाल सुषुम्ना निकली। 

इंद्र योनि वह ब्रह्म-प्राप्ति पथ, अंतकाल में साधक जाते।  
'भू' पावक; 'भुव' पवन, 'स्व' हैरवि, 'मह' है ब्रह्म जान अपनाते।।

पा स्वराज्य मन-वाणी पति हो, नयन-कान विज्ञान सुस्वामी। 
पूर्व बताई गयी साधना, करने से यह संभव होता।।
*
अनुवाक ७  

पृथ्वी अंतरिक्ष द्यौ दिश अरु, दिशा अवांतर पंचलोक ये। 
पावक पवन भास्कर चंदा, नखत ज्योति समुदाय पाँच हैं।। 

जल औषध तरु-पौध नभात्मा, स्थूल पदार्थ पाँच समवर्गी। 
यह वर्णन अधिभूत दृष्टि से, अब आध्यात्म दृष्टि से जानें।    
      
पंच प्राण हैं- प्राण व्यान अरु, अपान उदान समान सुवर्गी। 
नेत्र कान मन वाक् त्वचा हैं, पाँच करण मानव शरीर में।

पाँच धातुएँ चर्म मांस अरु, नाड़ी हड्डी मज्जा मिलकर। 
कल्पित कर यह सब ऋषि बोले- यह सब निश्चय एक पंक्ति है।

हो आध्यात्मिक पंक्ति पूर्ण जब, बाह्य पंक्ति उससे आ मिलती। 
बाह्य पंक्ति को करती पूरा, है आध्यात्मिक पंक्ति सहज ही।
*
अनुवाक ८ 

ॐ ब्रह्म है ॐ सब जगत; ॐ अक्षर है; अनुमोदन है। 
हे आचार्य! सुनाएँ मुझको, कहा शिष्य ने- कहें ॐ गुरु।।

बाद ॐ के सामवेदगाता गाते हैं सामवेद को। 
ॐ ॐ कहकर ही शास्ता शस्त्रमंत्र का पाठ पढ़ाते।।
करें ॐ उच्चारण ऋत्विक अर्ध्वयु प्रतिगर मंत्र पढ़े फिर। 
कहे ॐ ब्रह्मा अनुमति दे, अग्निहोत्र करने की तब ही।। 
पूर्व अध्ययन शुभारंभ के, कहे विप्र भी ॐ सर्वदा। 
बाद वेद-मति चाहे तो वह, वैदिक विद्या पाए निश्चय।।

अनुवाक ९   

सदाचार स्वाध्याय बोल सच, पढ़ें-पढ़ाएँ वेद; तप करें। 
इन्द्रिय दमन; मनोनिग्रह कर, पढ़ें-पढ़ाएँ वेद साथ में।।
 
अग्नि चयन फिर अग्निहोत्र कर, मनुजोचित व्यवहार कीजिए। 
कर सत्कार अतिथि का संग में, वेद पढ़ाएँ-पढ़ें हमेशा।।

गर्भाधान-प्रजन जब हो तब, वेद शास्त्र भी पढ़ें-पढ़ाएँ।
सत्यवचा सुत राथीतर का, कहे तपस्या सबसे उत्तम।

तपोनित्य पुरुशिष्ट पुत्र भी, कहे वेद अध्ययन श्रेष्ठ है। 
मुद्गल सुत मुनि नाक भी कहें, वेद पाठ सर्वोत्तम तप है।     
                                                                                                                                                                                                              अनुवाक १० 

जग-तरु का उच्छेद कर रहा, मेरा यश उन्नत पर्वत सम। 
अन्नोत्पादक शक्ति युक्त रवि, जैसे मैं अमृत स्वरूप हूँ। 

हूँ प्रकाशमय धनागार  भी, अमृत-सिंचित; श्रेष्ठ बुद्धिमय। 
ऋषि त्रिशंकु अनुभूत वचन यह, वैदिक प्रवचन आत्मोद्धारक।

अनुवाक  ११ 



अनुवाक १२ 
दिवस-प्राण प्रभु मित्र शुभद हों, वरुण ईश रजनी-अपान के। 
शुभद अर्यमा नयन-सूर्य प्रभु, हमें हमेशा हों परमेश्वर!
भुज-बल दाता इंद्र करें शुभ, शांति मिले; मति-वाणी प्रभु गुरु।
दीर्घ डगी हरि कल्याणद हो, नमस्कार हे ब्रह्मण आत्मद।।
नमस्कार हे वायुदेव! प्रत्यक्ष ब्रह्म हे! ऋत के मुखिया। 
सत्य ईश ने कहा कीजिए, रक्षा मेरी आचार्यों की।। 
अवादिषम् हे! करी ब्रह्म ने,  मेरी आचार्यों की रक्षा। 
रक्षण मुझको-आचार्यों को, शांति शांति दो शांति सभी को।.  
***

ब्रह्मानंद वल्ली    
 
शांतिपाठ 
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ब्रह्म कीजिए रक्षा-पालन, साथ-साथ हम शक्ति भी वरें। तेजोमयी पढ़ी विद्या हो, आपस में मत द्वेष करें।।

अनुवाक १  

ब्रह्मवेत्ता पा लेता है, परम ब्रह्म को कहती है श्रुति। 
है सत्-ज्ञान-अनंत ब्रह्म ही, ह्रदय गुहा-नभ में भी रहता।।

जो कोई जानता उसे है, भोग भोगता साथ ब्रह्म के।
निश्चय ही उस परमात्मा से, सर्वप्रथम आकाश ही हुआ।।

नभ से वायु, वायु से पावक, पावक से जल, जल से धरती।
धरती से औषधियाँ जन्मीं, औषधियों से जन्म अन्न का।।
    
देह मनुज की बनी अन्न से, बनी अन्न-रस से निश्चय ही। 
मनुज एक पक्षी मानें यदि, शीश मनुज का पक्षी का सर।। 

दायीं-बायीं भुजा पंख हैं, मध्य भाग पक्षी की आत्मा। 
दोनों पैर पूँछ पक्षी की, श्लोक अन्न की महिमा कहता।।

अनुवाक २

प्राणी उपजते अन्न से ही, जो कोई रहते पृथ्वी पर। 
जीवित रहते अन्न ग्रहण कर, हो जाते हैं लीन अन्न में।।   
 
सब भूतों में ज्येष्ठ अन्न है, सर्वोत्तम औषध यह ही है।
जो साधक उपासते इसको, पा सकते सर्वस्व अन्न को।।

सब भूतों में श्रेष्ठ अन्न है, सर्वौषध इसलिए कहा है। 
हों उत्पन्न अन्न से प्राणी, और अन्न से ही बढ़ते हैं।। 

प्राणी उसको; वह प्राणी को, खाते हैं अरु खाया जाता। 
अन्न अन्न को इसीलिए ही, कहा हमेश ही जाता है।।

बना अन्न-रस से जो तन वह, निश्चय भिन्न प्राण-आत्मा से। 
अन्न पुरुष में व्याप्त आत्म है, अन्न पुरुष के तनाकार सम। 

प्राण आत्म का है यह सर ही, पंख दाहिना व्यान सुनिश्चित। 
बाँया पक्ष अपान जानिए, आत्मा तन का मध्य भाग है।।

पृथ्वी है आधार पूँछ सम, श्लोक प्राण की महिमा कहता।।
प्रश्न उपनिषद मंत्र पाँचवा, मंत्र आठवाँ भी यह कहता।।

अनुवाक ३ 

देव मनुज पशु प्राण-अनुसरण, कर ही जीवित रह पाते हैं। 
आयु जीव की प्राण संग ही, प्राण आयु भी कहलाते हैं।।

सत्य समझ जो प्राण पूजते, निस्संदेह आयु पाते हैं। 
तन वासी आत्मा पहले के, तन में रही अंतरात्मा है।।

निश्चय पुरुष प्राणमय से है, भिन्न आत्मा भीतरवासी। 
प्राण आत्म है व्याप्त पूर्णत:, मनमय आत्मा से सच जानें।।

है समान यह पुरुष देह के, चूँकि व्याप्त है पुरुष देह में।    
यजुर्वेद सर मनमय मनु का, पंख दाहिना वेद 'ऋग' कहें।।

सामवेद ही पंख वाम है, आत्मा तन का मध्य भाग है। 
मंत्र अथर्व अंगिरा ऋषि ने, जो देखे आधार पूँछ हैं।।

अनुवाक ४  

जिसे न पा मन वाणी लौटें, जो वह ब्रह्मानंद जानता। 
हो भयहीन; मनोमय पुरु ही, आत्मा प्राण-तनों का जानें।।

मनमय में विज्ञानात्मा है,  व्याप्त उसी से मनमय तन है। 
विज्ञानात्मा पुरुषाकारी, पुरुषाकृति के ही अनुगत है।। 
  
श्रद्धा सर विज्ञानात्मा का, ऋत-सत पंख दाहिने-बाएँ। 
योग मध्य तन; पुच्छ 'मह:' है; तद्विषयक है मंत्र-श्लोक यह।।

अनुवाक ५ 

विज्ञान करे विस्तार यज्ञ का, और करे विस्तार कर्म का। 
है विज्ञान देव से सेवित, श्रेष्ठ सभी से ब्रह्म-रूप में।।

जाने विज्ञानात्म ब्रह्म है, तज प्रमाद नित करता चिंतन। 
तन-अभिमान त्यागकर तन में, करता अनुभव सब भोगों का।। 

इस प्रकार यह श्लोक बताता, है विज्ञान रूप आत्मा विधि। 
तन-अभिमान पाप तज तन में, दिव्य भोग का अनुभव करता।।

जो विज्ञानमयी जीवात्मा, उसमें पूरी तरह व्याप्त है। 
सम आकारिक आनंदात्मा, पुरुषाकार कही जाती वह।। 

शीश भाव प्रिय; दाँया-बाँया पर है मोद-प्रमोद जानिए। 
मध्य भाग आनंद ब्रह्म का, पूँछ तथा आधार ब्रह्म है।। 

अनुवाक ६ 

समझ रहा जो ब्रह्म नहीं है, वह हो जाता असत निम्नतम। 
जिसे भरोसा ब्रह्म सत्य है, ज्ञानी उसको संत समझते।।    
    
उस आनंदमयी की आत्मा, हैं आनंदमयी ही जानें। 
भेद शरीरी-अशरीरी का, यहाँ न होता है अभिन्नता।।

अब अनुप्रश्न - न ब्रह्म मानता, असत कहाँ जाता है मरकर?
और ब्रह्म को मान रहा जो, वह विद्वान् कहाँ जाता है??
 
मैं प्रकटूँ यह सोच ब्रह्म ने, तपकर रूप अनेक बनाए। 
विस्तारा संकल्प जगत रच, हुआ प्रविष्ट उसी में खुद भी।।

हुआ मूर्त भी अरु अमूर्त भी, वह निरुक्त-अनिरुक्त भी हुआ। 
वही निलय-अनिलय; चेतन-जड़, हुआ सतासत भी वह खुद ही।।

जो कुछ दिखता सिर्फ सत्य है, ग्यानी कहते अर्थ श्लोक का।

अनुवाक ७ 

प्रगट न था जब सूक्ष्म-स्थूल जग, था अव्यक्त रूप जड़-चेतन। 
जड़-चेतन में खुद से खुद ही,  प्रकट ब्रह्म 'सुकृत' कहलाया।।

सुकृत रस-आनंद गगन सम, व्यापक है आनंद रूप में। 
अगर नहीं तो कौन जियेगा?, कौन करेगा क्रिया प्राण की??

अदिखे-अकहे अरु अनिलय को, पा लेता है जीवात्मा जब। 
तब हो जाता है निर्भय वह, शोकरहित भी हो जाता है।। 

जब तक यत्किंचित भी दूरी, रहे ब्रह्म से- तब तक भय हो।
अभिमानी विद्वान जनों से, यही श्लोक में कहा गया है।।

अनुवाक ८   
   
पवन ब्रह्म के भय से चलता, सूर्य ब्रह्म के भय से उगता। 
अग्नि इंद्र अरु मृत्यु इन्हीं के, भय से अपने काम कर रहे।।

यह विमर्श आनंद हेतु ज्यों, युवक साधु वेदज्ञ प्रशासक। 
दृढ़ बलिष्ठ संपन्न भूमिपति, मनुज लोक का महानंद है।। 

मानव के सौ आनंदों सम, एक मनुजगंधर्वों का है। 
वेदविज्ञ मनु को स्वभावत:, वह आनंद प्राप्त होता है।।

शतानन्द मनुगंधर्वों के, एक देवगन्धर्वों का है। 
काम्य नहीं आनंद जिसे वह, पा लेता स्वभावत: इसको। 

शतानन्द सुरगन्धर्वों के, मिल हों एक दिव्यपितरों का। 
चाहे जो न विरक्त पितर वह, अपने आप इसे पा लेता।। 

दिव्यपितर के शतानन्द मिल, आजानज देवों का एक।  
उदासीन जो दिव्यपितर हों, उनको बिन प्रयास मिल जाता।। 

आजानज के शतानन्द हों, एकानंद कर्मदेवों का। 
शेष न भोगेच्छा है जिनमें, कर्मदेव वे पा लेते हैं।। 

सौ आनंद कर्मदेवों के, मिल आनंद एक देवों का।  
जो निष्काम विरक्त देव वे, अपने आप इसे पा लेते।। 

देवगणों के शतानन्द सम, एकानंद इंद्र का होता। 
भोग कामना जो न करे वह, इंद्र आप ही पा लेता है।। 

शत आनंद इंद्र के मिल हों, एकानंद बृहस्पति जी का। 
नहीं चाह जिस ब्रह्स्पती में, हो आनंद प्राप्त उसको ही।। 

शत आनंद बृहस्पति के मिल, एकानंद प्रजापति का है।
भोगानन्द प्रजापति का जो, नहीं चाहता उसे प्राप्त हो।।   
 
सौ आनंद प्रजापति के मिल, ब्रह्मा का आनंद एक हो। 
चाह न रखता जो मनुष्य वह, अपने आप इसे पा लेता।।  

ब्रह्म मनुज में जो रवि में भी, भिन्न न एक; जानता है जो। 
नर-तन छोड़ बिदा हो जब वह, अन्नमयी आत्मा पा लेता।

प्राणमयी आत्मा पा लेता, मनोमयी आत्मा पा लेता।     
विज्ञानमय आत्म पा लेता, आनंदमय आत्मा पा लेता।। 

अनुवाक ९ 

वाक् इंद्रियाँ उसे न पाकर, मन के साथ लौट आती हैं। 
ब्रह्मानंद जानता जो वह, भय न किसी से किंचित करता।।

सज्जन करते भीति न चिंता, पाप क्यों किया, पुण्य नहीं क्यों?
पुण्य-पाप संताप-हेतु, जो जाने- रक्षा करे आत्म की।।

***
भृगुवल्ली 

अनुवाक १ 

पिता वरुण से भृगु बोला- 'पितु!, दें उपदेश ब्रह्म का मुझको। 
कहा वरुण ने अन्न प्राण अरु, चक्षु-श्रोत्र-मन-वाक् द्वार हैं।।

होते हैं उत्पन्न भूत सब, जिनसे; जिएँ सहारे जिनके। 
जिसमें हों प्रविष्ट जीवन जी, उसको जानो ब्रह्म वही है।।

अनुवाक २ 

तप कर भृगु ने 'अन्न' ब्रह्म है, जाना प्रगटें-पल-मिल जाते। 
जीव अन्न में, कहा वरुण से: 'अन्न ब्रह्म' यह मैंने जाना।।

देख वरुण को मौन; कहे भृगु: 'भगवन! ब्रह्म बताएँ मुझको'।
बोला वरुण: 'तत्व को जानो, तप कर; तप ही ब्रह्म जान लो।।

अनुवाक ३ 

तप कर अब यह भृगु ने जाना, 'प्राण' ब्रह्म; उत्पन्न प्राण से
प्राणी होते; जीवन जीते, लीन प्राण में ही हो जाते।।

कहा पिता से; मौन देख फिर' करी प्रार्थना: 'ब्रह्म बताएँ'।
ऋषि ने कहा: 'जान तू तपकर', करने लगा तपस्या फिर भृगु।।

अनुवाक ४ 

'मन' है ब्रह्म; इसी से जन्में, जीवन जी;  मर मिलें इसी में। 
सत्य समझ यह वरुण गया फिर, भृगु के निकट यही बतलाया।।

भृगु को मौन देख विनती की: 'भगवन! मुझको ब्रह्म बताएँ। 
'जान तत्वत: तप कर ही तू', ऋषि बोले; तप किया पुत्र ने।।                                                                                  

अनुवाक ५ 

अब जाना 'विज्ञान ब्रह्म है, जन्में-पलें-मिलें मर इसमें'।
कहा वरुण से; मिला न उत्तर, विनय करे भृगु 'उपदेशें प्रभु!'।

'जान ब्रह्म को तप के द्वारा', आज्ञा पा तप-लीन हुआ फिर। 
बोध तपस्या कर जो पाया, भिन्न पूर्व से थी प्रतीति यह।

अनुवाक ६ 

है 'आनंद' ब्रह्म; यह जाना, उपजें-जिएँ-विलीन इसी में 
होते जीव सभी; यह भृगु ने, जाना सत्य वरुण के द्वारा।।

जो जाने यह सत्य; न शंका शेष रहे;  वह खुद भी 'सत' हो।  
सुख-समृद्धि-संतान-कीर्ति-पशु, पा भोगे; हो महान भी वह।।

अनुवाक ७    

कभी न निंदा करें अन्न की, व्रत है अन्न, प्राण भी है वह। 
अन्न-भोsक्ता है तन; तन में प्राण प्रतिष्ठित; अन्न प्राण है।।

यह रहस्य जो जान गया वह, अन्नवान-अन्नाद हो सके।
युक्त प्रजा-पशु-ब्रम्हतेज से, हो पा कीर्ति महान वह बने।।

अनुवाक ८

अवहेला मत करें अन्न की, वह व्रत जल है; और ज्योति है।
जल में ज्योति; ज्योति में जल है, वही अन्न में हुई प्रतिष्ठित।।

इस रहस्य को जो जाने वह, अन्नवान-अन्नाद कहाता।
पा संतान तेज पशु कीरति, वह सच ही महान हो जाता।।

अनुवाक ९

व्रत है अन्न; बढ़ाएँ उसको, पृथ्वी अन्नाधार प्रतिष्ठित।
नभ में भू है; अन्न भूमि में, मनुज अन्न में जो जाने यह।।

अन्नवान-अन्नाद वही हो, पा संतान-तेज-पशु यश वह।
सकल जगत में रहे प्रतिष्ठित, हो जाता महान वह खुद ही।।

अनुवाक १०

व्रत- कटु वचन न कहें अतिथि से, अन्न प्रचुर ला उचित राह से।
भोज कराए प्रेम सहित यदि, प्रचुर अन्न दाता को मिलता।।

मध्यम श्रद्धा-प्रेम अतिथि प्रति, मध्यम राह अन्न तब आता।
हीन भाव यदि अतिथि के लिए, अन्न निकृष्ट राह अपनाता।।

इस रहस्य को जो जाने वह, सद्व्यवहार अतिथि से करता।
सर्वोत्तम फल अन्न देव की, परम कृपा से उसको मिलता।।

ब्रह्माशीष वाक् बन रक्षे, प्राण-अपान शक्ति जीवन की।
कर्म करें कर; चलते हैं पग, गुदा तजे मल-शक्ति ईश दे।

यही मानुषी सामाज्ञा है, आध्यात्मिक उपासना यह ही।
दैविक तत्वों से जो मिलती, वही आधिदैविक उपासना।।

तृप्ति वृष्टि में; बल विद्युत में, यश पशुओं में, ज्योति नखत में।
संतति प्रजनन बल उपस्थ में, वीर्यामृत आनंदप्रदाता।।

है सबका आधार गगन यह, सब विभूतियाँ  हैं प्रभु की ही।
प्रभु व्याप्त सर्वत्र; सभी में, रक्षा करें सभी की प्रभुवत।।

मान प्रतिष्ठित प्रभु पूजे तो, साधक आप प्रतिष्ठा पाता।
हैं महान वह जिसको पूजा, मान महान आप हो जाता।।

अगर उपासे मन कहकर तो, होता मननशक्ति मय खुद भी।
नमनयोग्य कह प्रभु पूजे तो, भोग सभी होते विनीत हैं।।

ब्रह्म समझ करता उपासना, जो वह ब्रह्मवान होता है।
प्रभु को दण्डक कह पूजें तो, शत्रु उपासक के मिट जाते।।

जो मानव में; वही सूर्य में, एक ब्रह्म जो जान सके वह
अन्न-प्राण-मन-विज्ञानंदी, हो कामान्नी-कामरूप भी।।

सब लोकों में विचरण करता, करता गायन साम का सदा।
वह तब तन में रहे न सीमित, हो ऐकत्व ब्रह्म से उसका।।

अचरज मैं हूँ अन्न; अन्न का भोक्ता हूँ; संयोजक भी हूँ।
हूँ प्रत्यक्ष जगत का ब्रह्मा, जन्म देवों से भी पहले।।

दे-रक्षे जो इसी कार्यवश, वह मेरी रक्षा करता है।
जो खुद भक्षे अन्न; उसे हो अन्न रूप भक्षण करता हूँ।।

करूँ भुवन का तिरस्कार मैं, झलक तेज की सूर्य सरीखी।  
जो यह जाने वह मुझ सम हो, पूर्ण ब्रह्म विद्या अब होती।।
 
शांति पाठ 
  
दिवस-प्राण प्रभु मित्र शुभद हों, वरुण ईश रजनी-अपान के। 
शुभद अर्यमा नयन-सूर्य प्रभु, हमें हमेशा हों परमेश्वर!
भुज-बल दाता इंद्र करें शुभ, शांति मिले; मति-वाणी प्रभु गुरु।
दीर्घ डगी हरि कल्याणद हो, नमस्कार हे ब्रह्मण आत्मद।।
नमस्कार हे वायुदेव! प्रत्यक्ष ब्रह्म हे! ऋत के मुखिया। 
सत्य ईश ने कहा कीजिए, रक्षा मेरी आचार्यों की।। 
अवादिषम् हे! करी ब्रह्म ने,  मेरी आचार्यों की रक्षा। 
रक्षण मुझको-आचार्यों को, शांति शांति दो शांति सभी को।.  
***

रविवार, 10 अप्रैल 2022

मुक्तिका, दोहा सलिला,राम, घनाक्षरी,कवित्त, नवगीत

मुक्तिका
अरे! चल हट।
कहा मत नट।।

नहीं कुछ दम
परे चल झट।
फरेब न कर

न भूल, न रट।
शऊर न तज

न दूर; न सट।
न नाव; न जल

नहीं नद-तट।
न हार; न जय

नहीं चित-पट।
न भाग; ठहर

जरा रुक-डट
१०-४-२०२२
•••
दोहा सलिला
आओ यदि रघुवीर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर

कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास

शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ

भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम

कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख

कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ

देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ

श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक

तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह

मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद

निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट

रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज

भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान

कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह

वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकली जान
१०-४-२०२०
***
घनाक्षरी या कवित्त
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूते चतुष्पद, रच घनाक्षरी आप्त..
अष्ट अक्षरी त्रै चरण, चौथे अक्षर सात .
लघु-गुरु मात्रा से करें, अंत हमेशा भ्रात..
*
चतुष्पदी मुक्तक छंद घनाक्षरी या छप्पय के पदों में वर्ण-संख्या निश्चित होती हैं किंतु छंद के पद वर्ण-क्रम या मात्रा-गणना से मुक्त होते हैं। किसी अन्य वर्णिक छंद की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) व्यवस्थित नहीं होते अर्थात पदों में गणों की आवृत्तियाँ नहीं होतीं।वर्ण-क्रम मुक्तता घनाक्षरी छंद का वैशिष्ट्य है। वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग से बचने के लिये सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्द तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्द समायोजित किये जाते हैं। वर्ण-गणना में व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त स्वर अर्थात संयुक्ताक्षर एक वर्ण माना जाता है।
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है। घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती। अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है। इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं। वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते। इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है। समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है। वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
१ वर्ण = न, व, या, हाँ आदि.
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण = पर्यावरण आदि.
६ वर्ण = वातानुकूलित आदि.
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
उदाहरण-
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
यहाँ 'शस्य' (२ वर्ण, ३ मात्रा = २१ ), के बाद 'श्यामला' (३ वर्ण, ५ मात्रा, रगण = २१२ = ३ + २) है। अतः 'शस्य' के त्रिकल, के ठीक बाद श्याम का त्रिकल सटीक व्यवस्था कर वाचन में लयभंग नहीं होने देता। ऐसी मात्रा-व्यवस्था घनाक्षरी के सभी पदों में आवश्यक है। घनाक्षरी छन्द के कुल नौ भेदों में मुख्य चार १. मनहरण, २. जलहरण, ३. रूप तथा ४. देव घनाक्षरी हैं।
मनहरण घनाक्षरी- चार पदों के इस छंद के प्रत्येक पद में कुल वर्ण-संख्या ३१ तथा पदांत में गुरु अनिवार्य है। लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है किंतु पदान्त लघु-गुरु हो तो लय सुगम हो जाती है। हर पद में चार चरण होते हैं। हर चरण में वर्ण-संख्या ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार होती है। पदांत में मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) वर्जित है।
अपवाद स्वरूप किसी चरण में वर्ण-व्यवस्था ८, ७, ९, ७ हो किंतु शब्द-कल का निर्वहन सहज हो अर्थात वाचन या गायन में लय-भंग न हो छन्द निर्दोष माना जाता है। सुविधा के लिये ३१ वर्ण की पद-यति १६-१५, १५, १६, १७-१४, १४-१७,१५-१६, १६-१५ या अन्य भी हो सकती है यदि लय बाधित न हो।
उदाहरण-
०२. हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ' प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें? यति १६-१५
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें?? यति १६-१५
यहां लय भंग नहीं है किन्तु शब्द-क्रम में यत्किंचित परिवर्तन भी लय भंग का हेतु बन जाता है।
'ममत्व की हो गोद या' को 'या गोद ममत्व की हो' अथवा 'गॉड या ममत्व की हो' किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता स्पष्ट है। तथा पद-प्रवाह सहज रहें.
उदाहरण-
- सौरभ पांडेय
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से - इकड़ियाँ जेबी से
०२. नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
- संजीव 'सलिल'
०३. फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
०४. गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
.
०५. कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
०६. न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
०७. चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.


१०-४-२०१९
***
नवगीत:
*
जाल न फैला
व्यर्थ मछेरे
मछली मिले कहाँ बिन पानी।
*
नहा-नहा नदियाँ की मैली
पुण्य, पाप को कहती शैली
कैसे औरों की हो खाली
भर लें केवल अपनी थैली
लूट करोड़ों,
बाँट सैंकड़ों
ऐश करें खुद को कह दानी।
*
पानी नहीं आँख में बाकी
लूट लुटे को हँसती खाकी
गंगा जल की देख गंदगी
पानी-पानी प्याला-साकी
चिथड़े से
तन ढँके गरीबीे
बदन दिखाती धनी जवानी।
*
धंधा धर्म रिलीजन मजहब
खुली दुकानें, साधो मतलब
साधो! आराधो, पद-माया
बेच-खरीदो प्रभु अल्ला रब
तू-तू मैं-मैं भुला,
थाम चल
भगवा झंडा, चादर धानी।
*
१०-४-२०१८
***
नवगीत:
करना होगा...

हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
नवगीत:
चलो! कुछ गायें...
*
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...

***
नवगीत:
करो बुवाई...

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
१०-४-२०१०
*

हाइकु राम, हाइकु गीत, राम,

श्रीराम पर हाइकु
*
मूँद नयन
अंतर में दिखते
हँसते राम।
*
खोल नयन
कंकर कंकर में
दिखते राम।
*
बसते राम
ह्रदय में सिय के
हनुमत के।
*
सिया रहित
श्रीराम न रहते
मुदित कभी।
*
राम नाम ही
भवसागर पार
उतार देता।
*
अभिनव प्रयोग
राम हाइकु
गीत
(छंद वार्णिक, ५-७-५)
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बल बनिए
निर्बल का तब ही
मिले प्रणाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सुख तजिए / निर्बल की खातिर / दुःख सहिए।
मत डरिए / विपदा - आपद से / हँस लड़िए।।
सँग रहिए
निषाद, शबरी के
सुबहो-शाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
मार ताड़का / खर-दूषण वध / लड़ करिए।
तार अहल्या / उचित नीति पथ / पर चलिए।।
विवश रहे
सुग्रीव-विभीषण
कर लें थाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
*
सिय-हर्ता के / प्राण हरण कर / जग पुजिए।
आस पूर्ण हो / भरत-अवध की / नृप बनिए।।
त्रय माता, चौ
बहिन-बंधु, जन
जिएँ अकाम।
क्षणभंगुर
भव सागर, कर
थामो हे राम।।
***
२५-१०-२०२१***

राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद


श्री राम रक्षा स्तोत्र दोहानुवाद



दोहा अनुवाद: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'



विनियोग

श्री गणेश-विघ्नेश्वर, रिद्धि-सिद्धि के नाथ ।
चित्र गुप्त लख चित्त में, नमन करुँ नत माथ।।
ऋषि बुधकौशिक रचित यह, रामरक्षास्तोत्र।
दोहा रच गाये सलिल, कायथ कश्यप गोत्र।।
कीलक हनुमत, शक्ति सिय, देव सिया-श्री राम।
जाप और विनियोग यह, स्वीकारें अभिराम।।

ध्यान


दीर्घबाहु पद्मासनी, हों धनु-धारि प्रसन्न।
कमलाक्षी पीताम्बरी, है यह भक्त प्रपन्न।।
नलिननयन वामा सिया, अद्भुत रूप-सिंगार।
जटाधरी नीलाभ प्रभु, ध्याऊँ हो बलिहार।।


श्री रघुनाथ-चरित्र का, कोटि-कोटि विस्तार।
एक-एक अक्षर हरे, पातक- हो उद्धार।१।

नीलाम्बुज सम श्याम छवि, पुलिनचक्षु का ध्यान।
करुँ जानकी-लखन सह, जटाधारी का गान।२।

खड्ग बाण तूणीर धनु, ले दानव संहार।
करने भू-प्रगटे प्रभु, निज लीला विस्तार।३।

स्तोत्र-पाठ ले पाप हर, करे कामना पूर्ण।
राघव-दशरथसुत रखें, शीश-भाल सम्पूर्ण।४।

कौशल्या-सुत नयन रखें, विश्वामित्र-प्रिय कान।
मख-रक्षक नासा लखें, आनन् लखन-निधान।५।

विद्या-निधि रक्षे जिव्हा, कंठ भरत-अग्रज।
स्कंध रखें दिव्यायुधी, शिव-धनु-भंजक भुज।६।

कर रक्षे सीतेश-प्रभु, परशुराम-जयी उर।
जामवंत-पति नाभि को, खर-विध्वंसी उदर।७।

अस्थि-संधि हनुमत प्रभु, कटि- सुग्रीव-सुनाथ।
दनुजान्तक रक्षे उरू, राघव करुणा-नाथ।८।

दशमुख-हन्ता जांघ को, घुटना पुल-रचनेश।
विभीषण-श्री-दाता पद, तन रक्षे अवधेश।९।

राम-भक्ति संपन्न यह, स्तोत्र पढ़े जो नित्य।
आयु, पुत्र, सुख, जय, विनय, पाए खुशी अनित्य।१०।


वसुधा नभ पाताल में, विचरें छलिया मूर्त।
राम-नाम-बलवान को, छल न सकें वे धूर्त।११।

रामचंद्र, रामभद्र, राम-राम जप राम।
पाप-मुक्त हो, भोग सुख, गहे मुक्ति-प्रभु-धाम।१२।

रामनाम रक्षित कवच, विजय-प्रदाता यंत्र।
सर्व सिद्धियाँ हाथ में, है मुखाग्र यदि मन्त्र।१३।

पविपंजर पवन कवच, जो कर लेता याद।
आज्ञा उसकी हो अटल, शुभ-जय मिले प्रसाद।१४।

शिवादेश पा स्वप्न में, रच राम-रक्षा स्तोत्र।
बुधकौशिक ऋषि ने रचा, बालारुण को न्योत।१५।

कल्प वृक्ष, श्री राम हैं, विपद-विनाशक राम।
सुन्दरतम त्रैलोक्य में, कृपासिंधु बलधाम।१६।

रूपवान, सुकुमार, युव, महाबली सीतेंद्र।
मृगछाला धारण किये, जलजनयन सलिलेंद्र।१७।

राम-लखन, दशरथ-तनय, भ्राता बल-आगार।
शाकाहारी, तपस्वी, ब्रम्हचर्य-श्रृंगार।१८।

सकल श्रृष्टि को दें शरण, श्रेष्ठ धनुर्धर राम।
उत्तम रघु रक्षा करें, दैत्यान्तक श्री राम।१९।

धनुष-बाण सोहे सदा, अक्षय शर-तूणीर।
मार्ग दिखा रक्षा करें, रामानुज-रघुवीर।२०।


राम-लक्ष्मण हों सदय, करें मनोरथ पूर्ण।
खड्ग, कवच, शर,, चाप लें, अरि-दल के दें चूर्ण।२१।

रामानुज-अनुचर बली, राम दाशरथ वीर।
काकुत्स्थ कोसल-कुँवर, उत्तम रघु, मतिधीर।२२।

सीता-वल्लभ श्रीवान, पुरुषोतम, सर्वेश।
अतुलनीय पराक्रमी, वेद-वैद्य यज्ञेश।२३।

प्रभु-नामों का जप करे, नित श्रद्धा के साथ।
अश्वमेघ मख-फल मिले, उसको दोनों हाथ।२४।

पद्मनयन, पीताम्बरी, दूर्वा-दलवत श्याम।
नाम सुमिर ले 'सलिल' नित, हो भव-पार सुधाम।२५।

गुणसागर, सौमित्राग्रज, भूसुतेश श्रीराम।
दयासिन्धु काकुत्स्थ हैं, भूसुर-प्रिय निष्काम।२६क।

अवधराज-सुत, शांति-प्रिय, सत्य-सिन्धु बल-धाम।
दशमुख-रिपु, रघुकुल-तिलक, जनप्रिय राघव राम।२६ख।

रामचंद्र, रामभद्र, रम्य रमापति राम।
रघुवंशज कैकेई-सुत, सिय-प्रिय अगिन प्रणाम।२७।

रघुकुलनंदन राम प्रभु, भरताग्रज श्री राम।
समर-जयी, रण-दक्ष दें, चरण-शरण श्री धाम।२८।

मन कर प्रभु-पद स्मरण, वाचा ले प्रभु-नाम।
शीश विनत पद-पद्म में, चरण-शरण दें राम।२९।

मात-पिता श्री राम हैं, सखा-सुस्वामी राम।
रामचंद्र सर्वस्व मम, अन्य न जानूं नाम।३०।


लखन सुशोभित दाहिने, जनकनंदिनी वाम।
सम्मुख हनुमत पवनसुत, शतवंदन श्री राम।३१।

जन-मन-प्रिय, रघुवीर प्रभु, रघुकुलनायक राम।
नयनाम्बुज करुणा-समुद, करुनाकर श्री राम।३२।

मन सम चंचल पवनवत, वेगवान-गतिमान।
इन्द्रियजित कपिश्रेष्ठ दें, चरण-शरण हनुमान।३३।

काव्य-शास्त्र आसीन हो, कूज रहे प्रभु-नाम।
वाल्मीकि-पिक शत नमन, जपें प्राण-मन राम।३४।

हरते हर आपद-विपद, दें सम्पति, सुख-धाम।
जन-मन-रंजक राम प्रभु, हे अभिराम प्रणाम।३५।

राम-नाम-जप गर्जना, दे सुख-सम्पति मीत।
हों विनष्ट भव-बीज सब, कालदूत भयभीत।३६।

दैत्य-विनाशक, राजमणि, वंदन राम रमेश।
जयदाता शत्रुघ्नप्रिय, करिए जयी हमेश।३७ क।

श्रेष्ठ न आश्रय राम से, 'सलिल' राम का दास।
राम-चरण-मन मग्न हो, भव-तारण की आस।३७ ख।३७ख।

विष्णुसहस्त्रनाम सम, पावन है प्रभु-नाम।
रमे राम के नाम में, सलिल-साधना राम।३८।३८।

मुनि बुधकौशिक ने रचा, श्री रामरक्षास्तोत्र।
'शांति-राज'-हित यंत्र है, भाव-भक्तिमय ज्योत।३९।

आशा होती पूर्ण हर, प्रभु हों सत्य सहाय।
तुहिन श्वास हो नर्मदा, मन्वंतर गुण गाय।४०।४०।


राम-कथा मंदाकिनी, रामकृपा राजीव।
राम-नाम जप दे दरश, राघव करुणासींव।४१।
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